लेखक ➩ महात्मा नारायण स्वामी
वेदों की रक्षा का प्रवन्ध
वेदों की रक्षा का जो पहला प्रवन्ध किया गया था वह वेदों का पाठ था । आट प्रकार के क्रम पाठ वर्णन में किये गये हैं :-
अष्टौ विकृतय: प्रोक्ता: क्रमपूर्वा मनीषिभि: ।।
जटा, माला, शिखा, लेखा, ध्वजो, दृण्डी, रथो, घनः।।
इन आठ क्रम पाठों में से जटा और दण्ड प्रधान हैं, क्योंकि जटा के पीछे चलने वाली शिखा है ‘और दण्ड की अनुसारिणी माला, लेखा, ध्वज और रथ हैं । घन उपर्युक्त जटा और दण्ड के पीछे चलता है। इन क्रम पाठों में कुछ और भैद करके, प्रत्येक मन्त्र के ग्यारह-ग्यारह प्रकार से पाठ करने का विधान किया गया है। ये पाठ काशी, मिथिला, नदिया और वम्वई तथा मद्रास आदि में आज भी होते है । वेद के एक-एक शब्दो को जव ग्यारह-ग्यारह वार पढ़ा जाता था तो किस प्रकार सम्भव हो सकता था कि उनमे किसी प्रकार की मिलावट हो सके । यहाँ हम सामवेद के पाठ का संक्षिप्त सा उदाहरण देते हैं, जिससे समझा जा सकें कि ये पाठ किस प्रकार हुआ करते हैं:-
- (१) क्रम पाठ ➞
भूः भुवः भुवः स्व:; स्व: तत्; तत् सवतुः ।
- (२) जटा पाठ ➞
भूः भुवः, भुव, भूः, भूः, भुवः; भुवः स्वः स्वः भुवः भुवः स्वः ।
- (३) घन पाठ ➞
२, ३,३, २,२, ३:४, ४,३; २,२, ३,
भूः भुवः भुवः; भूः भुवः भुवः; स्व. स्वः भुवः; भूः भूः भुवः स्वः।
यह पाठक्रम अत्यन्त प्राचीन काल से चला आता है । ऐतरेय आरएयक तथा प्रातिशाल्य आदि प्राचीन ग्न्थो मे उसका वर्णन है ।
श्री पं० सत्यत्रत सामश्रमी ने अपने प्रसिद्ध प्रन्थत्रयी परिचय में लिखा है, कि इन जटा आदि पाठो के नियम, व्याडि प्रणीत विकृति पल्ली नामक पुस्कत मे अंकित हैं।
दुसरा उपाय
चारों वेदो की छन्द संख्या, पद संख्या, मन्त्र संख्या तथा मन्त्रानुक्रम से छन्द, ऋषि, देवता वताने के लिये "अनुक्रमणी" नामक ग्रन्थ तैयार किये गये थे जो अब तक मिलते हैं और एक वेद की एक ही अनुक्रमणी नहीं अपितु अनेक अनुक्रमणी आज भी मौजूद है । जैसे- ऋग्वेद के अनुक्रमणियों के नाम इस प्रकार हैं:-(१) शौन-कानुक्रमणी, (२) अनुवाकानुक्रमणी, (३) सूक्तानुक्रमणी, ( ४) आर्षानुक्रमणी, (५) छन्दानुक्रमणी, ( ६) देवानुक्रमणी, (७) कात्यायनीयानुक्रमणी, (८) सर्वानुक्रमणी, (९) ऋग्विधान, वृतद्देवता।
- यजुर्वेद की ( १) मन्त्रार्पध्याय, ( २) कात्यायनीयसर्वा-नुक्रमणी, (३) प्रातिशाख्य सूत्र तथा (४) निगम परिशिष्ट।
- सामवेद की ( १) आर्षेय त्राह्मण, (२) नैगमेयानामृक्ष्वार्धम्, (३) नैगमेयानामृक्षु दैवतम् ।
- अथर्ववेद की वृहत्सर्वानुक्रमणी ।
मैक्समूलर ने इन अनुक्रमणियों पर, अपने एक ग्रन्थ मे विचार करते हुए लिखा है कि "ऋग्वेद की अनुक्रमणी से हम उसके सूक्तों और पदों की पड़ताल करके निर्भीकता से कह सकते है कि अब भी ऋवेद के मंत्रो, शब्दों और पदों की वही सख्या है जो कात्यायन के समय में थी।
चरणव्युह परिशिष्ट में वेदो के अक्षरों तक की संख्या मिलनी है, जैसे ऋग्वेद के अक्षरों की संख्या ४३२००० तथा यजुर्वेद की २५३८६८ है ।
न्याय इसका उत्तर यह देता है:➜
न्याय दर्शन की उत्तर इस प्रकार है:➜
यदि कर्ता काल का भेद न करे अर्थात् जिस समय के लिये जो काम बतलाया गया है वह कर्म उसी समय करे तो उसे व्याघात दोष प्रतीत न हो। बरह्मचर्य काल मे ब्रह्मचर्य की और गृहस्थकाल में गृहस्थ की विधि वेद मे वर्णित है। यदि कर्ता दोनो कर्म उनके नियत समय पर करे तो उसे विरोध कुछ न प्रतीत हो, परन्तु जब ब्रह्मचर्य के काल मे गृहस्थ और गृहस्थकाल में ब्रह्मचर्य करे तो उसे दोष प्रतीत होगा। यह वेद मे व्याघात होने का सबूत नहीं अपितु कर्ता के नियत समय पर नियत कम न करने का दोष है ।
चरणव्युह परिशिष्ट में वेदो के अक्षरों तक की संख्या मिलनी है, जैसे ऋग्वेद के अक्षरों की संख्या ४३२००० तथा यजुर्वेद की २५३८६८ है ।
तीसरा उपाय
उपर्युक्त अनुक्रमणियों की विद्वानों ने टीकायें करके उन्हें और भी सुरक्षित कर दिया है। इसके सिवा वेदो के अनेक भाष्य किये हुए मिलते हैं, जिनसे भी वेदों की रक्षा होती है।
छः उपाङ्गो से प्रमाण👉 वेद स्वत: प्रमाण है
छः उपाङ्गो से प्रमाण👉 वेद स्वत: प्रमाण है
- (१) न्याय देर्शन➞ तर्क प्रधान दर्शन है। कोलब्रुक तथा बोटलिंग ने प्रकट किया है कि न्याय पूर्णतया तर्क पर आश्रित है और अरस्तु के संप्रदाय के नियम उससे मिलते हैं। न्यायदर्शनकार प्रवल तार्किक होने पर भी वेद का वलपूर्वक समर्थन करता है। उसने लिखा है:➜
मन्त्रायुर्वेद प्रामाण्यवच्च तत्प्रामाण्माप्त प्रामाण्यात् |
(न्याय २/१/६७)
अर्थात् आप्त प्रमाण होने से वेद ऐसे ही मान्य और विश्वसनीय है। जैसे मन्त्रो का फल और आयुर्वेद ।वेदों के कथित तीन दोष
न्याय दर्शनकार ने, न केवल वेदों का प्रामाण्य स्वीकार किया है किन्तु वेदों पर जो तीन ढोष लगाये जाते है उनका भी परिहार किया है। वे दोष जो वेदों पर लगाये जाते हैं, न्यायदर्शन के उत्तर के साथ, उनका यहाँ उल्लेख किया जाता है:➜
पहला दोष (मिथ्यात्व)
वेद में कर्मों के जो फल वतलाये हैं वे कर्म करने वालों को प्राप्त नहीं होते, इसलिये वेद सत्य ग्रन्थ नहीं है ।
न्यायदर्शन का उत्तर
न्याय इसका उत्तर यह देता है:➜
"नकर्म कत्तू साधन वैगुण्यात्" ॥ (२/१/५७ )
अथात् वेदोक्त पल की प्राति के न होने का कारण, कर्म करने वाले की क्रिया और साधन तथा स्वयं कर्ता मे दोष का होना है। यदि ये दोष न हो तो अवश्य फल प्रात हो।
दूसरा दोष (व्याघात)
भिन्न-भिन्न ममयों में परस्पर विरोधी वातों का करना व्याघात दोष नहीं कहा जा सकता, इसलिये वेदो में व्याघात दोष नहीं।न्याय दर्शन की उत्तर इस प्रकार है:➜
अभ्युपेत्य कालभेदे दोष वचनात् । (२/१/४८)
अर्थात् अगीकार करके काल का मेद करने पर दोष कहा है ।यदि कर्ता काल का भेद न करे अर्थात् जिस समय के लिये जो काम बतलाया गया है वह कर्म उसी समय करे तो उसे व्याघात दोष प्रतीत न हो। बरह्मचर्य काल मे ब्रह्मचर्य की और गृहस्थकाल में गृहस्थ की विधि वेद मे वर्णित है। यदि कर्ता दोनो कर्म उनके नियत समय पर करे तो उसे विरोध कुछ न प्रतीत हो, परन्तु जब ब्रह्मचर्य के काल मे गृहस्थ और गृहस्थकाल में ब्रह्मचर्य करे तो उसे दोष प्रतीत होगा। यह वेद मे व्याघात होने का सबूत नहीं अपितु कर्ता के नियत समय पर नियत कम न करने का दोष है ।
तीसरा दोष (पुनरुक्ति)
अभ्यास मे कर्ता जो पुनरुक्त दोष समझता है बह उसीका दोष होता है वेद का नहीं। न्यायकार ने कहा है:➜
अनुवादोपपत्तेश्च ॥ (२/१/५९)
अर्थात् "अनुवाद की उपपत्ति होने से" ।सार्थक अभ्यास अनुवाद और निरथक अभ्यास पुनरुक्त कहा जाता है। तीन बार गायत्री की जप करना अथवा इस ऋचा को दो बार पढ़ना यह अनुवाद है पुनर्रुक्ति नहीं यहाँ दर्शनकार ने प्रकट किया है कि विधि वाक्य, अर्थवाद वाक्य और अनुवाद वाक्य के द्वारा शास्त्रीय वाक्य काम मे लाये जाते हैं। इन्हें पुनरुक्ति नहीं कह सकते। इनके लक्षण दर्शनकार ने इस प्रकार क्रिये हैं :➜
विधिर्विधायकः ।। (२/१/६२)
जो वाक्य विधायक होता है उसे विधि वाक्य कहते है, जैसे स्वर्ग का इच्छुक अग्निहोत्र करे ।
स्तुतिर्निन्दा पर कृतिः पुराकल्प इत्यर्थवाद:।। (२/१/६३)
(१) स्तुति, निन्दा, परकृति और पुराकल्प; यह चार प्रकार का अर्थवाद होता है। विधि वाक्य के प्रशंसा का नाम स्तुति है। इस स्तुति से प्रवृत्ति होती है जैसे पुरुषार्थ करके देवो ने असुरो को जीत लिया इत्यादि। (२) अनिष्ट फल निन्दा कहा जाता है। (३ ) जो वाक्य मनुष्यो के कर्मों में परस्पर विरोध दिखावे उसे परकृति कहते है। (४) इतिहासयुक्त विधि को पुराकल्प कहते हैं। जैसे जनक संसार मे कलिप्त होने से महान् यशस्वी वना, ऐसे हम भी वनें ।
विधि विहितम्यानु वचनमनुवादः ॥ (२/१/६४)
विधि से जो विधान किया गया हो उनका अनुवचन अनुवाद कहाता है। पहला शब्दानुवाद और दूसरा अर्थोनुवाद कहा जाता है। जैसे सन्ध्या करो। यह विधि वाक्य है इससे शारीरिक, सामाजिक और आत्मिक उन्नति होगी, यह अर्थवाद हुआ। इसलिये अवश्य सन्ध्या करो, अवश्य सन्ध्या करो। यह अनुवाद हुआ। इसे पुनरुक्ति वतलाना, वेतलाने वाले का दोष है। वेद का नहीं। इस प्रकार न्यायदर्शन ने वेद का समर्थन करते हुये उन्हें निर्दोष ठहराया है।- (२) वैशेषिक दर्शन➞ यह दर्शन सामान्य और विशेष पदार्थों की, मुख्य रीति से मीमांमा करता है। दर्शनकार ने प्रारम्भ से अन्त तक वेद को स्वत:प्रमाण के रूप मे देखा है और अपने सिद्धान्तों की पुष्टि के लिये भो वेद का आश्रय लिया है। दर्शन के प्रारम्भ ही मे➜
तद्वचनादान्नायस्य प्रामाण्यम् (१/१/३)
इस सूत्र में वर्णित है कि "ईश्वर का वचन होने से वेद का प्रामाण्य है।फिर एक दूसरी जगह लिखा है कि वेदों मे वाक्य रचना बुद्धिपूर्वक है ।
बुद्धि पूर्वा वाक्य कृतिर्वेदे (६/१/१)
इसके सिवा अनेक सूत्र वेदो के अन्तिम प्रमाण स्वीकार करने के लिये दिये है :➜
(१) तस्मादा गमिकम् (२/१/१७)
इसलिये शब्द प्रमाण सिद्ध है।
(२) तस्मादागमिकः (३/२/८)
इस कारण वेद सिद्ध हैं।
(३) वेद लिङ्गाच (४/२/१२)
वेद के प्रमाण से भी (अयोनिज योनि सिद्ध है)।
(४) वेदिकञ्च (५/२/१०)
वेद का भी यही सिद्धान्त है (कि अग्नि औषधियों का गर्भ है)।
(५) शास्त्र सामर्थ्याञ्च (३/२/२१)
शास्त्र के सामर्थ्य से भी (आत्मा अनेक सिद्ध है ) ।- (३) सांख्य दर्शन➞ सांख्य दर्शन यद्यपि प्रकृति का दर्शन है, परन्तु उसने भी वेद के प्रमाण को स्वीकार किया है। एक सूत्र में➜
श्रुति विरोधान्न कुतर्काऽपसदस्यात्मलाभ: (६/३४)
वर्णन किया है कि "श्रुति के" विरुद्ध होने से कुतर्क करने वाले को आत्मज्ञान प्राप्त नहीं होता । इस सूत्र के द्वारा भी सांख्यकार ने वेद के प्रमाण होने को स्वीकार किया है।- (४) योग दर्शन➞ योग दशन मे एक जगह कहा गया है कि "उस (ईश्वर) मे सर्वज्ञ होना ऐसा निमित्त है जो उससे अधिक किसी मे नहीं”
तत्र निरतिशयं सर्वज्ञ वीजम् (१/२५)
ईश्वर को इस प्रकार समस्त ज्ञान का स्रोत कहते हुए बतलाया गया है कि वह (ईश्वर) जिसका काल विभाग नहीं कर सकता पूर्व (देव्य) ऋषियों का भी गुरु है।
से पूर्वेमेषामपि गुरुः कालेनाऽन वच्छेदात् (१/२६)
अर्थात उसने जगत के प्रारम्भ में वेदरूपी ज्ञान देकर मनुष्यों का शिक्षित बनाया। यह दर्शन भी सिद्ध करता है कि वेद ईश्वर का ज्ञान है और इसीलिये प्रमाण है।- (५) पूर्व मीमांमा➞
(ii) कोलब्रूक ने लिखा है कि मीमांसा का तर्क कानूनी तर्क है। नागरिक और धार्मिक नियमो के अर्थ लगाने की विधि वतलाई गई है। प्रत्येक विवादास्पद विपय की, मीमांसाकार ने जॉच करके उनका निर्णय सार्वत्रिंक नियमों के अनुकूल किया है। इस प्रकार वने निर्णय नियम दर्शन में संग्रहीत हैं। इनके सुनियमित प्रबंध से कानून का द्र्शनिक ज्ञान होता है । सचमुच मीमांसा मे ऐसा ही करने का प्रयत्न किया गया है।। (The logic of the Mimansa is the logic of the law, the rule of interpretation of civil and relegious upon general principles and from the cases decided, the principles may be collected. A well ordered arrangement of them would constitute the philosophy of the the luco, and this is in truth what has been attempted in the Mimansa (Colebrook's miscellaneous Essays Vol. I. P. 342))
मीमांसा से सम्बन्धित इन सम्मतियों के जानने के वाद अब यह जान लेना भी आवश्यक है कि वह वेद के सम्बन्ध मे क्या कहती है। मीमांसाकार ने पहले ही सुत्र मे कहा है कि अव धर्म को जानने की जिज्ञासा करते है । दूसरे सूत्र में कहा है कि विधि प्रतिपाद्य अर्थ को धर्म कहते है।
चोदना लक्षणोऽर्थो धर्म (१/१/३ )
प्रवर्तक चचन का नाम, जिसके सुनने से प्रेरणा पाई जावे, चोदना है। चोदना, नौदना, प्रेरणा, वेदाज्ञा, उपदेश और विधि ये सब समानार्थक शब्द है। अर्थनीय का नाम यहा अर्थ है । जिसकी इच्छा की जावे वही अर्थ अथवा सुख है। भाव यह है कि धमें वह है जो विधि प्रतिपाद्य और सुख का साधन हो। तीसरे सूत्र मे➜
तस्य निमित्त परीष्टिः (१/१/३)
कहा गया है कि उस(धर्म) के निमित्त को ( परीष्टि:) परीक्षा की जाती है। चौथे सूत्र मे प्रकट किया गया है कि प्रत्यक्ष केवल इन्द्रियो का विषय होने से धर्म के जानने मे प्रमाण नहीं हो सकता। इस प्रत्यक्ष में अनुमान-प्रमाण को भी सम्मिलित समझना चाहिये। फिर धर्म के जानने का साधन क्या होना चाहिये? इस प्रश्न का उत्तरपाँचवे सूत्र में इस प्रकार दिया है ➜
"औत्पत्तिकस्तु शब्दास्यार्थेन सम्बन्धस्तस्य ज्ञानसुपदेशोऽव्यतिरेक
श्चार्थेऽनुपलव्धै तत्प्रमाणं वादरायण स्यान पेक्षत्वात् | (१/१/५ )"
अर्थात् शब्द = वेद (के प्रत्येक पद) का, अर्थ के साथ स्वाभाविक=नित्य सम्बन्धं है (इसलिये) उस (धर्म) के ज्ञान का (वह साधन) है। (ईश्वर की ओर से उसका) उपदेश हुआ है और (प्रत्यक्न आदि प्रमाणो से जो) उपलब्ध नहीं होता (उसमें उसका) व्यक्तिरेक=व्यभचार नहीं है।वादरीयण के मन में वह (वेद वाक्य) प्रमाणों की अपेक्षा न रखने से स्वतः प्रमाण है।
इस सूत्र में वर्णित है कि (१) शब्द का अर्थ से नित्य सम्बन्ध है, (२) चह ईश्वर का उपदेश है, (३) प्रत्यक्ष आदि से जिस धर्म की उपलब्धी नहीं होती वह वैदो से उपलब्ध होता है तथा (४) वादरायण ने उन्हें (वेदो को ) स्वतः प्रमाण माना है। इस लिए मीमांसा की दृष्टि में भी वेद स्वतः प्रमाण है।
- (६) उत्तरमीमांसा (वेदांत)➞ वेदान्त दर्शन के प्रारम्भ के तीसरे सूत्र "शाख योनित्वात्" में वर्णन किया गया है कि (ऋग्वदादि) शास्र की योनि (रचना का कारण) होने से (भी वह त्रह्म है) यहाँ त्रह्म की सत्ता प्रकट करने के लिए कहा गया है कि उसकी सत्ता इसलिए मी न्वीकार करने योग्य है कि वह वेदोत्पादक है और जगत के प्रारम्भ मे वेद ऋषियो को दिया करता है। ऐसी ही शिक्षा वेदान्त के अन्य क सूत्रो मे मिलती है।
वेद का नित्यत्व
ऋग्वेद मे एक जगह एक मन्त्र इस प्रकार आया है➜वेद का नित्यत्व
तस्मै नूनमभिद्यवे वाचा विरूप नित्यया ।
वृष्णे चोदस्व सुष्टुतिम् ।।
इसमें वेद को ईश्वरीय वाक्य और नित्य कहा है। इसीकी पुष्टि वेदान्तदर्शन में "अतएव च नित्यत्वम् " (वेदान्त० १/३/२९) सूत्र द्वारा की गई है। महाभारत में एक जगह इसी प्रकार की वात कही गई है➜
(ऋग्वेद ८/७५/६)
अनादिनिधना नित्या वागुत्सृष्टा स्वयम्भुवा ।
आदौ वेदमयी दिव्या यतः सर्वोः प्रवृत्तयः ।।
(म० भारत १२/२३३/२४)
अर्थात् सृष्टिके आदि में स्वयमु परमात्मा से ऐसी वाणी-वेद निकले जिनका न आदि है, न अन्त, जो नित्य नाशरहित और दिव्य है। उन्हींसे जगत् में सब प्रवृत्तियो का प्रकाश हुआ है।फिर एक जगह कहा गया है➜
स्वयम्भुदेव भगवन् वेदो गीतस्त्वया पुरा।
शिवाद्या ऋषिपर्यन्ताः स्मर्तारोऽस्य न कारकाः।।
अथात् है स्वयम्भु भगवन्! पुरातन काल में वेद आप ही के द्वारा गाया गया था। शिव से लेकर ऋषियों तक उस (वेद) के स्मरण करनेवाले ही है, कर्ना नहीं।गीता में भी इसका समर्थन किया गया है➜
कर्म व्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्रभवम्।।
अर्थात कर्म की उत्पत्ति ब्रह्म=वेद से हुई और वेद ईश्वर से उत्पन्न हुए हैं।
(गीता ३/१५)
वेद स्वत:प्रमाण हैं
है कि फिर वे पौरुषेय=पुरुष कृत भी होगे। इस प्रश्न का उत्तर उन्होंने निषेध परक इस प्रकार दिया है:➜
यदि यह कल्पना की जावे कि वेदों के बनाने वालो को लोग भूल गये होंगे इसलिये वे पुरुष कृत ही है तो इसका उत्तर इस प्रकार दिया जा सकता है।
इस सूत्र में कपिलाचार्य ने मुक्त और वद्ध ‘अर्थात् समस्त मनुष्यो को वेद की रचना कर सकने के अयोग्य ठहरा कर उन्हें अपौरुषेय प्रमाणित क्रिया है। कुछेक अन्य सूत्रों के बाद, इस प्रश्न के उत्तर में, वेदो के प्रामाण्य में प्रमाणान्तर अपेक्षित है। सांख्यकार ने यह उत्तर दिया है:➜
सांख्य के उपर्युक्त सूत्रो से यह बात भलीभांति स्पष्ट हो जाती है कि वह वेदो का स्वतः प्रामाण्य स्वीकार करता हुआ उन्हें मनुष्यों की रचना नहीं मानता। परन्तु उन्हें वह अनित्य इसलिये कहता है कि वे (वेद) उत्पन्न हुए कहे जाते हैं और उत्पन्न हुई वस्तु नित्य नहीं होती। जिस प्रकार उत्पन्न हुई सृष्टि, सृष्टि रूप मे, नित्य नहीं हो सकती परन्तु उसका कारण (प्रकृति) तो नित्य है ही और सृष्टि भी, यदि नित्य नहीं तो प्रवाह से नित्य जरूर है; क्योकि सांख्य, असल में, प्रकृति ही के विस्तार, कारणत्व और नित्यत्व के प्रकट करने के लिये रचा गया है। वेद की उत्पत्ति उस प्रकार नहीं होती जैसे प्राकृतिक कारण विकृत होकर कार्यरूप में प्रकट हुआ करता है। वेद के उतन्न होने के अर्थ केवल यह हैं कि ईश्वरीय प्रेरणा से, उसका दिव्य ज्ञान, देव्य ऋषियो के हृदयो में, प्रत्येक सृष्टि के प्रारम्भ मे, प्रकट हो जाया करती है और वे ऋषि उसका जनता मे प्रसार कर दिया करते है। उत्पन्न होने का अर्थ अभाव से होना अथवा कारण का विकृत होकर कार्यरूप में परिवर्तित होना नहीं है। इसलिये सूत्र ४५ में वर्णित वेदो के कार्यत्व के सुने जाने की वात कहे जाने से, वेद अनित्य नहीं हो सकते। यह वात निम्नांकित हेतुओं से और भी पुष्ट हो जाती है।
अनेक देशी और विदेशी विद्वानों को, वेद में आये हुये जमदग्नि और वशिष्ट आदि शब्दो को देखकर, सन्देह हो जाता है कि वेद में जब अनेक ऋषियों के नाम हैं तो वे नित्य कैसे हो सकते हैं ? उन्हें तो उन ऋषियों के पीछे का बना हुआ होना चाहिये। इसका समाधान महपि जैमिनि ने निम्न सूत्रो द्वारा किया है।
जमदग्नि ⇔ ऑख (शतपथ ८/१/२/३)
वशिष्ट ⇔ प्राण (शतपथ ८/१/१/६)
भारद्वाज ⇔ मन (शतपथ ८/१/१/९)
विश्वामित्र ⇔ कान (शतपथ ८/१/२/६)
विश्वकर्मण ⇔ वाक (शतपथ ८/१/२/९)
इसी प्रकार से शुन शेप के अर्थ निरुक्त में विद्वान किये गये हैं। (निरुक्त ३/२)
विश्वामित्र➧ समस्त इन्द्रियों प्राण के आश्रित है, इसलिये प्राण विश्वामित्र।
वामदेव-सब इद्रियों में प्राण वंदनीय है, इसीलिये उसे वामदेव कहते हैं ।
अग्नि➧ प्राण (निष्काम होने से ) पाप से रक्षा करता है इसलिये बह अग्नि है।
भरद्वाज➧ वाज=प्रजा (इन्द्रियों) का भरण पोपण करने से प्राण=भरद्वाज है।
वसिष्ट➧ इन्द्रियों को ढॉपने वाला होने से प्राण वसिष्ठ कहा जाता है।
अगाथ➧ प्राण समस्त शरीर में 'प्रगत'=प्राप्त है, इसीलिये वह अगाथ है।
पावमानी➧ प्राण ममस्त इन्द्रियों को शुद्ध करता है इसलिये पावमानी कहा जाता है।
वेद-मन्त्रों के साथ जो मन्त्रद्रष्टा ऋषियो के नाम लिखे चले आते है, उनको कुछ विद्वान् मन्त्रद्रष्टा नहीं अपितु मन्त्रकर्ता मानते हैं। मूर ने अपने एक ग्रन्थ (Original Sanskrit Text, vol.III) के तीसरे प्रकरण में ८० के लगभग मन्त्र दिए है जिनमें “कृ” और “तक्ष्” बनाना धातुओं के प्रयोग हुए है।
और "तक्ष"
पंचविंश ब्राह्मण १३/३/१४ और ऐतरेय ब्राह्मण ६/१/१ मे भी मन्त्रकृत शब्द का प्रयोग हुआ है।
तैत्तिरीयारण्यक प्रपाठक ४ अनुवाक १ मे भी मन्त्रकृत् शब्द आया है। उपर्युक्त विद्वान् अपने पक्ष की पुष्टि मे ये और इसी प्रकार के हवाले दिया करते हैं। परन्तु सायणादि पौराणिक विद्वान् तक इन विद्वानो के पक्ष का समर्थन नहीं करते। यहाँ दो एक उदाहरण दिए जाते हैं
(१) उपर्युक्त तैत्तिरीयारण्यक (४/१७) मे प्रयुक्त वाक्य इस प्रकार है➜
नमो ऋषिभ्यो मन्त्रकृद्भ्यो मन्त्रपत्तिभ्यः।।
इसका भाष्य करते हुये सायणाचार्य ने इस प्रकार लिखा है ➜
"मन्त्र कृद्भ्यः मन्त्रं कुर्वन्तीति मन्त्रकृतः। यद्यप्यपौरु-षेये वेदे कर्तारो न सन्ति तथापि कल्पादावीश्वरानुग्रहेण मन्त्राणां लब्धारो मन्त्रकृत उच्यन्ते।। "
स्पष्ट है. कि मंत्रग्रहणकर्ता (अग्नि, वायु आदि) ऋषियो को सायण मंत्रकर्ता शब्द से ग्रहण करता है। उसने उपर्युक्त सिद्धांत की पुष्टि में किसी स्मृतिकार का निम्न वाक्य भी दिया है ➜
युगान्तेऽन्तर्हितान्वेदान्सेतिहासान्महपय ।
लेभिरे तपसा पूर्वमनुज्ञाताः स्वयंभुवा |॥
अर्थात् युगात में लुम हुए वेदों को, ऋषिगण अपने पूर्व संचित तप से प्राप्त करते हैं। इस बाक्य को उद्धृत करते हुये सायण लिखता है➜
'त एव महर्षयः (अग्नि वायु आदि)’
संप्रदायप्रवृत्या मन्त्राणां पालनात् मन्त्रपतय इत्युच्यन्ते।।
अर्थात् उन्ही वेदों को प्राप्त करनेवाले ऋषियो को "मन्त्रपति" भी कहते है।
"ऋषि: अतीन्द्रियार्थमन्त्रकृत्" ('कृ' धातुस्तवत् दर्शनार्थः) मन्त्रस्यद्रष्टा। अर्थात् इस वाक्य मे 'कृ' धातु दर्शन के अर्थ मे प्रयुक्त है और सर्प ऋषि मन्त्रकृत्=मन्त्रद्रष्टा है।
(३) यास्काचार्य ने भी सायण के उपर्युक्त भाव का वहुत पहले ही समर्थन किया है➜
(४) ते० आ० २/९/१ में भी औपमन्यव के वाक्य इसी प्रकार के मिलते हैं।
(५) ऋष् गतों धातु से ऋषि श्द बनता है - ऋषि दयानन्द ने उणादि कोश में उसका अर्थ इस प्रकार किया है➜
उपर्युक्त उद्धरण स्पष्ट करते है। ऋषि मन्त्रकर्ता नहीं थे अपितु मन्त्रों का साक्षात् करके उनका उपदेश और प्रचार करने वाले थे और ‘मन्त्रकृत" में "कृ" धातु दर्शन अर्थ मे है इसलिये मन्त्रकृत् शब्द के अर्थ मन्त्रद्रष्टा ही है।
सांख्यदर्शन और वेद
कपिलमुनि ने कई सूत्रों में वेद का विचार किया है। उन्होंने इस सूत्र में उनका अनित्यत्व प्रकट किया है :➜
न नित्यत्वं वेदानां कार्यत्व श्रुतेः।। (५/४५)
अर्थात् वेदों का कार्यत्व सुनने से वे नित्य नहीं।
"तम्माद्यज्ञात्सर्वहुत. ऋचः सामानि जज्ञिरे।”
इस वेद मंत्र में वेद को ईश्वर से उत्पन्न हुआ कहा गया है। इसलिये उत्पन्न पदार्थ नित्य नहीं हो सकते। अतः वेद भी नित्य नहीं। हम पहले सांख्य का पूरा मत प्रकट करके तव इस सम्वन्ध मे कुछ कहेंगे वेद के अनित्यत्व के प्रतिपादन से स्वाभाविक रीति से यह प्रश्न होता
(यजुर्वेद ३१/९)
है कि फिर वे पौरुषेय=पुरुष कृत भी होगे। इस प्रश्न का उत्तर उन्होंने निषेध परक इस प्रकार दिया है:➜
न पीरुषेयत्वं तत्कर्त्तुं: पुरुषस्वाऽभावात् ॥ (५/४६)
अर्थात् उन (वेदो) के कता पुरुष के न होने से वे पौरुषेय=पुरुष कृत नहीं।यदि यह कल्पना की जावे कि वेदों के बनाने वालो को लोग भूल गये होंगे इसलिये वे पुरुष कृत ही है तो इसका उत्तर इस प्रकार दिया जा सकता है।
मुक्ताऽमुक्तवोरयोग्यत्त्वान ॥ (५/४७)
अर्थात मुक्त और वद्ध में (वेदों की रचना करने की) योग्यता न होने से (वेद पौरुषेय नहीं)।इस सूत्र में कपिलाचार्य ने मुक्त और वद्ध ‘अर्थात् समस्त मनुष्यो को वेद की रचना कर सकने के अयोग्य ठहरा कर उन्हें अपौरुषेय प्रमाणित क्रिया है। कुछेक अन्य सूत्रों के बाद, इस प्रश्न के उत्तर में, वेदो के प्रामाण्य में प्रमाणान्तर अपेक्षित है। सांख्यकार ने यह उत्तर दिया है:➜
निज शक्त्यभिव्यक्तेः स्वतः प्रामाण्यम् ।। (५/५१)
अर्थात् अपनी निज (स्वाभाविक) शक्ति द्वारा प्रकट होने से (वेदों की) स्वत: प्रमाणता है।सांख्य के उपर्युक्त सूत्रो से यह बात भलीभांति स्पष्ट हो जाती है कि वह वेदो का स्वतः प्रामाण्य स्वीकार करता हुआ उन्हें मनुष्यों की रचना नहीं मानता। परन्तु उन्हें वह अनित्य इसलिये कहता है कि वे (वेद) उत्पन्न हुए कहे जाते हैं और उत्पन्न हुई वस्तु नित्य नहीं होती। जिस प्रकार उत्पन्न हुई सृष्टि, सृष्टि रूप मे, नित्य नहीं हो सकती परन्तु उसका कारण (प्रकृति) तो नित्य है ही और सृष्टि भी, यदि नित्य नहीं तो प्रवाह से नित्य जरूर है; क्योकि सांख्य, असल में, प्रकृति ही के विस्तार, कारणत्व और नित्यत्व के प्रकट करने के लिये रचा गया है। वेद की उत्पत्ति उस प्रकार नहीं होती जैसे प्राकृतिक कारण विकृत होकर कार्यरूप में प्रकट हुआ करता है। वेद के उतन्न होने के अर्थ केवल यह हैं कि ईश्वरीय प्रेरणा से, उसका दिव्य ज्ञान, देव्य ऋषियो के हृदयो में, प्रत्येक सृष्टि के प्रारम्भ मे, प्रकट हो जाया करती है और वे ऋषि उसका जनता मे प्रसार कर दिया करते है। उत्पन्न होने का अर्थ अभाव से होना अथवा कारण का विकृत होकर कार्यरूप में परिवर्तित होना नहीं है। इसलिये सूत्र ४५ में वर्णित वेदो के कार्यत्व के सुने जाने की वात कहे जाने से, वेद अनित्य नहीं हो सकते। यह वात निम्नांकित हेतुओं से और भी पुष्ट हो जाती है।
- (१) वेद प्रत्येक सृष्टि के आरम्भ में, अनादि काल से, "यथा- पूर्वमकल्पयन्" के नियमानुकूल, उपर्युक्त भॉति, प्रकट होते हैं और सृष्टि प्रत्राह से नित्य है इसलिये आवश्यक है कि वेंदो को नित्य माना जावे।
- (२) वेद ईश्वर का ज्ञान है ईश्वर नित्य है और उसका ज्ञान, क्रिया और वल सभी स्वाभाविक हैं, इसलिये वेद का नित्यत्व स्त्रीकार करना अनिवार्य्य है।
- (३) ईश्वर और प्रकृति की भांति जीव भी नित्य है इसलिये उसके कल्याणार्थ दिये हुये ज्ञान (वेद) का भी नित्य होना लाजिमी है ।
यदि वेद नित्य हैं तो फिर उनमें ऋपियों के नाम क्यों हैं ?
अनेक देशी और विदेशी विद्वानों को, वेद में आये हुये जमदग्नि और वशिष्ट आदि शब्दो को देखकर, सन्देह हो जाता है कि वेद में जब अनेक ऋषियों के नाम हैं तो वे नित्य कैसे हो सकते हैं ? उन्हें तो उन ऋषियों के पीछे का बना हुआ होना चाहिये। इसका समाधान महपि जैमिनि ने निम्न सूत्रो द्वारा किया है।यदि वेद नित्य हैं तो फिर उनमें ऋपियों के नाम क्यों हैं ?
(१) आख्या प्रवचनान् (पूर्वमीमांसा १/१/३०)
परन्तु श्रुतिसामान्यमात्रम् ॥ (पूर्वमीमांसा १/१/३१)
अर्थात वेद में जमदग्नि आदि शब्द सामान्य (योगिक) शब्दों के तौर पर प्रयुक्त हुए है, पीछे से वह लोगों के नाम भी पढ़ गए।
(२) शतपथ और जमदग्नि आदि शब्द
शतपथ मे वेद में आये जमदग्नि आदि शब्दों के अर्थ इस प्रकार किये गये हैं➜जमदग्नि ⇔ ऑख (शतपथ ८/१/२/३)
वशिष्ट ⇔ प्राण (शतपथ ८/१/१/६)
भारद्वाज ⇔ मन (शतपथ ८/१/१/९)
विश्वामित्र ⇔ कान (शतपथ ८/१/२/६)
विश्वकर्मण ⇔ वाक (शतपथ ८/१/२/९)
इसी प्रकार से शुन शेप के अर्थ निरुक्त में विद्वान किये गये हैं। (निरुक्त ३/२)
(३) ऐतरेयाऽऽरण्यक मे कई नामो के इस प्रकार अर्थ किये हैं ➜
गृत्समद➧ गृत्स प्राण और मद अपान को कहते हैं, इसलिये गृत्समद के अर्थ प्राण और अपान के है।विश्वामित्र➧ समस्त इन्द्रियों प्राण के आश्रित है, इसलिये प्राण विश्वामित्र।
वामदेव-सब इद्रियों में प्राण वंदनीय है, इसीलिये उसे वामदेव कहते हैं ।
अग्नि➧ प्राण (निष्काम होने से ) पाप से रक्षा करता है इसलिये बह अग्नि है।
भरद्वाज➧ वाज=प्रजा (इन्द्रियों) का भरण पोपण करने से प्राण=भरद्वाज है।
वसिष्ट➧ इन्द्रियों को ढॉपने वाला होने से प्राण वसिष्ठ कहा जाता है।
अगाथ➧ प्राण समस्त शरीर में 'प्रगत'=प्राप्त है, इसीलिये वह अगाथ है।
पावमानी➧ प्राण ममस्त इन्द्रियों को शुद्ध करता है इसलिये पावमानी कहा जाता है।
(४) अस्तु, इन त्राह्मण और आरण्यक तथा उपनिपद् आदि ग्रन्थों में इसी प्रकार वेद में आये शब्दो के, जिन्हें ऋपियों का नाम कहा जाता है, अर्थ किये हैं। ऋषि दयानन्द ने निरुक्त पूर्वमीमांसा और शतपथ आदि ग्रन्थो पर, गहरी दृष्टि डालते हुये यह शैली वेदो के अर्थ करने की बतलाई है कि वेद में प्रयुक्त सभी शच्द यौगिक हैं, रूढ़ि नहीं और इसीलिये स्थिर किया है कि वेद में इतिहास नहीं। मैक्समूलर ने एक जगह पश्चिमी प्रवाह के विरुद्ध, ऋषि दयानन्द का अनुकरण करते हुये वतलाया है कि वेदों में आये हुये शब्द ऋपियो के नाम या खिताव नहीं हैं।
क्या वेद-मंत्र ऋषियों की रचना हैं ?
वेद-मन्त्रों के साथ जो मन्त्रद्रष्टा ऋषियो के नाम लिखे चले आते है, उनको कुछ विद्वान् मन्त्रद्रष्टा नहीं अपितु मन्त्रकर्ता मानते हैं। मूर ने अपने एक ग्रन्थ (Original Sanskrit Text, vol.III) के तीसरे प्रकरण में ८० के लगभग मन्त्र दिए है जिनमें “कृ” और “तक्ष्” बनाना धातुओं के प्रयोग हुए है।क्या वेद-मंत्र ऋषियों की रचना हैं ?
और "तक्ष"
पंचविंश ब्राह्मण १३/३/१४ और ऐतरेय ब्राह्मण ६/१/१ मे भी मन्त्रकृत शब्द का प्रयोग हुआ है।
तैत्तिरीयारण्यक प्रपाठक ४ अनुवाक १ मे भी मन्त्रकृत् शब्द आया है। उपर्युक्त विद्वान् अपने पक्ष की पुष्टि मे ये और इसी प्रकार के हवाले दिया करते हैं। परन्तु सायणादि पौराणिक विद्वान् तक इन विद्वानो के पक्ष का समर्थन नहीं करते। यहाँ दो एक उदाहरण दिए जाते हैं
(१) उपर्युक्त तैत्तिरीयारण्यक (४/१७) मे प्रयुक्त वाक्य इस प्रकार है➜
नमो ऋषिभ्यो मन्त्रकृद्भ्यो मन्त्रपत्तिभ्यः।।
इसका भाष्य करते हुये सायणाचार्य ने इस प्रकार लिखा है ➜
"मन्त्र कृद्भ्यः मन्त्रं कुर्वन्तीति मन्त्रकृतः। यद्यप्यपौरु-षेये वेदे कर्तारो न सन्ति तथापि कल्पादावीश्वरानुग्रहेण मन्त्राणां लब्धारो मन्त्रकृत उच्यन्ते।। "
स्पष्ट है. कि मंत्रग्रहणकर्ता (अग्नि, वायु आदि) ऋषियो को सायण मंत्रकर्ता शब्द से ग्रहण करता है। उसने उपर्युक्त सिद्धांत की पुष्टि में किसी स्मृतिकार का निम्न वाक्य भी दिया है ➜
युगान्तेऽन्तर्हितान्वेदान्सेतिहासान्महपय ।
लेभिरे तपसा पूर्वमनुज्ञाताः स्वयंभुवा |॥
अर्थात् युगात में लुम हुए वेदों को, ऋषिगण अपने पूर्व संचित तप से प्राप्त करते हैं। इस बाक्य को उद्धृत करते हुये सायण लिखता है➜
'त एव महर्षयः (अग्नि वायु आदि)’
संप्रदायप्रवृत्या मन्त्राणां पालनात् मन्त्रपतय इत्युच्यन्ते।।
अर्थात् उन्ही वेदों को प्राप्त करनेवाले ऋषियो को "मन्त्रपति" भी कहते है।
(२) सर्पऋषिर्मन्त्रकृत् ॥ (ऐ० ब्राह्मण ६/१/१)
इस पर सायणाचार्य ने टीका करते हुये लिखा है ➜"ऋषि: अतीन्द्रियार्थमन्त्रकृत्" ('कृ' धातुस्तवत् दर्शनार्थः) मन्त्रस्यद्रष्टा। अर्थात् इस वाक्य मे 'कृ' धातु दर्शन के अर्थ मे प्रयुक्त है और सर्प ऋषि मन्त्रकृत्=मन्त्रद्रष्टा है।
(३) यास्काचार्य ने भी सायण के उपर्युक्त भाव का वहुत पहले ही समर्थन किया है➜
ऋपिदर्शनात्स्तोमान्दर्शेत्यौपमन्यवस्तद् यदेनांम्तपम्यमानान् ब्रह्म स्वयमाभ्यानर्पत ऋपयोऽभवंस्तद्दपीणामृपित्वमिति विज्ञायते ।।
(निरुक्त २३/२)
अर्थात् (पश्यति ह्यसौ सूक्ष्मान्) अर्थात् ऋषि मन्त्र के सुक्ष्म अर्थो को देखता है। इसलिये उसे ऋषि कहते हैं। आपमन्यव का मत है कि जो स्तोम=वेद मन्त्रों को तपश्चर्या से उत्पन्न ज्ञान के द्वारा देखे उसे ऋषि कहने है।(४) ते० आ० २/९/१ में भी औपमन्यव के वाक्य इसी प्रकार के मिलते हैं।
(५) ऋष् गतों धातु से ऋषि श्द बनता है - ऋषि दयानन्द ने उणादि कोश में उसका अर्थ इस प्रकार किया है➜
ऋषति गच्छति, प्राप्नोति जानाति वा स ऋषि।।
(उणादि कोश ४-१२)
(६) निरुक्त में एक जगह लिखा है ➜
"साक्षात्कृनधर्माणो ऋषयो वभूवु. तेऽवरेभ्योऽसाक्षात्कृतधर्मेभ्यः उपदेशेन मन्त्रान्सम्प्रादुः।।”
(निरुक्त १-६५)
अर्थात धर्म को साक्षात् करनेवाले ऋषि होते है और जिन्होने धर्म को साक्षात् नहीं किया है, ऐसे लोगो के लिये मन्त्रों का उपदेश किया है।उपर्युक्त उद्धरण स्पष्ट करते है। ऋषि मन्त्रकर्ता नहीं थे अपितु मन्त्रों का साक्षात् करके उनका उपदेश और प्रचार करने वाले थे और ‘मन्त्रकृत" में "कृ" धातु दर्शन अर्थ मे है इसलिये मन्त्रकृत् शब्द के अर्थ मन्त्रद्रष्टा ही है।
यदि वेद चार हैं तो वेदत्रयी क्यों कहा जाता है?
चारों वेदो में तीन प्रकार के मंत्र हैं। इसीको प्रकट करने के लिये पूर्व मीमासा में कहा गया है:➜यदि वेद चार हैं तो वेदत्रयी क्यों कहा जाता है?
तेषां ऋग यथार्थवशेन पाद व्यवस्था ।
गीतिषु सामाख्या शेषे यजु शब्द।
(पूर्वमीमांसा २/१/३५-३७)
जिनमे अर्थवश पाद व्यवस्था है वे ऋक् कहे जाते हैं। जो मंत्र गायन किये जाते हैं वे साम और बाकी मंत्र यजु शब्द के अंतर्गत होते हैं। ये नीन प्रकार के मंत्र चारों वेदों मे फैले हुये हैं। यही बात सर्वानुक्रमणीवृत्ति की भूमिका में "पड्गुरुशिष्य" ने कहो है:➜
"विनियोक्तव्यरूपश्च त्रिविधः सम्त्रदर्श्यते।
ऋग् यजु: सामरूपेण मन्त्रोवेदचतुष्टये।।"
अर्थात यज्ञो में तीन प्रकार के रूप बाले मंत्र विनियुक्त हुआ करते है। चारें बेदो ने (वे) ऋग, यजु और साम रूप में है।तीन प्रकार के मंत्रों के होने, अथवा वेदों में ज्ञान, कर्म और उपासना तीन प्रकार के कर्तव्यों के वर्णन करने से वेदत्रयी कहे जाते हैं। परन्तु इम वेदत्रयी शब्द में चारो वेदो का समावेश है। अथर्ववेद में एक जगह कहा गया है:➜
विद्याश्चवा अविद्याश्च यच्चान्यदुपदेश्यम् ।
शरीरे व्रह्म प्राविशहचः सामार्थो यजु।।
(अथर्ववेद ११/८/२३)
अर्थात् विद्या और अविद्या (ज्ञान + कर्म) और जो कुछ अन्य उपदेश करने योग्य है तथा ब्रह्म (अथर्ववेद), ऋक्, साम और यजु परमेश्वर के शरीर में प्रविष्ट हुयेअथर्ववेद की तरह ऋग्वेद में भी चारों वेदों के नाम है:➜
सो अङ्गिरोभिरङ्गिरस्तमो भृद्वृषा वृषभि: सखिभि: सखा सन्।
ऋग्मिभिऋग्मीगातुभिर्ज्येष्टो मरुत्वान्नो भवत्विन्द्र ऊती।।
(ऋग्वेद १/१००/४)
अर्थात् जो अथर्वागिरः मंत्रों से उत्तम रीति से युक्त है, जो सुख की वर्षा के साधनो से सुख सीचने वाला है, जो मित्रों के साथ मित्र है, जो ऋग्वेदी के साथ ऋग्वेदी है, जो साम (मंत्र ज्ञान) से ज्येष्ठ होता है, वह महान् इन्द्र (ईश्वर) हमारी रक्षा करे।इस मंत्र में अथर्ववेद का स्वष्ट रोति से नाम लिया गया है जब ऋग्वेद स्वयं अथर्ववेद के वेदत्व को स्वीकार करता है तो फिर अथर्ववेद को नया बतलाकर वेद की सीमा से बाहर करना साहसमात्र है।
क्या ब्राह्मण ग्रंथ वेद हैं ?
महाभाष्यकार पतञ्जलि मुनि ने इस प्रश्न का उत्तर स्पष्ट रीति से दिया है:➜क्या ब्राह्मण ग्रंथ वेद हैं ?
चतुर्वेदविदभिर्ब्रह्मभिर्ब्राह्मणौमहर्षिभिः प्रोक्तानि
यानिवेदव्याख्यानि तानि ब्राह्मणानीति।
(महाभाष्य ५/१/१)
अर्थात् चारों वेदो के वेत्ता और ईश्वर उपासक ब्राह्मणो तथा महर्षियों ने जो वेदों के व्याख्यान किये हैं वे ब्राह्मण ग्रन्थ कहे जाते हैं।स्पष्ट है कि ब्राह्मण वेद नहीं अपितु उनके व्याख्यान है। इस सम्बन्ध में निम्न वातें ध्यान देने योग्य हैं:➜
(१) ब्राह्मणो में अनेक वेदमंत्रो के व्याख्यान किये हुये मिलते हैं। जैसे-ऋग्वेद १/२४/३ का व्याख्यान ऐतरेय ब्राम्हण १/१६ में है, यजुर्वेद के पहले मन्त्र की व्याख्या शतपथ ब्राम्हण १/७/१ मे है तथा सामवेद के प्रथम मन्त्र की व्याख्या तांड्य ब्राह्मण ११/२/३ मे है।
(२) ब्राह्मण ग्रन्थ उस समय की रचना है जब देश में स्त्रियों तथा शूद्रो का मान कम हो चुका था। एक जगह एक ब्राह्मण में लिखा है:-(i) स्त्री, शूद्र, कुत्ता और कौवा असत्य हैं। यज्ञकर्ता इन्हें न देखे। (ii) स्त्री के साथ मित्रता नहीं हो सकती, क्योकि उसका हृदय हिंसक जन्तु के समान क्रूर होता है तथा (iii) परंपरा से स्त्रीयो की प्रवृत्ति सांसारिक और व्यर्थ पदार्थो की ओर अधिक होती है। इसीलिये वे नाचने, गाने, वजाने वालो की ओर शीघ्र आकर्षित हो जाती हैं इत्यादि। परन्तु वेद में इसके विरुद्ध स्त्रीयों का वड़ा मान है, पुरुष के समान उन्हें सभी अधिकार दिचे गये हैं। एक जगह ऋ्वेद में कहा नया है:➜
ओ सम्राज्ञी श्वशुरे भव, सम्राज्ञी श्वृश्रवां भव।
ननान्दरि सम्राज्ञी भव, सम्राज्ञी अधिदेषूषु ॥
इस मंत्र से वधू को आशीर्वाद दिया गया है कि वह पतिगृह में आकर ससुर, सास, नन्द और देवर सब पर शासन करने वाली सम्राज्ञी हो। अतः वेद और ब्राह्मण का अन्तर साफ तौर से दिखाई देने लगता है।
(ऋग्वेद १०/८५/४६)
(३) ब्राह्मण इतिहास हैं। उनमें अनेक स्त्री, पुरुषों, राजा, रानियों के इतिहास मिलते हैं। जब कि वेद इतिहास रहित और यौगिक शब्द रखने वाले हैं, जिनके भीतर इतिहास होने की संभावना ही नहीं हो सकती।
🌺🌷💐🙏 नमस्ते 🌺🌷💐🙏
आपके द्वारा प्रेषित लेख अति सराहनीय है।
जवाब देंहटाएंनमस्ते जी
१८/०३/२०२२