गुरुवार, 11 अप्रैल 2019

वेद अपौरुषेय, नित्य और स्वत:प्रमाण हैं?

✍️लेखक स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी

 ओ३म् 

वेद स्वत:प्रमाण हैं?

मनुष्य अपने विचार दो प्रकार से प्रकट करता है। बोल कर, लिख कर, अर्थात् मौखिक तथा लेखबद्ध। वक्ता प्रथम पक्ष का आश्रय लेता है और मौनी दूसरे पक्ष का। इसी प्रकार पुस्तक का लेखक भी अपने विचार लिख कर प्रकट करता है।
मौखिक हों वा लेखबद्ध हों, दोनों की प्रामाण्याप्रामाण्यता का विचार करना होता है। बोला हुआ प्रत्येक शब्द प्रमाण रूप नहीं होता और न ही जो लिखा गया है, वह सब प्रमाण है, क्योंकि दोनों में कई इसके विपरीत भी देखे जाते हैं।
वक्ता जहाँ सत्य कहता है, वहाँ असत्य भी कह देता है। इसी प्रकार लेखक जहाँ सत्य लिखता है, असत्य भी लिख देता है। वह असत्य भाषण व लेख कहीं कहीं तो बिना जाने होता है और कहीं कहीं जान कर भी होता है, क्योंकि मनुष्य में अल्पज्ञता है, कहीं-कहीं वह स्वयं भूल जाता है और मनुष्य में राग, द्वेष, लोभ, मोहादि दोष हैं, उनके कारण कहीं-कहीं जान बूझ कर भी असत्य का आश्रयी हो जाता है। इसलिए सत्यता के लिए ऋषि दयानन्द जी का यह भाव ठीक ही है। *''जो बात जैसी है, उसे वैसी ही जाने, जैसा जाना है, वैसा ही कहे, वही सत्य होता है।''* यही बात लेखबद्ध के लिए भी है, अर्थात् जो वस्तु जैसी है, वैसी ही जाने जैसी जानी है, वैसी ही वह लिखे, वही सत्य होगी।
यह बात सब स्थानों पर लागू होती है। अब वेद के विषय में विचारते हैं। उसमें जो कुछ लिखा हुआ है, वह सत्य है वा असत्य, अर्थात् प्रमाण माना जाए वा अप्रमाण समझा जाए। प्रथम आर्य दर्शनकारों का पक्ष लिखते हैं।
🌹 मन्त्रायुर्वेदप्रमाणवच्च तत्प्रामाण्यमाप्तप्रामाण्यात्।२।१।६७
🌺 भावार्थ➨ मन्त्र, आयुर्वेद जैसे प्रमाण हैं, वैसे वेद भी प्रमाण हैं, क्योंकि आप्त पुरुषों ने वेद को प्रमाण माना है।
यदि अंकुरादि को पुरुष रचित मानो तो दृष्ट बाधादि दोषों की प्राप्ति होगी, क्योंकि कोई भी उनका रचयिता देखा नहीं जाता, ऐसे ही वेद जानो।
🌹 यस्मिन्नदृष्टेऽपि कृतबुद्धिरुपजायते तत्पौरुषेयम् ॥५०॥
🌺 जिसके कर्ता को न देखने पर भी कृतबुद्धि (किया, बनाया हुआ है) उत्पन्न हों। वही मनुष्यकृत होता है। जैसे घटादि के कर्ता कुलाल को न देखने पर भी उसमें कृतबुद्धि होती है। यही उसमें पौरुषत्व है।
इस भाँति जो कहते हैं, वेद पौरुषेय नहीं हैं। उनका भाव वेद किसी मनुष्य के बनाये नहीं हैं। और जो कोई लिखते हैं कि वेद पौरुषेय हैं, उनका भाव है, वेद ईश्वर पुरुष के बनाये हुए हैं, अत: भाव में भेद नहीं है।
इस भाँति वेद ईश्वरोक्त होने से सर्वथा प्रमाण हैं, क्योंकि मनुष्य में छल, कपटादि दोष होने से मनुष्य असत्य भी बोलता लिखता है। और अल्पज्ञ होने से सब पदार्थों को याथातथ्य रूप से नहीं जानता। इसलिए उसमें भ्रम होने से उसका कथन सर्वथा प्रमाण नहीं है। वेद में ही लिखा है
🌹 तस्माद्यज्ञात्सर्वहुतः ऋचः सामानि जज्ञिरे।
छन्दांसि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत । -यजु० ३१।७
🌺 अर्थात् उस पूज्य परमात्मा से ही ऋग्यजुः, साम, अथर्व, वेद उत्पन्न हुए।
🌹 एवं वा अरेऽस्य महतो भूतस्य नि:श्वसितमेतद्यदृग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्वाङ्गिरसः।-शतपथ काण्ड १४। अ० ५। ब्रा० ४।१०
🌺 याज्ञवल्क्य मैत्रेयी से कहते हैं, श्वास की भाँति उस महान् परमात्मा से ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद प्रकट हुए।
 
🌻 स्वतःप्रमाण-
पूर्व लेखों से यह सिद्ध है कि वेद प्रमाण हैं, प्रमाण तो और भी अनेक वाक्य तथा लेख हैं, वेद में और उनमें यह भेद है, कि वेद स्वत:प्रमाण हैं अन्य सब ग्रन्थ परत:प्रमाण हैं।
जिसके प्रमाण में अन्य प्रमाण की अपेक्षा न हो, वह स्वत:प्रमाण होता है। जिसके प्रमाण में अन्य प्रमाण की अपेक्षा हो, वह परत:प्रमाण होता है। जैसे दीपक के देखने के लिए अन्य दीपक की आवश्यकता नहीं है, उसी दीपक के प्रकाश से उसका बोध हो जाता है और घर आदि के लिए दीपक वा सूर्यादि के प्रकाश की अपेक्षा है, अतः वह परत: प्रकाश हैं। इसी भाँति वेद के लिए किसी अन्य लेख की आवश्यकता नहीं है। और अन्य पुस्तक वेदानुसारी होने से प्रमाण होंगे, वेदविरुद्ध होने से वे त्याज्य समझे जायेंगे ।
ऋषि दयानन्द जी ने ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में लिखा है-
🌹 ईश्वरोक्तत्वान्नित्यधर्मकृतत्वाद्वेदानां स्वत:प्रामाण्यं सर्वविद्यावत्त्वं सर्वेषु कालेष्वव्यभिचारितत्वान्नित्यत्वं च सर्वेर्मनुष्यैर्मन्तव्यमिति सिद्धम्। न वेदस्य प्रामाण्यसिद्धयर्थमन्यत्प्रमाणं स्वीक्रियते। किन्त्वेतत्साक्षिवद्विज्ञेयम्। वेदानां स्वतःप्रमाणत्वात् सूर्यवत्। यथा सूर्यः स्वप्रकाशः सत्संसारस्थान् महतोऽन्यांश्च पर्वतादीन्त्रसरेण्वन्तान्पदार्थान्प्रकाशयति, तथा वेदोऽपि स्वयं स्वप्रकाशः सन्सर्वा विद्याः प्रकाशयतीत्यवधेयम्।
- ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका वेदनित्यत्वविषयः
इस लेख में ऋषि ने सहेतु तथा सोदाहरण वेद को स्वतः प्रमाण लिखा है। सांख्यदर्शन में भी वेद को स्वत:प्रमाण माना है।
🌹 यथानिजशक्त्यभिव्यक्तेः स्वत:प्रामाण्यम्।
इस सूत्र पर स्वामी हरिप्रसाद जी वैदिक मुनि निम्न पाठ लिखते
🌺 (निजशक्त्यभिव्यक्तेः) शब्दार्थसम्बन्धलक्षणया स्वाभाविकया (शक्त्यभिव्यक्तेः) प्रतिसगं भगवतो जगदधिपतेः प्रादुर्भावाद्वेदानां (स्वत:प्रामाण्यम्) स्वार्थसिद्धौ प्रमाणान्तरनिरपेक्षप्रमाणत्वमित्यर्थः ।
🌹 ईश्वरोच्चरितत्वेऽप्यनादित्वान्निजया शक्त्या प्रामाण्यं स्वतःप्रामाण्यं रूपविषये रवेरिवेति सांख्या इति भावः॥
इस पाठ का भाव प्रायः वही है जो महर्षि दयानन्द जी ने लिखा है। इस प्रकार सांख्यदर्शन वेद को स्वत:प्रमाण स्वीकार करता है।

🤔 शंका-ये सब लेख वैदिक धर्मियों को मान्य हैं, वे इन लेखों द्वारा वेद को स्वत:प्रमाण मान लेंगे, किन्तु जो वैदिकधर्मी नहीं हैं, इन प्रमाणों से उनकी सन्तुष्टि न होगी, क्योंकि इन प्रमाणों का मूलाधार यही है, वेद ईश्वरोक्त हैं, ईश्वर आप्त है, अर्थात् सर्वज्ञ होने से सब को ठीक ठीक जानता है, जिस विषय में उसने वेद उपदेश दिया है। वह सब ठीक ही है।
यह तो वही मानेगा जो प्रथम वेद को ईश्वरोक्त मान ले, जो ऐसा न माने उसके लिए इस लेख में कोई समाधान नहीं है, जब तक कोई ऐसी बात न हो जो ईश्वरोक्तता को छोड़ कर उसे प्रमाण क्यों मानें जब यह प्रमाण ही नहीं, तब स्वत:प्रमाण की तो बात ही नहीं है, अर्थात् कैमुत्तक न्याय से वेद की स्वत:प्रमाणता असिद्ध है।
🌹 समाधान-यह ठीक है, यह प्रमाण वैदिकधर्मियों के ही हैं। इसलिए वैदिकधर्मियों के लिए ही प्रमाण हैं। विधर्मियों के लिए नहीं हैं। शब्दप्रमाण का साधारण नियम है। जो शब्द हम सुनें, यदि उसमें संशयादि दोष हों तो उसकी परीक्षा करके निश्चय किया जाता है कि यह वाक्य सत्य है वा असत्य । यदि परीक्षा से सिद्ध हो जाय तो वह वाक्य मान्य होता है। अन्यथा अमान्य होगा। इसलिए आगे वेद-मन्त्रों की परीक्षा करके देखते हैं।
परीक्षा से पूर्व एक प्रमाण और लिखना उचित समझता हूँ।
🌹 बुद्धिपूर्वा वाक्यकृतिर्वेदे॥-वैशे० ६ । १
🌺 वेद में जो उपदेश है, वह बुद्धिपूर्वक है। यथार्थ ज्ञान को बुद्धिपूर्वक और अयथार्थ को अबुद्धि पूर्वक जानो।
🌹 तद्वत्तद्बुद्धिः यथार्थः ।अतद्वत्तबुद्धिः अयथार्थः।
🌺 यही भाव उन दोनों शब्दों का है। इस प्रकार बुद्धिपूर्वक के अर्थ यथार्थ ज्ञान के हैं। जब वेद उपदेश यथार्थ ही है तो वह स्वतः प्रमाण भी होगा।
वैशे० के इस सूत्र पर श्री हरिप्रसाद जी वैदिक मुनि ने लिखा है-
🌹 वेदे-ऋग्यजुःसामाथर्वनाम्नि भगवति वेदे या वाक्यकृतिः= वाक्यरचना सा बुद्धिपूर्वा=स्वार्थविषयवक्तृयथार्थज्ञानपूर्विका, वाक्यकृतत्वात् अस्मदादिवाक्यकृतिवदित्यर्थः।
🌹 अनेन विद्यास्थानोपबृंहितस्य प्रदीपवत्सर्वार्थावद्योतिनः सर्वज्ञकल्पस्य भगवतो वेदस्य वाक्यरचनाया रचनाविशेषतया बुद्धिपूर्वकत्वावश्यंभावेनास्मदादिबुद्धिपूर्वकत्वासम्भवात्सर्वज्ञेश्वरबुद्धिपूर्वकत्वसिद्धौ प्रामाण्यं निर्बाधमिति भावः।
(अन्तिम पाठ शास्त्रयोनित्वात्' सूत्र पर जो शंकराचार्य जी का पाठ है इससे मिलता जुलता ही पाठ है)।
🌺 इस सूत्र का भाव यह मान कर कि वेद का उपदेश यथार्थ ही है, स्वत:प्रमाण होगा। यह सिद्ध होने पर भी कोई मन्त्र इस विषय में लिखना चाहिए। वेद-मन्त्रों के अर्थ कई जगह तो सरलता से समझ में आ जाते हैं और कहीं कहीं शब्दार्थ तो समझ में आता है, परन्तु जब उस अर्थ को अनुभवानुसार देखते हैं तो उसमें भ्रमोत्पन्न हो जाता है। शब्दार्थ होने पर भी बात न बनने पर साहित्य में लक्षणा का प्रयोग होता है। लक्षणा में अन्वयानुपपत्ति वा तात्पर्यानुपपत्ति बीज है। इस प्रकार शक्यार्थसम्बन्ध में लक्षणा होने से निर्वाह किया जाता है। और कहीं कहीं यर्थक शब्द में एक अर्थ करने से यदि अर्थ की संगति न बनती हो तो दूसरा अर्थ करने पर शब्दार्थ ठीक हो जाता है। यदि कोई अयुक्त अर्थ करके आक्षेप करे- “वेद में यह मन्त्र अयुक्त है'' तो अर्थकर्ता का दोष होगा, वेद मन्त्र का नहीं। इसी प्रकार का एक मन्त्र और उसका अर्थ लिख कर अपना भाव प्रकट करता हूँ।
🌹 अश्रीरा तनूर्भवति रुशती पापयामुया।
पतिर्यद्वध्वो वाससा स्वमङ्गमभिधित्सते॥-ऋ० १०।८५।३०
🌹 अश्लीला तनूर्भवति रुशती पापयामुया।
पतिर्यद्वध्वो वाससा स्वमङ्गमभ्यूर्णते॥-अथर्व० १४।१।२७
दोनों वेदों के मन्त्रों में मुख्य भेद ‘धित्सते' तथा 'ऊर्णते' का ही है और दोनों का अर्थ समान ही है। सामान्य रूप से मन्त्र का अर्थ यह यदि शोभा युक्त शरीरवाला पति वधू के वस्त्र से अपने अंग को ढांपता है तो इस पाप से उसका शरीर अश्लील अर्थात् शोभा रहित हो जाता है। प्रायः टीकाकार ऐसा ही अर्थ करते हैं। उदाहरणार्थ सायणाचार्य जी का पाठ लिख देता हूँ। अन्य शब्दों को छोड़कर मुख्य शब्द को ही लिखता हूँ।
🌹 पतिर्यत् वध्वो वाससा, स्वमङ्गमभिधित्सते=परिधातुमिच्छति।
अब प्रश्न यह है, यह अर्थ बुद्धिपूर्वक है वा नहीं ? जिस देश में स्त्री पुरुष के वस्त्रों में रंग आकारादि में भेद है, वहाँ सामान्य रूप से कोई भी पति स्त्री के वस्त्र नहीं पहनता है। जिस देश में उन वस्त्रों रंग तथा आकार सामान्य रूप से एक ही है। वहाँ पहन लेना सम्भ है। और पूछने पर उत्तर भी हाँ में मिलता है। जैसे बंगाल, महाराष्टाटि प्रान्तों में स्त्रियों की साड़ी विशेष है और पंजाब विशेष भी है, सामान्य भी है। स्त्रियाँ जहाँ विशेष साड़ी पहनती हैं वहाँ भी कई अवस्थाओं में वैसी भी पहन लेती हैं, जैसे पुरुष पहनते हैं। अर्थात् कई अवस्थाओं में पुरुष की धोती के समान धोती स्त्रियाँ पहनती हैं। जहाँ स्त्रियाँ पुरुषों के समान तहमद बाँधती हैं, वहाँ तो प्रायः समान ही हैं। इसी प्रकार जहाँ सलवार वा तंग पायजामा धारण करते हैं। वहाँ यदि विशेष रंग का नियम न हो, जो प्रायः पूर्णरूप से नहीं है, वहाँ तो एक दूसरे का पहन ही लेते हैं।
कटि-वस्त्र के अतिरिक्त जहाँ स्त्री-पुरुषों का कुरता एक रूप का है यदि स्त्री पुरुष की आकृति का विशेष भेद न हो तो परस्पर अनेक बार एक दूसरे का पहनना सम्भव ही है। जहाँ समान रंग रूप तथा आकार में नहीं है वहाँ यह गड़बड़ नहीं होती, यदि आकृति में विशेष भेद हो तो भी परस्पर ऐसा व्यवहार नहीं होगा।
पुनः चिन्तनीय है, इस मन्त्र में वधू का वस्त्र पति पहने, इसका ही निषेध है अथवा वधू स्त्री का और पति पुरुष को उपलक्षण है। यदि वधू शब्द को स्त्री का उपलक्षण न मानें तो भगिनी, माता, पुत्री आदि के शरीर से वधू शरीर में विशेषता का कोई नियामक होना चाहिए। और नियामक ढूंढनेवालों को इसमें सफलता न होगी। इसलिए मैं गजघण्टा न्याय से घोषित करता हूँ, स्त्रीत्व, शरीरत्व दृष्टि से वधू अन्य स्त्रियों के समान ही है। इस शरीर में वधूत्व विवाह संस्कारादि द्वारा उत्पन्न हुआ है। इससे अधिक कुछ नहीं है।
यदि उपलक्षण मान लिया जाय तो नाट्यशालाओं में जो पुरुष स्त्री-पात्र बनते हैं, वे केवल स्त्री के वस्त्र ही नहीं पहनते । वे नाट्यशाला में अनेक व्यवहार स्त्रियों का ही करते हैं। इस मन्त्र द्वारा उनकी गति क्या होगी, यह भी विचार के योग्य है।
 
see also: जीवन जीने का उपदेश
 
यदि अनुभव के आधार पर कहना हो तो यही कहना चाहिए। नाट्यशालाओं में स्त्री-पात्र बननेवालों के शरीर अश्लील नहीं होते हैं। इसी प्रकार जहाँ आकृति समान है और वस्त्रों का आकार, रंग ढंग भी समान है वहाँ पति वधू के वस्त्रों का भी कभी कभी प्रयोग कर लेता है। उनका शरीर भी अश्लील नहीं होता है इस आधार पर क्या यह अर्थ बाधित हेत्वाभास के समान ही नहीं है । यथा -
🌹 अग्निरनुसारः । द्रव्यत्वात् जलवत्॥
🌺 स्त्री वा वधू का वस्त्रधारी पुरुष शोभा रहित होगा । मन्त्र प्रतिपादित होने से अग्नि शीतनिवारक है, इस मन्त्र की भाँति ।
क्या दोनों समान नहीं हैं। हेतु द्रव्यत्व होने पर भी अग्नि अनुष्ण नहीं, उष्ण ही है। तब इस मन्त्र में वस्त्रों के धारण का निषेध होने पर भी अनुभव से वह निषेध सिद्ध नहीं है।
इस कारण इस मन्त्र का यह अर्थ बुद्धिपूर्वक नहीं है और कणाद जी वेद के मन्त्रों को बुद्धिपूर्वक मान कर प्रमाण स्वीकार करते हैं।
अब प्रश्न होगा, यदि यह अर्थ बुद्धिपूर्वक नहीं है तो जो अर्थ बुद्धिपूर्वक है उसका पता लगाना चाहिए। वैदिकधर्मियों का कर्तव्य है, वह इस मन्त्र की अथवा इसी भाँति के जिन मन्त्रों पर आपत्ति हो उसका समाधान करें, क्योंकि वे वेद को स्वत:प्रमाण मानते हैं। जो वैदिकधर्मी नहीं हैं, उसके लिए अपनी श्रद्धा का मान देकर युक्ति का आश्रय लेना होगा। वह भी कल्पना मात्र नहीं, सप्रमाण होनी चाहिए।
इस मन्त्र में एक पद ‘‘वासः'' है। जिसके अर्थ वस्त्र हैं। यदि उसके अर्थ वस्त्रमात्र न करके 'मलवद्वासः' किया जाए तो कुछ और हो जाएगा। पंजाब में 'मलवद्वासः' ग्रामीण भाषा में कपड़े' को ही कहते हैं और मीमांसा में ब्राह्मण ग्रन्थों में ‘मलवद्वासः' प्रकरण है।
इस 'मलवद्वासः' शब्द के अर्थ मलवाला वस्त्र हो सकता है, परन्तु योगरूढ़ि से सब ही इसके अर्थ ‘रजस्वला' करते हैं और यही ठीक है।
🌹 न संवदेत् मलमद्वाससेत्यपि पूर्ववत्।- जैमिनीय न्यायमाला ३, ४, ११
🌹 मलवद्वससी न संवदेत्। -तैत्तिरीय ब्राह्मण
🌹 श्रीर्हवा एषा स्त्रीणाम्। यन्मलोद्वासः॥ -शतपथ कां० १४ । अ० ९ । ब्रा० ४ । कं० ६
यहाँ मलोद्वासः शब्द का अर्थ ऋतुस्नाता है।
🌹 यस्य व्रतेऽहन् पत्न्यनालम्भुका भवति तामपरुध्य यजेत्। तै० ३।७।१।९ टीका । व्रतेऽहन्यागानुष्ठानदिने यस्य यजमानस्य पल्यालम्भुका स्पष्टमयोग्या रजस्वला भवलातां स्त्रियमपरुध्यबहिर्निःसार्य....यजेत्।
🌺 अर्थात् यज्ञ के दिन यदि यजमान पत्नी रजस्वला हो जाय तो उसे यज्ञ-मण्डप से निकाल कर यज्ञ करे। इस यज्ञ में मण्डप से रजस्वला को निकाल देने का आदेश है, मीमांसादर्शन में मलवद्वासः अधिकरण में ये सूत्र हैं।
🌹 प्रागपरोधान्मलवद्वाससः।-मीमांसा। ३।४।१८
🌺 मलवद्वाससा का प्रथम अपरोध होने से।
🌹 (मलवद्वाससा न संवदेत्) अन्नप्रतिषेधाच्च।३।४।१९
🌺 अन्न प्रतिषेध होने से भी (नास्या अन्नमधात्) इस प्रकार वास: शब्द के अर्थ वस्त्र नहीं हैं, इस शब्द का अर्थ इस मन्त्र में मलवद्वासः अर्थात् रजस्वला है। यह अर्थ करने पर अब मन्त्र के अर्थ होंगे
यदि अच्छे शरीरवाला पति रजस्वला पत्नी से संभोग करता है तो इस पाप कर्म से वह अश्लील तनु, अर्थात् शोभा रहित हो जाता है। यह अर्थ करने के लिए जैसे वासः शब्द के अर्थ मलवद्वासः करने में प्रमाण लिखे हैं, उसी भाँति रजस्वला से मैथुन के निषेध और उससे शरीर बिगाड़ में भी संक्षेप से कुछ प्रमाण लिखना उचित समझ कर लिखता हूँ।
ऋतुदर्शन-समय सम्भोग का निषेध।
🌹 तत्र प्रथमे दिवस ऋतुमत्या मैथुनगमनमनायुष्यं पुंसां भवति। यश्च तत्राधीयते गर्भः स प्रसवमानो विमुच्यते। द्वितीयेऽप्येवं सूतिकागृहे वा। तृतीयेऽप्येवमसम्पूर्णाङ्गोऽल्पायुर्वा भवति।चतुर्थे तु सम्पूर्णाङ्गो दीर्घायुश्च भवति। न च प्रवर्तमाने रक्ते बीजं प्रविष्टं गुणकरं भवति यथा नद्यां प्रतिस्रोतः प्लावि द्रव्यं प्रक्षिप्तं प्रति निवर्तते नोवें गच्छति तद्वदेव द्रष्टव्यम्। तस्मान्नियमवर्ती त्रिरात्रं परिहरेत्, अतः परं मासादुपेयात् ॥-सुश्रुत अध्याय-२ शरीर स्थान श्लोक २७
🌺 इसका भाव है, रजोदर्शन के तीन दिन में स्त्री पुरुष गर्भाधान क्रिया न करें, यदि इन तीन दिनों में वीर्यदान क्रिया होगी तो क्रिया निष्फल होगी
🌹 ऋतुः स्वाभाविकः स्त्रीणां रात्रयः षोडश स्मृताः।
चतुर्भिरितरैः सार्धमहोभिः सद्विगर्हितैः ॥ ४६॥
🌹 तासामाद्यश्चतस्रस्तु निन्दितैकादशी च या।
त्रयोदशी च शेषास्तु प्रशस्ता दश रात्रयः ॥-मनु० अध्याय ३
🌺 भावार्थ-स्त्रियों की स्वाभाविक १६ रात्रियाँ ऋतु की हैं, उनमें आरम्भ की चार निन्दित हैं। एकादशी, त्रयोदशी में भी गर्भाधान न करें, शेष दस दिन उत्तम माने हैं।
सुश्रुत चिकित्सा पुस्तक है और मनुस्मृति धर्मग्रन्थ है। इस प्रकार ये दोनों रजस्वला स्त्री से सम्भोग का निषेध करते हैं, अत: यह वेदानूकुल ठीक ही है।
रही यह बात शेष कि वेद में पाठ है
🌹 ‘अश्लीला तनूर्भवति'
🌺 अर्थात् रजस्वला स्त्री से सम्बन्ध करनेवालों का शरीर ‘राशति' सुन्दर हो तो भी अश्लील हो जाता है। ये दोनों पाठ ऋतुकाल में सम्बन्ध निषेध तो अवश्य करते हैं। शरीर के श्रीरहित होने का उल्लेख नहीं है और रजस्वला के साथ सम्भोग का निषेध प्रायः सर्वतन्त्र सिद्धान्त है। इसलिए इस पर अधिक लिखने की आवश्यकता नहीं है। आगे शरीर शोभा रहित होने की बात लिखता हूँ।
महाभारत के मौसल पर्व में इसका वर्णन है। संक्षेप से घटना इस प्रकार है।
जिस समय यादवों में परस्पर मारनेवाला विवाद हुआ, उस समय श्री कृष्ण जी भी स्वर्ग सिधार गये। अर्जुन उस समय वहाँ गया। उसने कृष्ण जी के शव को लेकर उसका अन्त्येष्टि संस्कार किया और द्वारिका में आया, जलप्लाव से द्वारिका भी डूब गई, अर्जुन वहाँ के शेष निवासियों को साथ लेकर चला । मार्ग में पञ्चनद के समीप अर्जुन की चोरों से मुठभेड़ हो गई। उन्होंने कुछ धन, माल, स्त्रियाँ अर्जुन से छीन लीं, जो शेष रहे उनको सामान सहित लेकर अर्जुन आगे चला। और दिल्ली के समीप बसाया जिस समय वह व्यासाश्रम में पहुँचा और व्यास जी को नमस्ते की, उस समय व्यास जी ने अर्जुन को कुछ बातें कही हैं, उन बातों में रजस्वला का भी वर्णन है। यथा -
(वैशम्पायन उवाच-)
🌹 प्रविशन्नर्जुनो राजन्नाश्रमं सत्यवादिनः। ददर्शासीनमेकान्ते मुनिं सत्यवतीसुतम्॥१॥ स तमासाद्य धर्मज्ञमुपतस्थे महाव्रतम्। अर्जुनोऽस्मीति नामस्मै निवेद्याभ्यवदत् ततः ॥२॥ स्वागतं तेऽस्विति प्राह मुनिः सत्यवतीसुतः।
आस्यतामिति होवाच प्रसन्नात्मा महामुनिः ॥३॥ तमप्रतीतमनसं निःश्वसन्तं पुनः पुनः। निर्विण्णमानसं दृष्ट्वा पार्थं व्यासोऽब्रवीदिदम्॥५॥ नखकेशदशाकुम्भवारिणा किं समुक्षितः। आवीरजानुगमनं ब्राह्मणो वा हतस्त्वया ॥४॥ युद्धे पराजितो वाऽसि गतश्रीरिव लक्ष्यसे। न त्वां प्रभिन्नं जानामि किमिदं भरतर्षभ॥ ६ ॥ (म० भा० पर्व १६ अध्याय ८)
🌺 अर्थः-वैशम्पायन मुनि बोले-हे महाराज! अर्जुन ने व्यासदेव जी के आश्रम में जाकर देखा कि मुनि श्रेष्ठ सत्यवती सुत निर्जन में बैठे हैं। उनको देखकर उनके पास जाकर कहा-कि मैं अर्जुन हूँ और उनको प्रणाम किया। व्यास जी ने आशीर्वाद देकर अर्जुन को बैठने को कहा-धनञ्जय को काला मन तथा बार बार लम्बी सांस लेते देखकर बोले-हे भरत पुङ्गव, आपको कभी पराजित होते नहीं सुना। तब आपको इस समय श्रीविहीन क्यों देखता हूँ ? आपने नख के जल, केश के जल, वस्त्र निचोड़ जल तथा घट के मुख में जलों का प्रयोग तो नहीं किया है? तूने रजस्वला गमन वा ब्रह्महत्या तो नहीं की है ? क्या किसी युद्ध में पराजित हुए हो? आप गत श्री क्यों दिखाई पड़ते हो। मेरे जानने योग्य बात हो तो कहो।
'आवीरजा' शब्द के अर्थ नीलकण्ठ जी ने ये लिखे हैं|
‘आवीरजा' नारी रजस्वला तस्या रज:प्रस्रवकाले दिनत्रयादर्वाक् अनुगमनं तस्यां मैथुनम्।।
वेद में अश्लील शब्द है, महाभारत में गतश्री है, इसका कारण दोनों में समान ही माना है। वेद में ‘वध्वो' पाठ है, महाभारत में ‘आवीरजानुगमनं' है।
अब 'वधू' शब्द पर भी किंचित् विचार कर लें। स्त्रियाँ तीन प्रकार की हैं। स्वकीया, परकीया, सामान्या।
परकीया सर्वथा अगम्या है। सामान्या में गमन निंदनीय है, शेष रही स्वकीया, स्वकीया ही गम्य है।‘वधू' शब्द से वेद ने परस्त्री तथा वेश्या का सर्वथा निषेध किया है। सन्तानोत्पत्ति क्रिया केवल वधू में ही होनी चाहिए। अन्य में नहीं।
इस प्रकार अर्थ करने में व्यवस्था ठीक बन जाती है और इस अर्थ में कोई क्लिष्ट कल्पना भी नहीं है। सब शब्दों के सीधे अर्थ हैं। इन अर्थों को कोई यह नहीं कह सकता कि ये अर्थ बुद्धिपूर्वक नहीं हैं।
इसी प्रकार वेद बुद्धिपूर्वक होने से स्वतः प्रमाण भी मानना चाहिए। वेद में कोई मन्त्र अबुद्धिपूर्वक नहीं है, अतः स्वत:प्रमाण हैं। मीमांसा में एकसूत्र है।
🌹 विरोधे त्वनपेक्ष्यं स्यात् असति ह्यनुमानम्। मी० ११।३।३
🌺 अन्य ग्रन्थों में यदि वेद का विरोध हो तो वे ग्रन्थ त्याज्य हैं। वेदानुसारी होने पर ही मान्य हैं और वेद स्वत:प्रमाण हैं। अन्य सब ग्रन्थ परत:प्रमाण हैं। यही वैदिक धर्म का निर्णीत सिद्धान्त है। ('आर्य'' के 'स्वाध्याय-अंक से साभार’)

🌹🌺🌷🍁 नमस्ते 🍁🌷🌺🌹

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