👉 सतीश आर्य
प्रश्न➤ मानवीय सृष्टि का आदि ग्रंथ कौन सा है?
उत्तर➨ मानवीय सृष्टि का आदि ग्रंथ
वेद है।
प्रश्न➤ वेद क्या है और किसने लिखे हैं?
उत्तर➨ मानव मात्र के कल्याणार्थ परमात्मा द्वारा दिया गया ज्ञान ‘वेद’ है। यह मानवीय रचना नहीं है, अपौरुषेय ज्ञान है।
प्रश्न➤ वेद कितने हैं तथा उनके मुख्य विषय क्या है?
उत्तर➨ वेद चार है— ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद,अथर्ववेद। इन चारों वेदों में ज्ञान, कर्म, उपासना एवं विज्ञानकांड का निश्चय है। ज्ञान किसी पदार्थ के सामान्य बोध को तथा विज्ञान उसके साक्षात् बोध को कहते हैं। चारों विषयों में विज्ञान सबसे मुख्य है, यतः उससे परमेश्वर से लेकर तृण पर्यन्त सब पदार्थों का हस्तामलकवत् साक्षात बोध होता है। उसमें भी परमेश्वर का अनुभव सर्वमुख्य है, क्योंकि सब वेदों का प्रधानतः उसी में तात्पर्य है ऋग्वेद में जून गुणों के ज्ञान विज्ञान का उपदेश अर्थात ईश्वर से लेकर भूमि पर्यंत पदार्थों का गुण–वर्णन रूप ज्ञान और विज्ञान काण्ड है, और यजुर्वेद में ईश्वर पूजा, विद्वत्सत्कार, शिल्पादि क्रियाओं से संगतिकरण, शुभ विद्या, धन आदि का दान एवं यज्ञादि कर्तव्य कर्मों का उपदेश रूप कर्मकांड वर्णित है। सामवेद में ज्ञान–विज्ञान, कर्म और उपासना तीनों का समन्वय है अर्थात यह बतलाया गया है कि मनुष्य ज्ञान–विज्ञान, कर्म और उपासना की कहां तक उन्नति कर सकता है तथा उसका क्या फल होता है। अथर्ववेद उक्त विद्या–विषयों का पूरक है।
प्रश्न➤ वेदों के मंत्रों के साथ ऋषियों के नाम मिलते हैं जिससे यह प्रतीत होता है की इन–इन ऋषियों ने इन–इन मंत्रों की रचना की?
उत्तर➨ परमात्मा ने ऋग्वेदादि चारों वेद क्रमशः अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा ऋषियों को एक–एक वेद का ज्ञान दिया। तत्पश्चात गुरु–शिष्य परंपरा से वेद का ज्ञान अन्य लोगों तक पहुंचा। जिस–जिस ऋषि ने सर्वप्रथम जिस–जिस मंत्र का अर्थ जाना उस–उस का नाम मंत्र के साथ स्मरणार्थ भी लिखा हुआ है। अतः ऋषि मंत्रों के कर्त्ता ना होकर मंत्रार्थ द्रष्टा थे।
प्रश्न➤ वेद के मंत्रों के साथ देवता नाम का क्या अभिप्राय है?
उत्तर➨ मंत्र के देवता मंत्र के विषय के बारे में बताता है कि इस मंत्र में किस विषय के बारे में बताया गया है। इसका भी मंत्र के साथ मात्र इतना ही संबंध है।
प्रश्न➤ चारों वेदों में कुल कितने मंत्र है?
उत्तर➨ ऋग्वेद में 10552 मंत्र, यजुर्वेद में 1975 मंत्र, सामवेद में 1875 मंत्र तथा अथर्ववेद में 5977 मंत्र है। इस प्रकार चारों वेदों में 20379 मंत्र है।
प्रश्न➤ वेद का मूल सिद्धांत क्या है?
उत्तर➨ वेद के अनुसार ईश्वर, जीव तथा प्रकृति तीन अनादि है। ईश्वर सच्चिदानंदस्वरूप जगत् का निमित्त कारण है तथा उपादान कारण प्रकृति से समस्त ब्रह्मांड की रचना जीवों के कर्मों का यथायोग्य फल देने के लिए करता है। जगत् की रचना जीवों के भोग तथा अपवर्ग हेतु है।
प्रश्न➤ वेद को छोड़ अन्य ग्रंथ भी तो संसार में प्रचलित है। उनमें भी यह सब ज्ञान उपलब्ध होता है। यदि उनमें यह सब ज्ञान प्राप्त हो तो वेदों की क्या आवश्यकता है?
उत्तर➨ वेद परमात्मा का ज्ञान होने से स्वतः प्रमाण है। इन्हें किसी अन्य प्रमाण की आवश्यकता नहीं है। परंतु अन्य ग्रंथों के प्रमाण के लिए वेद की आवश्यकता है क्योंकि वह सब मानव रचित है। अतः वेद ज्ञान ही परम आवश्यक है। जो–जो वेदानुकूल ग्रंथ है वह भी प्रमाण करने योग्य है, अन्य नहीं।
प्रश्न➤ वेदानुकूल ग्रंथ कौन से हैं?
उत्तर➨ वेदानुकूल ग्रंथ निम्नलिखित हैं :➱
चार उपवेद➧
१. आयुर्वेद ➮ जो वैद्यकशास्त्र में चिकित्सा विद्या है जिसके
चरक सुश्रुत और
धन्वन्तरिकृत निघण्टु है, यह ऋग्वेद का उपवेद है।
२. धनुर्वेद ➮ इसमें शस्त्रास्त्र के विधानयुक्त
अङ्गिरा आदि ऋषियों के बनाये ग्रंथ, जो कि
अङ्गिरा भरद्वाजादिकृत संहिता है, जिनमें राजविद्या सिद्ध होता है, परंतु वे ग्रंथ प्रायः लुप्त से हो गये है, जो पुरूषार्थ से इसका सिद्ध करना चाहे तो वेदादि विद्यापुस्तकों से साक्षात् किया जा सकता है। यह यजुर्वेद का उपवेद है।
३. गान्धर्ववेद ➮ जो कि सामगान और
नारदसंहिता आदि के गानविद्या के ग्रंथ हैं, यह सामवेद का उपवेद है।
४. अर्थवेद ➮ शिल्पविद्या, कलाकौशल और भवननिर्माण की विद्या है— जिसके प्रतिपादन में
विश्वकर्मा, त्वष्टा, देवज्ञ और
मयकृत संहिता है। यह अथर्ववेद का उपवेद है।
चार ब्राम्हण➧
ब्राम्हण ग्रंथों में मुख्यता गृहस्थाश्रम में किए जाने वाले यज्ञ–यागादि का विधान है और आरण्यकों में अरण्यस्थ वानप्रस्थियों के कर्तव्यरूप यज्ञ तथा आत्मचिंतन का विधान है। आत्मचिंतन प्रधान अंश ही उपनिषद् नाम से पृथक किए गए हैं। ब्राह्मणों के अंतर्गत ही आरण्यकों का समावेश होता है और उपनिषद आरण्यकों का ही एक भाग है।
ऋग्वेद का ऐतरेय ब्राम्हण ➱ इस ब्राह्मण में यज्ञों और इष्टियों का वर्णन है इसका प्रधान विषय यथा सोमयाग है। अग्निष्टोम समस्त सौमयाग की प्रकृति है। इसके विभिन्न सत्रों यथा गवामयन–सत्र, आदित्यानामयन–सत्र, अङ्गिरसामयन–सत्र, द्वादशाह–याग, अग्रिहोत्र–याग तथा राजसूय–क्रतु एवं राज्याभिषेक का प्रतिपादन है। इस ब्राह्मण के अन्त में पुरोहित के धार्मिक और राजनैतिक क्रियाकलाप वर्णित है। इस प्रकार इसमें यज्ञ का वर्णन किया गया है।
इसके अतिरिक्त ऋग्वेद की शाङ्खायण शाखा का
शाङ्खायण ब्राह्मण तथा
कौषीतकि ब्राह्मण भी उपलब्ध होते है। आरण्यकों में
ऐतरेय, कौषीतकि और शाङ्खायण आरण्यक भी उपलब्ध होते हैं।
यजुर्वेद का शतपथ ब्राह्मण ➱ यह सभी उपलब्ध ब्राह्मणों से विशाल ग्रंथ है। इसमें मुख्यता यज्ञों का विस्तृत वर्णन है। एक दिवसीय यज्ञ, सोमयाग, दर्शपूर्णमास जैसे यज्ञों से लेकर वाजपेययाग, चयनयाग, अश्वमेध और राजसूय जैसे राजनैतिक राष्ट्रपरक यज्ञों का विशद वर्णन है। इसमें ब्रह्मविद्या, आत्मा और संसार, बन्धन और मोक्ष विषयों पर भी गम्भीर चिन्तन उपलब्ध होता है।
इसके अतिरिक्त कृष्ण यजुर्वेद की तैत्तिरीय शाखा का
तैत्तिरीयब्राह्मण भी उपलब्ध होता है। तथा
शुक्ल यजुर्वेद के
माध्यन्दिन बृहदारण्यक तथा
काण्व बृहदारण्यक और
कृष्ण यजुर्वेद के
तैत्तिरीय आरण्यक और
मैत्रायणीय आरण्यक भी उपलब्ध होते हैं।
सामवेद का साम ब्राह्मण ➱कौथुम वा राणायनीय शाखा के आठ ब्राह्मण तथा जैमिनीय शाखा के तीन ब्राह्मण उपलब्ध होते हैं। इनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है :
➪
१. ताण्ड्य महाब्राह्मण ➱ यह तण्डि ऋषि द्वारा प्रोक्त, २५ अध्यायों में विभक्त तथा सबसे बड़ा है। इसमें १७७ यागों का विशद वर्णन है, जिनमें ७५ एकाह याग, ३४ कहीं याग, ६५ सत्र याग तथा ३ अग्निष्टोम, द्वादशाह एवं गवामयण है। इसमें उदगातृगण से सम्बद्ध यजुर्मन्त्रों का उल्लेख, त्रिवृत, पञ्चदश, सप्तदश आदि स्तोमों का और उनकी विष्टुतियों का वर्णन, गवामयण–याग (एक वर्ष तक चलने वाला तथा समस्त सत्रों का प्रकृतिभूत मांग) का वर्णन, अग्निष्टोम एवं अग्निष्टोमयाग संस्था, अतिरात्र यागसंस्था एवं प्रायश्चित्त, द्वादश याग का निरूपण, समग्र एकाह यागों का विवेचन, सम्पूर्ण अहीन यागों का विवेचन, समस्त सत्र यागों की मीमांसा की गई है।
२. षड़विंश ब्राह्मण ➱ यह ताण्ड्य ब्राह्मण का पूरक हैं। इसमें कुल छह अध्याय हैं तथा प्रधानत: पांच यागों का वर्णन है— श्येनयाग, इषुयाग, संदंशयाग, व्रजयाग और वैश्वदेव त्रयोदशसत्रयाग। अन्तिमयाग में सन्ध्यानुष्ठान तथा अद्भुतशान्ति प्रकरण है।
३. सामविधान ब्राह्मण ➱ इसमें तीन अध्याय हैं, जिनमें कृच्छ, अतिकृच्छ आदि व्रतों का अनुष्ठान, शान्तिकरण, आयुष्यवर्धन, शत्रुविनाश, अभिषेक आदि का वर्णन है। इसमें वर्णित बहुत सी बातें वेद विरुद्ध होने से प्रमाण कोटि में नहीं आती।
४. देवताध्याय ब्राह्मण ➱ इसमें निधन–भेद से साम देवताओं का नाम–निर्देश, जनरलों के देवता एवं वर्णों का निर्देश और जनरलों के नामों की नियुक्तियां है।
५. आर्षैय ब्राह्मण ➱ इसे छान्दोग्य ब्राह्मण भी कहते हैं। इसके प्रथम दो प्रपाठकों में गृह्य संस्कारों में प्रयुक्त होने वाले मन्त्रों का संग्रह है और अन्तिम आठ प्रपाठकों में प्रसिद्ध छान्दोग्योपनिषद् है।
७. संहितोपनिषद ब्राह्मण ➱ इसमें विविध गान–संहिताओं का स्वरूप तथा अध्ययन फल, गान–संहिता का विधि, स्तोभ, स्वर, षट्तीर्थ (विद्यादान के पात्र), विद्या के अनधिकारी, गुरुदक्षिणा एवं पयोव्रत आदि तपश्चरण का विषय वर्णित है। यास्कीय निरुक्त का विद्या अधिकारी–अनधिकारी का प्रकरण इसी ब्राह्मण के आधार पर लिखा गया है।
८. वंश ब्राह्मण ➱ तीन खण्डों के इस ब्राह्मण में सामवेद के आचार्यों की वंशपरम्परा का वर्णन है। अन्तिम भाग में षड् वेदांगों की भी चर्चा हो।
९. जैमिनीय ब्राह्मण ➱ यह विशालकाय ब्राह्मण तलवकार ब्राह्मण भी कहलाते है। इसका अन्तिम भाग उपनिषद् है। महाब्राह्मणभाग के अतिरिक्त इसमें द्वादशाह, महाव्रत, एकाह, अहीन एवं सत्र यागों का वर्णन है।
१०. जैमिनीय आर्षैय ब्राह्मण ➱ इसे सामवेद की तलवकार शाखा की ऋष्यनुक्रमणी कहा जाता है।
११. जैमिनीय उपनिषद् ब्राह्मण ➱ इसे अनेकों मंत्रों की हृदयग्राही व्याखा के अतिरिक्त कई साम भी वर्णित हुए हैं।
अथर्ववेद का गोपथ ब्राह्मण :
➪ इस का मुख्य विषय याज्ञिक प्रक्रिया है। पूर्वभाग में ओ३म् की महिमा विस्तृत रूप से गाई गई है। द्वितीय प्रपाठक में ब्रह्मचारी का महत्व तथा उसके कर्त्तव्यों का विवेचन है। तत्पश्चात यज्ञों का विस्तृत वर्णन है। इससे आत्मिकयज्ञ अर्थात आत्मा की उन्नति से पुरुषार्थ बढ़ाकर अन्न, प्रजा, पशु और सुख प्राप्ति का भी वर्णन है। इसके अतिरिक्त सृष्टिविद्या, गायत्रीमंत्र व्याखा तथा शरीरविद्या का भी वर्णन है।
छः वेदांग➧
१. शिक्षा ➮ उसमें वर्णोच्चारण ही विधि है। इसका
पाणिनि मुनि कृत शिक्षासूत्रपाठ प्रामाणिक ग्रंथ है।
२. कल्प ➮ उसमें वेद मंत्रों के अनुष्ठान की विधि है। इसमें श्रौतसूत्र, गृह्यसूत्र, धर्मसूत्र, तथा शुल्बसूत्र आते हैं। यह यज्ञों के प्रयोगों का समर्थन करते वाले शास्त्र कहलाते हैं। इनका परिचय आगे दिया गया है।
३. व्याकरण ➮ उसमें शब्द, अर्थ और उनके परस्पर संबंध का निश्चय है। इसके प्रामाणिक ग्रंथ
पाणिनिमुनिकृत अष्टाध्यायी और
पतञ्जलीमुनिकृत महाभाष्य हैं। इसके अतिरिक्त
पाणिनिमुनिकृत उणादि–सूत्रपाठ, लिङ्गानुशासनम–सूत्रपाठ, धातुपाठ, गणपाठ भी प्रामाणिक ग्रंथ है। तथा इनके सहायक ग्रंथों में
कात्यायनमुनिकृत वार्त्तिक–गणपाठ, पतञ्जलीमुनिकृत परिभाषा–पाठ तथा
शान्तनवप्रणीत फिट्सूत्र है। इस पर स्वामी दयानंद सरस्वती रचित वेदाङ्गप्रकाश के अष्टाध्यायी और महाभाष्य के आधार पर लिखे गये
वर्णोच्चारणशिक्षा, सन्धिविषय, नामिक, कारकीय, सामसिक, स्रैणाताद्धित, अव्ययार्थ, आख्यातिक, सौवर, पारिभाषिक, धातुपाठ, गणपाठ, उनादिकोष हैं।
४. निरुक्त ➮ इसमें वेदमन्त्रो की निरुक्तियां है। निरुक्त निघण्टु की व्याख्या है। यह ग्रंथ यास्कमुनि कृत है।
५. छन्द ➮ इसमें गायत्री आदि छन्दों के लक्षण हैं तथा वैदिक लौकिक छन्दों का परिचय है, यह ग्रंथ
पिङ्गलाचार्य कृत है।
६.
ज्योतिष ➮ इसमें भूत, भविष्य, वर्तमान का ज्ञान है, इसमें अंक, बीज, रेखा गणित विद्या सच्ची तथा फलविद्या झूठी है। यह ग्रंथ
वसिष्ठमुनि आदि कृत ज्योतिष,
सूर्यसिद्धांत आदि हैं।
उपनिषद्➧
उपनिषद् नाम के ग्रंथों की संख्या ४०० से अधिक है। इनमें से लगभग २२३ उपनिषदों के वाक्यों का संग्रह “उपनिषद् वाक्य महाकोष” के नाम से उपलब्ध होता है। परन्तु निम्न दस उपनिषदों – ईश, केन, कंठ, प्रश्न, मुण्डक, माण्डुक्य, ऐतरेयी, तैत्तिरीयी, छान्दोग्य और वृहदारण्यक को ही प्रामाणिक माना जाता है। इनमें ब्रह्मविद्या मुख्य विषय है।
छः उपांग➧
१. जैमिनी मुनि कृत पूर्वमिमांसा पर
व्यासमुनिकृत भाष्य
— इसमें यज्ञों तथा कर्मकांड का विधान और धर्म धर्मी दो पदार्थों से सब पदार्थों की व्याखा एवं सामाजिक न्याय व्यवस्था का वर्णन है। इस दर्शन पर व्यासमुनिकृत भाष्य उपलब्ध नहीं होता परन्तु प्राचीन
शबरस्वामी कृत
शबरभाष्य उपलब्ध है। यह दर्शन १६ अध्यायों में पूर्ण हैं। परन्तु पहले १२ अध्याय ही सामान्यतः उपलब्ध होते हैं। इस दर्शन के अध्याय १३–१६
संकर्षणकाण्ड के नाम से प्रसिद्ध ही है।
शबरस्वामी के भाष्य पर दो टीकाएं भी प्रचलित हैं। पहली कुमारिलभट्ट की तथा दूसरी
प्रभाकरमिश्र की।
कुमारिलभट्ट की टीका पहले अध्याय के पहले पाद पर
श्लोकवार्तिक के नाम से, दूसरे पाद से तीसरे अध्याय तक
तन्त्रवार्तिक के नाम से तथा अध्याय ४ से १२ तक
टुपटीका के नाम से उपलब्ध होता है। तथा
प्रभाकर मिश्र की टीका
बृहती के नाम से प्रसिद्ध है। इस दर्शन पर एक और वृत्ति
वासुदेवदीक्षित कृत
अध्वरमीमांसाकुतूहलवृत्ति के नाम से उपलब्ध होता है।
२. कणाद मुनि कृत वैशेषिकदर्शन पर
प्रशस्तपादभाष्य सहित
— इसमें प्रकृति के पदार्थों का गुण, कर्म और स्वभाव का मुख्यता प्रतिपादन है। उपलब्ध
प्रशस्तपादभाष्य सूत्रों पर भाष्य न होकर एक स्वतन्त्र ग्रंथ
पदार्थधर्मसंग्रह के नाम से प्रसिद्ध है। सूत्रों पर स्वामी
ब्रह्ममुनिकृत भाष्य प्रामाणिक तथा वेदानुकूल है।
३. गौतम मुनि कृत न्यायदर्शन पर
वात्स्यायनमुनिकृत भाष्य सहित
— इसमें प्रमाणविद्या का प्रतिपादन है।
४. पतञ्जली मुनि कृत योगदर्शन पर
व्यासभाष्य सहित
— जो मीमांसा, वैशेषिक और न्याय इन तीन शास्त्रों द्वारा सब पदार्थों के श्रवण और चिन्तन से आनुमानिक ज्ञान और निश्चय होता है उनके साक्षात् ज्ञान का साधन और उपासना की रीति बनाने वाला ग्रंथ है। इसमें अष्टाङ्गयोग का वर्णन है जिससे जीव समाधि की अवस्था तक पहुंच कर आत्मसाक्षात्कार तथा परमात्मसाक्षात्कार कर सकता है।
५. कपिल मुनि कृत सांख्यदर्शन पर
भागुरिमुनिकृत भाष्य सहित
— इसमें सृष्टिविद्या तथा ईश्वर जीव और प्रकृति का मुख्यता प्रतिपादन है। सांख्यदर्शन पर आजकल
भागुरिमुनिकृत भाष्य उपलब्ध नहीं होता परन्तु
अनिरुद्धवृत्ति तथा स्वामी
ब्रह्ममुनिकृत भाष्य उपलब्ध होते हैं। इनमें
अनिरुद्धवृत्ति वेदानुकूल न होने से प्रामाणिक नहीं है। तथा
ब्रह्ममुनिकृत वेदानुकूल होने से प्रामाणिक है।
६. व्यासमुनि कृत वेदांतदर्शन पर
बोधायनमुनिकृतभाष्य —इसमें ब्रह्मविद्या का मुख्यता से प्रतिपादन है। इस दर्शन पर बोधायनमुनिकृतभाष्य उपलब्ध नहीं होता परन्तु शांङ्करभाष्य तथा ब्रह्ममुनिकृत भाष्य उपलब्ध होते हैं। शांङ्करभाष्य अद्वैतवाद परक होने से वेदविरुद्ध है। स्वामी ब्रह्ममुनि कृत भाष्य वेदानुकूल, प्रामाणिक और सुस्पष्ट है।
मनुस्मृति — में वर्णाश्रमधर्मों का व्याख्यान है तथा वर्णसंकरों के धर्मों का भी व्याखान है।
विदुरनीति, नारदसंहिता, याज्ञवल्क्य शिक्षा — प्रक्षेप छोड़कर वेदानुकूल भाग।
कल्प —
जैसा कि बताया गया है कि यह श्रौतसूत्र, गृह्यसूत्र, शुल्बसूत्र तथा धर्मसूत्रों का समुदाय है। जोकि प्रत्येक वेद के उपलब्ध होते हैं।
गृह्यसूत्र इनमें जन्म से लेकर श्मशान तक संस्कारों की व्याखा है।
श्रौतसूत्र —इनमें ब्राह्मणग्रंथों में वर्णित विषय–वस्तु का प्रतिपादन तथा अग्नि द्वारा सम्पाद्यमान यागादि अनुष्ठानों का वर्णन है।
शुल्बसूत्र — इनमें वेदी के निर्माणविधि का वैज्ञानिक प्रतिपादन है।
धर्मसूत्र —इनमें वर्णाश्रम धर्म के कर्त्तव्यों का निरुपण है।
श्रौतसूत्र :➨
ऋग्वेदीय श्रौतसूत्र दो हैं —
१. आश्वलायन और
२. शाङ्खयण। इन श्रौतसूत्रों में पुरोनुवाक्या, याज्या, तत्तत् शास्त्रों और उनके अनुष्ठान प्रकारों का उल्लेख करते हुए उनके देशकाल व कर्त्ता आदि का विधान, स्वर और प्रायश्चित आदि प्रधानतया अभिहित हैं।
कृष्ण यजुर्वेद के आठ श्रौतसूत्र है — इनमें
१. बौधायन, २. आपस्तम्ब, ३. हिरण्यकेशी, ४. भरद्वाज, ५. वैखानस ६. वाराह तथा ७. काठक – यह सात श्रौतसूत्र तैत्तिरीय शाखा के हैं, और
८. मानव श्रौतसूत्र मैत्रायणीसंहिता का है। इनके अलावा एक
वाधुल श्रौतसूत्र भी उपलब्ध होता है।
शुक्ल यजुर्वेद का मात्र एक ही
कात्यायण श्रौतसूत्र है। यह शुक्लयजुर्वेद की पन्द्रह शाखाओं का अधिकृत करके वर्णित है। विशेषतः यह काण्व और माध्यन्दिन शाखीय है।
सामवेद के श्रौतसूत्र हैं — १. लाट्यायन श्रौतसूत्र, २. द्राह्यायण श्रौतसूत्र ३. मशककल्पसूत्र अथवा आर्ष्येय श्रौतसूत्र और ४. जैमिनीय श्रौतसूत्र।
अथर्ववेद का एक ही
वैतान श्रौतसूत्र उपलब्ध होता है। विशेषता यह है कि यह श्रौतसूत्र मात्र श्रौतविषयों का ही प्रतिपादन न करके गृह्यविषयों का भी प्रतिपादन करता है।
गृह्यसूत्र :➨
ऋग्वेद के गृह्यसूत्र –
१. आश्वलायन गृह्यसूत्र – इसमें गृह्यकर्म और संस्कारों के साथ–साथ अन्यत्र अप्राप्त प्राचीन आचार्यों के नाम भी निर्दिष्ट हैं।
२. शांङ्खायन गृह्यसूत्र – इसमें संस्कारों के वर्णन के साथ–साथ गृहनिर्माण और गृहप्रवेश आदि का भी वर्णन है। इसमें रचयिता सुयज्ञ हैं। तथा
३. कौषीतकि गृह्यसूत्र – इसके रचयिता
शाम्भव्य हैं। ग्रन्थारम्भ विवाह संस्कार के वर्णन है। कृषिकर्मों तथा पितृमेध प्रभृति संस्कारों का भी वर्णन है।
ऋग्वेद के अप्रकाशित गृह्यसूत्रों के नाम इस प्रकार उपलब्ध होते हैं –
शौनक गृह्यसूत्र, भारवीय गृह्यसूत्र, शाकल्य गृह्यसूत्र, पैङ्गिरस गृह्यसूत्र तथा
पाराशर गृह्यसूत्र।
शुक्ल यजुर्वेद के कात्यायन तथा
पारस्कर गृह्यसूत्र उपलब्ध होता है। इसके अलावा एक
वैजवापगृह्यसूत्र माना जाता है जो कि अनुपलब्ध है।
कृष्ण यजुर्वेद के निम्न गृह्यसूत्र उपलब्ध होते हैं
–
१. बौधायन गृह्यसूत्र – यह कृष्ण यजुर्वेद की तैत्तिरीय शाखा का है, मैसूर से प्रकाशित यह गृह्यसूत्र परिभाषा, गृह्यशेष तथा पितृमेधसूत्रों के साथ समन्वित है। इसमें चार प्रश्न हैं।
२. भारद्वाज गृह्यसूत्र – यह भारद्वाज कल्पसूत्र का अंश है। इसमें तीन अध्याय हैं।
३. आपस्तम्ब गृह्यसूत्र – आपस्तम्ब कल्पसूत्र का २७ वां प्रश्न यही गृह्यसूत्र है, जिसमें तीन प्रश्न हैं। यह गृह्य मन्त्रपाठ के गृह्यों का निर्देश करता है। यह गृह्यसूत्र आठ पटलों में विभक्त है,
४. हिरण्यकेशीगृह्यसूत्र – इसे सत्याषाढगृह्यसूत्र भी कहते हैं। हिरण्यकेशिक–कल्पसूत्र का यह १९ तथा २० प्रश्नरूप है। गृह्य अनुष्ठानों के मन्त्र इसमें विशदरूप में दिये गये हैं।
५. वैखानसगृह्यसूत्र – तैत्तिरीय शाखा से सम्बद्ध यह गृह्यसूत्र अवान्तरकालीन माना जाता है। अनुष्ठानों में प्रयोजनीय मन्त्रों के केवल प्रतीक मात्र का इसमें उल्लेख है।
६. वाराहगृह्यसूत्र – यह गृह्यसूत्र मैत्रायणीसंहिता के मंत्रों का उल्लेख करता है। इसके अधिकांश सूत्र मानवगृह्य और काठकगृह्य के समान ही है। गृह्योपयोगी विषय–वस्तु के अभाव में यह अधिक महत्वपूर्ण नहीं है।
७. काठकगृह्यसूत्र – यह कृष्णयजुर्वेद ही कठशाखा से सम्बद्ध है, इसे गृह्यपञ्जिका भी कहते हैं। इसमें गर्भाधानादि, गृह्यशान्ति, वैश्वदेव, श्रवणाकर्म, फाल्गुनीकर्म, होलाकर्म आदि विषय प्रतिपादित हैं।
८. मानवगृह्यसूत्र – यह कृष्णयजुर्वेद ही मैत्रायणी शाखा से सम्बद्ध है। इसमें उपनयन, सन्ध्या, विवाह एवं गर्भाधानादि, दीक्षा, नित्यकर्म, स्थालीपाक, आग्रहायणी, नवान्न, गृहप्रवेश, वैश्वदेव आदि कर्म प्रतिपादित हैं।
सामवेद के चार गृह्यसूत्र उपलब्ध होते हैं
—
१. गोभिलगृह्यसूत्र – यह सामवेद की कौथुम शाखा से सम्बद्ध है। इसमें अग्न्या–धान, वैश्वदेव, स्थालीपाक, विवाह, चतुर्थीकर्म, गर्भाधान से उपनयन, उपाकर्म, गोपालनविधि, श्रवणाकर्म, आश्वयुजी, नवान्नप्राशन, काम्यकर्म, वास्तुयज्ञ और मधुपर्क आदि का वर्णन है।
२. खादिर गृह्यसूत्र – यह सामवेद की राणायनीय शाखा से सम्बद्ध है। यह गोभिलगृह्यसूत्र के समान ही है। इसमें विवाह आदि, नित्यहोम, वैश्वदेव, स्थालीपाक, आश्वयुजी, आग्रहायणी आदि कर्मों का विधान है।
३. द्राह्यायण गृह्यसूत्र – यह सामवेद की राणायनीय शाखा से सम्बद्ध है। इसमें परिभाषा, पाकयज्ञ, विवाह, गर्भाधान, उपनयन, उपाकर्म, मधुपर्क आदि विषय हैं।
४. जैमिनीय गृह्यसूत्र – यह सामवेद की जैमिनीय शाखा से सम्बद्ध है। इसमें पाकयज्ञ, पुंसवन से उपनयन तक के कर्म, विवाहोपाकर्म, नित्यहोम, सन्ध्या, वैश्वदेव आदि विषयों का प्रतिपादन है।
अथर्ववेद का एकमात्र
कौशिक गृह्यसूत्र उपलब्ध होता है। इसमें प्राचीन भारतीय जादुविद्या की जानकारी मिलती है। इस विद्या की अनुपम सामग्री इस ग्रंथ में संकलित हैं। इसके अतिरिक्त इसमें वैद्यकशास्त्र की भी अद्भुत जानकारी मिलती है। औषधों के लिए यह अक्षय निधि है।
धर्मसूत्र :➨
गौतमधर्मसूत्र, आपस्तम्बधर्मसूत्र, बौधायनधर्मसूत्र, हिरण्यकेशिधर्मसूत्र, वसिष्ठधर्मसूत्र, विष्णुधर्मसूत्र, हारीतधर्मसूत्र एवं
शङ्खधर्मसूत्र उपलब्ध होते हैं। इनका मुख्यविषय आश्रमों तथा वर्णों के कर्तव्य, व्यक्ति के आचरण के नियम, प्रायश्चित, राजा के कर्त्तव्य, अपराध और दण्ड का विधान, स्त्री के कर्त्तव्य आदि हैं।
शुल्बसूत्र:➨
यह वेदियों तथा चितियों के मापन तथा निर्माण की वैज्ञानिक विधि वर्णित है। आजकल आठ शुल्बसूत्र उपलब्ध होते हैं —
बौधायन, आपस्तम्ब, सत्याषाढ अथवा हिरण्यकेशी, मानव, मैत्रायणीय, वाराह, वाधूल और
कात्यायन। इनमें से प्रथम सात शुल्ब्रसूत्र कृष्णयजुर्वेद के आठवां शुक्लयजुर्वेद का है। इनमें गणित और ज्यामिति के विलक्षण विज्ञान का वर्णन है। आजकल भूल से लोग ज्यामिति में जिसे पैथागोरस का सिद्धांत कहते हैं उसका प्रतिपादन पैथागोरस से भी अति प्राचीनकाल में लिखित इन ग्रंथों में मिलता है। अतः हमारी प्राचीन ग्रंथ सम्पदा आधुनिक युग की सभी उपलब्धियों का मूल लिए हुए है।
वर्तमान काल में कल्पों में चारों सूत्र केवल बोधायन और आपस्तम्ब के ही उपलब्ध होते हैं। अन्य के २–३ सूत्र ही उपलब्ध हो पाते हैं।
वाल्मीकि रामायण तथा महाभारत — यह दोनों इतिहास ग्रंथ है तथा इनमें अच्छे लोगों तथा दुष्ट जनों के लक्षण हैं।
लक्षण ग्रंथ : इनमें प्रातिशाख्य और अनुक्रमणी ग्रंथ आते हैं। प्रातिशाख्यों का मुख्य विषय पदपाठ और क्रमपाठ के नियम दर्शाता है। तथा अनुक्रमणी ग्रंथों में वेदों और उसकी शाखाओं के मंत्रों के ऋषि, देवता और छन्दों का परिचय होता है।
प्रातिशाख्य ग्रंथों में निम्न प्रातिशाख्य उपलब्ध होते हैं —
१. शौनकप्रोक्त ऋक्प्रातिशाख्य, २. कात्यायनप्रोक्त शुक्लयजुःप्रातिशाख्य, ३. कृष्णयजुर्वेदीय तैत्तिरीयप्रातिशाख्य ४. सामवेदीय प्रातिशाख्य (पुष्पसूत्र), ५. ऋक्तन्त्रम्, ६. अथर्ववेदीय प्रातिशाख्य तथा
७. शौनकीया चतुरध्यायिका।
अनुक्रमणी ग्रंथों में निम्न ग्रंथ हैं —
शौनकाचार्य ने
ऋग्वेद की निम्न दस अनुक्रमणीयां बनाई थी —
१. आर्षानुक्रमणी, २. देवतानुक्रमणी, ३. छन्दोनुक्रमणी, ४. अनुवाकानुक्रमणी, ५. पादविधान, ६. बृहद्देवता, ७. सुक्तानुक्रमणी, ८. ऋग्विधान, ९. ऋक्प्रातिशाख्य और १०.
स्मृति।
इनके अलावा
कात्यायणकृत की सर्वानुक्रमणी उपलब्ध होती है।
शुक्लयजुर्वेद की
कात्यायणकृत सर्वानुक्रमणी उपलब्ध होती है।
सामवेद की नैगेय शाखा की
ऋषिनुक्रमणी और
देवतानुक्रमणी उपलब्ध होते हैं।
अथर्ववेद की
बृहत्सर्वानुक्रमणी उपलब्ध होती है।
इन ग्रंथों में भी जो वचन व्याकरण, वेद तथा शिष्टाचार के विरुद्ध हों वह असत्य है तथा उनका प्रमाण नहीं करना चाहिए।
वेदों पर भी उपलब्ध भाष्यों में सायणादि कृत भाष्य मात्र यज्ञ प्रक्रिया परक होने, निरुक्त एवं व्याकरण के नियम से विरुद्ध होने, वेदों में इतिहास एवं अश्लीलता दोष परख होने, वेदों की अंत:साक्षी एवं मूल सिद्धांतों से विपरीत होने तथा भाष्यों में अंतर्विरोध होने से प्रामाणिक नहीं माने जा सकते। वस्तुत: वेद आदिसृष्टि में परमात्मा द्वारा जीवों के कल्याण हेतु दिया गया ज्ञान होने से, इसमें किसी प्रकार का इतिहास संभव ही नहीं है महर्षि दयानंद का वेदभाष्य उपर्युक्त दोषों से रहित है।
उपर्युक्त विषयों पर इन शास्त्रों से अन्य ग्रंथ ऋषिकृत न होकर मनुष्यकृत होने से प्रमाण कोटि में नहीं आते तथा उनमें विभिन्न प्रकार के असत्य एवं मिथ्याभाषण भरे हैं। उपर्युक्त ऋषियों के ग्रंथों को छोड़कर मनुष्य कृत ग्रंथ विभिन्न दोषों से युक्त है जैसे पाषाण आदि में देवता की बुद्धि (भावना) रखकर उनकी पूजा करना, शैव, शाक्त, वैष्णव, गणपत्य तथा वाममार्ग आदि संप्रदाय कल्पना, भांग आदि नशों का प्रयोग, परस्त्रीगमन आदि व्यभिचार का अनुमोदन, चोरी करना, छल, अभिमान, मिथ्याभाषण आदि दोष युक्त होने से त्याज्य है।
परंतु इनसे विपरीत जो सत्य हैं वही ग्रहण करने योग्य है —
१. उपर्युक्त वेदानुकूल ग्रंथ ऋषिकृत है अतः प्रामाणिक हैं।
२. ब्रह्मचर्य आश्रम में गुरु की सेवा, अपने धर्म के अनुष्ठान के अनुसार वेदों का पढ़ना।
३. वेदोक्त वर्णाश्रम के अनुसार अपने-अपने धर्म संध्या, उपासना, अग्निहोत्र आदि का अनुष्ठान।
४. शास्त्र के अनुसार अपनी स्त्री से संबंध और पंचमहायज्ञों का अनुष्ठान ऋतुकाल में अपनी स्त्री से गमन करना, श्रुति और स्मृति के अनुसार चालचलन रखना।
५. दम, तपश्चरण, यम आदि से लेकर समाधि तक उपासना और सत्संगपूर्वक वानप्रस्थाश्रम का अनुष्ठान करना।
६. विचार, विवेक, वैराग्य, पराविद्या का अभ्यास और सन्यासग्रहण करके सब कर्मों के फल की इच्छा न करना।
७. ज्ञान और विज्ञान से समस्त अनर्थ से उत्पन्न होने वाले जन्म, मरण, हर्ष, शोक, काम, क्रोध, लोभ, मोह, संगदोष के त्याग का अनुष्ठान करना।
८. अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष, अभिनिवेश, तम, रज, सत्व सब क्लेशों की निवृत्ति, पञचमहाभूतों से अतीत होकर मोक्षस्वरूप और परब्रह्म के आनंद को प्राप्त करना चाहिए।
इन आठ प्रकार के सत्य को ग्रहण करना चाहिए।