रविवार, 25 अगस्त 2019

वैदिक धर्म प्रश्नोत्तरी

लेखक 👉 श्री पं० धर्मदेवजी सिद्धान्तालंकार, विद्यावाचस्पति


वैदिक धर्म प्रश्नोत्तरी

वैदिक साहित्य ऋषिकृत ग्रन्थ

( उपवेद , ब्राह्मण , वेदांग, उपांग तथा उपनिषदें )

प्रश्न उपवेद कितने है और कौन- कौन से है?
उत्तर उपवेद चार हैं। उनके नाम आयुर्वेद, धनुर्वेद, गंधर्वेद और अर्थर्वेद है । आयुर्वेद ऋग्वेद का उपवेद है और उसमें शरीर की रक्षा और आरोग्य व तन्दुरूस्ती के उपाय, दवाइयों के गुण और बीमारियों के इलाज आदि का वर्णन है। आजकल आयुर्वेद के ग्रंथो में चरक-संहिता और सूश्रुत-संहिता प्रसिद्ध है। धनुर्वेद यजुर्वेद का उपवेद है और उसमें धनुष बाण चलाने आदि का सारा विषय है।  गंधर्वर्वेद सामवेद का उपवेद है और उसमें संगीत का विषय है। अथर्ववेद का उपवेद अर्थवेद है जिसमें शिल्प शास्त्र का विषय है। कईयों के मत में आयुर्वेद अथर्ववेद का उपवेद है, क्योंकि ऋग्वेद की तरह अथर्ववेद में भी औषधि विषयक कई सूक्त पाए जाते है ।
प्रश्न वेदों के पुराने भाष्य कौन से हैं, जिनमें वेदों के अर्थ समझने में सहायता मिल सके?
उत्तर वेदों के पुराने भाष्य ब्राह्मण ग्रंथ हैं जिन्हे महीदास, ऐतरेय, याज्ञवल्क्य आदि ऋषियों ने बनाया । इनमें से प्रसिद्ध ये हैं -
ऋग्वेद का ब्राह्मण -ऐतरय ब्राह्मण,
यजुर्वेद का ब्राह्मण- शतपथ ब्राह्मण,
सामवेद का ब्राह्मण - साम व ताण्ड्य महाब्राह्मण,
अथर्वेद का ब्राह्मण - गोपथ ब्राह्मण।
इनमें वेद में आए शब्दों के अर्थ बताए गए हैं तथा यज्ञों में उनका प्रयोग बताया गया है ।
प्रश्न➤ वेदांग कितने और कौन - कौन से हैं।
उत्तर वेदांग छः है। इनके नाम ये हैं-शिक्षा, कल्प, व्याकरण ,निरूक्त,छन्द,और ज्योतिष।
इनके पढ़ने से वेदों को समझने में सहायता मिलती है। व्याकरण ग्रंथों में पाणिनिमुनि कृत अष्टाध्यायी और पतंजलिमुनिकृत महाभाष्य प्रसिद्ध हैं । यास्काचार्यकृत निरूक्त अत्यन्त प्रसिद्ध और उपयोगी है। पिंगलमुनि कृत छन्दशास्त्र बड़ा प्रसिद्ध है।
प्रश्न➤ उपांग कौन-कौन से हैं और उन्हे किन ऋषियों ने बताया?
उत्तर➨ उपांगों को दर्शन शास्त्र व शास्त्र भी कहां जाता है। ये छः है जिनमें आत्मा,परमात्मा,प्रकृति जगत की उत्पत्ति और मुक्ति इत्यादि कठिन प्रश्नों पर विचार किया गया है।इनके नाम निम्नलिखित है-
गौतममुनिकृत -न्याय-शास्त्र,
कपिलमुनिकृत-सांख्य-शास्त्र
पतञ्जलिमनिकृत-योग शास्त्र
जैमिनिमनिकृत-पूर्वमीमांसा-शास्त्र
 वेदव्यास मुनिकृत-उत्तरमीमांसा- शास्त्र
 वेदांन्त- शास्त्र
प्रश्न➤ ऋषिकृत उपनिषदें कौन- कौन सी और कितनी हैं तथा उनमें किस विषय पर वर्णन
है?
उत्तर वैसे तो आजकल ४००के लगभग उपनिषदें पाई जाती हैं, पर प्रमाणिक ऋषिकृत उपनिषदें ११ हैं , जिनके नाम ये हैं- १. ईश, २. केन, ३. कठ, ४. प्रश्न, ५. मुण्डक, ६. माण्डूक्य, ७. ऐतरेय, ८. तैतिरीय, ९.
छान्दोग्य, १०. बृहदारण्यक, ११. श्वताश्वेतर।
इनमें ऋषियों ने वेदों और अपने अनुभव के आधार पर ब्रह्मविद्या का उपदेश दिया है, जो बड़ा शान्ति देने वाला है।
प्रश्न➤ धर्मशास्त्र कितने हैं और उनमें से प्रमाणिक कौन- कौन से हैं ?
उत्तरजैसा पहले बताया जा चुका है, सबसे अधिक और मानने योग्य धर्मशास्त्र तो वेद ही हैं। उससे विरूद्ध वचन चाहे किसी भी पुस्तक में पाय जाएं वे मानने योग्य नहीं हो सकते । पुराने ऋषियों के नाम से धूर्त स्वार्थी लोगों ने पुस्तके लिख डाले हैं तथा अच्छे ग्रंथों में भी प्रक्षेप व मिलावटें कर डालीं जिनके कारण यह पहचानना कठिन हो गया है कि कौन सा हिस्सा असली और कौन सा हिस्सा बनावटी है तो भी विचार पूर्वक पढ़ने से भी यह मालूम हो सकता है। धर्मशास्त्रों और स्मृतियों में पहला स्थान मनुस्मृति का है जिसे वेद के आधार पर मनु महाराज ने बताया था, पर इसमें भी समय-समय पर बहुत सी मिलावटें होती रही हैं, इसलिए प्रक्षेप को छोड़कर वेदानुकुल उसके वचनों को ही मानना चाहिए औरों को नहीं । वसिष्ठ , गौतम, अत्रि, बौधायन, हारीत, यम पराशर आदि के नाम पर भी बहुत सी स्मृतियां आजकल पाई जाती हैं, पर इनकी अच्छी बाते सब मनुस्मृति में ही पाई जाने और बहुत सी बातें वेद और बुद्धि के विरूद्ध होने से उनको ऋषि कृत नहीं माना जा सकता। आपस्तम्ब, पारस्कर, आश्वलायन, गोभिल, जैमिनि,सांख्यायन आदि कृत गृह्यसूत्र भी पाए जाते हैं। जिनमें संस्कारों का प्रतिपादन है । इनको भी प्राय: स्मृतियों के नाम से कहां जाता है । वेद विरूद्ध भाग छोड़कर ये सूत्र-ग्रंथ संस्कार तथा आश्रम धर्म आदि के विषय में उपयोगी हैं । वेदों की शाखा तथा अन्य बहुत से प्राचीन ग्रंथ लुप्तप्राय हो चुके हैं जिनको खोजने की जरूरत है।

धर्म

धर्म

प्रश्न धर्म किसे कहते हैं ?
उत्तरअच्छे कर्मों के आचरण को धर्म कहते हैं । इससे मनुष्य की उन्नति होती है । धर्म से ही मनुष्य समाज का धारण व रक्षण होता है। धर्म का आचरण करने से ही सच्चा सुख प्राप्त होता है।
प्रश्न धर्म शब्द का अर्थ पुराने ऋषिमुनियों ने क्या बताया है ?
उत्तर महाभारत को बनाने वाले प्रसिद्ध ऋषि वेदव्यास जी ने धर्म का अर्थ यों बताया है
धारणाद्धर्म इत्याहुर्धमों धारयते प्रजाः।
यत् स्यात् धारणसंयुक्तं स धर्म इति निश्चयः ।।
 जो सब का धारण करने वाला हो या जिससे सबकी उन्नति हो सके तथा जो सबको प्रेम द्वारा मिला देने वाला हो, उसे ही धर्म कहना चाहिए । जिन बातों या रीति रिवाजों से समाज को हानि पहुचती हो , उनसे लोगो में वैर विरोध व भेदभाव बढ़ता हो, उन्हे धर्म समझना हमारी भूल है ।
प्रश्न धर्म और मत में क्या भेद है ?
उत्तर➨ वैशेषिक शास्त्र के बनाने वाले कणाद मुनि ने धर्म का लक्षण यों बताया है-
यतोऽभ्युदयनिः श्रेयससिद्धि: स धर्म:। 
वैशेषिक दर्शन १/२
(यत:) जिससे( अभ्युदय) इस संसार की उन्नति और (नि: श्रेयसिद्धि :) मुक्ति अथवा हमेशा एक जैसे रहने वाले आनन्द की प्राप्ति हो (स धर्म:) वह धर्मैं कहाते है ।
इसलिए वे सब उपाय, जिनसे इन संसार की उन्नति के साथ-साथ शान्ति और आनन्द प्राप्त होवे, धर्म कहाते हैं। धर्म का सम्बन्ध हमारे अंगो के साथ है । शरीर, मन, आत्मा, समाज,देश और संसार की उन्नति के सब उपायों को धर्म कहते है। किन्तु मत में कुछ सिद्धांतों का, जिन्हे किन्ही व्यक्तियों ने प्रचलित किया हो, भाव आता है और उसके मानने में साम्प्रदायिकता का दोष आता है।
प्रश्न धर्म के मान्य लक्षण कौन से है जिन्हें सब मनुष्यों को धारण करना चाहिए ?
उत्तर➨ धर्म के दश लक्षण मनुस्मृति के बनाने वाले मनुमहाराज ने यों बताए हैं-
धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्दिग्रनिग्रहः ।
धीर्विद्यासत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम्।।
मनु० ६/९२
धृति: - धैर्य अर्थात् कष्ट आने पर भी कभी न घबराना।
क्षमा - किसी से अपराध हो जाने पर कम से कम तीन बार उसे क्षमा करना।
दमः - अपने मन को काबू में रखना।
अस्तेयम् -किसी दूसरे कि चीज का न चुराना और न मन में ऐसा विचार लाना ।
शौचम् - हर तरह से पवित्र रहना । रोज नहाना ,साफ कपड़े पहनना, अपनी जगह साफ रखना,
तथा मन और वाणी को पवित्र बना के रखना ।
इन्द्रियनिग्रहः - आंख, कान वाणी आदि इन्द्रियों को अपने वश में रखना और उनका गुलाम न
बन जाना ।
धी: - अपनी बुद्धि को सदा बढ़ाने की कोशिश करना, गांजा, भांग आफिम ,शराब चीजों के सेवन से बुद्धि आदि खराब हो जाती है, उन्हें कभी सेवन न करना।
सत्यम - सदा सत्य बोलना कितनी भी आपत्ति और प्रलोभन क्यों न आ जाएं कभी सच्चाई को न
छोड़ना, भूलकर भी झूठ न बोलना चाहे झूठ बोलने से कितना भी धन क्यों न मिल जाए।
सत्य कोशास्त्रों में सबसे बड़ा धर्म और झूठ को सबसे बड़ा पाप बतलाया हैं । याद रखों-
नास्ति सत्यात्परो धर्मों नानृतात्पाकं परम्।।
इसका अर्थ हमने ऊपर बताया है। महाराज रामचन्द्र, सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र, ऋषि दयानन्द सरस्वती, स्वामी श्रद्धानन्द सरस्वती आदि सब सत्य के कारण ही सारे संसार में प्रसिद्ध हैं। इनकी तरह महापुरुषों सत्यवादी बनने का दृढ़ संकल्प करो।
अक्रोध- क्रोध व गुस्सा न करना । क्रोध से मनुष्य की बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है । उसे यह नहीं सूझता कि उसे क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए। माता-पिता, गुरु तथा दूसरे पूजनीय व्यक्तियों का भी आदमी क्रोध में आकर अपमान कर बैठता है । ऐसे-ऐसे बुरे शब्द उसके मुंह से निकल जाते हैं जिनसे दूसरे का दिल दु:खता है और पीछे स्वयं पछताना पड़ सकता है। इसलिए क्रोध से सदा बचना चाहिए और क्रोध आए तो रोकेने की कोशिश करना चाहिए। ठण्डा पानी पी लेने व उस जगह से उठकर दूसरी जगह चले जाने से भी क्रोध कभी - कभी शान्त हो जाता है।
ये धर्म के दस लक्षण हैं जिनसे मनुष्य की उन्नति होती है और वह सबका प्यारा बनता हुआ शांति प्राप्त करता है । हरेक बालक-बालिका का कर्त्तव्य है कि इन धर्म के दस लक्षणों को अपने जीवन में धारण करने का सदा प्रयत्न करें।



प्रश्न धर्म कितने प्रकार के होते हैं?
उत्तर धर्म कई प्रकार के होते हैं :- १. वैयक्तिक धर्म, २. पारिवारिक धर्म , ३ सामाजिक धर्म, ४. राष्ट्रीय धर्म।
प्रश्न➤ वैयक्तिक धर्म तथा पारिवारिक धर्म क्या हैं?
उत्तर वैयक्तिक धर्म - जिनका हरेक मनुष्य के साथ सम्बन्ध हो या जिनके पालन करने से
मनुष्य की हर तरह उन्नति हो सके। ऊपर धर्म के भिन्न-भिन्न दस लक्षणों को बताया गया है, उनको
वैयक्तिक धर्मों में गिन सकते हैं ।
पारिवारिक धर्म - माता-पिता, पत्नी- पुत्र, भाई - बहन तथा परिवार के दूसरे लोगों के साथ जिन धर्मों का सम्बन्ध हो उन्हें पारिवारिक धर्म कहते हैं । उनको जानने और पालन करने से ही प्रेम रह सकता है और सुख प्राप्त हो सकता है । जहां परिवार के सब लोग बड़ों का मान करते और उनकी आज्ञा मानते हों, एक-दूसरे के साथ प्रेम करते और खुश रखने का यत्न करते हों, एक-दूसरे की सहायता करते और कष्ट दूर करने की कोशिश करते हों, यही पारिवारिक धर्म का पालन होता है। ऐसा परिवार सुखी रहता है।
प्रश्न➤ सामाजिक धर्म क्या है?
उत्तर➨ मनुष्य अकेला रहना पसन्द नहीं करता। हमेशा अकेले रहने से उसकी हर तरह की उन्नति नहीं हो सकती,इसलिए वह समाज में रहता और बढ़ता है। जिस समाज में वह रहता है। उसके प्रति उसके कई कर्त्तव्य होते हैं, उन्हें ही सामाजिक धर्म कहते हैं । हरेक मनुष्य का कर्त्व्य है कि वह अपनी शक्ति और योग्यता के अनुसार समाज की सेवा करें । सबकी उन्नति के लिए प्रयत्न करें। कोई ऐसा काम न करे जिससे समाज को हानि पहुंचती हो। सबको अपना भाई और मित्र समझे । सबकी भलाई में अपनी भलाई समझे । समाज में जो बुरे रीति-रिवाज हों उनको हटाने का सदा प्रयत्न करे। अपना तन,मन समाज की उन्नति और सेवा में लगा ।
प्रश्न राष्ट्रीय धर्म क्या होते हैं?
उत्तर जो जिस देश में पैदा होता है, उसके प्रति भी उसके बहुत-से कर्त्तव्य होते हैं | उन्हीं को राष्ट्रीय धर्म कहते हैं । अपने देश की हर तरह से उन्नति हो, इसके लिए अपनी शक्ति के अनुसार दे। सदा काम करना चाहिए। देश के लोगों के अन्दर एकता लाने का यत्न सबको करना चाहिए। कुछ बातों में मतभेद के कारण आपस में लड़ाई-झगड़ा न करना चाहिए। देश की उन्नति के लिए एक भाषा का होना जरुरी है । (जो भारतवर्ष में हिन्दी ही हो सकती है। ) उसे हरेक को जरूर सीखना चाहिए। जहां तक हो सके, स्वदेशी चीजों को ही काम में लाना चाहिए। सदा शुद्ध स्वदेशी कपड़ा (खद्दर) ही पहनने का व्रत लेना चाहिए क्योंकि विदेशी वस्त्र पहनने से हमारे देश के करोड़ों रुपये विदेशों में चले जाते हैं । इससे हमारा देश प्रतिदिन गरीब होता जाएगा । देश के अन्दर शिल्प व
कारीगरी वगैरह बढ़ाने का भी सबको प्रयत्न करना चाहिए । मतलब यह है कि मातृभूमि की सेवा हर तरह से करना और उसे स्वावलम्बी और स्वतन्त्र बनाए रखने का यत्न करना- यह हम सबका कर्त्तव्य है। प्रत्येक बालक- बालिका को चाहिए कि अपने माता-पिता के समान भारतमाता के साथ प्यार करे और उसकी सेवा में हर तरह से सदा तत्पर रहे । इसके लिए महाराणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी, लोकमान्य तिलक, ऋषि दयानन्द जैसे देशभक्तों के जीवन-चरित्रों को पढ़ते रहना चाहिए।


वर्ण धर्म

वर्ण धर्म

प्रश्वर्ण शब्द का अर्थ क्या है?
उत्तर➨ वर्ण शब्द का अर्थ यह है कि जिसे उसके गुण–कर्म देखकर चुना जाए।
प्रश्न वर्ण कितने है और उनके क्या नाम है?
उत्तर वर्ण चार हैं और उनके नाम ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र है।
प्रश्न ब्राम्हण वर्ण के धर्म क्या है और कौन मनुष्य ब्राह्मण कहला सकता है?
उत्तर ब्राह्मण शब्द का अर्थ है, जो ब्रह्म अर्थात ईश्वर और वेद के स्वरूप को जानने वाला हो।
अध्यापनमध्ययनं यजनं याजनं तथा ।*
*दानं प्रतिग्रहं चैव ब्राह्मणानामकल्पयत् ।।*
―(मनु० १।८८)
अर्थात :– ब्राह्मण के छः मुख्य धर्म या कर्म बताए गए हैं– १. वेदादि सत्य शास्त्रों का पढ़ना, २. स्वयं पढ़ के सत्य विद्या को पढ़ाना वा प्रचार करना, ३. स्वयं यज्ञ करना, ४. दुसरों को यज्ञ कराना जिससे सबका कल्याण हो सके, ५. अपनी शक्ति के अनुसार दान देना, ६. श्रद्धापूर्वक दिए जाने पर उसे मर्यादा के अन्दर रहते हुए, प्रेम से स्वीकार करना। जो इन धर्मों का भलीभांति पालन करता हुआ समाज की सेवा करता है तथा सबकी भलाई के लिए प्रयत्न करता है, वही विद्वान्, धर्मात्मा सदाचारी और त्यागी पुरुष कहला सकता है।
प्रश्न वे कौन–से गुण हैं जो ब्राह्मण के लिए आवश्यक है और जिनके बिना कोई मनुष्य ब्राह्मण कहला ही नहीं सकता, चाहे वह कैसे ही ऊंचे कुल में पैदा हुआ हो?
उत्तर➨ इन गुणों को वेद–शास्त्रों के आधार पर महाभारत में यो गिनाया गया है—
सत्यं दानं क्षमा शीलम आनृशंस्यं त्रपाऽघृणा।
तपश्च दृश्यते यत्र, स ब्राह्मण इति स्मृतः।। 
महाभारत शान्ति पर्व 
अर्थात जिसके अन्दर निम्नलिखित गुण हों, वह ब्राह्मण कहलाता है
१.सत्यम — सच्चाई, अर्थात मन, वचन, कर्म से सदा सत्य के व्रत का पालन करना।
२.दानम् — अपनी शक्ति के अनुसार गरीबों, अनाथों और असमर्थोन की सहायता करना और उत्तम संस्थाओं को धन देना।
.क्षमा — किसी से अपराध होने पर कम से कम तीन बार क्षमा करना।
४.शीलम् — उत्तम, प्रेममय, मधुर स्वभाव को धारण करना।
५.आनृशंस्यम् — क्रूरता से रहित होना। मनुष्य और पशु सबके साथ कोमलता और प्रेम से बरतना।
६.त्रपा — दुष्कर्म करने में लज्जा रखते हुए उनसे अलग रहना।
७.तप — सर्दी–गर्मी, सुख-दुख, मान–अपमान इत्यादि का सहन करना तथा भयंकर आपत्ति के आने पर भी न घबराना और धर्म के मार्ग को न छोड़ना।
इस विषय को भगवद गीता के अठारहवें अध्याय में श्री कृष्णा महाराज ने कहा है—
शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम्।। 
(गीता १८/४२)
अर्थात (शमः) शान्ति, (दमः) आत्मसंयम; तपः– तपस्या; शौचम्– पवित्रता;क्षान्तिः– सहिष्णुता; आर्जवम्– सत्यनिष्ठा; एव– निश्चय ही; च– तथा; ज्ञानम्–ज्ञान; विज्ञानम्– परमात्मा, आत्मा आदि विषयक विशेष ज्ञान को प्राप्त करना; आस्तिक्यम्– धार्मिकता; ब्रह्म– ब्राह्मण का; कर्म–कर्तव्य; स्वभावजम्– स्वभाव से उत्पन्न, स्वाभाविक | शान्तिप्रियता, आत्मसंयम, तपस्या, पवित्रता, सहिष्णुता, सत्यनिष्ठा, ज्ञान,विज्ञान तथा धार्मिकता – ये ब्राम्हण के स्वाभाविक कर्म है जिनके बिना कोई ब्राम्हण कहला नहीं सकता।



प्रश्न ब्राम्हण की उपमा शरीर के किस अंग के साथ दी जा सकती है, जिससे उसके धर्मों का बोध हो सके?
उत्तर वेदों के सुप्रसिद्ध पुरुष सूक्त में कहां है—
 ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीत्। 
(यजुर्वेद ३१/११)
 अर्थात मनुष्य समाज को एक पुरुष के रूप में समझा जाए तो ब्राह्मण इस पुरुष से मुख के समान है। जिस प्रकार मुख भाग में आंख, नाक, कान आदि ज्ञानेंद्रियां रहती है और कर्मेन्द्रियों में से वाणी है, उसी तरह मनुष्य समाज में जो पुरुष सारे उत्तम ज्ञान को प्राप्त करके बार उनके द्वारा उसका प्रचार करते हैं, जो मुख भाग के समान स्वार्थत्यागी और तपस्वी होते हैं, वही ब्राह्मण कहलाता हैं। मुख में जो डाला जाता है, उसे मुख अपने पास ना रखकर आगे पहुंचा देता है इसी तरह मुख भाग शरीर में बड़ा तपस्वी हिस्सा है।
प्रश्न क्षत्रियों का धर्म क्या है, और क्षत्रिय शब्द का अर्थ क्या है?
उत्तर➨ क्षत्रिय शब्द का अर्थ है जो आपत्ति से रक्षा करण में समर्थ हो (क्षतात् त्रायत इति)। इस धर्म के पालन करने के लिए उसके अंदर बड़ी शक्ति होनी चाहिए। उसे बलवान, शूरवीर, साहसी और निर्भय होना चाहिए। वेदों में क्षत्रियों की उपमा बाहुओं से दी गई है।
बाहु राजन्यः कृत:।
(यजुर्वेद ३१/११)

 अर्थात जिस प्रकार शरीर में बाहु दुष्टों के आक्रमणों से हमारी रक्षा करते हैं, ऐसे ही जो वीर पुरुष समाज और देश की –  दुष्टों से रक्षा करने में समर्थ होकर जरूरत पड़ने पर लड़ाई करते हैं अथवा देश के शासन–विभाग में सहायता करते हैं उन्हें क्षत्रिय कहा जाता है– उनके लिए भी वेदादि शास्त्रों को और उत्तम लौकिक विद्याओं को सीखना, यज्ञ करना, दान देना, धर्मात्मा बनते हुए प्रजाओं की रक्षा करना, शूरवीर, धैर्यधारी और तेजस्वी होना, लड़ाई के मैदान से न भागना इत्यादि बड़ा जरूरी है। यह क्षत्रियों के मुख्य धर्म और कर्म हैं। सच्चे क्षत्रियों के बिना राजकार्य चल ही नहीं सकता।
प्रश्न➤ वैश्य शब्द का क्या अर्थ है, और वैश्यों के धर्म क्या है?
उत्तर वैश्य शब्द का अर्थ है, जो व्यापार इत्यादि के लिए एक जगह से दूसरी जगह, या एक देश से दूसरे देश में प्रवेश करें (विशति देशाद् देशान्तरम् इति) जो व्यापार, खेती आदि धर्मयुक्त साधनों में द्वारा (न कि धोखा, चोरी, जुए आदि से) धन को कमाकर उसे समाज और देश की उन्नति के लिए लगाते हैं, जो पशुओं की रक्षा करते हैं, जो वेदादि शास्त्रों तथा उत्तम विधाओं और उनके देशभाषाओं को सीखते, यज्ञ करते और दान देते हैं वे वैश्य कहलाते हैं।
प्रश्न वैश्य की उपमा शरीर के किस भाग से दी जा सकती है?
उत्तर वैश्य की उपमा शरीर के बीच के हिस्से से दी जा सकती है, जिसमें पेट, जांघ आ जाते हैं। इसलिए वेद में कहा है–
मध्यं तदस्त यद् वैश्य:। (अथर्ववेद १९/१/६)
अथवा उरू तदस्त यद् वैश्य:। (यजुर्वेद ३१/११)
 शरीर के बीच के हिस्से पेट आदि में सब रस इकट्ठे होते हैं। वहां से उन्हें शरीर के अन्य भागों में भेज दिया जाता है। इसी तरह वैश्य सारे धन को इकट्ठा करके, जहां-जहां समाज और देश के उन्नति के लिए उसे लगाने की जरूरत होती है, वहां-वहां लगा देता है। इस तरह वैश्य समाज की बड़ी भारी सेवा करता है, क्योंकि धन के बिना कोई उत्तम संस्था पाठशाला और अनाथालय आदि नहीं चल सकते।
प्रश्न शूद्र कौन है और उसका क्या धर्म है?
उत्तर जिसकी बुद्धि ज्यादा तेज ना हो, जिसमें शोक, मोह और कई सारे मूर्खों के लक्षण पाए जाते हों, जो पेट भरने के लिए इधर-उधर दौड़े, उसे शूद्र कहते हैं, चाहे उसका जन्म किसी भी कूल में क्यों ना हुआ हो। (शुचा द्रवतीति शूद्र: अथवा शु–आशु द्रवतीति शूद्र:।) शूद्र का काम ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य की सब तरह से सेवा करना है। शूद्र को अपने अंदर किसी तरह का अभिमान न रखकर रसोई बनाना इत्यादि सेवा-कार्यों में लगा रहना चाहिेए। सच्चे शूद्र के बिना समाज का गुजारा नहीं हो सकता, इसीलिए उनके साथ प्रेम से व्यवहार करना चाहिए। उनको उठाने का सदा यत्न करते रहना चाहिए, जिससे उसके अंदर सफाई, सच्चाई गुण आ सके तथा वह बुरी आदतों को छोड़ सकें।
प्रश्न शूद्र की उपमा शरीर के किस भाग के साथ दी जाती है?
उत्तर शुद्र की उपमा वेद में पैरों से दी गई है। (पदभ्या शूद्रो अजायत) (यजुर्वेद ३१/११) जिस प्रकार हम पैरों के बिना चल नहीं सकते, उसी प्रकार सच्चे शूद्रों व सेवकों के बिना मनुष्य समाज का गुजारा नहीं हो सकता। जो विशेष मनुष्य-ज्ञान और ऊंची बुद्धि न रखते हुए पेट भरने के लिए पैरों की सहायता से इधर-उधर जाते हैं और प्रेम से सब की सेवा करते हों, उनको शूद्र कहते हैं। सेवा करने के लिए तपस्वी होना अर्थात सर्दी-गर्मी आदि को सहन करना बहुत जरूरी है। इसलिए वर्णधर्मों को संक्षेप से बताते हुए यजुर्वेद में कहा है कि–
ब्रह्मणे ब्राह्मणाम्। क्षत्राय राजन्यम्।
मरुदभ्यो वैश्यम्। तपसे शूद्रम्।।
 (यजुर्वेद ३०/५)
 अर्थात ज्ञान के प्रसार के लिए ब्राह्मण को लगाओ। बल के काम के लिए क्षत्रियों को लगाओ। सब मनुष्यों के लिए जरूरी धन कमाने के वास्ते वैश्य को और सर्दी गर्मी को सहन करके सेवा करने के काम में शूद्र को लगाओ।
 प्रश्न➤ वर्ण को इन चारों विभागों में बांटने और शरीर के हिस्सों के साथ उनके उपमा देने की क्या प्रयोजन है?
उत्तर इसका कारण यह है कि सब मनुष्य मिल करके अपनी-अपनी शक्ति के अनुसार समाज की सेवा करें, परंतु सब में प्रेम का भाग हो। कोई अपने को बड़ा और दूसरे को छोटा न समझे। मनुष्य समाज की भलाई और उन्नति के लिए वर्णों का होना जरूरी है। किसी एक वर्ण के बिना भी गुजारा नहीं हो सकता। शरीर के हिस्से मुख, बाहु, पेट और पैर आदि एक जैसे जरूरी हैं, और सब अपने-अपने काम को करते हैं, उनमें कोई ऊंच-नीच भाग नहीं रखता। इसी तरह मनुष्य समाज के अंदर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र में एक-दूसरे के साथ प्रेम और सहयोग, मेल होना समाज की उन्नति और शांति के लिए बड़ा जरूरी है।



प्रश्न वर्ण चार है या अधिक? आजकल तो हमारे देश में चार-पांच हजार जातियां, उपजातियां पाई जाती है। क्या उन्हें मानना चाहिए?
उत्तर➨ वेद शास्त्र में केवल चार ही वर्ण बताए गए हैं, इसलिए किसी को भी पंचम कहना, उन्हें अस्पृश्य व अछूत मानना और घृणा की दृष्टि से देखना आदि सब बातें बिल्कुल वेद विरुद्ध और हानिकारक हैं। मनुस्मृति में भी साफ चार वर्ण बताते हुए कह दिया है– नास्ति तु पंचम:। (मनुस्मृति १०/४) कोई पांचवां वर्ण नहीं।  पांच-छः करोड़ भाइयों को पंचम समझना कितनी भारी भूल है। यदि बात चार-पांच हजार जातियों, उपजातियों के बारे में भी कहीं जा सकती है।
प्रश्न वर्ण और जाति शब्द का क्या एक ही अर्थ है? क्या वेदादि सत्य शास्त्रों में भी चार जातियां मानी गई है? यदि नहीं, तो वर्ण और जातियों में क्या अंतर है?
उत्तर वर्ण और जाति है, इसे पुरुष जाति और स्त्री जाति इस तरह दो जातियों में बांट सकते हैं। जाति को शक्ल से ही पहचाना जा सकता है, इसलिए उसका लक्षण न्यायशास्त्र २/२/७० में गौतम मुनि ने “आकृतिर्जातिलिंगाख्या” ऐसा किया है। ऐसी जाति को हम बदल नहीं सकते। घोड़ा, गधा, बैल गाय आदि को पशु जातियां कहते हैं, क्योंकि इनको शक्ल से पहचान कर अलग-अलग किया जा सकता है, तथा यह जातियां इस जन्म में बदल नहीं सकता। घोड़ा गधा नहीं बन सकता, न गधा घोड़ा बन सकता है, किंतु ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य शूद्रों में इस तरह का भेद नहीं जिससे उन्हें शक्ल से ही पहचान कर अलग-अलग किया जा सके। सबके शरीर और अंग तथा उनके कार्य एक ही जैसे हैं इसलिए घोड़े, गधे, गाय, बैल आदि की तरह उन्हें शक्ल से पहचानना सर्वथा असंभव है। पुरुष और स्त्री जाति को अलग-अलग जाति कहा जा सकता है, क्योंकि उन्हें शक्ल से पहचाना जा सकता है, चार वर्ण का परस्पर भेद उनके गुण-कर्म के कारण के कारण न कि जन्म के कारण। इसलिए ब्राह्मण क्षत्रिय आदि वर्ण है न कि जातियां।
प्रश्न तो क्या एक शूद्र के कुल के पुरुष बन सकता है और एक ब्राह्मण कुल का पुरुष भी हो सकता है?
उत्तर हां यदि एक शूद्र कुल में पैदा हुए पुरुष के अंदर ब्राह्मणों के गुण, कर्म (जिन्हें ऊपर बताया जा चुका है) पाए जाते हो, अर्थात जो विद्वान, धर्मात्मा, सदाचारी, त्यागी और तपस्वी होकर अध्यापक, उपदेशक आदि का कार्य करता है, वह सचमुच इसी जन्म में ब्राम्हण कहलाता है। इसके विपरीत जो ब्राह्मण कुल में पैदा होकर भी ज्ञान और बुद्धि नौकरी चाकरी करके पेट भरता है जिसमें ब्राह्मण से रहित है, जिसका जीवन पवित्र नहीं है, जो किसी तरह रसोई बनाना चित्त शांति क्षमा सरलता, संयम (मन और इंद्रियों को वश में रखना) आदि गुण नहीं है, वह शूद्र ही है, ब्राम्हण नहीं।
इस शास्त्रीय सिद्धांत को आजकल लोग नहीं मानते और न उस पर आचरण करते हैं, इसलिए इस विषय को स्पष्ट करने के लिए कुछ प्रमाण दीजिए। महाभारत के वनपर्व में कहा गया है—
शूद्रे चैतद भवेल लक्ष्यं द्विजे तच्च न विद्यते।
न वै शूद्रॊ भवेच्छूद्रॊ, ब्राह्मणो न च।।
न कुलेन न जात्या वा, क्रियाभिब्राह्मणो भवेत्।
चण्डालोऽपि हि वृतस्थो ब्राह्मणः स युधिष्ठिर।।
अर्थात यदि यह सत्य, दान, क्षमा, सील आदि लक्षण ब्राह्मण कुल में उत्पन्न पुरुष ब्राह्मण जनता है यदि किसी चांडाल कुल में अंदर पैदा हुए पुरुषों भी ब्राम्हण के गुण पाए जाए। और शूद्र कुल में पैदा हुए पुरुष के अंदर दिखाई देवें तो वह ब्राम्हण ब्राम्हण नहीं और वह शुद्र शुद्र नहीं। किंतु जिनमें वे गुण पाए जाए वे ब्राह्मण और जिनमें वे गुण न पाए जाएं तो वे शूद्र है। ब्राह्मण कुल में जन्म लेने से कोई ब्राह्मण नहीं हो जाता, किंतु ब्राह्मणों केेेेेे लिए बताएं गुण, कर्मों के धारण करने से ही पुरुष ब्राह्मण बनता है यदि किसी चांडाल कुल में पैदा हुए पुरुषों भी ब्राम्हण के गुण पाए जाए तो वह निश्चित ब्राम्हण ही है। इस बात को मनुस्मृति मेंं बताया गया है—
शूद्रो ब्राह्मणतामेति, ब्राह्मणश्चैति शूद्रताम्।
क्षत्रियाज्जातमेवं तु विद्याद्वैश्यात्तथैव च ।। 
मनुस्मृति(१०/६५)
इसका मतलब यह है कि एक शूद्र कुल में उत्पन्न पुरुष भी ब्राह्मण बन सकता है, यदि वह ब्राह्मण के गुण कर्मों को धारण करें और उन गुणों को धारण न करने से ब्राह्मण कुल में पैदा हुआ पुरुष भी शूद्र बन जाता है। ऐसे ही क्षत्रिय, वैश्य आदि वर्णों में गुण, कर्म के कारण परिवर्तन हो सकता है।
प्रश्न गुण कर्म पर आश्रित वर्ण व्यवस्था के स्थान पर जातिभेद प्रचलित होने से क्या नुकसान हुआ है?
 इस जातिभेद बा जात पात के कारण परस्पर विरोध और भेदभाव बहुत बढ़ गया है, एकता नष्ट होकर आपस में फूट फैल गई है, ऊंची जाति में पैदा होने का अभिमान बढ़ गया है। ब्राह्मण अपने कर्मों का पालन न करते हुए भी ब्राह्मण कुल में पैदा होने से ब्राह्मण ही रह सकते हैं, और पूजे जा सकते हैं– इस भाव ने कर्तव्य-बुद्धि को नष्ट कर दिया है तथा अपने मनमाने अधिकारों के लिए लड़ना लोगों को सिखा दिया है, जिनके कारण लोग हजारों हिस्सों में बट गए हैं और मिलकर कोई भी काम प्रेम से नहीं कर सकते। इसलिए इस झूठ जात-पात को तोड़कर सच्चे वर्ण धर्म का अपनी-अपनी योग्यता और शक्ति के अनुसार सब को पालन करना चाहिए।

ईश्वर की उपासना

आश्रम धर्म

आश्रम धर्म

प्रश्न मनुष्य की साधारण आयु शास्त्रों में कितने मानी गई है? 
उत्तर मनुष्य की साधारण आयु 100 साल की मानी गई है जिसके लिए संध्या में प्रतिदिन प्रार्थना की जाती है “जीवेम शरद: शतम्” अर्थात हम कम से कम 100 साल तक जिएं। इसलिए प्रसिद्ध है कि “शतायुर्वैपुरुष” अर्थात पुरुष की उम्र 100 साल की है, वा होनी चाहिए।
प्रश्न इस उम्र को कितने भागों में बांटा गया है?
उत्तर चार भागों में।
प्रश्न उन चार भागों को किस नाम से कहा जाता है?
उत्तर उन चार भागों को आश्रम कहते हैं।
प्रश्न इन चार आश्रमों के नाम क्या है?
उत्तर इन चार आश्रमों के नाम क्रम से ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास हैं।
प्रश्न इन चार आश्रमों में जीवन को बांटने के क्या उद्देश्य और लाभ है?
उत्तर इन चार आश्रमों में जीवन बांटने के उद्देश्य यह है— मनुष्य अपने-आपको ऊंचा उठाता जाए और सब प्रकार की उन्नति करता जाए जो धीरे-धीरे ही तो हो सकती है। जब किसी दूर की जगह जाना हो, रास्ते में कुछ मंजिल व पड़ाव करने पड़ते हैं, जिन पर ठहरते-ठहरते आसानी से आदमी अपने उद्देश्य तक पहुंच जाता है। इसी प्रकार जीवन के अंतिम उद्देश्य तक पहुंचने के लिए चार आश्रमों को जीवन की चार मंजिले समझना चाहिए।
प्रश्न मनुष्य जीवन का अंतिम उद्देश्य क्या है?
उत्तर मनुष्य जीवन का अंतिम उद्देश्य सब दुःख, अज्ञान और अशांति से छूटकर परम आनंदरूपी मुक्ति को प्राप्त करना है, जिसमें सदा सुख, शांति और आनंद रहते हैं और सब बंधन कट जाते हैं।
प्रश्न 'ब्रह्मचर्य' का अर्थ क्या है और कितने साल तक ब्रह्मचर्याश्रम में रहना चाहिए?
उत्तर➨ ब्रह्म का अर्थ पहले भी बताया जा चुका है, वह ईश्वर और वेद है । चर्य का अर्थ ज्ञान प्राप्त करना और उसमें विचरण करना व सदा रहना है। इसलिए ब्रह्मचर्य शब्द का अर्थ ईश्वर और  वेद के ज्ञान को प्राप्त करना है और सदा ईश्वर को याद रखते हुए सब काम करना है। अपने को सब प्रकार से पवित्र रखना और अपनी इन्द्रियों को काबू में रखना इत्यादि बातें इसके लिए जरुरी हैं । कम से कम २५साल की आयु तक हरेक युवक को और १६साल की आयु तक हरेक कन्या को ब्रह्मचर्याश्रम में रहना चाहिए। इस उम्र से पहले भूलकर भी विवाह न करना चाहिए ।
प्रश्न ब्रह्मचारी के मुख्य धर्म क्या है?
उत्त  ब्रह्मचारी व ब्रह्मचारिणी का सबसे बड़ा कर्त्तव्यह है कि वह अपने शरीर, मन  आत्मा की शक्तियों को बढ़ाने और अपने को हर तरह से पवित्र रखने का प्रयत्न करे । शरीर की पवित्रता के लिए रोज नहाना, वाणी की पवित्रता के लिए सच्ची, मीठी और हितकारी बातों का ही बोलना और मन की पवित्रता के लिए मन में सदा शुद्ध उत्तम भावों का रखना जरुरी है। सवेरे उठकर नित्यकर्म-व्यायाम, स्नान, सन्ध्या-वन्दन, हवन आदि श्रद्धापूर्वक करने चाहिए। सादा, सात्त्विक भोजन ही उसे करना चाहिए। मांस, शराब, खटाई, लाल मिर्च ज्यादा खारी और कसैली तथा बासी चीजें, गांजा, भांग, अफीम, चरस आदि मादक पदार्थों का उसे कभी सेवन न करना चाहिये। आचार्य गुरुजनों की धर्मानुसार आज्ञाओं का उसे नम्रता से पालन करते हुए वेद-शास्त्र और सब विद्याओं का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। सब स्त्रियों को माता व बहिन की दृष्टि से देखना चाहिए। नाटक, सिनेमा तथा शहर के खराब वायुमण्डल से दूर रहना चाहिए ब्रह्मचारी का जीवन सादा और तपस्वी, अर्थात् सर्दी-गर्मी इत्यादि को से सहन करने वाला होना चाहिए । उसे गुरुकुल में वास करते हुए आचार्य को पिता और विद्या को माता समझना चाहिए। अपने माता-पिता आदि सम्बन्धियों के प्रति भी मोह व बहुत अधिक प्रेम न रखना चाहिए । काम, क्रोध, लोभ, भय, शोक, ईर्ष्या, आलस्य, द्वेष आदि दुर्गुणों का त्याग करते हुए उसे सत्यनिष्ठ, त्यागी, तपस्वी, विद्वान्, धर्मात्मा, ईश्वरभक्त, जितेन्द्रिय बनने का सदा यत्न करना चाहिए।


प्रश्न ब्रह्मचर्य से क्या लाभ है?
उत्तर ब्रह्मचर्य से शरीर, मन और आत्मा की शक्ति बढ़ती है, जैसे कि श्री भीष्मपितामह, श्री स्वामी शंकराचार्य, स्वामी आनंद तीर्थ ( श्री मध्वाचार्य ) , ऋषि दयानन्द सरस्वती आदि महापुरुषों के जीवन से स्पष्ट प्रतीत होता है। उन्होंने मरने तक पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन किया था । ब्रह्मचर्य के प्रताप से मनुष्य मौत के डर से ऊपर उठ जाते हैं और मृत्यु पर विजय पा लेते हैं । वेद में बतलाया गया है-
ब्रह्मचर्येण तपसा देवा मृत्युमपाघ्नत।
अथर्व० ११०/५/१६
अर्थात् ब्रह्मचर्य और तप के प्रताप से सत्यनिष्ठ विद्वान् लोग मृत्यु पर विजय प्राप्त कर लेते हैं।
प्रश्न गृहस्थाश्रम वालों के मुख्य कर्त्तव्य क्या हैं?
उत्तर➨ गृहस्थाश्रम में रहनेवालों के मुख्य कर्त्तव्य ये हैं कि आपस में प्रेमपूर्वक बर्ताव करें। सब मिलकर उत्तम कार्यों के करने में तत्पर रहें। पति एकपत्नीव्रत का और पत्नी पतिव्रत धर्म का पालन करें। मर्यादा नियम और संयम में रहकर अपने सब कर्तव्यो का पालन करें। पति-पत्नी एक दूसरे को एक ही शरीर के हिस्से समझते हुए सदा प्रेम से रहें सब धर्म - कार्यों के करने में एक-दूसरे की सहायता करें। पुत्र तथा पुत्रियों को उत्तम विद्या दिलाकर उन्हें सदाचारी, धर्मात्मा और परोपकारी बनाने का सदा प्रयत्न करें। स्वार्थ को त्यागकर दानशील बनें।
प्रश्न वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश का समय कौन-सा है, तथा वानप्रस्थी के कर्त्तव्य क्या हैं?
उत्तर वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश का समय साधारणतया पचास वर्ष के बाद है, जबकि संतान की संतान हो जाए। गृहस्थ का अनुभव लेने के बाद हरेक पुरुष और स्त्री को वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश करके अपनी मानसिक और आत्मिक शक्ति तथा ज्ञान को बढ़ाना और गुरुकुल आदि में रहकर पढ़ाने वरगैरह तथा ध्यान-योग तथा वेदादि शास्त्रों के मनन में अपने समय को विशेष रूप से लगाना चाहिए। अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य, तप, शान्ति, इन्द्रियनिग्रह आदि को उसे विशेष रुप से धारण करना चाहिए । अपने ज्ञान और अनुभव से उसे दूसरों को यथाशक्ति लाभ पहुंचाना चाहिए ।
प्रश्न वानप्रस्थ आश्रम की आजकल क्या जरूरत है? और इससे क्या लाभ हैं?
उत्तर यदि पुराने जमाने की तरह लोग पचास वर्ष की उम्र के बाद वानप्रस्थी बनने का नियम बनालें, तो गुरुकुल तथा दूसरी उत्तम संस्थाएं चलाना बड़ा आसान हो जाए। आजकल की तरह विद्वान्, अनुभवी, त्यागी कार्यकर्त्ताओं की कमी इन संस्थाओं के चलाने वालों को अनुभव नहीं होगी। इस तरह शिक्षा और समाज का काम बड़ी अच्छी तरह तथा आसानी से चलता जाएगा। वृद्ध लोगों को जो शान्ति ऐसा करने से प्राप्त होगी, उसका विशेष रूप से यहां वर्णन करने की जरूरत नहीं ।
प्रश्न संन्यास शब्द का अर्थ क्या है, और संन्यासी के कर्त्तव्य क्या हैं?
उत्तर संन्यास शब्द का अर्थ सब बुराइयों का त्याग करना है। संन्यासी उसी को कहते हैं जो बुरे कर्मों तथा निज स्वार्थ को छोड़कर ईश्वर के ध्यान और परोपकार में सदा लगा रहता है, जो धन, पुत्र और यश की इच्छा से ऊपर उठ जाता है, जो निर्भय होकर सब जगह धर्म का प्रचार और अधर्म, अन्याय तथा अत्याचार का घोर विरोध करता है, जो सब प्राणियों पर प्रेम-दृष्टि रखता है, चक्रवर्ती राजा तक को अधर्म का काम करते हुए देखकर जो डांट सकता है, ऐसे सच्चे सन्यासियों  की संख्या जितनी अधिक होगी उतना ही जल्दी संसार का सुधार और उद्धार होगा।

वैदिक धर्म की मुख्य शिक्षाएं

वैदिक धर्म की मुख्य शिक्षाएं

प्रश्न वैदिकधर्म की ईश्वर-विषयक क्या शिक्षा है?
वेदों में परमेश्वर का स्वरूप जानने के लिए यह पोस्ट पढ़िए

वेदों में परमेश्वर का स्वरूप



प्रश्न वैदिक धर्म की दूसरी शिक्षा क्या हैं?
उत्तर वैदिकधर्म की दूसरी शिक्षा है- सब मनुष्यों को भाई और परमात्मा को पिता- माता समझकर सबकी भलाई के लिए प्रेमपूर्वक करना और किसी को भी अस्पृशय व अछूत समझना वैदिकधर्म की शिक्षा के विरुद्ध है।
प्रश्न वैदिकधर्म की तीसरी शिक्षा क्या है?
उत्तर वैदिकधर्म की तीसरी शिक्षा कर्मों का नियम है, जिसका मतलब यह है कि हम जैसा काम करते हैं वैसा ही हमें फल मिलता है। बुरे परिणाम दु:ख, शोक, अशान्ति आदि होते हैं । अच्छे काम करने से सुख, शान्ति और आनन्द प्राप्त होता है । हमें यह बात याद रखनी चाहिए कि ईश्वर न्यायकारी है और दुनिया में झूठ और धोखा देर तक नहीं चल सकता। अन्त में उसकी पोल खुल जाती है | विजय तो जरूर सत्य की ही होती है, जैसा कि ऋषियों ने कहा है-

सत्यमेव जयते नानतृम् ।
-मुण्डकोपनिषत्
इसलिए हमें कभी भी सत्य और न्याय के मार्ग को न छोड़ना चाहिए, चाहे ऐसा करने में कितने भी कष्ट उठाने पड़े। न्यायकारी ईश्वर की दया से अन्त में हमें अवश्य अच्छा फल मिलेगा ।
प्रश्न क्या कर्मों का फल इसी एक जन्म में मिल जाता है, या दूसरे भी जन्म लेने पड़ते हैं?
उत्तर सारे कर्मों का फल इसी जन्म में ही नहीं मिल जाता। उसके लिए कई जन्म लेने पड़ते हैं, ताकि कई तरह का अनुभव प्राप्त हो सके, जो एक जन्म में कभी संभव नहीं हो सकता।
प्रश्न इस बात का क्या प्रमाण है कि कई जन्म होते हैं? हमें तो अपने और किसी भी जन्म का हाल याद नहीं।
उत्तर केवल याद न रहने का यह मतलब नहीं कि पूर्वजन्म होता ही नहीं। अगर तुमसे यह पूछा जाए कि परसों तुमने क्या खाया था तो तुममें से बहुतों को याद न होगा, पर क्या इसका मतलब है कि तुमने कुछ नहीं खाया था? अनेक जन्म होने के सैकड़ों प्रमाण मिलते हैं।
एक ओर ऐसे लोग हैं जिनको सब तरह आराम हासिल है और किसी तरह की चिन्ता नहीं जिनके शरीर, मन, बुद्द्धि सब अच्छे हैं। दूसरी ओर लाखों नहीं, बल्कि करोड़ों ऐसे हैं जो बिल्कुल गरीब हैं, जिनको पेट-भर एक समय भी खाना नसीब नहीं होता, जो लूले, लंगड़े, अन्धे व बहरे हैं। तथा दिमाग कुछ काम नहीं करता। यदि परमेश्वर न्यायकारी है और सब मनुष्य उसके समान पुत्ररूप हैं, तो दुनिया में यह विषमता क्यों दिखाई देती है? इसका कारण सिवाय मनुष्यों के अपने पहले जन्म के किए हुए अच्छे या बुरे कामों के और कुछ नहीं हो सकता। बहुत-से बालक बिल्कुल छोटी आयु में ही बड़े कवि, गायक और विद्वान् बन जाते हैं, इसका कारण भी उनके
पूर्वजन्म के संस्कार ही मानने पड़ेंगे। अगर उस पूर्वजन्म के सिद्धान्त को न माना जाए तो परमेश्वर पर अन्याय और पक्षपात का दोष आएगा, जिसे कोई भी आस्तिक स्वीकार नहीं कर सकता। पिछले जन्म के वृत्तन्त को याद रखने वाले भी कितने ही बालक पाए जाते हैं, जिनके बताए वृत्तान्तों की सच्चाई की जांच की जा चुकी है। कुछ वर्ष पूर्व दिल्ली में ९ वर्ष की लड़की शान्तिदेवी ने पूर्वजन्म की घटनाओं का जो वर्णन किया था वह आश्चर्यजनक था, जिसकी सच्चाई प्रमाणित हुई थी। अभी बरेली के मुस्लिम परिवार के एक ५ वर्ष के करीमुल्लाह नामक बालक और छतरपुर (म०प्र०) की एक कन्या स्वर्णलता के पूर्व जन्म की स्मृति के स्पष्ट उदाहरण समाचार पत्रों में प्रकाशित हैं, जिनकी यथार्थता की जांच की जा चुकी  हैं।



प्रश्न यदि कर्मफल का नियम ठीक हो, तो तीर्थस्थान व यात्रा से पापनाश के विश्वास को कैसे ठीक माना जा सकता है?
उत्तर गंगा, यमुन, सरस्वती, कावेरी, गोदावरी आदि नदियों में स्नान करने अथवा हरिद्वार, द्वारिका, जगन्नाथपुरी, रामेश्वरम्, कन्याकुमारी इत्यादि तीर्थस्थानों की यात्रा करने से किए हुए पाप धुल जाते हैं, यह विश्वास वेद और युक्ति के बिल्कुल विरुद्ध है। वास्तव में किए हुए पापों का फल हमें अवश्य भोगना ही पड़ता है। उसे भोगे बिना हमारा किसी तरह भी छुटकारा नहीं हो सकता। सत्य, क्षमा, इन्द्रिय-निग्रह, भूत-दया, मन की पवित्रता, ब्रह्मचर्य, अहिंसा आदि ही सच्चे तीर्थ हैं, जिनकी सहायता से मनुष्य संसाररूपी समुद्र को पार कर सकता है । जैसा कि महाभारत में कहा है-
सत्यं तीर्थ क्षमा तीर्थ, तीर्थमिन्द्रियनिग्रहः।
ब्रह्मचर्य परं तीर्थम्, अहिंसा तीर्थमुच्यते
सर्वभूतदया तीर्थं, तीर्थमार्जवमेव च।
तीर्थांनामुत्तमं तीर्थं विशुद्धर्मनस: पुन:।।
अर्थात् सत्य तीर्थ है, क्षमा तीर्थ है इन्द्रियों को वश में रखना तीर्थ है , ब्रह्मचर्य बड़ा भारी तीर्थ है, सरलता तीर्थ है, सारे प्राणियों पर दया करना तीर्थ है, सबसे बड़ा तीर्थ तो मन को शुद्ध व पवित्र रखना है । इन सत्य ब्रह्मचर्य, अहिंसा, चित्तशुद्धि आदि के बिना कभी किसी को मुक्ति, दुःख से छुटकारा प्राप्त नहीं हो सकता।
प्रश्न वैदिकधर्म की चौथी शिक्षा क्या है?
उत्तर वैदिकधर्म की चौथी शिक्षा सम-विकास अथवा अपने शरीर, मन, आत्मा आदि की सब शक्तियों को बढ़ाने का यत्न करना है । वैदिक धर्म इस बात पर जोर देता है की हमें अपनी सब साथ ही वह इसके साधन बताता है । व्यायाम को ठीक तौर पर करने से शरीर की शक्ति बढ़ती है। अच्छी-अच्छी पुस्तकों के पढ़ने और विचार करने से मन की शक्ति बढ़ती है, ईश्वर का ध्यान करने और योग का अभ्यास करने से आत्मा की शक्ति बढ़ती है। श्रीरामचन्द्र, श्रीकृष्णचन्द्र, ऋषि दयानन्द सरस्वती जैसे महापुरुषों को हमें स्व- विकास के लिए आदर्श रखना चाहिए ।
प्रश्न वैदिकधर्म की पांचवीं शिक्षा क्या है?
उत्तर वैदिकधर्म की पांचवीं शिक्षा है- यज्ञ की भावना को पैदा करना और बढ़ाना। 'यज्ञ' का अर्थ गरीब पशुओं को आग में डालना नहीं है-जैसा कि अज्ञान से कई लोग समझते हैं-बल्कि सेवा और स्वार्थ-त्याग को धारण करना है। वेदों में यज्ञ को बड़ा धर्म बताते हुए कहा है कि उसी के द्वारा विद्वान् और धर्मात्मा लोग भगवान् को प्राप्त करते हैं ।
यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवाः।
यजु० ३१/१६
प्रश्न यज्ञ शब्द का अर्थ क्या हैं?
उत्तर यज्ञ शब्द यज् धातु से बनता है, जिसके तीन अर्थ है-
(१) देवपूजा, (२) संगतिकरण और (३) दान
देवपूजा का मतलब है- धर्मात्मा, सत्यनिष्ठ विद्वानों का आदर करना और साथ ही परमात्मा की पूजा करना।
संगतिकरण का अर्थ लोगों में एकता व मेल-जोल पैदा करना या मिलकर अच्छे काम करना है, जिससे सबकी उन्नति हो सके। दान का अर्थ गरीबों, अनाथों और दुखियों तथा अच्छी संस्थाओं की धन से सहायता करना
है। इस प्रकार यज्ञ के अन्दर सब अच्छे काम, जो दूसरों की भलाई के लिए किए गए हों, आजाते हैं। 

पंच महायज्ञ संस्कार और पर्व 

पंच महायज्ञ

प्रश्न पांच महायज्ञ कौन-से हैं, जिनको करना हर एक गृहस्थ का आवश्यक धर्म है ?
उत्तर पांच यज्ञ निम्नलिखित हैं-
१. ब्रह्मयज्ञ, २. देवयज्ञ, ३. पितृयज्ञ, ४. बलिवैश्वदेवयज्ञ अथवा भूतयज्ञ, ५. नृयज्ञ अथवा
अतिथियज्ञ।
ये सब यज्ञ गृहस्थों को प्रतिदिन करने चाहिए । ब्रह्मचारियों को ब्रह्मयज्ञ और देवयज्ञ जरुर करने चाहिए ।
प्रश्न ब्रह्मयज्ञ किसे कहते हैं?
उत्तर ब्रह्मयज्ञ का अर्थ सन्ध्या और स्वाध्याय, अर्थात् वेदादि सत्य शास्त्रों को पढ़ना-पढ़ाना है। प्रतिदिन प्रात: और सायं प्रत्येक पुरुष और स्त्री को संध्या अवश्य करनी चाहिए । इसी तरह प्रतिदिन कुछ समय धार्मिक ग्रन्थों में अवश्य लगाना चाहिए।
प्रश्न ब्रह्मयज्ञ से क्या लाभ होता है?
उत्तर सन्ध्या के करने से मन शान्त और पवित्र हो जाता है और आत्मिक शक्ति बढ़ जाती है। ईश्वर पर पूर्ण विश्वास रखने से मनुष्य कठिन से कठिन आपत्ति आने पर भी घबराता नहीं है। स्वाध्याय के करने से अच्छे पवित्र विचार मन में स्थिर हो जाते हैं, जिनसे जीवन को पवित्र बनाने में बड़ी सहातया मिलती है।
प्रश्न देव यज्ञ का क्या अर्थ है?
उत्तर देवयज्ञ का अर्थ होम व हवन है । चन्दन, धूपबत्ती, कपूर आदि सुगन्धित पदार्थों की सामग्री बनाकर घी के साथ उसे अग्नि में डाला जाता है। प्रत्येक घर में यह हवन भी जरूर होना चाहिए।
प्रश्न हवन से क्या लाभ है? क्यों घी वगैरह को ऐसे नष्ट किया जाए?
उत्तर हवन के करने से वायु शुद्ध हो जाती है | आग में सामग्री डालने से सुगन्धित उठती है और सारी दुर्गन्ध दूर हो जाती है। सामग्री के अन्दर बहुत-से रोग पैदा करनेवाले कृमियों को नष्ट करने वाली चीजें होती हैं, जो अग्नि में चलकर परमाणु रूप बनकर वायु में मिल जाती है और श्वास-प्रश्वास द्वारा हमारे भीतर के विषैले कृमियों का नाश कर देती हैं। इसलिए हवन करना घी को व्यर्थ नष्ट करना नहीं, बल्कि अपना और दूसरों
आज्ञा के अनुसार सवेरे-शाम हवन किया जाने लगे, तो सब लोग स्वस्थ और निरोग हो जाएं। अतः प्रत्येक ब्रह्मचारी, गृहस्थ और वानप्रस्थ को हवन जरूर करना चाहिए।
प्रश्न बलिवैश्वदेवयज्ञ क्या है और इससे क्या लाभ है?
उत्तर सब प्राणियों पर मित्र-दृष्टि रखते हुए उनको अपना-अपना हिस्सा खाने के लिए देना। गाय, कौवे, कीड़ी इत्यादि सबको बलि अर्थात् खाने का भाग देना । इस यज्ञ का उद्देश्य यह है का भला करना है। अगर घर-घर में शास्त्रों की कि मनुष्य सब प्राणियों में अपने समान आत्मा को अनुभव करते हुए प्रेम से व्यवहार करना सीखें।
प्रश्न पितृयज्ञ किसे कहते हैं, और इससे क्या लाभ हैं?
उत्तर पितृयज्ञ का र्थ श्रद्धा-भक्ति से माता-पिता, आचार्य तथा गुरुजनों की पूजा करना है। इस तरह उनका आशीर्वाद मिलता है और उनके प्रति मनुष्य अपने कर्त्तव्य का पालन करता है।
प्रश्न पितर और कितने प्रकार के होते हैं?
उत्तर➨ पितर का शब्दार्थ - रक्षक है । वे मुख्यतया पांच प्रकार के बताए गए हैं।
जनकश्चोपनेता च यःश्च विद्यां प्रयच्छति ।
अन्नदाता भयत्राता, पञ्ैते पितरः स्मृता:।।
-चाणक्यनीति, ५/२२
अर्थात् पिता, आचार्य, विद्या देने वाले अध्यापक, अन्न देनेवाला और भय से रक्षा करने वाला, ये पांच पितर कहे जाते हैं।
प्रश्न पितृयज्ञ और श्राद्ध एक ही हैं या अलग-अलग- क्या मृत पितरों की तृप्ति के लिए श्राद्ध करना वेद-सम्मत और उचित है?
उत्तर पितृयज्ञ और श्राद्ध एक ही हैं। श्राद्ध का अर्थ है श्रद्धाभक्ति से माता-पिता तथा गुरुजनों की सेवा करना। यह प्रतिदिन करने के योग्य यज्ञ है । मृतक पितरों की तृसिति के लिए वर्ष में १५-१६ दिन श्राद्ध करना अथवा ब्राह्मणों को इस ख्याल से भोजन खिलाना कि उनको खिलाने से वह पितरों को पहुंचेगा और ऐसा न करने से वे भूखे मरेंगे, बिल्कुल भ्रमपूर्ण और वेद-विरुद्ध विचार है। हरेक आदमी को अपने कर्मों का फल अपने-आप भोगना पड़ता है। ब्राह्मणों का पेट लेटरबक्स नहीं कि उनको खिलाया हुआ भोजन मरे हुए पितरों के पास पहुंच जाए ।
प्रश्न अतिथियज्ञ किसे कहते हैं?
उत्तर अथितियज्ञ का अर्थ अतिथियों की, जो विद्वान् , धर्मात्मा सदाचारी और सत्योपदेशक हों, तथा जिनके आने की तिथि तारीख वगैरह निश्चित न हो, उनकी घर में आने पर प्रेम और आदर से सेवा करना है। इन पांच यज्ञों का करना हरेक गृहस्थ का परम कर्त्तव्य है।
प्रश्न शास्त्रों में संस्कार कितने बताए गए हैं, और उनका क्या उद्देश्य है?
उत्तर शास्त्रों में १६ संस्कार बताए गए हैं, और उनका उद्देश्य शरीर, मन और आत्मा पर गर्भ-समय से मृत्यु तक अत्यन्त उत्तम संस्कार व प्रभाव डालना और कर्त्तव्यों को स्मरण कराकर मनुष्यों की सब प्रकार की उन्नति में सहायता देना है।
प्रश्न इन १६संस्कारों के नाम क्या-क्या हैं, तथा उनके करने का समय कौन-सा है?
उत्तर १६ संस्कारों के नाम निम्नलिखित हैं-
१. गर्भाधान : कम से कम २५ और १६ की आयु में क्रमश: पुरुष और कन्या के विवाह के पश्चात्
सन्तानार्थ।
२. पुंसवन संस्कार : गर्भ-स्थिति के दूसरे या तीसरे मास।
३. सीमन्तोन्नयन संस्कार : गर्भ- स्थिति के चौथे, छठे या आठवें मास।
४. जातकर्म संस्कार : सन्तान के उत्पन्न होते ही।
५. नामकरण संस्कार :आयु के ११वें १०१वें दिन अथवा दसरे वर्ष के प्रारम्भ में।
५. नामकरण संस्कार : आयु के ११वें, १०१वें दिन अथवा दूसरे वर्ष के प्रारम्भ में।
६. निष्क्रमण संस्कार : आयु के चौथे महीने में ।
७. अन्नप्राशन संस्कार : आयु के छठे महीने में।
८. चूड़ाकर्म संस्कार : १ वर्ष या ३ वर्ष की आयु में।
९. कर्णवेध संस्कार : तीसरे या पाँचवें वर्ष की आयु में।
१०. उपनयन संस्कार : जन्म से ८ से १२ वर्ष के अन्दर।
११. वेदारम्भ संस्कार : जन्म से ८ से १२ वर्ष के अन्दर ।
१२. समावर्तन संस्कार : साधारणतया २५ वर्ष की आयु में।
१३. विवाह संस्कार : कम से कम २५ वर्ष की आयु में पुरुष का और १६ वर्ष की आयु में कन्या का।
१४. वानप्रस्थ संस्कार :५० वर्ष के पश्चात् सन्तान की सन्तान होने पर।
१५. संन्यास संस्कार : पूर्ण वैराग्य दृढ़ होने अथवा लगभग ७५ वर्ष की आयु में ।
१६. अंत्येष्टि संस्कार : ठीक मृत्यु के पश्चात् ।
प्रश्न संस्कारों के विषय में आजकल कौन-सी प्रामाणिक पुस्तक है?
उत्तर इन १६ संस्कारों के विषय में आजकल, 'संस्कार विधि' नामक प्रामाणिक पुस्तक है,
जिसको ऋषि दयानन्द ने वेद, ब्राह्मण और गृह्यसूत्रादि के आधार पर जनता के लाभार्थ बनाया था।
प्रश्न क्या आय्यों को कोई पर्व या त्यौहार भी मनाने चाहिए? यदि हां तो क्यों और कौन-कौन से?
उत्तर पर्व शब्द'पर्व पूरणे' धातु से बनता है, जिसका अर्थ' पूरयति जनान् आनन्देन' अर्थात् लोगों को आनन्द से भरपूर कर देनेवाला है । इसलिए आर्यों को मनोरंजन तथा महापुरुषों के स्मरण के लिए उत्साहपूर्वक पर्व अवश्य मनाने चाहिए। इन आर्यपर्वो में नवसंवत्सरोत्सव वा संवत्सरेष्टि, श्रीरामनवमी, श्री कृष्णजन्माष्टमी, विजयादशमी (दशहरा ), ऋषि दयानन्द बोधरात्रि (शिवरात्रि), ऋषि निर्वाणोत्सव (दीपमाला), पं० लेखराम तृतीया वसन्तपंचमी , सीताष्टनी, श्रावणी उपाकर्म (जिसे हैदराबाद आर्यसत्याग्रह स्मारक- दिवस के रुप में सन् १९३९ से मनाया जाता है), मकर-संक्रांति व माघी इत्यादि विशेष उल्लेखनीय हैं ।

धर्मवीर आर्यसज्जनों का जीवन परिचय

(बलिदान-कथा)

प्रश्न कहा जाता है कि किसी समाज की उन्नति तभी होती है, जब उसमें धर्म अथवा देश की रक्षा के लिए लोग शहीद होने तक को तैयार होते हैं । क्या आर्यसमाज में भी धर्मवीर व शहीद हुए हैं?
उत्तर आर्यसमाज के प्रवर्तक ऋषि दयानन्द का धर्म के लिए बलिदान हुआ था जिसका वर्णन किया जा चुका है । दूसरा प्रसिद्ध बलिदान धर्मवीर पंडित लेखराम जी का सन् १८९७ में हुआ।
प्रश्न पंडित लेखराम जी ने आर्यसमाज या वैदिकधर्म के लिए क्या काम किया था और उनका बलिदान क्यों और कैसे हुआ?
उत्तर पंडित लेखराम ' आर्यमुसाफिर ' आर्यप्रतिनिधि सभा पंजाब के एक अत्यन्त उत्साही और निर्भय उपदेशक थे। उन्होंने उर्दू भाषा में वैदिकधर्म सम्बन्धी बहुत सी पुस्तकें लिखीं और मुसलमानों की पुनर्जन्म आदि विषयक शंकाओं का बहुत अच्छा उत्तर दिया। उन्होंने ऋषि दयानन्द सरस्वती की एक उत्तम जीवनी भी लिखी। उनके निर्भयतापूर्वक वैदिक धर्म- प्रचार तथा शुद्धि के कार्य से कुछ मुसलमान चिढ़ गए। एक मुसलमान मार्च, सन् १८९७ में उनके पास आया और शुद्ध होने की इच्छा प्रकट की, साथ ही बीमार होने का बहाना भी किया। ६ मार्च, सन् १८९७ को जब पंडित लेखराम जी ऋषि दयानन्द का जीवनचरित्र लिखकर थकावट हटाने के लिए अंगड़ाई ले रहे थे, उस दुष्ट व्यक्ति ने मौका पाकर अपने काले कम्बल में छिपाए छुरे से उन पर वार कर दिया, जिससे घायल होकर उनके प्राण-पखेरू उड़ गए। स्वर्गीय स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज (महात्मा मुन्शीराम जी) द्वारा लिखित ' आर्यपथिक लेखराम का जीवन-चरित्र' प्रत्येक आर्यबालक को अवश्य पढ़ना चाहिए।
प्रश्न इन दो के बाद कौन-सा बलिदान हुआ?
उत्तर इनके बाद पंजाब प्रान्त के फरीदकोट रियासत के निवासी श्रीयुत तुलसीराम जी नामक सज्जन का बदिलदान स्मरण रखने योग्य है। यह महाशय स्टेशनमास्टर होते हुए, समय निकालकर धर्म- प्रचार में लगे रहते थे । जैनमत का उन्होंने अच्छी तरह अध्ययन किया था और उनके ग्रंथों व सिद्धान्तों की वे निर्भय होकर समालोचना किया करते थे। जिससे चिढ़कर कुछ जैनियों ने उन्हें एक दिन रात समय सड़क पर जाते हुए घेर लिया और मिर्च मिली रेत उन पर फेंक तथा डण्डे मारकर मार डाला।
प्रश्न चौथा बलिदान किस सज्जन का, क्यों और कब हुआ?
उत्तर चौथा बलिदान म० रामचन्द्र नामक एक जम्बू प्रान्तवासी सज्जन का जो रियासत में खजाची का काम करते थे, सन् १९२३ में हुआ। यह महाशय मेघ नामक अछूत कहलाने वाली जाति के उद्धार के लिए बहुत यत्न करते थे । उनके यत्न से दूसरे लोगों ने भी उस विषय में खास कोशिश शुरु कर दी थीं, पर कई राजपूतों को यह बात बुरी लगी । उन्होंने इन पर लाठियों से वार कर दिया और उन्हें मारकर ही छोड़ा। इस प्रकार दलितोद्धार और धर्म प्रचार का पवित्र कार्य करते हुए इनका बलिदान अपने भूले भटके राजपूत भाइयों के हाथ २६ साल की उमर में हुआ। इनके बलिदान का परिणाम यह हुआ कि दलितोद्धार का काम खूब जोर-शोर से होने लगा । जिन राजपूत लोगों ने म० रामचन्द्र को मारा था वे खुद आर्यसमाज के बड़े प्रेमी बन गए और इस तरह बीस हजार के लगभग मेघों को थोड़े ही समय में आर्यसमाज में शामिल कर लिया गया।
प्रश्न पांचवां प्रसिद्ध बलिदान किस आर्य सज्जन का, कब और क्यों हुआ?
उत्तर पांचवां बलिदान पूज्यपाद श्री स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज का दिल्ली में २३ दिसम्बर, १९२६ को अब्दुलरशीद नामक मतान्ध मुसलमान के हाथों हुआ। इसका विशेष कारण श्री स्वामी जी का शुद्धि-विषयक आन्दोलन को जोर से चलाना था, जिससे मतांघ मुसलमान चिढ़ते थे और श्री स्वामी जी को मारने का षड्यन्त्र व साजिश करते रहते थे। श्री स्वामी जी के नाम इस तरह के बहुत पत्र आते थे जिनमें उन्हें शुद्धिकार्य को बन्द करने और ऐसा न करने पर मारे जाने की धमकी दी जाती थी, पर स्वामी श्रद्धानन्द जी एक निर्भय, धर्मवीर संन्यासी थे । वे धरमकियों की जरा भी परवाह न करते हुए धर्म का काम किए चले जाते थे। उनके प्रयत्न से एक लाख से अधिक मलकाने राजपूत, जो बहुत समय बनाये जा चुके थे, फिर आर्य धर्म ( हिन्दुधर्म) में दीक्षित किए गये। २५ मार्च, १९२६ को असगरी बेगम को उसकी इच्छानुसार शुद्ध करके शान्तिदेवी नाम दिया गया। इससे मतांध मुसलमान बहुत चिढ़े और श्री स्वामी श्रद्धानन्द जी तथा उसके साथियों पर जबरदस्ती शुद्ध करने का मुकदमा चलाया । इस मुकदमे का फैसला श्री स्वामी जी के पक्ष में हुआ । इससे मुसलमानों का क्रोध और भी बढ़ गया| अन्त में अब्दुलरशीद नामक एक मुसलमान श्री स्वामी श्रद्धानन्द जी के मकान पर २२ दिसम्बर, सन् १९२६ को आया। उस समय वे निमोनिया की बीमारी से पीड़ित होकर आराम कुर्सी पर आराम कर रहे थे | उसने पूर्व मुसलमान पहले तो उनसे इस्लाम के बारे में बातचीत करने का बहाना बनाया । स्वामी जी ने कहा कि बीमारी के कारण डाक्टरों ने मुझे ज्यादा बोलने से रोक दिया है, अच्छा होने पर मैं बातचीत करुंगा । तब उसने पानी पीने को मांगा। पानी पीकर उसने श्री स्वामी जी पर चार गोलियां चलाई और उनके पवित्र जीवन का अन्त कर दिया।
प्रश्न श्री स्वामी जी ने आर्यसमाज के लिए क्या-क्या विशेष काम किये थे ?
उत्तर स्वामी श्रद्धानन्द जी (जिनका पूर्व नाम मुन्शीराम जी था) आर्यसमाज के एक बहुत बड़े नेता थे। उन्होंने अपनी सफल वकालत को छोड़कर आर्यसमाज के कार्य में अपने सारे जीवन को लगा दिया था। ऋषि दयानन्द जी आज्ञा का पालन करने के लिए उन्होंने गुरुकुल खोलने का निश्चय किया। इसके लिए यह प्रतिज्ञा की कि जब तक तीस हजार रूपये इकट्ठे न कर लूंगा तब तक घर में पैर न रखूंगा। इस प्रतिज्ञा को उन्होंने पूरा किया और अपना तन,मन, धन आर्यसमाज और गुरुकुल की सेवा के लिए लगा दिया। हरिद्वार के पास कांगड़ी गुरुकुल की उन्होंने सन् १९०२ में स्थापना की। यह एक आदर्श राष्ट्रीय विश्वविद्यालय के रूप में सारे संसार में अब प्रसिद्ध हो चुका है । आर्यसभ्यता, वैदिकधर्म और ब्रह्मचर्य के उद्धार के लिए जितना काम श्री स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज ने गुरुकुल के द्वारा किया उतना और किसी से नहीं हो सका। जन्मसिद्ध जातिभेद व जात-पात, अछूतपन, बालविवाह आदि खराब रीति-रिवाजों के दूर करने वालों में श्री स्वामी श्रद्धानन्द जी का नाम पहली पंक्ति में सोने के अक्षरों में लिखा जाने योग्य है। उनका जीवन शुद्ध, पवित्र था, निर्भयता और साहस की वे मूर्ति थे । स्वराज्य आन्दोलन में भी उन्होंने बहुत बड़ा भाग लिया था और बड़े-बड़े कष्ट खुशी से सहन किए थे। ऐसा त्यागी-तपस्वी, वीर-निर्भय व्यक्ति बनने का यत्न सब बालकों को करना चाहिये ।
प्रश्न छठा बलिदान किस आर्य सज्जन का, कब और क्यों हुआ?
उत्तर छठा बलिदान लाहौर के प्रसिद्ध आर्यपुस्तकालय के संचालक महाशय राजपाल जी का ६ अप्रैल, १९२९ को इल्मदीन नामक एक मुसलमान के हाथों लाहौर में हुआ था। इसका कारण यह था कि राजपाल जी द्वारा प्रकाशित' रंगीला रसूल' नामक पुस्तक से मुसलमान चिढ़े गये थे।
प्रश्न इन बलिदानों के अतिरिक्त अन्य बलिदानों के विषय में कुछ वर्णन कीजिये।
उत्तर इसके अतिरिक्त महाशय नाथूराम जी नामक एक सिन्धी आर्य सज्जन का बलिदान भी कराची में हुआ, जबकि हाईकोर्ट के एक कमरे में न्यायाधीश के सामने एक मुसलमान ने दिन-दहाड़े उनको जान से मार दिया। ऐसे ही इन्दौर रियासत के श्री मेघराज जी, रोहतक जिले के भक्त फूलसिंह जी कराची में हुआ, जबकि हाईकोर्ट के एक कमरे में न्यायाधीश के सामने एक मुसलमान ने दिन-दहाड़े उनको जान से मार दिया। ऐसे ही इन्दौर रियासत के श्री मेघराज जी, रोहतक जिले के भक्त फूलसिंह जी तथा अन्य कई आर्यसज्जनों ने धर्म के लिए प्राणों की बलि दे दी या उन्हें दुष्ट विरोधियों के क्रोध का शिकार बनना पड़ा। इन सबके जीवन-वृत्तान्त को विस्तार रुप से यहां नहीं दिया जा सकता। अत: धर्मवीर आर्यं की इस बलिदान-कथा को यही समाप्त किया जाता है । बालक- बालिकाओं को ऐसे धर्मवीर आर्यों के जीवनों का बार-बार पाठ करते हुए वीर बनने का यत्न करना चाहिये।
ऐसे बलिदानों के कारण ही आर्यसमाज थोड़े समय में बहुत बड़ी उन्नति कर सका है, इसमे सन्देह नहीं।
उदाहराणार्थ, हैदराबाद रियासत में धार्मिक स्वतन्त्रता की प्राप्ति के लिए जो आन्दोलन और धर्मयुद्ध सन् १९३९ में होता रहा, उसमें निम्रलिखित आर्यवीरों ने अपने प्राणों की आहुति दी-
श्री वेदप्रकाश जी, श्री रामजी, पं. श्यामलाल जी, श्री धर्मप्रकाश जी, श्री महादेव जी, श्री
भीमराव जी, श्री सत्यनारायण जी, श्री व्यंकटराव जी, श्री परमानन्द जी, स्वामी सत्यानन्द जी, श्री विष्णु
भगवन्त जी, श्री छोटेलाल जी, श्री पाण्डुरंग जी, श्री माधवराज जी, श्री मानूमल जी, श्रीयुत सुनहरा, म०
फकीरचन्द जी, श्री मलखान सिंह जी, श्री स्वामी कल्याणानन्द जी, श्री शांतिप्रकाश जी, श्री खांडेराव
जी, श्री बदनसिंह जी, श्री रतीराम जी, ब्रह्मनन्द जी इत्यादि।
इन सब हुतात्माओं के प्रति हम अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं ।

धर्मवीरों के प्रति श्रद्धाञ्जलि

श्रद्धाञ्जलि अर्पण करते हम, करके उन वीरों का मान।
धार्मिक स्वतन्त्रता पाने को, किया जिन्होंने निज बलिदान ।।
परिवारों के सुख को त्यागा, युवक अनेकों वीरों ने।
कष्ट अनेकों सहन किय पर, धर्म नहीं छोड़ा धीरों ने।।
ऐसे सभी धर्मवीरों के आगे सीस झुकाते हैं ।
उनके उत्तम गुणगण को हम, निज जीवन में लाते हैं।।
अमर रहेगा नाम जगत् में, इन वीरों का निश्चय से।
उनका स्मरण बनाएगा फिर, वीर जाति को निश्चय से।।
करें कृपा प्रभु आर्य जाति पर, कोटि-कोटि हों ऐसे वीर।
धर्म देश हित जोकि हर्ष से , प्राणों की आहुति दें धीर ।।
जगदीश्वर को साक्षी जानकर, यही प्रतिज्ञा करते हैं ।
इन वीरों के चरण-चिन्ह पर , चलने का व्रत धरते हैं ।।
सर्वशक्तिमय दें बल ऐसा, धीर वीर सब आर्य बनें।
पर-उपकार-परायण निश-दिन, शुभ गुणधारी आर्य बनें।।
।। इति।।


🌺🌷🌻 नमस्ते 🌺🌷🌻

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