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" ओ३म्"

आर्य समाज क्या है ?

आर्य समाज क्या है? आर्य शब्द का अर्थ है श्रेष्ठ या अच्छा और समाज का अर्थ हुआ अच्छे व्यक्तियों की सभा।
                                          'आर्य समाज' को महर्षि दयानन्द ने अप्रैल सन् १८७५ ई0 अर्थात् चैत्र सुदी प्रतिपदा सम्वत् १९३२ विक्रमी को बम्बई में स्थापित् किया था । इसके पश्चात् भांरतवर्ष के प्रत्येक नगर और ग्राम में समाज खुल गये। इस समय संसार भर के समाजों की संख्या लगभग 8000 से भी अधिक है ।
आर्य समाज के नियम 

आर्य समाज के नियम इस प्रकार हैं ➨

  • (१) सब सत्य विद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं उन सबका आदि मूल परमेश्वर है ।
  • (२) ईश्वर सच्चिदानन्दरवरूप, निराकार, सर्वशक्तिगान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापी, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। उसी की उपासना करनी योग्य है ।
  • (३) वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। वेद का पढ़ना, पढ़ाना और सुनना, सुनाना सब आयों का परम धर्म है।
  • (४) सत्य को ग्रहण करने और असत्य के छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिये।
  • (५) सब काम धर्मानुसार अर्थात् सत्य और असत्य का विचार करके करने चाहिये ।
  • (६) संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उद्देश्य है अर्थात् शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना ।
  • (७) सबसे प्रीतिपूर्वक, धर्मानुसार, यथायोग्य बर्तना चाहिये ।
  • (८) अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि करनी चाहिये ।
  • (९) प्रत्येक को अपनी ही उन्नति से सन्तुष्ट नहीं रहना चाहिये किन्तु सबकी उन्नति में अपनी उन्नति समझना चाहिये।
  • (१0) सद मनुष्यों को सामाजिक सर्वहितकारी नियम पालने में परतन्त्र रहना चाहिये और प्रत्येक हितकारी नियम में सब स्वतन्त्र रहें ।

इन नियमों को देखने से निम्न बातों का पता चलता है कि ➨

  • (१) ईश्वर एक है ।
  • (२) वेद ईश्वर का ज्ञान है इसलिये आरयों को वेद पाठ अवश्य करना चाहिये ।
  • (३) यदि कभी मालूम हो जाये कि जो बात हम मानते या करते हैं वह असत्य हैं तो उनको छोड़ देना चाहिये। कभी भी पक्षपात नहीं करना चाहिये ।
  • (४) समाज की भलाई के लिये हर एक को कोशिश करनी चाहिये।

आर्य समाज के सिद्धान्त
ईश्वर विषयक

  • (१) ईश्वर एक है अनेक नहीं ।
  • (२) ईश्वर निराकार है। उसको आँख से नहीं देख सकते और न ही उसकी मूर्ति बना सकते हैं ।
  • (३) ईश्वर सर्वज्ञ और सर्वव्यापक है। वह सब कुछ जानता है वह छोटी सी चीज के अन्दर और बाहर भी उपस्थित है।
  • (४) ईश्वर सर्वशक्तिमान् है। अर्थात् वह अपने किसी काम को करने के लिये आँख, कान, नाक आदि शरीर या अन्य किसी चीज या आदमी की बिना किसी सहायता के करता है। जीव और प्रकृति को अनादि मानने से ईश्वर पराश्रित या मुहताज नहीं होता। जीव और प्रकृति ईश्वर के उपकरण नहीं हैं। उपादान उपकरण नहीं होता।
  • (५) ईश्वर अजन्मा और निर्विकार है। वह मनुष्य के समान जन्म-मरण में नहीं आता। अवतार भी नहीं लेता। राम, कृष्ण ईश्वर के अवतार नहीं थे, वे धर्मात्मा पुरुष थे, इसलिये उनके अच्छे कामों की याद करनी चाहिये और उनका अनुकरण करना चाहिये परन्तु उनकी मूर्तियों को ईश्वर समझ कर नहीं पूजना चाहिये।

जीव विषयक

  • (৭) जीव चेतन है, जिसकी संख्या अनन्त है।
  • (२) जीव न कभी मरता है न पैदा होता है। अर्थात् कभी ऐसा समय नहीं हुआ जब जीव न रहा हो और न ऐसा समय आयेगा जब जीव नहीं रहेगा।
  • (३) जीव में ज्ञान तो है, पर थोड़ा और शक्ति भी थोड़ी है, इसलिये जीव को अल्पज्ञ कहते हैं।
  • (४) जीव शरीर धारण करता है। कभी मनुष्य का कभी पशु का, कभी कीड़े आदि योनि का।
  • (५) जीव जैसा कर्म करता है उसके फल के अनुसार वैसा ही शरीर मिलता है। बुरे कर्म के लिये बुरी योनि और
  • अच्छे कर्म के लिये अच्छी योनि मिलती है। इसी को जीव अवतार कहते हैं। अवतार जीव का होता है, ईश्वर का नहीं।
  • (६) जीव जब अच्छे कर्म करके सबसे ऊँची अवस्था को पहुँच जाता है तो उसे मोक्ष मिल जाता है अर्थात् शरीर नहीं रहता और स्वतन्त्र विचरता हुआ ईश्वर के आनन्द में मग्न रहता है।
  • (७) मोक्ष काल (मुक्ति की अवधि) ३१ नील १० खरब और ४०-अ्रब वर्ष के लिये होता है। इसके पश्चात् जीव मोक्ष
  • से वांपिस लौटता है और सर्वप्रथम उत्तम ॠषियों का शरीर धारण करता है। इस शरीर में यदि अच्छे काम करता है तो फिर मुक्त हो जाता है और यदि बुरे कर्म करता है तो नीचे की योनियों का चक्र आरम्भ हो जाता है ।

प्रकृति विषयक

  • (৭) प्रकृति छोटे-छोटे परमाणुओं का नाम है।
  • (२) यह परमाणु जड़ हैं। इनमें ज्ञान नहीं।
  • (३) यह परमाणु अनादि और अनन्त हैं। अर्थात् न कभी उत्पन्न हुए न कभी नष्ट हुए।
  • (४) ईश्वर इन्हीं परमाणुओं को जोड़कर सृष्टि बनाता है। आग, पानी और पृथ्वी यह इन्हीं परमाणुओं के संयोग का
  • फल है। सूर्य, चाँद आदि इन्हीं से बने हैं। हमारे शरीर भी इन्हीं परमाणुओं से बने हैं।
  • (५) जब परमाणु अलग-अलग हो जाते हैं तो उसको प्रलय या ब्रह्मरात्रि कहते हैं। जब सृष्टि बनी रहती है तो ब्रह्मदिन होता है।

वेद

  • (१) वेद चार हैं। ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्वेद।
  • (२) वेदों का ज्ञान ईश्वर ने सृष्टि के आरम्भ में चार ऋषियों को दिया। अर्थात् 
अग्नि ऋषि को............ऋग्वेद ।
वायु ऋषि को.............यजुर्वेद ।
आदित्य ऋषि को.........सामवेद ।
अगिरा ऋषि को..........अथर्ववेद ।
  • (३) इन ऋषियों ने वेदों का अन्य ऋषियों और मनुष्यों को उपदेश दिया। संसार भर की सब विद्याएँ वेदों से ही निकलती हैं।
  • (४) वेद स्वतः प्रमाण हैं परन्तु अन्य पुस्तकें परतः प्रमाण। अर्थात् जो बात उन अन्य पुस्तकों में वेद के अनुकूल है वह ठीक है जो वेद विरूद्ध हैं वह गलत।
  • (५) वेद संस्कृत भाषा में नहीं हैं। अपितु देववाणी (प्राकृत भाषा) में हैं। संस्कृत भाषा वेदों की भाषा से निकली है और अन्य सब भाषाएं संस्कृत से।
  • (६) वेदों में इतिहास नहीं है। वेदों में यौगिक शब्द हैं, रूढ़ी नहीं। अर्थात् वेदों में ऐसे शब्द आये हैं जो हमको मनुष्यों के से नाम मालूम होते हैं, परन्तु उनके अर्थ मनुष्य नहीं हैं।
  • (७) वेदों में राम, कृष्ण आदि अवतारों का वर्णन नहीं है।
  • (८) वेदों में मुख्यतः तीन बातें हैं-ईश्वर के लिये भिन्न- भिन्न अवसरों के अनुकूल प्रार्थनायें, सृष्टि के नियम मनुष्यों को उपदेश ।
  • (९) वेदों में इन्द्र, अग्नि, वरुण आदि शब्द कहीं कहीं पर ईश्वर के लिये आये हैं और कहीं भौतिक पदार्थों जैसे आग पानी आदि के लिये। इसका पता संगति से लग सकता है।
  • (१०) पहले संसारभर में वेद मत ही था। पीछे से भिन्न-भिन्न मत पैदा हो गये।

अन्य शास्त्र

आर्य समाज वेदों को तो ईश्वरकृत मानता है, परन्तु इनके अतिरिक्त नीचे लिखे ऋषियों के ग्रन्थों को भी उस हद
तक प्रमाणिक मानता है जिस हद तक वह वेदों के अनुकूल हों, जैसे
(१) चार ब्राह्मण ग्रन्थ ➠ ऐतरेय, साम, शतपथ और गोपथ।
(२) ग्यारह उपनिषद ➠  ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, माण्डूक्य, ऐतरेय, तैतरीय, छान्दोग्य, बृहदारण्यक और
श्वेताश्वेतर।
(३) छ: दर्शन ➠  गौतम ऋषि का न्याय, कणाद ऋषि का वैशेषिक, कपिल ऋषि का सांख्य, पतजंली ऋषि का योग, जैमिनी ऋषि का पूर्व मीमांसा और व्यास ऋषि का उत्तर मीमांसा अर्थात् वेदान्त दर्शन ।
(४) मानव धर्मशास्त्र या मनुस्मृति ।
(५) गोमिल गृह्यसूत्र, पारस्कर गृह्यसूत्र, आश्वलायन गृह्यसूत्र ।
(६) स्वामी दयानन्द के ग्रन्थ ➠ सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आदि-आदि ।

मनुष्य समाज

  • (१) पहले पहल मनुष्य तिब्बत में (बिना मैथुन के) उत्पन्न हुए वहाँ से सब जगह फैल गये। आर्य जाति से पहले और कोई जाति नहीं थी। आर्य जाति के ही भिन्न-भिन्न देशों में भिन्न-भिन्न नाम हो गये हैं।
  • (२) पहले पहल एक आदमी और एक औरत नहीं वरन से बहुत युवा पुरुष और बहुत सी युवतियाँ अमैथुन रूप में पैदा हुईं थी। फिर इन्हीं की सन्तान आपस में विवाह करके मैथुनी सृष्टि द्वारा आगे बढ़ती गई ।
  • (३) सब मनुष्य जन्म से समान हैं। गुण कर्म और स्वभाव के अनुसार उनके ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र नाम होते हैं ।
  • (४) पढ़ने-पढ़ाने वाले विद्वान व्यक्तियों का नाम ब्राह्मण है, शारीरिक रक्षा करने वालों का क्षत्रिय, व्यापार और कला कौशल वालों का वैश्य। जो सेवा करते हैं वह शूद्र हैं। गुण, कर्म और स्वभावानुसार वर्ण बदल जाता है अर्थात् शूद्र, ब्राह्मण हो सकता है और ब्राह्मण शूद्र बन जाता है।
  • (५) शूद्र का कार्य नीच वर्ग का नहीं है और न ही उससे किसी को घृणा ही करनी चाहिये ।
  • (६) वेद पढ़ने का अधिकार सबको है अर्थात् सभी वर्ग के व्यक्तियों को है ।

यज्ञ

पाँच यज्ञ हर आर्य को प्रतिदिन करने चाहियें :
(१) ब्रह्म यज्ञ ➠ अर्थात् ईश्वर की पूजा और वेद पाठ।
(२) देव यज्ञ ➠  अर्थात् हवन।
(३) भूत यज्ञ ➠ अर्थात् चींटी, गाय, कुत्ता आदि आश्रित जीवों को भोजन देना।
(४) पितृ यज्ञ ➠ अर्थात् जीवित् माता-पिता का सत्कार। मरे हुए माता पिता का सत्कार करना असम्भव है। इसलिये मृतकों का श्राद्ध, तर्पण आदि नहीं करना चाहिये ।
(५) अतिथि यज्ञ ➠ अर्थात् विद्वान साधु, सन्यासी अथवा वेदोपदेशक आदि घर पर आयें तो उनका आदर सत्कार
करना।

संस्कार

जीवन में प्रत्येक आर्य के सोलह संस्कार होने चाहियें:
तीन जन्म से पहले
(१) गर्भाधान (२) पुंसवन (३) सीमन्तोत्रयन ।
छ: बचपन में
(१) जात कर्म (२) नामकरण (३) निष्कृरमण (४) अन्नप्राशन (५) मुण्डन (६) कर्णवेध ।
दो विद्या आरम्भ करने के समय 
(१) यज्ञोपवीत (२) वेदारम्भ ।
दो विद्या समाप्त करने पर ➠
(৭) समावर्तन (२) विवाह ।
तीन पिछली अवस्था में ➠
(१) वानप्रस्थ (२) सन्यास (३) अन्त्येष्टी ।

विवाह

  • (१) विवाह, कम से कम लड़की का सोलह वर्ष की अवस्था में और लड़के का पच्चीस वर्ष की अवस्था में करना चाहिये।
  • (२) एक पुरुष एक ही स्त्री के साथ विवाह कर सकता है।
  • (३) अक्षतयोनि विधवा का अक्षतवीर्य पुरुष के साथ विवाह करना ठीक है ।
  • (४) यदि आवश्यकता हो, तो अक्षतयोनि विधवा का अक्षतवीर्य विधुर के सांथ विवाह हो सकता है ।

आर्य समाज का संगठन

(१) कम से कम नौ सभासदों का एक समाज होता है।
(२) प्रत्येक सभासद को अपनी आय का शतांश (एक सौ रूपये पर एक रूपया) चन्दे में देना चाहिये।
(३) शतांश चन्दा न देने वाले तथा सदाचार से न रहने वाले व्यक्ति सभासदी से पृथक किये जा सकते हैं।
(४) प्रान्त के समाजों को संगठित करने के लिये प्रान्तीय प्रतिनिधि सभायें हैं। जिनमें प्रत्येक समाज के प्रतिनिधि जाते हैं। प्रतिनिधि भेजने का नियम है कि प्रति ३५ सभासद या किसी विशेष काम के लिये एक प्रतिनिधि भेजा जाता है।
(५) प्रान्तीय प्रतिनिधि सभा के प्रबन्ध के लिये एक अन्तरंग सभा होती है।
(६) प्रतिनिधि सभाओं द्वारा चुने हुए सभासदों की सार्वदेशिक सभा है जिसका स्थान दिल्ली में है ।

आर्यसमाज का कार्य

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"संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उद्देश्य है, अर्थात् शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना।" इस छठे नियम द्वारा ऋषि दयानन्द ने आर्यसमाज का उद्देश्य स्पष्ट कर दिया है।
                                इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए आर्यसमाज ने जो-जो कार्य किए हैं उनका साधारण विवरण
निम्न प्रकार है 
अनाथालय ➠ 45
रात्रि पाठशालाएं ➠ 142
बालक गुरुकुल ➠ 28
हरिजन व दलित विद्यालय ➠ 322
कन्या गुरुकुल ➠ 4
दलितोद्धार सभाएं ➠ 43
संस्कृत पाठशालाएं ➠ 300
शुद्धि सभाएं ➠ 37
बालकों के प्राइमरी स्कूल ➠192
प्रकाशनालय ➠ approximately 100
मिडल स्कूल ➠ approximately 154
आर्य प्रेस ➠ approximately 30
हाई स्कूल ➠ approximately 200
समाचार पत्र ➠ approximately 50
कालेज ➠ approximately 10
साधु-आश्रम ➠ approximately 11 
कन्या महाविद्यालय ➠ approximately 4
कन्याओं के प्राइमरी स्कूल ➠ 700
धर्मार्थ औषधालय ➠ 14
विधवाश्रम ➠ 41

संसार भर के आर्यसमाजों की संख्या २५०० है। प्रचारकों की संख्या १००० के करीब है।  भारत के अतिरिक्त पूर्वी तथा दक्षिणी, अफ्रीका, मारिशस, फिजी, ब्रिटिश, और डच गायना तथा दक्षिणी अमेरिका, ट्रिनिडाड आदि में बहुत आर्य समाज हैं और सार्वदेशिक आर्यप्रतिनिधिसभा के साथ सम्बद्ध आर्यप्रतिनिधिसभायें भी इन प्रदेशों में स्थापित हो गई हैं। कई आर्य प्रचारक आर्यसंस्कृति, धर्म प्रचार, हिन्दी-प्रचार आदि के कार्यों में लगे हुए हैं। आर्यसमाज का शिक्षा पर वार्षिक खर्च लगभग २ लाख रुपये होता है।  आर्य लोग मनुष्य-जाति की सेवा के कार्यों में सदा तत्पर रहते हैं। जहां कहीं अकाल पड़ता है, भूकम्प आता है, बाढ़ आती है, ज्वालामुखी फटता है अथवा अन्य किसी तरह का उपद्रव होता है, तो आर्यलोग उत्साहपूर्वक आगे बढ़ते हैं और जनता की सेवा में लग जाते हैं। इस बात के बहुत उदाहण आर्यसमाज के इतिहास से दिए जा सकते हैं।  यद्यपि सामूहिक रूप से आर्यसमाज का वर्तमान राजनीतिक से कोई सम्बन्ध नहीं, तो भी वैयक्तिक रूप से बहुत से आर्य बड़े उत्साह से त्याग तथा तप के साथ देशोद्धार-सम्बन्धी सब आन्दोलनों में विशेष दिलचस्पी सदा दिखाते रहे हैं। आर्यसमाज के मान्य नेता धर्मवीर श्री स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज, पंजाबकेसरी लाला लाजपतराय जी आदि का नाम इस सम्बन्ध में विशेष उल्लेखनीय है। उत्तर भारत में रानीतिक कार्यकर्त्ताओं में से बहुत से लोग आर्यसमाजी ही हैं। सबसे पहले गत शताब्दी में आर्यसमाज के नेताओं ने ही इस विषय में प्रशंसनीय कार्य शुरु किया। उन्होंने न केवल अस्पृश्यता के रोग को निर्मूल करने का यत्न किया बल्कि दलित व हरिजन लोगों की सब प्रकार की उन्नति के लिए विशेष प्रयत्न करके उन्हें सब धार्मिक और सामाजिक अधिकार दिए। वास्तव अस्पृश्यता व अछूतपन का पूरा निवारण आर्यसमाज व वैदिक धर्म के सिद्धान्तों के प्रचार से ही हो सकता है। जब तक जन्ममूलक जाप-पात को पूरे तौर पर न हटाया जाएगा, तब तक अछूतपन सैकड़ों प्रयत्न करने पर भी नहीं हट सकता। आर्यसमाज ने जात -पात के ढकोसले को हटाकर अछूतपन को हटाने का बहुत प्रशंसनीय काम किया है । गुरुकुलों से कितने ही अछुत कहलाने वाली जातियों के लड़के वेदालंकार, विद्यालंकार बनकर स्नातक हो चुके हैं। हजारों ने यज्ञोपवीत आदि पवित्र चिन्ह संस्कार द्वारा धारण करके मांस, शराब आदि व्यसन छोड़कर संध्या हवन-यज्ञ संस्कृारादि शुरु कर
दिए हैं। इतने अच्छे रूप में दलितोद्धार और किसी संस्था की तरफ से नहीं हो सका।

🕉️🕉️🕉️ नमस्ते 🕉️🕉️🕉️

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