रविवार, 30 जून 2019

मूर्ति पूजा- समीक्षा | विश्लेषण

🌼मूर्तिपूजा एक आध्यात्मिक,सामाजिक महारोग🌼

✍️पण्डित गंगाप्रसाद उपाध्याय

मूर्ति पूजा

आध्यात्मिक तथा सामाजिक रोगों में सबसे भयानक तथा सबसे अधिक कष्ट-साध्य मूर्तिपूजा की कुप्रथा है। भयानक इसलिए कि स्वयं तो मूर्तिपूजा मनुष्य को ईश्वर-विमुख करती ही है, यह अनेक आडम्बरों, विडम्बनाओं, भ्रमों तथा पाखण्डों की भी जन्मदात्री है। इसकी कष्ट-साध्यता का मुख्य कारण यह है कि रोगी अपने को रोगी होते हुए भी रोगी नहीं समझता। जिस प्रकार मृग-तृष्णिका के जल की तलाश में प्राणी प्यासा दौड़ता रहता है और कभी अपनी आशा को पूरा नहीं कर सकता, इसी प्रकार मूर्तिपूजा उपासक के समक्ष नित्य नये-नये रूप में आध्यात्मिक मृगतृष्णिका का मायाजाल दिखाया करती है और मरण-पर्यन्त उसको सचाई के दर्शन नहीं हो सकते।

प्रायः सभी युगों और सभी देशों के उत्कृष्ट विचारक लोगों को मूर्तिपूजा के दलबल से बचाने का प्रयास करते रहे और उच्च स्वर से उससे बचने की चेतावनी देते रहे, परन्तु मूर्तिपूजा किसी-न-किसी रूप में उनको अपने जाल में फँसाती ही रही। कभी-कभी तो चिकित्सक स्वयं रोगग्रस्त होने से नहीं बच सका।

मूर्तिपूजा एक आध्यात्मिक महारोग है। यह बात सब पर विदित नहीं है। यदि हमको इतनी ही अनुभूति हो जाय तो कुछ तो बचाव अवश्य हो सके। परन्तु जो रोगी रोग को स्वास्थ्य समझता रहे उसको कौन बचा सकता है !
 
                                                मूर्तिपूजा पूजा नहीं, अपितु पूजा का निषेध है, या पूजा शब्द का दुरुपयोग है। यदि पूजा का अर्थ सत्कार है और सत्-कार का अर्थ है - सत् + क अर्थात् सचाई के साथ व्यवहार करना, तो कोई मूर्तिपूजक अपने को पूजक नहीं कह सकता। क्योंकि जो चीज़ जैसी नहीं है, उसको वैसी मानना ही मूर्तिपूजा का ध्येय है और यही उसका असली रूप है। मूर्ति बनाना, मूर्ति को स्थापित करना और मूर्ति पूजना – तीनों व्यापारों में कल्पना का सबसे अधिक भाग है और ऐसी कल्पना का जो सचाई से कोसों दूर है। और दुर्भाग्य यह है कि मूर्ति-पूजक की तो कल्पना-शक्ति भी अविकसित ही रह जाती है; जो कुछ कल्पना का लाभ है वह मूर्ति-निर्माता के ही हिस्से में आता है, और निर्माता को भी अपनी कल्पना-शक्ति का विकास करने के साथ ही वंचना से भी काम लेना पड़ता है। इसलिए मूर्तियों के निर्माता और पुजारियों का चरित्र पूजकों की अपेक्षा कहीं अधिक गिरा हुआ होता है। पुजारी धोखा देता है, पूजक धोखे में फँस जाता है। पूजक चढ़ावा चढ़ाता है और पुजारी उसको ग्रहण करता है। पुजारी मूर्ति के विषय में धोखेबाज़ी की कहानियाँ गढ़ता है और भोला पूजक उस पर विश्वास कर लेता है। इस प्रकार आध्यात्मिक चोरबाज़ारी सदैव जारी रहती है।

हमारे शास्त्र कहते हैं कि 'ऋते ज्ञानान्न मुक्तिः' अर्थात् बिना ज्ञान के मुक्ति नहीं; मूर्ति का पुजारी इससे सर्वथा उलटा उपदेश देता है। वह निरन्तर यही कहता है कि 'वेद पढ़ते ब्रह्मा मर गए, कोई ज्ञान की वृद्धि करके भी तरा है ! तरता वही है जो बिना विचारे देवता का सहारा लेता है। इसलिए मूर्ति के दर्शन करते समय भूल जाओ कि यह मूर्ति है। इसको साक्षात् ईश्वर समझो तभी कल्याण होगा।' आत्मा का मुख्य गुण है - चेतनता अथवा ज्ञान। जिस मूर्तिपूजा से नित्य हमारे ज्ञान के साधनों में बाधा पड़े और अन्ध-विश्वास बढे, उससे अध्यात्म-लाभ कैसे होगा?

                                                     इसके अतिरिक्त मूर्तिपूजा एक सामाजिक रोग भी है। मूर्तिपूजक व्यक्ति और मूर्तिपूजक जातियाँ सदैव सामाजिक सुधार के शत्रु रहे हैं। असत्य-दर्शन और असत्य-भाषण से कभी कोई जाति सामाजिक सुधार में सफल नहीं हो सकती। पुजारी अपने को ईश्वर का दूत या एजेण्ट समझता है। उसी के द्वारा पूजक और पूज्य में सम्बन्ध स्थापित होता है। वह बिचौलिया है। अतः वह अनेक प्रकार की धोखादिही में भाग लेता है। दुनियाभर के सब प्रसिद्ध देवालयों में यात्रियों की आँखों में धूल डालकर रुपया बटोरा जाता है। कहीं कहा जाता है कि देवी रंग बदलती है, कहीं कहा जाता है कि श्रीकष्ण जी ने दातोन की, कहीं कहा जाता है कि देवी भविष्यवाणी बोलती है। इस प्रकार मिथ्या विचारना, मिथ्या बोलना और मिथ्या का प्रचार करना - यह मूर्तिपूजा का प्रतिफल है। मूर्तिपूजा की प्रशंसा में सैकड़ों मिथ्या ग्रंथ रचे गए और उन्होंने लोगों को अपने जाल में फंसाया। धन का लोभ मूर्तिपूजा की बुनियाद है। इसी लोभ के कारण मूर्तिपूजा-गृह बनते हैं और इसी लोभ से प्रेरित होकर बड़े-बड़े ग्रन्थ रचे जाते हैं।

 
मूर्ति पूजा

दो भ्रम हैं जिनके कारण बुद्धिमान् लोग भी मूर्तिपूजा के पक्षपाती हो जाते हैं। प्रथम तो यह कि मूर्तिपूजा से कला बढ़ती है। कलाकारों ने मूर्तिपूजा के कारण ही अपनी कलाओं का प्रदर्शन किया। परन्तु ये लोग भूल जाते हैं कि कलाकारों की विद्या का यह दुरुपयोग था। इसका सदुपयोग किया जा सकता था। परन्तु जब कला के पक्षपातियों पर मूर्तिपूजा का प्रभाव हो गया तो कला का सदुपयोग भी जाता रहा। कलाकारों ने मूर्तियों पर जो कला-विज्ञान व्यय किया, वह धोखेबाज़ी फैलने का साधन बन गया। उसने असली कला बढ़ाई नहीं, अपितु घटा दी। जिस कला से मानव-जाति का सदाचार गिरता हो, वह कभी कला नहीं कहलाई जा सकती।

दूसरा भ्रम यह है कि अज्ञानी लोग मूर्ति को देखकर कुछ तो कर लेते हैं। यदि मन्दिर या मूर्ति न हो तो कोई ईश्वर का नाम भी न ले। परन्तु यह एक भ्रमोत्पादक हेत्वाभास है। यदि मूर्तिपूजा न होती तो लोग वास्तविक ईश्वर के विषय में कभी तो कुछ सोचते! मूर्तिपूजा में फंसे रहने के कारण कोई सोचता तक भी नहीं कि ईश्वर क्या है, उसके गुण, कर्म और स्वभाव क्या है और हम उसकी उपासना कैसे कर सकते हैं।

                                                ऋषि दयानन्द ने [अपने उपदेशक जीवन के] आदि काल से ही मूर्तिपूजा के गढ़े से संसार को बचाने का प्रयास किया और जो प्रबल युक्तियाँ मूर्तिपूजा के विरोध में सत्यार्थप्रकाश में दी गई हैं वे अवश्य ही लोगों को असत्य से छुड़ाने वाली हैं। परन्तु कुछ दिनों से आर्यसमाज कुछ ऐसे झमेलों में फैंस गया है कि उसे वास्तविक सिद्धान्तों के प्रचार का समय नहीं मिलता।

मुझे अत्यन्त हर्ष हुआ कि श्री राजेन्द्र जी ने ‘भारत में मूर्तिपूजा’ नामक पुस्तक लिखी है। आजकल भारतवर्ष में मूर्तिपूजा का संक्रामक रोग बढ़ रहा है और जिन पुराने या नये आचार्यों ने मूर्तिपूजा का ज़ोरदार खण्डन किया, उनके अनुयायी भी अपने इस कर्तव्य से विमुख होकर शनैः-शनैः मूर्तिपूजा के विष का पान करते जा रहे हैं। मैंने पुस्तक को पढ़ा और युक्तियुक्त तथा लाभप्रद पाया। अन्ध-विश्वास पर मुलम्मा करना संसार की अविद्या को बढ़ाता और दुःख का कारण होता है। यह पुस्तक अवश्य ही अन्ध विश्वास को कम करने में सहायक होगी।

 मूर्तिपूजा, वैदिक धर्म और आर्यसमाज 

✍️ पं० मनसारामजी

पाठक महाशयगण ! आज हम आपके सम्मुख यह बतलाना चाहते हैं कि मूर्तिपूजा का अर्थ क्या है और आर्यसमाज मूर्तिपूजा को कहाँ तक स्वीकार करता है तथा सनातनधर्म एवं आर्यसमाज के इस विषय में कहाँ तक मतभेद हैं। इस मूर्तिपूजा का ईश्वर - पूजा के साथ क्या सम्बन्ध है ? इस लेख में हम इन्हीं बातों पर सविस्तर चर्चा करेंगे ।
सर्वप्रथम यह जान लेना आवश्यक है कि मूर्तिपूजा का क्या अर्थ है ? मूर्तिपूजा शब्द दो शब्दों मूर्ति व पूजा से मिलकर बना है। मूर्ति शब्द का अर्थ यह है कि जिस वस्तु में लम्बाई, चौड़ाई, मोटाई, रंग-रूप व भार हो उसे मूर्ति कहते हैं। पूजा शब्द के अर्थ हैं किसी वस्तु का उचित मान, किसी वस्तु की समुचित सुरक्षा तथा किसी वस्तु का उचित उपयोग। वे लोग भूल करते हैं जो यह समझते हैं कि पूजा शब्द के अर्थ धूप, दीप व आरती उतारने के हैं। हम इस सम्बन्ध में कुछ प्रमाण देकर यह सिद्ध करना चाहते हैं कि पूजा के वही अर्थ ठीक हैं जो हमने किये हैं।
मनुस्मृति (🔥 पितृभिभ्रतृिभिश्चैता : पतिभिर्देवरैस्तथा। पूज्या भूषयतिव्याश्च बहुकल्याणमीप्सुभि :॥ - मनु० ३/५५) में लिखा है कि — ‘पति आदि घर के लोगों को चाहिए कि वे भोजन , भूषण व वस्रों से त्रियों की पूजा करें । फिर आगे चलकर मनु (🔥 यन्त्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता। - मनु ३/५६) लिखते हैं कि — ‘जिस गृह में स्त्रियों की पूजा होती है , वह घर फूलता - फलता है। इससे सिद्ध है कि उपर्युक्त प्रमाण में पूजा का अर्थ भोजन, भूषण व वस्रों से स्त्रियों का समुचित सत्कार करना है न कि स्त्रियों को धूप , दीप देकर उनकी आरती उतारना है। संस्कृत साहित्य में पूजा व नमः — ये दोनों शब्द प्रायः समानार्थक हैं। यजुर्वेद के १६वें अध्याय में कुत्तों , चोरों व डाकुओं के लिए नमः शब्द का प्रयोग आता है। शिवपुराण में आता है कि जिस समय पार्वती स्रान कर रहीं थी और गणेशजी पहरा दे रहे थे उस समय शिवजी ने बलपूर्वक घर में प्रविष्ट होना चाहा तो गणेश ने डण्डे से शिवजी की पूजा की। इन प्रमाणों से स्पष्ट सिद्ध हो गया कि पूजा व नमः के अर्थ किसी का समुचित सम्मान , समुचित सुरक्षा तथा समुचित प्रयोग ही है न कि धूप, दीप देकर उनकी आरती उतारना।
इस प्रकार मूर्तिपूजा के अर्थ ये हुए कि किसी लम्बाई, चौड़ाई, मोटाई, रंग, रूप व भार रखनेवाली वस्तु का उचित सत्कार करना, उचित सुरक्षा करना व उचित प्रयोग करना ही मूर्तिपूजा है। यदि इस प्रकार से मापा जाए तो आर्यसमाज को इस मूर्तिपूजा के साथ कोई मतभेद नहीं है। प्रत्युत इस दृष्टि से आर्यसमाज प्रत्येक वस्तु की पूजा को उचित मानता है। उदाहरण के लिए आप पाँव के जूते को ले लीजिए। इसकी यही पूजा है कि इसका सुरक्षा के साथ प्रयोग किया जावे तथा तेल (बूट की पालिश) आदि लगाकर इसकी सदा मरम्मत आदि होती रहे , बस यही जूते की पूजा है। एक पुस्तक की यही पूजा है कि उसकी जिल्द बाँधकर उसे सुरक्षित कर लिया जाए तथा चूहे आदि जन्तुओं से उसकी रक्षा की जाए। सुरुचि से उसका स्वाध्याय किया जावे । इसी प्रकार से प्रत्येक वस्तु के बारे में समझ लेना चाहिए। इस दृष्टि से आर्यसमाज सबकी पूजा करता है तथा इस प्रकार की पूजा पर उसे कोई आपत्ति नहीं है।

◼️ दो प्रकार की मूर्तियाँ — मूर्ति के दो प्रकार होते हैं। एक जड़ मूर्ति जोकि निर्जीव हैं जैसे भूमि, पत्थर, ईट, डण्डा, जूता, उस्तरा, लोहा, चाँदी, सोना, लकड़ी, जल आदि-आदि-संसार के समस्त निर्जीव पदार्थ। दूसरी चेतन मूर्तियाँ जिनमें सब जीवधारी सम्मिलित हैं — जैसे वृक्ष, पशु, पक्षी, मक्खी, मच्छर, मनुष्य आदि संसार के सब जीवधारी। इनकी पूजा भी यही है कि इनका समुचित सत्कार किया जावे। निर्जीवों के बारे में हम उपर उदाहरण दे चुके हैं। जीवधारियों में से जो उपकारक पशु हैं। उनका पालन-पोषण करना व हानिकारक जन्तुओं को उचित दण्ड देना यही उनकी पूजा है। वृक्षों को ले-लीजिए, छोटे वृक्ष जिनको जल की आवश्यकता है उन्हें जल देना, बड़े वृक्षों में से जो लाभदायक हैं उनकी रक्षा आदि करना जो हानिकारक हैं उनको उचित दण्ड देना, उन्हें काट देना ही उनकी पूजा है।
मनुष्यों में जो मनु के कथन के अनुसार साक्षात् मूर्तियाँ माता, पिता, गुरु, आचार्य, भाई, साधु, संन्यासी, महात्मा, पण्डित, विद्वान्, सन्त, राजा, आदि धर्मात्मा लोग हैं उन्हें खिलाना, पिलाना, नहलाना, धुलाना, वस्त्र पहनाना, उनकी सेवा करना और जो दुष्ट, पापी, चोर, डाकू, धूर्त आदि हैं उन्हें उचित दण्ड देना ही पूजा कहलाता है। यदि इस प्रकार से मूर्तिपूजा को स्वीकार किया जाए तो आर्यसमाज को इसके साथ तनिक भी मतभेद नहीं है। इस प्रकार की मूर्तिपूजा को आर्यसमाज वेदानुसार धर्म मानता है।

◼️ अब रह गई चित्रों की चर्चा — वे चाहे लकड़ी, धातु या पाषाण के बने हुए हों और चाहे वे कागजों पर बनाये गये हों उनकी पूजा के बारे में हमारा यह विचार है कि संस्कृत में मन्दिर नाम भवन का है। किसी विशेष आकृति के बनाये हुए भवन का ही नाम मन्दिर नहीं है। प्रत्युत प्रत्येक भवन का नाम मन्दिर है। हमारा विचार है कि प्राचीनकाल में जिन भवनों में बालकों को शिक्षा दी जाती थी उन भवनों में अच्छे-अच्छे विद्वानों अच्छे-अच्छे ऋषियों-मुनियों और वीरों के चित्र रक्खे जाते थे। अध्यापक लोग बालकों को उनका इतिहास पढ़ाते हुए (भूगोल पढ़ाते हुए जैसे मानचित्र दिखाया जाता है) उन चित्रों की ओर संकेत करके बतलाया करते थे कि देखो बेटा ! यह रामचन्द्रजी की मूर्ति है। उन्होंने अपने माता-पिता की आज्ञा का पालन करने हेतु राज्य-सिंहासन तजकर चौदह वर्ष का वनवास स्वीकार किया था। उन्होंने राक्षसों को मारकर अपने देश, अपनी जाति और अपने धर्म का उद्धार किया था। बेटा ! तुम्हें भी श्री रामचन्द्रजी की भाँति ही माता-पिता की आज्ञा का पालन करना चाहिए और अपने देश-धर्म व जाति के लिए उपकार के कार्य करने चाहिएँ और बेटा ! देखो , यह कृष्णजी महाराज का चित्र है। उनके जीवन का उद्देश्य ही यह था कि भले पुरुषों की रक्षा करना और दुष्टों को दण्ड देना तथा धर्म की स्थापना करना उन्होंने अपना समस्त जीवन इन्हीं कार्यों में व्यय कर दिया। बेटा ! तुम्हें भी श्री कृष्णजी की भाँति दीन-दुखी की रक्षा करनी चाहिए, आतताईयों का नाश करना चाहिए और धर्म की रक्षा करनी चाहिए। देखो बेटा ! यह हनुमान्जी की मूर्ति है। ये बड़े स्वामीभक्त तथा बड़े शूरवीर योद्धा थे उन्होंने अपना समस्त जीवन श्री रामचन्द्रजी की सेवा में व्यय कर दिया और उनकी रक्षा के लिए बड़े - बड़े राक्षसों को युद्ध में मारा। बेटा ! तुम्हें भी उन जैसा वीर बनकर अपने स्वामी की सेवा और राक्षसों का नाश करना चाहिए। बेटा ! ये ब्रह्मा , विष्णु व शिव के चित्र हैं । ये बड़े महात्मा व ऋषि लोग थे। उन्होंने अपना सारा जीवन वैदिक धर्म के प्रचार में लगा दिया। बेटा ! तुम्हें भी वैसा ही विद्वान् व महात्मा बनकर संसार में वैदिक धर्म का प्रचार करना चाहिए। इस प्रकार अध्यापक लोग बच्चों को शिक्षा देते हुए ऋषि, मुनि, विद्वान् व शूरवीरों के चित्र दिखाकर उनके जीवन की उपलब्धियाँ बतलाकर बालकों को उपदेश देते थे कि बेटा ! तुम्हें ऐसा ही बनना चाहिए। इसका परिणाम यह होता था कि बच्चे इस प्रकार की शिक्षा से प्रभावित होकर उनके गुणों को ग्रहण करते थे तथा विद्वान्, धर्मात्मा व शूरवीर योद्धा बनते थे। यदि अब भी अपने घरों की सजावट के लिए इस प्रकार के चित्र लगाये जावें व बालकों को इस प्रकार की शिक्षा दी जावे तो आर्यसमाज को तनिक भी आपत्ति नहीं। इस प्रकार की मूर्तियों की यही पूजा है कि इन्हें सुरक्षित रक्खा जावे। यदि इनपर धूलि पड़ जावे तो इन्हें साफ कर दिया जावे तथा इनके द्वारा उन महापुरुषों का इतिहास बताकर बालकों को शिक्षित किया जावे।
                                   यदि इस प्रकार मूर्तिपूजा की जावे तो आर्यसमाज का इसके साथ तनिक भी कोई मतभेद नहीं है, प्रत्युत आर्यसमाज इसे देशोद्धार के लिए आवश्यक समझता है। यह है वास्तविक मूर्तिपूजा जिसकी देश को आवश्यकता है, परन्तु दुर्भाग्य से पौराणिक दल ने इस मूर्तिपूजा का स्वरूप ही बदलकर इसे देश के लिए लाभप्रद बनाने के बजाए हानिकारक बना दिया है। आज यह मूर्तिपूजा देश के लिए विनाश का कारण बन रही है।
इसे किस प्रकार हानिकारक बना रक्खा है, हम इसके सम्बन्ध में आपके सम्मुख सविस्तर तथ्य प्रस्तुत करना चाहते हैं। आप तनिक इनपर विचार

▪️ १ . विद्वानों, शूरवीरों, क्षत्रियों व ऋषियों के चित्रों को विकृत कर दिया है, जिससे देखनेवालों पर बजाए इसके कि अच्छा प्रभाव पड़े विपरीत प्रभाव पड़ता है। जिस हनुमान् को वाल्मीकि रामायण में चारों वेदों का पण्डित तथा व्याकरण का विद्वान् व शूरवीर लिखा गया है उसके मुख को विकृत कर व उसके पीछे पूंछ लगाकर उसे बन्दर बनाकर लोगों के सम्मुख प्रस्तुत कर दिया है तथा जिस गणेश को महाभारत में व्यासजी ने चतुर लेखक बताया है उसके धड़ पर हाथी का सिर लगाकर उपहास का विषय बना दिया है। ब्रह्मा जो चारों वेदों का विद्वान् था उसके धड़ पर चार मुख लगाकर उसके अस्तित्व को ही कल्पित बना दिया गया है ! एक दो नहीं इस प्रकार के बीसियों चित्र हैं जिनकी आकृति को विकृत करके दूषित ढंग से प्रस्तुत किया जाता है जिनसे उपदेश मिलना तो दूर रहा बुद्धिमान् बालक उन्हें अपना पूर्वज मानने में भी लज्जा अनुभव करते हैं। वर्तमान मूर्तिपूजा में यह प्रथम दोष है।

▪️ २ . ऋषि-मुनि व शूरवीरों के जीवन-चरित्रों को इतना कलंकित कर दिया है कि यदि पुराणों को पढ़ा जावे तो कोई ऋषि-मुनि, कोई महात्मा, देवता ऐसा नहीं छोड़ा गया जिसपर कलंक न लगाया गया हो। श्री रामचन्द्र पर मांसाहार का, श्री कृष्णजी पर सुरापान व स्त्रीयों से व्यभिचार करने का, ब्रह्मा पर पुत्री-गमन का, विष्णु पर मातृ- गमन का तथा शिव पर भगिनि-गमन का . . . . . . . . . इस प्रकार प्रत्येक ऋषि व मुनि पर इस प्रकार का दोष लगाया गया है कि उनके चित्रों को दिखाकर उनके जीवन सुनाने से बालकों पर स्वस्थ प्रभाव तो क्या पड़ना था उनके चरित्र भ्रष्ट होने का भय लगा रहता

▪️ ३ . इस प्रकार की मूर्तियाँ मन्दिरों में रक्खी हुई व दीवारों पर खुदी हुई हैं कि जिनसे दर्शकों को चरित्र - हीनता की शिक्षा के अतिरिक्त और कुछ भी प्राप्त नहीं हो सकता। उदाहरण के लिए पार्वती की . . . . . . . में जो शिवलिंग की मूर्ति स्थापित की हुई शिवालों में विद्यमान है उससे दर्शन करनेवाले को चरित्रहीनता के सिवा और क्या शिक्षा मिल सकती है ? जो स्त्रीयाँ शिवालों में पूजा के लिए जाती हैं क्या उनके हृदय के भीतर यह प्रश्न नहीं उठता है कि यह किसकी मूर्ति है। यदि वे पुजारी से पूछे तो पुजारी के पास इसका क्या उत्तर है। यदि हम यह कह दें कि यह मूर्ति व्यभिचार को आरम्भ करने का साधन है तो यह ग़लत न होगा। इसके अतिरिक्त जगन्नाथजी के मन्दिर की दीवारों पर बहुत अधिक संख्या में अश्लील चित्र खुदे हुए हैं जिनमें नग्न स्त्री व पुरुष के समागम की विभिन्न प्रकार की क्रीड़ाएँ दिखाई गई हैं। वर्तमान मन्दिरों में इस प्रकार की सैकड़ों मूर्तियाँ मिलती हैं जो चरित्रहीनता के अतिरिक्त और कोई शिक्षा नहीं दे सकतीं ।

▪️ ४ . जड़ मूर्तियों के साथ चेतन का - सा व्यवहार किया जाता है जैसे खिलाना-पिलाना, वस्त्र पहनाना, पंखा करना, फूल चढ़ाना, सुलाना, जगाना, नहलाना, प्रणाम करना आदि-आदि। जो व्यवहार कि चेतन मूर्तियों के साथ करना उचित होता है वह इन जड़ मूर्तियों के साथ किया जाता है जिसका कि कोई लाभ नहीं है। इस बात को प्रत्येक बुद्धिमान् पुरुष स्वीकार करता है कि जड़ मूर्तियों में खाने-पीने आदि की शक्ति नहीं है। इसलिए इनके साथ इस प्रकार का व्यवहार करना समय को व्यर्थ खोना है। धरती तल पर आपको एक भी प्राणी ऐसा नहीं मिलेगा जो खाता तो हो परन्त मल-विसर्जन न करता हो, परन्तु कितने आश्चर्य की बात है कि शिवालों में इस प्रकार के जन्तु मिल जाते हैं जो ठाकुरजी को भोजन तो प्रतिदिन करवाते हैं, परन्तु शौच एक दिन भी नहीं करवाते , इससे सिद्ध होता है कि वे खाते ही नहीं। फिर भोग भी उल्टा ही लगाते हैं। यह बुद्धि की बात है कि यदि किसी को आँखों द्वारा प्रसन्न करना हो तो सुन्दर वस्तुएँ दिखाओ। मुख द्वारा प्रसन्न करना हो तो राग सुनाओ। भला किसी को लिंग द्वारा प्रसन्न करना हो तो वहाँ लड्डू अथवा फूल क्या काम दे सकते हैं वहाँ तो तदनुकूल पदार्थ की ही आवश्यकता है। कितने शोक की बात है कि भारत में चार करोड़ ऐसे व्यक्ति हैं जो एक समय भोजन करते हैं (यह १९३५ की बात है जब यहाँ अंग्रेजों का शासन था ।), दूसरे समय का भोजन उन्हें प्राप्त नहीं होता। भारत के लाखों अनाथ बच्चे भूख के कारण प्राण त्याग रहे हैं। भारत की लाखों विधवाएँ पापी पेट के कारण अपना सतीत्व व धर्म तजने को विवश हो रही हैं। उनका पालन-पोषण और उनको अन्न , वस्त्र उपलब्ध करवाने की कतई चिन्ता नहीं है, परन्तु सनातनधर्म है कि इन पाषाण-मूर्तियों को भोजन करवाने के लिए एक-एक मन्दिर में सैकड़ों रुपये का भोग लगाते हैं। ठाकुरजी ने तो क्या खाना है। ठाकुरजी के बहाने भोग के पदार्थ को दुकानों में रखकर दो आने पत्तल के भाव से विक्रय करके पुजारी धन बटोरते हैं। यदि इसी पदार्थ को भारत के अनाथ बच्चों के लिए व्यय किया जावे तो भारत का कल्याण हो जावे।

▪️ ५ . अपनी जय व पराजय को व अपनी रक्षा को भी इन्होंने मूर्तियों के भरोसे पर मानकर भारत को दासता की ऐसी कड़ियों में जकड़ दिया कि आज तक भी अभागा भारत स्वराज्य के लिए तड़प रहा है (यह लेख पराधीन भारत में लिखा गया था।)।महमूद गजनवी ने सोमनाथ पर चढ़ाई की। राजपूत हथियार बाँधे लड़ने के लिए तैयार थे, परन्तु पुजारियों ने कहा कि तुम्हें शत्रु के साथ लड़ने की आवश्यकता नहीं , सोमनाथजी स्वयं राक्षसों का विध्वंस करेंगे। परिणाम यह निकला कि राजपूत खड़े मुँह देखते रह गये और मुसलमानों ने मन्दिर को भूमि पर बिछा दिया। मूर्तियों को तोड़ दिया और करोड़ों रुपये के जवाहरात लूट ले | लूट का सारा माल व पुजारियों के बच्चे व बच्चियाँ बन्दी बनाकर गजनी ले जाए गये और भारत के बच्चे व बच्चियाँ दो-दो रुपये में वहाँ बेचे गये। जब औरंगजेब ने काशी के विश्वनाथ के मन्दिर को तोड़ा तो महादेवजी भागकर कूप में कूद गये और आज भी वह कुआँ ज्ञानवापी कूप के नाम से प्रसिद्ध है। भला विचारने की बात है कि यदि महादेवजी कूप में कूदने की बजाए तोप के गोले के समान औरंगजेब की सेना की ओर जाते तो सैकड़ों मुसलमान आक्रमणकारियों को ले मरते परन्तु जाते कैसे ? उनमें तो जड़ होने के कारण जाने की शक्ति ही नहीं है। कूप में गिराना भी पुजारियों की कृपा ही होगी। रक्षा करना तो चेतन का कार्य होता है न कि जड़ मूर्तियों का। आप एक कुत्ते को पालें और उसे दोनों समय भोजन करवाएँ , वह आपका स्वामीभक्त सेवक बनेगा। रात्रि को यदि चोर आवेगा तो भौंककर आपको जगा देगा, परन्तु इन मूर्तियों को लोग जड़ से उखाड़कर ले जाते हैं, ये अपनी ही रक्षा नहीं कर सकतीं औरों की क्या करेंगी।
आपने नहीं देखा कि मालाबार में मन्दिरों की मूर्तियाँ तोड़ी गई तथा हिन्दुओं का वध किया गया और मुसलमान बनाया गया। मुलतान, कोहाट, काश्मीर में यही कुछ हुआ। सैकड़ों मूर्तियाँ तोड़ी गई, सैकड़ों हिन्दुओं का वध किया गया तथा कितने ही जीवित जला दिये गये, परन्तु वे मूर्तियाँ उनकी रक्षा न कर सकीं। सच पूछो तो इस भ्रामक विचार ने हिन्दुओं को नपुंसक बना दिया। यदि हिन्दू इन मूर्तियों का आश्रय न लेकर शूरवीर योद्धाओं की शरण लेते और उन्हें ही खिलाते-पिलाते और उनकी सेवा करते तो वे समय पर कुछ कर दिखाते और हिन्दुओं की रक्षा करते, परन्तु खेद है कि हिन्दुओं ने वीरपूजा न की जिससे दिन-प्रतिदिन विनाश की ओर जा रहे हैं।
इस बात को अनुभव करके ऋषि दयानन्द को कितना दुख हुआ। तनिक उनके शब्द पढ़िए। ऋषि दयानन्दजी सत्यार्थप्रकाश में लिखते हैं —
“ हाय ! क्यों पत्थर की पूजा कर सत्यानाश को प्राप्त हुए ? क्यों परमेश्वर की भक्ति न की ? जो म्लेच्छों के दाँत तोड़ डालते और अपना विजय करते। देखो ! जितनी मूर्तियाँ पूजी हैं, उतनी शूरवीरों की पूजा करते तो भी कितनी रक्षा होती। पुजारियों ने इन पाषाणों की इतनी भक्ति की परन्तु एक भी मूर्ति उन शत्रुओं के सिर पर उड़के न लगी। जो किसी एक शूरवीर पुरुष की मूर्ति के सदृश्य सेवा करते , तो वह अपने सेवकों को यथाशक्ति बचाता, और उन शत्रुओं को मारता। ”

▪️ ६ . जिन मन्दिरों को पाठशालाओं के रूप में प्रयोग करके लोगों में विद्या तथा धर्म का प्रचार करना अभिप्रेत था उन मन्दिरों में भंग व सुल्फा पीना सिखाकर हमारी सन्तान का विनाश किया जा रहा है।
अब तक हमने यह सिद्ध किया है कि मूर्तिपूजा का क्या अर्थ है तथा आर्यसमाज मूर्तिपूजा को कहाँ तक मानता है तथा इसका सनातनधर्म के साथ मूर्तिपूजा-विषय में क्या मतभेद है अर्थात् मूर्तिपूजा में क्या-क्या दोष हैं। अब इसके आगे हम यह बताना चाहते हैं कि किसी भी प्रकार की मूर्तिपूजा का ईशोपासना के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। ईश्वर की पूजा आत्मा के द्वारा योगाभ्यास से ही की जा सकती है। मूर्तियों की पूजा से ईश्वर की प्राप्ति असम्भव है। जो लोग मूर्तिपूजा को ईश्वर की प्राप्ति का साधन मानते हैं, वे भूल करते हैं। हम आगे इसे कुछ और स्पष्ट करना चाहते हैं।

▪️ १ . क्या मूर्ति को ही परमेश्वर मानकर परमेश्वर के स्थान पर उसकी पूजा की जा सकती है ? यह बात कतई नहीं मानी जा सकती। कारण ? हमारे सनातनधर्मी भाई भी अब मूर्ती को परमेश्वर मानना छोड़ चुके हैं। यजुर्वेद के ४०वें अध्याय में लिखा है कि जो व्यक्ति परमेश्वर के स्थान पर प्रकृति की पूजा करता है, वह नरक में जाता है और जो परमेश्वर के स्थान पर प्रकृति की बनी हुई वस्तुओं की पूजा करता है वह महानरक में जाता है। इसलिए यह तो नहीं माना जा सकता है कि मूर्ति परमेश्वर है अथवा उसके स्थान पर मूर्ति की पूजा की जाती है।

▪️ २ . क्या मूर्ति परमेश्वर की है ? यह बात भी नहीं मानी जा सकती, क्योंकि मूर्ति उस वस्तु की बनाई जा सकती है जिसका रंग हो। जिस वस्तु का रंग न हो उसकी मूर्ति नहीं बनाई जा सकती। उदाहरण के लिए आकाश व वायु का रंग नहीं है आज तक किसी भी विद्वान् ने वायु व आकाश की मूर्ति बनाने में सफलता प्राप्त नहीं की फिर ईश्वर की मूर्ति तो बन ही कैसे सकती है ? परमेश्वर तो इनसे भी अधिक सूक्ष्म है। इसीलिए तो यजुर्वेद के बत्तीसवें अध्याय में लिखा है कि उस परमेश्वर की मूर्ति नहीं बन सकती। यदि कोई यह कहे कि परमेश्वर साकार है , इसलिए उसकी मूर्ति बन सकती है तो यह बात मिथ्या है , क्योंकि साकार वस्तु व्यापक नहीं को सकती। वह सीमित होगी और जो वस्तु सीमित होगी उसके गुण-कर्म-स्वभाव भी सीमित होंगे। इसलिए वह सृष्टि-रचना में समर्थ न हो सकेगी। यजुर्वेद के अनेक मन्त्रों में परमात्मा को निराकार व शरीर-रहित ही बताया गया है। यदि कहो कि परमेश्वर संसार में जन्म धारण करता है और जिस शरीर को परमात्मा धारण करता है उसकी मूर्तियाँ हैं तो भी असत्य है , क्योंकि परमेश्वर के जन्म लेने का कोई कारण नहीं बताया जा सकता।
यदि कहो कि भक्तों की रक्षा के लिए , तो यह कारण नहीं हो सकता। परमेश्वर बिना जन्म लिए ही भक्तों की रक्षा कर सकता है और अब भी करता है। यह बात बुद्धिगम्य नहीं है कि एक हाथी को मगरमच्छ नदी में खींच ले तो झट परमेश्वर कूद पड़े और अब सूर्योदय से पूर्व सत्तर सहस्र गौओं के गले पर छुरा रक्खा जावे तो परमेश्वर खरटेि मारता हुआ सोता रहे। इससे सिद्ध हुआ कि यह बात भी मिथ्या ही है कि मूर्ति परमेश्वर की है।
▪️ ३ . क्या मूर्ति में परमेश्वर की पूजा की जाती है ? यह भी ठीक नहीं। मूर्तियों को देखने से मूर्तियों के बनानेवाले कलाकार का विचार आ सकता है न कि परमात्मा का। यदि मूर्तियों के द्वारा परमात्मा की पूजा करनी हो तो परमेश्वर द्वारा निर्मित अनेक मूर्तियाँ मनुष्य, पशु - पक्षी आदि जल-थल में विद्यमान हैं। सूर्य, चन्द्र, तारागण, पृथिवी, पर्वत, सागर आदि सृष्टि की विचित्र रचना आपके सम्मुख है। इनको देखकर परमात्मा की कला का ध्यान करो तथा परमेश्वर की प्रजा की सेवा करके परमात्मा के कृपापात्र बनो अथवा माता-पिता, गुरु-साधु, संन्यासी, योगी-महात्माओं के सत्संग से योगाभ्यास करके परमात्मा का साक्षात् करो। मूर्तियों के द्वारा परमेश्वर को जानने का यही सत्य मार्ग है। पाषाण-मूर्तियों के द्वारा परमात्मा की प्राप्ति असम्भव है ।
हमने आपकी सेवा में यह सिद्ध कर दिया कि मूर्तिपूजा का परमेश्वर की पूजा से कोई सम्बन्ध नहीं है। इसीलिए भागवत् पुराण में लिखा है कि जो परमात्मा के स्थान पर पृथिवी के बने हुए पदार्थों कि पूजा करता है, वह बोझा ढोनेवाला बैल व गधा है। सनातनधर्म स्वयं स्वीकार करता है कि मूर्तिपूजा अज्ञानियों के लिए है, विद्वानों के लिए नहीं, अर्थात् जो अज्ञानी हैं वही मूर्तिपूजा करते हैं , बुद्धिमान् नहीं।
बस परमात्मा की प्राप्ति का यही ठीक मार्ग है कि गुरु के द्वारा योगाभ्यास सीखकर परमात्मा की उपासना कि जावे। यही विधि वेदों में बताई गई है। हमने इस लेख में स्पष्ट कर दिया है कि मूर्तिपूजा का क्या अर्थ है और आर्यसमाज मूर्तिपूजा को कहाँ तक मानता है तथा मूर्तिपूजा में क्या-क्या दोष हैं और कि मूर्तिपूजा का परमात्मा की प्राप्ति के साथ तनिक भी सम्बन्ध नहीं है। हम आशा करते हैं कि बुद्धिमान् लोग हमारे इस लेख को पूर्वाग्रह से ऊपर उठकर पढ़ेंगे और सत्य को स्वीकार करेंगे।

see also: वैदिक साधना पद्धति

स्वामी विवेकानंद और मूर्ति पूजा


मित्रो कुछ लोग मूर्ति पूजा को सही साबित करने के लिए हमेशा एक कहानी भेजते है जो इस प्रकार है:-
स्वामी विवेकानंद को एक राजा ने अपने भवन में बुलाया और बोला, “तुम हिन्दू लोग मूर्ती की पूजा करते हो! मिट्टी, पीतल, पत्थर की मूर्ती का.! पर मैं ये सब नही मानता। ये तो केवल एक पदार्थ है।”
उस राजा के सिंहासन के पीछे किसी आदमी की तस्वीर लगी थी। विवेकानंद जी कि नजर उस तस्वीर पर पड़ी।
विवेकानंद जी ने राजा से पूछा, “राजा जी, ये तस्वीर किसकी है?”
राजा बोला, “मेरे पिताजी की।”
स्वामी जी बोले, “उस तस्वीर को अपने हाथ में लीजिये।”
राज तस्वीर को हाथ मे ले लेता है।
स्वामी जी राजा से : “अब आप उस तस्वीर पर थूकिए!”
 राजा : “ये आप क्या बोल रहे हैं स्वामी जी.? “
स्वामी जी : “मैंने कहा उस तस्वीर पर थूकिए..!”
 राजा (क्रोध से) : “स्वामी जी, आप होश मे तो हैं ना? मैं ये काम नही कर सकता।”
 स्वामी जी बोले, “क्यों? ये तस्वीर तो केवल एक कागज का टुकड़ा है, और जिस पर कूछ रंग लगा है। इसमे ना तो जान है, ना आवाज, ना तो ये सुन सकता है, और ना ही कूछ बोल सकता है।” और स्वामी जी बोलते गए, “इसमें ना ही हड्डी है और ना प्राण। फिर भी आप इस पर कभी थूक नही सकते। क्योंकि आप इसमे अपने पिता का स्वरूप देखते हो। और आप इस तस्वीर का अनादर करना अपने पिता का अनादर करना ही समझते हो।” थोड़े मौन के बाद स्वामी जी आगे कहाँ, “वैसे ही, हम हिंदू भी उन पत्थर, मिट्टी, या धातु की पूजा भगवान का स्वरूप मान कर करते हैं। भगवान तो कण-कण मे है, पर एक आधार मानने के लिए और मन को एकाग्र करने के लिए हम मूर्ती पूजा करते हैं।”
स्वामी जी की बात सुनकर राजा ने स्वामी जी के चरणों में गिर गए।
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इस कहानी की समीक्षा 🚩

ये कहानी अच्छी है, किन्तु एक बात विचारणीय है। स्वामी विवेकानन्द ने राजा से जिस तस्वीर की बात की वह उनके पिता की थी और वे साकार थे अर्थात उस तस्वीर का आकार था इसलिए उनकी मूर्ति तो बन सकती है किन्तु ईश्वर तो निराकार है उनकी मूर्ति कैसे बन सकती है ।
                            दूसरे पिता या महापुरषो की तस्वीर बनाना चाहिए घर पर लगाना चाहिए और उनसे प्रेरणा भी लेना चाहिए किन्तु उस चित्र को जो जड़ है भोजन करवाना आरती उतारना कहा लिखा हैे जेसे अपने घर कोई अतिथि आये और वे भूखे हो और हम अपने एंड्रॉइड फोन से उनकी एक अच्छी फ़ोटो ले और उस फोटो को भोजन कराये तो ये हमारी मूर्खता होगी अतिथि का अपमान भी होगा वेसे ही यदि इनको ईश्वर की जगह पूजेंगे तो ईश्वर का अपमान होगा।क्या आप अपने भोजन पर थूक सकते हैं ??क्या आप जिस बिस्तर पर सोते हैं , उसमे भी थूक सकते हैं ???ऐसे बहुत सारे वस्तु और पदार्थ है जिस पर आप थूक नहीं सकते !!!तो क्या आप पलंग , बिस्तर ,तकिया ,भोजन ,आदि सब की पूजा प्रारम्भ कर दोगे क्या??? और मूर्ति पूजा हमारे धर्म और शास्त्रो में नही है । मूर्ति पूजा , ईश्वर प्राप्ति का साधन नहीं है! ईश्वर प्राप्ति का सिर्फ एक ही मार्ग है; योग(अष्टांग योग) वेद में मूर्ति पूजा का विधान नहीं है | वेद तो घोषणापूर्ण कहते है --
न तस्य प्रतिमा अस्ति यस्य नाम महद्यशः (यजुर्वेद 32/3)
अर्थात जिसका नाम महान यशवाला है उस परमात्मा की कोई मूर्ति , तुलना , प्रतिकृति , प्रतिनिधि नहीं है ।
प्रश्न उत्पन्न होता है कि इस देश में मूर्तिपूजा कब प्रचलित हुई और किसने चलाई ?
महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश के एकादश समुल्लास में प्रश्नोत्तर रूप में इस सम्बन्धमें लिखते है --
प्र ➥ मूर्तिपूजा कहाँ से चली ?
➦ जैनियों से ।
प्र ➥ जैनियों ने कहाँ से चलाई ?
➦ अपनी मूर्खता से ।
पण्डित जवाहरलाल नेहरु के अनुसार , मूर्तिपूजा बौद्धकाल से प्रचलित हुई। वे लिखते है -- "यह एक मनोरंजक विचार है कि मूर्तिपूजा भारत में यूनान से आई । वैदिक धर्म हर प्रकार की मूर्ति तथा प्रतिमा-पूजन का विरोधी था। उस काल ( वैदिकयुग ) में देवमूर्तियों के किसी प्रकार के मंदिर नहीं थे|........प्रारम्भिक बौद्ध धर्म इसका घोर विरोधी था .........बाद में स्वयं बुद्ध की मूर्तियाँ बनने लगी । फ़ारसी तथा उर्दू भाषा मेंप्रतिमा अथवा मूर्ति के लिए अब भी बुत शब्द प्रयुक्त होता है जो बुद्ध का रूपांतर है । " ( हिन्दुस्तान की कहानी -पृ 172)
                    एक अन्य स्थल पर वे लिखते है --"ग्रीस और यूनान आदि देशों में देवताओं की मूर्तियाँ पुजती थीं| वहाँ से भारत में मूर्तिपूजा आई। बौद्धों ने मूर्तिपूजा आरम्भ की। फिर अन्य जगह फ़ैल गई|" ( विश्व इतिहास की झलक - page 694)
                                    इन उद्धरणों से इतना निश्चित है कि मूर्तिपूजा हमारे देश में जैन-बौद्धकाल से आरम्भ हुई।
जिससमय भारत में मूर्तिपूजा आरम्भ हुई और लोग मन्दिरों में जाने लगे तो भारतीय विद्वानों ने इसका घोर खण्डन किया। मूर्तिपूजा खण्डन में उन्होंने यहाँ तक कहाँ --
गजैरापीड्यमानोsपि न गच्छेज्जैनमन्दिरम् (भविष्य पुराण. प्रतिसर्गपर्व 3/28/53)
अर्थात , यदि हाथी मारने लिए दौड़ा आता हो और जैनियों के मन्दिर में जाने से प्राणरक्षा होती हो तो भी जैनियों के मन्दिरमें नहीं जाना चाहिए ।
लेकिन ...ब्राह्मणों , उपदेशकों और विद्वानों के कथन का साधारण जनता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा औरउन लोगों ने भी मन्दिरों का निर्माण किया । जैनियों के मन्दिरों में नग्न मूर्तियाँ होती थी , इन मन्दिरों में भव्यवेश में भूषित हार-श्रृंगारयुक्त मूर्तियों की स्थापना और पूजा होने लगी।
भारत में पुराणों की मान्यता है लेकिन पुराणों में भी मूर्तिपूजा का घोर खण्डन किया गया है ।
यस्यात्मबुद्धिः कुणपे त्रिधातुके ।
स्वधीः कलत्रादिषु भौम इज्यधीः ।।
यत्तीर्थबुद्धिः सलिले न कहिर्चिज् ।
जनेष्वभिज्ञेषु स एव गोखारः ।। 
(श्रीमद भागवत 10-84-13)
अर्थात, जो वात , पित और कफ -तीन मलों से बने हुए शरीर में आत्मबुद्धि रखता है , जो स्त्री आदि में स्वबुद्धि रखता है , जो पृथ्वी से बनी हुई पाषाण -मूर्तियों में पूज्य बुद्धि रखता है , ऐसा व्यक्ति गोखर - गौओं का चारा उठाने वाला गधा है।
न ह्यम्मयानि तीर्थानि न देवा मृच्छिलामयाः ।
ते पुनन्त्यापि कालेन विष्णुभक्ताः क्षणादहो ।।
 (देवी भागवत 9-7-42)
अर्थात , पानी के तीर्थ नहीं होते तथा मिटटी और पत्थर के देवता नहीं होते। विष्णुभक्त तो क्षण मात्र में पवित्र कर देते हैं। परन्तु वे किसी काल में भी मनुष्य को पवित्र नहीं करसकते।
दर्शन शास्त्रों में भी मूर्तिपूजा का निषेध है➨
न प्रतीके न ही सः (वेदान्त दर्शन 4-1-4)
प्रतीक में, मूर्ति आदि में परमात्मा की उपासना नहीं हो सकती , क्योंकि प्रतीक परमात्मा नहीं है ।
संसार के सभी महापुरुषों और सुधारकों ने भी मूर्तिपूजा का खण्डन किया है ।
श्री शंकराचार्य जी परपूजा में लिखते हैं ➨
पूर्णस्यावाहनं कुत्र सर्वाधारस्य चासनम्।
स्वच्छस्य पाद्यमघर्यं च शुद्धस्याचमनं कुतः ।।
निर्लेपस्य कुतो गन्धं पुष्पं निर्वसनस्य च।
निर्गन्धस्य कुतो धूपं स्वप्रकाशस्य दीपकम् ।।
अर्थात, ईश्वर सर्वत्र परिपूर्ण है फिर उसका आह्वान कैसा? जो सर्वाधार है उसके लिए आसन कैसा? जो सर्वथा स्वच्छ एवं पवित्र है उसके लिए पाद्य और अघर्य कैसा? जो शुद्ध है उसके लिए आचमन की क्या आवश्यकता?
निर्लेप ईश्वर को चन्दन लगाने से क्या? जो सुगंध की इच्छा से रहित है उसे पुष्प क्यों चढाते हो?
निर्गंध को धूप क्यों जलाते हो? जो स्वयं प्रकाशमान है उसके समक्ष दीपक क्यों जलाते हो ?
चाणक्य जी लिखते ➨ अग्निहोत्र करना द्विजमात्र का कर्तव्य है | मुनि लोग हृदय में परमात्मा की उपासना करते हैं। अल्प बुद्धि वाले लोग मूर्तिपूजा करते है। बुद्धिमानों के लिए तो सर्वत्र देवता है । (चाणक्य नीति 4-19)
कबीरदास जी कहते है
पाहन पूजे हरि मिले तो हम पूजे पहार ।
ताते तो चाकी भली पीस खाए संसार ।।
दादुजी कहते है
मूर्त गढ़ी पाषण की किया सृजन हार ।
दादू साँच सूझे नहीं यूँ डूबा संसार ।।
गुरुनानकदेव जी का उपदेश है
पात्थर ले पूजहि मुगध गंवार ।
ओहिजा आपि डूबो तुम कहा तारनहार।।
कुछ अज्ञात लोगों के कथन
पत्थर को तू भोग लगावे वह क्या भोजन खावे रे ।
अन्धे आगे दीपक बाले वृथा तेल जलावे रे ।।
यह क्या कर रहे हो किधर जा रहे हो ।
अँधेरे में क्यों ठोकरें खा रहे हो ।।
बनाया है स्वयं जिसको हाथों से अपने ।
गजब है ! प्रभु उसको बतला रहे हो।।
बुतपरस्तों का है दस्तूर निरालादेखो ।
खुद तराशा है मगर नाम खुदा रखा है ।।
सच तो यह है खुदा आखिर खुदा है औरबुत है बुत ।
सोच ! खुद मालूम होगा यह कहाँ और वह कहाँ ।।
महर्षि दयानन्द जी का कथन
"मूर्ति जड़ है , उसे ईश्वर मानोगे तो ईश्वर भी जड़ सिद्ध होगा। अथवा ईश्वर के समान एक और ईश्वर मानो तो परमात्मा का परमात्मापन नहीं रहेगा। यदि कहो कि प्रतिमा में ईश्वर आ जाता है तो ठीक नहीं। इससे ईश्वर अखण्ड सिद्ध नहीं हो सकता। भावना में भगवान् है यह कहो तो मैं कहता हूँ कि काष्ठ खण्ड (लकड़े)में इक्षु दण्ड (गन्ने)की और लोष्ठ(नमक) में मिश्री की भावना करने से क्या मुख मीठा हो सकता है? मृगतृष्णा में मृग जल की बहुतेरी भावना करता है परन्तु उसकी प्यास नहीं बुझती है। विशवास , भावना और कल्पना के साथ सत्य का होना भी आवश्यक है ।" (दयानन्दप्रकाश - पृ 264)
प्रश्न ➥ मूर्ति पूजा सीढ़ी है । मूर्तिपूजा करते-करते मनुष्य ईश्वर तक पहुँच जाता है |
उत्तर ➦ मूर्तिपूजा परमात्मा -प्राप्ति की सीढ़ी नहीं है। सीढ़ी तो गंतव्य स्थान पर पहुँचने के पश्चात छूट जाती है परन्तु हम देखते है कि एक व्यक्ति आठ वर्ष की आयु में मूर्तिपूजा आरम्भ करता है और अस्सी वर्ष की अवस्था में मरते समय तक भी इसी दलदल से निकल नहींपाता ।
एक बच्चा दूसरी कक्षा में पढता है, उसे पाँच और छ का जोड़ करना हो तो वह पहले स्लेट अथवा कापी पर पाँच लकीरे खेंचता है फिर उसके पास छ लकीरे खेंचता है , उन्हें गिनकर वह ग्यारह जोड़ प्राप्त करता है। परन्तु तीसरी अथवा चौथी कक्षा में पहुँचने पर वह उँगलियों पर गिनने लग सकता हैऔर पाँचवी -छठी कक्षा में पहुंचकर वह मानसिक गणित से ही जोड़ लेता है। यदि मूर्तिपूजा सीढ़ी होती तो मूर्तिपूजक उन्नति करते-करते मन में ध्यान करने लग जाते परन्तु ऐसा होता नहीं है , अतः
महर्षि दयानन्द जी ने लिखा है
"नहीं नहीं , मूर्तिपूजा सीढ़ी नहीं किन्तु एक बड़ी खाई है जिसमे गिरकर मनुष्य चकनाचूर हो जाता है , पुनः इस खाई से निकल नहीं सकता किन्तु उसी में मर जाता है ।" ( सत्यार्थ प्रकाश, एकादश समुल्लास, chapter 11)
ईश्वर प्राप्ति की सीढ़ी तो है महर्षि पतंजलि कृत - "अष्टांग योग" -
जिसके अंग - यम , नियम , आसन, प्राणायाम , प्रत्याहार , धारणा, ध्यान और समाधि हैं । विद्वान , ज्ञानी और योगीजन ईश्वर प्राप्ति की सीढियाँ हैं , पाषाण आदि नहीं ।

see also: वेदों में परमेश्वर का स्वरूप

 मूर्तिपूजा परिशिष्ट 

✍️पंडित बुद्धदेव मीरपुरी


▪️मूर्तिपूजा और स्वामी शंकर ▪️

स्वामी शंकराचार्य पौराणिकों में अवतार माने जाते हैं। उपनिषदों तथा शारीरक सूत्रों पर उन्होंने भाष्य भी किया है। वे भी मूर्तिपूजा समर्थक नहीं थे। उन्होंने परापूजा या आत्मपूजा में लिखा है
आनन्दे सच्चिदानन्दे निर्विकल्पैकरूपिणि ।
स्थितेऽद्वितीये भावे वै कथं पूजा विधीयते ।१।
जब वह परमात्मा सच्चिदानन्द है , तब उसकी कोई भी मूर्ति नहीं बन सकती । कारण यह है कि परमात्मा सत , चित तथा आनन्दस्वरूप है और मूर्ति नाश होनेवाली , जड़ और आनन्दरहित है । जब मूर्ति नहीं बनती , पुन : उसकी पूजा कैसे हो सकती है ।
पूर्णस्यावाहनं कुत्र सर्वाधारस्य चासनम् ।
स्वच्छस्य पाद्यमर्घ्यं च शुद्धदस्याचमनं कुत : ।२।
भगवान् सर्वत्र परिपूर्ण हैं , पुन : उनका आह्वान क्यों करते हो? जब वह सबका आधार है, उसको आसन पर कैसे बैठा सकते हैं ? मलरहित के पाँव कैसे धो सकते हो? शुद्ध को आचमन कराना कैसे सङ्गत हो सकता है?
निर्मलस्य कुतः स्नानं वस्त्रं विश्वोदरस्य च ।
निरालम्बस्योपवीतं रम्यस्याभरणां कुतः ।३।
परमात्मा सर्वथा निर्मल है, फिर उसको रुनान आदि क्यों कराते हो , सारा संसार उसके मध्य में है, उसे वस्त्र कैसे पहना सकते हैं। परमात्मा आलम्बन रहित है, फिर उसके लिए यज्ञोपवीत कैसा ? परमात्मा स्वय रमणीय है, पुन : उसके लिए आभूषण कैसे ?
निर्लेपस्य कुतो गन्धं पुष्यं निर्वासनस्य च ।
निर्गन्धस्य कुतो धूपं स्वप्रकाशस्य दीपकम् ।४।
निलेंप भगवान् को चन्दन का लेप क्यों लगाते हो, जब वह सुगन्ध की इच्छा से रहित है, पुन : उसको पुष्प क्यों चढ़ाते हो, निर्गन्ध को धूप क्यों जलाते हो तथा स्वयं प्रकाशमान के आगे दीपक क्यों जलाते हो ?
नित्यतृप्तस्य नैवेद्यं निष्कामस्य फलं कुतः ।
ताम्बूलं च विभो कुत्र नित्यानन्दस्य दक्षिणा ।५।
प्रदक्षिणा ह्यनन्तस्य चाद्वितीयस्य नो नतिः ।६।
नित्यतृप्त को भोग क्यों लगाते हो, निष्काम को फल कैसे, विभु को ताम्बूल क्यों, जब परमात्मा अनन्त है पुन : उसकी प्रदक्षिणा कैसे करते हो ?

उपर्युक्त श्लोकों में स्वामी शंकराचार्य जी ने कैसी प्रबल युक्तियों से मूर्तिपूजा का खण्डन किया है । सर्वत्र परिपूर्ण , पूर्णकाम , फल इच्छारहित , परमात्मा को भोग लगाना , स्नान कराना , कपड़े पहनाना , दीपक दिखलाना आदि अत्यन्त असङ्गत तथा बुद्धिरहित कार्य है

▪️शिवगीता▪️

वेदैरशेषैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्धेदविदेव चाहम्।
न पुण्यपापे मम नास्ति नाशो न जन्मदेहेन्द्रियबुद्धिरस्ति ॥
— अम० ६ . ५५
सम्पूर्ण वेद परमात्मा का गान करते हैं, वेदों का उपदेश परमात्मा ने ही किया है, उस परमात्मा में देह के कारणभूत पाप तथा पुण्य भी नहीं हैं तथा उसका नाश भी नहीं होता। उसका जन्म नहीं होता, देह, इन्द्रिय, बुद्धि आदि का सम्बन्ध भी उससे नहीं है ।
                                       इस श्लोक में यह सिद्ध किया है कि जिस परमात्मा ने वेदों का उपदेश किया है तथा जिसका वर्णन चारों वेदों में किया है वह परमात्मा जन्म - मरण के बन्धन से रहित है तथा उसका शरीर आदि भी नहीं है। जब वह शरीर से रहित है फिर उसकी मूर्ति कैसे बन सकती है?
अज्ञानमूढा मुनयो वदन्ति पूजोपचारादिबलिक्रियाभि:।
तोषं गिरीशे भजतीति मिथ्या कुतस्त्वमूर्तस्य तु भोगलिप्सा ।३१।
अज्ञानी तथा मूढ़ यह कहते हैं कि धूप - दीपादि द्वारा पूजा करने से परमात्मा प्रसन्न हो जाते हैं , यह सब मिथ्या प्रलाप है । जब शरीराभाव से परमात्मा की मूर्ति नहीं है , फिर उसको भोग की इच्छा कैसे हो सकती है ?
किंचिद् दलं वा चुलुकोदकं वा यस्त्वं महेश प्रतिगृह्म दत्से।
त्रेलोक्यलक्ष्मीमपि यज्जनेभ्य: सर्व त्वविद्याकृतमेव मन्ये ।३२।
जो परमात्मा हमें सम्पूर्ण संसार का ऐश्वर्य प्रदान करता है , पुन: उस परमेश्वर को एक चुल्लु पानी चढ़ाना या उसे पत्ते चढ़ाना क्या अज्ञान नहीं है ।

शिवगीताकार कहते हैं ये सब अविद्या की बातें हैं ।

▪️उत्तरगीता का प्रमाण▪️

तीथर्धानि तोयपूणनि देवान् पाषाणामृणमयान् ।
योगिनो न प्रपद्यन्ते आत्मज्ञानपरायणा: ।६।
सब तीर्थ पानी से परिपूर्ण है , सिवाय जल के वहाँ मुक्ति देनेवाली कोई भी बात नहीं है तथा पौराणिक लोगों ने मन्दिरों में जितने भी देवता स्थापित किये हुए हैं वे सब पत्थर या मिट्टी या धातुओं के बने हुए हैं । जो परमात्मा की पूजा करनेवाले योगिजन हैं वे कभी भी इन पाषाणों की पूजा नहीं करते ।
अग्रिदेव द्विजातीनां मुनीनां हृदि दैवतम् ।
प्रतिमा स्वल्पबुद्धीनां सर्वत्र समदर्शिनाम् । -अ०३.७
अग्निहोत्र करना द्विजमात्र का धर्म है तथा मुनियों का कर्तव्य है । कि वे हृदय में परमात्मा का स्मरण करें । अल्पबुद्धि लोग मूर्तिपूजा करते हैं । जो बुद्धिमान हैं वे तो परमात्मा को सर्वव्यापक मानते हुए कभी पाषाणपूजा नहीं करते ।

इन प्रमाणों द्वारा उत्तरगीता में मूर्तिपूजा का कैसा प्रबल खण्डन किया है। जैसे शिवगीता तथा उत्तरगीता में पाषाण आदि की मूर्तियों का खण्डन किया है, वैसे अन्य गीताओं में भी मूर्तिपूजा का खण्डन आता है।


see also: जीवन जीने का उपदेश

देवी-देवताओं की मूर्ति पूजना चाहिए या नहीं?


यह सही है कि सृष्टि की सबसे पुरानी पुस्तक वेद में एक निराकार ईश्वर की उपासना का ही विधान है। चारों वेदों में कोई ऐसा मंत्र नहीं है, जो मूर्ति पूजा का पक्षधर हो,
न तस्य प्रतिमाsअस्ति यस्य नाम महद्यस:। (यजुर्वेद 32/3)
अर्थात: उस ईश्वर की कोई मूर्ति अर्थात प्रतिमा नहीं जिसका महान यश है।
अन्धन्तम: प्र विशन्ति येsसम्भूति मुपासते।
ततो भूयsइव ते तमो यs उसम्भूत्या-रता:।। (यजुर्वेद 40/9)
अर्थात : जो लोग ईश्वर के स्थान पर जड़ प्रकृति या उससे बनी मूर्तियों की पूजा उपासना करते...हैं, वे लोग घोर अंधकार को प्राप्त होते हैं।
जो जन परमेश्वर को छोड़कर किसी अन्य की उपासना करता है वह विद्वानों की दृष्टि में पशु ही है। – (शतपथ ब्राह्मण 14/4/2/22)
यच्चक्षुषा न पश्यति येन चक्षूंषि पश्यन्ति ।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ॥– केनोपनि०॥
अर्थात जो आंख से नहीं दीख पड़ता और जिस से सब आंखें देखती है , उसी को तू ब्रह्म जान और उसी की उपासना कर।... और जो उस से भिन्न सूर्य , विद्युत और अग्नि आदि जड़ पदार्थ है उन की उपासना मत कर॥
भगवान कृष्ण भी कहते हैं- 'जो परमात्मा को अजन्मा और अनादि तथा लोकों का महान ईश्वर, तत्व से जानते हैं वे ही मनुष्यों में ज्ञानवान है। वे सब पापों से मुक्त हो जाते हैं। परमात्मा अनादि और अजन्मा है, परंतु... मनुष्‍य, इतर जीव-जंतु तथा जड़ जगत क्या है? वे सब के सब न अजन्मा है न अनादि। परमात्मा, बुद्धि, तत्वज्ञान, विवेक, क्षमा, सत्य, दम, सुख, दुख, उत्पत्ति और अभाव, भय और अभय, अहिंसा, समता, संतोष, तप, दान,... कीर्ति, अप‍कीर्ति ऐसे ही प्राणियों की नाना प्रकार की भावनाएं परमात्मा से ही होती है।-भ. गीता-10-3,4,5।
जब भगवान कृष्ण कहते हैं कि परमात्मा अजन्मा है, और अमूर्त है फिर उसकी मूर्ति कैसे बन सकती है। यह सही भी है कि आज तक परमात्मा की कोई मूर्ति नहीं बनी है।

see also: दुःख का कारण और निवारण

🌷 क्या मूर्तिपूजा वेद-शास्त्र-विरुद्ध है? 🌷


 🌷 भारत में मूर्ति-पूजा जैनियों ने लगभग तीन हजार वर्ष पूर्व  से चलाई । जिससे उस समय तो आदि शंकरचार्य ने निजात दिला दी परंतु उनके मरते ही उनको भी शिव का अवतार ठहरा कर -पूजा होने लगी । इसी मूर्ति-पूजा के कारण ही इस्लाम की स्थापना हुई थी lजो मूर्ति पूजा का कट्टर विरोद्धी है और संसार से मूर्ति पूजकों और मूर्तियों को नष्ट करने पर तूला है।
                              वेदो में वर्णित परमात्मा न स्त्री हैं न पुरूष है, ना कैलाश पर रहता है , ना सातवें आसमान पर , ना चौथे पर, ना किसी सागर में ओर ना ही किसी शेर पर सवारी करता है, ना किसी गरूड़ पर , ना मोर पर , ना बैल पर ।
                           वह तो कण कण मे है, सर्वव्यापक है। ना सोता है , ना थकता है निरन्तर कर्मशील है , हर पल चेतन है। ना जन्म लेता है और ना मरता है
                          जब समाज वेदो से भटका तो विभिन्न सम्प्रदाय बन गए , सभी ने अपनी अपनी मान्यताएं बना ली , किसी ने ईश्वर को स्त्री मान लिया किसी ने पुरुष और किसी ने बन्दर हाथी साँप शेर।
 हिन्दू भाइयो , सत्य स्वीकार करो, वेद अनुसार जीवन जियो, वेद वर्णित सच्चे परमात्मा की उपासना करो।
                           महर्षि दयानन्द के शब्दों में - मूर्ति-पूजा वैसे है जैसे एक चक्रवर्ती राजा को पूरे राज्य का स्वामी न मानकर एक छोटी सी झोपड़ी का स्वामी मानना ।

  वेदों में परमात्मा का स्वरूप यथा प्रमाण ?:-

 न तस्य प्रतिमाsअस्ति यस्य नाम महद्यस: ।
 (यजुर्वेद ३२/३)

 उस ईश्वर की कोई मूर्ति अर्थात् – प्रतिमा नहीं जिसका महान यश है

  वेनस्त पश्यम् निहितम् गुहायाम  (यजुर्वेद ३२/८)

   विद्वान पुरुष ईश्वर को अपने हृदय में देखते है ।

  अन्धन्तम: प्र विशन्ति येsसम्भूति मुपासते ।ततो भूयsइव ते तमो यs उसम्भूत्या-रता: ।। – (यजुर्वेद  ४०/९)

 अर्थ – जो लोग ईश्वर के स्थान पर जड़ प्रकृति या उससे बनी मूर्तियों की पूजा उपासना करते हैं , वह लोग घोर अंधकार ( दुख ) को प्राप्त होते हैं ।
 हालांकि वेदों के प्रमाण देने के बाद किसी और प्रमाण की जरूरत नहीं परंतु आदि शंकराचार्य , आचार्य चाणक्य से लेकर महर्षि दयानन्द तक सब महान विद्वानों ने इस बुराई की हानियों को देखते हुए इसका सत्य आम जन को बताया ।
   
 यच्चक्षुषा न पश्यति येन चक्षूंषि पश्यन्ति ।तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ॥ – केनोपनि० ॥ – सत्यार्थ प्र० २५४)

 अर्थात जो आंख से नहीं दीख पड़ता और जिसमें से सब आंखें देखती है , उसी को तू ब्रह्म जान और उसी की उपासना कर । और जो उस से भिन्न सूर्य , विद्युत और अग्नि आदि जड़ पदार्थ है, उन की उपासना मत कर ॥

  अधमा प्रतिमा- पूजा ।
  अर्थात् – मूर्ति-प्रतीक पूजा सबसे निकृष्ट (घटीया)है ।

  यष्यात्म बुद्धि कुणपेत्रिधातुके
   स्वधि … स: एव गोखर: ll – (ब्रह्मवैवर्त्त)

 अर्थात् – जो लोग धातु , पत्थर , मिट्टी आदि की मूर्तियों में परमात्मा को पाने का विश्वास तथा जल वाले स्थानों को तीर्थ समझते हैं , वे सभी मनुष्यों में बैलों का चारा ढोने वाले गधे के समान हैं।

  जो जन परमेश्वर को छोड़कर किसी अन्य की उपासना करता है वह विद्वानों की दृष्टि में पशु ही है।– (शतपथ ब्राह्मण१४|४|२|२२)

 मूर्ति-पूजा पर विद्वानों के विचार
  नास्तिको वेदनिन्दक: ॥ मनु० अ० १२
 मनु जी कहते है कि जो वेदों की निन्दा अर्थात अपमान , त्याग , विरुद्धाचरण करता है वह नास्तिक कहाता है ।

  प्रतिमा स्वअल्पबुद्धिनाम ।  (चाणक्य नीति ४/१९)
  अर्थात् – मूर्ति-पूजा मूर्खो के लिए है ।

 मूर्ति पूजक कहते है मूर्ति पूजा एक माध्यम है l
  नहीं नहीं मूर्ति-पूजा कोई सीढी या माध्यम नहीं बल्कि एक गहरी खाई है जिसमें गिरकर मनुष्य चकनाचूर हो जाता है जो पुन: उस खाई से निकल नहीं सकता ।

  (दयानन्द सरस्वती स.प्र. समु. ११ में)
 वेदों में मूर्ति–पूजा निषिद्ध है अर्थात् जो मूर्ति पूजता है वह वेदों को नहीं मानता तथा “ नास्तिको वेद निन्दक: ” अर्थात् मूर्ति-पूजक नास्तिक हैं ।

  संत कबीर जी ने मूर्ति पूजा का विरोध करते हुए करते हुए कहते है l
 पत्थर पूजे हरि मिले तो में पुजू पहाड़ इस तो चक्की भली
 जिससे पीस खाए संसार ll
 यदि पत्थर कि मूर्ती कि पूजा करने से भगवान् मिल जाते तो मैं पहाड़
  कि पूजा कर लेता हूँ. उसकी जगह कोई घर की चक्की की पूजा कोई
 नहीं करता,जिसमे अन्न पीस कर लोग अपना पेट भरते हैं l

 कुछ लोग कहते है,भावना में भगवान होते है । यदि ऐसा है तो मिट्टी में चीनी की भावना करके खाये तो क्या मिट्टी में मिठास का स्वाद मिलेगा ?
 क्या गोबर में हलवे की आस्था रखने से हलवे का स्वाद मिल सकता है ?
 मुर्ति पुजा से समाज में ऐसी कुरीतियाँ चली कि एक नही सैकड़ों अलग अलग देवी देवताओं की मूर्तियों की पुजा होने से धन व समय की बर्बादी के साथ साथ समाज विखंडित हुआ। मनुष्यो आपने मनोरथ पूरे करने के लिए मूर्तियों को इस्तेमाल करने लगे। कर्म फल व्यवस्था में विंशवास टूटने से पाप बड़ने लगा। मुर्ति पूजा बारे लिख कर किसी का मन दुखाना उदेश्य नही बल्कि सभी को शास्त्रों पर अधारित ज्ञान से आवगत करना है।

बाल्मीकि रामायण और मूर्ति पूजा

मूर्ति पूजा

 सभी हिंदू भाइयों में विश्वास है कि श्री राम शिवलिंग की पूजा करते थे इसमें उनका कोई गलती नहीं। असल में आज काल बाल्मीकि रामायण दुर्लभ हो गई है। और जो रामायण ज्यादा से ज्यादा मिलती है वह सब मिलावटी है, उनके काण्ड, सर्ग और श्लोकसंख्या विभिन्नता तथा अनेक अप्रासंगिक एवं प्रकृति नियम विरुद्ध स्थलों को देखते हुए यह सब ही मानते हैं कि अन्य ग्रंथों की भांति इस ग्रंथ में भी प्रक्षिप्त सामग्री की नुन्यता नहीं है। इस समय वाल्मीकि रामायण की दो प्रकार की प्रतियां मिलती है, एक गौड़ वा बंग देश की और दूसरी मुंबई की। मुंबई की प्रति में बंग देश की प्रति से एक कांड (उत्तर काण्ड) १६ सर्ग तथा ४७३५ श्लोक अधिक हैं। इटली भाषा में गौरीसियो (Gorreseo) संस्कृत के प्रसिद्ध विद्वान कृत रामायण का जो अनुवाद मिलता है, उसमें भी उत्तरकाण्डरहित केवल छः काण्ड हैं। इसी प्रकार चम्पु रामायण जो महाराज भोज के समय बनी थी और जिसमें वाल्मीकि रामायण का सार लिखा है, युद्धकाण्ड तक ही है। युद्धकाण्ड समाप्ति पर स्वयं वाल्मीकीय रामायण में रामायण का माहात्म्य वर्णन किया गया है जोकि किसी ग्रंथ के आदि या अन्य में ही लिखा जाता है, सिद्ध करता है कि उत्तरकाण्ड का समावेश पिछे से किया गया है।इस प्रकार उपर्युक्त स्पष्ट प्रक्षिप्त भागों के होते हुए भी समस्त रामायण में सर्वत्र केवल वैदिक यज्ञों का वर्णन है, मूर्ति पूजा का कहीं उल्लेख नहीं है। मनुस्मृति की भांति वाल्मीकि रामायण में भी मांसाहार एवं यज्ञ में पशु बलि दी जाने की पुष्टि तो कुछ प्रक्षिप्त श्लोकों द्वारा अवश्य की गई है, जिसमें वाममार्ग का स्पष्ट हाथ दृष्टिगोचर होता है, किन्तु मूर्ति पूजा विषयक श्लोकों का सर्वथा अभाव, यह सिद्ध करने के लिए प्रर्याप्त है कि जिस समय में प्रक्षिप्त भाग मिलाये गए, उस समय में भी इस देश में मूर्ति पूजा जारी नहीं हुई थी। अतः हमारी यह धारणा कि मूर्ति पूजा का प्रचार इस देश में बौद्ध काल से पूर्व नहीं था, निराधार नहीं है।
आईए आज हम बाल्मीकि रामायण से देखते हैं कि सच में श्री राम ने शिवलिंग का पूजा किया था या नहीं।

                                 कैसे आश्चर्य की बात है कि श्री राम स्वयं संध्योपासना और अग्निहोत्र करें, किन्तु उनके भक्त उनकी मूर्ति पूजा करके अपने आपको कृतकृत्य समझें! बुद्ध के भक्तों ने उनके आदेशों पर न चलकर उनकी मूर्ति की पूजा प्रारम्भ कर दी थी। परन्तु बौद्ध नास्तिक थे उनके समक्ष उनका कोई उपास्य देव नहीं था, अतः उन्होंने यदि ऐसा किया तो अस्वाभाविक नहीं है। दुःख तो राम के भक्तों पर है, जिन्होंने आस्तिक होते हुए भी राम के आदर्शों को न अपनाकर उनके स्थान पर मूर्ति पूजा प्रचलित कर दी।

तुलसीदास कृत रामायण में कुछ स्थलों पर मूर्ति पूजा का वर्णन, तुलसीदास जी की अपनी निजी कल्पना है। वह स्वयं वैष्णव थे, अतः यह स्थल केवल उनके अपने विचारों के ही प्रतिबिंब है; उनका आधार वाल्मिकीकृत रामायण नहीं। न सीता माता ने स्वयंवर के समय देवी की जाकर पूजा की और न राम ने सेतुबंध के अवसर पर रामेश्वर में शिवलिंग की स्थापना अथवा पूजा की। वाल्मिकीय रामायण में इतना वर्णन है कि लंका से विमान द्वारा लौटते समय राम ने सीता से संकेत करके कहा कि यहां महादेव की कृपा से हमने समुद्र का पुल वांधा था —
एतत्तु दृश्यते तीर्थं सागरस्य महात्मनः ।
सेतुबन्ध इति ख्यातं त्रैलोक्यपरिपूजितम् ।
एतत् पवित्रं परमं महापातकनाशनम् ।
अत्र पूर्वं महादेवः प्रसादमकरोत् प्रभुः । युद्ध काण्ड १२३/२०-२१ (reference from Gita press Ramayan)
यह जो बड़े तट दिखाई दे रहा है, को सेतुबंध कहते हैं जो तीनों लोकों में प्रसिद्ध है यह परम पवित्र स्थान है यहां पापियों प्रायश्चित करते हैं, यहां सर्वव्यापक देवताओं में बड़े महादेव परमात्मा मुझे कृपा की थी।

उपर्युक्त श्लोक में कहीं भी शिवलिंग स्थापना तथा उसके पूजन की बात नहीं है। संभवतः महादेव शब्द, जिसका अर्थ है देवों में महान परमात्मा है, को देखकर तुलसीदास जी ने शिवलिंग स्थापना एवं उनकी पूजा की कल्पना कर ली। वैष्णव लोगों का स्वभाव ही ऐसा है संस्कृत तो आती नहीं कुछ भी बोल देते हैं।

[🌲🌳N.B — वाल्मीकि रामायण में यह श्लोक सर्ग ६९/७ में पाया जाता है। वाल्मीकि रामायण में यह श्लोक निम्नलिखित है 👇👇
एतत्तु दृश्यते तीर्थं सेतुबन्ध इति ख्यातम्।
अत्र पूर्वं महादेव: प्रसादमकरोद्विभुः।
अत्र राक्षसराजोऽयमाजगाम विभीषणः।।
भावार्थ— यह समुद्र का किनारा= तट दिखाई दे रहा है जो सेतुबन्ध के नाम से प्रसिद्ध है। यह वह स्थान है जहां पर सर्वव्यापक देवों के देव महादेव परमात्मा ने हमारे ऊपर कृपा की थी। यही वह स्थान है जहां पर राक्षसेश्वर विभीषण मुझसे आकर मिले थे।
वाल्मीकि रामायण में यह शब्द नहीं पाया जाता है 👉 सागरस्य, महात्मनः, त्रैलोक्यपरिपूजितम्, परमं, महापातकनाशनम् ।
कुछ भाष्यकारों के रामायण में यह श्लोक सर्ग १२६/१६ में मिलते हैं। और उन भाष्यकारों ने महादेव का अर्थ जल में अधिष्ठाता देवता कहा है। कारण स्वरुप उन भाष्यकारों ने कहा है कि, लंका जाते समय जो घटनाएं हुई थी, अथवा जो जो कार्य किए गए थे, उनके वर्णन के पूर्वप्रसङ्गों में “महादेव के प्रसन्न” होने की चर्चा न पायी जाने के कारण, प्रत्युत समुद्रजल के अधिष्ठाता देवता का प्रसन्न हो कर सेतु बांधने की सलाह देने का टीकाकार का किया हुआ अर्थ जो उक्त श्लोक के नीचे पाया गया है युक्तियुक्त एवं प्रसङ्गानुकूल जान पड़ता है। क्योंकि, समुद्र पर पुल बांधने के पूर्व शिव जी ने श्रीरामचन्द्र जी के ऊपर क्या कृपा की थी, इसका कुछ भी उल्लेख युद्ध काण्ड में नहीं पाया जाता।
🌲🌳]

हिन्दी भाषा में एक ही श्लोक विभिन्न भाष्यकारों के रामायण में विभिन्न सर्ग में पया जाता है, इससे पता चलता है कि मिलावट अवश्य हुआ है।

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