मंगलवार, 8 अक्तूबर 2019

वैदिक विज्ञान

लेखक 👉 शिवशंकर शर्मा

वैदिक विज्ञान

पृथिवी का भ्रमण


अहस्ता यदपदी वर्धत क्षा शच्तीभिर्वेद्यानाम्‌ ।
शुष्ण परि प्रदक्षिणिद्‌ विश्वायवे निशिश्नथ: ॥ (ऋग्वेद १०/२२/१४)
क्षा=पृथिवी। पृथिवी के गौ, ग्मा, ज्मा आदि २१ नाम निघण्टु १/१ में उक्त हैं । इनमें एक नाम क्षा है। शची=कर्म, क्रिया, गति। निघण्टु में अप:, अप्र: आदि २६ नाम कर्म के हैं, इनमें शची का भी पाठ है। शुष्ण-यह नाम आदित्य अर्थात्‌ सूर्य का भी है, यथा-- “'शुष्णस्यादित्यस्यशोषयितु: '' निरुक्त ५/१६ पृथिवी पर के रस को सूर्य शोषण किया करता है, अत: सूर्य का नाम शुष्ण है । प्रदक्षिणित्=घूमती हुई । विश्वायवे=विश्वास के लिए। अथमन्त्रार्थ-- (क्षा) यह पृथिवी (यद्‌) यद्यपि (अहस्ता) हस्तरहिता और (अपदी) पैर से ही शून्य है तथापि (वर्धत) बढ़ रही है अर्थात्‌ हाथ-पैर न होने पर भी यह चल रही है। (वेद्यानामू+शचीभि:) वेद्य=जानने योग्य, जो परमाणु उनकी क्रियाओं से प्रेरित होकर चल रही है अथवा स्वपृष्ठस्थ विविध पर्वत आदि पदार्थों और मेघादिकों की क्रियाओं के साथ-साथ घूम रही है। किसकी चारों तरफ प्रदध्तिणा कर रही है। इस पर कहते हैं (शुष्णम्+परि) सूर्य के परित:=चारों तरफ (प्रदक्षिणित्) प्रदक्षिणा करती हुई घूम रही है। आगे परमात्मा से प्रार्थना है कि (विश्वायवे+निशिश्नथ:) हे परमात्मन्! हम मनुष्यों के विश्वास के लिए आपने ऐसा प्रबन्ध रचा है। भाष्यकार सायण के समय में पृथिवी का भ्रमण-विज्ञान सर्वथा विलुप्त हो गया था, अत: ऐसे-ऐसे मन्त्र के अर्थ करने में इनकी बुद्धि चकरा जाती है।
 सायण कहते हैं--
यद्वा शुष्णस्याच्छादनार्थ हस्तपादवर्जिता काचित्पृथिवी वेदितव्यानामसुराणां मायारूपै: कर्मभि: शुष्णमसरररं वेष्टित्वा प्रद्॒षिणं यथा भवति तथाsवस्थिताsवर्धत तदानी तां मायोत्पा-दितां पृथिवीं विश्वायवरे सर्वव्यापकस्य मरुद्गणस्य प्रवेशनार्थ निशिश्नथः ॥
भाव इसका यह कि असुरों ने अपनी माया से एक पृथिवी बनाई और बनाकर कहा कि शुष्ण एवं इन्द्र का युद्ध हो रहा है, इस हेतु तू शुष्ण की चारों तरफ वेष्टित हो प्रदक्षिण करती रहो जिससे इन्द्र यहाँ न पहुँच सके। इन्द्र को यह खबर मालूम हुई । मरुद्गणों को पहले वहाँ भेजा। वे वहाँ नहीं पहुँच सके। तब इन्द्र ने आकर उस पृथ्वी को ताड़ना दी, वह भाग गई। मरुद्गण वहाँ बैठ शुष्ण को छिन्न-भिन्न करने लगे। अब आप समझ सकते हैं कि सीधा- साधा अर्थ छोड़ ये भाष्यकार कैसा अज्ञातार्थ लिखते हैं। अब द्वितीय ऋचा पर ध्यान दीजिये, जिससे विस्पष्ट हो जाता है कि केवल पृथिवी ही नहीं किन्तु पृथिवी जैसे सकल ग्रह नक्षत्र आदि भी स्थिर नहीं हैं ।
कतरा पूर्वा परायो: कथा जाते कवय: को विवेद।
विश्वंमना विभ्रतोयद्धनाम विवत्त्तेते अहनी चक्रियेव ॥ (ऋग्वेद १/१८५/१)
इस ऋचा के द्वारा अगस्त्य ऋषि पूछते हैं कि (अयो:) इस पृथिवी और द्युलोक में से (कतरा+पूर्वा) कौन सा आगे है और (कतरा+परा) कौन सा पीछे है या कौन सा ऊपर और कौन सा नीचे है। (कथा-जाते) कैसे ये दोनों उत्पन्न हुए (कवयः+क:वि+वेद) हे कविगण? इसको कौन जानता है। इसका स्वयं उत्तर देते हैं। (यद्+ह+नाम) जो कुछ पदार्थ जात इन दोनों से सम्बन्ध रखता है। उस (विश्वम्) सबको ये दोनों (बिभ्रतः) धारण कर रहे हैं अर्थात् सब पदार्थ को अपने साथ लेकर (वि+वर्त्ते) घूम रहे हैं, (अहनी+चक्रिया+इव) जैसे दिन के पश्चात् रात्रि और रात्रि के पश्चात् दिन आता ही रहता है तथा जैसे रथ का चक्र ऊपर-नीचे होता रहता है तद्वत् ये दोनों द्यावा-पृथिवी एक-दूसरे के ऊपर-नीचे हो रहे हैं। अत: आगे-पीछे का इसमें विचार नहीं हो सकता। जब पृथिवी और सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, दूर-दूर भ्रमण कर रहे हैं तब यह नहीं कहा जा सकता है कि इन दोनों में ऊपर-नीचे कौन हैं? यह ऋचा चक्र के दृष्टान्त से विस्पष्ट कर देती है कि पृथिवी अवश्य घूम रही है। अब तृतीय ऋचा लिखता हूँ जो और भी विस्फुट उदाहरण पृथिवी के भ्रमण का है।
 
 
सविता यन्त्रैः पृथिवीमरम्णादस्कम्भने सविता द्यामदृंहत्।
अश्वमिवाधुक्षद्धु निमन्तरिक्षमतूर्ते बद्ध सविता समुद्रम् ॥ (ऋग्वेद १०/१४९/१)
(सविता) सूर्य (यन्त्रैः) रज्जु के समान अपने आकर्षण से (पृथिवीम्) पृथिवी को (अरम्णात्) बाँधता है और (अस्कम्भने) अनारम्भ, निराधार आकाश में (द्याम्+अदृंहत्) अपने परित: स्थित द्युलोकस्थ अन्यान्य ग्रहों को भी दृढ़ किये हुए हैं। आगे एक लौकिक उदाहरण देकर समझाते हैं, (अतूर्ते) टूटने के योग्य नहीं जो आकर्षणरूप रज्जु है उसमें (बद्धम्) बंधे हुये (धुनिम्) नाद करते हुए (समुद्रम्) बड़े जोर से भागने हारे, पृथिवी, शनि, शुक्र, मंगल, बुध आदि ग्रह रूप जो लोक है उसको (अन्तरिक्षम्) निराधार आकाश में (अश्वम्+इव+अधुक्षत् ) घोड़े के समान घुमा रहा है अर्थात् जैसे नूतन घोड़े को शिक्षित करने के लिए लगाम पकड़ सवार खड़ा हो जाता और उस घोड़े को अपनी चारों तरफ घुमाया करता है। वैसा ही यह सूर्यरूप सवार अश्व सदृश पृथिव्यादि लोक को अपनी चारों तरफ घुमा रहा है। इससे बढ़कर विस्फुट उदाहरण क्या हो सकता है, अत: उपरिष्ठ मन्त्रों से दो बातें सिद्ध हैं कि-
१-पृथिवी सूर्य की परिक्रमा करती है और
२-सूर्य के आकर्षण से यह इधर-उधर नहीं हो सकती, अपने मार्ग को छोड़ अणुमात्र भी खिसक नहीं सकती। अन्तरिक्षम् सप्तमम्यर्थ में प्रथमा है, समुद्र-समुद्द्रवति-जो बहुत जोर से दौड़ता है।
सूर्य की परिक्रमा कितने दिनों में कर लेता है इस पर कहते हैं ।
द्वादश प्रधयश्चक्रमेकं त्रीणि नभ्यानि क उ तच्चिकेत।
तस्मिन् त्साकं त्रिशता न शङ्कवोऽर्पिता: षष्टिर्न चलाचलाश । (ऋग्वेद १/१६४/४८)
(चक्रम्) यहाँ वर्ष ही चक्र है, क्योंकि यह रथ के पहिया के समान क्रमण अर्थात् पुन:-पुन: घूमता रहता है। उस चक्र में (द्वादश+प्रधयः) जैसे चक्र में १२ छोटी-छोटी अरे प्रधि कीलें हैं । वैसे सम्वत्सर में बारह मास होते हैं। (त्रीणि+नभ्यानि) इसके नभ्य अर्थात् नाभि स्थान में ग्रीष्म, वर्षा, हेमन्त तीन ऋतु हैं। (क:+उ+तत्+चिकेत) इस तत्त्व को कौन जानता है। (तस्मिन्+ साकम्+शंकवः) उस वर्ष में कीलों सी (त्रिशता+ षष्टिः) ३०० और ६० दिन (अर्पिता:) स्थापित हैं । (न+चलाचलाश:) वे २६० दिन रूप कीलें कभी विचलित होने वाली नहीं हैं । इससे यह सिद्ध हुआ कि एक वर्ष में (३६०) तीन सौ साठ दिन होते हैं । पृथिवी के भ्रमण से ही वे दिन बनते हैं, अतः ३६० दिन में पृथिवी सूर्य की परिक्रमा कर लेती है । पुन: इसी विषय को दूसरे तरह से कहते हैं ।
द्वादशारं न हि तज्जराय वर्वर्ति चक्रं परि द्यामृतस्य ।
आ पुत्रा अग्ने मिथुनासो अत्र सप्त शतानि विंसतिश्चातस्थुः॥ (ऋग्वेद १/१६४/११)
(ऋतस्य) सत्य स्वरूप काल का (चक्रम्) सम्वत्सर रूप चक्र (द्याम्+परि) आकाश में चारों तरफ (वर्वर्ति) घूम रहा है (द्वादशारम्) जिसमें मास रूप १२ अर हैं। (नहि+तत्+जराय) वह चक्र कभी जीर्ण नहीं होता। (अग्रे) हे परमात्मन्! आपने कैसा अद्भुत प्रबन्ध रचा है। (अत्र) इस चक्र में (पुत्रा :) पुत्र के समान (सप्त+ शतानि+विशंति: च आतस्थुः) ७०० और २० स्थिर हैं । वर्ष में ३६० दिन और ३६० रात्रि मिलाकर ७२० अहोरात्र होते हैं । इतने अहोरात्र में पृथिवी सूर्य की परिक्रमा करती है । यद्यपि ३६५ दिनों के लगभग में यह पृथिवी सूर्य की परिक्रमा करती है । तथापि यह चन्द्र मास के हिसाब से ३६० दिन कहे गये हैं । चन्द्रमास में एक अधिक मास मानकर हिसाब पूरा किया जाता है । इस अधिक मास का भी वर्णन वेद में पाया जाता है।

पृथिवी गोल है


पृथिवी गोल है
यद्यपि देखने से प्रतीत होता है कि दर्पण के समान पृथिवी सम अर्थात् चिपटी है तथापि अनेक प्रमाणों से पृथिवी की आकृति गेंद या कदम्ब फल के समान गोल है, यह सिद्ध होता है । अपने संस्कृतशास्त्रों में इसी कारण इसका नाम ही भूगोल रखा है । यदि कोई आदमी ५० कोश का ऊँचा हो तो झट से उसको इसकी गोलाई मालूम होने लगे । इस पृथिवी के ऊपर हिमालय पर्वत भी गृह के ऊपर चींटी के समान है, अत: इसकी गोलाई हम मनुष्यों को प्रतीत नहीं होती ।
१-इसके समझने के लिए समुद्र स्थान लीजिए । समुद्र सैकड़ों कोश तक चौड़ा होता है। जल की सतह बराबर हुआ करती है। यदि दर्पणाकार पृथिवी होती तो समुद्र में अति दूर आता हुआ भी जहाज दीखना चाहिए और जहाज के नीचे से ऊपर तक सब भाग एक बार भी दीख पड़े, किन्तु ऐसा होता नहीं । अति दूरस्थ जहाज तो दीखता ही नहीं। ज्यों-ज्यों समीप आता जाता है त्यों-त्यों प्रथम जहाज का ऊपर का शिर दीखता है, फिर मध्य भाग तब नीचे का भाग। अब आप विचार कर सकते हैं कि जल की बराबर सतह पर ऐसी विषमता क्यों? इसका एकमात्र कारण पृथिवी की गोलाई है । पृथिवी की गोलाई के कारण जहाज के नीचे का भाग छिपा रहता है।
२-पुन: यदि किसी स्थान से आप किसी एक तरफ प्रस्थान करें और सीधे चलते ही जाएँ तो पुनः उसी स्थान पर पहुँच जाएँगे जहाँ से आपने प्रस्थान किया था। इसका भी कारण गोलाई है।
३-चन्द्र के ऊपर पृथिवी की छाया पड़ने से चन्द्र ग्रहण होता है। वह छाया गोल दीखती है, इससे सिद्ध है कि पृथिवी गोल है, इस सम्बन्ध में अपने शास्त्र का सिद्धान्त देखिये। मैंने प्रारम्भ में ही कहा है कि ज्योतिष शास्त्र वेद का एक अंग है । मुहतर्त्तचिन्तामणि, वृहज्जातक, लघुजातक आदि नहीं किन्तु गणितशास्त्र ही ज्योतिष है । जिसमें पृथिवी से लेकर ज्योति:स्वरूप सूर्य तक का पूरा-पूरा हिसाब सब प्रकार से हो, वह ज्योतिष शास्त्र है। जैसे व्याकरण शास्त्र बहुत दिनों से चले आते थे पश्चात् पाणिनी ने एक सर्वांग सुन्दरव्याकरण बनाया तत्पश्चात् वैसा व्याकरण अभी तक नहीं बना है । वैसे ही ज्योतिष शास्त्र अति प्राचीन है। सबसे पिछले आचार्य भास्कराचार्य ने लीलावती, बीजगणित सिद्धान्त-शिरोमणि आदि अनेक ग्रन्थ ज्योतिष शास्त्र के रचे । वे ही आजकल अधिक पठन-पाठन में विद्यमान हैं। शब्द कल्पद्रुम नाम के कोश में भूगोल शब्द के ऊपर एक अच्छा लेख दिया हुआ है। भास्कराचार्यकृत सिद्धांतशिरोमणि के भी अनेक श्लोक यहाँ लिखे हुए हैं। मैं इस समय इसी कोश से कतिपय श्लोक उद्धृत करता हूँ। मैं इस समय भ्रमण कर रहा हूँ। अत: मूल ग्रन्थ मेरे पास नहीं है। आप लोग मूल ग्रन्थ में प्रमाण देख लेवें । भारतवर्ष में सिद्धांतशिरोमणि इतना प्रसिद्ध है कि इसके बिना कोई ज्योतिषी नहीं बन सकता । इसका अनुवाद अंग्रेजी आदि अनेक भाषाओं में हुआ है शंका समाधान करके भास्कराचार्य सिद्ध करते हैं कि पृथिवी गोल है ।
यदि समा मुकुरोदरसंनिभा भगवती धरणी तरणि: क्षितेः॥ उपरि दूरगतोऽपि परिभ्रमन् किमु नरै रमरै रिव नेक्ष्यते ॥१॥यदि निशाजनकः कनकाचल: किमु तदन्तरगः स न दृश्यते॥ उदगयन्ननुमेरु रथांशुमान् कथमुदेति स दक्षिण भागतः ॥
अर्थ-यदि भगवती पृथिवी दर्पण के समान समा अर्थात् समसतह वाली है तो पृथिवी के ऊपर बहुत दूर भ्रमण करते हुए सूर्य को जैसे अमरगण सदा देखा करते हैं वैसे ही मनुष्य भी सदा सूर्य को क्यों नहीं दीखते अर्थात् पृथिवी पर किस प्रकार प्रातः, मध्याह्न, सायं और रात्रि होती है । इससे प्रतीत होता है कि पृथिवी सम नहीं है । जैसे ऊँचे पर्वत के पूर्वभाग की सीध में वा उसी पर रहने वाले पदार्थ पश्चिमभागस्थ पुरुष को नहीं दीखते तद्वत् पृथिवी के एक भाग में रहने वाला पुरुष पृथिवी के रुकावट के कारण सूर्य को नहीं दीखता। घूमती हुई पृथिवी का जितना-जितना भाग सूर्य के सामने पड़ता जाता है उतना-उतना भाग सूर्य की किरणें पड़ने से दिन कहाता है, इसी प्रकार इसके विरुद्ध रात्रि । यदि यह कहो कि वह सूर्य सुमेरु पर्वत के पीछे चला जाता है इस कारण नहीं दीखता तो यह ठीक नहीं, क्योंकि इस अवस्था में वह सुमेरु ही दीख पड़े किन्तु वह दीखता नहीं, अत: यह कथन असत्य है और इसमें द्वितीय हेतु यह है कि तब उत्तरायण और दक्षिणायण भेद भी कभी नहीं होने चाहिएँ, क्योंकि सूर्य समानरूप से सुमेरु की परिक्रमा सब दिन करता है, यह आपका सिद्धान्त है तब ये दो अयन क्यों होते? अत: सुमेरु पर्वत निशा का कारण नहीं, पुन: वही शंका बनी रही कि मनुष्य को सर्वदा समान रूप से सूर्य क्यों नहीं दीखता? इससे सिद्ध है कि पृथिवी गोल है।
 
 
यदि पृथिवी गोल है तो हमें वैसी क्यों नहीं दीख पड़ती। उसका समाधान पूर्व में लिख आया हूँ। भास्कराचार्य भी वैसा ही कहते हैं।
यथा-
समोयतः स्यात् परिधेः शतांशः पृथिवी च पृथिवी नितरां तनीयान् ॥ नरश्च तत्पृष्ठगतस्य कृत्स्त्रा समेव तस्य प्रतिभात्यत: सा॥
जिस कारण पृथिवी बहुत ही विस्तीर्ण है, अतः उसके शतांश भाग सम हैं। मनुष्य बहुत ही छोटा है। इस कारण इसको सम्पूर्ण पृथिवी सम ही प्रतीत होती है ।

पृथिवी का ऊपर और नीचे का भाग


यद्यपि छोटे से छोटे पदार्थ का भी ऊपर और नीचे भाग माना जा सकता है। सेब और कदम्ब फल का भी कोई भाग नीचे का माना ही जाता है। वैसा ही पृथिवी का भी हिसाब हो सकता है किन्तु आश्चर्य यह है कि पृथिवी के सामने मनुष्य जाति इतनी छोटी है कि इसकी आकृति नहीं के बराबर है। इसी हेतु पृथिवी के अर्धगोलक पर रहने वाला अन्य अर्धगोलक पर रहने वाले को अपने से नीचे समझता है, किन्तु वे दोनों एक ही सीध में हैं, नीचे-ऊपर नहीं । जैसे अमेरिका देश पृथिवी के अर्धगोलक में है और द्वितीय अर्धगोलक में यूरोप, एशिया देश हैं। ये दोनों एक सीध में होने पर भी एक-दूसरे के ऊपर-नीचे प्रतीत होते हैं । भास्कराचार्य इस पर कहते हैं-
योयत्र तिष्ठत्यवनीतलस्थमात्मानमस्या उपरिस्थितञ्च। स मन्यतेऽतः कुचतुर्थसंस्था मिथश्च ते तिय्र्यगिवामनन्ति ॥
पृथिवी के किसी भाग में जो जहाँ है वह अपने को वहाँ ऊपर ही मानता है और दूसरे भागस्थ पुरुष को नीचे समझता है।

पृथिवी का आधार


अब यह तो बिस्पष्ट हो गया कि जब भूमि घूम रही है तब इसके आधार की आवश्यकता नहीं। धर्माभास पुस्तकों में यह एक अति तुच्छ प्रश्न और समाधान है । मुझे आश्चर्य होता है कि इन ग्रन्थकर्त्ताओं ने एकाग्र हो कभी इस विषय को न विचारा और न सूर्य-चन्द्र-नक्षत्रों की ओर ध्यान ही दिया। उन्हें यह तो बड़ी चिन्ता लगी कि यदि पृथिवी का कोई आधार न हो तो यह कैसे ठहर सकती, किन्तु इन्हें यह नहीं सूझा कि यह महान् सूर्य निराधार आकाश में कैसे घूम रहा है, हमारे ऊपर क्यों नहीं गिर पड़ता । इन लाखों कोटियों ताराओं को कौन असुर पकड़े हुए है । हमारे शिर पर गिर कर क्यों नहीं चूर्ण-चूर्ण कर देता। हाँ, इसका भी उपाय वा समाधान इन सम्प्रदायियों ने अच्छा गढ़ा। जब निर्बुद्धि शिष्यों ने पूछा कि यह सूर्य-चन्द्र-नक्षत्र आदि क्यों नहीं गिरते तो इसका उत्तर दिया कि सूर्य साक्षात् भगवान् हैं, ये चेतन देव हैं। रथ पर चढ़कर पृथिवी की परिक्रमा कर रहे हैं । यहाँ से पुण्यवान पुरुष मरकर सूर्यलोक में निवास करते हैं । इसी प्रकार चन्द्रमा आदि भी चेतन देव हैं । पितृगण यहाँ अमृतपान करते हुए आनन्द भोग रहे हैं इत्यादि गप्प कहकर शिष्यों को समझा दिया, किन्तु पुन: अन्ध शिष्यों ने यह नहीं पूछा कि वे रथ किस - किस आधार वा मार्ग पर चल रहे हैं। प्रश्न किए भी गये हों तो ऐसे सम्प्रदायियों को समाधान गढ़ने में कितनी देर लगती है । झट से कह दिये होंगे कि अरे ! ये सब देव हैं। वे स्वयं उड़ा करते हैं जो चाहे सो कर लें, इनको क्या पूछते हो ये बड़े सामर्थी हैं । विचारी रह गई पृथिवी । यह देवी नहीं और चेतन भी नहीं । यदि पृथिवी चेतन देवी सूर्यादिवत् मानी जाती तो इसके आधार की भी चिन्तारूप नदियों में वे गोते न खाते। जिसकी आज्ञा से सूर्य-चन्द्र आदि नियत मार्ग पर चल रहे हैं, नियत समय पर उदित और अस्त होते, इसी की आज्ञा से यह पृथिवी ठहरी हुई है, यदि इतना भी वे विचार कर लेते तो इतने धोखे न खाते । " अतिपरिचया-दवज्ञा" अति परिचय से निरादर होता है । भूमि पर सम्प्रदायी निवास करते हैं, प्रतिदिन देखते हैं, इसको देव वा देवी कहकर शिष्यों को बहला नहीं सकते थे । अत: अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार इसके अनेक आधार गढ़ लिए । किसी ने कहा साँप के शिर के ऊपर है, किसी ने कहा कि कछुए की पीठ पर स्थापित है, किसी ने कहा कि नौका के समान जल के ऊपर तैर रही है । इस प्रकार अनेक कल्पनाएँ कर अपने-अपने शिष्यों को सम्बोधित करते गए । किन्तु किसी सम्प्रदायी को इसका सत्यभेद मालूम ही नहीं था । वे कैसे बतलाते वेद ही सत्य भेद दिखलाते हैं । शिष्यों ने यह नहीं पूछा कि यदि साँप पर पृथिवी है तो वह साँप किस पर है । "नात्र कार्या विचारणा, नात्र कार्या विचारणा'"' ऐसी बातें कह मन को संतोष देते रहे । भास्कराचार्य ने उन सब गप्पों का अच्छा खण्डन किया है, परन्तु ये आचार्य पौराणिक समय में हुए हैं। पृथिवी घूमती है, यह बात इनके समय में नहीं मानी जाती थी, अत: पृथिवी को ये महात्मा भी अचल ही मानते थे और इसके चारों तरफ सूर्य ही घूम रहा है ऐसा ही समझते थे, किन्तु वेद से यह विरुद्ध बात है । पृथिवी ही सूर्य के चारों तरफ घूमती है । पृथिवी से १३००००० तेरह लक्ष गुणा सूर्य बड़ा है। सूर्य के सामने पृथिवी एक अति तुच्छ चींटी के बराबर है। तब कब सम्भव है कि एक अति तुच्छ चींटी की परिक्रमा पर्वत करे । अब आधार के विषय में भास्करीय खण्डन परक श्लोक सुनिए ।
मूर्तो धत्त्ता चेद्धरित्र्यास्तदन्य स्तस्याप्यन्योऽप्येव मत्रानवस्था ।
अन्त्ये कल्प्या चेत् स्वशक्ति: किमाद्ये किन्नो भूमिः साष्टमूर्तेश्च मूर्तिः।।
अर्थ-यदि पृथिवी के पकड़नेहारा कोई शरीर धारी है तो उसका भी कोई अन्य पकड़नेहारा होना चाहिए । यदि कहो उसका भी पकड़नेहारा है तो पुन: उसका भी कोई पकड़नेहारा होना उचित है। इस प्रकार अनवस्था दोष होगा । इस दोष से ग्रस्त होकर आपको किसी अन्तिम धर्ता के विषय में कहना पड़ेगा कि वह अपनी शक्ति पर स्थित है । तो मैं पूछता हूँ कि आदि में पृथिवी को ही अपनी शक्ति पर ठहरी हुई क्यों नहीं मान लेते, क्योंकि यह भूमि भी महादेव की अष्ट मूर्तियों में से एक मूर्ति है तो बह अपनी शक्ति पर क्यों नहीं ठहर सकती?
अभी हमने आपसे कहा है कि सूर्यादिवत् इसको भी यदि चेतन और स्वशक्तिसम्पन्न मान लेते तो इतनी चिंता न करनी पड़ती, किन्तु समीप रहने के कारण पृथिवी को वैसी न मनवा सके । भास्कराचार्य वही बात कहते हैं कि यह भूमि भी महादेव की एक मूर्ति है तब वह क्या अपनी शक्ति पर ठहर नहीं सकती? इसको पुनः विस्फुट कर देते हैं-
यथोष्णताक्कानलयोश्च शीतता विधौ द्रुति: के कठिनत्व मश्मनि। मरुच्चलो भूरचला स्वभावतो यतो विचित्रा: खलु वस्तुशक्तयः ॥
जैसे स्वभाव से ही सूर्य और अग्नि में उष्णता, चन्द्रमा में शीतलता, जल में द्रति (वहनशीलता), शिला में कठोरता है और जैसे वायु चलता है वैसे ही स्वभावत: पृथिवी अचला है, क्योंकि वस्तुशक्तियाँ नाना प्रकार की हैं। अत: यह पृथिवी स्वशक्ति के ऊपर स्थित होकर अचला है, यह कौन सी आश्चर्य की बात है। भास्कराचार्य ऐसे ज्योतिरविद् होने पर भी पृथिवी को अचला मानकर कैसी गलती फैला गये हैं। इतना ही नहीं, ये कहते हैं कि रवि, सोम, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि आदि ग्रह और ये नक्षत्र मण्डल सब ही इसी पृथिवी के परितः स्थित हैं और यह भूमिमंडल अपनी शक्ति से स्थित है; यथा-
भूमेः पिण्डः शशांकज्ञकविरविकुजेज्यार्कि नक्षत्रकक्षा वृत्तैर्वृत्तो वृतः सन् मृदनिलसलिल व्योमतेजोमयो ऽयम् ॥ नान्या-धारः स्वशक्त्या वियति च नियतं तिष्ठतीहास्य पृष्ठे निष्ठं विश्वञ्च शश्वत् सदनुजमनुजादित्यदैत्यं समन्तात्॥
इसका कारण यह है कि वे वैदिक विज्ञान की ओर नहीं गये अथवा इस ओर इनका ध्यान नहीं गया। यह कितनी अल्पज्ञता है कि सूर्य-चन्द्र आदि को चल और पृथिवी को अचला मानें । सूर्य-चन्द्र को उदित और अस्त होते देख मान लिया कि यह सब चल रहे हैं । पृथिवी की गति इन्हें मालूम नहीं हुई । रेल की गति जैसे एक अति क्षुद्र चींटी को मालूम नहीं होती होगी, अत: पृथिवी को अचला कहने लगे । जब हम इस बात की समालोचना करते हैं तो यही कहना पड़ता है कि हमारे पूर्वज आचार्य सूक्ष्मता की ओर दूर तक न पहुँच सके और न वेदों का पूरा मनन ही किया । एवमस्तु-

वेदों में पूथिवी के नाम


गौ, ग्मा, ज्मा, क्ष्मा, क्षा, क्षमा, क्षोणि, क्षिति, अवनि, उर्वी, मही, रिप:, अदिति, इला, नित्तति, भू, भूमि:, गातुः, गोत्रा। इत्येक-विंशतिः पृथिवीनामधेयानि । (निघण्टु  १/१)
ये २१ नाम पृथिवी के हैं । इनके प्रयोग वेदों में आया करते हैं । इनमें से एक भी शब्द नहीं जो पृथिवी के अचलत्व का सूचक हो जब पृथिवी को अचल मानने लगे तो संस्कृत कोश में पृथिवी के नामों के साथ अचला, स्थिरा आदि शब्द भी आने लगे " भूर्भूमिरचलाऽनन्ता रसा विश्वम्भरा स्थिरा'" अमरकोश । इससे सिद्ध होता है कि वैदिक समय में पृथिवी स्थिरा नहीं मानी जाती थी । वाचक शब्दों से भी विचारों का बहुत पता लगा है । जिस समय जैसा विचार उत्पन्न होता है शब्द भी तदनुकूल बनाए जाते हैं। जैसे आर्ष ग्रन्थों में ब्राह्मण के लिए मुखज, क्षत्रिय के लिए बाहुज, वैश्य के लिए ऊरुज और शूद्र के लिए पज्ज, चरणज आदि शब्द का प्रयोग एक भी पाया नहीं जाता, किन्तु अनार्ष ग्रन्थों में इनके शतशः प्रयोग हैं। इस समय में मुख आदि से ब्राह्मण आदि उत्पन्न हुए, ऐसा विचार प्रचलित हो चुका था, अत: शब्द भी वैसे आते हैं। इसी प्रकार यदि आर्ष समय में पूृथिवी को स्थिरा मानते तो अवश्य वैसे शब्द भी आते । प्रत्युत इसके विरुद्ध गोशब्द आया है जिससे पृथिवी की गति मानी जाती थी यह सिद्ध होता है। "गच्छतीतिगौः" चलनेहारे का नाम ही गौ है । यद्यपि यह अनेकार्थ है तथापि प्रायः चलायमान पदार्थ का ही नाम "गौ" रखा गया है। अब पृथिवी का गौ नाम क्यों रखा गया, जब यह विचार उपस्थित होता है तो यही कहना पड़ता है कि ऋषिगण पृथिवी को घूमती हुई मानते थे। तत्पश्चात् जब इनमें से यह विज्ञान लुप्त हो गया तब गो शब्द के अनेक धातु और व्युत्पत्तियाँ बतलाने लगे ।"गच्छन्ति प्राणिनोऽस्यामिति गौः यां गायन्ति जना सा गौः " वैदिक शब्दों का कोई दोष नहीं। अपने यहाँ जिज्ञासा के भाव के लोप होने से ऐसी दुर्मति फैली।

पृथिवी और बौद्ध सिद्धान्त


भपज्जरस्य भ्रमणावलोकादाधारशून्या कुरिति प्रतीतिः । खस्थं न दृष्टंच गुरु क्षमातः खेऽधः प्रयातीति वदन्ति बौद्धा: ॥ द्वौ द्वौ रवीन्दू भगणौ चतद्व देकान्तरौ तावुदयं व्रजेताम् । यदब्रु वन्नेव मनर्थवादान् ब्रवीम्यतस्तान प्रति युक्तियुक्तम्॥
बौद्ध कहते हैं कि आकाश में निराधार सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र आदि को भ्रमण करते देखते हैं । इसी प्रकार पृथिवी निराधार ही है और कोई भी भारी पदार्थ आकाश में स्थिर नहीं रहता, अत: पृथिवी को भी स्थिर मानना उचित नहीं । तो यह नीचे को जा रही है जैसा मानना चाहिए। जैन और बौद्ध यह भी मानते हैं कि सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र आदि दो-दो हैं, एक अस्त होता है तो दूसरा काम करता है। इस पर भास्कराचार्य कहते हैं कि इनका कथन अनर्थवाद है और इसमें यह युक्ति देते हैं; यथा-
भू:खेऽधः खलु यातीति बुद्धिबौंद्ध? मुधा कथम्। याता-यातञ्च दृष्टवापि खे यत्क्षिप्तं गुरु क्षितिम्॥
हे बौद्ध! ऐसी व्यर्थ बुद्धि आपको कहाँ से आई, जिससे आप कहते हैं कि यह भूमि नीचे को जा रही है । यदि भूमि नीचे को गिरती हुई रहती तो आकाश में फेंके हुए पत्थर आदि लघु पदार्थ कभी नहीं पुन: लौटकर पृथिवी को पाते, क्योंकि पृथिवी बहुत भारी होने से नीचे को अधिक वेग से जाती होगी और फेंके हुए पदार्थों का वेग उससे न्यून ही रहेगा, परन्तु क्षिप्त वस्तु पृथिवी पर आ जाती है, अतः पृथिवी आकाश के नीचे जा रही है यह मिथ्या भ्रम है और जो यह कहते हैं कि दो-दो चन्द्र-नक्षत्र आदि हैं सो ठीक नहीं, क्योंकि दिन में ही ये देख पड़ते हैं ।
पृथिवी के ऊपर मनुष्यों का वास-यह भी एक महाभ्रम है कि हम भारतवासी तो पृथिवी के ऊपर बसते हैं और बलि राजा अपने असुर दलों के साथ पृथिवी के नीचे पाताल में राज्य करता है या नाग लोक कहीं पाताल में है । महाशयो ! पाताल कोई देश नहीं जैसे यहाँ से हम नीचे भाग को पाताल समझते हैं । वैसे ही उस भाग के रहने हारे हमको पाताल में समझते हैं । भूमि के वास्तविक स्वरूप का बोध न होने से ऐसे-ऐसे कुसंस्कार उत्पन्न हुए हैं। पृथिवी के चारों तरफ मनुष्य बसते हैं और उन्हें सूर्य का प्रकाश भी यथासम्भव प्रात होता रहता है। एक ही समय में पृथिवी के भिन्न-भिन्न भाग में भिन्न समय रहता है। जब अर्ध भाग में दिन रहता है तब अन्य अर्ध भाग में रात्रि होती है। इस विज्ञान को हमारे पूर्वज अच्छी प्रकार जानते थे;यथा-
लङ्कापुरेऽर्कस्य यदोदयः स्यात्तदा दिनाद्द्ध यमकोटिपुर्याम् । अधस्तदा सिद्धपुरेऽस्तकालः स्याद्रोमके रात्रिदलं तदैव।।
जिस समय लंका में सूर्य का उदय होता है उस समय यमकोटि नामक नगर में दोपहर, नीचे सिद्धपुरी में अस्तकाल और रोमक में रात्रि रहती है।
इससे प्रतीत होता है कि पृथिवी पर के सब मनुष्यों में पहले भी आजकल के समान व्यवहार होता था । ज्योतिष शास्त्र की बड़ी उन्नति थी और पृथिवी के ऊपर चारों तरफ मनुष्य वास करते हैं, हम विज्ञान को भी जानते थे।

आकर्षण


वेदों में आकर्षण शक्ति की भी चर्चा है । लोग कहते हैं कि यह नूतन विज्ञान है। यूरोपवासी सरऐसेकन्यूटनजी ने प्रथम इसको जाना तब से यह विद्या पृथिवी पर फैली है, परन्तु यह बात नहीं। भारतवर्ष में इसकी चर्चा बहुत दिनों से विद्यमान है और चुम्बक-लोह को देख सर्वपदार्थगत आकर्षण का अनुमान किया गया था इसका अभी तक एक प्रमाण यह है कि सिद्धान्त शिरोमणि नाम के ग्रन्थ में भास्कराचार्य ने एक प्राचीन श्लोक उद्धृत किया है, वह यह है-
आकृष्टशक्तिश्च मही तया यत् खस्थं गुरु स्वाभिमुखी-करोति। आकृष्यते तत्पततीव भाति समे समन्तात् कुरियं प्रतीतिः ॥
सर्वपदार्थगत एक आकर्षण शक्ति विद्यमान है, जिस शक्ति से यह पृथिवी आकाशस्थ पदार्थ को अपनी ओर करती है और जो यह खींच रही है वह गिरता मालूम होता है अर्थात् पृथिवी अपनी ओर खींच कर आकाश में फेंकी हुई वस्तु को ले आती है, इसको लोक में गिरना कहते हैं । इससे विस्पष्ट है कि भास्कराचार्य्य से बहुत पूर्व यह विद्या देश में विद्यमान थी । आय्य्यभट्टीय नामक ज्योतिष शास्त्र में भी इसका वर्णन आया है । अब मैं वेदों की दो-एक ऋचाएँ यहाँ लिखता हूँ, जिससे सब संशय दूर हो जाएँगे -
आकृष्णेन रजसा वर्तमानो नियेशयन्नमृतं मत्त्यञ्च ।
हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन् ॥ (ऋग्वेद १/३५/२)
कृष्ण-आकर्षणशक्ति युक्त। रज-लोक ' लोका रजांस्युच्यन्ते' निरुक्त, पृथिवी आदि लोक का नाम रज है । हिरण्यय-हिरण्यपाणि आदि शब्द बहुत आते हैं । अपनी ओर जो हरण करे, खींच लावे, वह हिरण्य कहाता है। जिस कारण सूर्य का रथ अर्थात् सूर्य का समस्त शरीर अपने परितः पदार्थों को अपनी ओर खींचता है, अतः
यह रथ हिरण्यय कहाता है । अथ मन्त्रार्थ - (सविता- सूर्य) (कृष्णेन+रजसा) आकर्षण शक्ति युक्त पृथिवी, बुध, बृहस्पति आदि लोकों के साथ (वर्त्तमानः) वर्त्ता हुआ। (अमृतम्+मृतम्+ च) अमृत जो पृथिवी आदि लोक। मृत जो पृथिवी आदि लोकों में रहने वाले शरीरधारी जीव इन दोनों को (आनिवेशयन्) अपने-अपने कार्य में लगाते हुए (देवः) यह महान् देव (हिरण्ययेन+रथेन) हिरण्मय-अपनी ओर हरण करने वाले रथ के द्वारा (भुवनानि पश्यन्) परितः स्थित भुवनों को मानों देखता हुआ (आयाति) निरन्तर आवागमन कर रहा है। २॥
इस ऋचा में कृष्ण शब्द दिखलाता है कि सर्वपदार्थ गत आकर्षण शक्ति है। पृथिवी अपनी ओर तथा सूर्य अपनी ओर खींचते हुए विद्यमान हैं, अत: सूर्य के ऊपर पृथिवी गिरकर नष्ट नहीं होती। सूर्य पृथिवी की अपेक्षा करीब १३००००० लक्ष गुणा बड़ा है और इस सौर्य जगत का अधिपति भी वही है । इसलिये इसमें मध्याकर्षण शक्ति भी बहुत है, इसमें हेतु की आवश्यकता नहीं। अतएव वेद में सूर्य के नाम ही कृष्ण आया है, क्योंकि वह अपनी ओर पृथिवी आदि भुवनों को खींचे हुए यथास्थिति रखे हुए है।
कृष्णं नियानं हरयः सुपर्णा अपो वसाना दिवमुत्पतन्ति।
ते आववृत्रन्त्सदनादृतस्यादिद्घृतेन पृथिवी व्युद्यते ।। (ऋग्वेद १/१६४/४७)
अर्थ-(हरय:+सुपर्णाः) हरण करने वाली सूर्य की किरण (नियानं+कृष्णम्) नियमपूर्वक चलने वाले कृष्ण अर्थात् आकर्षण शक्ति युक्त सूर्य की ओर (अप:+वसाना) साथ जल लेकर (दिवम्+उत्पतन्ति) आकाश में ऊपर उठती हैं अर्थात् जब सूर्य से निकल कर किरण पृथिवी पर आती हैं तो मानों पृथिवी पर के जल लेकर फिर सूर्य के निकट पहुँचती हैं । यह एक आलंकारिक वर्णन है । (ते) वे सूर्य किरण (ऋतस्य+सदनात्) सूर्य के भवन से (आ+अववृत्रन्) आवागमन करती ही रहती हैं । (आत्इत्) तब ही (घृतेन+पृथिवी+विउद्यते) जल से पृथिवी सींची जाती है ॥ ४७ ॥
यहाँ यद्यपि कृष्ण शब्द के अर्थ भिन्न-भिन्न भाष्यकारों ने भिन्न प्रकार से किए हैं, परन्तु प्रकरण देखने से ही सूर्य अर्थ प्रतीत होता है । वेदों में 'विचर्षणि' शब्द भी सूर्य के लिए आया है । (वि+चर्षणि) कृष् धातु से चर्षणि शब्द सिद्ध होता है । कृष् धातु का अर्थ प्राय: आकर्षण है। इसी से आकर्षण, आकृष्टि, कृष्ण आदि अनेक शब्द सिद्ध होते हैं। वेद के मन्त्र देखने से विस्पष्ट होगा ।
 
 
हिरण्यपाणिः सविता विचर्षणिरुभे द्यावा पृथिवी अन्तरीयते।
अपामीवां बाधते वेति सूर्यमभि कृष्णेन रजसा द्यामृणोति।। (ऋग्वेद १/३५/९)
अर्थ-(हिरण्यपाणि:) जिसका पाणि=किरण । हिरण्य=हरणशक्ति-युक्त है। (विचर्षणि:) जो अत्यन्त आकर्षण शक्ति युक्त है। (सविता) वह सूर्य (उभे+द्यावापृथिवी) दोनों द्युलोक और पृथिवी लोक को (अन्तरीयते) अपने-अपने अन्तर में अर्थात् अपने-अपने अवकाश में स्थिति रखता है अर्थात् एक लोक को दूसरे लोक के साथ टक्कर खाने नहीं देता। (अमीवाम् आपबाधते) और वह सूर्य सकल उपद्रवों को बाध करता है। (सूर्य्यम् वेति) और वह सूर्य अपनी धुरी पर चल रहा है। सूर्यम्=द्वितीयार्थ में प्रथमा है। (कृष्णेन+रजसा) आकर्षण शक्ति युक्त तेज के साथ वह सूर्य (द्याम्+अभि+ऋणोति) द्युलोक के चारों तरफ व्यापक हो रहा है। पुन:
पञ्चारे चक्रे परिवर्तमाने तस्मिन्नातस्थुर्भुवनानि विश्वा ।
तस्य नाक्षस्तप्यते भूरिभारः सनादेव न शीर्यते सनाभिः ॥ (ऋग्वेद १/१६४/१३)
(विश्वा+भुवनानि) सूर्य के चारों तरफ स्थित पृथिव्यादि सर्वलोक (तस्मिन्+चक्रे) उस चक्र के आधार पर (आ+तस्थुः) अच्छी प्रकार स्थित हैं। (पञ्चारे) जिस चक्र में ऋतुरूप पाँच अर हैं। (परिवर्तमाने) जो चक्र स्वयं ही घूम रहा है। (तस्य) उस चक्र का (भूरिभार:) बहुत भार वाला (अक्ष:) चक्र के मध्य में वर्तमान धूर (न+तप्यते) पीड़ित नहीं होता और (सनात् एव+ न+शीर्यते) सनातन है और कभी टूटता नहीं, (सनाभि:) वह चक्र बन्धन शक्ति युक्त है ॥ १३ ॥
यह ऋचा अनेक वस्तु दिखलाती है। १- भुवनानि विश्वा सम्पूर्ण विश्व सूर्य के रथ पर स्थित है। यह सिद्ध करता है कि पृथिव्यादि लोकों से यह बहुत ही बड़ा है। २- भूरिभार: अब यह विचार उपस्थित होता है कि उस चक्र का रथ भूरिभार क्यों कहलाता है। इसका उत्तर विस्पष्ट है कि जिस चक्र के ऊपर सम्पूर्ण भुवन स्थित हों, वह अवश्य ही भूरिभार होगा। यहाँ वास्तविक भार तो नहीं, किन्तु आकर्षण रूप भार ही इसके ऊपर अधिक है, इसलिये यह आलंकारिक वर्णन है । इतने भार रहने पर भी वह अक्ष न पीडित होता है, न टूटता है, क्योंकि वह सनातन है। ३-सनाभि: बन्धनार्थक णह धातु से नाभि बनता है। जैसे इस मानव शरीर का नाभि सम्पूर्ण शरीर को बाँधने वाला है वैसे ही वह सूर्य का चक्र पृथिवी आदि लोक-लोकान्तरों को बाँधने वाला है। इसलिए सनाभि पद यहाँ कहा गया है। अब यह स्वभावत: प्रश्न होता है कि क्या सूर्य कोई चेतन देव है ? क्या सूर्य को ऋषिगण चेतन देव मानते थे? जो अपने हाथ में रस्सी लेकर सब लोक-लोकान्तरों को बाँधे हुए है । वे ऋषियों के भाव नहीं जानते अथवा ॠषियों के ऊपर कलंक लगा रहे हैं जो कहते हैं कि ऋषिगण सूर्यादि को चेतन मानते थे। वेद में पृथिवी के समान ही सूर्य एक जड़ पदार्थ माना गया है। इस अवस्था में पुन: शंका होती है कि सूर्य किस प्रकार से सर्व लोकों को बाँधे हुए है? इसका उत्तर केवल यही हो सकता है कि अपनी आकर्षण शक्ति के द्वारा सूर्य अपने परित: स्थित भुवनों को यथा अवकाश में बॉँधे हुए स्थित है। पुन: आगे की ऋचा से और भी विस्पष्ट हो जाएगा। यथा-
इरावती धेनुमति हि भूतं सूयवसिनी मनुषे दशस्या।
व्यस्तभ्ना रोदसी विष्णवेते दाधर्थ पृथिवीमभितो मयूखै:।। (ऋग्वेद ७/९९/३)
प्रथम इसमें द्यावा-पृथिवी सम्बोधित हुई हैं । द्यावापृथिवी ! आप दोनों (मनुषे) मननकत्त्ता जीव को (दशस्या) सदा दान देने हारी हैं। (इरावती) आप दोनों ही धनवान् (धेनुमती) गोमान् (सूयवसिनी) और शोभनधन-धान्योपत (भूतम्) होवें । इतना कहके अब आगे सूर्य और पृथिवी का सम्बन्ध दिखलाते हैं । (विष्णो) हे सूर्य ! आप (एते+रोदसी) इस द्युलोक और पृथिवी लोक को (व्यस्तभ्रा:) विविध प्रकार से रोके हुए हैं और ( पृथिवीम् ) पृथिवी को ( अभित:) चारों तरफ से (मयूखै:) किरणों द्वारा (दाधर्थ) पकड़े हुए हैं।
१-रोदसी-द्यावा-पृथिवी का नाम है, जो रोकने हारी हों, वे रोदसी अर्थात् रोधसी। व्यस्तभ्रा:=वि+अस्तभ्रा: । इस ऋचा से अनेक वार्ताएँ नि:सृत होती हैं । प्रथम रोदसी कहने से सिद्ध है कि यह पृथिवी और द्युलोक भी रोधसी है अर्थात् अपनी ओर आकर्षण करने वाली है। २-विष्णु-यह नाम सूर्य का है। जब दोनों लोकों का सूर्य धारण करने हारा है तब इससे परिणाम यह निकलता है कि इसके परितः, स्थित दोनों लोक छोटे और यह सूर्य बहुत बड़ा है। इस अवस्था में जो यह कहते हैं कि सूर्य ही पृथिवी की परिक्रमा करता है । यह कितनी बड़ी भूल है, क्या एक सरसों की परिक्रमा पर्वत करेगा । ३-मयूखैः-सूर्य अपनी किरणों से पृथिवी को धारण किए हुए है, इसका क्या भाव होगा। बहुत आदमी कहेंगे कि पृथिवी के ऊपर सूर्य किरण पड़ती रहती हैं, इसी से पृथिवी का धारण-पोषण होता है अन्यथा पृथिवी किसी काम की न होती। परन्तु यह बात नहीं, यहाँ दाधर्थ पद से धारणार्थ सिद्ध होता है जैसे कोई बैल को रस्सी से पकड़े । अब विचारना चाहिए कि पृथिवी को सूर्य किस शक्ति से पकड़े हुए है, नि:सन्देह वह आकर्षण शक्ति है जिसके द्वारा अपने परित: स्थित अनेक लोकों को पकड़े हुए यह महान् सूर्य स्थित है । पुन:-
अनङ्वान दाधार पृथिवीमुत द्यामनड्वान् दाधारोर्वन्तरिक्षम् ।
अनड्वान् दाधार प्रदिशः षडुवीं रनड्वान् विश्वं भुवनमाविवेश| (अथर्ववेद ४/११/१)
(अनड्वान्) यह सूर्य (पृथिवीम्+दाधार) पृथिवी को पकड़े हुए है। (अनड्वान्+उत+द्याम्+उरु अन्तरिक्षम्) सूर्य ह्युलोक और विस्तीर्ण अन्तरिक्ष को (दाधार) पकड़े हुए है। (अनड्वान्+प्रदिशः+दाधार) अनड्वान् सब दिशाओं को पकड़े हुए है। (अनड्वान+षड्+उर्वी:) अनड्वान् अन्यान्य छः पृथिवीयों को पकड़े हुए है। (विश्वम्+भुवनम्+आविवेश) यह अनड्वान् सर्वत्र आविष्ट है।
यह अथर्ववेद की ऋचा अनेक वार्ताएँ विस्पष्ट रूप से निरूपण करती है । इसमें साफ है कि पृथिवी और द्युलोक धारण कर्ता सूर्य है और षड्+उर्वी=उर्वी नाम पृथिवी का है। बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, अन्यान्य दो लोक और पृथिवी इन सबका धारण करता है, यह सिद्ध हुआ।
अनड्वान्-बहुत आदमी शङ्का करेंगे कि बैल को अनड्वान् कहते हैं। इससे तो पौराणिक सिद्धान्त ही सिद्ध होता है कि पृथिवी को कोई बैल अपनी सींग पर रखे हुए है। उत्तर- यह भ्रम वेदों के न देखने से उत्पन्न हुआ है। यहाँ ही द्वितीय ऋचा ४/११ में 'अनड्वानिन्द्रः' पद है, यहाँ अनड्वान् नाम इन्द्र अर्थात् सूर्य का है। प्राय: ऐसे-ऐसे स्थलों में जहाँ-जहाँ वृषभ (बैल) वाचक शब्द आए हैं, वे-वे सूर्य वाचक हैं। एक ही उदाहरण से विशद होगा।
सहस्त्रशृङ्गो वृषभो यः समुद्रादुदाचरत् । (अथर्ववेद ४/५/१)
सहस्र सींग वाला बैल जो समुद्र से ऊपर आता है। इस ऋचा में देखते हैं कि सहस्र श्रृङ्ग वृषभ कहा गया है। नि:सन्देह सहस्र सींग वाला बैल सूर्य ही है। किरण ही इसके हजारों सींग हैं, समुद्र शब्द आकाशवाची है । निघण्टु और निरुक्त देखिये ।

चन्द्रमा

अब आकर्षण आदि विषय अधिक वर्णित हो चुके, मेरे अन्यान्य ग्रन्थ देखिये। अब कुछ चन्द्र के सम्बन्ध में वक्तव्य है। इस सम्बन्ध में भी धर्मग्रन्थ बहुत ही मिथ्या बात बतलाते हैं। १-यह चन्द्र अमृतमय है। उस अमृत को देवता और पितृगण पी लेते हैं इसी कारण यह घटता-बढ़ता रहता है। पुराणों का गप्प तो यह है ही, कालिदास भी इसी असम्भव का वर्णन करते हैं -
पय्य्यायपीतस्य सुरैर्हिमांशो: कलाक्षयः श्लाध्यतरोहि वृद्धेः।
२-कोई कहते हैं कि इस चन्द्रमा की गोद में एक हिरण बैठा है। इसी से इसमें लांछन दीखता है और इसी कारण इसको मृगाङ्क, शशी आदि नामों से पुकारते हैं । ३--यह अत्रि ऋषि के नयन से उत्पन्न हुआ है। कोई कहते हैं कि यह समुद्र से उत्पन्न हुआ। ४-पुराण कहते हैं कि दक्ष की अश्विनी, भरणी आदि सत्ताईस कन्याओं से चन्द्रमा का विवाह है, वे ही २७ नक्षत्र हैं । ५-यह सूर्य से भी ऊपर स्थित है। ६-इसी से चन्द्र वंश की उत्पत्ति है। ७- राहु इसको ग्रसता है, अत: चन्द्र ग्रहण होता है इत्यादि अनेक गप्प चन्द्र के विषय में कहे जाते हैं। यहाँ मैं संक्षेप से वेद के मन्त्र उद्धृत कर बतलाऊँगा कि वेद भगवान् इस विषय को किस दृष्टि से देखते हैं-

चन्द्रमा का प्रकाश


चन्द्रमा का प्रकाश
अथाऽप्यस्यैको रश्मिश्चन्द्रमसं प्रति दीप्यते तदेतेनोपेक्षितव्य मादित्यतोऽस्य दीप्तिर्भवति । (निरुक्त २/७) यास्काचार्य कहते हैं कि सूर्य की एक किरण चन्द्रमा के ऊपर सदा पड़ती रहती है। इससे यह जानना चाहिए कि चन्द्रमा का प्रकाश सूर्य से होता है। पृथिवी के समान ही चन्द्रमा भी निस्तेज और अन्धकारमय है, जैसे पृथिवी के ऊपर जिस-जिस भाग में सूर्य की किरण पड़ती रहती है वहाँ-वहाँ दिन होता है । इसी प्रकार चन्द्रमा के ऊपर भी सूर्य की किरण पड़ती रहती है, अत: इसमें प्रकाश मालूम होता है। सूर्य की किरण न पड़ती तो चन्द्र सदा धुँधला प्रतीत होता। इस अतिगहन विज्ञान का भी वेद में विविध प्रकार से वर्णन है । यास्काचार्य ने वेद का ही आशय लेकर उपर्युक्तार्थ प्रकट किया है और यहाँ ही एक-दो और प्रमाण देकर इसको बहुत पुष्ट किया है।
अत्राह गोरमन्वत नाम त्वष्ट रपीच्यम्।
 इत्था चन्द्रसो गृहे॥ (ऋग्वेद १/८४/१५)
(गोः) गमनशील (चन्द्रमस:) चन्द्रमा के (अत्र+ह+गृहे) इसी गृह में (त्वष्टुः) सूर्य का (नाम) सुप्रसिद्ध ज्योति ( इत्था) इस प्रकार (अपीच्यम्) अन्तर्रहित अर्थात् छिपा हुआ रहता है । यह ऋचा सर्व सन्देह को दूर कर देती है। चन्द्रमा के गृह में सूर्य का प्रकाश छिपा हुआ है। इस वर्णन से तो विस्पष्ट सिद्ध है कि सूर्य के प्रकाश से ही चन्द्र प्रकाशित है। पुन: इसी अर्थ को अन्य प्रकार से वेद भगवान निरूपण करते हैं, वह यह है -
सोमो वधूयुरभव दश्विनास्तामुभा वरा।
सूर्य्यां यत्पत्ये शंसन्तीं मनसा सविताऽददात् ॥ (ऋग्वेद १०/८५/९)
सूर्य की कन्या से चन्द्रमा के विवाह का वर्णन यहाँ अलंकार रूप से किया गया है । सूर्य की प्रभा ही मानों सूर्य कन्या है। अथ मन्त्रार्थ-
(सोमः) चन्द्रमा (वधूयुः) वधू की इच्छा वाला हुआ अर्थात् चन्द्रमा ने विवाह करने की इच्छा की । (उभौ+अश्विनौ+वरौ+ आस्ताम्) इस बराती में अश्वी अर्थात् दिन और रात्रि देव बरात हुए। (यद्) जब (मनसा) मन के परम अनुराग से (पत्ये+शंसन्तीम्+सूर्याम् ) पति के लिए चाह करती हुई सूर्या (अपनी कन्या को) सूर्य ने देखा तब (सविता+ अददात् ) सूर्य ने चन्द्र के अधीन सूर्या को कर दिया। इस आलंकारिक वर्णन से विशद हो जाता है कि चन्द्रमा का प्रकाश सूर्य हुआ करता है। यह विषय भारत देश में इतना प्रसिद्ध हो गया था कि घर-घर इसको लोग जानते थे । काव्य नाटकों में भी इसकी चर्चा होने लगी। जो विषय अति प्रसिद्ध हो जाता है उसी का निरूपण कविगण अपने काव्यादि ग्रन्थों में किया करते हैं । कालिदास पौराणिक समय के विद्वान् थे, अत: अपने काव्यों को वैदिक और लौकिक दोनों सिद्धान्तों से भूषित किया है । जैसे पौराणिक गप्प लेकर कालिदास जी ने कहा है कि देव और पितर च्द्र का अमृत पीते रहते हैं, अत: चन्द्र की कला घटती-बढ़ती रहती है । वैसे ही वैदिक अर्थ को लेकर कहते हैं कि सूर्य के प्रकाश से चन्द्र प्रकाशित होता है; यथा-
पितुः प्रयत्नात् स समग्रसम्पदः शुभैः शरीरावयवैर्दिनेदिने।
पुपोष वृद्धिं सरिदश्वदीधितेरनुप्रवेशादिव बालचन्द्रमा।। रघुवंश ३/२२
सम्पूर्ण धनधान्य युक्त पिता के प्रयत्न से वह रघु दिन-दिन शरीर के शुभ अवयवों से बढ़ने लगे; जैसे- (बालचन्द्रमा:) छोटा चन्द्रमा (हरिदश्वदीधितेः) सूर्य के (अनुप्रवेशात्) अनुप्रवेश से शुक्ल पक्ष में दिन-दिन बढ़ता जाता है।

चन्द्र में कलङ्क

अब इस बात को अच्छी प्रकार से समझ सकते हैं कि लोक चन्द्रमा में कलड्क क्यों मानते हैं। कारण इसका यह है कि जिस प्रकाशमय रूप को चन्द्रमा जगत में दिखला रहा है वह उसका अपना रूप नहीं है । जैसे कोई महादरिद्र धूर्त नर दूसरे के कपड़े माँग कर और उन्हें पहन लोक में अपने को धनिक कहे तो उसको सब कोई कलङ्क ही देगा और उसको धूर्त ही कहेगा, इसी प्रकार ज्योतिरहित चन्द्रमा में दूसरे की ज्योति देख लोग कहने लग गये कि चन्द्र में कलङ्क है। धीरे-धीरे जब इस विज्ञान को लोग भूलते गये तब इसको अनेक प्रकार से कल्पना करने लगे। किन्होंने कहा कि इसमें मृग रहता है, इस हेतु कालिमा दीखता है। किन्होंने कहा कि यह समुद्र से उत्पन्न हुआ है और समुद्र में विष भी रहा करता था, अत: इन दोनों के संयोग होने में चन्द्रमा का बहुत सा हिस्सा कृष्ण (काला) प्रतीत होता है । कोई पौराणिक यह कहते हैं कि गुरु पत्नी तारा के साथ व्यभिचार करने से चन्द्र लाञ्छित माना गया है। इस तरह चन्द्र के सम्बन्ध में विविध कल्पनाएँ देश में प्रचलित हैं, वे सब ही मिथ्या हैं।
मृगाङ्क शशी-मृगाङ्क चन्द्र क्यों कहाता है? इसका भी यथार्थ कारण यह था कि मृग नाम भी सूर्य का है। वह सूर्य अपनी किरण द्वारा चन्द्र की गोद में रहता है, अत: चन्द्र के नाम मृगाङ्क और शशी आदि हुए हैं।

चन्द्र और २७ नक्षत्र

चन्द्र और २७ नक्षत्र

चन्द्रमा लौकिक भाषा में नक्षत्रेश, नक्षत्रस्वामी कहाता है । वे नक्षत्र २७ वा २८ माने गये हैं। असली बात यह थी कि पृथिवी की पूरी परिक्रमा चन्द्रमा करीब २८ दिन में समाप्त करता है। एक दिन में वह जितना चलता उतने मार्ग का नाम अश्विनी, द्वितीय दिन के मार्ग का नाम भरणी, इसी प्रकार २८ दिन के मार्ग के नाम २८ हैं। यहाँ विचारना चाहिए कि आकाश में तो अगणित नक्षत्र हैं, पुन: इन २८ नक्षत्रों की ही चर्चा अपने शास्त्र में इतनी क्यों है, इसका अवश्य कोई विशेष कारण होना चाहिए । वैदिक समय में विज्ञान की उत्तरोत्तर वृद्धि होती रहती थी, इस हेतु पृथिवी, सूर्य और चन्द्र आदि की सब दशा से लोग परिचित थे। उस समय के विद्वानों ने स्थिर किया कि यह चन्द्रमा भी पृथिवी की परिक्रमा कर रहा है और वह करीब २८ दिन में पूर्ण होती है । गणित के लिए इन २८ दिनों के पृथक्-पृथक नाम रखे गये। यह भी आपको मालूम हो कि अपने यहाँ चन्द्रमास का व्यवहार अधिक किया गया है। विविधयज्ञ चन्द्रमास के अनुसार ही किया करते थे। दर्शेष्टि और पूर्णमासेष्टि आत प्रसिद्ध है। प्रतिपद् द्वितीया आदि भी इसी के अनुसार है । चैत्र, बैशाख, ज्येष्ठ आदि मासों की गणना इसी के अधीन है। शतपथ ब्राह्मण में नक्षत्रानुसार यज्ञ करने की विधि विस्तार से वर्णित है । विज्ञान से सम्बन्ध रखने के कारण ये २८ नक्षत्र अधिक प्रसिद्ध हुए । लोगों को आश्चर्य मालूम होता था कि अहो ईश्वर की कैसी विभूतियाँ हैं कि यह विस्तीर्ण पृथिवी सूर्य की परिक्रमा कर रही है और उसकी भी परिक्रमा चन्द्र कर रहा है ।
पश्चात् जब भारतवासी इस वैदिक विज्ञान को भूल गये तो इन नक्षत्रों की बड़ी दुर्दशा हुई। नक्षत्रसूची ज्योतियों की तो इनसे पूरी कमाई होने लगी। पौराणिकों ने इन्हें चन्द्र की स्त्री मान ली, किन्हीं आचार्यों ने आकाशस्थ ताराओं को ही २८ नक्षत्र समझा। क्या यह आश्चर्य की बात है, क्या था और क्या हो गया। भारतवासियों! देखो! तुम्हारे पूर्वजों ने कितने परिश्रम से इन विज्ञानों का उपार्जन किया था, किन्तु तुम ऐसे कुपुत्र हुए कि इनको सर्वथा भ्रष्ट कर निश्चिन्त हो रहे हो ।
२८ नक्षत्रों के नाम-अश्विनी, भरणी, कृतिका, रोहिणी, मृगशिरा, आद्द्रा, पुनर्वसु, पुष्य, आश्लेशा, मघा, पूर्वाफल्गुनी, उत्तराफल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाती, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा, मूला, पूर्वाषाढ़ा, उत्तराषाढ़ा, श्रवणा, घनिष्ठा, शर्तभिषा, पूर्वभाद्रपदा, उत्तरभाद्रपदा, रेवती। ये २७ नक्षत्र हैं, २८ वॉ अभिजित् भी माना जाता है ।

वेद और नक्षत्र


चित्राणि साकं दिवि रोचनानि सरीसृपाणि भुवने जवानि । 
अष्टाविशं सुमतिमिच्छमानो अहानि गीर्भि: सपर्यामि नाकम् ॥१॥ 
सुहवं मे कृत्तिका रोहिणी चास्तु भद्रं मृगशिरः समार्द्रा।
पुनर्वसू सूनृता चारु पुष्यो भानुराश्लेषा अयनं मघा मे ॥२॥ 
पुण्यं पूर्वा फल्गुन्यौ चात्र हस्तश्चित्रा शिवा स्वातिः सुखोमे अस्तु। 
राधो विशाखे सुहवानुराधा ज्येष्ठासु नक्षत्रमरिष्टं मूलम्॥३॥ 
अन्नं पूर्वा रासन्ता में अषाढ़ा ऊर्ज ये ह्यत्तर आ वहन्तु। 
अभिजिन्मे रासतां पुण्यमेव श्रवण: श्रविष्ठा कुर्वेतां सुपुष्टिम्॥४॥ 
आ मे महच्छत-भिषग्वरीय आ मे द्वया प्रोष्ठपदा सुशर्म। 
आ रेवती चाश्वयुजौ भगंम आमेरयिं भरण्य आ वहन्तु ॥५॥ (अथर्ववेद १९/७/५)
यहाँ यह भी कहा गया है कि-
अष्टाविंशानि शिवानि शग्मानि सह योगं भजन्तुमे । (अथर्ववेद १९/८/२)
इन २८ नक्षत्रों के विशेषण में शग्मपद आया है। शग्मनाम कल्पित मार्ग का ही है । जिस मार्ग से चन्द्र परिक्रमा कर रहा है, उसी का नाम शग्म है। जो नक्षत्र केवल चन्द्रमार्ग सूचक थे, क्या आश्चर्य है आज अज्ञानियों के शुभाशुभ फलप्रद और धूतों के कमाखाने के साधन बन गये।

ग्रहण

सिद्धान्तशिरोमणि आदि ग्रन्थों में ग्रहण का विषय विस्तार से वर्णित है। पृथिवी की छाया से चन्द्र ग्रहण और चन्द्र की छाया से सूर्य ग्रहण होता है, यह बात आजकल स्कूलों का एक छोटा बच्चा भी जानता है। इनके लक्ष्य में कालिदास ने एक अच्छी उपमा दी है। वह यह है-
अवैमि चैनामनघेति किन्तु लोकापवादो बलवान् मतोमे।
छाया हि भूमेः शशिनो सलत्वेनारोपिता शुद्धिमतः प्रजाभिः ॥  रघुवंश १४/४०
रामचन्द्र कहते हैं कि यद्यपि मैं जानता हूँ कि यह सीता निष्पापा है तथापि लोकापवाद बलवान् है, यह मुझे भी मानना चाहिए । यद्यपि यह चन्द्रमा शुद्ध है, इसके ऊपर केवल पृथिवी की छाया पड़ती है । किन्तु प्रजा इसी छाया को चन्द्र कलंक मानती है । वह चन्द्र का कलंक अब नहीं मिटता, इससे भी यही सिद्ध है कि पृथिवी की छाया से ग्रहण लगता है।

चन्द्रमा का घटना-बढ़ना

सूर्य की किरण चन्द्रमा पर सर्वदा पड़ती रहती है । पृथिवी घूमती है अत: पृथिवीस्थ पुरुष चन्द्रमा को सदा प्रकाशित नहीं देखता, क्योंकि पृथिवी की छाया चन्द्र में पड़ जाने से हम लोगों को प्रकाश प्रतीत नहीं होता।

वेद और ग्रहण


वेदों में कुछ संदिग्ध सा वर्णन आया है जिससे राहु-केतु की कथा चली है और इसको न समझ कर राहुकृत ग्रहण लोग मानने लगे, मैं उन मन्त्रों को यहाँ उद्धृत करता हूँ।
यत्वा सूर्य स्वर्भानुस्तमसा विध्यदासुरःl
अक्षेत्रविद् यथा मुग्धो भुवनान्यदीधयुःll (ऋग्वेद ५/४०/५)
(सूर्य) हे सूर्य ! (यद्)जब (त्वा) तुमको (आसुरः) असुरपुत्र (स्वर्भानुः) स्वर्भानु (तमसा) अन्धकार से (अविध्यत्) विद्ध अर्थात् आच्छादित कर लेता है तो उस समय (भुवनानि) सम्पूर्ण भुवन पागल से (अदीधयुः) दीख पड़ने लगते (यथा) जैसे (अक्षेत्रवित्) मार्ग को न जानने हारा पथिक ( मुग्ध:) मुग्ध अर्थात् घबरा जाता है तद्वत् सम्पूर्ण जगत घबरा जाता है।
यं वै सूर्यं स्वर्भानुस्तमसा विध्यदासुरः ।
अत्रय स्तमन्वविन्दन्नह्यन्ये अशक्रुवन्॥ (ऋग्वेद ५/४०/९)
(आसुरः+स्वर्भानुः) आसुर स्वर्भानु (यम्+वै+सूर्यम्) जिस सूर्य को (तमसा-अविध्यत्) अन्धकार से घेर लेता है (अत्रयः) अत्रिगण (तम्-अनु+अविन्दन्) उसको पालते हैं । तम को नष्ट कर अत्रि सूर्य की रक्षा कर प्राप्त करते हैं यहाँ अन्यान्य ऋचाओं में भी इस प्रकार का वर्णन आया है, ब्राह्मण ग्रन्थों में भी इसकी बहुधा चर्चा आती है । केवल एक उदाहरण शतपथ ब्राह्मण से देकर इसका तात्पर्य लिखूंगा-
स्वर्भानुर्ह वा आसुरः सूर्यं तमसा विव्याध स तमसा विद्धो न व्यरोचत तस्य सोमारुद्रावेवैतत्तमोऽपाहतां स एषोऽपहतपाप्मा तपति ॥ -शत०५/१/२/१

तात्पर्य-असुर शब्द

ऋग्वेद में असुर शब्द दुष्ट अर्थ में बहुत ही विरल प्रयुक्त हुआ है। सूर्य, मेघ, वायु, वीर, परमात्मा आदि अनेक अर्थों में यह असुर शब्द विद्यमान है ।
वि सुपर्णो अन्तरिक्षाण्यरव्यद् गरभीरवेपा असुरः सुनीथः।
क्वेदानीं सूर्यः कश्चिकेत कतरमां द्यां रश्मि रस्याततान ॥ (ऋग्वेद १/३५/७)
यहाँ पर सूर्य के विशेषण में असुर शब्द आया है। जिस कारण सूर्य के प्रकाश से चन्द्र प्रकाशित होता रहता है, अत: (असुरस्य सूर्यस्य अयमासुरः) असुर जो सूर्य उसका सम्बन्धी होने से चन्द्र आसुर कहाता है।
स्वर्भानु-स्व-स्वर्ग आकाश, अन्तरिक्ष। भानु-प्रकाश । स्वर्ग का प्रकाश करने हारा चन्द्र है, अत: इसको स्वर्भानु कहते हैं ।
अत्रि-सूर्य किरणों का नाम अत्रि है । "अदन्ति जलानि ये तेऽत्रयः किरणा:"
अब वैदिकार्थ पर ध्यान दीजिए । वेद में कहा गया है कि "आसुर स्वर्भानु सूर्य को अन्धकार से ढाँक लेता है ।" ठीक है । आसुर स्वर्भानु जो चन्द्र वह अपनी छायारूप अन्धकार से सूर्य को ढाँक लेता है तब पुन: अत्रि अर्थात् सूर्य किरण ही इसको हटाकर सूर्य की, मानो, रक्षा करता है। शतपथ ब्राह्मण कहता है कि सोम और रुद्र इस तम को विनष्ट करता है । यह भी ठीक है, क्योंकि चन्द्र ही अपनी छाया सूर्य पर डालता है और कुछ देर के पश्चात् वहाँ से दूर हट जाता है । रुद्रनाम विद्युत् का है अर्थात् प्रकाश पुन: आ जाता है यही, मानो, सूर्य का तम से छूटना है, वेद की यह एक बहुत साधारण बात थी। इसे न समझ कैसी-कैसी कल्पनानाएँ होती गईं ।
आधुनिक संस्कृत में "तमस्तु राहु: स्वर्भानुः सैंहिकेयो विधुन्तुदः" अमर। स्वर्भानु राहु को कहते हैं कि असुर एक भिन्न जाति मानी जाती है, अत: इस प्रकार का महाभ्रम उत्पन्न हुआ है। मैं बारम्बार कह चुका हूँ कि वेदों की एक छोटी सी बात लेकर बड़ी-बड़ी गाथाएँ बनाते गये। इसलिए उचित है कि लोग वेदों को पढ़ें-पढ़ावें अन्यथा वे कुसंस्कारों से कदापि न छूट सकेंगे ।

ग्रहण क्या है ?

ग्रहण क्या है ?

चन्द्र ग्रहण में सम्पूर्ण चन्द्रमण्डल दीख पड़ता है किन्तु मण्डल के ऊपर काली और लाल छाया रहती है । कभी सम्पूर्ण मण्डल के ऊपर और कभी उसके कुछ भाग के ऊपर वह छाया रहती है। सूर्यग्रहण इससे विलक्षण होता है । सूर्यमण्डल अधिक वा स्वल्प भाग उस समय छिपा हुआ रहता है ।
ग्रहण दो प्रकार के होते हैं। १-जिनमें सूर्य और चन्द्र के मण्डल का कुछ भाग ही छाया आच्छादित होता है, वह भाग ग्रास वा असम्पूर्ण ग्रास कहाता है। लोग उसको उतना ही अनुभव करते हैं। जितना मेघ से वे दोनों सूर्य और चन्द्र छिप जाएँ । २- सम्पूर्ण ग्रास में सम्पूर्ण सूर्य और आच्छादित हो जाता है । सूर्य के सम्पूर्ण ग्रास के समय पृथिवी के ऊपर आश्चर्यजनक लीला होती है । पृथिवी के ऊपर उस समय एक विचित्र अन्धकार हो जाता है न तो रात्रि के समान ही वह अन्धकार है और न ऊषाकाल के समान प्रकाश एवं अन्धकार युक्त ही है। आकाश में ताराएँ दीख पड़ने लगती हैं । पक्षिगण अपने घोसले की ओर दौड़ते हैं। रात्रिञ्चर पशु-पक्षी रात्रि समझ कर बाहर निकलने लगते हैं। अज्ञानी जन डर जाते हैं । बहुत दिनों की बात है कि दो देशों के मध्य घोर संग्राम हो रहा था, उसी समय सूर्यग्रहण लगा । दोनों दलों के सिपाही इतने डर गये कि युद्ध बन्द कर दिया गया और दोनों दलों में सन्धि हो गई | सूर्य के समग्र ग्रास से आजकल भी अज्ञानी जनों में अधिक भय उत्पन्न होता है । वे समझते हैं कि इससे किसी महान राजा की मृत्यु होगी। महा दुर्भिक्ष, अनावृष्टि, अतिवृष्टि, महामारी, भयंकर युद्ध, भूकम्प आदि उपद्रव इस वर्ष होंगे, किन्तु ये सब मिथ्या बातें हैं। ग्रहण से मृत्यु और दुर्भिक्षादि का कोई भी सम्बन्ध नहीं है।

वेद में विमान की चर्चा

वेद में विमान की चर्चा

विमान एष दिवो मध्य आस्त आपप्रिवान् रोदसी अन्तरिक्षम् ।
स विश्वाची रभि चष्टे घृताची रन्तरो पूर्वमपरंच केतुम् ।। यजुर्वेद (१७/५९)
(दिवः+मध्ये) आकाश के मध्य में (एष:+विमानः आस्ते) यह विमान के समान विद्यमान है । (रोदसी+अन्तरिक्षम्) द्युलोक, पृथिवी तथा अन्तरिक्ष, मानो, तीनों लोकों में (आपप्रिवान्) अच्छी प्रकार परिपूर्ण होता है अर्थात् तीनों लोकों में इसकी अहत गति है। (विश्वाचीः) सम्पूर्ण विश्व में गमन करनेहारा (घृताची:) घृत: जल अर्थात् मेघ के ऊपर भी चलने हारा (स:) वह विमानाधिष्ठित पुरुष (पूर्वम्) इस लोक (अपरम्-च) उस परलोक (अन्तरा) इन दोनों के मध्य में विद्यमान (केतुम्) प्रकाश (अभिचष्टे) सब तरह से देखता है ।
यहाँ मन्त्र में विमान शब्द विस्पष्ट रूप से प्रयुक्त हुआ है। इसकी गति का भी वर्णन है तथा इस पर चढ़ने हारे की दशा का भी निरूपण है, अत: प्रतीत होता है कि ऋषिगण अपने समय में विमान विद्या भी अच्छी प्रकार जानते थे । एक अति प्राचीन गाथा भी चली आती है कि प्रथम कुबेर का एक विमान था, रावण उसे ले आया था। रामचन्द्र विजय करके जब लङ्का से चले थे तब उसी विमान पर चढ़ कर लङ्का से अयोध्या आये थे।

सृष्टि-विज्ञान

सृष्टि-विज्ञान

आश्चर्य रूप से सृष्टि का वर्णन वेदों में उपलब्ध होता है । वेदों में कथा-कहानी नहीं है । अन्यान्य ग्रन्थों के समान वेद ऊटपटांग नहीं बकते। मन्त्रद्रष्टा ऋषि प्रथम इस अति गहन विषय में विविध प्रश्न करते हैं। वेदार्थ-जिज्ञासुओं को और वेदों के प्रेमियों को प्रथम वे प्रश्न जानने चाहिए जो अतिरोचक हैं और उनसे ऋषियों के आंतरिक भाव का पूरा पता लगता । वे मन्त्र हम लोगों को महती जिज्ञासा की ओर ले जाते हैं, जिज्ञासा ही ने मनुष्य जाति को इस दशा तक पहुँचाया है, जिस देश में खोज नहीं वह मृत है । कभी अपनी उन्नति नहीं कर सकता। मन्त्र द्वारा ऋषिगण क्या-क्या विलक्षण प्रश्न करते हैं। प्रथम उनको ध्यानपूर्वक विचारिये ।
किं स्विदासीदधिष्ठानमारम्भणं कतमत् स्वित् कथासीत् ।
 यतो भूमिं जनयन् विश्वकम्म्मा विद्यामौणोत् महिना विश्वचक्षा ॥(ऋग्वेद १०/८१ /३)
लोक में देखते हैं कि जब कोई कुम्भकार तन्तुवाय वा तक्षा घट, पट, पीढ़ी आदि बनाना चाहता है तब वह पहले सामग्री लेता है और कहीं एक स्थान में बैठ कर घड़ा आदि पात्र बनाता है । अब जैसे लोक में व्यवहार देखते हैं वैसे ही ईश्वर के भी होने चाहिए । अत: प्रथम विश्वकर्मा ऋषि प्रश्न करते हैं कि (स्वित्) वितर्क-मैं वितर्क करता हूँ कि (अधिष्ठानम्) अधिष्ठान अर्थात् बैठने का स्थान (किम्+आसीत्) उस परमात्मा का कौन सा था? (आरंभणम्+कतमत्) जिस सामग्री से जगत् बनाया है वह आरम्भ करने की सामग्री कौन सी थी? (स्वित्) पुन: मैं वितर्क करता हूँ (कथा+आसीत्) बनाने की क्रिया कैसी थी (यतः) जिस काल में (विश्वचक्षा:) सर्वद्रष्टा (विश्वकर्मा) सर्वकर्त्ता परमात्मा (भूमिम्+जनयन्) भूमि को (द्याम्) और द्युलोक को उत्पन्न करता हुआ (महिना) अपने महत्व से (वि+और्णोत्) सम्पूर्ण जगत को आच्छादित करता है । उस समय इसके समीप कौन सी सामग्री और अधिष्ठान था ? यह एक प्रश्न है । विश्वचक्षा:=विश्व=सब, चक्षा=देखनेहारा । विश्वकर्मा=सर्वकर्ता । पुन: वही ऋषि प्रश्न करते हैं-
किं स्विद् वनं क उ स वृक्ष आस यतो द्यावापृथिवी निष्टतक्षुः।
मनीषिणो मनसा पृच्छतेदु तद्य दध्यतिष्ठद् भुवनानि धारयन् ॥ (ऋग्वेद १०/८१/४)
लोक में देखते हैं कि वन में से वृक्ष काट अनेक प्रकार के भवन बना लेते हैं। ईश्वर के निकट कौन सा वन है? (स्वित्) मैं वितर्क करता हूँ, (किम्वनम्) कौन सा वन था? (क:+उ+स:+वृक्ष+आस) कौन सा वह वृक्ष था? (यतः) जिस वन और वृक्ष से (द्यावापृथिवी) द्युलोक और पृथिवी को (निष्टतक्षुः) काटकर बहुत शोभित बनाता है। (मनीषिणः) हे मनीषी कविगण ! (मनसा) मन से अच्छी प्रकार विचार (तत् +इत्+उ) उसको भी आप सब पूछें कि (भुवनानि+धारयन्) सम्पूर्ण जगत को पकड़े हुए वह (यद्+अधि+अतिष्ठत्) जिसके ऊपर स्थित है। इस ऋचा के द्वारा ऋषि दो प्रश्न करते हैं, एक जगत् बनाने की सामग्री कौन सी है और दूसरा सबको बनाकर एवं पकड़े हुए वह कैसे खड़ा है।
विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतोमुखो विश्वतोबाहुरुत विश्वत-स्पात्।
सं बाहुभ्यां धरमति संपत्रैद्य्यावाभूमी जनयन्देवएकः।। (ऋग्वेद १०/८१/३)
अब स्वयं वेद भगवान् उत्तर देते हैं कि वह परमात्मा (विश्व-तश्चक्षुः) सर्वत्र जिसका नेत्र है जो सब देख रहा है , (विश्वतोबाहुः) सर्वत्र जिसका बाहु है (उत) और (विश्वतस्पात्) सर्वत्र जिसका पैर है जो (एक:+देवः) एक महान् देव है, वह प्रथम (बाहुभ्याम्) बाहु से (संधमति) सब पदार्थ में गति देता है । तब (पत्रै:) पतनशील व्यापक परमाणुओं से (द्यावाभूमि) द्युलोक और भूमि को (संजनयन्) उत्पन्न करता हुआ।
एक देव निराधार विद्यमान है । द्वितीय प्रश्न का उत्तर तो यह है कि जब परमात्मा सर्वव्यापक है तब इसके आधार का विचार ही क्या हो सकता है जो एक देशीय होता है वह आधार की अपेक्षा करता है। इस दृश्यमान संसार में वह ऊपर, नीचे, चारों तरफ और अभ्यंतर जब पूर्ण है। तब यह प्रश्न कैसा? अब प्रथम प्रश्न का उत्तर यह दिया जाता है कि पतत्र अर्थात् पतनशील अतिचंचल गतिमान पदार्थ सदा रहता ही है, न वह कभी उत्पन्न हुआ, न होता, न होगा, वह शाश्वत पदार्थ है। उन्हीं पतत्र में गति देकर अपनी निरीक्षण यह सारी सृष्टि रचा करता है। इस मन्त्र से सिद्ध है कि परमात्मा इस जगत् का निमित्त कारण है । जीवात्मा और प्रकृति भी नित्य अज वस्तु है । इन्हीं दोनों की सहायता से वह ब्रह्म सृष्टि रचा करता है।

🙏🙏🙏🌷🌷🌷 नमस्ते 🙏🙏🙏🌷🌷🌷

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