शुक्रवार, 7 जून 2019

वेदों में परमेश्वर का स्वरूप

संकलक👉 शुभंकर मण्डल


वेदों में परमेश्वर का स्वरूप

१. "सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत्।
दिवं च पृथिवीं चान्तरिक्षमथो स्वः॥" (ऋग्वेद १०/१९०/३)
भावार्थ➨ विधाता अर्थात ईश्वर सूर्य चंद्र पृथ्वी अंतरिक्ष और अन्य समस्त लोकों को पहले की तरह सृष्टि किया है। अर्थात ईश्वर कल्प कल्पान्तरों में ऐसे ही सृष्टि की रचना करते हैं। ईश्वर अनादि और अनन्त।
२. "यः पृथिवीं व्यथमानामदृंहद्यः पर्वतान्प्रकुपिताँ अरम्णात्।
यो अन्तरिक्षं विममे वरीयो यो द्यामस्तभ्नात्स जनास इन्द्रः॥" (ऋग्वेद २/१२/२)
शव्दार्थ➠ हे (जनासः) विद्वान लोग! (यः) जो (व्यथमानाम) घूर्णायमान (पृथिवीं) पृथिवी को (अदृंहत्) धारण किया हुआ है (यः) जो (प्रकुपितान्) अत्यन्त कोपयुक्त शत्रुओं के समान वर्तमान (पर्वतान) मेघको (अरम्णात्) छिन्न भिन्न करते हैं (यः) जो (वरीयः) अत्यन्त विस्तार युक्त (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्ष के (विममे) विशेषता अनुमान करता है (यः) जो (द्दाम्) प्रकाश को (अस्तभ्नात्) धारण करता है (सः) वह (इन्द्रः) ऐश्वर्यशाली।
३. "त्राता नो बोधि ददृशान आपिरभिख्याता मर्डिता सोम्यानाम्।
 सखा पिता पितृतमः पितॄणां कर्तेमु लोकमुशते वयोधाः॥" (ऋग्वेद ४/१७/१७)
शव्दार्थ➠ (नः) हमको (त्राता) रक्षा करनेवाला (ददृशानः) उत्तम प्रकार दर्शनकारी (आपिः) व्यप्त (अभिख्याता) सम्मुख अंतर्यामी उपदेश दानकारी (मर्डिता) सुखदाता (सखा) मित्र (पिता) पालक (पितृतमः) संसार के जो रक्षक वहीं सर्वश्रेष्ठ रक्षक (कर्ता) वही कर्ता (उम्र उ) निश्चित रूप से (उशते) हमारे लिए (वयोधाः) दीर्घ जीवन और सम्पत्ति दाता।
४. "ध्रुवं ज्योतिर्निहितं दृशये कं मनो जविष्ठं पतयत्स्वन्तः।
विश्वे देवा समनसः सकेता एकं क्रतुमभि वि यन्ति साधु॥"(ऋग्वेद ६/९/५)
भावार्थ➨ परमेश्वर ध्रुव सत्य जिसका मन सुख स्वरूप अर्थात सच्चिदानन्द। संपूर्ण विद्वान वही एक परमात्मा की उपासना करते हैं।
५. "स पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमस्नाविरं शुद्धमपापविद्धम्।
 कविर्मनीषी परिभूः स्वयम्भूर्याथातथ्यतोर्थान्व्यदधाच्छाश्वतीभ्यः समाभ्यः॥"(यजुर्वेद ४०/८)
शव्दार्थ➠ हे मनुष्यो! जो ब्रह्म (शुक्रम्) सर्वशक्तिमान्, स्वच्छ, निर्मल (अकायम्) स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीररहित (अव्रणम्) छिद्ररहित, त्रुटिरहित (अस्नाविरम्) नाड़ी आदि के साथ सम्बन्धरूप बन्धन से रहित (शुद्धम्) सदा पवित्र (अपापविद्धम्) जो पापयुक्त, पापकारी और पाप में प्रीति करनेवाला कभी नहीं होता (परि, अगात्) सब ओर से व्याप्त जो (कविः) ज्ञानवान (मनीषी) सब जीवों के मनों की वृत्तियों को जाननेवाला (परिभूः) समस्त संसार को घेरा हुआ है और (स्वयम्भूः) स्वयम्भू (शाश्वतीभ्यः समाभ्यः) शाश्वत, नित्य, अजर, अमर प्रजाओं के लिये (व्यदधात्) विशेष कर बनाता है, (याथातथ्यतः) यथार्थ भाव से (अर्थान्) वेद द्वारा सब पदार्थों को (सः) वही परमेश्वर है।
इस मंत्र के अनुसार ईश्वर सर्वशक्तिमान स्थूल, सूक्ष्म और कारण यह तीन शरीर रहित, छिद्र रहित, नस नाड़ी के बन्धन रहित। सर्वत्र विराजमान, स्वच्छ, निर्मल, निराकार, त्रुटि रहित, अजन्मा, शुद्ध, पवित्र, अजर, अमर, नित्य, शाश्र्वत।
६. "वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं तमस: परस्तात्।
तमेव विदित्वाति मृत्युमेति नान्य: पन्था विद्यतेऽयनाय॥"(यजुर्वेद ३१/१८)
भावार्थ➨ मैं इस आदित्य के समान महान प्रकाशस्वरूप परमेश्वर को जानता हूं, जो कि अविद्या अंधकार से सर्वथा प्रकट है। केवल उस ब्रह्म को जानकर ही मनुष्य और योगीजन मृत्यु को तैरकर अमृतत्व अर्थात मोक्ष को प्राप्त कर सकते हैं अन्य कोई मार्ग मोक्ष प्राप्ति का है ही नहीं।
७. "मा मा हिंसीज्जनिता य: पृथिव्या यो वा दिवं सत्यधर्मा व्यानट्।
यश्चापश्चन्द्रा: प्रथमो जजान कस्मै देवाय हविषा विधेम॥"(यजुर्वेद १२/१०२)
भावार्थ➨ जिसने द्युलोक वा पृथिवी लोक को उत्पन्न किया है, जिसके नियम अटल है, जो चंद्र आदि लोकों को उत्पन्न करके उनमें व्याप्त हो रहा है, उस ईश्वर कि हम भक्ति करें वह हमको अपने से पृथक ना करें।
इस मंत्र में कहा है कि परमात्मा समस्त लोकलोकांतरों में व्यापक है। वह समस्त लोकों को उत्पन्न किया है।
८. "सर्वे निमेषा जज्ञिरे विद्युत: पुरुषादधि।
नैनमूर्द्ध्वं न तिर्य्यञ्चं न मध्ये परि जग्रभत्॥"(यजुर्वेद ३२/२)
भावार्थ➨ प्रकाशमान परमात्मा से कालावयव प्रकट होते हैं, ऊपर नीचे वा वीच में कोई भी उसको पकड़ नहीं सकता। अभी प्रश्न आ सकता है कि परमात्मा को कोई ऊपर नीचे या बीच में क्यों नहीं पकड़ सकता इस प्रश्न का उत्तर तृतीय मंत्र में लिखा है परमात्मा का कोई मूर्ति नहीं है।
९. "न तस्य प्रतिमाऽअस्ति यस्य नाम महद्यश:।
हिरण्यगर्भऽइत्येष मा मा हिंसीदित्येषा यस्मान्न जातऽइत्येष:॥"(यजुर्वेद ३२/३)
भावार्थ➨ जिस परमात्मा का नाम सबसे बड़ा वा यश स्वरूप है उसकी कोई प्रतिमा मूर्ति नहीं है।
१०. "हिरण्यगर्भ: समवर्त्तताग्रे भूतस्य जात: पतिरेकऽआसीत्।
स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम॥"(यजुर्वेद २५/१०)
भावार्थ➨ जो परमेश्वर इस सम्पूर्ण विश्व के उत्पन्न होने से पूर्व वर्तमान था तथा विश्व का एकमात्र स्वामी विद्यमान था, जो परमेश्वर इस पृथिवी तथा समस्त प्रकाशमान व अप्रकाशमान लोकों को उत्पन्न करके धारण कर रहा है, हम लोग बड़ी श्रद्धा के साथ तन्मय होकर उसी परमेश्वर की उपासना किया करें।
११. "यस्मान्न जात: परोऽअन्योऽअस्ति यऽआविवेश भुवनानि विश्वा।
प्रजापति: प्रजया संरराणस्त्राणि ज्योती:षि सचते स षोडशी॥"(यजुर्वेद ८/३६)
भावार्थ➨ गृहाश्रम की इच्छा करने वाले पुरुषों को चाहिये कि जो सर्वत्र व्याप्त, सब लोकों का रचने और धारण करने वाला, दाता, न्यायकारी, सनातन अर्थात् सदा ऐसा ही बना रहता है, सत्, अविनाशी, चैतन्य और आनन्दमय, नित्य-शुद्ध-बुद्ध-मुक्तस्वभाव और सब पदार्थों से अलग रहने वाला, छोटे से छोटा, बड़े से बड़ा, सर्वशक्तिमान् परमात्मा जिस से कोई भी पदार्थ उत्तम वा जिसके समान नहीं है, उसकी उपासना करें।



वेदों में परमेश्वर का स्वरूप

वेदों में एकेश्वरवाद का प्रमाण➜
i. ऋग्वेद १/५४/१४ ➡ जिस परमेश्वर के आकाश और पृथ्वी, समुद्र और अन्य लोक-लोकान्तर अंत नहीं पा सकते वह सब में ओत-प्रोत हैं, ऐसा वह परमेश्वर एक ही हैं।
ii. ऋग्वेद १/१००/७ ➡ परमेश्वर को सब करुणापूर्ण शुभ कर्मों का एकमात्र स्वामी बताया गया हैं।
iii. ऋग्वेद १/१६४/४६ ईश्वर एक होता हुआ भी उसको विद्वान् लोग अग्नि, यम, मातरिश्वा आदि भिन्न-भिन्न नामों से पुकारते हैं।
iv. ऋग्वेद २/१/३ और २/१/४ ➡ परमात्मा को अग्नि के नाम से संबोधित करते हुए कहा गया हैं की तू ही इन्द्र, विष्णु, ब्रह्मा और ब्रह्मणस्पति हैं, तू ही वरुण, मित्र, अर्यमा आदि नामों से पुकारा जाता हैं अर्थात परम ऐश्वर्य संपन्न होने से वही परमेश्वर इन्द्र, सर्वव्यापक होने से विष्णु, सबसे बड़ा होने से ब्रह्मा, ज्ञान स्वामी होने से वरुण, सबका स्नेही होने से मित्र और न्यायकारी होने से अर्यमा के नाम से याद किया जाता हैं।
v. ऋग्वेद ६/२२/१ ➡ जो परमेश्वर सब मनुष्यों का एक ही पूजनीय हैं, उसकी इन वाणियों से चारों ओर से प्रेमपूर्वक पूजा कर।
vi. ऋग्वेद ६/३६/४ ➡ ईश्वर ही इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का एकमात्र सम्राट है।
vii. ऋग्वेद ६/५१/१६ ➡ हे मनुष्य ! जो एक ही सब मनुष्यों का ठीक ठीक देखने वाला सर्वज्ञ सुखों की वर्षा करने वाले कर्म व ज्ञान वाला सर्वशक्तिमान सबका स्वामी हैं, तू सदा उसी की स्तुति कर।
viii. ऋग्वेद ८/१/१ ➡ हे मित्रों तुम किसी अन्य की विशेष स्तुति अर्थात प्रार्थना उपासना न करो और इस प्रकार अन्यों की स्तुति करके मत दुःख उठाओं. सदा एकांत में और मिलकर किये हुए यज्ञों में सुख, शांति और आनंद की वर्षं करने वाले एक परमेश्वर की ही स्तुति करो और बार बार उसी के स्तुति वचनों का उच्चारण करो।
ix. ऋग्वेद ८/१/२७ ➡ जो परमेश्वर एक, अत्यंत आश्चर्यजनक, महान और अपने व्रतों के कारण अति तेजस्वी और दुष्टों के लिए भयंकर हैं उसी का ध्यान सबको करना चाहिए।
x. ऋग्वेद ८/२५/१६ ➡ यह प्रजाओं का स्वामी एक ही हैं, वह एक ही संसार का स्वामी सब प्रजाओं का ठीक ठीक निरिक्षण करता हैं. सब कुछ जानता हैं.
xi. ऋग्वेद १०/४८/१ ➡ एकमात्र ईश्वर सर्वत्र विद्यमान और सारा जगत का परिचालनकर्ता। एकमात्र वही विजय दान करते हैं और जगत के शाश्वत कारण सभी के उचित है उसको सन्धान करना जैसे बच्चे उसके पिता को संधान करते हैं। एकमात्र वही हम लोगों को पुष्टि और आनंद दान कर सकते हैं।
xii. ऋग्वेद १०/४८/५ ➡ ईश्वर पुरा जगत को रोशनी प्रदान करता है वह अपराजित, अमर। वह जगत के सृष्टिकर्ता है।
xiii. ऋग्वेद १०/४९/१ ➡ सत्यान्वषियों के प्रति ईश्वर ही सत्य ज्ञान प्रकाश करतें हैं। एकमात्र वही ज्ञान का प्रवर्तक और आनन्द अनुसंधानकारी धार्मिकों को पवित्र कार्य में लगा देते हैं। एकमात्र वही सृष्टिकर्ता और जगत को चालाते है। इसलिए एक और अद्वितीय ईश्वर को छोड़कर किसी ओर की उपासना ना करें।
xiv. ऋग्वेद १०/७२/२ ➡ वह जगतकर्ता परमेश्वर विविध मनों का स्वामी, आकाश के तुल्य व्यापक, संसार का धारण करने वाला, विशेष रूप से सूर्य चन्द्र तथा लोक लोकान्तरों का धारण ओर पोषण करने वाला, अत्यंत उत्कृष्ट ओर सर्वज्ञ हैं, जिस परमेश्वर के विषय में विद्वान् कहते हैं की वह सात इन्द्रियों से परे एक ही हैं और जिस परमेश्वर के आश्रय में उन इन्द्रियादी के अभिलाषित सब भोग्य पदार्थ उस प्रभु की प्रेरक शक्ति से भली प्रकार हर्ष के कारण बनते हैं।
xv. ऋग्वेद १०/७२/३ ➡जो परमेश्वर हमारा पालक हैं, उत्पादक हैं और जो विशेष रूप से हमारा धारण करने वाला और सब स्थानों लोकों और उत्पन्न पदार्थों को जानता हैं, जो सब देवों- इन्द्र , मित्र, वरुण, अग्नि, यम इत्यादि से नाम को प्रधानतया धारण करने वाला एक ही देव हैं उस अच्छी प्रकार से जानने योग्य परमेश्वर की ओर ही अन्य सब लोक ओर प्राणी गति कर रहे हैं।
xvi. ऋग्वेद १०/७२/६ ➡ प्रकृति ओर उसके परमाणुओं को सबसे पूर्व धारण करने वाला वही एक परमेश्वर हैं , इस अज-प्रकृति, सत्व या प्रधान की नाभि में एक ब्रहम तत्व ही ऊपर अधिष्ठाता रूप में विराजमान हैं, जिसके आधार पर सब लोक स्थित हैं, जो सारे जगत का संचालक ओर अध्यक्ष हैं।
xvii. यजुर्वेद १३/४ ➡ पूरा जगत् का एकमात्र ही सृष्टिकर्ता और परिचालक है। एकमात्र वही पृथिवी, आकाश और महाकाश के वस्तुओं को मजबूत करते हैं। वह स्वयं आनन्दमय है।
xviii. यजुर्वेद ३२/१ ➡ अग्नि, आदित्य, वायु, चंद्रमा, शुक्र, ब्रह्मा, प्रजापति यह समस्त नाम वही एक परमात्मा की है।
xix. यजुर्वेद ३२/११ ➡ जो परमात्मा प्राणियों को सब और से प्राप्त होकर, पृथ्वी आदि लोकों को सब ओर से व्याप्त होकर तथा ऊपर निचे सारी पूर्व आदि दिशाओं को व्याप्त होकर, सत्य के स्वरुप को सन्मुखता से सम्यक प्रवेश करता हैं, उसको हम कल्प के आदि में उत्पन्न हुई वेद वाणी को जान कर अपने शुद्ध अन्तकरण से प्राप्त करें
xx. ऋग्वेद १०/८२/३, अथर्ववेद २/१/३ ➡ परमात्मा एक ही है, और सारे देवताओं के नाम का धारण कर्ता अर्थात समस्त देवताओं का नाम परमात्मा की है।
xxi. अथर्ववेद २/२/१ ➡ समस्त प्रजाओं में एक ईश्वर ही स्तुति और नमस्कार करने योग्य है।
xxii. अथर्ववेद १०/७/३८➡ एकमात्र ईश्वर ही महान और उपासना के योग्य है। वही सारे ज्ञान और कर्म के उत्पत्ति करता है।
xxiii. अथर्ववेद १३/४/५ ➡ वही परमात्मा अर्यमा, वरुण, इन्द्र, महादेव, अग्नि,सूर्य, महायम इत्यादि नामों से पुकारा जाता हैं. वह एक परमात्मा ही नमस्कार करने योग्य हैं।
xxiv. अथर्ववेद २०/८५/१➡ हे विद्वान पुरुषों ! हे मित्रजनो ! व्यर्थ चक्कर में मत पड़ो।परमैश्वर्यशाली परमात्मा को छोड़कर और किसी की स्तुति मत करो।तुम सब मिलकर ऐश्वर्यवान् और सुखवर्षक परमेश्वर की ही बार-बार स्तुति करो।
xxv. सामवेद ३७२ और अथर्ववेद ७/२१/१ ➡ हे मनुष्यों! तुम सब सरल भाव और आत्मिक बल के साथ परमेश्वर की ओर उसका ध्यान- भजन के लिए आओ, जो एक ही मनुष्यों में अतिथि की तरह पूजनीय अथवा सर्वव्यापक हैं. वह सनातन- नित्य हैं और नए उत्पन्न पदार्थों के अन्दर भी व्याप रहा हैं. ज्ञान-कर्म-भक्ति के सब मार्ग उसकी और जाते हैं. वह निश्चय से एक ही हैं।


 
वेदों में परमेश्वर का स्वरूप

वेदों में ईश्वर का गुण
i. ऋग्वेद १/६७/३ अनुसार ईश्वर अजर, अमर, सबकुछ का धारणकर्त्ता है।
ii. ऋग्वेद ६/५०/१४ अनुसार ईश्वर सारा जगत का एकमात्र रक्षक और अजन्मा है।
iii. ऋग्वेद १/१७४/३ अनुसार परमेश्वर परम ऐश्र्वर्यशाली और अजन्मा है।
iv. ऋग्वेद १/१०२/८ परमात्मा सर्वदा विद्यमान, अनुपम, ऐश्र्वर्यशाली है।
v. ऋग्वेद २/१६/१ परमेश्वर अजर है।
vi. ऋग्वेद १/६६/१, १/१४०/७, १/१४१/२, ३/२५/५ में कहा गया है ईश्वर नित्य है।
vii. ऋग्वेद ७/३५/१३ अनुसार परमेश्वर अजर है।
ix. यजुर्वेद ४०/८ अनुसार ईश्वर स्वयम्भू है।
x. यजुर्वेद ३२/८ अनुसार ईश्वर सर्वव्यापी, विश्व ब्रह्माण्ड के सृष्टिकर्ता है।
xi. अथर्ववेद १०/८/१२ अनुसार ईश्वर अनंत हैं।
xii. ऋग्वेद ८/६९/११ अनुसार ईश्वर निराकार है।



🕉️🕉️🕉️ नमस्ते 🕉️🕉️🕉️

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