गुरुवार, 4 अप्रैल 2019

वैदिक धर्म - एक संक्षिप्त परिचय

ओ३म्

वैदिक धर्म का संक्षिप्त परिचय

  • वैदिक धर्म संसार के सब मतों संप्रदायों से अधिक प्राचीन है। यह सृष्टि के प्रारंभ से अर्थात 1960853119 वर्ष से है।
  • संसार भर के दूसरे मत, पंथ या संप्रदाय किसी ना किसी पैगंबर, मसीहा, युगपुरुष, महात्मा आदि के द्वारा प्रवर्तित किए गए हैं, किंतु वैदिक धर्म ईश्वरीय है।
  • वैदिक धर्म में एक, निराकार, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक न्यायकारी, ईश्वर को ही पुज्य=उपास्य माना जाता है, उसी की उपासना की जाती है।
  • ईश्वर अवतार नहीं लेता अर्थात उसको सृष्टि की रचना, पालन और विनाश के लिए शरीर धारण करने की आवश्यकता नहीं होती है।
  • जीव और ईश्वर एक ही नहीं है, बल्कि दोनों अलग अलग है, और प्रकृति इन दोनों से अलग तीसरी वस्तु है। यह तीनों अनादि है।
  • वैदिक धर्म के सब सिद्धांत सृष्टिक्रम के नियमों के अनुकूल है तथा यह सिद्धांत विज्ञान की कसौटी पर खरे उतरते हैं।
  • जिससे मनुष्य दुख से तैर जाता है, उसको तीर्थ कहते हैं। जैसे की विद्या का अध्ययन, यम नियमों का पालन, योगाभ्यास, यज्ञ सत्संग आदि।
  • भूत, प्रेत, डाकिन आदि के प्रचलित स्वरूप को वैदिक धर्म में स्वीकार नहीं किया जाता है, यह सब कल्पना मात्र है और अज्ञानी स्वार्थी व्यक्तियों के द्वारा चलाए गए हैं।
  • स्वर्ग और नरक किसी स्थान विशेष में नहीं होते। जहां सुख है वहां स्वर्ग है जहां दुःख होता है वहां नरक है।
  • स्वर्ग के कोई अलग से देवता नहीं होते। माता, पिता, गुरु विद्वान तथा पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु आदि ही स्वर्ग के देवता होते हैं।
  • राम, कृष्ण, शिव, ब्रह्मा, विष्णु आदि हमारे प्राचीन महापुरुष थे । उनके जीवन चरित्र हमारे लिए प्रेरक एवं अनुकरणीय है।
  • जो जैसा शुभ या अशुभ कर्म करता है उसको वैसा ही सुख या दुःख रूप फल अवश्य मिलता है। ईश्वर किसी भी मनुष्य के पाप को किसी परिस्थिति में क्षमा नहीं करता है।
  • मनुष्य मात्र को वेद पढ़ने का अधिकार है, चाहे वह स्त्री हो या शूद्र।
  • कर्म के आधार पर मानव समाज को चार भागों में बांटा जाता है, जिन्हें चार वर्ण कहते हैं। (१) ब्राह्मण (२) क्षत्रिय (३) वैश्य (४) शूद्र।
  • व्यक्तिगत जीवन को भी चार भागों में बांटा गया है, इन्हें चार आश्रम कहते हैं। 30 वर्ष की अवस्था तक ब्रह्मचर्य आश्रम, 50 वर्ष की अवस्था तक गृहस्थ आश्रम, 75 वर्ष की अवस्था तक वानप्रस्थ आश्रम, इसके आगे संन्यास आश्रम माना गया है।
  • जन्म से कोई भी व्यक्ति ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शुद्र नहीं होता अपने गुण, कर्म, स्वभाव से ब्राम्हण आदि  कहलाते है। चाहे वे किसी के भी घर में उत्पन्न हुए हो।
  • सफाई का काम करनेवाला, चमार आदि कोई भी मनुष्य, जाति या जन्म के कारण उछुत नहीं होता, जो गंदा है वह अछूत है। चाहे वह जन्म से ब्राह्मण हो या शुद्र या और कोई।
  • वैदिक धर्म पुनर्जन्म को मानता है। अच्छे कर्म अधिक करने पर अगले जन्म में मनुष्य का शरीर और बुरे कर्म अधिक करने पर पशु, पक्षी, कीट, पतंग आदि का शरीर मिलता है।
  • वेद के अनुसार उत्तम कर्म करने से व्यक्ति भविष्य में पाप करने से बच सकता है, किंतु किए हुए पाप कर्मों के फल से नहीं बच सकता।
  • पंचमहायज्ञ करना प्रत्येक वैदिक धर्म के लिए अनिवार्य है। (१) ब्रह्मयज्ञ (ईश्वर का उपासना करना) (२) देवयज्ञ (हवन करना) (३) पितृयज्ञ (माता-पिता सास-ससुर आदि की सेवा करना) (४) वलिवैश्वदेवयज्ञ (गाय, कुत्ता, आदि पशु-पक्षी तथा विधवा, अनाथ और विकलांग आदि की अन्य आदि से सेवा/ सहायता करना) (५) अतिथियज्ञ (विद्वान, सन्यासी, उपदेशक आदि से उपदेश ग्रहण करना और उनकी सेवा सत्कार आदि करना)
  • जीवित माता, पिता, गुरु, विद्वान आदि की सेवा करना ही ‘श्राद्ध’ कहलाता है। बड़े वृद्धों को खिला–पिलाकर उन्हें तृप्त करना ही ‘तर्पण’ कहलाता है।
  • मनुष्य के शरीर, मन तथा आत्मा को सुसंस्कारी (उत्तम) बनाने के लिए नामकरण, यज्ञोपवीत इत्यादि सोलह संस्कारों का करना कर्तव्य है।
  • छुआछूत, जाति पाति, जादू टोना, डोरा धागा, ताबीज, शकुन, फलित ज्योतिष, हस्तरेखा, नवग्रह पूजा, मूर्ति पूजा, गंगा आदि नदियों में स्नान करने से पाप छूट जाना, अंधविश्वास, बलि प्रथा, सती प्रथा, मांसाहार, मद्यपान, बहु विवाह इत्यादि वैदिक धर्म में निषेध है।
  • वेद के अनुसार जब मनुष्य सत्य ज्ञान को प्राप्त करके निष्काम भाव से शुभ कर्मों को करता है और शुद्ध उपासना से ईश्वर के साथ सम्वन्ध जोड़ लेता है, तब उसकी अविद्या(=राग–द्वष आदि की वासनाएं) समाप्त हो जाती हैं, तभी जीव की मुक्ति होती है।
  • वैदिक धर्मी मिलने पर परस्पर ‘नमस्ते’ शब्द बोलकर अभिवादन करते हैं।
  • वेद में परमेश्वर के अनेक नामों का निर्देश किया गया है, जिनमें मुख्य नाम ‘ओ३म्’ है।

🌹🌺🌷🍁 नमस्ते 🍁🌷🌺🌹

1 टिप्पणी:

  1. जन्मने न जायते विप्रः,जन्मने ना जायते शूद्रः।
    गर्व से कहो हम आर्य (श्रेष्ठ)हैं।

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