गुरुवार, 30 जनवरी 2020

स्वाध्याय का महत्व

लेखक 👉 स्वामी दीक्षानन्द सरस्वती


स्वाध्याय का महत्व

मनुस्मृति में स्वाध्याय का महत्व


स्वाध्यायेन व्रतैर्होमैस्त्रैविद्येनेज्यया सुतैः।
महायज्ञैश्च यज्ञैश्च ब्राह्मीयं क्रियते तनुः। 
मनुस्मृति 2/28
अर्थ (स्वाध्यायेन) सकल विद्या पढने-पढ़ाने (व्रतैः) ब्रह्मचर्यसत्यभाषणादि नियम पालने (होमैः) अग्निहोत्रादि होम, सत्य का ग्रहण, असत्य का त्याग और सब विद्याओं का दान देने (त्रेविद्येन) वेदस्थ कर्म-उपासना-ज्ञान विद्या के ग्रहण (इज्यया) पक्षेष्टयादि करने (सुतैः) सुसन्तानोत्पत्ति (महायज्ञैः) ब्रह्म, देव, पितृ, वैश्वदेव और अतिथियों के सेवन रूप पंचमहायज्ञ और (यज्ञैः) अग्निष्टोमादि तथा शिल्पविद्याविज्ञानादि यज्ञों के सेवन से (इयं तनुः) इस शरीर को (ब्राह्मीः क्रियते) ब्राह्मी अर्थात् वेद और परमेश्वर की भक्ति का आधार रूप ब्राह्मण का शरीर बनता है । इतने साधनों के बिना ब्राह्मण - शरीर नहीं बन सकता ।’’
नैत्यके नास्त्यनध्यायो ब्रह्मसत्त्रं हि तत्स्मृतम्।
ब्रह्माहुतिहुतं पुण्यं अनध्यायवषट्कृतम् ।
 मनुस्मृति 2/106
अर्थ (नैत्यके अनध्यायः न+अस्ति) नित्यकर्म में अनध्याय नहीं होता जैसे श्वास-प्रश्वास सदा लिये जाते हैं, बन्ध नहीं किये जाते, वैसे नित्यकर्म प्रतिदिन करना चाहिये, न किसी दिन छोड़ना (हि) क्यों कि (अनध्यायवषट्कृतं ब्रह्माहुतिहुतं पुण्यम्) अनध्याय में भी अग्निहोत्रादि उत्तम कर्म किया हुआ पुण्यरूप होता है ।
यः स्वाध्यायं अधीतेऽब्दं विधिना नियतः शुचिः।
तस्य नित्यं क्षरत्येष पयो दधि घृतं मधु । 
मनुस्मृति 2/107
अर्थ (यः) जो व्यक्ति (स्वाध्यायम्) जल वर्षक मेघस्वरूप स्वाध्याय को वेदों का अध्ययन एवं गायत्री का जप, यज्ञ, उपासना आदि (शुचिः) स्वच्छ-पवित्र होकर (नियतः) एकाग्रचित्त होकर (विधिना) विधि-पूर्वक अधीते करता है (तस्य एषः) उसके लिए यह स्वाध्याय (नित्यं सदा पयः दधि घृतं मधु क्षरति) दूध, दही, घी और मधु को बरसाता है ।
वेदमेव सदाभ्यस्येत्तपस्तप्स्यन्द्विजोत्त्मः।
वेदाभ्यासो हि विप्रस्य तपः परमिहोच्यते।।  
मनुस्मृति 2/166
अर्थ (द्विजोत्तमः) द्विजोत्तम अर्थात् ब्राह्मणादिकों में उत्तम सज्जन पुरुष (सदा तपः तप्स्यन्) सर्वकाल तपश्चर्या करता हुआ (वेदम्+एव अभ्यस्येत्) वेद का भी अभ्यास करें (हि) जिस कारण (विप्रस्य) ब्राह्मण वा बुद्धिमान् जन को (वेदाभ्यांसः) वेदाभ्यास करना (इह) इस संसार में (परं तपः उच्यते) परम तप कहा है।
आ हैव स नखाग्रेभ्यः परमं तप्यते तपः।
यः स्रग्व्यपि द्विजोऽधीते स्वाध्यायः शक्तितोऽन्वहम्।।
मनुस्मृति 2/167
अर्थ (यः द्विजः) जो द्विज (स्रग्वी-अपि) माला धारण करके अर्थात् गृहस्थी होकर भी (अनु+अहम्) प्रतिदिन (शक्तितः स्वाध्यायम् अधीते) पूर्ण शक्ति से अर्थात् अधिक से अधिक प्रयत्नपूर्वक वेदों का अध्ययन करता रहता है (सः) वह (आ नखाग्रेभ्यः ह+एव्) निश्चय ही पैरों के नाखून के अग्रभाग तक अर्थात् पूर्णतः (परमं तपः तप्यते) श्रेष्ठ तप करता है।
योऽनधीत्य द्विजो वेदं अन्यत्र कुरुते श्रमम् ।
स जीवन्नेव शूद्रत्वं आशु गच्छति सान्वयः । 
मनुस्मृति 2/168
अर्थ (यः द्विजः) जो ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य (वेदम् अनधीत्य) वेद को न पढ़कर (अन्यत्र श्रमं कुरूते) अन्य शास्त्र में श्रम करता है (सः) वह (जीवन्+एव) जीवता ही (सान्वयः) अपने वंश के सहित (शूद्रत्वं गच्छति) शूद्रपन को प्राप्त हो जाता है ।
सर्वान्परित्यजेदर्थान्स्वाध्यायस्य विरोधिनः ।
यथा तथाध्यापयंस्तु सा ह्यस्य कृतकृत्यता ।।  
मनुस्मृति 4/17
जो स्वाध्याय और धर्मविरोधी व्यवहार वा पदार्थ हैं उन सब को छोड़ देवे जिस किसी प्रकार से विद्या को पढ़ाते रहना ही गृहस्थ को कृतकृत्य होना है ।
वेदं एवाभ्यसेन्नित्यं यथाकालं अतन्द्रितः ।
तं ह्यस्याहुः परं धर्मं उपधर्मोऽन्य उच्यते ।। 
मनुस्मृति 4/147
अर्थ द्विज (नित्यम्) सदा (यथाकालम्) जितना भी अधिक समय लगा सके उसके अनुसार (अतन्द्रितः) आलस्य रहित होकर (वेदम्+एक+अभ्यसेत्) वेद का ही अभ्यास करे (हि) क्योंकि (तम् अस्य परं धर्मम् आहुः) उस वेदाभ्यास को इस द्विज का सर्वोत्तम कर्तव्य कहा है (अन्यः उपघर्म: उच्यते) अन्य सब कर्तव्य गौण हैं ॥
वेदाभ्यासेन सततं शौचेन तपसैव च ।
अद्रोहेण च भूतानां जातिं स्मरति पौर्विकीम् । 
मनुस्मृति 4/148
भावार्थ मनुष्य निरन्तर वेद का अभ्यास करने से आत्मिक तथा शारीरिक पवित्रता से तथा तपस्या से और प्राणियों के साथ द्रोहभावना न रखते हुए अर्थात् अहिंसाभावना रखते हुए पूर्वजन्म की अवस्था को स्मरण कर लेता है ।
पौर्विकीं संस्मरन्जातिं ब्रह्मैवाभ्यस्यते पुनः । 
ब्रह्माभ्यासेन चाजस्रं अनन्तं सुखं अश्नुते ।। 
मनुस्मृति 4/149
भावार्थ पूर्वजन्म की अवस्था का स्मरण करते हुए फिर भी यदि वेद के अभ्यास में लगा रहता है तो निरन्तर वेद का अभ्यास करने से मोक्ष - सुख को प्राप्त कर लेता है ।
सर्वेषां एव दानानां ब्रह्मदानं विशिष्यते ।
वार्यन्नगोमहीवासस् तिलकाञ्चनसर्पिषाम् ।। 
मनुस्मृति 4/233
भावार्थ वारि अर्थात् जल, अन्न, गौ, भूमि, कपड़ा, तिल, सोना तथा घी इन सब दानों में ब्रह्मदान श्रेष्ठ है।   ब्रह्मदान का अर्थ है विद्यादान। विद्यादान में दुरुपयोग का भय नहीं है। इसलिये यह दान न तो देने वाले को दुःख देता है न लेने वाले को। इसलिये इसको सब से श्रेष्ठ दान कहा है।

शतपथ ब्राह्मण में स्वाध्याय का महत्व

अथ ब्रह्मयज्ञ । स्वाध्यायो वै ब्रह्मयज्ञस्तस्य वाऽएतस्य ब्रह्मयज्ञस्य वागेव जुहूमैनऽउपभृच्चक्ष र्ध्रुवा मेधा स्रुवः सत्यमवभृथ स्वर्गो लोकऽउदयन यावन्त हवाइमा पृथिवी वित्तेन पूर्णां ददल्लोक जयति त्रिस्तावन्त जयति भूयांस चाक्षय्यं यऽएवं विद्वानहरह स्वाध्यायमधीते तस्मात्स्वाध्यायोऽध्येतव्य॥
 शतपथ 11/5/6/3
भावार्थ अब ब्रह्मयज्ञ । स्वाध्याय ही ब्रह्मयज्ञ है । इस ब्रह्मयज्ञ की जुहू वाणी है। मन उपभृत है। चक्षु ध्रुवा है, मेधा स्रुवा, सत्य यवभृथ स्नान है। स्वर्ग लोक इमारत है। इस पृथिवी को चाहे कितना ही धन से भर कर दक्षिणा मे देकर इस लोक को जीते उतने से तिगुना या इससे भी अधिक अधक्ष्य नोक को वह विद्वान प्राप्त होता है जो स्वाध्याय करता है। इसलिये स्वाध्याय अवश्य करे।।
"य एवं विद्वान् ऋच: अहरह: स्वाध्यायमधीते पयआहुतिभिरेव तद्देवांस्तर्पयति त ऽ एनं तृप्तास्तर्पयन्ति योगक्षेमेण, प्राणेन, रेतसा, सर्वात्मना, सर्वाभि: पुण्याभि: सम्पद्भिः, घृतकुल्या मधुकुल्या: पितृन् स्वधा अभिवहन्ति ।" 
शतपथ 11/5/6/4
भावार्थ वह विद्वान् जो इस प्रकार वेदचतुष्टय की ऋचारूप हवि का दान करता रहता है, उससे तृप्त होकर देव स्वाध्यायशील व्यक्ति को योगक्षेम, प्राणशक्ति, वीर्यशक्ति, सम्पूर्ण आत्मलाभ, समस्त पुण्यों और सम्पत्ति से युक्त करते हैं और (वानप्रस्थ में) पितरों को भी घृत और मधु की धाराएं पहुंचाते हैं।
तस्माद् अपि ऋचं वा यजुर्वा साम वा गाथां वा कुंब्यां वा अभिव्याहरेद् व्रतस्य अव्यवच्छेदा य" 
शतपथ 11/5/6/9
भावार्थ ऋचा ही सही एक यजुर्मन्त्र ही सही, एक साममन्त्र ही सही, एक गाथा ही सही, व्रत की अखण्डता के लिए कोई एक श्लोक ही दोहरा ले, परन्तु स्वाध्याय में नाग़ा न आने दे । स्वाध्याय-सत्र की अखंडता बनी रहनी चाहिए।
प्रिये स्वाध्याय प्रवचने भवतो युक्तमना भवत्य पराधीनोऽहरह रर्थन्त्साधयते सुख स्वपिति परमचिकित्सक आत्मनो भवतीन्द्रियसंयमश्चकारामता च प्रज्ञावृद्धिर्यशोलोस्पक्तिः प्रज्ञा वर्धमाना चतुरो धर्मान्ब्राह्मणमभिनिष्पादयति। व्राह्मण्यं प्रतिरूपचर्या यशोलोकपक्तिं लोकः पच्यमानश्चतुभिर्धर्मैब्राह्मणं भुनक्ति, अर्चया च दानेन चाज्येयतया चावध्यतया च।।
शतपथ 11/5/7/1
भावार्थ स्वाध्याय और प्रबचन (पढ़ाना) प्रिय होते हैं। यह मननशील, और स्वाधीन हो जाता है, प्रति दिन धन कमाता है सुख से सोता है, अपना परम चिकित्सक है। उस की इंन्द्रिया संयम मे रहती है, एक रस रहता है, उसकी प्रज्ञा बढ़ती है, यश बढ़ता है, और उसके लोग उन्नति करते हैं । प्रज्ञा के बढ़ने से ब्राह्मण सम्बन्धी चार धर्मों को जानता है अर्थात ब्रह्मकुल की नीति, अनुकूल आचरण, यश और स्वजन-वृद्धि । स्वजन वृद्ध होकर भी बाह्मण को चार धर्मों से युक्त करते हैं अर्थात् सत्कार, दान, कोई उसको सताता नहीं। कोई उसको मारता नहीं।।
ये ह वै के च श्रमा: । इमे द्यावा पृथिवोऽअन्तरेण स्वाध्यायो हैव तेषां परमताकाष्ठा यऽएव विद्वान् तस्वाध्यायमधोते तस्मात् सर्व ध्ययोऽध्येतव्य: ।।
 शतपथ 11/5/7/2
भावार्थ इस द्यो और पृथिवी के बीच में जो कुछ श्रम है, स्वाध्याय उन सब का पराकष्ठा है। जो इस रहस्य को जानकर स्वाध्याय करता है उसका यही अन्त है। इसलिए स्वाध्याय करना चाहिए।
यद्यद्ध वाऽअयं च्छन्दसः । स्वाध्यायमधीते तेन तेन हैवास्य यज्ञक्रतुनेष्टं भवति य एवं विद्वान्स्वाध्यायमधीते तस्मात्स्वाध्यायोऽध्येतत्यः ॥
 शतपथ 11/5/7/3
भावार्थ छन्द के जिस जिस भाग का स्वाध्याय करता है, उस उस दृष्टि का उसको फल मिलता है जो इस रहस्य को जान कर यज्ञ करता है । इसलिये स्वाध्याय करना चाहिये ।।

उपनिषदों में स्वाध्याय का महत्व

त्रयो धर्मस्कन्धा यज्ञोऽध्ययनं दानमिति प्रथम।
 (छान्दोग्य उपनिषद 2/23/1)
अर्थ (धर्मस्कन्धाः त्रयः) धर्म के तीन स्कन्ध भाग हैं । (यज्ञः, अध्ययनम्, दानम् इति प्रथमः) यज्ञ, स्वाध्याय और दान यह मिलकर पहला स्कन्ध है ।
एषां भूतानां पृथिवी रसः पृथिव्या आपो रसः । अपामोषधयो रस ओषधीनां पुरुषो रसः पुरुषस्य वाग्रसो वाच ऋग्रस ऋचः साम रसः साम्न उद्गीथो रसः।।
 (छान्दोग्य उपनिषद 1/1/2)
अर्थ (एषाम्) इन (भूतानाम्) पंच्चभूतों का (पृथिवी रसः) समस्त भूतों का सारमय होने से, पृथिवी रस है। (पृथिव्या) पृथिवी का (आपः) जल (रसः) रस-सार है। (अपाम्) जल का (ओषधयः रसः) ओषधि-अन्नादि रस हैं (ओषधीनाम्) औषधियों का (पुरूषः रसः) पुरूष रस है (पुरूषस्य) पुरूष का (वाग् रसः) रस वाणी है (वाचः) वाणी का (ऋग् रसः) ऋचाएँ रस हैं। ऋचः ऋचा का (साम रसः) रस सामगान है। (साम्नः) साम का (उद्गीथः रसः) रस ओंकार है।
वेदमनूच्याचार्योऽन्तेवासिनमनुशास्ति । सत्यं वद । धर्मं चर । स्वाध्यायान्मा प्रमदः । आचार्याय प्रियं धनमाहृत्य प्रजातन्तुं मा व्यवच्छेत्सीः । सत्यान्न प्रमदितव्यम् । धर्मान्न प्रमदितव्यम् । कुशलान्न प्रमदितव्यम् । भूत्यै न प्रमदितव्यम् । स्वाध्यायप्रवचनाभ्यां न प्रमदितव्यम् ॥ 
(तैत्तिरीय उपनिषद शीक्षा० 11/1)
अर्थ (आचार्यः वेदम् अनूच्य अन्तेवासिनम् अनुशास्ति) आचार्य वेद पढ़ाकर, समीप रहने वाले शिष्य को उपदेश करता है। (सत्यं वद) सच बोलो। (धर्म चर) धर्म का आचरण करो। (स्वाध्यायात् मा प्रमदः) स्वाध्याय में प्रसाद न कर। (आचार्याय प्रियम् धनम् आहृत्य) आचार्य के लिए प्रिय धन को लाकर अर्थात् शिक्षा समाप्ति के बाद उचित दक्षिणा देकर (प्रजातन्तुं मा व्यवच्छेत्सीः) प्रजा के सूत्र को मत तोड़ अर्थात् ब्रह्मचर्याश्रम को समाप्त करके गृहस्थाश्रम में प्रवेश कर। (सत्यात् न प्रमदितव्यम्) सच बोलने में प्रमाद न कर। (धर्मात् न प्रमदितव्यम्) धर्म में अर्थात् धर्माचरण करने में आलस्य न कर। (कुशलात् न प्रमदितव्यम्) कुशल जो कुछ उपयोगी और कल्याणप्रद है उस में प्रमाद न कर। (भूत्यै न प्रमदितव्यम्) ऐश्वर्य के बढ़ाने में प्रमाद न कर। (स्वाध्यायप्रवचनाभ्याम् न प्रमदितव्यम्) पढ़ने और पढ़ाने में प्रमाद न कर ।

योग दर्शन में स्वाध्याय का महत्व

शौचसन्तोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः॥ 
योग दर्शन 2/32
अर्थ(शौचसन्तोष) शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वरप्रणिधान, यह (नियमा:) नियम है।।

स्वाध्यायादिष्टदेवता संप्रयोगः ॥
योग दर्शन 2/44
अर्थ (स्वाध्यायात्) स्वाध्याय के सिद्ध होने से (इष्टदेंवतासंप्रयोग:) इष्टदेव परमात्मा का दर्शन होता है।।

विद्या ह वै ब्राह्मणमाजगाम गोपाय मां शेवधिष्टेऽहमस्मि । असूयकायानृजवे । शठाय मा मा ब्रूया वीर्यवती तथा स्याम्॥
 निरुक्त 2/1/4
विद्या ह वै ब्राह्मणमा जगाम'-विद्या ब्राह्मण के पास आकर बोली-'गोपाय मां शेविधिष्टेऽहमस्मि' मेरी रक्षा कर मैं तेरी निधि हूं 'मा ब्रूहि'- मत कहना, मत बताना, मत सुनाना 'असूय काय'-जो डांस करता हो, जिसमें तेजोद्वेष भरा हो; 'अनृज'- जिसमें ऋजुता न हो = सरलता न हो, विनम्रता न हो। कुटिल को मत देना। 'अयताय न मा बूया:"-जो संयमी नहीं है अथवा प्रयत्नशील नहीं है उसे भी मत देना। इसलिये स्वाध्याय परम-निधि है, स्वाध्याय परम-श्रम है, परम-तप है, परम-धर्म है, परम-स्कन्ध है, परम-योग है, परम-यज्ञ है, परम-रस है, परम-दीक्षा है, परम-निधि है।

आश्वलायन-गृह्यसूत्र (३/३/१) ने स्वाध्याय के लिए निम्न ग्रंथों के नाम लिखे हैं-ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, ब्राह्मण, कल्प, गाथा, नाराशंसी, इतिहास एवं पुराण। किन्तु मनोयोगपूर्वक जितना स्वाध्याय किया जा सके उतना ही करे । बस, स्वाध्याय-सत्र को अटूट रखे, उसमें व्यवधान न आने पाए ।शांखायन-गृह्यसूत्र (१/४) में ब्रह्म यज्ञ के लिए ऋग्वेद के बहुत-से सूक्तों एवं मंत्रों के पाठ की बात कही है । अन्य गृह्यसूत्रों ने भी शाखा-वेद के अनुसार ब्रह्म यज्ञ के लिए विभिन्न मंत्रों के पाठ व स्वाध्याय की बात कही है । याज्ञवल्क्य स्मृति (१/१०/१) में लिखा है कि समय एवं योग्यता के अनुसार ब्रह्म यज्ञ में वेदों के साथ इतिहास एवं दर्शनग्रंथ भी पढ़े जा सकते हैं।
                                  उपर्युक्त प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि वेद के अध्ययन के अतिरिक्त अन्य ग्रंथों का अध्ययन भी स्वाध्याय है । समय के अनुसार स्वाध्याय के नियमों में शिथिलता लायी गयी और एकमात्र वेदाध्ययन को ही स्वाध्याय न कहकर अन्य ग्रन्थों को भी समाविष्ट कर लिया गया। यहां तक कि उसमें छ: वेदांगों, आश्वलायनादि-श्रौतसूत्रों, निरुक्त, छन्द,निघण्टु, ज्योतिष, शिक्षा, पाणिनि-व्याकरण के प्रथम सूत्र, यज्ञ-वल्क्य स्मृति (१/१) के प्रथमश्लोकार्ध, महाभारत (१/१/१) के प्रथम श्लोकार्ध, न्याय, पूर्वमीमांसा, उत्तर मीमांसा के प्रथम सूत्र आदि को भी समाविष्ट कर लिया गया। इस ढील देने का यही प्रयोजन दीखता है कि किसी भी अवस्था में स्वाध्याय-सत्र की अखण्डता में अन्तर न आने पाये, इसमें व्यवधान न हो।

महाराज धृतराष्ट्र ने अपने इसी रोग की दुहाई देकर विदुर से पूछा था कि मुझे नींद नहीं आती । सञ्जय ने मुझे अभी तक महाराज युधिष्ठिर का कोई सन्देश नहीं सुनाया, जिससे मेरे शरीर का प्रत्येक अंग जल रहा है, और मुझे उन्निद्र रोग हो गया है । मुझ सन्तप्त और जागरण से पीड़ित व्यक्ति के लिए आप कोई कल्याणकर उपदेश दें। इस पर महामति विदुर ने कुछ दोष गिनवाए और सान्त्वना भरे शब्दों में कहा, "राजन् ! कहीं इन दोषों से आप पीड़ित तो नहीं है ? यदि इसमें से एक भी दोष आप में आया हुआ है तो निश्चय जानो आप इस रोग से पीड़ित रहोगे। क्या कहीं अपने से बलवान के साथ आपका मुकाबिला तो नहीं हो गया है?

आपका बल तो क्षीण नहीं हो गया है? आपके सेना आदि साधन हीन कोटि के तो नहीं हैं ? आपकी संपत्ति तो छिन नहीं गई? काम ने तो नहीं धर दबाया है? कभी भूले-चूके चोरी की इच्छा तो नहीं की? अथवा कहीं पराये धन पर तो गृधदृष्टि नहीं जा टिकी? जिसमें ये लक्षण हों प्राय: उन्हीं का उन्निद्र रोग सताया है ।" विदुर ने यह स्वर्णिम उक्ति कही- अभियुक्तं बलवता दुर्बलं हीनसाधनम्। हतस्वं कामिनं चौरमाविशन्ति प्रजागरा: ॥ कच्चिदेतैर्महादोषैर्न स्पृष्टोसि नराधिप । कच्चिन्न पवित्तेषु गृध्यन् विपरितप्यसे ॥ * (उद्योग पर्व ३३/११-१४)
विदुर द्वारा कहे इन महादोषों का प्रक्षालन स्वाध्यायशील व्यक्ति बहुत आसानी से कर लेता है । फलत: उन्निद्र रोग का कारण हट जाने से अब वास्तविक सुख की नींद सो सकता है।

सहायक ग्रंथ 👉 स्वाध्याय सर्वस्व(दीक्षानन्द सरस्वती)


स्वाध्याय का महत्व

ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका ➤

https://drive.google.com/file/d/1GRGdPkuZKjZPaUwh1K6tS07HNz6_k6zP/view?usp=drivesdk

आर्याभिविनय ➤

https://drive.google.com/file/d/1Ataa2WKBf8hQ_r_CFmmYbXF3Jdx1USGR/view?usp=drivesdk

वैदिक विनय(तृतीय भाग) ➤

https://drive.google.com/file/d/105yXiXIX0SQv8sgC8S6hSdmugB2GOvSb/view?usp=drivesdk

वेद का राष्ट्रीय गीत ➤

https://drive.google.com/file/d/1W8d4hVZh-AwD5gtRPwcP5FPti9ftyio5/view?usp=drivesdk

वेदामृत ➤

https://drive.google.com/file/d/1aWboyBlaxpUNF8emO9iIilnsPZPfM_cK/view?usp=drivesdk

स्वाध्याय सन्दोह ➤

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सोम सरोवर ➤

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वैदिक ब्रह्मचर्य गीत ➤

https://drive.google.com/file/d/1KYpxhd84Gtiq70mXf5jIIjosSeS1VKkJ/view?usp=drivesdk

वेदों का यथार्थ स्वरूप ➤

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वैदिक सम्पत्ति ➤

https://drive.google.com/file/d/0B1giLrdkKjfRU29jVkVNRW9tQTA/view?usp=drivesdk

संध्या सुमन ➤

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संध्या रहस्य ➤

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एकादशोपनिषद ➤

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उपनिषद मन्दाकिनी ➤

https://drive.google.com/file/d/0B1giLrdkKjfRMFBUSnJHWGZQNHc/view?usp=drivesdk

आत्मदर्शन ➤

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धर्म इतिहास रहस्य ➤

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उरू ज्योति ➤

https://drive.google.com/file/d/1LA9RQeOdUKRxc6Ve4XUl9fNZahHxQNkt/view?usp=drivesdk

अध्यात्मप्रसाद ➤

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कायाकल्प ➤

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धर्म सुधा सार ➤

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गृहस्थ धर्म आर्य जीवन ➤

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धर्म का आदि स्तोत्र ➤

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आनन्द संग्रह ➤

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मैं और मेरा भगवान ➤

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मनु की देन ➤

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ईश्वर बहिष्कार का प्रयत्न ➤

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आर्य दर्शन ➤

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धर्म शिक्षा ➤

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तत्वज्ञान ➤

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अपने भाग्य निर्माता आप ➤

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मनुस्मृति गर्जना ➤

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प्राचीन भारत के वैज्ञानिक कर्णधार ➤

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प्राचीन भारत में रसायनिक विकास ➤

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यज्ञविधि ➤

https://drive.google.com/file/d/12NVD3TPN3p7PSljTU_IzY-XybJ1oCLRV/view?usp=drivesdk

आर्षविज्ञान ➤

https://drive.google.com/file/d/13RHGXvtcUuEngM3zLe4_hnB9oI39gLF-/view?usp=drivesdk

संध्यालोक ➤

https://drive.google.com/file/d/1SrJ9C7rS3_lLu_ThcE8KzK5jWRvJkUJH/view?usp=drivesdk

देव यज्ञ पर अध्यात्मिक दृष्टि ➤

https://drive.google.com/file/d/1EIq7Xw6phrHJu6kxG32vNCvBuC-QVLzl/view?usp=drivesdk

मेरा धर्म ➤

https://drive.google.com/file/d/17S-1kcEKT0YHdpDVmDPOmZ6jPshB5d8X/view?usp=drivesdk

आत्मदर्शन ➤

https://drive.google.com/file/d/12OxLMlz7pMX6voZHW4CCh1Sr11m8beZS/view?usp=drivesdk

मौलिक भेद ➤

https://drive.google.com/file/d/1fsKieP0aFdlntvPeJAVDX46iwAGF3nJS/view?usp=drivesdk

सृष्टि की कथा ➤

https://drive.google.com/file/d/1rqNkvP_IEJgQ3jQ_ZRR7nuyv-pgEiqvJ/view?usp=drivesdk

वेद स्वाध्याय प्रदीपिका ➤

https://drive.google.com/file/d/1IolALPQfhcRLiuzuDYMQ3rrpW5wU7DUR/view?usp=drivesdk

वेद विद्या निदर्शन ➤

https://drive.google.com/file/d/1I_MOrrsVwQvi569eiC-x8xQkOrgzSnyY/view?usp=drivesdk

आर्य दर्शन ➤

https://drive.google.com/file/d/1fMd3rO8GkGRA5pOipwDoLCcUeTb7sKIV/view?usp=drivesdk

ब्राह्मण की गौ ➤

https://drive.google.com/file/d/1paQab6sZ4HIt10tzct-HzLRpvo_YiNhB/view?usp=drivesdk

वैदिक सिद्धान्त ➤

https://drive.google.com/file/d/1xCVvpuWOGEbuKBL522FkPxT-SHYBUi6V/view?usp=drivesdk

 

🌷🌷🌷🙏🙏🙏 नमस्ते 🙏🙏🙏🌷🌷🌷

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