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शनिवार, 29 फ़रवरी 2020

वेद सौरभ (भाग २)

✍️ स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती


त्रुटि की पूर्णता 

त॒नू॒पाऽअ॑ग्नेऽसि त॒न्वं᳖ मे पाह्यायु॑र्दाऽअ॑ग्ने॒ऽस्यायु॑र्मे देहि वर्चो॒दाऽअ॑ग्नेऽसि॒ वर्चो॑ मे देहि।
अग्ने॒ यन्मे॑ त॒न्वा᳖ऽऊ॒नं तन्म॒ऽआपृ॑ण ॥
(यजु० ३। १७)
शब्दार्थ-हे (अग्ने) परमेश्वर ! तु (त॒नू॒पा असि) हमारे शरीरों का रक्षक है अतः तू (मे तन्वम्) मेरे शरीर की (पाहि) रक्षा कर । (अग्ने) हे परमात्मन् ! तू (आयुर्दाः असि) दीर्घायु, दीर्घ-जीवन का प्रदाता है (मे प्रायुः देहि) मुझे भी सुदीर्घ जीवन प्रदान कर। (अग्ने) हे प्रभो! तू (वर्च्चो॒दा: असि) तेज और कान्ति देनेवाला है (मे वर्चः देहि) मुझे भी तेज और कान्ति प्रदान कर। (अग्ने) हे ईश्वर ! (मे तन्वः) मेरे शरीर में (यत् ऊनम्) जो न्यूनता, कमी, त्रुटि है (मे तत्) मेरी उस न्यूनता को (आ पृण) पूर्ण कर दे। 
भावार्थ- १. प्रभो! आप प्राणिमात्र के शरीरों की रक्षा करने वाले हो, अतः मेरे शरीर की भी रक्षा करो। 
२. आप दीर्घ-जीवन के प्रदाता हैं, मुझे भी दीर्घ जीवन से युक्त कीजिए। 
३. आप तेज, ओज, शक्ति और कान्ति प्रदान करनेवाले हैं, मुझे भी तेज, भोज, शक्ति और कान्ति प्रदान कीजिए। 
४. प्रभो ! अपनी न्यूनताओं को कहाँ तक गिनाऊँ और क्या क्या माँगे ! ठीक बात तो यह है कि मुझे अपनी न्यूनताओं का भी ज्ञान नहीं है। मेरे जीवन में किस वस्तु की कमी है, मुझे किस वस्तु की आवश्यकता है, इसे तो आप ही अच्छी प्रकार जानते हैं, अतः मैं तो यही प्रार्थना करूँगा भगवन् ! मेरे जीवन में जो न्यूनता, कमी और त्रुटि है आप उसे पूर्ण कर दें। 

नीरोग शरीर और मन

नीरोग शरीर और मन

सं वर्च॑सा॒ पय॑सा॒ सं त॒नूभि॒रग॑न्महि॒ मन॑सा॒ सꣳ शि॒वेन॑।
त्वष्टा॑ सु॒दत्रो॒ विद॑धातु॒ रायोऽनु॑मार्ष्टु त॒न्वो᳕ यद्विलि॑ष्टम् ॥
(यजु० २ । २४)
शब्दार्थ-हम लोग (वर्चसा) ब्रह्मतेज से (पयसा) अन्न और जल से (तनूभिः) दृढ़ और नीरोग शरीरों से (शिवेन मनसा) शिवसंकल्प युक्त मन में (सम् अगन्महि) भली प्रकार संयुक्त रहें। (सु-दत्र:) उत्तम-उत्तम पदार्थों का दाता (त्वष्टा) सर्वोत्पादक परमात्मा हम सबको (रायः) धन-विद्या और सदाचाररूपी धन (विदधातु) प्रदान करे और (तन्वः) हमारे शरीरों में (यत्) जो कुछ (विलिष्टम्) प्राण घातक पदार्थ हों उनको (अनुमाष्टुं) शुद्ध करे। 
भावार्थ- १. हम लोग ब्रह्मतेज से युक्त रहें। 
२. अन्न और जल-शरीर-सञ्चालनार्थ आवश्यक भोग्य सामग्री हमें प्राप्त होती रहे। 
३. हमारे शरीर पत्थर के समान दृढ़ और नीरोग हों जिससे आन्तरिक और बाह्य शत्रु हमारे ऊपर आक्रमण न कर सकें। 
४. मानसिक स्वास्थ्य के अभाव में शारीरिक स्वास्थ्य भी समाप्त हो जाता है, अतः हमारा मन भी स्वस्थ और शिवसंकल्पवाला हो । 
५. सृष्टिकर्ता परमात्मा हमारे लिए विद्याधन, ज्ञानधन, विज्ञान धन, सदाचार-धन आदि नाना प्रकार के धन प्राप्त कराए। 
६. हमारे शरीरों में जो हानि पहुँचानेवाले तत्त्व हैं उन्हें शुद्ध करके हमारे शरीरों में जो न्यूनता है उसे पूर्ण कर दे। 

जीवन-क्रम 

यथाहान्यनुपूर्वं भवन्ति यथ ऋतव ऋतुभिर्यन्ति साधु ।
यथा न पूर्वमपरो जहात्येवा धातरायूंषि कल्पयैषाम् ॥
(ऋ० १०। १८ । ५)
शब्दार्थ- (यथा) जिस प्रकार (अहानि) दिन (अनु पूर्वम्) एक दूसरे के पीछे अनुक्रम से (भवन्ति) होते हैं (यथा) जिस प्रकार (ऋतवः ऋतुभिः साधु यन्ति) ऋतुएँ ऋतुओं के साथ एक-दूसरे के पीछे चलती हैं (यथा) जैसे (अपर:) पिछला, पीछे उत्पन्न होनेवाला (पूर्वम्) पहले को, पूर्व विद्यमान पिता आदि को (न जहाति) न छोड़े, न त्याग करे (एवा) इस प्रकार (धातः) सबको धारण-पोषण करनेवाले प्रभो ! (एषाम्) इन हमारी (आयूषि) आयुअों को (कल्पय) बनाइए। 
भावार्थ- दिन और रात्रि अनुक्रम से एक-दूसरे के पीछे आती हैं। उनका क्रम भंग नहीं होता। ऋतुएँ भी एक क्रम-विशेष के अनुसार ही आती हैं। गर्मी के पश्चात् बरसात और फिर सर्दी। इस क्रम में व्यक्तिक्रम नहीं होता। इसी प्रकार आयुमर्यादा भी ऐसी हों कि पिछला पहले को न छोड़े अर्थात् जो पहले उत्पन्न हुआ है वह पहले मरे, जो पीछे उत्पन्न हुआ है वह पीछे मरे। भाव यह है कि पुत्र पिता के पीछे आता है तो उसकी मृत्यु भी पीछे ही होनी चाहिए। पिता के समक्ष पुत्र की मृत्यु नहीं होनी चाहिए। 
                                                आज दूषित खान-पान, रहन-सहन, आचार-विचार और व्यवहार के कारण हमारे जीवन मे विकार पा रहे हैं। आज पिता के समक्ष पुत्रों की और दादा के सामने पौत्रों की मृत्यु हो रही है। हमें अपने 
आहार-विहार आदि में परिवर्तन कर ऐसा प्रयत्न करना चाहिए जिससे पिता को पुत्र-शोक न हो। 

हर्षयुक्त सौ वर्ष की आयु 


वैश्वदेवीं वर्चस आ रभध्वं शुद्धा भवन्तः शुचयः पावकाः ।
अतिक्रामन्तो दुरिता पदानि शतं हिमाः सर्ववीरा मदेम ।। 
(अथर्व० १२ । २।२८)
शब्दार्थ- (वर्चसे) ब्रह्मतेज की प्राप्ति के लिए (वैश्वदेवीम) सब का कल्याण करनेवाली, प्रभु-प्रदत्त वेदवाणी का (पा रभध्वम्) प्रारम्भ करो। उसके स्वाध्याय से (शुद्धाः) शुद्ध, मलरहित, (शुचयः) मनसा, वाचा, कर्मणा पवित्र और (पावकः) अग्नि के समान पवित्र कारक (भवन्तः) होते हुए (दुरितानि पदानि) बुरे चाल-चलनों को, बुरे आचार और व्यवहारों को (अतिक्रामन्तः) पार करते हुए, छोड़ते हुए (सर्ववीराः) सामर्थ्यवान् प्राणों से सम्पन्न होकर, सब-के-सब वीर्यवान् होकर हम (शतम् हिमाः) सौ वर्ष तक (मदेम) हर्ष और आनन्द से जीवन व्यतीत करें। 
भावार्थ- १. प्रत्येक मनुष्य को बल, वीर्य और प्राणशक्ति से युक्त होकर कम-से-कम सौ वर्ष तक हर्ष और आनन्द से युक्त जीवन व्यतीत करना चाहिए। 
२. इसके लिए बुरे चाल-चलनों को, दुष्टाचार और दुष्ट व्यवहार को सर्वथा छोड़ देना चाहिए । 'दुरित' पद में आयु को कम करनेवाले सभी दुर्गुणों यथा अधिक या न्यून भोजन, व्यायाम न करना, शरीर को स्वच्छ न रखना, मैले वस्त्र धारण करना आदि का समावेश हो जाता है। 
३. बुरे चाल-चलनों को छोड़ने के लिए स्वयं मन, वाणी और कर्म से शुद्ध पवित्र और निर्मल बनो। अपने सम्पर्क में आनेवालों को भी शुद्ध और पवित्र बनाओ। 
४. शुद्ध-पवित्र बनने के लिए प्रभु-प्रदत्त वेद का स्वाध्याय करो। वेद के स्वाध्याय से आपको शुद्ध, पवित्र रहने और दीर्घायु प्राप्त करने का ठीक ज्ञान प्राप्त होगा। 

अकाल मृत्यु 

अकाल मृत्यु

त्वं च सोम नो वशो जीवातुं न मरामहे।
प्रियस्तोत्रो वनस्पति: ॥
(ऋ० १।९१। ६)
शब्दार्थ- (सोम) हे श्रेष्ठ कर्मों की प्रेरणा देनेवाले परमेश्वर ! (त्वं च) आप (न:) हम लोगों के (जीवातुम्) जीवन को (वशः) वश में रखनेवाले, स्थिर रखनेवाले और प्रकाशित करनेवाले हो। आप (प्रिय स्तोत्रः) प्रियस्तोत्र हैं, आपके स्तुति-वचन सुनकर हृदय में प्रेम उत्पन्न होता है। (वनस्पतिः) आप सेवनीय पदार्थो के रक्षक हैं अतः आपकी कृपा से (न मरामहे) हम अकाल मृत्यु और अनायास मृत्यु न पाएँ। 
भावार्थ- १. परमात्मा मनुष्यों के जीवन को वश में रखनेवाला और प्रकाशित करनेवाला है। 
२. परमेश्वर प्रियस्तोत्र है क्योंकि उसके स्तुति-वचन सुनकर हृदय में आनन्द उत्पन्न होता है। 
३. परमेश्वर अपनी महान शक्ति से मनुष्यों द्वारा सेवनीय पदार्थों की रक्षा करता है। 
४. प्रभु की कृपा से हम अकाल मृत्यु के वश में न जाएँ। 
'न मरामहे' का अर्थ करते हुए हमने महर्षि दयानन्द के शब्दों को ही रख दिया है। इस मन्त्र और इसके महर्षि-भाष्य से यह सिद्ध होता है कि स्वामी जी अकाल मृत्यु को मानते थे। 

अकाल मृत्यु को पुरुषार्थ से दबा दो 


इमं जीवेभ्यः परिधि दधामि मैषां नुगादपरो अर्थमेतम् ।
शतं जीवन्तु शरदः पुरूचीरन्तर्मृत्युं दधतां पर्वतेन ॥ 
(ऋ० १० । १८ । ४)
शब्दार्थ-परमात्मा उपदेश देते हैं-मैं (जीवेभ्यः) मनुष्यों के लिए (इमम् परिधिम) इस सौ वर्ष की आयु-मर्यादा को (दधामि) निश्चित करता हूँ (एषाम्) इनमें (अपरः) कोई भी (एतं अर्थम्) इस अवधि को, इस जीवनरूप धन को (मा, गात्, नु) न तोड़े, उल्लंघन न करे । सभी मनुष्य (शतम् शरदः) सौ वर्ष (पुरूची:) और उससे भी अधिक (जीवन्तु) जिएँ और (अन्तः मृत्युम्) अकाल मृत्यु को (पर्वतेन) पुरुषार्थ से (दधताम) दूर कर दे, दबा दे। 
भावार्थ- १. परमात्मा ने मनुष्य के लिए सौ वर्ष की जीवन मर्यादा निश्चित की है। 
२. किसी भी मनुष्य को इस मर्यादा का उल्लंघन नहीं करना चाहिए अर्थात् सौ वर्ष की अवधि से पूर्व नहीं मरना चाहिए। 
३. प्रत्येक मनुष्य को सौ वर्ष तक तो जीना ही चाहिए। उसे अपना खान-पान, आहार-विहार और समस्त दिनचर्या इस प्रकार की बनानी चाहिए कि वह अदीन रहते हुए सौ वर्ष से भी अधिक जीवन धारण कर सके। 
४. मनुष्य को पुरुषार्थी होना चाहिए। यदि अकाल मृत्यु बीच में ही पा जाए तो उसे अपने पुरुषार्थ से परास्त कर देना चाहिए। मनुष्य को सतत् कर्मशील होना चाहिए। जब मृत्यु भी द्वार पर आए तो यह देखकर लौट जाए कि अभी तो इसे अवकाश ही नहीं है। 

शक्तिशाली बनकर शत्रुओं को परास्त करें 

उपक्षेतारस्तव सुप्रणीतेऽग्ने विश्वानि धन्या दधानाः।
सुरेतसा श्रवसा तुञ्जमाना अभि ष्याम पृतनायूँरदेवान्॥
(ऋ० ३ । १ । १६)
शब्दार्थ- (सुप्रणीते अग्ने) हे उत्तम मार्ग पर ले जानेवाले ज्ञान स्वरूप परमात्मन् ! (तव उपक्षेतारः) तेरे समीप रहनेवाले, तेरे उपासक हम (विश्वानि) सम्पूर्ण (धन्या) धन्यता प्रदान करनेवाले शुभ गुणों को (दधानाः) धारण करते हुए (सुरेतसा) उत्तम वीर्य से और (श्रवसा) अन्न, ज्ञान और यश से (तुञ्जमानाः) दीप्त होते हुए, जगमगाते हुए (पृतनायून् अदेवान्) सेना लेकर आक्रमण करनेवाले राक्षसों और राक्षसी भावनाओं को (अभि स्याम) नीचा दिखा दें, उन्हें दबा दें। 
भावार्थ- १. ईश्वर समस्त संसार का नेता है, वह हमें आगे ले जानेवाला है, वह हमारा उन्नति-साधक और सुमार्ग-दर्शक है। 
२. उपासकों को ऐसे सुपथ-दर्शक परमात्मा के समीप बैठकर धन्यता प्रदान करनेवाले, यश प्रदान करनेवाले उत्तमोत्तम गुणों को धारण करना चाहिए। 
३. हमें बलशाली बनना चाहिए। 
४. हमें यशस्वी बनकर अपनी दीप्ति से संसार में जगमगाना चाहिए। 
५. हमारे ऊपर सेना लेकर आक्रमण करनेवाले बाहरी शत्रुओं को अथवा अन्दर के काम, क्रोध, लोभ, मोह, अदानशीलता आदि आन्तरिक शत्रुओं को मारकर परे भगा देना चाहिए, उन्हें दबाकर उनपर विजय प्राप्त करनी चाहिए। 

सुरभिमय जीवन 


कस्ये मृजाना अति यन्ति रिप्रमायुर्दधानः प्रतरं नवीयः।
आप्यायमानाः प्रजया धनेनाध स्याम सुरभयो गृहेषु ॥ 
(अ० १८ । ३ । १७)
शब्दार्थ-(कस्ये) ज्ञान में ( मृजाना:) अपनी आत्मा को शुद्ध करते हुए अत्युत्तम दीर्घ (नवीयः) नवीन (आयुः) जीवन को (दधानाः) धारण करते हुए (अध) और (रिप्रम्) मल को, पाप को, दोष को (अतियन्ति) दूर हटाते हुए (प्रजया) सुसन्तान से (धनेन) धनैश्वर्य से (आप्यायमानाः) बढ़ते हुए हम लोग (गृहेषु) घरों में (सुरभयः) सुगन्धरूप, उत्तम, प्रशंसनीय गुणों से युक्त, सदाचारी (स्याम) होवें। 
भावार्थ-मनुष्यों के गृहस्थ-जीवन का इस मन्त्र में सुन्दर चित्रण ---
  • १. प्रत्येक व्यक्ति को ज्ञान के द्वारा अपनी आत्मा को शुद्ध करना चाहिए। 
  • २. उत्तम और दीर्घ जीवन प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए।
  • ३. जीवन के पाप-ताप, दोष और मलों को धो डालना चाहिए।
  • ४. सुसन्तान का निर्माण करना चाहिए।
  • ५. धनश्वर्यों का उपार्जन करना चाहिए। 
  • ६. प्रशंसनीय गुणों से युक्त होकर घर में अपने सदाचार की दिव्य-गन्ध फैलानी चाहिए। 

हमारे घर 


इहैव ध्रु वा प्रतितिष्ठ शालेऽश्वावती गोमती सुनृतावती।
ऊर्जस्वती धृतवती पयस्वत्युच्छयस्व महते सौभगाय ॥ 
(अथर्व० ३। १२ । २)
शब्दार्थ-(शाले) यह विशाल भवन (इह एव) जहाँ बना है वहाँ ही चिर काल तक (ध्रुवा) खूब दृढ़ होकर (प्रति तिष्ठ) खड़ा रहे। (अश्वावती) इसके अन्दर घोड़े हों (गोमती) गौएँ हों (सूनृतावती) इसके अन्दर रहनेवाले लोग सदा सत्य, मीठा और मधुर बोलनेवाले है (ऊर्जस्वती) यह अन्न से भरपूर हो (घृतवती) घी से भरपूर हो (पयस्वती) दूध और जलादि पेय पदार्थों से सम्पन्न हो और (महते सौभगाय) हमारी महान् सुख-समृद्धि के लिए (उत् श्रयस्व) खूब ऊँचा होकर खड़ा रह।
भावार्थ- हमारे घर कैसे हों ? हमारे घर टूटे-फूटे न हों। हम झोंपड़ियों में न रहें । वेद मनुष्यों को विशाल-भवन निर्माण कर उनमें रहने का आदेश देता है। हमारे घर ऐसे दृढ़ हों कि तुफान और वृष्टि, बिजली और भूचाल भी उनका कुछ बिगाड़ न सकें। साथ ही घर इतने विशाल होने चाहिएँ कि उनमें गाय और घोड़े बाँधे जा सकें। उनमें अन्नागार हों, घी और दूध के कोठे हों। मन्त्र में एक आदर्श गृहस्थं का चित्रण खीचा गया है। 
  • १. गृहस्थ के पास अपना भव्य एवं दृढ़ भवन होना चाहिए।
  • २. सवारी के लिए घोड़े होने चाहिएँ।
  • ३. दूध पीने के लिए गौ होनी चाहिए।
  • ४. घर के सभी व्यक्ति सत्यवादी और मधुरभाषी हों। 
  • ५. घर अन्न से भरपूर हो; दूध, दही आदि किसी वस्तु का अभाव न हो। 
                                       ऐसे होने चाहिएँ हमारे घर ! 

ऐसे हों हमारे घर 


सुनृतावन्तः सुभगा इरावन्तो हसामुदाः।
अतृष्या अक्षुध्यास्त गृहा मास्मद् विभीतन ॥ 
(अथर्व० ७ । ६० । ६)
शब्दार्थ- (गृहा) हे गृहस्थ लोगो! आप (सुनृतावन्तः) सत्यभाषी, मधुरभाषी और सुव्यवस्थित (स्तः) बनो (सुभगाः) उत्तम सौभाग्य शाली, ऐश्वर्य-सम्पन्न बनो (इरावन्तः) अन्न और धन से भरपूर रहो (हसामुदः) सदा हँसमुख और प्रसन्न रहो (अतृष्याः) तृष्णारहित, संतोषी बनो (अक्षुध्याः) सदा तृप्त रहो, कभी अभावग्रस्त मत बनो और (अस्मद्) हमसे (मा विभीतन) भयभीत मत होओ। 
भावार्थ- मन्त्र में एक आदर्श गृहस्थ का चित्रण किया गया है। हमारे घर ऐसे होने चाहिएँ जहाँ --
  • १. घर के सभी सदस्य सत्यवादी, मधुरभाषी और सुव्यवस्था प्रिय हों। 
  • २. सभी पारिवारिक जन सौभाग्यशाली हों।
  • ३. घर में अन्न और धन-धान्य की न्यूनता न हो।
  • ४. परिवार के सभी सदस्य सदा हँसते और मुस्कराते रहें।
  • ५. सभी निर्लोभी और सन्तोषी हों। 
  • ६. घर में कोई भी व्यक्ति अभावग्रस्त न हो, सभी तृप्त हों, सभी की आवश्यक इच्छाओं की पूर्ति होती रहे। 
  • ७. घर के सदस्य एक-दूसरे से भयभीत न हों। 
                                             प्रभु हमें बल और शक्ति दें कि हम अपने घरों और परिवारों को ऐसा ही आदर्श वैदिक-परिवार बनाने में समर्थ हो सकें। 

दम्पति-कर्तव्य


मा वां वृको मा वृकीरा दधर्षीन्मा परि वर्क्तमुत माति धक्तम्।
अयं वां भागो निहित इयं गीर्दस्राविमे वां निधयो मधूनाम् ॥
(ऋ० १ । १८३ । ४)
शब्दार्थ- हे स्त्री-पुरुषो! (वाम्) तुमको (मा) न तो (वृकः) भेड़िया के समान कुटिल, हिंसक अथवा चोर स्वभाववाला पुरुष (आदधर्षीत) सताए और (मा) न (वृकी:) दुष्ट स्वभाववाली, हिसक वत्तियोंवाली स्त्री सताए। तुम दोनों (मा परिवर्तम्) कभी एक दूसरे का परित्याग मत करो (उत) और (मा) न कभी (अतिधक्तम्) मर्यादा का उल्लंघन करके एक-दूसरे के हृदय को दुखाप्रो। (वाम) तुम दोनों के लिए (अयं भागः) यह सेवन करने योग्य निश्चित भाग है (इयं गी:) यह वेद की व्यवस्था है (दस्रौ) हे दर्शनीयो ! एक-दूसरे के दुःख का नाश करनेवालो (इमे) ये (मधूनाम्) मधुर अन्न, जल और फलों के (निधयः) कोश, खजाने (वाम्) तुम दोनों के लिए (निहितः) रक्खे गये हैं। 
भावार्थ- मन्त्र में पति-पत्नी के कर्तव्यों का सुन्दर निर्देश है==
  • १. हिंसक और कुटिल पुरुष तुम्हें न सताएँ।
  • २. दुष्ट स्वभाववाली स्त्रियाँ भी तुम्हें पीड़ा न दें।
  • ३. पति-पत्नी कभी एक-दूसरे का त्याग न करें। 
  • ४. दम्पती गृहस्थ की मर्यादाओं का उल्लंघन करके एक-दूसरे के हृदय को जलानेवाले न बनें। 
  • ५. पति-पत्नी को ऐसा ही व्यवहार और बर्ताव करना चाहिए। यही वेद की व्यवस्था है। 
  • ६. घरों में अन्न, जल और फलों के ढेर तुम्हारे सेवन करने के लिए होने चाहिएँ। 

पुत्र


अभि नो वाजसातमं रयिमर्ष पुरुस्पृहम् ।
इन्दो सहस्रभर्णसं तुविद्युम्नं विश्वासहम् ॥ 
(ऋ० ८ । ९८ । १)
शब्दार्थ- (इन्दो) हे तेजस्विन् ! तू (नः) हमें (वाजसातमम्) अन्न देनेवाला (सहस्र भर्णसम्) सहस्रों के पालन-पोषण में समर्थ (पुरुस्पृहम्) बहुतों को अच्छा लगनेवाला (तुविद्युम्नम्) अत्यधिक यशस्वी (विभ्वा सहम्) बड़े-बड़ों का भी पराभव करनेवाला (रयिम्) पुत्र (अभि अर्ष) प्रदान कर। 
भावार्थ-कोई भक्त प्रभु से प्रार्थना करते हुए कहता है-प्रभो ! हमें ऐसा पुत्र दे ==
  • १. जो अन्न देनेवाला हो । जिसके घर से कोई भूखा न जाए। 
  • २. पुत्र अन्न देनेवाला तो हो परन्तु दो-चार को नहीं वह सहस्रों का भरण पोषण करने की क्षमता से युक्त हो। 
  • ३. वह बहुतों को अच्छा लगनेवाला हो। वह क्रूर स्वभाव का न होकर सौम्य स्वभाव का हो। 
  • ४. उसका यश दूर-दूर तक फैला हुआ हो। 
  • ५. वह समय पड़ने पर बड़े-बड़ों का भी पराभव करानेवाला हो। वह सत्य के लिए मर मिटनेवाला हो। 
'रयि' का धन अर्थ लेने पर मन्त्र का भाव होगा==
  • १. मेरा धन भूखों के लिए अन्न देनेवाला हो । 
  • २. मेरे पास इतना धन हो कि दो-चार का नहीं मैं सहस्रों और लाखों का भरण-पोषण कर सकूँ। 
  • ३. मेरा धन ऐसे कार्यो में लगे जो मेरी कीर्ति बढ़ानेवाले हों। 
  • ४. मेरा धन ऐसा हो जिसे पाकर मैं आलसी और निर्बल न बन अपितु समय आने पर मैं बड़े-बड़ों का पराभव करने के लिए तैयार रहे।

ऐसा पुत्र उत्पन्न कर 


अधासु मन्द्रो अरतिविभावाव स्यति द्विवर्तनिर्वनेषाट् ।
ऊर्ध्वा यच्छ्रणिर्न शिशुर्दन्मथू स्थिरं शेवृधं सूत माता॥ 
(ऋ० १० । ६१ । २०)
शब्दार्थ- (माता सूत) माता (ऐसा पुत्र) उत्पन्न कर (यत्) जो (मन्द्रः) सदा सुप्रसन्न और आनन्दमग्न रहनेवाला हो (अरतिः) जो अविषयी हो, भोगी, विलासी और लम्पट न हो (विभावा) जो सूर्य के समान कान्तिमान् और प्रकाशमान् हो (द्विवर्तनिः) जो द्वन्द्वरहित, निर्भय और निडर हो (वनेषाट्) जो जगल में मंगल करनेवाला हो (शिशु:) जो शिशु के समान निष्पाप और क्रीड़ाशील हो (स्थिरम) जो चट्टान की भॉति सुदृढ़ और स्थिर रहता हो (शेवृधम्) जो सुखों की वद्धि करनेवाला हो (अध) और (ऊर्ध्वा श्रेणि: न) ऊपर ले जानेवाली सीढ़ी के समान (मक्षु) शीघ्र (दन्) उन्नतिशील हो। इन गुणों से युक्त पुत्र (आसु) इन मानवी प्रजात्रों में (अवस्यति) अवस्थित रहता है। 
भावार्थ- माता को किस प्रकार की सन्तानों को जन्म देना चाहिए, मन्त्र में इसका सुन्दर चित्रण है। पुत्र निम्नलिखित गुणों से युक्त होना चाहिए -
  • १. वह सदा प्रसन्न रहनेवाला होना चाहिए।
  • २. वह भोगी और लम्पट न होकर विषय-कामनाओं से रहित होना चाहिए।
  • ३. वह सूर्य के समान दोप्त एवं प्रकाशमान होना चाहिए।
  • ४. वह धीर, वीर, साहसी, पराक्रमी, निर्भय और निडर होना चाहिए।
  • ५. वह जंगल में मंगल करनेवाला हो।
  • ६. वह शिशु के समान निष्पाप और क्रीड़ाशील होना चाहिए ।
  • ७. वह आपत्तियों और कष्टों में भी चट्टान की भाँति स्थिरता से युक्त हो।
  • ८. वह सुखों की वृद्धि करनेवाला होना चाहिए।
  • ६. वह उन्नति करने का इच्छुक होना चाहिए। 

गृहस्थ कर्तव्य 


ध्रुवासि ध्रु वोऽयं यजमानोऽस्मिन्नायतने प्रजया पशुभिर्भूयात् ।
घृतेन द्यावापृथिवी पूर्येथामिन्द्रस्य छदिरसि विश्वजनस्य छाया ॥ 
(यजु० ५। २८)
शब्दार्थ-हे गृहपत्नी ! (ध्रुवा असि) जैसे तू ध्रुव, निश्चल और स्थिर है उसी प्रकार (अयं यजमानः) तेरा पति भी (अस्मिन् आयतने) इस गृहस्थ में, इस संसार मे (प्रजया पशुभिः) श्रेष्ठ सन्तानों और पशुओं से (ध्रुवं भूयात्) ध्रुव हो, सम्पन्न एवं समृद्ध हो। तुम दोनों (घृतेन) घृत के द्वारा, घृताहुति से अथवा आत्म-स्नेह से (द्यावापृथिवी) आकाश और भूमि को (पूर्येथाम्) पूर्ण कर दो, आप्लावित कर दो, भर दो। हे सद्गृहस्थ ! तू (इन्द्रस्य छदिः असि) आत्मा का छत, रक्षक है, मानवमात्र को दुःखों और कष्टों से बचानेवाला है। तू (विश्वजनस्य छाया असि) ससार के लोगों का आश्रय है। 
भावार्थ- स्त्री हृदयप्रधान होती है, उसमें श्रद्धा अधिक होती है, प्रतः उसे सम्बोधित करके कहा गया हे देवी ! जैसे तू गृहकार्यों में ध्रुव और दृढ़ है उसी प्रकार तेरा पति भी प्रजा और पशुओं से समृद्ध हो । गृहस्थ में किसी भी वस्तु की कमी या अभाव न हो।
                                      गृह में प्रतिदिन यज्ञ होना चाहिए जिससे द्युलोक और पृथिवीलोक यज्ञ की दिव्य-सुगन्ध से भर जाएँ । अथवा गृहस्थियों को सभी के साथ ऐसा स्नेह करना चाहिए कि संसार स्नेह से पूरित हो जाए। 
                                      गृहस्थियों को मानवमात्र को दुःखों और कष्टों से बचाना चाहिए; जो दीन, दुःखी और पीड़ित हैं उन्हें शरण देनी चाहिए ; जो अनाथ और अशरण हैं उनका आश्रय बनना चाहिए। 

यज्ञ के लाभ 

 
यज्ञ के लाभ

यः समिधा य आहुती यो वेदेन ददाश मर्तों अग्नये।
यो नमसा स्वध्वरः॥
तस्येदर्वन्तो रंहयन्त आशवस्तस्य द्युम्नितमं यश: ।
न तमंहो देवकृतं कुतश्चन न मर्त्यकृतं नशत् ॥
(ऋ० ८ । १९ । ५-६)
शब्दार्थ-- (स्वध्वर:) उत्तम रीति से यज्ञ करनेवाला (यः मर्त:) जो मनुष्य (समिधा) समिधा से (यः आहुती:) जो आहुति से (यः वेदेन) जो वेद से (यः नमसा) जो श्रद्धा से (अग्नये ददाश) प्रकाशस्वरूप परमात्मा के लिए समर्पण कर देता है (तस्य इत्) उसके ही (आशवः अर्वन्तः रहयन्त) तीवगामी घोड़े दौड़ते हैं (तस्य यशः द्युम्नितमम्) उस का यश महान् होता है (तं) उसे (कुतश्चन) कहीं से भी (देवकृतम्) देवों का किया और (मर्त्य कृतम्) मनुष्यों का किया (अंहः) पाप, अनिष्ट (न नशत्) नहीं प्राप्त होता।
भावार्थ --- इन मन्त्रों में अग्निहोत्र के लाभों का वर्णन है। जो व्यक्ति प्रतिदिन यज्ञ करता है उसके घर में तीव्रगामी अश्व होते हैं, उसका यश दूर-दूर तक फैल जाता है। देव-अग्नि, वायु, जल, शुद्ध हो जाने के कारण उसका कुछ अनिष्ट नहीं कर सकते। मनुष्य भी उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकते ।।
                                        पाठक कहेंगे, यज्ञ तो हम भी करते हैं। हमें तो यज्ञ से कोई लाभ होता दिखाई नहीं देता ? इसका कारण है। हम यज्ञ करते हैं परन्तु विधिहीन। यज्ञ करने से सब कुछ मिलता है। परन्तु कब ? जब उत्तम रीति से यज्ञ किया जाए। ठीक प्रकार से यज्ञ करना क्या है ? यज्ञ की भावना को समझो। जिस प्रकार समिधा और सामग्री अग्नि में आहति होती हैं उसी प्रकार आत्माग्नि की आहुति दे दें। अपने जीवन को प्रभ के लिए श्रद्धापूर्वक समर्पित कर दें तो हमें संसार में किसी वस्तु का अभाव नहीं रहेगा। 

ब्राह्मणों की सेवा 


विश्वाहा ते सदमिदभरेमाश्वायेव तिष्ठते जातवेदः।
रायस्पोषेण समिषा मदन्तो मा ते अग्ने प्रतिवेशा रिषाम।। 
(अथर्व० ३ । १५। ८)
शब्दार्थ- (जातवेदः) हे ज्ञानी ! विद्वन् ! (इव) जिस प्रकार (तिष्ठते अश्वाय) अपने स्थान पर खड़े हुए, रथ आदि में न जुतनेवाले घोड़े के लिए घास और दाना निरन्तर दिया ही जाता है इसी प्रकार हम (ते) तेरे लिए (सदम् इत्) सदा ही (विश्वाहा) सब दिन (भरेम) मर्यादा रूप में प्रदान करें (अग्ने) हे तेजस्वी ब्राह्मण ! हम (रायस पोषण) धन और पुष्टि कारक पदार्थो से (इषा) अन्नों से, खाद्य पदार्थों से (सम् मदन्तः) खूब हृष्ट-पुष्ट होते हुए (ते प्रतिवेशाः) तेरे सेवक बनकर (मा रिषाम) कभी नष्ट न हों। 
भावार्थ- आज घरों में कुत्ते पाले जाते हैं। कुत्ते पालनेवाले स्वर्ग में नहीं जा सकते। हमें कीट-पतंग और कुत्तों को भी अपने अन्न में से  देना चाहिए परन्तु इससे आगे भी बढ़ना चाहिए। 
                                      धनवानों को अपने घर में ब्राह्मण रखने चाहिएँ। उनकी इतनी आजीविका निश्चित कर देनी चाहिए जिससे उन्हें किसी वस्तु का अभाव न रहे और वे रात-दिन वेद आदि शास्त्रों का अध्ययन करते रहें। वेद ने एक सुन्दर उपमा दी है। जिस प्रकार घोड़ा चाहे काम पर हो अथवा अपने स्थान पर खड़ा हो उसे घास और दाना दिया ही जाता है इसी प्रकार विद्वान् चाहे उपदेश दे या न दे, शास्त्रार्थ करे या न करे, उसका भरण-पोषण होना ही चाहिए। जैसे पहलवान चाहे कुश्ती लड़े या न लड़े उसे भोजन दिया ही जाता है इसी प्रकार ब्राह्मण की सेवा होनी चाहिए। 
                                     यदि आज दस-बीस धनिक कुछ विद्वानों को बैठा दें तो भारतीय संस्कृति और सभ्यता पर जो आक्रमण हो रहे हैं वे समाप्त हो सकते हैं। मन्त्र के उत्तरार्द्ध में इसी बात की ओर संकेत है। 

अबला नहीं सबला 


अवीरामिव मामयं शरारुरभि मन्यते ।
उताहमस्मि वीरिणीन्द्रपत्नी मरुत्सखा विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥
(ऋ० १० । ८६ ।९)
शब्दार्थ- (अयं शरारु:) यह घातक, शत्रु, आक्रान्ता (माम्) मुझे (अवीराम् इव) अबला की भाँति (अभि मन्यते) मानता है। मैं अबला नहीं हूँ (वीरिणी अस्मि) वीराङ्गना हूँ (इन्द्रपत्नी) मैं वीर की पत्नी हूँ (मरुत् सखा) मृत्यु से न डरनेवाले, प्राणों को हथेली पर रखनेवाले वीर सैनिकों की मैं मित्र हूँ (इन्द्रः) ऐश्वर्यशाली मेरा पति (विश्वस्मात् उत्तरः) संसार में सबसे श्रेष्ठ है। 
भावार्थ- वेद में नारी  का जो गौरव, प्रतिष्ठा, मान और सम्मान है वह संसार के अन्य साहित्य में कहीं भी नही है। प्रस्तुत मन्त्र में एक नारी की अपने सम्बन्ध में प्रबल सिहगर्जना है 
  • १. अरे ! यह शत्रु मुझे अबला समझता है । सुन, कान खोलकर सुन ! मैं अबला नहीं हूँ, सबला हूँ। समय-समय पर नारियों ने अपनी वीरता के जौहर दिखाए हैं। झाँसी की रानी को कौन भूल सकता है ? 
  • २. मैं वीर-पत्नी हूँ। 
  • ३. मैं कायरों, भीरुषों के साथ मैत्री नहीं करती, उनके साथ सहानुभूति नहीं रखती, अपितु जो मरने-मारने के लिए तैयार रहते हैं उन्हें ही अपना सखा बनाती हूँ। 
  • ४. मेरा पति इतना वीर है कि संसार में उस-जैसा कोई दूसरा वीर नहीं है।

ऐसी हों नारियां 


सुमङ्गली प्रतरणी गृहाणां सुशेवा पत्ये श्वसुराय शंभूः।
स्योना श्वश्र्व गृहान्विशेमान् ॥
(अथर्व० १४ । २ । २६) 
शब्दार्थ- हे देवी ! तू (गृहाणाम्) घरों, गृहस्थों, घर के लोगों की (सुमङ्गली) कल्याणकारिणी (प्रतरणी) तारनेवाली, पार ले जाने वाली नौका के समान है। तू (पत्ये) पति के लिए (सुशेवा) सुसेवा कारिणी बन। (श्वसुराय) श्वसुर के लिए (शंभूः) शान्तिदायक और कल्याणदात्री हो (श्वश्र्व) सास के लिए (स्योना) सुख देनेवाली होकर (इमान् गृहान्) इन घरों, इन गृहस्थों में (प्रविश) प्रवेश कर। 
भावार्थ- घर में प्रवेश करनेवाली नववधुओं में क्या-क्या गुण और विशेषताएं होनी चाहिए, वेद ने बहुत थोड़े-से परन्तु अत्यन्त सार गभित और मार्मिक शब्दों में वर्णन कर दिया है --
  • १. नववधुओं को पारिवारिक जनों को दूःखों से तारनेवाली होना चाहिए। 
  • २. पति की सेवा और सुश्रूषा करके उसे सदा प्रसन्न रखना चाहिए। 
  • ३. श्वसुर के लिए शान्ति और कल्याणदात्री होना चाहिए।
  • ४. सास के लिए सुख देनेवाली होना चाहिए। 
  • ५. इन चार गुणों से युक्त होकर ही वधुओं को पति-गृह में प्रवेश करना चाहिए। 
                                             जिन घरों में ऐसी सुशीला नारियाँ होती हैं वे घर स्वर्ग बन जा हैं, वहाँ दुःख और कष्ट नहीं होते। सभी व्यक्ति प्रसन्न और हर्षित रहते हैं। 

नारियाँ का चाल-ढाल 


अधः पश्यस्व मोपरि सन्तरां पादकौ हर।
मा ते कशप्लको दृशन् स्त्री हि ब्रह्मा बभूविथ ॥ 
(ऋ० ८ । ३३ । १९)
शब्दार्थ- हे नारि ! (अधः पश्यस्व) नीचे देख (मा उपरि) ऊपर मत देख । (पादकौ सन्तरां हर) दोनों पैरों को ठीक प्रकार से एकत्र करके रख । (ते कशप्लकौ) तेरे कशप्लक-दोनों स्तन, पीठ और पेट, दोनों नितम्ब, दोनों जाँघे, दोनों पिण्डलियाँ और दोनों टखने (मा दृशन) दिखाई न दें। यह सब-कुछ किसलिए ? (हि) क्योंकि (स्त्री) स्त्री (ब्रह्मा) ब्रह्मा, निर्माणकर्ती (बभूविथ) हुई है। 
भावार्थ-- मन्त्र में नारी के शील का बहुत ही सुन्दर चित्रण किया गया है। प्रत्येक स्त्री को इन गुणों को अपने जीवन में धारण करना चाहिए। 
  • १. स्त्रियों को अपनी दृष्टि सदा नीचे रखनी चाहिए, ऊपर नहीं। नीचे दृष्टि रखना लज्जा और शालीनता का चिह्न है। ऊपर देखना निर्लज्जता और अशालीनता का द्योतक है। 
  • २. स्त्रियों को चलते समय दोनों पैरों को मिलाकर बड़ी सावधानी से चलना चाहिए । इठलाते हुए, मटकते हुए, हाव-भावों का प्रदर्शन करते हुए, चंचलता और चपलता से नहीं चलना चाहिए। 
  • ३. नारियों को वस्त्र इस प्रकार धारण करने चाहिएँ कि उनके गुप्त अङ्ग-स्तन, पेट, पीठ, जंघाएँ, पिण्डलियाँ आदि दिखाई न दें। अपने अङ्गों का प्रदर्शन करना विलासिता और लम्पटता का द्योतक है। 
  • ४. नारी के लिए इतना बन्धन क्यों ? ऐसी कठोर साधना किस लिए ? इसलिए कि नारी ब्रह्मा है, वह जीवन-निर्मात्री और सृजनकत्री है। यदि नारी ही बिगड़ गई तो सृष्टि भी बिगड़ जाएगी। 
                                      माताओं और बहनो ! अपने अङ्गों का प्रदर्शन मत करो। 

श्रेष्ठ धन 


इन्द्र श्रेष्ठानि द्रविणानि धेहि चित्ति दक्षस्य सुभगत्वमस्मे।
पोषं रयीणामरिष्टि तनूनां स्वामानं वाचः सुदिनत्वमह्नाम् ॥ 
(ऋ० २ । २१ । ६)
शब्दार्थ- (इन्द्र) हे ऐश्वर्यशाली परमात्मन् ! (अस्मे) हम लोगों के लिए (श्रेष्ठानि) श्रेष्ठ (द्रविणानि) धन, ऐश्वर्य (धेहि) प्रदान कीजिए। (दक्षस्य) उत्साह का (चित्तिम्) ज्ञान दीजिए। (सुभगत्वम्) उत्तम सौभाग्य दीजिए। (रयीणाम् पोषम्) धनों की पुष्टि दीजिए (तनूनाम्) शरीरों की (अरिष्टिम्) अक्षति, नीरोगिता प्रदान कीजिए (वाचः) वाणी का (स्वामानम्) मिठास दीजिए और (सुदिनत्वम् अह्नाम्) दिनों का सुदिनत्व दीजिए। 
भावार्थ- भक्त भगवान् से श्रेष्ठ धन प्रदान करने की प्रार्थना करता है । वह श्रेष्ठ धन कौन-सा है जिसे एक भक्त चाहता है। 
  • १. हमारे मनों में उत्साह होना चाहिए क्योंकि जागति के अभाव में कोई भी कार्य सम्पन्न नहीं हो सकता। 
  • २. हमारा भाग्य उत्तम होना चाहिए।
  • ३. हमारे पास धन-धान्य और ऐश्वर्य की पुष्टि होनी चाहिए।
  • ४. हमारे शरीर नीरोग, सबल, सुदृढ़ होने चाहिएं। 
  • ५. हमारी वाणी में माधुर्य और मिठास होना चाहिए। हम मीठा और मधुर ही बोले। 
  • ६. हमारे दिन सुदिन बनें। हमारे दिन उत्तम प्रकार व्यतीत होने चाहिए।

जीव


त्वं स्त्री त्वं पुमानसि त्वं कुमार उत वा कुमारी।
त्वं जीर्णो दण्डेन वञ्चसि त्वं जातो भवति विश्वतो मुखः ॥ 
(अथर्व० १० । ८ । २७)
शब्दार्थ- हे आत्मन् ! (त्वं स्त्री) तू स्त्री है (त्वम् पुमान् असि) तू पुरुष है (त्वं कुमारः) तू कुमार है (उत वा) अथवा (कुमारी) तू कुमारी है (त्वं जीर्णः) तू बूढ़ा होकर (दण्डेन वचसि) दण्ड हाथ में लेकर चलता है (त्वम्) तू ही (जातः) शरीर-रूप में उत्पन्न होकर, शरीर के साथ संयुक्त होकर (विश्वत: मुखः) नाना प्रकार का (भवति) हो जाता है। 
भावार्थ-आत्मा क्या है ? उसका न कोई रंग है न रूप, न ही कोई लि है। वह जैसा शरीर धारण कर लेता है वैसा ही कहा और 'पुकारा जाता है। 
                                           जब आत्मा का संयोग पुरुष-शरीर के साथ हो जाता है तो उसे 'पुरुष कहकर सम्बोधित किया जाता है। जब आत्मा स्त्री-शरीर में प्रविष्ट हो जाता है तो उसे स्त्री कहकर पुकारा जाता है । इसी प्रकार अवस्था के अनुसार उसे कुमार अथवा कुमारी कहा जाता है । जब मनुष्य बूढ़ा होकर दण्ड लेकर चलता है तो उसे वृद्ध कहते हैं।
                                        इस प्रकार आत्मा शरीर के साथ संयुक्त होकर नाना प्रकार का हो जाता है। 

जीवात्मा का स्वरूप 

जीवात्मा का स्वरूप

अपाङ् प्राङेति स्वधया गृभीतोऽमर्त्यो मर्त्येना स्योनिः ।
ता शश्वन्ता विषूचीना वियन्तान्यन्यं चिक्युर्न नि चिक्युरन्यम् ॥ 
(ऋ० १ । १६४ । ३८)
शब्दार्थ - जीवात्मा (स्वधया गृभीतः) अपने कर्मों से बद्ध होकर (अपाङ् एति) अत्यन्त नीच गति, नीच योनियों को प्राप्त होता है और (प्राड् एति) अत्यन्त उत्कृष्ट गति को, उत्कृष्ट योनियों को जाता है (अमर्त्यः) यह अविनाशी आत्मा (मर्त्येना) मरणधर्मा शरीर के साथ (सयोनिः) मिलकर रहता है। (ता) वे दोनों -शरीर और आत्मा (शश्वन्ता) सदा एक-दूसरे के साथ रहनेवाले (विषूचीना) परस्पर विरुद्ध गतिवाले (वियन्ता) वियोग को प्राप्त होनेवाले हैं । संसारी जीव (अन्यम्) उनमें से एक को, शरीर को (निचिक्युः) भली प्रकार जानते हैं परन्तु (अन्यम्) दूसरे को (न निचिक्युः) नही जानते । 
भावार्थ- १. जीवात्मा जैसा कर्म करता है वैसा ही फल भोगता है। पापकर्म करने पर जीवात्मा अत्यन्त निकृष्ट कीट-पतङ्ग आदि योनियों में जाता है और पुण्यकर्म करने पर अत्यन्त उत्कृष्ट मानव-देह को प्राप्त करता है। 
२. जीवात्मा अविनाशी है परन्तु यह विनाशी शरीर के साथ रहता है। 
३. जीवात्मा और शरीर विरुद्ध गतिवाले हैं.-आत्मा चेतन है और शरीर जड़ है। 
४. आत्मा का शरीर के साथ संयोग और वियोग होता रहता है । संयोग का नाम जन्म और वियोग का नाम मृत्यु है। 
५. संसारी जन इन दोनों में से शरीर को तो खूब जानते हैं परन्तु आत्मा को नहीं जानते। 
                                       हे संसार के लोगो! आध्यात्मिक पथ के पथिक बनकर आत्मा को जानने का प्रयत्न करो। 

बद्ध बैल 


चत्वारि शृङ्गा त्रयो अस्य पादा द्वे शीर्षे सप्त हस्तासो अस्य।
त्रिधा बद्धो वृषभो रोरवीति महो देवो मर्त्यां आ विवेश । 
(ऋ० ४। ५८ । ३)
शब्दार्थ- एक वृषभ है (अस्य) इसके (चत्वारि शृंगाः) चार सींग हैं (त्रयः पादाः) तीन पैर हैं (द्वे शीर्षे) दो सिर हैं और (अस्य) इसके (सप्त हस्तास:) सात हाथ हैं। वह (त्रिधा बद्धः) तीन प्रकार से बँधा हुआ है। वह (वृषभः) वृषभ (रोरवीति) रोता है। वह (महःदेवः) महादेव (मान् आ विवेश) मनुष्यों में प्रविष्ट है। 
भावार्थ- पाठक ! क्या आपने संसार में ऐसा अद्भुत वृषभ बैल देखा है ? यदि नहीं तो आइए, आपको इसके दर्शन कराएँ। 
                                       वर्षणशील होने के कारण अथवा वीर्यवान् = पराक्रमी होने के कारण आत्मा ही वृषभ है। मन्त्र में इसी वर्षणशील आत्मा का वर्णन है। 
                                      मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार--इसके चार सींग हैं।
                                      भूत, वर्तमान और भविष्यत्-इसके तीन पर हैं। ज्ञान और प्रयत्न-ये दो सिर हैं।
                                      पॉच ज्ञानेन्द्रियाँ, मन और बुद्धि अथवा सप्त प्राण-सात हाथ हैं।
                                       सत्त्व, रज.और तमरूपी तीन पाशों से यह बँधा हुआ है। 
                                       इन पाशों मे, बन्धनों में बँधा होने के कारण वह रोता और चिल्लाता है। 
                                        यह महादेव मरणधर्मा शरीरों में प्रविष्ट हुआ करता है। 
                                        यह आत्मा इस शरीर-बन्धन से मुक्त कैसे हो ? वेद ने इसके छुटकारे का उपाय भी बता दिया है। वह यह कि मनुष्य अपने स्वरूप को समझे। वह महादेव है, इन्द्रियों का अधिष्ठाता है, स्वामी है। इन्द्रियों के दास न बनकर स्वामी बनो तो त्रिगुणों से त्राण पाकर मोक्ष के अधिकारी बन जाओगे। 

कूप में पड़ा त्रित


त्रितः कूपेऽवहितो देवान् हवत ऊतये।
तच्छुश्राव बृहस्पतिः कृण्वन्नहरणादुरु वित्तं मे अस्य रोदसी ॥ 
(ऋ० १ । १०५ । १७)
शब्दार्थ- (कूपे अवहितः) कुएं में पढ़ा हुआ (त्रितः) त्रित (ऊतये) अपनी रक्षा के लिए (देवान्) विद्वानों को (हवते) पुकारता है। वह कहता है-(रोदसी) हे स्त्री-पुरुषो! (मे अस्य वित्तम्) मेरे इस दुःख को जानो, मेरे कष्टों का अनुभव करो (अंहूरणात्) चारों ओर से आघात करनेवाले पाप और सन्ताप से बचने के लिए (उरु कृण्वन्) प्रचण्ड प्रयत्न करते हुए उसकी (तत्) उस पुकार को (बृहस्पतिः) सर्वलोकों का स्वामी, श्रोत्रिय, ब्रह्मनिष्ठ गुरु (सुश्राव) सुनता है। 
भावार्थ- कुछ लोगवेद में इतिहास खोजा करते हैं। ऐसे व्यक्ति इस मन्त्र में त्रित का इतिहास बताते हैं। वस्तुतः इस मन्त्र में किसी व्यक्ति विशेष का इतिहास नहीं है। आइए, तनिक देखें यह त्रित कौन है ? 
आध्यात्मिक, आधभौतिक और आधिदैविक-तीन दुःख हैं। इन तीन दुःखों में फंसा हुआ जीवात्मा ही त्रित है। मन्त्र में वर्णित त्रित कोई व्यक्ति-विशेष नहीं है। ऐसे त्रित पहले भी हुए हैं, अब भी हैं 
और आगे भी होंगे।
                                     कूप क्या है ? यह संसार ही कूप है। त्रिविध तापों से बद्ध जीवात्मा संसाररूपी कुएँ में पड़ा हुआ है। इस कुएँ से निकलने के लिए वह देवों को, ज्ञानी गुरुत्रों को पुकारता है। संसार के स्त्री-पुरुषों  को अपनी करुणाभरी कहानी सुनाता है। 
                                    इस कूप से निकलने के लिए, त्रिविध तापों से छुटने के लिए जब वह घोर परिश्रम करता है तब ज्ञानी गुरु उसकी पुकार सुनता है और उसे मार्ग बताता है, तदनुसार आचरण करता हुआ मनुष्य इस कुएँ से निकल पाता है। 

इन्द्र बनो 


इन्द्रो जयाति न परा जयाता अधिराजो राजसु राजयातै ।
चर्कृत्य ईड्यो वन्धश्चोप सद्यो नमस्यो भवेह ॥ 
(अथर्व० ६ । ९८ । १)
शब्दार्थ- (इन्द्रः) इन्द्र, आत्मशक्ति से सम्पन्न मनुष्य (जयाति) विजय प्राप्त करता है (न परा जयात) उसकी कभी भी पराजय नहीं होती (राजसु) राजारों में (अधिराजः) वह अधिराज बनकर (राज यात) चमकता और दमकता है । अपने जीवन में उस इन्द्र का शासन स्थापित करके ऐ मानव ! तू भी (इह) इस संसार में (चर्कृत्यः) अपने विरोधियों को परास्त कर दे, आदर्श, श्रेष्ठ एवं शुभ कर्म कर। तू (ईड्यः) सबके लिए स्तुत्य (वन्द्यः) वन्दनीय (उपसद्यः) पास बैठने योग्य, अशरणों की शरण (च) और (नमस्यः) आदरणीय (भव) हो, बन । 
भावार्थ- इन्द्र का, आत्मवान् व्यक्ति का सर्वत्र विजय होता है। वह जहाँ भी जाता है विजयश्री उसके गले में विजयमाला डालने के. लिए खड़ी रहती है। 
                              आत्मवान् व्यक्ति का पराजय नहीं होता।
                              राजाओं में वह अधिराज बनकर सबसे ऊपर स्थित होता है। 
प्रत्येक व्यक्ति को अपने जीवन में इन्द्र का शासन स्थापित करना चाहिए। ऐसा करने से वह ==
१. अपने शत्रुओं को दबाने में समर्थ होगा और शुभ तथा अनु करणीय कर्म करने योग्य बनेगा। 
२. ऐसा व्यक्ति लोगों की प्रशंसा का पात्र बन जाता है। वह सभी के लिए वन्दनीय हो जाता है। लोग उसके पास बैठकर उसे अपना दुःख-दर्द सुनाते हैं इस प्रकार वह अशरणों की शरण बन जाता है। ऐसा व्यक्ति सभी के लिए आदरणीय होता है।

आत्मवान् होकर ठाठ से जी 


आयुषायुः कृतां जीवायुष्मान् जीव मा मृथाः।
प्राणेनात्मन्वतां जीव मा मृत्योरूवगा वशम् ॥ 
(अथर्व० १९ । २७ । ८)
शब्दार्थ- (आयुःकृताम्) हे मानव ! तू अपने जीवन को बढ़ाने वाले, जीवन का निर्माण करनेवाले, जीवनवानों के (आयुषा) जीवन से (आयुष्मान्) जीवनवान् होकर, उनके जीवनों से प्रेरणा लेकर (जीव) जीवन धारण कर । (मा मृथाः) मर मत (जीव) जीवन धारण कर । (आत्मन्वताम्) आत्मशक्ति से युक्त शूरवीर पुरुषों के समान (प्राणेन) प्राण-शक्ति के साथ, दम-खम के साथ, ठाठ के साथ (जीव) प्राण धारण कर (मृत्योः वशम्) मौत के मुख में, मृत्यु के वश में (मा उद् अगाः) मत जा। 
भावार्थ- इस छोटे-से मन्त्र में कैसी उच्च, दिव्य और महान् प्रेरणा है ! मन्त्र का एक-एक शब्द जीवन में ज्योति और शक्ति सञ्चार करनेवाला है। वेदमाता अपने अमृतपुत्रों को लोरियाँ देते हुए कहती है==
  • १. हे जीव ! तू जीवितों से, अपने जीवन को चमकानेवालों के जीवन से ज्योति लेकर, उनके जीवनों से प्रेरणा प्राप्त करके उनकी ही भाँति इस संसार में ठाठ से जी। 
  • २. यह जीवन बहुत अमूल्य है, अतः जीवन धारण कर, मर मत । 
  • ३. आत्मवानों की भाँति प्राण-शक्ति से युक्त होकर दम-खम के साथ ठाठ से जी। 
  • ४. जीवन धारण कर। मौत के मुख में मत जा। एक बार तो --मृत्यु को भी ठोकर लगा दे, मौत की बेड़ियों को भी काट डाल। 
 

आत्म-सिञ्चन 


प्र ते नावं न समने वचस्युवं ब्रह्मणा यामि सवनेषु दाधृषिः ।
कुविन्नो अस्य वचसो निबोधिषदिन्द्रमुत्सं न वसुनः सिचामहे ।। 
(ऋ० २ । १६ । ७)
शब्दार्थ- (सवनेषु) उपासना के अवसरों में (दाधृषिः) प्रतिपक्षियों, काम क्रोध, आदि को दवाकर हे परमात्मन् ! भै (समने नावं न) जीवन-संग्राम में नौका के समान (वचस्युवम्) वेद-वचनों के स्वामी (ते) तुझे ही (ब्रह्मणा) ज्ञान के द्वारा (प्रयामि) प्राप्त होता हूँ (नः अस्य वचस:) तू हमारे इस वचन को, प्रार्थना को (कुवित् निबोधिपत्) अवश्य सुनेगा। हम तो (इन्द्रम्) ऐश्वर्यवान् तुझको (वसुनः उत्सम् न) ऐश्वर्य के कूप के समान जानकर (सिचामहे) निरन्तर अपनी आत्मा को सीचते रहें। 
भावार्थ- प्रभो ! हमने उपासना के मार्ग में बाधक बननेवाले काम, क्रोध आदि शत्रुनों का पराभव कर दिया है। अब तो तेरे भंवितरस में मग्न होकर जीवन-संग्राम से, संसार-सागर से पार होने के लिए तेरी नौका पर चढ़ बैठे है । 
                             हे ज्ञानाधिपते ! ज्ञानपूर्वक कर्म करते हुए हमने तुझे प्राप्त कर लिया है। 
                              प्रभो! हम तेरी नौका पर चढ़े बैठे हैं अतः अब तो आपको हमारी प्रार्थना सुननी ही पड़ेगी। 
                              प्रभो ! तू ऐश्वर्यो का अक्षय स्रोत है। ऐसी कृपा कर कि हम तेरे आनन्दामृत से अपनी आत्मा को निरन्तर सींचते रहें, आप्लावित करते रहें, तेरे आनन्द-सागर में डुबकियाँ लगाते रहें। 

आत्मोद्धार के साधन 


त्रिभिः पवित्रैरपुपोद्धयर्क हृदा मति ज्योतिरनु प्रजानन् ।
वर्षिष्ठं रत्नमकृत स्वधाभिरादिद् द्यावापृथिवी पर्यपश्यत् ॥ 
(ऋ० ३ । २६ । ८)
शब्दार्थ --(हृदा) हृदय से (मतिम्) ज्ञान तथा (ज्योतिः) प्रकाश को (अनु प्रजानन्) उत्तमतापूर्वक प्रकट करता हुआ (त्रिभिः) तीन (पवित्रैः) पवित्रकारक साधनों से (हि) निस्सन्देह (अर्कम्) पूजनीय आत्मा को (अपुपोत्) निरन्तर पवित्र करता है। (स्वधाभिः) अपनी शक्तियो से (वर्षिष्ठम्) सर्वश्रेष्ठ (रत्नम्) आत्मारूपी रत्न को (अकृत) बनाता है (प्रात् इत्) तत्पश्चात् वह (द्यावापृथिवी) समस्त संसार को (परि अपश्यत्) तिरस्कारपूर्ण दृष्टि से देखता है। 
भावार्थ- प्रत्येक मनुष्य को अपने आत्मा का उद्धार करना ही चाहिए। इस मन्त्र में आत्मोद्धार के साधनों का वर्णन है ==
  • १. मनुष्य अपने हृदय से ज्ञान-ज्योति को उत्तमता से प्रकट करे। ज्ञान से कर्म होता है और ज्ञानपूर्वक कर्म करने का नाम ही उपासना है।
  • २. ज्ञान, कर्म और उपासना---इन तीन साधनों से आत्मा पवित्र होता है। 
  • ३. यह आत्मारूपी रत्न ऐसे ही पवित्र नहीं हो जाता, इस रत्न को बनाने के लिए स्वधा=शक्ति लगानी पड़ती है। पुरुषार्थ करना पड़ता है, जी-जान से जुटना पड़ता है। 
  • ४. जब मनुष्य इस आत्मारूपी रत्न को पा लेता है तब इसके समक्ष उसे संसार के सभी पदार्थ हेय और तुच्छ दीखते हैं जैसे हीरा पानेवाले को मिट्टी का ढेला हेय लगता है। 
                                     आयो ! इस आत्मारूपी रत्न को पाने का प्रयत्न करें। 

पुरुषार्थ कर 


उत्क्राम महते सौभगायास्मादास्थानाद् द्रविणोदा वाजिन् ।
वयं स्याम सुमतौ पृथिव्याग्नि खनन्तउपस्थे अस्याः॥ 
(यजु० ११ । २१)
शब्दार्थ- (द्रविणोदाः) जीवन-धन को प्रवाहित करनेवाले (वाजिन्) शक्तिसम्पन्न आत्मन् ! (महते सौभगाय) महान् सौभाग्य के लिए (अस्मात् आस्थानात्) इस स्थान से, वर्तमान स्थिति से (उत्क्राम) आगे बढ़ । इस उद्बोधन से उबुद्ध होकर हमें चाहिए कि (वयम्) हम (अस्याः पृथिव्याः ) इस पृथिवी के, इस शरीर के (उपस्थे) उपस्थान मे, हृदय में (अग्नि खनन्त:) आत्माग्नि को, परमात्माग्नि को खोजते हुए, साक्षात्कार करते हुए उसके (सुमतौ) सुमति में, उत्तम ज्ञान में (स्याम) रहें। 
भावार्थ- मनुष्य भोग-विलास में फँसकर पशु बन जाता है, नहीं-नहीं, उससे भी नीचे गिर जाता है। वह अपने जीवन के लक्ष्य को, उद्देश्य को भी विस्मृत कर बैठता है। आध्यात्मिक उन्नति का उसे ध्यान ही नहीं रहता। वेदमाता उसे चेतावनी देते हुए कहती है ---
                                             महान् सौभाग्य के लिए, आत्मदर्शन और ईश्वर-साक्षात्कार के लिए अपनी वर्तमान स्थिति से ऊपर उठ। 
                                           वेद माता के इस दिव्य सन्देश को प्रत्येक नर और नारी को सुनना चाहिए तथा इसे सुनकर हमें अपने हृदय-मन्दिर में आत्मा और परमात्मा का साक्षात्कार करना चाहिए। 
                                            इनका साक्षात्कार कर हमें आत्मा और परमात्मा की सुमति, सुप्रेरणा के अनुसार अपने जीवन को चलाना चाहिए । 

डर मत, पराक्रम कर


मा भेर्मा संविक्था ऊर्ज धत्स्व घिषणे वीड़वीसती वीडयेथामूर्ज दधाथाम् ।
पाप्मा हतो न सोमः ॥ 
(यजु० ६ । ३५)
शब्दार्थ- (मा भेः) हे मानव ! डर मत (मा संविक्था) कम्पायमान मत हो, मत घबड़ा। (ऊर्जम् धत्स्व) बल, साहस, पराक्रम धारण कर। (धिषणे) वाणी और विद्या का आश्रय लेकर और इन दोनों के आश्रय से (वीवीसती) बलवान् होकर (वीडयेथाम्) पुरुषार्थ करो (ऊर्जम् दधाथाम्) पराक्रम करो, जौहर दिखायो ! (पाप्मा:) पाप करनेवाला शत्रु, पापी (हतः) मारा जाए, नष्ट हो जाए (न सोमः) सौम्यगुणयुक्त, सदाचारी पुरुषों का नाश न हो। 
भावार्थ- यदि संसार में पाप, अनाचार, भ्रष्टाचार, पाखण्ड, दम्भ, अधर्म बढ़ गया है, यदि दस्युओं, अनार्यों, अधर्मात्मानों और पाखण्डियों ने संसार के लोगों को आतंकित कर रक्खा है तो डरो मत, भयभीत मत होओ, घबराओ मत । उठो, खड़े हो जायो और पराक्रम करो। 
                                       विद्याबल से अपने को विभूषित करो, वाणी का बल सम्पादन करो। विद्या और वाणी का आश्रय लेकर- इन दोनों से बलवान् बन कर दानवता को दग्ध करने के लिए, मानवता का त्राण करने के लिए संसार में कूद पड़ो, जौहर कर दो। 
                                     ऐसा पराक्रम करो कि जितने भी पापी, अत्याचारी, अनाचारी और पाखण्डी हैं उनमें से एक भी जीवित न रह पाए। पापियों को नष्ट-भ्रष्ट कर दो। 
                                      जो सौम्य हैं, पुण्यात्मा हैं, सदाचारी और श्रेष्ठ पुरुष हैं उनकी रक्षा करो। 

उन्नति करना प्रत्येक का अधिकार 


अनुहूतः पुनरेहि विद्वानुदयनं पथः ।
आरोहणमाक्रमणं जीवतो जीवतोऽयनम् ॥ 
(अथर्व० ५ । ३० । ७)
शब्दार्थ- हे मानव ! (पथः) मार्ग के (उत् अयनम्) चढ़ाव को (विद्वान्) जानता हुुआ और (अनुहूतः) प्रोत्साहित किया हुआ तू (पुनः) फिर (एहि) इस पथ पर आरोहण कर क्योंकि (आरोहणम्) उन्नति करना (आक्रमणम्) आगे बढ़ना (जीवत: जीवतः) प्रत्येक जीव का, प्रत्येक मनुष्य का (अयनम्) मार्ग है, उद्देश्य है, लक्ष्य है। 
भावार्थ-मन्त्र में हारे-थके और निरुत्साही व्यक्ति के लिए एक दिव्य सन्देश है - 
  • १. हे मानव ! यदि तू प्रयत्न करके थक गया है तो क्या हुआ ! तू हतोत्साह मत हो। उत्साह के घट रीते मत होने दे। आशा को अपने जीवन का सम्बल बनाकर फिर इस मार्ग पर आरोहण कर। 
  • २. मार्ग की चढ़ाई को देखकर घबरा मत । सदा स्मरण रख कि तेरे लिए चढ़ाई का मार्ग ही नियत है। आशा और उत्साह से इस मार्ग पर आगे-ही-आगे बढ़ता जा। आगे बढ़ना, उन्नति करना ही जीवन-मार्ग है । पीछे हटना, अवनति करना मृत्यु-मार्ग है। पथ कठिन है तो क्या हुआ ! परीक्षा तो कठिनाई में ही होती है। 
  • ३. निराश और हताश होने की आवश्यकता नहीं। आगे बढ़, उन्नति कर, क्योंकि आगे बढ़ना और उन्नति करना प्रत्येक जीव का अधिकार है। 
                                       प्रत्येक व्यक्ति की उन्नति होगी। हाँ, उसके लिए बल लगाने की, पुरुषार्थ करने की तथा निराशा और दुर्बलता को मार भगाने की आवश्यकता है। 

हम आलसी और बकवासी न बनें


त्रातारो देवा अधिवोचता नो मा नो निद्रा ईशत मोत जल्पिः।
वयं सोमस्य विश्वह प्रियासः सुवीरासो विदथमा वदेम ॥ 
(ऋ० ८ । ४८ । १४)
शब्दार्थ- (त्रातारः देवा) हे रक्षा करनेवाले विद्वानो! (नः अधिवोचत) हमें अधिकारपूर्वक उपदेश दो जिससे (नः) हमारे ऊपर (निद्रा) आलस्य (मा ईशत) शासन न करे (उत) और (मा जल्पि:) बकवास, गपशप भी हमारे ऊपर अधिकार न जमाए। (विश्वह) हे सकल दुर्गुणों के नाशक ! (वयं) हम लोग (सोमस्य प्रियास:) शान्ति दायक, सोमस्वरूप आपके प्यारे बनें (सुवीरास:) उत्तम वीर अथवा उत्तम सन्तानवाले होकर (विदथम्) ज्ञान का (आवदेम) सर्वत्र प्रचार किया करें। 
भावार्थ-मन्त्र में निम्न शिक्षाएँ हैं ---
                           संसार का कल्याण चाहनेवाले, संसार की रक्षा के लिए कटिबद्ध ज्ञानी और विद्वान् लोगों को अधिकारपूर्वक उपदेश करना चाहिए। उस उपदेश के फलस्वरूप मनुष्यों के दुर्गुण दूर होंगे और उनमें शुभ गुणों का विकास होगा। 
                                          विद्वानों के उपदेश से लोगों का आलस्य और प्रमाद दूर होगा। वे कर्मशील, उद्योगी और कर्मठ बनेंगे । उनका हर समय बकवास करते रहने का, गप्पबाज़ी का स्वभाव समाप्त हो जाएगा। 
                                          आलस्य और निद्रा में जो समय नष्ट होता था, वह ईश्वर-भक्ति में लगेगा। लोग ईश्वर के उपासक बनेंगे, उसका गुणगान करेंगे। 
                                         वे स्वयं उत्तम वीर बनेंगे, उनकी सन्तान भी श्रेष्ठ बनेगी और ज्ञानी बनकर वे भी सर्वत्र ज्ञान का प्रसार और प्रचार करेंगे। 

प्रेम, माधुर्य और पराक्रम


यद् वदामि मधुमत् तद् वदामि यदीक्षे तद् वनन्ति मा।
त्विषोमानस्मि जूतिमानवान्यान् हन्मि दोधतः । 
(अथर्व० १२ । १ । ५८)
शब्दार्थ- (यद्) जब (वदामि) बोलूं (तत्) तब (मधुमत्) मधु, माधुर्य से युक्त, मीठे वचन ही (वदामि) बोलू (यद्) जब (ईक्षे) देखू (तत्) तब (मा) मुझे लोग (वनन्ति) प्रेम की दृष्टि से देखें। मैं (त्विषीमान) कान्तिमान, तेजस्वी और (जूूूतिमान्) वेगवान्, उत्साही (अस्मि) हूँ। (दोधतः) मेरे प्रति क्रोध करनेवाले (अन्यान्) अन्यों को, शत्रुओं को (अवहन्मि) नीचे गिराता हूँ। 
भावार्थ- मन्त्र में निम्न शिक्षाएँ हैं --
  • १. हम जब भी बोलें, जो कुछ भी बोलें वह मीठा, मधुर, सत्य, प्रिय एवं हितकर ही हो। 
  • २. जो कुछ भी देखें उसे प्रेममयी दृष्टि से देखना चाहिए । 
  • ३. जब हमारी वाणी में माधुर्य होगा और हमारी दृष्टि प्रेममयी होगी तब सभी मनुष्य, मनुष्य ही नहीं प्राणिमात्र हमसे प्रेम करेंगे। 
  • ४. प्रत्येक व्यक्ति को ऐसा आत्मविश्वास रखना चाहिए कि मैं तेजस्वी हूँ, पराक्रमी, पुरुषार्थी और उत्साही हूँ। 
  • ५. जो हमारे प्रति वैर, विरोध, ईर्ष्या, द्वेष एवं क्रोध की भावनाएँ रखते हैं उन्हें हम मार भगाने में समर्थ हों। 

आओ संसार-नदी को पार करें 


अश्मन्वती रीयते सं रभध्वमुत्तिष्ठत प्र तरता सखायः।
अत्रा जहाम ये प्रसन्नशेवाः शिवान् वयमुत्तरेमाभि वाजान् ॥ 
(ऋ० १० । ५३ । ८)
शब्दार्थ- (सखायः) हे मित्रो! (अश्मन्वती) पत्थरोंवाली भयंकर नदी (रीयते) बड़े वेगपूर्वक बह रही है। अत: (उत्तिष्ठत) उठो (सं रभध्वम्) संगठित हो जाओ और (प्र तरत) इस भयंकर नदी को पार कर जाओ (ये) जो (अशेवाः असन्) अशिव, अकल्याणकारक दोष एवं दुर्गुण हैं उन्हें (अत्र जहाम) यहीं छोड़ दो और (वयम् शिवान वाजान्) हम कल्याणकारी शक्तियों और क्रियाओं को (अभि) सम्मुख रखकर (उत् तरेम) इस नदी को पार कर जाएँ। 
भावार्थ- वेद में संसार की उपमा कहीं सागर से दी गई है तो कहीं वृक्ष से और कहीं किसी अन्य रूप से । प्रस्तुत मन्त्र में संसार की तुलना एक पथरीली नदी से दी गई है। 
  • १. यह संसार एक पथरीली नदी है। इसमें पग-पग पर आनेवाले विघ्न और बाधाएँ ही बड़े-बड़े पत्थर हैं, दुःखरूपी चट्टानें हैं। 
  • २. इसका प्रवाह बड़ा भयंकर है। अच्छे-अच्छे व्यक्ति इसमें बह जाते हैं। 
  • ३. इस नदी को पार करने के लिए उठो, खड़े हो जाओ, आलस्य और प्रमाद को मारकर परे भगा दो। संगठित हो जाओ, तभी इस नदी को पार किया जा सकेगा। 
  • ४. बोझ नदी को पार करने में बड़ा बाधक होता है अतः जो पाप की गठड़ी सिर पर उठाई हुई है, जो दुरित, दुर्गुण, काम, क्रोध, आदि अशिव 'दुर्व्यसन हैं उन सबको यही छोड़ दो। ५. जो शिव हैं, उत्तम गुण हैं, धार्मिक तत्त्व हैं, उन्हें अपने जीवन का अङ्ग बनाकर इस नदी को पार कर जाओ।

वीर पुरुष 


इदं सु मे जरितरा चिकिद्धि प्रतीपं शापं नद्यो वहन्ति ।
लोपाशः सिंहं प्रत्यञ्चमत्साः क्रोष्टा वराहं निरतक्त कक्षात ॥ 
(ऋ० १० । २८ । ४)
शब्दार्थ- (जरितः) हे शत्रुओं का नाश करनेवाले ! आप (इदं) यह (मे) मुझ वीर का (हि) ही (सुचिकित्) सामर्थ्य जानो कि (नद्यः) नदियाँ (प्रतीपम् शापं आ वहन्ति) विपरीत दिशा को जल बहाने लगती हैं (लोपाशः) तृणचारी पशु भी (प्रत्यञ्चम् सिंहम्) सम्मुख आते हुए सिंह को (अत्साः) नष्ट कर देता है। और (क्रोष्टाः) शृगालवत् रोनेवाला निर्बल भी (वराहम्) शूकर के समान बलवान् को (कक्षात निर् अतक्त) मैदान से बाहर निकाल भगाता है । 
भावार्थ- मन्त्र में वीर पुरुष को महिमा का गुणगान है। संसार में ऐसा कौन-सा कार्य है जिसे वीर पुरुष नही कर सकता? 
                                        वीर पुरुष नदियों पर इस प्रकार के बन्ध बाँध देते हैं कि नदियाँ विपरीत दशा में बहने लग जाती हैं। अथवा वीर पुरुष संसाररूपी नदी के प्रवाह को मोड़कर उलटा बहा देते हैं। 
                                        वीर पुरुष तृण भक्षण करनेवाले पशुओं को ऐसा प्रशिक्षण देते हैं कि वे सम्मुख पाते हुए सिह को मार भगाते हैं । भाव यह है कि वीर पुरुष तुच्छ साधनों से महान कार्यों को सम्पन्न कर लेते हैं। गुरु गोविन्दसिंह जी ने ठीक ही तो कहा था --
चिड़ियों से मैं बाज लड़ाऊँ, तो गोविन्दसिह नाम धराऊँ। 
                                         कर्मवीर निर्बल मनुष्य में भी ऐसा पराक्रम फूंक देते हैं कि वे बलवान् शत्रु को भी मार भगाते हैं। 

यन्त्र-कूप (Tube-well) 


सिञ्चन्ति नमसावतमुच्चा चक्रं परिज्मानम् । 
नीचीनबारमक्षितम् ।।
(ऋ० ८ । ७२ । १०)
शब्दार्थ- वैज्ञानिक लोग (उच्चा चक्रम) जिसके ऊपर चक्र लगा हो और (परिज्मानम्) चारों ओर भूमि हो तथा (नीचीनबारम्) नीचे पानी के द्वार हों ऐसे (अक्षितम्) कभी समाप्त न होनेवाले, अक्षय जल के भण्डाररूप (अवतम्) कप को (नमसा) अन्न के लिए (सिञ्चन्ति) सींचते हैं, खेतों की सिंचाई करते हैं। 
भावार्थ- वेद अखिल विद्याओं का भण्डार है, सभी ज्ञान और विज्ञानों का कोष है। महर्षि दयानन्द के शब्दों में, 'वेद सब सत्य विद्यामों का पुस्तक है।' योगिराज अरविन्द घोष के शब्दों में, 'पाज तक जितने वैज्ञानिक आविष्कार हुए हैं और जो आविष्कार भविष्य में होंगे उन सबका मूल वेद में विद्यमान है।' इस मन्त्र पर ध्यानपूर्वक मनन कीजिए। इसमे स्पष्ट ही यन्त्र-कूप (Tubewell) का वर्णन है।
                                            ट्यूब-वैल में ऊपर एक चक्र होता है, उस चक्र के साथ एक बहुत बड़ा पाइप होता है जिसका एक मुख ऊपर की ओर होता है और एक नीचे की ओर। नीचे का मुख जल के भण्डार कुएँ में लगा होता है । यन्त्र के चलने पर यह नीचे से पानी खींचना शुरू कर देता है। पानी पर्याप्त मात्रा में ऊपर पाता है। कुएँ के चारों ओर भूमि खेत होते हैं। इस प्रकार के कूपों से खेतों की सिंचाई की जाती है। 

कोमल वस्त्र


यत्ते वासः परिधानं यां नीवि कृणुषे त्वम् ।
शिवं ते तन्वे तत्कृण्मः संस्पर्शेऽक्षणमस्तु ते॥ 
(अथर्व० ८ । २ । १६)
शब्दार्थ- हे पुरुष ! (ते) तेरा (यत्) जो (परिधानन्) शरीर को ढकने के लिए (वास:) कपड़ा है और (याम्) जिस वस्त्र को (त्वम्) तू (नीविम) कटि के नीचे धोती, लंगोटी आदि के रूप में (कृणुषे) धारण करता है हम (तत्) उस वस्त्र को (ते तन्वे) तेरे शरीर के लिए (शिवम्) सुखकारी (कृण्मः) बनाते हैं जिससे वह वस्त्र (ते) तेरे लिए (संस्पर्शे) स्पर्श में (अद्रूक्ष्णम्) रूखा, कठोर और खुर्दरा न होकर कोमल और मुलायम (अस्तु) हो। 
भावार्थ- वैदिक सभ्यता और संस्कृति सर्वप्राचीन है। मनुष्य को ज्ञान और विज्ञान की शिक्षा वेदों से ही प्राप्त हुई। उसने सभ्यता और संस्कृति का प्रथम पाठ वेद से ही सीखा। मनुष्य ने अस्त्र-शस्त्र और नाना प्रकार के यान और यन्त्रों का निर्माण करना वेद से ही सीखा। जिस समय इंग्लैण्ड और अमेरिका के निवासी असभ्य और जंगली थे उस समय भारतवर्ष ज्ञान और विज्ञान में बहुत आगे बढ़ा हुआ था। महाभारत के युद्ध से भारत को ऐसा धक्का लगा कि वह अब तक भी संभल नहीं पाया है। 
                                     प्रस्तुत मन्त्र में कोमल और सुखस्पर्शी वस्त्र बुनने का वर्णन अत्यन्त स्पष्ट है। 
                                      मनुष्य दो प्रकार के वस्त्र पहनता है-एक कटि से ऊपर, दूसरे कटि-प्रदेश से नीचे। 
                                     ये दोनों प्रकार के वस्त्र इस प्रकार के हों जो शरीर को सुख देनेवाले हों। ये शरीर में चुभने वाले न हों। सुख देनेवाले वस्त्र वे ही होंगे जो गर्मी और सर्दी रो हमारी रक्षा कर सके और कोमल तथा मुलायम हों। 

बिना पैट्रोल का यान 


अनेनो वो मरुतो यामो अस्त्वनश्वश्चिद्यमजत्यरथीः ।
अनवसो अनभीशू रजस्तूवि रोदसी पथ्या याति साधन ॥ 
(ऋ० ६ । ६६ । ७)
शब्दार्थ- (मरुतः) हे मरुतो ! वीर सैनिको! (व:) तुम्हारा (यामः) यान, जहाज (अन् एन:) निर्विघ्न गतिकारी (अस्तु) हो। तुम्हारा वह यान (रजः तू:) अणुशक्ति से चालित हो (यम्) जो (अन् अश्व:) बिना घोड़ों के (अरथी:) बिना सारथि के (अनवसः) बिना अन्त, बिना लकड़ी, कोयला या पैट्रोल के (अन् अभीश:) बिना रासों के, बिना लगाम के (चित्) ही (रोदसी) भूमि पर और आकाश में (अजति) चल सके, जा सके (पथ्या साधन्) गतियों को साधता हुआ (वि याति) विशेष रूप से और विविध प्रकार से गति कर सके। 
भावार्थ- मन्त्र में अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में अणुशक्ति से चालित यान का वर्णन है। देश के सैनिकों के पास इस प्रकार के यान होने चाहिए जो बिना ईंधन, लकड़ी और पैट्रोल के ही गति कर सकें। कैसे हों वे यान ? 
१. वे यान अणु-शक्ति से चालित होने चाहिएँ।
२. उनमें घोड़े जोतने की आवश्यकता न हो । 
३. उनमें लकड़ी, कोयला, हवा, पानी, पैट्रोल की आवश्यकता भी न हो। 
४. उनमें लगाम, रास अथवा संचालक साधन की आवश्यकता न हो। वे स्वचालित हो। 
५. वे भूमि पर भी चल सकें और आकाश में भी गति कर सकें।
६. वे विभिन्न प्रकार की गतियाँ करने में समर्थ हों। 

सूर्य-चिकित्सा 


उद्यन्नद्य मित्रमह आरोहन्नुत्तरां दिवम् ।
हृद्रोगं मम सूर्य हरिमाणं च नाशय ॥ 
(ऋ० १ । ५० । ११)
शब्दार्थ - (मित्रमहः) हे मित्र के समान सत्कार योग्य ! (सूर्य) सूर्य (उद्यन्) उदय होता हुआ और (उत्तरां दिवम् आरोहन्) उत्तरोत्तर आकाश मे चढ़ता हुआ (मम) मेरे (हृद्रोगम्) हृदय के रोग को और (हरिमाणम्) पीलिया रोग को (अद्य) आज ही (नाशय) नष्ट कर दे। 
भावार्थ- आज संसार में नाना प्रकार की चिकित्सा-पद्धतियाँ प्रचलित हैं - एलोपैथिक, होम्योपैथिक, आयुर्वेदिक, बायोकैमिक आदि। इसी प्रकार जल-चिकित्सा, सूर्य-चिकित्सा, मिट्टी द्वारा चिकित्सा, प्राकृतिक चिकित्सा, और भी न जाने कौन-कौन-सी चिकित्साएँ हैं। इन सभी चिकित्सानों का मूल स्रोत, उद्गम-स्थान वेद है। संसार की सभी पद्धतियाँ (pathies) वेद से ही निकली हैं। प्रस्तुत मन्त्र में सूर्य-चिकित्सा का स्पष्ट वर्णन है। 
१. उदय होकर आकाश में चढ़ता हुआ सूर्य हृदय-सम्बन्धी रोगों को दूर करता है। 
२. सूर्य-चिकित्सा द्वारा पीलिया रोग भी नष्ट हो जाता है। 
वेद में अन्यत्र अनेक मन्त्र हैं जिनमें सूर्य-चिकित्सा द्वारा अन्य रोगों के नष्ट होने का वर्णन मिलता है। अथर्ववेद ५। २३ । ६ के अनुसार सूर्य दिखाई देनेवाले और दिखाई न देनेवाले रोग-कीटाणुओं  को नष्ट कर देता है। 
                                       अथर्व० ६ । ८ । २२ के अनुसार सूर्य सिर के रोगों को दूर कर देता है। 

अग्नि, वायव्य और तमसास्त्र 


इन्द्र सेनां मोहयामित्राणाम् ।
अग्नेर्वातस्य ध्राज्या तान् विषूचो वि नाशय । 
(अथर्व० ३ । १ । ५)
असौ या सेना मरुतः परेषामस्मानैत्यभ्योजसा स्पर्धमाना।
तां विध्यत तमसापव्रतेन यथैषामन्यो अन्यं न जानात् ॥ 
(अथर्व० ३ । २।६)
शब्दार्थ-- (इन्द्र) हे राजन् ! (अमित्राणाम) शत्रुओं की (सेनाम) सेना को (मोहय) मोहित कर दे, किंकर्तव्यविमूढ़ बना दे और (अग्नेः ध्राज्या) आग्नेयास्त्र से (वातस्य) वायव्यास्त्र से (तान्) उन सब सैनिकों को (विषूचः) छिन्न-भिन्न करके (विनाशय) नष्ट कर डाल । 
                                 इस मन्त्र में आग्नेय और वायव्यास्त्र का स्पष्ट वर्णन है।
                         (मरुतः) हे वीर सैनिको! (या असौ) जो वह (परेषां सेना) शत्रुओं की सेना (ओजसा) अपने बल से (स्पर्धमाना) आक्रमण करती हुई (अस्मान्) हमारी ओर (अभि एति) चली आ रही है (ताम्) उस सेना को (अपनतेन तमसा) आच्छादक तमसास्त्र से, धूमास्त्र से (विध्यत) वेध डाल (यथा) जिससे (एषां) इनमें से (अन्यः अन्यम्) एक दूसरे को, कोई किसीको (न जानात्) न जाने, न पहचान पाए। 
                                          इस मन्त्र में तमसा अथवा धूमास्त्र का स्पष्ट वर्णन है। 
                                          वेद में युद्ध के सभी अस्त्र-शस्त्रों का वर्णन है । वेद के आधार पर ही महाभारत-काल मे ऐसे-ऐसे अस्त्र और शस्त्रों का निर्माण किया गया था कि बीसवीं शताब्दी का वैज्ञानिक भी अभी तक वहाँ नहीं पहुँच पाया है। महाभारत में नारायणास्त्र का वर्णन पाता है। आज के वैज्ञानिक अभी तक इस प्रकार का आविष्कार करने में असमर्थ रहे हैं। 

हैण्डपम्प


ऊध्वं नुनद्रेऽवतं त ओजसा दादृहाणं चिद्विभिदुर्वि पर्वतम। धमन्तो वाणं मरुतः सुदानवो मदे सोमस्य रण्यानि चक्रिरे । 
(ऋ० १ । ८५ । १०)
शब्दार्थ- (ते मरुतः) वे सैनिक लोग (ओजसा) अपने पराक्रम से (अवतम्) कुएँ को (ऊर्ध्वम् नुनुद्रे) ऊपर धकेल देते हैं और (दादहाणम्) दढ (पर्वतम्) पर्वत को (चित्) भी (वि बिभिदुः) विविध उपायों से तोड़-फोड़ डालते हैं (सुदानवः) शत्रु-सेना का संहार करने में कुशल वे सैनिक (वाणं धमन्तः) सैनिक बैण्ड बजाते हुए (सोमस्य मदे) ऐश्वर्य एवं विजय-प्राप्ति के हर्ष में (रण्यानि) संग्रामोचित नाना कार्यो को (चक्रिरे) किया करते हैं। 
भावार्थ- सैनिक लोग विजय की कामना से कैसे कार्य कर डालते हैं उनका इस मन्त्र में वर्णन है। 
                                      सैनिक लोग अपने पराक्रम और शक्ति से कुएँ को ऊपर धकेल देते हैं। वेद के 'ऊवं नुनुद्रेऽवतं त ओजसा से यह ध्वनि निकलती है कि वे हैडपम्प जैसा कोई यन्त्र लगाकर कुएँ को, कुएँ की जलराशि को ऊपर उठा देते हैं। यह हमारी कल्पना नहीं है। अगले ही मन्त्र में वेद ने इसे स्पष्ट किया है--जिह्म ननुद्रेऽवतं तया दिशासिञ्चन्नत्सं गोतमाय तृष्णजे । अर्थात् वे सैनिक लोग प्यासे (गोतमाय) बुद्धिमान के लिए, गमनशील, शक्तिशाली अथवा ब्राह्मणों के लिए कुएँ को टेढ़ा करके उसे ऊपर की ओर प्रेरित करते हैं और फव्वारे से जल बरसा देते हैं, अथवा जल को खीच लेते हैं। 
                                     सैनिक लोगों के पास इस प्रकार के यन्त्र होते हैं कि वे पर्वत को भी तोड़-फोड़ डालते हैं। रामायण में वानर-सेना के पास इस प्रकार के यन्त्रों के होने का उल्लेख मिलता है। 

हमारे नेता 


मा नो रक्ष मा वेशीदाघृणीवसो मा यातुर्यातुमावताम्।
परो गव्यूत्यनिरामप क्षधमग्ने सेध रक्षस्विनः।। 
(ऋ० ८।६०।२०)
शब्दार्थ- (आघृणी-वसो अग्ने) हे दीप्तिधन नेता ! (नः); (रक्षः) राक्षस, नाशकारी, उपद्रवी (मा मावेशीत्) प्रवेश न करने (यातुमावताम्) पीड़ादायक दुष्ट रोगों और दुष्ट पुरुषों की (य पीड़ा (नः) हममें प्रविष्ट न हो। (अनिराम्) दुर्बलता, दरिद्रता (क्षुधम्) भुखभरी को (रक्षस्विनः) दुष्ट राक्षसों को (परः गव्यूति) ह कोसों दूर (अप सेध) मार भगा। 
भावार्थ- हमारे नेता कैसे होने चाहिएँ ? प्रस्तुत मन्त्र में मा नेता के कुछ गुणों का वर्णन किया है। 
  • १. नेता ऐसे सजग और जागरूक होने चाहिए कि राक्षस : उपद्रवो लोग राष्ट्र में नागरिकों में प्रवेश न कर सकें। 
  • २. दुष्ट रोग और दुष्ट पुरुष भी नागरिकों में प्रविष्ट न हो सः 
  • ३. नेता ऐसे होने चाहिएं जो अकर्मण्यता और दरिद्रता को म भगाएँ। 
  • ४. नेता को अपने राष्ट्र का प्रबन्ध इस रीति से करना चाहि कि कहीं भुखमरी न हो, लोग मभावग्रस्त न हों। जीवन के  उपयोगी और आवश्यक सभी वस्तुएँ प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हों।
  • ५. नेता ऐसे होने चाहिएं जो देश पर माक्रमण करनेवाले शत्रु  को कोसों दूर मार भगाएँ। 

इन्द्रासन पर बैठते समय राजा को उपदेश 


आ त्वाहार्षमन्तरेधि ध्रु वास्तिष्ठाविचाचलिः।
विशस्त्वा सर्वा वाञ्छन्तु मा त्वद्राष्ट्रमधिभ्रशत् ।।
इहैवेधि माप च्योष्ठाः पर्वत इवाविचाचलिः।
इन्द्र इवेह ध्रु वस्तिष्ठेह राष्ट्रमु धारय । 
(ऋ० १० । १७३ । १-२)
शब्दार्थ- हे राष्ट्रनायक ! (आ त्वाम् हार्षम्) मैं तुझे इन्द्रासन पर लाता हूँ, बैठाता हूँ। तू (अन्त: एधि) उसपर आसीन हो । तू (ध्रुवः अविचाचलिः) ध्रुव और अचल होकर, दृढ़तापूर्वक राजगद्दी पर आसीन होकर इस प्रकार शासन कर कि (सर्वा: विशः त्वा वाञ्छन्तु) समस्त प्रजा तुझको चाहे, तेरे साथ प्रेम करे। (त्वद् राष्ट्रम् मा अधिभ्रशत्) तेरे हाथों से राष्ट्र न निकल जाए, तेरे कारण राष्ट्र भ्रष्ट न हो अपितु राष्ट्र का अभ्युदय हो। 
                      (इह एव ऐधि) तू यहाँ ही रह अर्थात् अपने कर्तव्य पर दृढ़ रह (मा अप च्योप्ठा.) तु कभी पतन की ओर मत जा (पर्वत इव अविचाचलिः) पर्वत के समान अविचल और (इन्द्र, इव ध्रुवः) इन्द्र के समान स्थिर होकर (इह तिष्ठ) यहाँ, अपने व्रत में स्थिर रह (उ) और (राष्ट्रम् धारय) राष्ट्र को धारण कर ।' 
उपर्युक्त दो मन्त्रों में निरन राजनैतिक मन्तव्यों पर प्रकाश डाला गया है--
  • १. राजा का चुनाव होना चाहिए। 
  • २. राजा को इस प्रकार शासन करना चाहिए कि सभी लोग राजा को प्रेम एव स्नेह की दृष्टि से देखें। 
  • ३. राजा को चञ्चल न होकर पर्वत के समान दृढ़, अटल एवं निश्चल होना चाहिए। 
  • ४. उससे राज्य में राष्ट्र की हर प्रकार से उन्नति एवं समृद्धि होनी चाहिए। 

स्वराज्य 


स्वराज्य

आ यद् वामीय चक्षसा मित्र वयं च सूरयः।
व्यचिष्ठे बहुपाय्ये यतेमहि स्वराज्ये ॥ 
(ऋ० ५। ६६ । ६)
शब्दार्थ- (मित्र) हे विरोधरहित परस्पर स्नेहवान् स्त्री-पुरुषो! (इय चक्षसा) दीर्घदृष्टि से युक्त विद्वान् पुरुषो ! (वयं सूरयः) हम विद्वान् लोग (च) और (वाम्) तुम, आप लोग (व्यचिष्ठे) अति विस्तृत (बहुपाय्ये) अनेकों से रक्षा करने योग्य (स्वराज्ये) स्वराज्य के निमित्त (आ यतेमहि) सब ओर से प्रयत्न करें। 
भावार्थ- वेद के अनुसार स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। स्वराज्य-प्राप्ति के लिए सबको मिलकर प्रयत्न करना चाहिए। स्वराज्य किस प्रकार मिल सकता है, वेद ने उसकी प्राप्ति के साधनों  का उल्लेख भी कर दिया है । स्वराज्य के लिए --
  • १. मित्रदृष्टि चाहिए। परस्पर-विरोधरहित, आपस में न झगड़ने वाले व्यक्ति स्वराज्य प्राप्त करते हैं। 
  • २. स्वराज्य-प्राप्ति के लिए मनुष्यों को दीर्घदर्शी होना चाहिए, संकुचित और संकीर्ण दृष्टि नहीं होनी चाहिए। 
  • ३. स्वराज्य के सञ्चालनार्थ ज्ञानी व्यक्ति होने चाहिएँ, मर्ख और अज्ञानी लोग स्वराज्य को चलाने में समर्थ नहीं हो सकते। 
  • ४. स्वराज्य दो-चार व्यक्तियों से रक्षित नहीं हो सकता; उसकी रक्षा और सिद्धि के लिए अनेक व्यक्तियों जनता का सहयोग चाहिए। 

शत्रु-संहार 


परा श्रृणीहि तपसा यातुधानान् पराग्ने रक्षो हरसा श्रृणीहि ।
पराचिषा मूरदेवान्छ णीहि परासुतपः शोशुचतः श्रृणीहि ॥ 
(अथर्व० ८।३।१३)
शब्दार्थ- (अग्ने) राजन् ! नेतः ! अपने (तपसा) पराक्रम से (यातुधानाम्) प्रजापीड़क अत्याचारियों को (परा श्रृणीहि) विनष्ट कर दे (हरसा) अपनी विनाशक शक्ति से (रक्षः) राक्षसों को, दुष्ट पुरुषों को, आततायियों को (परा श्रृणीहि) मार भगा, अपने (अचिषा) तेज से (मरदेवान्) मढ़ देवों को, पाखण्डियों को (परा श्रृणीहि) समाप्त कर दे। (असु-तृपः) दूसरों का प्राण लेकर अपना पालन-पोषण करनेवाले डाकुओं को (शोशुचतः) धधककर (परा श्रृणीहि) अच्छी प्रकार नष्ट कर डाल। 
भावार्थ- राजा और नेता को अपने राज्य का निरीक्षण करते हुए ऐसा उपाय करना चाहिए कि प्रजा हर प्रकार से सुखी और आनन्दित रहे। इसके लिए-- 
  • १. राजा को प्रजा को पीड़ा देनेवाले अत्याचारियों को कठोर दण्ड देना चाहिये। जो लोग प्रजा को लूटते हैं, वस्तुनों में मिलावट करते हैं, आवश्यक भोग्य पदार्थो को छिपा देते हैं, ऐसे सभी प्रजा पीड़कों को नष्ट कर देना चाहिए। 
  • २. राक्षसों को, दुष्ट पुरुषों को, देश पर आक्रमण करनेवाले बाह्य शत्रुओं को भी अपनी विनाशक शक्ति से परास्त कर देना चाहिये। 
  • ३. मूढ़ देवों को, मूर्ख और पाखण्डियों को, पाखण्ड फैलाकर अपना उल्लू सीधा करनेवालों को मौत के घाट उतार देना चाहिए। 
  • ४. दूसरों का प्राण हरण करके रंगरेलियाँ मनानेवाले डाकुओं का भी सफाया कर देना चाहिये। 
 

शत्रु-विजय 


इतो जयेतो वि जय संजय जय स्वाहा ।
इमे जयन्तु परामी जयन्तां स्वाहैभ्यो दुराहामीभ्यः।
नीललोहितेनामूनभ्यवतनोमि ॥
(अथर्व० ८ । ८ । २४) 
शब्दार्थ- हे वीरो ! रणबांकुरो ! शत्रुनाशको ! (इतः जय) इधर जय प्राप्त करो (इतः वि जय) इधर विजय का सम्पादन करो। (सं जय) अच्छी प्रकार जय प्राप्त करो। (जय) विजय प्राप्त कर (स्वाहा) लोकों में तुम्हारी कीति हो, तुम्हारे नाम का यशोगान हो। (इमे) हमारे ये वीरगण (जयन्तु) विजय प्राप्त करें। (अमी पराजयन्ताम) शत्रु लोग परास्त हो जाए। (एभ्यः) इन धर्मशील वीरों को (सु आह) उत्तम कीर्ति प्राप्त हो (अमीभ्यः) उन शत्रुओं की (दुर श्राहा) अपकीर्ति हो । (अमून्) उन शत्रुओं को (नील-लोहितेन) अपने बल और तेज से (अभि) उनके सम्मुख जाकर और उनका सा मुख्य करके (अव तनोमि) अपने नीचे दबाता हूँ। 
भावार्थ --कितना उत्साहवर्धक और स्फूर्तिदायक मन्त्र है ! सीधे साधे और सरल शब्दों में वेद ने शत्रुओं को नष्ट करने का कैसा सुन्दर सन्देश दिया है --
  • १. प्रत्येक युवक और युवती को आगे-ही-मागे बढ़ते हुए इधर और उधर से जय और विजय प्राप्त करनी चाहिए । 
  • २. जो वीर, जो सैनिक, जो विद्यार्थी विजया होते हैं उनकी विजय के डंके बजते हैं, संसार में उनकी कीर्ति होती है। 
  • ३. सदा सावधान होकर ऐसा युद्ध करना चाहिये कि शत्र पराजित हो जाए। 
  • ४. इस बात का दृढ़ निश्चय रखना चाहिए कि धार्मिकों की ही जीत होती है, शत्रु पराजित होते हैं। 
  • ५. अपने तेज और बल से शत्रुओं को नीचे बिछा देना चाहिए। 

हमारे अस्त्र-शस्त्र


हमारे अस्त्र-शस्त्र

स्थिरा वः सन्त्वायुधा पराणुदे वीळ उत प्रतिष्कभे।
युष्माकमस्तु तविषी पनीयसी मा मर्त्यस्य मायिनः ॥ 
(ऋ० १ । ३९ । २)
शब्दार्थ- हे वीर सैनिको! (प्रतिष्कभे पराणुदे) युद्ध में शत्रुओं को रोकने और उन्हें मार भगाने के लिए (वः) आप लोगों के (आयुधा) युद्ध करने के हथियार, अस्त्र-शस्त्र (स्थिरा: उत वीळू सन्तु) स्थिर और दृढ़ हों। हे वीर पुरुषो! (युष्माकम्) तुम लोगों की (तविषी) बलवती सेना (पनीयसी) अत्यन्त व्यवहार कुशल एवं प्रशंसनीय हो; परन्तु (मायिनः मर्त्यस्य मा) जो मायावी शत्रु हैं, छल-कपट से युद्ध करनेवाले है उनके अस्त्र-शस्त्र वैसे दृढ़ और उनकी सेना वैसी प्रशंसनीय न हो। 
भावार्थ-देश की रक्षा का भार सैनिकों पर होता है परन्तु सैनिक देश की रक्षा उसी दशा में कर सकते हैं जब उनके अस्त्र-शस्त्र दृढ़ और तीक्ष्ण हों। 
                                             कोई भी देश किसी भी समय किसी भी देश पर आक्रमण कर सकता है ; अत: राष्ट्र-रक्षा के लिए सैनिक सदैव उद्यत रहने चाहिएँ, उनके पास तीक्ष्ण, दृढ़ अस्त्र-शस्त्रों की कमी नहीं होनी चाहिए। 
सेना भी अत्यन्त बलवान्, व्यवहारकुशल और प्रशंसनीय होनी चाहिए। 
                                            जो मायावी हैं, छल-कपट से युद्ध करनेवाले हैं, शत्रु हैं, उनके अस्त्र-शस्त्र स्थिर और दृढ़ नहीं होने चाहिएँ। उनकी सेना भी बलवान् नहीं होनी चाहिए-देश के सैनिकों को इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए। 
                                            तीक्ष्ण, दृढ़ एवं स्थिर अस्त्र-शस्त्रों से संग्राम में विजय प्राप्त की जा सकती है। अतः इस सम्बन्ध में सदा सावधान रहना चाहिए। 

 

वैदिक युद्धवाद


मूढा अमित्रा न्यर्बुदे जह्यषां वरं वरम् ।
अनया जहि सेनया ॥१॥
ये रथिनो ये प्ररथा प्रसादा ये च सादिनः।
सर्वानदन्तु तान हतान् गृध्राः श्येनाः पतत्रिणः ॥२॥ 
(अथर्व० ११ । १० । २१, २४)
शब्दार्थ-(न्यर्बुदे) हे शक्तिसम्पन्न सेनापते ! (अमित्राः) शत्र लोग (मूढाः) चेतनारहित हो जाएँ (ऐषां वरं वरम्) इनके श्रेष्ठ-श्रेष्ट सेनापतियों को (जहि) मार डाल, नष्ट कर दे । शत्रुओं को (अनया सेनया) अपनी इस विशाल-वाहिनी से (जहि) मार डाल ॥१॥ 
हे सेनापते ! (ये) जो शत्र लोग (रथिनः) रथों पर सवार हैं और (ये) जो (अरथाः) रथ पर सवार नहीं हैं (असादाः) जो घोड़ों पर सवार नहीं हैं (च) और (ये सादिनः) जो घोड़ों पर सवार हैं उन सबको मार डाल जिससे (तान् सर्वान् हतान्) उन सब मरे हुओं को (गृध्राः) गीध (श्येनाः) बाज़ और (पतत्रिणः) दूसरे चील-कव्वे आदि पक्षी (अदन्तु) खा जाएँ ॥२॥ 
भावार्थ-वैदिक युद्धवाद किसी टिप्पणी का भिखारी नहीं है। वैदिक योद्धाओं को ऐसा भयंकर और घमासान का युद्ध करना चाहिए कि शत्रु लोग चेतनारहित हो जाएँ। शत्रु-पक्ष के वीर योद्धाओं को चुन-चुनकर मार देना चाहिए। 
                                          योद्धाओं को ही नहीं, सेना को भी समाप्त कर देना चाहिए । जो रथ पर चढ़कर लड़नेवाले हैं, घुड़सवार हैं, अथवा पैदल हैं-सबका सफाया कर देना चाहिए। शत्रुओं पर दया वैदिक मर्यादा के सर्वथा प्रतिकूल है। 
 

वैदिक योद्धा का आदर्श


आस्थापयन्त युवति युवानः शुभे निमिश्लां विदथेषु पत्राम् ।
अर्को यद्वो मरुतो हविष्मान् गायद् गाथं सुतसोमो दुवस्यन् ॥ 
(ऋ० १ । १६७ । ६)
शब्दार्थ-(मरुतः) हे सैनिको! (विदथेषु) यज्ञोत्सवों में (सुतसोमः) आपके सत्कारार्थ उत्तम पदार्थों को लिये हुए (दुवस्यन्) आपकी परिचर्या करता हुआ (हविष्मान्) नाना प्रकार की सम्पदाओं से युक्त (अर्कः) आपकी पूजा के लिए उत्सुक गृहपति (यद्वो गाथम्) जो आपकी गाथा (गायत्) गाता है वह यह है कि तुम (युवानः) उच्छृखल चेष्टानों से युक्त युवक होते हुए भी (शुभे) शुभ कर्मों में (निमिश्लाम्) प्रेमपूर्वक रत (पज्राम्) बलवती, सुन्दरी (युवतिम्) युवती को (आस्थापयन्त) उत्साहित करते हो। 
भावार्थ-वेद के अनुसार सैनिकों का चरित्र इतना उच्च और महान् होना चाहिए कि जब वे शत्रुओं को जीतकर लौटे तो उनके स्वागत के लिए नाना प्रकार के पदार्थों को धारण किये हुए गृहपति गर्व के साथ यह कह सके कि विजित देश की कोई भी युवती हमारे यौवन से भरपूर किसी भी सैनिक के विषय में यह नहीं कह सकती कि हमारे किसी भी सैनिक की किसी भी चेष्टा से भयभीत होकर उन्हें अपना अमुक कार्य छोड़ना पड़ा। 
                                             यह है वैदिक योद्धा का आदर्श ! छत्रपति शिवाजी और दुर्गादास राठौर इसके ज्वलन्त उदाहरण हैं।
                                              यह तो युद्ध का आदर्श है परन्तु आज बिना युद्ध के ही, शान्ति के वातावरण में भी युवतियों का मार्ग में चलना कठिन है। उनपर आवाजें कसी जाती हैं, उन्हें कुदृष्टि से देखा जाता है। आयो, संसार को सन्मार्ग पर लाने के लिए हम अपने चरित्रों को आदर्श बनाते हुए वेदों का नाद बजाएँ। 

धन चक्रवत् घूमता है


पृणीयादिन्नाधमानाय तव्यान् द्राधीयांसमनु पश्येत पन्थाम् ।
श्रो हि वर्तन्ते रथ्येव चक्राऽन्यमन्यमुप तिष्ठन्त रायः॥ 
(ऋ० १० । ११७ । ५)
शब्दार्थ- (तव्यान्) धनवान् को (नाधमानाय) दु:खी, पीडित, याचक के लिए (पृणीयात् इत्) देना ही चाहिए । मनुष्य (द्राधीयांसम पन्थाम्) अतिदीर्घ जीवन के मार्ग को (अनुपश्येत) विचारपूर्वक देखे (हि) क्योंकि (रायः) धन (उ) निश्चय ही (रथ्या चक्रा इव) रथ के पहिए के समान (आ वर्तन्ते) घूमते रहते हैं और (अन्यम् अन्यम्) एक दूसरे के समीप (उपतिष्ठन्त) पहुँचा करते हैं।
भावार्थ-लक्ष्मा बड़ी चञ्चला है। यह रथ के पहियों की भॉति निरन्तर घूमती रहती है। आज एक व्यक्ति के पास है तो कल दूसरे के पास चली जाती है। जो व्यक्ति एक दिन राजा होता है वह दूसरे दिन दर-दर का भिखारी बन जाता है। प्रत्येक मनुष्य को धन के इस स्वरूप को समझना चाहिए और समझकर 
  • १. धनवान् को चाहिए कि वह निर्धनों की, दीन और दुःखियों की, पीड़ितों की सहायता करके उन्हें प्रसन्न करे। बलवानों को चाहिए कि वे निर्बलों, अनाथों और अबलाओं की रक्षा करें। 
  • २. यह कहा जा सकता है कि हमें किसीकी सहायता करने की क्या आवश्यकता है ? वेद इसका बहुत ही सुन्दर उत्तर देता है । वेद कहता है जीवन का मार्ग बहुत विस्तृत है, अतः मनुष्य को दीर्घदृष्टि से काम लेना चाहिए, दुःख-आपत्तियाँ और संकट सभी पर आ सकते हैं। यदि धन और बल के नशे में चूर होकर हमने किसीकी सहायता नही की तो यह निश्चित है कि हमारी सहायता भी कोई नहीं करेगा, अत: याचक को प्रसन्न करना ही चाहिए।


पापी को दान न दूं 


यदिन्द्र यावतस्त्वमेतावदहमोशीय।।
स्तोतारमिद्दधिषे रदावसो न पापत्वाय रंसिषम् ॥ 
(ऋ० ७ । ३२ । १८ ; सा० ३१०)
शब्दार्थ -(इन्द्र) हे अनन्त ऐश्वर्यशालिन् ! हे परमेश्वर ! (यत्) जिस और (यावतः) जितने ऐश्वर्य का (त्वम्) तू स्वामी है (अहम्) मैं भी (एतावद्) उतने ही ऐश्वर्य का (ईशीय) स्वामी बनूं। (रदावसो) हे धनदातः ! हे समस्त पदार्थो को देनेहारे ! मैं (स्तोतारम् इत्) भगवद्-भक्तों को, सदाचारियों को ही (दधिषे) दान दूं (पापत्वाय) पापियों, दुराचारियों और पाप-कर्मो के लिए (न रंसिषम्) कभी न दूं। 
भावार्थ-वैदिक धर्म में धन को हीन दृष्टि से नहीं देखा जाता। वैदिक धर्मी तो प्रतिदिन प्रार्थना करता है--"वयं स्याम पतयो रयीणाम्" (ऋ० १० । १२१ । १०)-हम धनैश्वर्यों के स्वामी बनें। 
और धन भी कितना ? मन्त्र में कहा है --
                                                      प्रभो! जिस और जितने धनैश्वर्य के आप स्वामी हैं, मेरे पास भी उतना ही धन होना चाहिये । प्रभु हमारी माता है, वह हमारा पिता है, बन्धु और सखा है। एक के पास तो धन का भण्डार हो, अन्न के ढेर लगे हों और दूसरा भूखा मर रहा हो, यह तो ठीक प्रतीत नहीं होता, अत: भगवन् ! जितना धन आपके पास है मुझे भी उतना ही धन दे दो।
मन्त्र में दो बातें और कही गई हैं. -
  • १. भगवन् ! मुझे अपने लिए धन की आवश्यकता नहीं है, मैं तो इस धन को आपके भक्तों में बाँट दूंगा। 
  • २. मैं आपके दिये धन का दुरुपयोग नहीं करूंगा। मैं पापी और पाप-कर्मों के लिए आपके धन का दान नहीं करूंगा। 
 

दान के अधिकारी 


दान के अधिकारी

ते वृक्णासो अधिक्षमि निमितासो यतस्त्रु चः।
ये नो व्यन्तु वार्य देवत्रा क्षेत्रसाधसः॥ 
(ऋ० ३।८ । ७)
शब्दार्थ- (अधि क्षमि) पृथिवी पर, संसार में (देवता) ज्ञानी और दानशील मनुष्यों के मध्य में (ये) जो (देवत्रा) छिन्न, कटे हुए, अनासक्त हैं, जो (निमितासः) अत्यन्त न्यून आवश्यकताओंवाले हैं, जो (यत स्रुचः) यतस्रुच हैं, जिनका चम्मच सदा चलता रहता है, जो (क्षेत्रसाधसः) क्षेत्र-साधक हैं, (ते) वे लोग (न:) हमारे (वार्यम्) वरणीय धन को, दान को (व्यन्तु) प्राप्त करें। 
भावार्थ-वेद के अनुसार मनुष्य को सैकड़ों हाथों से कमाना चाहिए और सहस्रों हाथों से दान करना चाहिए। परन्तु दान किसे देना चाहिए ? दान के वास्तविक अधिकारी कौन है ? मन्त्र में दान के अधिकारियों का ही वर्णन है। इस पृथिवी पर दान के अधिकारी 
  • १. जो अनासक्त हैं। जो संसार में रहते हुए भी इसमें लिप्त नही होते । ऐसे अनासक्त व्यक्तियों को दिया दान लोकोपकार में ही लगेगा। 
  • २. दान उन्हें देना चाहिए जिनकी अपनी आवश्यकताएँ बहुत न्यून हों। ऐसे व्यक्तियों को दिये हुए दान का अपव्यय नहीं होगा। 
  • ३. दान उनको देना चाहिये जिनका चम्मच सदा चलता रहता हो। जो दान को लेकर उसे आवश्यकतावालों को देते रहते हों, जो धन लेकर दीन, दरिद्रों और दुःखियों में बाँट देते हों। 
  • ४. दान उन्हें देना चाहिए जिन्होंने अन्न के, विद्या के, धर्म-प्रचार के, स्वास्थ्य-सम्पादन के क्षेत्र खोल रक्खे हों। 

सप्त सम्पदा 


इन्द्रावरुणा सौमनसमदृप्तं रायस्पोषं यजमानेषु धत्तम्प्रजाम्पुष्टिं भूतिमस्मासु धत्तं दीर्घायुत्वाय प्रतिरतं न प्रायुः॥ 
(ऋ० ८ । ५९ । ७)
शब्दार्थ-(इन्द्रावरुणा) हे अध्यापक और उपदेशक लोगो ! आप (अस्मासु यजमानेषु) हम यज्ञशील जनों में (अदृप्तम्) निरभिमानता, शालीनता (सौमनसम्) सुप्रसन्नता (रायः पोषम्) धनैश्वर्य की समृद्धि (धत्तम्) धारण करायो। हम लोगों में (प्रजाम्) सुसन्तान (पुप्टिम्) शारीरिक दृढता (भूतिम्) आत्मविभूति (धत्तम्) धारण कराओ। (दीर्घायुत्वाय) चिरजीवन के लिए (नः आयुः) हमारी आयु को (प्रतिरत) बढ़ाओ। 
भावार्थ-अध्यापक और उपदेशकों को ऐसा प्रयत्न और पुरुपार्थ करना चाहिए जिससे यज्ञशील लोगों में निम्नलिखित गुणों का विकास हो -
  • १. मनुष्यों में अभिमान और उद्दण्डता के स्थान पर निरभिमानता और शालीनता का विकास हो । 
  • २. वे सदा सुप्रसन्न रहना सीखें, कष्ट और आपत्तियों में भी हँसते हुए आगे बढ़ते रहें। 
  • ३. उनके पास धनैश्वर्यों की कमी नहीं होनी चाहिए।
  • ४. उनकी सन्तान सुसन्तान हो-वे देश के सु-नागरिक बनें।
  • ५. उनके शरीर हष्ट-पुष्ट, नीरोग और दृढ़ हों। 
  • ६. आत्मशक्ति से वे भरपूर हों। वे अध्यात्म-मार्ग का अवलम्बन करनेवाले हों। 
  • ७. उनकी आयु दीर्घ हो। 


सप्त मर्यादा 


सप्त मर्यादाः कवयस्ततक्षुस्तासामेकामिदभ्यंहुरो गात् ।
आयोह स्कम्भ उपमस्य नीळे पथां विसर्गे धरणेषु तस्थौ । 
(ऋ० १०। ५। ६)
शब्दार्थ-(कवयः) क्रान्तदर्शी भगवान् वरुण ने (सप्त मर्यादाः) सात मर्यादाएँ (ततक्षुः) बनाई हैं (तासाम् एकाम् इत् अभिगात्) यदि कोई उनमें से एक का भी उल्लंघन कर देता है, एक मर्यादा को भी तोड़ देता है तो वह (अंहुर:) पापी होता है। परन्तु जो मनुष्य (धरुणेषु) विपत्ति के अवसर पर, धैर्य की परीक्षा के समय (पथां विसर्गे) मार्गों के चक्कर पर भी, सात पापों को छोड़ देता है वह मनुष्य (ह) निस्सन्देह (आयोः स्कम्भः) जीवन का स्तम्भ, आदर्श होता है और (उपमस्य) उपमा देने योग्य प्रभु के (नीळे) पाश्रय में (तस्थौ) रहता है, मुक्त हो जाता है, प्रभु-कृपा का अधिकारी बन जाता है। 
भावार्थ-प्रभु ने सात कुकर्म त्यागने की आज्ञा दी है -
  • १. हिंसा-मन, वचन और कर्म से किसीके प्रति बैर रखना। 
  • २. चोरी करना स्वामी की आज्ञा के बिना उसके पदार्थों का उपयोग करना। 
  • ३. व्यभिचार-पर-स्त्रीगमन आदि दूषित कर्म ।
  • ४. मद्यपान-मादक (नशा करनेवाले) पदार्थों का सेवन ।
  • ५. जुआ खेलना।
  • ६. असत्य भाषण करना।
  • ७. कठोर वाणी बोलना।
                                      जो मनुष्य इनमें से एक का भी सेवन करता है वह पापी होता है। 
                                     जो मनुष्य संकट आने पर भी, इन बुराइयों को त्याग देता है वह ननुष्य-जीवन का आदर्श होता है और मोक्ष का अधिकारी बनता है। 

 

सफलता के साधन 


यज्ञेन गातुमप्तुरो विविद्रिरे धियो हिन्वाना उशिजो मनीषिणः।
अभिस्वरा निषदा गा अवस्यव इन्द्रे हिन्वाना द्रविणान्याशत ।। 
(ऋ० २। २१ । ५)
शब्दार्थ- (अप्तुरः) कर्मशील (उशिजः) कामनाशील (मनीषिणः) मननशील (धियः) अपनी बुद्धियो को (हिन्वान:) गति देते हुए (यज्ञेन) सर्वस्व समर्पण के द्वारा (गातुम्) सफलता-प्राप्ति के मार्ग को (विविद्रिरे) प्राप्त किया करते हैं। (अवस्यवः) रक्षाभिलाषी वे (निषदा) एकान्त में (अभिस्वरा) ऊँचे और सुन्दर स्वर से (गा:) अपनी वाणियों को (इन्द्रे) ऐश्वर्यशाली परमात्मा में (हिन्वानः) लगाते हुए (द्रविणानि) विविध प्रकार के ऐश्वर्यो को (आशत) प्राप्त किया करते हैं। 
भावार्थ-संसार में प्रत्येक व्यक्ति सफलता चाहता है परन्तु वह सफलता मिल किसे सकती है ? वेद सफलता के साधनों का विधान करता है -
  • १. सफल वे होते हैं जो कर्मशील हैं, जो हर समय किसी-न-किसी कार्य में लगे रहते हैं। 
  • २. सफल वे होते हैं जिनमें कामना हो । कामनाहीन निकम्मों को सफलता नहीं मिल सकती। 
  • ३. सफल वे होते हैं जो मननशील बुद्धिवाले होते हैं। 
  • ४. सफल बे होते हैं जो अपनी बुद्धियों को हरकत गति देते रहते हैं। 
  • ५. सफल वे होते हैं जो अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अपना सर्वस्व त्यागने के लिए उद्यत रहते हैं। 
  • ६. सफल वे होते हैं जो एकान्त में बैठकर ऊँचे और मधुर स्वर में अपनी वाणी को ईश्वर में लगाकर उससे तेज, बल और शक्ति की याचना करते हैं। 

आगे बढ़नेवाले विजय पाते हैं 


अप्रतीतो जयति सं धनानि प्रतिजन्यानि उत या सजन्या ।
अवस्यवे यो वरिवः कृणोति ब्रह्मणे राजा तमवन्ति देवाः ॥ 
(ऋ० ४ । ५० । ६)
शब्दार्थ-(अ प्रति, इत:) पीछे पग न हटानेवाला ही (प्रति जन्यानि) वैयक्तिक (या) अथवा (सजन्या) सामूहिक (धनानि) ऐश्वर्यों को, धनों को (सं जयति) सम्यक् प्रकार जीतता है (यः) जो (राजा) पराक्रमी, तेजस्वी (अवस्यवे ब्रह्मणे) रक्षार्थी वेदवित् विद्वान् की (वरिवः कृणोति) पूजा करता है, आदर और सम्मान करता है (देवाः) वे विद्वान लोग (तं) उस पराक्रमी व्यक्ति की (अवन्ति) रक्षा करते हैं। 
भावार्थ-पीछे पग न हटानेवाला, सदा आगे बढ़नेवाला, अन्याय और अत्याचार के विरुद्ध लड़नेवाला व्यक्ति वैयक्तिक ऐश्वर्यों को प्राप्त करता है। 
                                          धैर्य और साहस के साथ बढ़नेवाला व्यक्ति ही सामाजिक ऐश्वर्यों को प्राप्त करता है। 
पराक्रमी और तेजस्वी पुरुष को रक्षा चाहनेवाले वेदवित् ब्राह्मणों की पूजा करनी चाहिए, उनके आदेश और सन्देशों को सुनकर तदनुसार आचरण करना चाहिए। 
                                        जो मनुष्य विद्वानों की पूजा करता है, विद्वान् लोग भी ज्ञानादि के द्वारा उसकी रक्षा करते हैं ; उसे कुमार्ग से बचाकर सुमार्ग पर चलाते हैं। 

चार साधन 


स्वधया परिहिता श्रद्धया पर्यूढा दीक्षया गुप्ता । 
यज्ञे प्रतिष्ठता लोको निधनम् ॥
(अथर्व० १२। ५ । ३)
शब्दार्थ-(लोकः) संसार से प्रसन्तापूर्वक, हँसते हुए (निधनम्) प्रस्थान करने के लिए (स्वधया परिहिता) अन्न-जल और स्वसामर्थ्य से दूसरों का हित सम्पादन करो (श्रद्धया परि ऊढा) श्रद्धा से आच्छादित रहो (दीक्षया गुप्ता) दृढ़ संकल्प से सुरक्षित रहो (यज्ञे प्रतिष्ठिता) यज्ञ में प्रतिष्ठा प्राप्त करो। 
भावार्थ-संसार एक क्रीड़ास्थल है। प्रत्येक व्यक्ति को अपना पार्ट पूर्ण कर यहाँ से प्रस्थान करना है। सभी को जाना है। हम यहाँ से प्रस्थान करें परन्तु हँसते हुए प्रस्थान करें। इसके लिए वेद माता हमें चार साधनों का निर्देश कर रही है 
  • १. अन्न और जल के द्वारा तथा अपने जीवन को होम करके भी दूसरों का हित सम्पादन करो। अपने धन और धान्य से, अपने सभी साधनों से दीन, दु:खी और दलितों की खूब सेवा करो। 
  • २. श्रद्धा से आच्छादित रहो। आपका जीवन श्रद्धा से ओतप्रोत होना चाहिए। माता और पिता में श्रद्धा रखो, धर्म और सदाचार में श्रद्धा रखो, अपने कर्म में श्रद्धा रखो। 
  • ३. दृढ़-संकल्प से अपने व्रतों का पालन करो। जीवन के एक एक क्षण का सद्व्यय करते हुए अपने लक्ष्य की ओर आगे बढ़े. चलो। 
  • ४. यज्ञ में श्रेष्ठ कर्मों में प्रतिष्ठा प्राप्त करो। सदा श्रेष्ठ और शुभ कर्म ही करो। बड़ों का आदर करो, छोटों से स्नेह करो, मेल मिलाप बढ़ायो, संघटन बनायो और इस प्रकार प्रतिष्ठा प्राप्त करो। 

ऋषि 


ऋषि

प्रत्यधिर्यज्ञानामश्वहयो रथानाम. ऋषिः स यो महितो विप्रस्य यावयत्सखः॥ 
(ऋ० १० । २६ । ५)
शब्दार्थ—(ऋषिः सः) ऋषि वह है (यः) जो (यज्ञानां प्रति अधि:) यज्ञों का प्रतिपादक है, जो यज्ञ के तुल्य शुद्ध, पवित्र एवं निष्पाप है, (रथानाम् अश्व-हयः) जो रथों का जीवन-रथों का आशु प्रेरक है, शीघ्र संचालक है, शुभ कर्मों का प्राण है, (मनुः हित:) जो मनुष्यमात्र का हित और कल्याण चाहनेवाला है, (विप्रस्य सख:) जो ज्ञानी, बुद्धिमान् और धार्मिक व्यक्तियों का सखा है, (यावयत्) जो सब दुःखों को दूर कर देता है। 
भावार्थ-ऋषि कौन है ? विभिन्न ग्रन्थों में ऋषि शब्द की विभिन्न व्याख्याएँ मिलेगी। वेद ने ऋषि शब्द की जो परिभाषा की है वह अपूर्व, अद्भुत एवं निराली है। ऋषि के लक्षणों का वर्णन करते हुए वेद कहता है -
  • १. ऋषि वह है जो यज्ञों श्रेष्ठ कर्मों का सम्पादक है, जो स्वयं यज्ञ के समान पवित्र एवं निर्दोष है और शुभ कार्यों को ही करता है। 
  • २. ऋषि वह है जो जीवन-रथों को शीघ्र प्रेरणा देता है, जो कुटिल, दुराचारी, व्यभिचारी व्यक्तियों को भी अपनी सुप्रेरणा से सुपथ पर चलता है। 
  •  ३. ऋषि वह है जो बिना किसी भेदभाव के, बिना पक्षपात के मनुष्यमात्र का हितसाधक है। 
  • ४. ऋषि वह है जो ज्ञानियों और बुद्धिमान् व्यक्तिया का मित्र है। 
  • ५. ऋषि वह है जो मनुष्यमात्र की परिधि से भी आगे बढ़कर प्राणिमात्र के कष्टों और दुःखों को दूर करता है। 

दस्यु कौन है ?


अकर्मा दस्युरभि नो अमन्तुरन्यव्रतो अमानुषः ।
त्वं तस्यामित्रहन् वधर्दासस्य दम्भय ।। 
(ऋ० १० । २२ । ८)
शब्दार्थ-(अकर्माः) कर्महीन (अमन्तुः) अविचारशील (अन्यव्रतः) दृष्ट कार्यों को करनेवाला (अमानुषः) मनुष्योचित गुणों से हीन व्यक्ति (अभि) स्वरूपतः (नः) हमारा, समाज का (दस्युः) शत्रु है (अमित्रहन्) हे शत्रुसंहारक प्रभो ! (त्वम्) तू (तस्य दासस्थ) उस दस्यु का (वधः) दण्ड देनेवाला होकर (दम्भय) नाश कर दे।
भावार्थ-मन्त्र के पूर्वार्द्ध मे यह बताया गया है कि दस्यु कौन है। मन्त्र में दस्यु के चार लक्षण है -
  • १. दस्यु वह है जो कर्महीन है, जो निकम्मा और निठल्ला बैठा रहता है। 
  • २. दस्यु वह है जो विचारशून्य है, जो सोचसमझकर कार्य नहीं करता। . 
  • ३. दस्यु वह है जो सत्य, अहिंसा, परोपकार आदि श्रेष्ठ कार्यों के स्थान पर समाज को हानि पहुँचानेवाले चोरी, जारी, हत्या आदि अपराध-कार्यों को करता है। 
  • ४. दस्यु वह है जो मनुष्यता से रहित है, जिसमें मानवोचित दया आदि गुण नहीं हैं। 
मन्त्र के उत्तरार्द्ध में प्रभु से प्रार्थना की गई है-प्रभो! समाज में जो इस प्रकार के दस्यु (समाज को हानि पहुँचानेवाले व्यक्ति) हैं उनका नाश कीजिए। 


उत्तम कर्म ही करूँ 


मयि वर्चो अथो यशोऽथो यज्ञस्य यत्पयः।
परमेष्ठी प्रजापतिदिवि द्यामिव दृहतु॥ 
(सा० ६०२ ; अथव० ६ । ६९ । ३)
शब्दार्थ-(परमेष्ठी) परमोत्तम स्थान पर स्थित परमात्मा (प्रजापतिः) सर्वप्रजा का पालक जिस प्रकार तू (दिवि) द्युलोक में (द्याम) द्युति, प्रकाश को, सूर्य को स्थिर रखता है (इव) इसी प्रकार (मयि) मुझ उपासक में (वर्चः) ब्रह्मतेज-बल, कान्ति (अथो) और (यशः) कीर्ति (अथो) और (यज्ञस्य) उत्कृष्ट कर्मो की (यत्) जो (पयः) वृद्धि है उसको (दृंहतु) दृढ़ कर, बढ़ा । 
भावार्थ-परमात्मा परमोत्तम स्थान पर स्थित है। वह हमें भी ऐसा बल और शक्ति प्रदान करे कि हम भी संसार में परमोत्तम स्थान प्राप्त करने में समर्थ हो सकें। 
                               परमात्मा सबका पालक, पोषक और रक्षक हैं। वेद में अन्यत्र कहा भी है-'विश्वं शृणोति पश्यति' (ऋ० ८ । ७८ । ५) वह सबकी सुनता है और सबको देखता है; अतः भक्त परमात्मा से प्रार्थना करता है----प्रभो ! जिस प्रकार आपने सूर्य को द्युलोक में स्थित कर रक्खा है, इसी प्रकार मुझ उपासक में भी निम्न गुणों को स्थिर और दृढ़ कीजिए --
  • १. मैं बल, कान्ति और तेज से युक्त बन ।
  • २. संसार में मेरी कीर्ति हो। 
  • ३. मैं सदा परोपकार, परसेवा आदि उत्कृष्ट एवं श्रेष्ठ कर्मों को ही करता रहूँ। 

गुणाधान 


द्युक्ष सुदानु तविषीभिरावृतं गिरि न पुरुभोजसम् ।
क्षुमन्तं वाजं शतिनं सहस्रिणं मक्षू गोमन्तमीमहे । 
(ऋ ८।८८।२; सा० ६८६)
शब्दार्थ-हे परमेश्वर! आप (द्युक्षम्) प्रकाशमय हैं। (सुदानुम) सर्वोत्तम दाता हैं (तविषीभिः) बलों से, सर्वशक्तियों से (आवृतम्) युक्त हैं (गिरिम् न) काल के समान (पुरुभोजसम्) सर्वभक्षक हैं, अथवा (गिरि न) मेघ के समान (पुरुभोजसम्) सर्वरक्षक हैं, जैसे मेघ वष्टि द्वारा प्राणियों की रक्षा करता है ऐसे ही आप भी आनन्द-वष्टि से प्राणियों की रक्षा करते हैं (क्षुमन्तम्) सबके आश्रय हैं। (वाजम) अत्यन्त बलवान् (शतिनम्) अत्यन्त शक्तिशाली हैं (सहस्रिणम्) बलवानों से भी अधिक बलवान् हैं (मक्षू) सबके पवित्रकर्ता हैं (गोमन्तम्) सर्वज्ञान-सम्पन्न हैं। आपके ये सभी गुण हमारे जीवनों में आएँ हम ऐसी (ईमहे) याचना, प्रार्थना करते हैं। 
भावार्थ-प्रस्तुत मन्त्र में भक्ति का उच्चादर्श है। ईश्वर की सच्ची भक्ति क्या है ? उसके गुणों को अपने जीवन में धारण करना। भक्त कहता है 
  • १. हे प्रभो ! आप प्रकाशमय हैं, मैं भी दीप्तिमय बनें।
  • २. आप सर्वोत्तम दाता हैं, मै भी दानी बनें।
  • ३. आप सभी बलों, शक्तियों से युक्त हैं, मैं भी शक्तिशाली बनें। 
  • ४. आप काल के समान सभी प्राणियों का नाश करनेवाले हैं, मैं भी शत्रुसमुह का नाशक बनें; अथवा, आप मेघ के समान सबपर आनन्द-धारा की वृष्टि करनेवाले हैं, मैं भी दीन-दु:खियों पर कृपालु बनें। 
  • ५. आप प्रशरण-शरण हैं, मैं भी निराश्रितों का आश्रय बनें।
  • ६. आप सर्वज्ञानसम्पन्न हैं, मैं भी अधिक-से-अधिक ज्ञानी बनें। 

ईश्वर के पुत्र 


ईश्वर के पुत्र

ते हि पुत्रासो अदितेः प्रजीवसे मर्त्याय । 
ज्योतिर्यच्छन्त्यजत्रम् ॥
(यजु० ३ । ३३)
शब्दार्थ- (अदितेः) अखण्ड, अविनाशी परमात्मा के (ते) वे (हि) ही (पुत्रासः) पुत्र हैं जो (मर्त्याय) मनुष्यों के (प्रजोवसे) जीवनलाभ के लिए, सुख-शान्ति के लिए 'जीते है और (अजस्रम्) अविनाशी (ज्योतिः) प्रकाश (प्रयच्छन्ति) प्रदान करते हैं। 
भावार्थ-श्रृण्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्राः' (ऋ० १० । १३ । १) इस वैदिक सूक्ति के अनुसार यद्यपि सभी मनुष्य ईश्वर के पुत्र हैं परन्तु इस मन्त्र में ईश्वर के वास्तविक पुत्रों के चिह्न बताये गये हैं। जो मनुष्य इन गुणों से युक्त हैं वस्तुतः वे ही प्रभु के पुत्र हैं, वे ही प्रभु के उपासक हैं।
  • १. ईश्वर का पुत्र वह है जो मनुष्यों के लिए जीता है। ईश्वर का सच्चा पुत्र वह है जो अपने तुच्छ स्वार्थ के लिए न जीकर दूसरों के लिए जीता है। ईश्वर का पुत्र वह है जो परोपकार के लिए जीता है। ईश्वर का पुत्र वह है जो गिरों को उठाता है, जो मुर्दो में जीवन डाल देता है, जो रोती, बिलखती और कराहती हुई मानवता को सुख, शान्ति और जीवन का सन्देश देता है।
  • २. ईश्वर का पुत्र वह है जो अपने जीवन के आदर्श से, अपनी विद्या से, अपने आचार और विचार से, अपने व्यवहार से मनुष्यों को प्रकाश और प्रेरणा देता रहे। ईश्वर का पुत्र वह है जो अज्ञान, अविद्या, अनाचार और पाखण्ड का नाश कर ज्ञान-ज्योति जगाता रहे। 
आओ, हम सब प्रकाश और परोपकार को अपने जीवन में धारण कर ईश्वर के सच्चे पुत्र बनें। 
 

अब धूर्त क्या कर सकता है 


अपाम सोमममृता अभूमागन्म ज्योतिरविदाम देवान् ।
कि नूनमस्मान्कृण्वदरातिः किमु धूर्तिरमृत मर्त्यस्य ।। 
(ऋ० ८।४८ । ३)
शब्दार्थ- (अमृत) हे अखण्ड, एकरस, अमृतस्वरूप परमात्मन् ! हमने तेरे (सोमम्) ज्ञानमय भक्तिरस का (अपाम) पान कर लिया है। सोम-पान करके हम भी (अमृताः) अमृत, दीर्घायु, बलशाली (अभूम) हो गए हैं। सोमपान करके हमने (देवान्) दिव्य गुणों को, दिव्यताओं को (अविदाम) प्राप्त कर लिया है (ज्योतिः) ज्योति, प्रकाश (अगन्म) प्राप्त कर लिया है (नूनम्) अब (अरातिः) शत्रु (अस्मान्) हमारे प्रति (किं कृण्वत्) क्या कर सकता है, (उ किम्) और क्या (मर्त्यस्य धूर्तिः) धूर्त मनुष्य की धूर्तता कर सकती है ?
भावार्थ-अग्नि के समीप बैठने से शरीरों में गर्मी आती है वैसे ही जैसे परमेश्वर के समीप बैठने से जीवन में प्रभु के गुण पाते हैं। जो उपासक प्रभु के समीप बैठता है, उसके भक्तिरस का पान करता है उसे क्या मिलता है, उसीका सुन्दर चित्रण इस मन्त्र में है 
  • १. सोम-पान करके, प्रभु के आनन्दरस का पान करके मनुष्य बलवान् और शक्तिशाली बन जाता है। 
  • २. सोम-पान करने से मनुष्य में दिव्य गुण आ जाते हैं, बुरी वृत्तियाँ, अवगुण और दोष परे भाग जाते हैं। 
  • ३. सोम-पान करने से प्रकाश की प्राप्ति होती है, ईश्वर का साक्षात्कार हो जाता है। 
  • ४. सोम-पान करनेवाले का आन्तरिक और बाह्य-शत्र कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते। 
  • ४. धूर्त मनुष्य को धूर्तता भी ऐसे व्यक्ति के समक्ष व्यर्थ हो जाती है। 

उपासना से अलौकिक शक्तियों की प्राप्ति 


उपासना से अलौकिक शक्तियों की प्राप्ति

सं वत्स इव मातृभिरिन्दुहिन्वानो अज्यते । 
देवावीर्मदो मतिभिः परिष्कृतः॥
(ऋ० ९।१०५। २)
शब्दार्थ- (इव) जिस प्रकार (मातृभिः) अपनी माता से (हिन्वानः) प्रेरित, परिवधित और पालित (वत्सः) बछड़ा (अज्यते) सम्यक प्रकार कान्तिमान् बनता है उसी प्रकार (देवावी:) इन्द्रियों का संयम करने वाला (मदः) सदा प्रसन्न रहनेवाला (मतिभिः परिष्कृतः) सत्कर्मों, सद्विचारों द्वारा सुशोभित, अथवा विद्वानों द्वारा सुशोभित, और विद्या आदि अलंकारों से विभूषित (इन्दुः) परमेश्वरोपासक भी साधन के पथ में चलता हुआ अलौकिक शक्तियों से युक्त हो जाता है। 
भावार्थ- बछड़ा माता का दुग्धपान करते हुए अपनी माता का स्नेह और प्यार प्राप्त करता है। माता निःस्वार्थ भाव से उसका पालन और पोषण करती है। परिणाम क्या होता है ? बछड़ा कुछ ही समय में कान्तिसम्पन्न बन जाता है, देखने योग्य हो जाता है। इसी प्रकार-
  • १. इन्द्रियों को वश में रखनेवाला, इन्द्रियों की संयम करनेवाला, 
  • २. दुःख में, शोक में, आपत्तियों और विपत्तियों में, कष्टों और क्लेशों में सदा प्रसन्न रहनेवाला। 
  • ३. सत्कर्म करनेवाला, साद्विचार रखनेवाला और विद्वानों द्वारा विद्या आदि शुभ गुणों से युक्त उपासक जब साधना करता हुआ ईश्वर की ओर बढ़ता है तो वह अलौकिक शक्तियों से युक्त हो जाता है।

प्रभो ! हृदय में निवास करो 


मनो जूतिर्जुषतामाज्यस्य बृहस्पतिर्यज्ञमिमं तनोत्वरिष्टं यज्ञ समियं दधातु।
विश्वे देवास इह मादयन्तामा३म्प्रतिष्ठ॥
 (यजु० ३।१३) 
शब्दार्थ-हे मनुष्य (जूति: मनः) अत्यन्त वेगवान् मन (आज्यस्य) दिव्य ज्ञान का (जुषताम्) सेवन करे (बृहस्पतिः) विद्वान् (इमं यज्ञम्) तेरे इस जीवन-यज्ञ को (तनोति) सम्पन्न करे। ज्ञानी लोग (इमम्) इस (अरिष्टम्) कल्याणकारक (यज्ञम्) जीवन-यज्ञ की (सम् दधातु) अच्छी प्रकार देखभाल करें। (इह) इस शरीर में (विश्वे देवास:) सारी दिव्य शक्तियाँ, इन्द्रियाँ (मादयन्ताम्) आनन्द में रहें, हर्ष और उल्लासयुक्त रहें। (ओ३म्) हे सर्वरक्षक ईश्वर ! आप (प्रतिष्ठ) उपासक के हृदय में निवास करो। 
भावार्थ-प्रत्येक मनुष्य ईश्वर को प्राप्त करना चाहता है। उसकी प्राप्ति के लिए -
  • १. हमारा मन सदा दिव्य ज्ञान का सेवन करता रहे।
  • २. ज्ञानाधिपति बनकर हम अपने जीवन-यज्ञ को सम्पन्न करें। 
  • ३. ज्ञानी लोग हमारी दिनचर्या की देखभाल करते रहें और हमें सुपथ पर चलाते रहें। 
  • ४. हमारी इन्द्रियाँ प्रसन्न हों, आनन्द और हर्ष में मग्न रहें। ऐसी स्थिति होने पर जीवात्मा ओ३म् में-सर्वरक्षक परमात्मा में प्रतिष्ठित हो जाता है। अथवा परमात्मा उपासक के हृदय में निवास करने लगता है। 
                                      हमें अपने जीवनों को दिव्य बनाते हुए 'ओ३म्' में प्रतिष्ठित होने का प्रयत्न करना चाहिए।

संसार तुझपर मोहित हो जाए 


विश्वकर्मन् हविषा वावृधानः स्वयं यजस्व पृथिवीमुत द्याम् ।
मुह्यन्त्वन्ये अभितो जनास इहास्माकं मघवा सूरिरस्तु॥ 
(ऋ० १० । ८१ । ६)
शब्दार्थ- (विश्वकर्मन्) हे सर्वकर्मकुशल! (हविषा) अपने साधनों से, ज्ञान, मेधा, साधना आदि उपायों से (वावृधानः) बढ़ता हुमा, उन्नति करता हुआ (पृथिवीम्) शरीर को (उत) और (द्याम) मस्तिष्क को (स्वयं यजस्व) स्वयं संगत कर। तुझपर (अन्ये जनासः) अन्य लोग (अभितः) सब ओर से (मुह्यन्तु) मोहित हो जाएँ (इह) इस संसार में (मघवा) परमपूज्य परमात्मा (अस्माकम्) हमारा (सूरिः) ज्ञानदाता प्रेरक (अस्तु) हो । 
भावार्थ- प्रत्येक व्यक्ति की यह कामना होती है कि लोग मुझे जानें। वेद माता अपने पुत्रों को लोरी देते हुए कहती है--हे पुत्र ! यदि तू चाहता है कि संसार के लोग तेरे ऊपर मोहित हो जाएँ तो -
  • १. कर्मकुशल बन। तुझे जो कार्य सौंपा गया है, उसे पूरी मेहनत, ईमानदारी और लग्न से कर। कर्म को कुशलतापूर्वक करना भी योग है। यही ईश्वर की सच्ची उपासना है - 'स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धि विन्दति मानवः ।' गीता १८ । ४६ 
  • २. अपनी हवि से समृद्ध होकर अपने ज्ञान, विज्ञान, साधना, मेधा को बढ़ाकर तू आत्मिक उन्नति कर। व्यायाम, ब्रह्मचर्य आदि के द्वारा तू शारीरिक उन्नति कर। शरीर से बलिष्ठ बन। आत्मा से निर्मल, पवित्र और निष्पाप बन। संसार तुझपर मोहित हो जाएगा। 
  • ३. अपने अभिमान को त्याग दे और अपने जीवन की डोर को परमात्मा के हाथ में सौंप दे। ब्रह्मार्पण होकर उसे अपना प्रेरक बना ले। संसार तुझपर मोहित हो जाएगा।

शिरोमणि 


ये मूर्धानः क्षितीनामदब्धास: स्वयशसः। 
व्रता रक्षन्ते अद्रुहः ॥
(ऋ० ८ । ६७ । १३)
शब्दार्थ- (ये) जो लोग (अदब्धास:) अहिंस्य, न दबनेवाले स्वयशसः) स्वयशवाले, स्वयं यश उपार्जन करनेवाले (अद्रुहः) दोहरहित होते हैं और (व्रता) अपने व्रतों की (रक्षन्ते) रक्षा करते हैं वे (क्षितीनाम्) मनुष्यों में (मूर्धानः) शिरोमणि होते हैं। 
भावार्थ- यदि आप मनुष्यों में शिरोमणि बनना चाहते हैं तो मन्त्र में वर्णित चार गुणों को अपने जीवन में लाइए। 
  • १. अदब्धास: -आप अदम्य बनिए। किसी से न दबिए। विघ्न प्रौर बाधानों से घबराकर हथियार मत डाल दीजिए। कितना ही भीषण विरोध, कैसी ही प्रतिकूल परिस्थिति हो, आप दबिए मत । जब संसार की शक्तियाँ आपको दबाना चाहें तो आप गेद की भॉति ऊपर उछलिए। 
  • २. स्वयशस:-अपने यश से यशस्वी बनिए। अपने पूर्वजों बाप-दादा के यश पर निर्भर मत रहिए। स्वय महान् बनिए। ऐसे कार्य कीजिए जिनसे संसार में आपका नाम और यश हो। 
  • ३. अद्रुहः --द्रोहरहित बनिए। किसीसे वैर मत कीजिए। किसी को हानि मत पहेंचाइए। किसीके विषय में बुरा चिन्तन मत कीजिए। किसी के प्रति ईर्ष्या-द्वेष और वैर-विरोध की भावनाएँ मत रखिए। द्रोह को त्यागकर सबके साथ प्रेम कीजिए। 
  • ४. अपने व्रतों का पालन कीजिए। मर्यादाओं का उल्लंघन मत कीजिए। आपके जीवन के जो व्रत हैं उनपर दृढ़ता से आचरण कीजिए। आप निश्चितरूप से विश्वशिरोमणि बनेंगे। 

अन्धा कुमार 


यं कुमार नवं रथमचक्रं मनसाकृणोः।
एकेषं विश्वतः प्राञ्चमपश्यन्नधि तिष्ठसि ।। 
(ऋ० १० । १३५ । ३)
शब्दार्थ- (कुमार) हे कुमार ! युवक ! (य) जिस (नवम्) नवीन (रथम्) रथ को, मानव-देह को (मनसा) अपने मन से, अपने मनरूपी सारथि द्वारा (अचक्रम्) चक्र-रहित,मर्यादा-रहित (एक इषम्) केवलमात्र वासनामय, भोग एवं विलास का साधन तथा (विश्वत: प्राञ्चम्) सब ओर गति करनेवाला, उद्देश्य-विहीन (अकृणो:) बना लिया है तू उस पर (अपश्यन्) अन्धा होकर (अधितिष्ठसि) सवार हो रहा है। 
भावार्थ - कुमार ! तुझे नवीन रथ प्रदान किया गया था अपने लक्ष्य पर पहुँचने के लिए, प्रभु-प्राप्ति के लिए, परन्तु तू अपने उद्देश्य को भूल गया। तू लक्ष्यविहीन होकर भटक गया। 
                                          तूने भोगों की इच्छा से और अपने मन के अतिशय संकल्पों से अपने इस रथ को भोग-विलास का साधनमात्र बना लिया है। तेरा यह रथ केवल वासनामय बन गया। 
                                         तू इस रथ पर चढ़ा हुमा है परन्तु अन्धा होकर। तू इस रथ को चला रहा है परन्तु तुझे यह पता नहीं कि तुझे जाना कहाँ है। यदि यही स्थिति रही तो यह रथ तुझे किसी गड्ढे में गिरा देगा; फिर तू रोएगा और पछताएगा परन्तु तेरे हाथ कुछ नहीं पाएगा। 
                                        युवक ! अभी समय है। सचेत और सावधान हो जा, सँभल जा। अपने मन को शिवसंकल्पों से युक्त कर अपने जीवन का वासना रहित बना और जीवन का लक्ष्य निश्चित कर। विवेकी बनकर रथ पर सवार हो, तू निश्चय ही अपने गन्तव्य स्थान पर पहुँच जाएगा। 

तू अकेला नहीं है 


द्यौस्ते पृष्ठं पृथिवी सधस्थमात्मान्तरिक्ष समुद्रो योनिः।
विख्याय चक्षुषा त्वमभितिष्ठ पुतन्यतः।। 
(यजु० ११ । २०)
शब्दार्थ- ओ मानव ! (द्यौः ते पृष्ठम्) द्युलोक तेरी पीठ पर है, तेरा सहायक है (पृथिवी सधस्थम्) पथिवी तेरा घर है (अन्तरिक्षम् आत्मा) अन्तरिक्ष तेरा अपना है (समुद्रः, योनिः) समुद्र तेरा विश्राम स्थल है (त्वम्) तू (चक्षुषा विख्याय) आँख से अच्छी प्रकार देखकर (पतन्यतः) शत्रुओं के संघर्षों के (अभि) सामने (तिष्ठ) डट जा। 
भावार्थ- यह संसार एक संघर्ष-स्थली है। यहाँ पद-पद पर संघर्ष है। स्थान-स्थान पर नाना संघर्ष और शत्रु अपना मुंह खोले मनुष्य को निगल जाने के लिए तैयार खड़े हैं। संघर्षों और शत्रुओं को देखकर कभी-कभी मनुष्य निराश और हताश हो जाता है। ऐसी अवस्था में पड़े हुए व्यक्ति को वेद माता सन्देश देते हुए कहती है -
मत सोच कि तू अकेला है, तेरे पास कोई सामग्री नहीं है। तेरे पास तो विपुल ऐश्वर्य है और बड़े-बड़े सहायक हैं 
१. द्युलोक तेरी पीठ पर है, वह सदा तेरी सहायता के लिए तत्पर है। 
२. पृथिवी तेरा अपना घर है । पृथिवी पर पैर जमाकर पराक्रम कर, जौहर दिखा, संसार तेरे चरणों पर लोटने लगेगा। 
३. यह विशाल अन्तरिक्ष तेरा अपना है, इसमें विचर। 
४. समुद्र तेरा विश्राम-स्थल है। इसमें डुबकी लगा, तुझे धनैश्वर्यों की कमी नहीं रहेगी। 
५. आँख खोलकर देख, सावधान हो जा और जहाँ भी संघर्ष दिखाई दे, जहाँ भी शत्रु दप्टिगोचर हो उसके सन्मुख डट जा, तुझे सफलता मिलेगी और निश्चितरूप से मिलेगी। 

मरे हुओं का सोच मत कर 


मा गतानामा दोधीथा ये नयन्ति परावतम्।
आ रोह तमसो ज्योतिरेह्या ते हस्तौ रभामहे ॥ 
(अथर्व० ८।१।८)
शब्दार्थ-हे मनुष्य ! तू (गतानाम्) मरे हुओं की (मा आ दीधीथाः) चिन्ता न कर (ये) वे (परावतम्) दूर, पीछे (नयन्ति) ले जाते हैं। (तमसः) मृत्यु और पापरूपी अन्धकार को छोड़कर (ज्योतिः श्रा रोह) प्रकाश की ओर बढ़ (एहि) आगे बढ़। (ते) तेरे (हस्तौ) हाथों को (आरभामहे) वेग-युक्त करते हैं, तेरे हाथों को पकड़कर तुझे. सहारा देते हैं। 
भावार्थ-मन्त्र में अति सुन्दर कई उपदेश हैं -
  • १. हे मनुष्य ! जो व्यक्ति मर गए, इस संसार से कूच कर गये, तू उनकी चिन्ता मत कर, उनका ध्यान मत कर। उनके लिए विलाप मत कर। वे मर गये। अब वे न हमारा कोई लाभ कर सकते हैं न हानि । हम भी न उनका कुछ बिगाड़ सकते हैं न सुधार सकते हैं, अतः रोने-धोने और चिन्ता से क्या लान? 
  • २. मरे हुओं का चिन्तन जीवन से दूर ले जाता है। 
  • ३. मृत्यु और पाप अन्धकार है। जीवन ज्योति है, प्रकाश है। तू अन्धकार को छोड़कर प्रकाश की ओर बढ़। 
  • ४. प्रकाश के लिए, जीवन-ज्योति के लिए उद्योग, पुरुषार्थ की आवश्यकता है, अत: आगे बढ़। 
  • ५. तेरे हाथ में बल नहीं है, तेरे पैरों में शक्ति नहीं है, तु आगे बढ़ने में असमर्थ है तो कोई बात नहीं, घबरा मत। आ, आगे बढ़। हम तेरे हाथों को वेगयुक्त करते हैं। हम ज्ञानी लोग तुझे सहारा देते हैं। 

दुःख का स्वागत करो


नमः सु ते निर्ऋते तिग्मतेजोऽयस्मयं विचृता बन्धमेतम् ।
यमेन त्वं यम्या संविदानोत्तमे नाके अधिरोहयनम् ॥ 
(यजु० १२ । ६३)
शब्दार्थ- (निर्ऋते) हे कृच्छापत्ते ! भीषण दुःख ! (ते) तुझे (सु) स्वागतपूर्वक (नमः) नमस्कार है (तिग्मतेजः) तीक्ष्ण तेज से युक्त्त तू (एतम्) इस (अयस्मयम्) लोहमय दृढ़ (बन्धम्) बन्धन को (विचत) काट डाल, दूर कर दे (यमेन यम्या) मन और बुद्धि के द्वारा (संविदाना) सद्विवेक प्राप्त कराती हुई (त्वम्) तू (एनम्) इस मनुष्य को (उत्तमे नाके) उत्तम सुखमय लोक मे, आनन्द की उच्चतम अवस्था में (अधिरोहय) स्थापित कर।। 
भावार्थ- संसार में दु.ख और सुख सबके ही ऊपर आते हैं। दुःख प्राप्त होने पर मूर्ख रोते हैं, परन्तु ज्ञानी उसका स्वागत करते हैं। किसीने कहा है 
देह धरे का दण्ड है, सब काह को होय । 
ज्ञानी भुगते ज्ञान से, मूर्ख भुगते रोय ॥
१. दुःख पाने पर ज्ञानी और धोर वीर कहता है-दुःखो और आपत्तियो ! आयो आपका स्वागत है, आपको नमस्कार हो। 
२. निऋते ! तेरी धार बहुत तेज़ है, तू अपनी तीक्ष्ण धार से मेरे समस्त बन्धनों को काट दे । 'अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम् ।' कर्मों को भोगकर ही उनसे छुटकारा मिल सकता है। कष्टों को सहकर ही हम बन्धनों से मुक्त हो सकते हैं।
३. कृच्छापत्ते ! आओ ! दुःखरूपी भट्टी में पड़कर हमारा मन और हमारी बुद्धि निर्मल एवं पवित्र बनेगी। निर्मल मन और बुद्धि द्वारा हमें सद्ज्ञान तथा सद्विवेक की प्राप्ति होगी। इस सद्विवेक के द्वारा तू हमें उच्चतम मानन्द की स्थिति में पहुंचाएगी, अत: तू आ, हम तेरा स्वागत करते हैं। 

सहस्रस्य प्रमासि सहस्रस्य प्रतिमासि ।
सहस्रस्योन्मासि सहस्रोऽसि सहस्राय त्वा ॥
(यजु० १५। ६५) 
शब्दार्थ- हे जीव ! तू (सहस्रस्य प्रमा असि) सहस्रों, असंख्य, सर्वपदार्थों से युक्त इस विश्व का यथार्थ ज्ञान, करनेवाला है (सहस्रस्य प्रतिमा असि) तू सहस्रों पदार्थो का निर्माण करनेवाला है, सहस्रों की प्रतिमा प्रतिकृति, नकल करनेवाला है (सहस्रस्य उन्मा असि) तू सहस्रों मनुष्यों की तोल है, अतः तू एक नहीं (सहस्रः असि) हज़ारों के तुल्य है, अतः (सहस्रस्य त्वा) तुझे असंख्य मनुष्यों के हित के लिए प्रेरित करता हूँ। 
भावार्थ- १. हे जीव ! तू प्रमा है। तू ज्ञान प्राप्त करनेवाला है। तू एक-दो पदार्थो का नही, अनेक पदार्थों का ज्ञान प्राप्त करने की शक्ति और सामर्थ्य रखता है, अतः तू पृथिवी, अन्तरिक्ष और द्युलोक का ज्ञान प्राप्त कर । पशु-पक्षियों और कीट-पतङ्गों का ज्ञान प्राप्त कर । अधिक से-अधिक ज्ञानी बन। 
२. तू प्रतिमा है। तु पदार्थों की प्रतिकृति करनेवाला है। तू संसार के पदार्थों का निरीक्षण कर और नाना प्रकार के आविष्कार कर । तू सष्टि की नकल कर और अपनी जैवी सृष्टि रच डाल। 
३. तू उन्मा है। तू सृष्टि के पदार्थों की तोल है। विद्वान ही सभ्यता और संस्कृति की तोल, पैमाने, मापक होते हैं। किसी देश की संस्कृति और सभ्यता का अनुमान विद्वानों के शील और सदाचार से ही लगाया जा सकता है। 
४. प्रमा, प्रतिमा और उन्मा होने के कारण मनुष्य सहस्र है, हज़ारों के बराबर है, सब-कुछ है। वह अपने लिए नहीं सोचता, सबके लिए सोचता है। 
५. दुःखियों को सुखी कर । प्रभु तुझे सब प्राणियों के कल्याण के लिए नियुक्त करता है। 

पाप के कारण


न स स्वो दक्षो वरुण ध्रु तिः सा सुरा मन्युविभीदको अचित्तिः।
अस्ति ज्यायान् कनीयस उपारे स्वप्नश्चनेदनृतस्य प्रयोता। 
(ऋ० ७ । ८६ । ६)
शब्दार्थ - (वरण) हे वरण करने योग्य परमात्मन् ! पाप की ओर प्रवृत्त होने में (न सः स्वःदक्षः) मेरा वह स्वकीय बल कारण नहीं है अपितु (सा) वह (सुरा) शराब (ध्रुतिः) वासना, संस्कार (मन्युः) क्रोध (विभीदक:) जुना (अचित्तिः) अज्ञान और (स्वप्नश्चन इत्) आलस्य, प्रमाद-ये सब (ज्यायान्) शक्तिशाली बनकर (कनीयसः) मुझ अल्पशक्तिवाले के (उपारे) समीप (अनृतस्य प्रयोता अस्ति) इनमें से प्रत्येक पाप का, अनर्थ का प्रेरक है। 
भावार्थ- मनुष्य पाप क्यों करता है ? पाप में प्रवृत्ति के अनेक कारण हो सकते हैं। प्रस्तुत मन्त्र में पाप के छह कारणों का निर्देश किया गया है। 
  • १. मनुष्य शराब के नशे में चूर होकर अनेक पाप कर डालता है। 
  • २. अपने पूर्वजन्म के संस्कारों के वशीभूत होकर भी मनुष्य पापः में प्रवृत्त हो जाता है। 
  • ३. क्रोध में आकर भी मनुष्य पाप कर बैठता है । 
  • ४. जुए के व्यसन में फंसकर भी मनुष्य पाप की ओर प्रवृत्त हो जाता है। 
  • ५. अज्ञान और अविवेक के कारण भी मनुष्य पाप-पङ्क में फंस जाता है। 
  • ६. आलस्य और प्रमाद के कारण भी बहुत-से पाप हो जाया करते हैं। 
                                   ये सब दुर्गुण शक्तिशाली बनकर अल्पशक्ति मनुष्य को धर दबाते हैं । इन सबका तो कहना ही क्या, इनमें से एक-एक भी पाप एवं अनर्थ का कारण है, अतः इनसे बचना चाहिए। 

सब-कुछ उसी का


ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत् ।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्य स्विद्धनम् ॥ 
(यजु० ४० । १)
शब्दार्थ- (जगत्याम) इस ब्रह्माण्ड में (यत् किं च) जो कुछ भी (जगत्) जगत् है, गतिशील है (इदं सर्वम्) यह सब (ईशा) सर्वव्यापक परमेश्वर से (वास्यम्) आच्छादित है, बसा हुआ है । (तेन) उस प्रभु के द्वारा (त्यक्तेन) प्रदत्त पदार्थों को त्याग-भाव से (भुञ्जीथा) भोग करो (मा गधः) लालच मत करो (धनम् कस्य स्वित्) धन भला किस का है ? 
भावार्थ - मन्त्र में जीवनोपयोगी चार सुन्दर शिक्षाएँ हैं -
  • १. यह सारा संसार ईश्वर से आच्छादित है। ईश्वर इसमें सर्वत्र बसा हुआ है । वह सारे संसार को थामे हुए है, इसे गति दे रहा है, प्रकाशित कर रहा है। 
  • २. ईश्वर ने इस जगत् को थामा हुआ है, अतः तू चिन्ता मत कर, ईश्वरविश्वासी बन । जो सारे संसार को खिलाता है वह तुझे भी देगा। तू पदार्थों का संग्रह मत कर । ईश्वर-प्रदत्त पदार्थों को त्यागभाव से भोग, संसार में लिप्त मत हो। 
  • ३. लालच मत करो, लोभी मत बनो, दूसरों का धन हड़प करने की योजनाएँ मत बनायो। 
  • ४. यह धन किसका है ? यह धन किसी का नहीं है। यह न "किसीके साथ पाया है और न किसीके साथ जाएगा। 
                                         जीवन में ये चार पाठ पढ़ लिये जाएँ तो मानव-जीवन सुख एवं शान्तिपूर्ण बन सकता है। 

परमात्मा का विभूति


 वनेषु व्यन्तरिक्षं ततान वाजमर्वत्सु पय उस्रियासु ।
हत्सु क्रतुं  वरुणो अप्स्वग्निं दिवि सूर्य मदधात् सोममद्रौ ॥ 
(ऋ० ५। ८५। २)
शब्दार्थ-(वरुणः) वरण करने योग्य परमेश्वर (वनेषु) वनों में (अन्तरिक्षम्) जल को (विततान) फैलाता है (अर्वत्सु) घोड़ों में (वाजम्) बल का प्राधान करता है (उस्रियासु) गौत्रों मे (पयः) दूध रखता है (हृत्सु) मनुष्य के हृदयों में (ऋतुम्) ज्ञान और सकल्प-शक्ति को स्थापित करता है (अप्सु) जलों में (अग्निम्) विद्युत् को (दिवि) द्युलोक में (सूर्यम्) सूर्य को और (अद्रौ) पर्वत पर और मेघों में (सोमम्) सोमलता को, जल को और (अदधात्) धारण करता है, रखता है। 
भावार्थ-१. संसार में जिधर भी दृष्टि डालें, प्रभु की महिमा और विभूति दृष्टिगोचर होती है। वनों को निहारिए ! प्रभु ने इनके भीतर जल की अनन्त राशि फैला रक्खी है। 
२. पशु-जगत् पर दृष्टि डालिए, प्रभु ने घोड़ों में कैसा वेग रख दिया है। गौ तिनकों का भक्षण करती है, फिर हमें अमृत-तुल्य दुग्ध प्रदान करती है। यह सब किसकी महिमा है ? प्रभु की ही तो। 
३. मनुष्य के हृदय में प्रभु ने ज्ञान रख दिया है। ऋग्यजुः, साम और अथर्व चारों वेदों का ज्ञान हृदय में रक्खा हुआ है । ज्ञान के साथ ही कर्म करने की शक्ति भी हममें भर दी है। 
४. जलों पर दृष्टि डालिए। प्रभु ने जलों में अग्नि=विद्युत् स्थापित कर दी है। 
५. ऊपर आकाश पर दष्टि डालिए। सूर्य और चन्द्रमा जैसे गोलों को बिना किसी सहारे के ही किस सुन्दरता से लटका रक्खा है।
६. पर्वतों पर नाना वनस्पतियों उग रही हैं, यह सब प्रभु की ही महिमा है। 

तप और दीक्षा 


भद्रमिच्छन्त ऋषयः स्वविवस्तपो दीक्षामुपनिषेदुरगे।
ततो राष्ट्रं बलमोजश्च जातं तवस्मै देवा उपसंनमन्तु॥ . 
(अथर्व० १९ । ४१ । १)
शब्दार्थ-(भद्रम् इच्छन्तः) कल्याण चाहनेवाले (स्वविद) आत्म सुख  की अनुभूतिवाले (ऋषयः) ऋषि लोग (अग्रे) सबसे पहले (तपः दीक्षाम्) तप और दीक्षा को (उप निषेदु:) प्राप्त करते हैं (ततः) उस तप और दीक्षा से (राष्ट्रम्) राष्ट्र में (बलम्) भौतिक बल तथा (ओजः) आत्मिक बल (जातम्) उत्पन्न होता है। (तत् अस्मै) तब ऐसे राष्ट्र के लिए (देवाः) विद्वान्) लोग (उप सं नमन्तु) झुकते रहें, आदर करते रहें। 
भावार्थ- संसार का कल्याण चाहनेवाले आत्मदर्शी और ऋषि लोग राष्ट्र को उन्नत बनाने के लिए सबसे पूर्व तप और दीक्षा का अवलम्बन लेते हैं। 
                                               तप क्या है ? अपने कर्तव्य कर्म को करते हुए जो बाधाएँ, संकट और कष्ट पाएँ, उन्हें झेलते हुए आगे-ही-आगे बढ़ना। 
                                               दीक्षा का अर्थ है जिस कार्य को सोच-समझकर प्रारम्भ कर दिया उसकी पूर्ति में सिर-धड़ की बाजी लगा देना। 
                                               तप और दीक्षा से राष्ट्र चमक उठता है। यह भौतिक सम्पदाओं से पूर्ण हो जाता है। वहाँ के निवासियों में आत्मिक बल और तेज आ जाता है।
                                              जो व्यक्ति राष्ट्र के लिए जीता है, राष्ट्र के लिए प्राणों को भी बलिदान करने के लिए तैयार रहता है उसका सभी मान और सम्मान करते हैं, बड़े-बड़े व्यक्ति भी उसके पास खिंचे चले आते हैं, दिव्य गुण उसके जीवन में निवास करने लगते हैं। 

पाप को छोड़, सूर्य की भांति चमक 


यथा सूर्यो मुच्यते तमसस्परि रात्रि जहात्युषसश्च न्केतू ।
एवाहं सर्व दुर्भूतं कृत्रं कृत्याकृता कृतं हस्तीव रजो दुरितं जहामि ॥ 
(अथर्व० १० । १ । ३२)
शब्दार्थ- (यथा) जिस प्रकार (सूर्यः) सूर्य (तमसः परि मुच्यते) अन्धकार से मुक्त हो जाता है, वह (रात्रिम) रात्रि को (च) और (उषसः केतून) उषाकाल के ज्ञापक चिह्नों को भी क्रमशः (जहाति) छोड देता है और उदय को प्राप्त होकर चमक उठता है (एवा) इसी प्रकार (अहम) मै (सर्वं दुर्भूतम्) सारी बुराई को (कृत्याकृता) हिंसा करनेवाले के द्वारा (कृतं) की गई (कृत्रम्) हिंसा को (जहामि) छोड़ देता हैं। किस प्रकार ? (इव) जैसे (हस्ती) हाथी (रजः) धूल को उडाकर फेंक देता है उसी प्रकार मैं (दुरितम्) दुराचार को, पाप को त्यागता हूँ। 
भावार्थ- इस मन्त्र में मनुष्यों के लिए आशावाद का सुन्दर संदेश है। वेद का यह सन्देश पतित-अवस्था में पड़े हुए मनुष्य को भी एक बार पुनः उठ खड़े होने का आह्वान है। 
                                            मनुष्य स्खलनशील है। वह गिर सकता है, पतित हो सकता है, फिसल सकता है। परन्तु यदि मनुष्य में साहस और धैर्य हो तो वह उठकर खड़ा हो सकता है। 
                                          वेद ने कैसी सुन्दर उपमाएँ दी हैं ! सूर्य अन्धकार में छिप जाता है, उसे ग्रहण भी लगता है, परन्तु समय पाकर वह रात्रि के अन्धकार को और उषा की पताकाओं को गिराकर पुनः उदित हो जाता है और चमक उठता है। 
                                        जैसे एक हाथी अपनी संड से धूल को उड़ा देता है, इसी प्रकार मनुष्य को भी आशावाद का सहारा लेकर हिंसा करनेवालों के द्वारा की गई हिंसा को, पाप और बुराइयों को परे भगा देना चाहिए। पाप, हिंसा और बुराई में तथा मनुष्य में इतना अन्तर रहना चाहिए जितना अन्धकार और सूर्य में रहता है। 

मुझे ऐश्वर्य से भर दे 


दिवो वा विष्ण उत वा पृथिव्या महो वा विष्ण उरोरन्तरिक्षात।
उभा हि हस्ता वसुना पणस्वा प्रयच्छ दक्षिणावोत सव्याद्विष्णवे त्वा ।। 
(यजु० ५। १९)
शब्दार्थ-हे ऐश्वर्यशालिन् ! मैंने तो अपने-मापको (त्वा विष्णवे) तुझ विष्णु के प्रति समर्पित कर दिया है। तुझे छोड़कर कहाँ जाऊँ और किससे माँगं ! प्रभो ! (उभा हि हस्ता) दोनों ही हाथों को (वसु) ऐश्वर्य से (आ पृणस्व) पूर्ण कर दे, भर दे (विष्णो) हे सर्वव्यापक परमात्मन् ! (वा दिव:) तू चाहे द्युलोक से (उत वा महः पृथिव्याः) चाहे महती पृथिवी से (वा उरोः अन्तरिक्षात्) चाहे विशाल अन्तरिक्ष से, कहीं से भी ला (विष्णो) अन्तर्यामिन् ! (दक्षिणात् उत् सव्यात्) दाईं ओर से और बाई ओर से, दोनों ओर से (आप्रयच्छ) मुझे पूर्णरूपेण भर दे, तृप्त कर दे। 
भावार्थ-मन्त्र में किसी उपासक की भावना का सुन्दर चित्रण 
  • १. प्रभो ! मैंने अपने-आपको तुझे समर्पित कर दिया है, अब सब स्थानों से नाता तोड़कर तेरे साथ नाता जोड़ लिया है। 
  • २. प्रभो ! तुझे छोड़कर, तुझ-से कृपानिधान और दानदाता का त्याग कर और किसके आगे हाथ फैलाऊँ, किससे माँगू! मैं तो तुझसे ही याचना करता हूँ। प्रभो ! मेरे दोनों हाथों को ऐश्वर्य से भर दो। मेरे दोनों हाथों में लड्डू हों। मुझे सांसारिक सुखभोग भी प्राप्त हों और मरने पर मोक्ष-सुख भी मिले।। 
  • ३. प्रभो! तू आकाश से ला या पाताल से, पृथिवी से ला या अन्तरिक्ष से, कहीं से ला और मेरे दोनों हाथों को ऐश्वर्य से भर दे। 

तीन देवियाँ 


इळा सरस्वती मही तिस्रो देवीर्मयोभुवः । 
बहिः सीदन्त्व स्त्रिधः॥
(ऋ० १ । १३ । ९)
शब्दार्थ-(इळा) मातृभाषा (सरस्वती) मातृसभ्यता एवं संस्कृति और (मही) मातृभूमि (तिस्रः देवी:) ये तीनों देवियाँ (मयोभुवः) कल्याण करनेवाली हैं, अतः ये तीनों (अस्रधिः) सम्मान एवं आदर पूर्वक, अहिंसित होती हुई (बर्हिः) अन्तःकरण में, हृदय-मन्दिर में (सीदन्तु) बैठे, विराजमान हों। 
भावार्थ-प्रत्येक मनुष्य को अपनी मातृभाषा में श्रद्धा रखनी चाहिए, अपनी भाषा का आदर करना चाहिए। हम अन्य देशों की भाषाएँ भी सीखें परन्तु अपनी देश-भाषा को प्रमुख गौरव और महत्त्व प्रदान करें। पहले अपनी भाषा का ज्ञान कर फिर अन्य भाषाओं का अभ्यास करें; अपनी भाषा की उपेक्षा और पराई भाषा से प्यार करना घणित है। हम अपना सारा कार्य अपनी मातृभाषा में ही करें, इसी में हमारा गौरव है। 
                                           प्रत्येक मनुष्य को अपनी सभ्यता और संस्कृति से प्यार होना चाहिए। हमारा रहन-सहन, खान-पान, वेश-भूषा, सभी-कुछ अपनी सभ्यता और संस्कृति के अनुकूल होना चाहिए। आज कुछ व्यक्ति पाश्चात्यों का अनुकरण करने में अपना गौरव समझते हैं, यह उनकी भूल है। भारतीय संस्कृति किसी भी संस्कृति से हीन नहीं है, अपितु बढ़-चढ़कर है। भारतीय संस्कृति तो संसार की सर्वप्रथम संस्कृति है। यजुर्वेद ७ । १४ में कहा है . 'सा प्रथमा संस्कृतिविश्ववारा।' हमें अपनी संस्कृति और सभ्यता पर गर्व होना चाहिए। 
                                        प्रत्येक मनुष्य को अपनी मातृ-भूमि से प्रेम होना चाहिए। अपनी मातभूमि के लिए मर-मिटने की भावना होनी चाहिए। 
                                       ये तीनों देवियाँ हमारा कल्याण करनेवाली हैं, अतः हमारे हृदयों में इनके लिए सम्मान होना चाहिए। 

ऋषियों की प्रार्थना 


ऋषियों की प्रार्थना
वयः सुपर्णा उपसेदुरिन्द्रं प्रियमेधा ऋषयो नाधमानाः।
अप ध्वान्तमूर्णहि पूधि चक्षुर्मुमुग्भ्यम्माग्निधयेत्र बद्धान् ॥ 
(ऋ० १० । ७३ । ११)
शब्दार्थ-(सूपर्णा) ज्ञान तथा कर्मरूप शोभन पंखों से युक्त (वयः) पक्षी के समान गतिशील (प्रियमेधा) मेधासम्पन्न (ऋषयः) यथार्थदर्शी, ऋषि (नाधमानाः) प्रार्थना करते हुए (इन्द्रं उप सेदुः) ज्ञान-ज्योति से देदीप्यमान परमपिता परमात्मा के निकट स्थित होते हैं, उसकी उपासना करते हैं। वे प्रभु से प्रार्थना किया करते हैं (ध्वान्तम् अप ऊर्णुहि) अज्ञान-अन्धकार का नाश कर दीजिए (चक्षुःपूधि) हमारे नेत्रों को प्रकाश से पूर्ण कर दीजिए तथा (अस्मान् निधया इव बद्धान) जाल से बँधे हुए के समान हमें मुक्त कीजिए। 
भावार्थ-मेधासम्पन्न, पक्षी की भाँति ज्ञान और कर्मरूपी पंखों से ऊँची उड़ान भरनेवाले ऋषियों की प्रार्थना का इस मन्त्र में चित्रण है। वेद के शब्दों में मनुष्यमात्र का हितकारी ऋषि ही है। ऋषियों की भावना होती है कांटा लगे किसी को तड़पते हैं हम 'अमीर'। 
सारे जहाँ का दर्द हमारे जिगर में है। इसी भाव से भावित होकर ऋषि प्रार्थना करते हैं 
  • १. प्रभो ! हमारे अज्ञान-अन्धकार का नाश कर दीजिए जिससे हम दूसरों को ज्ञान-प्रकाश दे सकें। 
  • २. हमारे नेत्रों में प्रकाश दीजिए, जिससे हम दूसरों के नेत्र खोल सकें। 
  • ३. जाल में बँधे हुए के समान हमें छुड़ाइए जिससे हम अन्यों को मुक्त कर सके।

आदर्शवादी वनों


आदर्शवादी
अमाजरश्चिद्भवथो युवं भगोऽनाशोश्चिदवितारापमस्य चित ।
अन्धस्य चिन्नासत्या कृशस्य चिधुवामिदाभिषजा रुतस्य चित् ॥ 
(ऋ० १० । ३६ । ३)
शब्दार्थ-(नासत्या) कभी असत्य भाषण और असत्याचरण न करनेवाले स्त्री-पुरुषो! (युवम् ) आप दोनों (अमाजरः) वृद्धावस्था तक, आजीवन सङ्गी बनकर (भगः) कल्याणप्रद (भवथः) साधक बनो। आप दोनों (अनाशोः चित्) भूखों के (अपमस्य चित्) निकृष्ट जघन्य, दीनजनों के, नीचों के (अन्धस्य चित्) अन्धों के (कृशस्य चित्) दुर्बल अशक्त के (अवितारा) रक्षक [भवथः] बनो। (युवाम् इत) आप दोनों को ही (रुतस्य चित्) रोग से पीड़ित मनुष्य का (भिषजा) चिकित्सा द्वारा कष्ट दूर करनेवाला (आहुः) कहते हैं। 
भावार्थ- वेद का आदेश है 'कृण्वन्तो विश्वमार्यम्'-सारे संसार को आर्य बनायो। प्रश्न यह है कि संसार आर्य बने कैसे ? धर्म-धर्म चिल्लाने से कोई आर्य नहीं बनता। आचरण को देखकर लोग प्रभा वित होते हैं। गुणों की सुगन्धि मनुष्यों को अपनी ओर खींच लेती है। वे कौन-से गुण हैं जिनसे लोग आपकी ओर आकर्षित हो सकते हैं ? वेद कहता है 
  • १. हे स्त्री-पुरुषो ! तुम असत्यभाषण और असत्याचरण मत करो। जीवन-पर्यन्त कल्याणप्रद पथ के पथिक बने रहो और आप दोनों भूखों के रक्षक बनो, भूखों को भोजन दो। 
  • २. जो नीच हैं उनसे घृणा मत करो, उनकी भी रक्षा करो।
  • ३. जो अन्धे हैं उनके सहायक बनो।
  • ४. जो दुर्बल हैं उनकी रक्षा करो।
  • ५. जो रोगी हैं उनकी चिकित्सा कराम्रो। 
                                           मानवमात्र के सहायक और सेवक बनो। सेवा और प्रेम हैपय जीत लेता है। सेवा और प्रेम से प्रभावित होकर ही मनुष्य किसी 'धर्म को अपनाता है। 
 

प्रेय और श्रेय 


इदमहं रुशन्तं ग्राभं तनूदूषिमपोहामितनू ।
यो भद्रो रोचनस्तमुदचामि ॥
(अथर्व० १४ । १।३८) 
शब्दार्थ-(अहम्) मैं (इदम् रुशन्तम्) इस चमकीले-भड़कीले (तनदूषिम्) शरीर को दूषित करनेवाले (ग्राभम्) संसार-ग्राह को (अप ऊहामि) छोड़ता हूँ, त्यागता हूँ और (यः भद्रः) जो सुखकर तथा कल्याणमय तथा (रोचनः) सुन्दर, कान्तिमय है (तम्) उसको (उत्) उत्कृष्ट जीवनवाला होकर (अचामि) प्राप्त होता हूँ। 
भावार्थ-जीवन के दो मार्ग हैं-प्रेय और श्रेय । मन्त्र में इन दोनों मार्गों का सुन्दर निरूपण है। 
  • १. मन्त्र में संसार की उपमा ग्राह=मगर से दी गई है। यह संसाररूपी ग्राह बहुत ही चमकीला और भड़कीला है। अपनी चमक और दमक से यह लोगों को अपनी ओर आकर्षित कर लेता है। 
  • २. जो मनुष्य इस ग्राह की ओर आकर्षित हो जाते हैं उनका शरीर दूषित हो जाता है.--'भोगे रोगभयम्' (भर्त० वै० ३२)--भोग का परिणाम रोग स्वाभाविक है। 
  • ३. रुश् का अर्थ हिंसा भी है। भोगी संसार-ग्राह के ग्रास बनकर नष्ट-भ्रष्ट और समाप्त हो जाते हैं। यह है प्रेय-मार्ग का वर्णन । 
मन्त्र के उत्तरार्द्ध में श्रेय-मार्ग का वर्णन है। 
  • १. परमात्मा भद्र और कल्याणकारी है। उसे प्राप्त करने के लिए संसार-ग्राह को त्यागना चाहिए। संसार को छोड़ने की आवश्यकता नहीं, उसे ग्राह मत बनने दो। 
  • २. अपने जीवन को उत्कृष्ट बनाना चाहिए। 
  • ३. शान्त, सदाचारी, तपस्वी और जितेन्द्रिय व्यक्ति ही ईश्वर को प्राप्त कर सकता है। 


संगीत से निर्मित ब्राह्मण 


विश्वेभ्यो हि त्वा भुवनेभ्यस्परि त्वष्टाजनत्साम्नः साम्नः कविः।
स ऋणचिदृणया ब्रह्मणस्पतिर्द्वहो हन्ता मह ऋतस्य धर्तरि ।। 
(ऋ० २ । २३ । १७)
शब्दार्थ-हे ब्राह्मण ! (त्वष्टा) जगद्-निर्माता, सच्चे शिल्पकार (कविः) क्रान्तदर्शी परमात्मा ने (विश्वेभ्यः भुवनेभ्यः परि) सम्पूर्ण लोकों से (साम्नः साम्नः) संगीत-तत्त्व लेकर (हि) ही (त्वा) तुझे (अजनत्) उत्पन्न किया, तेरा निर्माण किया। (ब्रह्मणस्पतिः) ब्राह्मण (सः) वह तू, ऐसा तू (ऋणचित्) दूसरों पर उपकारों का भार चिनने वाला है और (ऋणया) अपने ऋण के भार से (द्रुहः) द्रोह का (हन्ता) मारनेवाला है-(महः) महान् (ऋतस्य) ज्ञानरूप ऋण के (धर्तरि) सिर पर ढोए जाने पर। 
भावार्थ-मन्त्र में सच्चे ब्राह्मण का वर्णन है-ईश्वर ने ब्राह्मण की रचना संगीत-तत्त्व से की है। सब लोकों में जहाँ-जहाँ भी संगीत था वहाँ-वहाँ से संगीत लेकर प्रभु ने ब्राह्मण का निर्माण किया । 
                                               संगीत की एक अद्भुत विशेषता है -मार खाकर मीठा बोलना। तबला मीठा बोलता है मार खाकर । बस, यही ब्राह्मण का स्वरूप है । ब्राह्मण दूसरों को मारता है परन्तु कैसे ? ऋण के भार से, अपने उपकारों के बोझ से। सच्चा ब्राह्मण अपकार का बदला उपकार से देता है, वह द्वेषाग्नि को प्रेम-वारि से शान्त करता है। लोग ऐसे व्यक्ति के ऊपर पत्थर फेंकते हैं और वह मिठाई बरसाता है। लोग उसे गालियाँ देते हैं और वह उनके घर मिठाइयों की टोकरियाँ भेजता है। लोग उसे विष पिलाते हैं और वह विषदाताओं को अमृत पिलाता है। महर्षि दयानन्द ऐसे ही ब्राह्मण थे जिन्होंने अपने विषदाता जगन्नाथ को रुपयों की थैली देकर उसका जीवन बचाया था। प्रभो! हमें भी ऐसा ब्राह्मण बनने का सामर्थ्य दो। 

🌷🙏🌹🌺💐 नमस्ते 🌷🙏🌹🌺💐