Other लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
Other लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

मंगलवार, 19 नवंबर 2019

संकलित पोस्ट (भाग १)

नास्तिक मत खण्डन


शंका समाधान
नास्तिक ➥ यदि वह ईश्वर अनेक नहीं तो वह व्यापक है या एक देशी?
आस्तिक ➦ वह सर्वव्यापक है एकदेशी नहीं।यदि एक देशी होता तो अनेक विध संसार का पालन पोषण एवं संरक्षण कैसे कर सकता ?
नास्तिक ➥ यदि वह सर्वव्यापक है तो पुनः दिखाई क्यों नहीं देता।
आस्तिक ➦ दिखाई न देने के कई कारण होते हैं जैसे सांख्या-कारिका में कहा है -
अतिदूरात सामीप्यादिन्द्रियघातान्मनो ऽनवस्थनात् ।
सौक्ष्म्याद् व्यवधानादभिभवाद् समानाभिहाराच्च ।
  • (१) दिखाई न देने का प्रथम कारण है अति दूर होना जैसे लन्दन या अमेरिका दूर होने से दिखाई नहीं देते परन्तु दिखाई न देने पर भी उनकी सत्ता से इन्कार नहीं हो सकता।
  • (२) दूसरा कारण है अति समीप होना, अति समीप होने से भी वस्तु दिखाई नहीं देती जैसे आंख की लाली या आंख का सुरमा आंख के अति समीप होने पर भी दिखाई नहीं देते। अथवा पुस्तक आँख के अति समीप हो तो उसके अक्षर दिखाई नहीं देते।
  • (३) इन्द्रिय के विकृत या खराब होने पर भी कोई वस्तु दिखाई नहीं देती जैसे आंख दुखने पर या आंख के फूट जाने पर यदि कोई अन्धा कहे कि सूर्य चन्द्रादि की कोई सत्ता नहीं,तो क्या यह ठीक माना जायगा ।
  • (४) अति सूक्ष्म होने पर भी कोई वस्तु दिखाई नहीं देती, जैसे आत्मा, मन, बुद्धि , परमाणु, भूख ,प्यास , सुख-दुःख, ईर्ष्या, द्वेष आदि ।
  • (५) मन के अस्थिर होने पर भी कोई वस्तु दिखाई नहीं देती जैसे कोई व्यक्ति सामने से होकर निकल जाय, तो उसके विषय में पूछने पर उत्तर मिलता है कि मेरा ध्यान उस ओर नहीं था।
  • इस लिये मैं नहीं कह सकता कि वह यहाँ से निकला है या नहीं।
  • (६) ओट में रखी या बीच में किसी वस्तु का पर्दा होने से भी वस्तु दिखाई नहीं देती जैसे दीवार के पीछे रखी वस्तु या ट्रंक के अन्दर रखी वस्तु ।
  • (७) समान वस्तुओं के सम्मिश्रण हो जाने या परस्पर खलत मलत हो जाने पर भी वस्तु दिखाई नहीं देती जैसे दूध में पानी,तिलों में तेल,दही में मक्खन,लकड़ी में आग।इसी प्रकार परमात्मा सब वस्तुओं में व्यापक होने पर भी अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण आंखों से दिखाई नहीं देता।परन्तु –
  • जिस तरह अग्नि का शोला संग में मौजूद है।
  • इस तरह परमात्मा हर रंग में मौजूद है ।
  • (८) अभिभव से अर्थात् दब जाने पर भी कोई वस्तु दिखाई नहीं देती यथा दिन को तारे सूर्य के प्रकाश में दब जाने के कारण दिखाई नहीं देते अथवा आग में पड़ा लोहा अग्नि के प्रभाव से दिखाई नहीं देता। परन्तु ज्ञान की आंख से वह दिखाई देते हैं ।
ऐसे ही परमात्मा के दर्शन के लिए भी अन्दर की आंख की आवश्यकता है।

नास्तिक➥ यदि वह सब जगह सर्वत्र व्यापक है तब तो मल-मूत्र , गन्दगी , कूड़े-करकट में भी उसका वास मानना होगा,इस प्रकार तो दुर्गन्ध से उसकी बड़ी दुर्गति होगी ।
आस्तिक ➦ आपका यह विचार ठीक नहीं क्योंकि सुगन्ध दुर्गन्ध इन्द्रियों द्वारा प्रतीत होती है और परमात्मा इन्द्रियातीत अर्थात् इन्द्रियों से रहित है इसलिये उसे सुगन्ध दुर्गन्ध नहीं आती।
                                  दूसरे जो वस्तु अपने से भिन्न दूसरे स्थान पर या अपने से पृथक बाहर दूर हो उससे सुगन्ध दुर्गन्ध आती है जो वस्तु अपने ही अन्दर हो उससे सुगन्ध दुर्गन्ध नहीं आती। जैसे पाखाना अपने अन्दर हो तो दुर्गन्ध नहीं आती परन्तु बाहर पड़ा हो तो दुर्गन्ध आती है । इसी प्रकार यह सारा संसार और उस की सब वस्तुएँ भी ईश्वर के भीतर विद्यमान हैं इसलिये उसे सुगन्ध दुर्गन्ध नहीं आती ,न ही उस इनका कोई प्रभाव होता है ,कठोपनिषद् में ठीक कहा है―

सूर्यो यथो सर्वलोकस्य चक्षुनं लिप्यते चाक्षुषै र्बाह्यदोषैः,
एकस्तथा सर्व भूतान्तरात्मा न लिप्यते लोक दुःखेन बाह्य ।
―(कठो अ २-वल्ली २-श्लोक ११)
अर्थात्― जिस प्रकार सूर्य सब संसार की चक्षु है,परन्तु चक्षु के बाह्या दोषों से प्रभावित नहीं होता, इसी प्रकार सब प्राणियों का अन्तरात्मा लोक में होने वाले दुःखों से लिप्त नहीं होता क्योंकि वह सब में रहता और उसमें सब रहता है।संसार में रहते हुए भी वह सबसे बाह्य अर्थात् सब संसार से पृथक है,अर्थात् लिप्त नहीं है अलिप्त है।

नास्तिक ➥ जब वह स्वयं इन्द्रियरहित तथा इन्द्रियों से न जानने योग्य है तो उसका ज्ञान होना असम्भव है,पुनः जानने का प्रयत्न व्यर्थ है ?
आस्तिक➦ उसके जानने का प्रयत्न करना व्यर्थ नहीं क्योंकि ईश्वर की सत्ता का उसके विचित्र ब्रह्माण्ड और उसमें विचित्र नियमानुसार कार्यों को देखकर बुद्धिमान, ज्ञानी, तपस्वी भलीभांति अनुभव करते हैं।इसके अतिरिक्त प्रभु प्राप्ति का साधन इन्द्रियां नहीं अपितु जीवात्मा है, योगाभ्यास आदि क्रियाओं द्वारा जीवात्मा उनका प्रत्यक्ष अनुभव करता है तथा आनन्द का लाभ करता है―कठोपनिषद् में ठीक कहा है―
एको वशी सर्व भूतान्तरात्मा, एकं रुपं बहुधा यः करोति,
तमात्मास्थं येऽनु पश्यन्ति धीरास्तेषां सुखं शाश्वतंनेतरेषाम् ।
― (कठो अ २. वल्ली रचो १२)
अर्थात्―वह एक,सब को वश में रखने वाला,सब प्राणियों की अन्तरात्मा में स्थित है अपनी आत्मा में स्थित उस परमात्मा का जो ज्ञानीजन जन दर्शन लाभ करते हैं वे परमानन्द को प्राप्त करते हैं।
नास्तिक➥ ईश्वर को मानने से मनुष्य की स्वतन्त्रता जाती रहती है,इसलिये मानना व्यर्थ है ?
आस्तिक➦ ईश्वर को मानने तथा उसकी उपासना करने का अन्तिम फल मुक्ति है।मुक्ति स्वतन्त्रता का केन्द्र है जहाँ सब प्रकार के बन्धन टूट जाते हैं।अतः ईश्वर के मानने से मनुष्य की स्वतन्त्रता के साथ दुःखों की समाप्ति तथा आनन्द की प्राप्ति भी होती है इसलिए उसका मानना तथा जानना आवश्यक है, व्यर्थ नहीं।
नास्तिक➥ ईश्वर को अज्ञेय अर्थात् न जानने योग्य कहा है तो उसके जानने का परिश्रम करना व्यर्थ है ।
आस्तिक➦ सृष्टि और उसके विविध पदार्थों तथा उसमें काम कर रहे अनेक विध नियमों को देखकर उसके रचयिता का बोध सरलता से हो जाता है।जैसे आकाश,वायु,अणु,परमाणु आदि इन्द्रिय रहित हैं।परन्तु उनका निश्चय बुद्धि से हो जाता है,इसी प्रकार शुद्धान्तःकरण द्वारा प्रभु का ज्ञान हो जाता है।इसमें किसी प्रकार की कोई बाधा नहीं, परिश्रम की आवश्यकता है।
नास्तिक➥ ईश्वर को सगुण कहा गया है प्रत्येक सगुण वस्तु नाशवान होती है।इसलिये ईश्वर को भी नाशवान मानना पड़ेगा।
आस्तिक➦ प्रत्येक सगुण वस्तु नाशवान् होती है यह कोई नियम नहीं,जब सत्व,राजस्,तमस् गुणवाली प्रकृति ही नाशवान् नहीं।
तो ईश्वर सगुण होने से कैसे नाशवान् माना जा सकता है।ईश्वर न्याय,दया,ज्ञानादि गुणों से सगुण और अजर,अमर,अजन्मा आदि होने से निर्गुण कहाता है
ईश्वर है या नहीं?
संसार में ईश्वर है मानने वाले बहुत लोग हैं, परन्तु नास्तिक लोगों का मानना है कि ईश्वर नाम की कोई सत्ता या शक्ति नहीं है और न उसकी कोई आवश्यकता है।
इस सोच का आधार है कि ईश्वर किसी को दिखाई नहीं पड़ता है। ईश्वर को न कोई देख पाया है, न छू सका है, न सुन सका हैं, न ही सूंघ सका।

प्र. ➥ वह इन पाँचों इन्द्रियों से भी नहीं दिखाई देता। अतः वह ईश्वर जो आप कहते हैं। वह नहीं हो सकता।
उ.➦ इन पाँच इन्द्रियों के अलावा मन और बुद्धि भी है।
प्र. ➥ अरे भाई! आज तक आपने कभी सुना है कि यह व्यक्ति देखो मन से अथवा बुद्धि से देखता है।
उ. ➦ आप जिसे ‘‘देखना’’ मानते हो, वही ‘‘केवल देखना’’ नहीं होता, देखना का अर्थ जानना भी होता है। अब इसे उदाहरण से देखते हैं। जब कभी हम बातों को भूल जाते हैं, तब आँखें बन्द कर विचार करते हैं और झट से याद आने पर कहते हैं- मैंने विचार कर देखा। वास्तव में वही सही है।
                                एक प्रयोग और देखिये- अरे भाई! आप एक बार अनुमान करके तो देखो, आपको पता लगेगा। यहाँ भी ‘‘देखो’’ शब्द का प्रयोग ‘‘जानो’’ अर्थ में ही हुआ है। इससे पता चलता है कि बहुत वस्तुएँ ‘‘मन एवं बुद्धि’’ से भी जानी जाती है। देखना का प्रयोग जानने के अर्थ में भी होता है न कि मात्र आँखों से प्रत्यक्ष में।
प्र. ➥ तो मन से या बुद्धि से तो जाना जाना चाहिये परन्तु ऐसा भी तो नहीं।
उ. ➦ बुद्धि से तो अनुमान कर ही सकते हैं। बिना अनुमान किये ज्ञान नहीं हो सकता। अविद्या दूर करना चाहिये। जब अविद्या का नाश हो जावेगा तब मन के माध्यम से आत्मा तक और आत्मा से ईश्वर तक पहुँच सकेंगे।और जैसे भोजन सामने रखा है, पर उसे ग्रहण करने का प्रयत्न यदि न किया जावे, तो भूख नहीं हट सकती। उसी प्रकार ईश्वर को जानने के लिए प्रयत्न की आवश्यकता है।
प्र. ➥ वह प्रयास किस प्रकार से करें?
उ. ➦ जैसे आप धुएँ को देखकर अग्नि का अनुमान अथवा पुत्र को देखकर जन्मदाता का अनुमान करते हैं और जान लेते हैं कि यह ज्ञान सही होता है। जहाँ-जहाँ धुआँ होता है, वहाँ-वहाँ आग होती है।
                                  इसी प्रकार- जो-जो कार्य होता है, उसका कारण अवश्य होता है। और कोई भी कार्य है तो वह नष्ट भी होता है। आपने किसी घर को बना देखा, तो आपने अनुमान किया कि इसका बनाने वाला कोई अवश्य ही है। यह सृष्टि एक कार्य है क्योंकी यहां जो चीज बनाई गई वह नष्ट होती भी दिखाई पड़ती है। कार्य का करने वाला भी आवश्यक है, अब वही कौन है, यह भी अनुमान से सिद्ध होता है कि इस संसार को निर्माण करने वाला एक स्थान विशेष पर रहने वाला या मूर्ख नहीं हो सकता, अतः ईश्वर का अनुमान होता है।
प्र. ➥ यह संसार तो अपने आप ही बना है।
उ. ➦ अब आप पहले सिद्धान्त के विरुद्ध जा रहे हैं।पहले आपने स्वीकार किया था कि जो बना होता है, उसे बनाने वाला होता है।
प्र. ➥ क्योंकि यदि ईश्वर ने भी यदि इस संसार को बनाया है, यह कहे तो प्रश्न होगा कि ईश्वर को किसने बनाया?
उ. ➦ जो कार्य होता है, वह नष्ट होता रहता है और जो नष्ट होता हुआ, कोई भी कार्य दिखाई पड़ता है, उसको बनाने वाला कोई अवश्य ही होता है और ईश्वर नष्ट नहीं होता। अतः उसे बनाने वाला कोई भी नहीं हुआ, न है और न होगा।
प्र. ➥ तो वह ईश्वर कहाँ है?
उ. ➦ वह सर्वत्र कण-कण में है। तभी तो उसने इतनी बड़ी रचना की है एक स्थान पर बैठकर ऐसा करना सभव नहीं, और वह सब जगह है, अतः वह सब जानता है। और केवल सृष्टी केवल बना दी गई है ऐसा नहीं इसकी व्यवस्था यानि रखरखाव भी आवश्यक है और व्यवस्था का काम यदि ईश्वर एक स्थानपर बैठकर करे तो जहां वह नहीं रहेगा वहां की व्यवस्था कैसे चलेगी? अतः ईश्वर सब जगह है ।
प्र. ➥ तब तो प्राकृतिक आपदाएँ नहीं आनी चाहिये। क्योंकि ईश्वर सब जगह पर है, अतः उसे ध्यान देना चाहिये कि ये आपदाएँ लोगों को कष्ट पहुँचायेगी उनका कार्य करना भी व्यर्थ होगा, उसे तो इस प्रकार का निर्माण करना चाहिये कि कोई भी आपदाएँ आने ही न पावें।
उ. ➦ यह सब ईश्वर की व्यवस्था के अनुसार होता है या नियमानुसार कहो। क्योंकि ईश्वर को कर्मफल भी तो देने हैं। अतः इसमें हमारे कर्म ही कारण होते हैं। इससे अतिरिक्त, यह प्रदूषण करने का प्रभाव या परिणाम भी हो सकता है। जैसे कोई मनुष्य एक यन्त्र बनाता है और उसमें विद्युत् को सहन करने की क्षमता एक क्षमता तक ही होती है। यदि उसमें कोई अधिक विद्युत् दे देवें, तो वह जलकर नष्ट ही होगा। इसी प्रकार यह पृथ्वी भी एक सीमा तक ही सहन कर सकती है या सह सकती है। उसके पश्श्चात् जो होता है, वह हम देखते ही हैं। यदि व्यवस्था को कोई अव्यवस्था रूप देना चाहे, तो उसमें ईश्वर को क्या दोष?
प्र. ➥ यदि ईश्वर है और आप उसे मानते हैं, तो बताइये कि आज पूरे विश्व में इतने दुष्टकर्म हो रहे हैं परन्तु ईश्वर तो कुछ भी नहीं करता?
उ.➦ ईश्वर को क्या करना चाहिये, आप ही बताइये?
प्र. ➥ उसे शरीर धारण करना चाहिये और दुष्टों की समाप्ति कर देनी चाहिये।
उ. ➦ यदि वह शरीर धारण करे तो विश्वमें अन्य स्थानों का ध्यान कौन देगा? उनके कर्मों का ज्ञान कैसे होगा और ज्ञान नहीं होगा तो उनका फल भी नहीं दे सकेगा।
प्र. ➥ तो सब जगह पर होते हुए, कुछ भी तो नहीं करता?
उ. ➦ आपको कैसे पता कि वो कुछ भी नहीं करता?
प्र. ➥ क्या करता है, बताईये?
उ. ➦ वही तो सभी के कर्मों का उचित फल देता है। ये अलग-अलग प्रकार के जानवर हैं, वे सब इसी के व्यवस्था के अन्तर्गत है और लोग कर्म करने में स्वतन्त्र है और ईश्वर ने लोगों को स्वतंत्र छोड़ रखा है केवल कर्मनुसार फल देना निश्चित कर रखा है।
प्र. ➥ ईश्वर कैसे मिलेगा?
उ.➦ यह जो हम लोग पाप कर्म करते हैं, उसके कारण को (मिथ्या ज्ञान) को हटा दें तो वह परमात्मा प्राप्त होता है।

◼️तीर्थ 🤔◼️


✍🏻 लेखक - स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी

🤔 प्रश्न- तीर्थस्नान से पाप का नाश और पुण्य की उत्पत्ति अथवा आत्मा की शुद्धि होती है वा नहीं?
🌹 उत्तर- पाप का नाश पुण्य की उत्पत्ति और आत्मा की शुद्धि का विचार तो पीछे करेंगे, प्रथम तीर्थ क्या है यही सोचना चाहिए।
🤔 प्रश्न- गंगादि जो अनेक पवित्र स्थान हैं वही तीर्थ हैं, इसको तो सब लोग जानते हैं। इसमें सोचने की कौन सी गुह्य बात है?
🌹 उत्तर- इतना तो ठीक है, साधारण लोग गङ्गादि स्थानों को तीर्थ कहते हैं, किन्तु सोचने की बात यह है, कि ये स्थान वास्तव में तीर्थ हैं वा नहीं? और धर्म-पुस्तकों में इनको तीर्थ लिखा भी है वो नहीं ?
🤔 प्रश्न- क्या लोग बिना लिखे ही कहते हैं ? पुराणों में, महाभारत में तीर्थों का वर्णन है। वेद में तीर्थ शब्द आता है, अतः यह निर्विवाद विषय है। इस पर सोचने की आवश्यकता नहीं है। हाँ पाप-नाश और पुण्य उत्पत्ति की बात कहो।
🌹 उत्तर- वह भी कहेंगे, किन्तु प्रथम तो तीर्थ ही चिन्तनीय है, क्योंकि तीर्थ शब्द के अर्थ हैं, जिसके द्वारा लोग तर जाएं। क्या गंगादि स्नान से वा गंगा से ही लोग तर जाते हैं ? देखा तो यह जाता है, यदि किसी को तैरना न आता हो, वह किसी समय गंगा के गहरे जल में पड़ जाए तो डूब जाता है। और गंगास्नान से भी पाप का नाश और पुण्य की उत्पत्ति प्रतीत नहीं होती। इसलिए न तो यह तीर्थ है और न ही गंगा आदि स्नान से पाप का नाश और पुण्य की उत्पत्ति होती है। इसी कारण मनुस्मृति में मनु जी ने साफ लिखा है।
🔥 अद्भिर्गात्राणि शुध्यन्ति मनः सत्येन शुध्यति।
विद्यातपोभ्यां भूतात्मा बुद्धिर्ज्ञानेन शुध्यति ।
-मनु ५।१०९
जल के स्नान से शरीर शुद्ध होता है, मन सत्य बोलने, सत्य व्यवहार से शुद्ध होता है, विद्या और तप से आत्मा शुद्ध होता है बुद्धि यथार्थ ज्ञान से शुद्ध होती है।
मनु जी ने इस श्लोक में स्नान से शरीर के बाह्य अवयवों की शुद्धि लिखी है, आत्मा की शुद्धि के कारण विद्या और तप ही बताये हैं। आप गंगादि स्नान से आत्मा की शुद्धि कहते हैं, सो बात ठीक नहीं है। जो मनुस्मृति में लिखा है, वही युक्तियुक्त और ठीक है।
आपने कहा था कि महाभारत में तीर्थ का वर्णन है सो महाभारत में ऐसा लेख है, जब महाभारत युद्ध समाप्त हो गया, भीष्मपितामह जी शरशय्या पर विराजमान थे। उस समय श्री कृष्ण जी की सम्मति से पाण्डव उनकी सेवा में गये, वहाँ जाकर युधिष्ठिर जी ने भीष्मपितामह जी से अनेक विषयों के प्रश्न पूछे थे, उन प्रश्नों के भीष्मपितामह जी ने जो उत्तर दिये थे, वह महाभारत के अनुशासन पर्व में लिखे हुए हैं। वहाँ तीर्थ विषयक भी एक प्रश्न का उस समय भीष्म जी ने जो उत्तर दिया था, उसमें से कुछ श्लोक यहाँ लिखते हैं, जिससे महाभारत में तीर्थ विषयक सिद्धान्त का पता लग जाएगा।
युधिष्ठिर उवाच
🔥 यद्वरं सर्वतीर्थानां तन्मे ब्रूहि पितामह।
यत्र चैव परं शौचं तन्मे व्याख्यातुमर्हसि॥१॥
युधिष्ठिर जी ने कहा-हे पितामह सब तीर्थों में जो श्रेष्ठ है और जो उत्तम शौच, अर्थात् पवित्रता होती है, वह आप मुझे बतलायें।
भीष्म उवाच-
🔥 सर्वाणि खलु तीर्थानि गुणवन्ति मनीषिणाम्।
यत्तु तीर्थं च शौचं च तन्मे शृणु समाहितः ॥ २ ॥
सब तीर्थ मनीषियों के लिए गुणवान् हैं, उनमें जो पवित्र तीर्थ है। वह समाहित होकर सुन।
🔥 अगाधे विमले शुद्धे सत्यतोये धृतिहदे।
स्नातव्यं मानसे तीर्थे सत्यमाश्रित्य शाश्वतम् ॥ ३॥
🔥 तीर्थं शौचमनर्थित्वमार्जवं सत्त्वमार्दवम्।
अहिंसा सर्वभूतानामानृशंस्यं दमः शमः ॥ ४॥
🔥 निर्ममा निरहङ्कारा निर्द्वन्द्वा निष्परिग्रहा।
शुचयस्तीर्थभूतास्ते ये भैक्ष्यमुपभुञ्जते ॥ ५ ॥
गम्भीर, दोषरहित, पवित्र सत्यरूपी जल और धैर्य रूपी तालाब युक्त मानस तीर्थ में शाश्वत सत्य का अवलम्बन करके स्नान करना चाहिए। (अनर्थत्वं) किसी को अर्थी न होना, (आर्जवं) सरलता, (मार्दवं) नरमचित्त, सब जीवों की अहिंसा, अनृशंसता और शम (मन को वश में रखना) दम (इन्द्रिय दमन करना) ही पवित्र तीर्थ हैं।
जो लोग ममतारहित, निरहंकारी, अर्थात् अहंकार शून्य, सुख, दु:ख, शीत, आतप आदि द्वन्द्व सहन करनेवाले और निष्परिग्रह, अर्थात् संग्रह रहित, दानादि के लालच से रहित हैं और जो लोग भिक्षा धन से जीवन व्यतीत करनेवाले संन्यासी हैं, वे ही पवित्र तीर्थरूप हैं।
                                   इस प्रकरण में भीष्म जी ने आपके कहे गंगादि स्नान को कहीं तीर्थ नहीं बताया है। उसके विपरीत सत्य, धैर्घ्य, निर्लोभतो, सरलता, नम्र चित्त, अहिंसा, दया, शम, दम, ममतारहित, अहंकार वर्जित, द्वन्द्वों के सहन करनेवाले तपस्वी और भिक्षा से निर्वाह करनेवालों को ही तीर्थ बताया है। इससे सिद्ध है कि वास्तव में यही सच्चे तीर्थ हैं। जो मनुष्य को पवित्र करनेवाले हैं, यही वे तीर्थ हैं, जिनके सेवन से मनुष्य संसार-सागर से तर जाता है, गंगादि तीर्थ तो स्वार्थी लोगों ने साधारण प्रजा को ठगने के लिए बना लिये हैं और ये गंगादि तीर्थ तारनेवाले तो किसी अवस्था में भी नहीं होते हैं।
उसी प्रकरण में स्नान के विषय में भी भीष्म जी ने कहा है।
यथा-
🔥 नोदकक्लिन्नगात्रस्तु स्नात इत्यभिधीयते।
स स्नातो यो दमस्नातः स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः॥
🔥 मनसा च प्रदीप्तेन ब्रह्मज्ञानजलेन च।
स्नाति यो मानसे तीर्थे तत्स्नानं तत्त्वदर्शिनाम्॥
(महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय १०८)
जल से स्नान करनेवाले मनुष्य को स्नान (स्नान किया हुआ) नहीं कहते हैं। जो लोग दमस्नात हैं उन्हीं ने स्नान किया है और वे ही बाहर तथा भीतर पवित्र होते हैं।
ज्ञान से निर्मल किये हुए मन और ब्रह्म ज्ञान के जल के सहारे जो लोग मानस तीर्थ में स्नान करते हैं, उनका नहाना ही स्नान है। तत्त्वदर्शियों को ऐसा ही स्नान अभिमत है।
यहाँ भीष्मपितामह जी ने जल स्नान से आत्मशुद्धि का सर्वथा ही निषेध किया है, अतः जलादि के स्नान से मनु जी के लिखे अनुसार केवल शरीर की शुद्धि होती है। आत्मशुद्धि के लिए जल स्नान का कोई प्रयोजन नहीं है।
🤔 प्रश्न- यदि महाभारत में इस प्रकार निषेध है तो लोग गंगादि तीर्थों में स्नान करने क्यों आते हैं ? और पण्डे तीर्थों पर रहते हैं और वे बाहर जाकर तीर्थों का प्रचार भी करते हैं। क्या वे महाभारत नहीं पढ़े हैं?
🌹 उत्तर- महाभारत तो वे पढ़े हैं, परन्तु उन्हें तीर्थ स्नान करनेवालों को तीर्थ का माहात्म्य बताकर बहकाना है और उनका धनहरण करके अपनी जीविका चलानी है। और इसलिए वे तो स्वार्थी हैं, उनका कथन प्रमाण नहीं है।
🤔 प्रश्न- किसी आचार्य्य ने तीर्थ विषयक कुछ लिखा है ?
🌹 उत्तर- हाँ लिखा है।
🤔 प्रश्न- वह बतलाओ, क्या लिखा है?
🌹 उत्तर- महर्षि दयानन्द जी ने सत्यार्थप्रकाश में तीर्थ विषयक निम्न पाठ लिखा है-और ये तीर्थ (प्रथम भारतवर्ष में) नहीं थे, जब जैनियों ने गिरनार, पालिटाना शिखर शत्रुञ्जय और आबू आदि तीर्थ बनाये। उनके अनुकूल इन लोगों ने भी बना लिये। जो कोई इनके आरम्भ की परीक्षा करना चाहे, वे पण्डों की पुरानी से पुरानी बही और तांबे के पत्र आदि लेख देखें तो निश्चय हो जाएगा कि ये सब तीर्थ पांच सौ अथवा एक सहस्र वर्ष से इधर ही बने हैं, सहस्र वर्ष से उधर का लेख किसी के पास नहीं निकलता, इससे आधुनिक हैं।
🤔 प्रश्न- जो जो तीर्थ का माहात्म्य, अर्थात् 🔥 'अन्यक्षेत्रे कृतं पापं काशीक्षेत्रे विनश्यति।' इत्यादि बातें हैं, वे सच्ची हैं वो नहीं ?
🌹 उत्तर- नहीं, क्योंकि यदि पाप छूट जाते हों तो दरिद्रों को धन, राजपाट, अन्धों को आँखें मिल जातीं, कोढ़ियों का कोढ़ आदि रोग छूट जाता, ऐसा नहीं होता, इसलिए पाप वा पुण्य किसी का नहीं छूटता।।
🤔 प्रश्न- 🔥 गङ्गा गङ्गेति यो ब्रूयाद् योजनानां शतैरपि।
मुच्यते सर्वपापेभ्यो विष्णुलोकं स गच्छति॥ जो सैकड़ों सहस्रों कोस दूर से भी गंगा-गंगा कहे तो उसके पाप नष्ट हो कर वह विष्णु लोक, अर्थात् वैकुण्ठ को जाता है। क्या झूठ हो
जाएगा?
🌹 उत्तर- मिथ्या होने में क्या शङ्का?, क्योंकि गङ्गा.......नाम स्मरण से पाप कभी नहीं छूटता, जो छूटे तो दु:खी कोई न रहे और पाप करने से कोई भी न डरे। वैसे आजकल पोपलीला में पाप बढ़कर हो रहे हैं। मूढ़ों को विश्वास है कि हम.......तीर्थयात्रा करेंगे तो पापों को निवृत्ति हो जाएगी। इसी विश्वास पर पाप करके इस लोक और परलोक का नाश करते हैं, परन्तु किया हुआ पाप भोगना ही पड़ता है।
🤔 प्रश्न- तो कोई तीर्थ.......सत्य है वा नहीं?
🌹 उत्तर- है, वेदादि सत्यशास्त्रों का पढ़ना, पढ़ाना, धार्मिक विद्वानों का संग, परोपकार, धर्मानुष्ठान, योगाभ्यास, निर्वैर, निष्कपट, सत्यभाषण, सत्य का मानना, सत्य करना, ब्रह्मचर्य्य, आचार्थ्य, अतिथि, मातापिता की सेवा करना, परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना, उपासना, शान्ति, जितेन्द्रियता, सुशीलता, धर्मयुक्त, पुरुषार्थ, ज्ञान, विज्ञान आदि शुभ गुण, कर्म दुःखों से तारनेवाले होने से तीर्थ हैं। और जो जलस्थलमय हैं। वे तीर्थ कभी नहीं हो सकते, क्योंकि 🔥 ‘जना यैस्तरन्ति तानि तीर्थानि' मनुष्य जिसे करके दुःखों से तरें उनका नाम तीर्थ है। जलस्थल तरानेवाले नहीं, किन्तु डुबोकर मारनेवाले हैं।
🌺 पूर्वपक्षी-महर्षि दयानन्द जी का लेख सुनकर तो अब पूरा-पूरा निश्चय हो गया कि गङ्गादि तीर्थ केवल पोपों के बनाये हुए हैं। आगे को मैं भी जैसा महर्षि ने उपदेश किया है, वैसा करने का यत्न करूंगा।(‘‘वेदपथ'' से साभार)

आदि सृष्टि के मनुष्यो की भाषा क्या थी और भाषा का विस्तार कैसे हुआ ?


आदि सृष्टि के मनुष्यो की भाषा क्या थी और भाषा का विस्तार कैसे हुआ ?

भाषा की उत्पत्ति :

मानव जिस समय पृथ्वी पर उत्पन्न हुआ उस समय बोलने और समझने की शक्ति समपन्न अवस्था थी – यह निर्देश पहले भी किया जा चुका है की आदि सृष्टि के मनुष्य युवा अवस्था के उत्पन्न होते हैं – इसलिए उनमे बोलने की शक्ति थी तो यह भी मानना होगा की वर्ण भी थे जिनके द्वारा वह अपनी वाणी को प्रकट कर सके। यदि कोई यह माने की वर्ण नहीं थे तो उसके साथ यह भी स्वीकार करना ही पड़ेगा की मनुष्य आदिम अवस्था में गूंगा उत्पन्न हुआ। यदि गूंगा उत्पन्न हुआ तो फिर वह किसी भी हालत में बोलने वाला नहीं हो सकता। इसलिए निष्कर्ष यही निकलेगा की उसमे बोलने की शक्ति थी और जब बोलने की शक्ति थी तो ये भी तथ्यात्मक है की जो भाषा वो बोले उनके वर्ण भी होने चाहिए।
                         जो लोग कहते हैं की सेमिटिक भाषाए, हीब्रू अथवा अरबी आदि आर्य भाषाओ से स्वतंत्र हैं वह गलती पर हैं, कारण की मनुष्य किसी नवीन भाषा को तो कभी बना ही नहीं सकता ?
                        क्योंकि मैथुनी (सेक्स) सृष्टि के लोगो की भाषा सदैव उनके मातापिता तथा गुरु की भाषा होती है। लेकिन आदि मनुष्यो की भाषा पूर्ण (संस्कृत) भाषा ही थी ऐसा नियम इसलिए मान्य है क्योंकि आदि मनुष्यो का माता पिता और गुरु ईश्वर के अतिरिक्त और कोई थे ही नहीं। तो ऐसी स्थति में और कोई देशीय भाषा विरासत में मिलना असंभव है – तो साफ़ है उनकी केवल वही भाषा होगी जो सृष्टि के पदार्थो में विद्यमान हो – परमेश्वर द्वारा मनुष्य पर प्रकट किये जाने वाले ज्ञान के पूर्ण माध्यम होने की उस भाषा में क्षमता हो और वह ऐसी भाषा होनी चाहिए जो सदा प्रत्येक कल्प में एक सी रहती हो तथा आगे बोल चाल की समस्त भाषाओ को उत्पन्न करने में सक्षम हो। विशेष बात यह है की वो किसी देश विदेश की भाषा न हो और न उससे पूर्व कोई ज्ञान वा भाषा पृथ्वी पर कहीं मौजूद हो बस यही बात है जो विशेष वर्णन के योग्य है की परमेश्वर ने मानव के पृथ्वी पर आने के साथ ही साथ वेद ज्ञान की प्रेरणा मनुष्य में दी – और वह वेद की भाषा “संस्कृत” में ईश्वरीय ज्ञान मानव को मिला जो आदि ज्ञान और आदि भाषा – दोनों था।

वाणी भाषाओ का विस्तार –

ऊपर जो कुछ दर्शाया गया है उसका भाव यह है की आदि अमैथुनी सृष्टि के मनुष्यो के शरीर तथा शरीर के सब अंग आदि आदर्श रुपी थे, जैसे वो आदि सृष्टि के मनुष्य मैथुनी सृष्टि के मनुष्यो के लिए साँचे रुपी थे अर्थात मनुष्य समाज के प्रवर्तक थे वैसे ही आदि भाषा भी साँचा रुपी और सभी भाषाओ की प्रवर्तक होनी चाहिए। इसीलिए उस आदि भाषा का नाम संस्कृत है। संस्कृत का अर्थ होगा पूर्ण भाषा यानी जो पूर्ण भाषा हो वो संस्कृत कहलाएगी।

इसी प्रकार अपूर्ण भाषाए जो वेद भाषा से संकोच, अपभ्रंश और मलेच्छित आदि होकर मनुष्य के बोल चाल की भाषाए बनती हैं। क्योंकि संस्कृत भाषा के दो भाग हैं –

1. वैदिक संस्कृत
2. लौकिक संस्कृत

प्राय सभी पश्चिमी विद्वान और अनेक भारतीय अनुसन्धानी भी संस्कृत को ही सभी भाषाओ का मूल मानते हैं – पर ध्यान देने वाली बात है की लौकिक संस्कृत की जन्मदात्री वैदिक संस्कृत है। वैदिक संस्कृत ही आदि भाषा है क्योंकि वैदिक संस्कृत अर्थात वेद की भाषा कभी भी किसी भी देश वा किसी जाती की अपने बोलचाल की भाषा नहीं रही है – क्योंकि वेदो में वाक्, वाणी आदि पदो का प्रयोग देखा जाता है भाषा का नहीं।

अब हम समझते हैं भाषा का विस्तार किस प्रकार हुआ – देखिये वेद में वैदिकी वाणी को नित्य कहा है –
तस्मै नूनमभिद्यवे वाचा विरूप नित्यया।
(ऋग्वेद 8.75.6)
नित्यया वाचा – अर्थात नित्य वेदरूप वाणी – यानी की वैदिक संस्कृत यह सब वाणियों (भाषाओ) की अग्र और प्रथम है –
बृहस्पते प्रथमं वाचो अग्नं
(ऋग्वेद 10.71.1)
प्रभु से दी गयी वेदवाणी ही इस सृष्टि के प्रारंभिक शब्द थे।
ईश्वर की प्रेरणा से यह वाणी सृष्टि के प्रारम्भ में ऋषियों पर प्रकट होती है।
यज्ञेन वाचः पदवीयमायणतामानवविन्दन्नृषिषु प्रविष्टाम्।
(ऋग्वेद 10.71.3)
प्रभु अग्नि आदि को वेदज्ञान देते हैं इससे अन्य यज्ञीय वृत्तिवाले ऋषियों को यह प्राप्त होती है – इसी मन्त्र में आगे लिखा है –
                     इस ही प्रथम, निर्दोष और अग्र वाणी को लेकर लोग बोलने की भाषा का विस्तार करते हैं।
तामाभृत्या व्यदधुः पुरूत्रा तां सप्त रेभा अभी सं नवंते।।
(ऋग्वेद 10.71.3)
इस वाणी को ऋषि मानव समाज में प्रचारित करते हैं। यह वेदवाणी सात छन्दो से युक्त है अर्थात २ कान – २ नाक – २ आँख और एक मुख ये सात स्तोता बनकर इसे प्राप्त करते हैं –

उपरोक्त प्रमाणों और तथ्यों से सिद्ध होता है की मनुष्य की एक ही भाषा थी – और मनुष्यो ने इसी वेद वाणी से अर्थात प्रथम व पूर्ण भाषा संस्कृत से – अपूर्ण भाषाए – अर्थात जितनी भाषाए आज प्रचलित हैं उनका निर्माण किया – लेकिन वैदिक संस्कृत में आज भी कोई फेर बदल नहीं हो सका – क्योंकि वैदिक संस्कृत पूर्ण भाषा है

सृष्टि उत्पत्ति क्यों और कैसे ?

मानव का प्रादुर्भाव कहाँ ?

सृष्टि उत्पत्ति क्यों और कैसे ?

सृष्टि उत्पत्ति क्यों और कैसे ? मानव का प्रादुर्भाव कहाँ ? – आचार्य पं. उदयवीरजी शास्त्री पिछले अंक का शेष भाग…………
 उत्तर- प्रयोजन कामनामूलक होता है।ब्रह्म को ब्रह्मज्ञानियों ने पूर्णकाम व आप्तकाम बताया है, इसलिये सृष्टि रचना में ईश्वर का कामनामूलक कोई निजी प्रयोजन नहीं रहता। यह एक व्यवस्था है और ईश्वरीय व्यवस्था है, वह स्वयं अपनी व्यवस्था से बाहर नहीं जाता, उसके नियम सत्य हैं और पूर्ण हैं। उनके अनुसार ईश्वर सृष्टि रचना करता है- जीवात्माओं के भोग और अपवर्ग की सिद्धि के लिये। उसका यह कार्य उसकी एक स्वाभाविक विशेषता है, इसमें कभी कोई अन्तर या विपर्यास आने की संभावना नहीं की जा सकती। सृष्टि रचना के द्वारा ही परमात्मा का बोध होता है और इस मार्ग से जीवात्मा मोक्ष को प्राप्त करता है। जब यह प्राप्त नहीं होता, तब कर्मों को करता और उनके अनुसार सुख-दुःख आदि फलों को भोगा करता है, सृष्टि-रचना का यही प्रयोजन है। निराकार से साकार सृष्टि कैसे ?
प्रश्न- ईश्वर को निराकार माना जाता है, वह निराकार होता हुआ सृष्टि की रचना कैसे करता है? लोक में देखा जाता है कि कोई भीकर्त्ता देहादि साकार सहयोगी के बिना किसी प्रकार की रचना करने में असमर्थ रहता है, तब निराकार ईश्वर इस अनन्त विश्व की रचना करने में कैसे समर्थ होता है?
उत्तर – अनन्त विश्व की रचना करने वाला निराकार ही समर्थ हो सकता है। जहाँ ईश्वर को निराकार माना गया है, वहाँ उसे सर्वव्यापक और सर्वशक्तिमान भी कहा गया है। जैसा कि पहले कहा जा चुका है, ‘सर्वशक्तिमान्’ का यही तात्पर्य है कि वह जगद्रचना में अन्य किसी सहायक की अपेक्षा नहीं रखता, उसमें अनन्त शक्ति व पराक्रम है, उसका चैतन्यरूप सामर्थ्य असीम है, वह उसी सामर्थ्य द्वारा मूल उपादान जड़ प्रकृति को प्रेरित करता है, उसकी अनन्त सामर्थ्ययुक्त व्यवस्था सूक्ष्मातिसूक्ष्म तत्त्वों में सर्वत्र व्याप्त है। वह कण-कण में अपना कार्य किया करती है। जीवात्मा अल्पज्ञ, अल्प शक्ति एवं एकदेशी है। उसे अपने किसी कार्य को संपन्न करने के लिये अन्तरंग साधनकरण (बुद्धि मन आदि) तथा बाह्य साधन देह एवं देहावयवों की अपेक्षा रहती है, इसलिये लोक में देखी गई स्थूल व्यवस्था के अनुसार ऐश्वरीसृष्टि के विषय में ऊहा करना उपयुक्त न होगा। यदि गभीरतापूर्वक विचार किया जाय तो जीवात्मा द्वारा की जानेवाली प्रेरणाओं में उस स्थिति को पकड़ा जा सकता है, जहाँ किसी साकार सहयोगी की अपेक्षा नहीं जानी जाती। विचार कीजिये, आप कुर्सी पर बैठे हैं, मेज आपके सामने है, मेज पर आपका हाथ निश्चेष्ट रक्खा हुआ है, उससे कुछ दूर मेज के कोने पर कलम रक्खा है, आप उसे उठाकर कुछ लिखना चाहते हैं। आपकी इस इच्छा के साथ ही हाथ में हरकत होती है, वह ऊपर उठता और अँगुलियों में कलम पकड़ कर फिर पहली जगह आ टिकता है। अब विचारना यह है कि हाथ में उठने के लिये जो क्रिया हुई है, वह एक प्रेरणा का फल है, देह के अन्दर बैठा जो आपका चेतन आत्मा है, उसी से यह प्रेरणा प्राप्त होती है। प्रेरणा देने की सीमा में चैतन्य के अतिरिक्त किसी अन्य साकार सहयोगी का समावेश नहीं है। यहाँ केवल चेतन आत्मा प्रेरणा दे रहा है, जो निराकार है। उसके अन्य साधन बुद्धि, मन आदि प्रेर्यमाण सीमा में आते हैं, प्रेरक सीमा में नहीं। इससे यह परिणाम निकलता है कि चैतन्य एक ऐसा तत्त्व है, जो प्रेरणा का अन्य आधार व स्रोत है, जिसमें किसी अन्य साकार सहयोगी की अपेक्षा नहीं रहती। जीव-चेतन की शक्ति जैसे अति सीमित है, ऐसे ब्रह्म-चेतन की शक्ति असीमित है, जैसे जीव केवल देह में प्रेरणा प्रदान करता है, ऐसे परमेश्वर अनन्त सामर्थ्य युक्त होने से अनन्त विश्व को प्रेरित करता है। सृष्टि रचना के विचार में यदि साकार सहयोगी की कल्पना की जाय तो वस्तुतः यह रचना ही असम्भव हो जायेगी, क्योंकि वह सहयोगी भी बिना रचना के असंभव होगा। फलतः अनन्त विश्व की रचना के लिये निरपेक्ष निराकार चैतन्य ही समर्थ हो सकता है, यह निश्चित है। बिना कारण क्यों नहीं?
प्रश्न– ईश्वर जब सर्वशक्तिमान् है , तो वह बिना कारण के ही जगत् को क्यों नहीं बना देता?
उत्तर – यह संभव नहीं। बिना कारण के कोई कार्य नहीं होता, कारण न होना ‘अभाव’ का स्वरूप है, जो अभाव है, वह कभी भाव रूप में परिणत नहीं हो सकता और न भाव रूप पदार्थ का कभी सर्वथा अभाव होता है। बिना कारण अथवा अभाव से जगत् की उत्पत्ति कहना बन्ध्या पुत्र के विवाह के समान मिथ्या है।
प्रश्न– जब कारण के बिना कुछ नहीं हो सकता, तो कारण का भी कोई कारण मानना होगा, और उसका भी कोई अन्य कारण, इस प्रकार तुमहारे इस कथन में अनवस्था दोष आता है कि कारण के बिना कुछ नहीं हो सकता।
उत्तर– हमने यह नहीं कहा कि कारण के बिना कुछ नहीं हो सकता। ऐसे भी पदार्थ हैं, जो किसी के कारण हैं, पर वे स्वयं किसी के कारण हैं, तो वे स्वयं किसी के कार्य भी हैं। ऐसे पदार्थों को ‘कारण-कार्य’ अथवा ‘प्रकृति-विकृति’ कहा जाता है। जैसे घड़ा मिट्टी से बनता है, मिट्टी पृथ्वीरूप है, पृथ्वी घड़े मकान आदि का कारण होते हुए भी अपने कारणों का कार्य है, अर्थात जिन कारणों से पृथ्वी की रचना होती है, उनका कार्य है। परन्तु जो सब कार्य जगत् का मूलकारण है, उसका और कोई कारण नहीं होता, जगत् का मूल उपादान कारण अनादि पदार्थ है, वह किसी से उत्पन्न या परिणत नहीं होता, यदि ऐसा होता तो वह मूलकारण नहीं हो सकता था। इस प्रकार जैसे जगत् का कर्त्ता निमित्त कारण ईश्वर अनादि है, वैसे ही जगत् का मूल उपादान कारण प्रकृति भी अनादि है। उसका अन्य कोई कारण संभव नहीं, क्योंकि वह कार्य नहीं, केवल कारण है, अतएव अनवस्था दोष की यहाँ संभावना नहीं हो सकती।
प्रश्न- आप प्रकृति उपादान से जगत् की सृष्टि कहते हैं, पर अन्य अनेक आचार्यों के सृष्टि की उत्पत्ति के विषय में विविध विचार हैं, क्या उनमें कोई सत्यता नहीं है? उन विचारों को निम्नलिखित वादों के रूप में उपस्थित किया जा सकता है-शून्यवाद, अभाववाद, आकस्मिकवाद, सर्वानित्यत्ववाद, भूतनित्यत्ववाद, पृथक्त्ववाद, इतरेतराभाववाद, स्वभाववाद, जगदनादिवाद, जीवेश्वरवाद आदि। क्या इनके अनुसार सृष्टि की यथार्थ व्याखया संभव नहीं?
उत्तर – इन वादों के आधार पर सृष्टि की सत्य एवं पूर्ण व्याखया होना समभव नहीं, ये सब एकदेशी, अवैदिकवाद हैं, जो किसी एक अंश पर धुँधला-सा प्रकाश डालते हैं, कहीं वह भी नहीं, प्रत्युत प्रकाश की जगह अन्धकार का ही विस्तार करते हैं। जगत् की यथार्थ विद्यमानता पहले दोनों वादों को ठुकरा देती है। किसी वस्तु का होना कहना अथवा उत्पन्न होना बताना और उसे अकस्मात् कहना परस्पर विरोधी हैं। जो वस्तु उत्पन्न होती है, वह निश्चित ही अपने कारणों से होगी, यह अलग बात है कि हम उन कारणों को जान सकें या न जान सकें। सब वस्तु अनित्य है, अथवा भूतनित्य हैं, इसलिए सब वस्तु नित्य हैं, ये कथन अपने ही में मिथ्या है। किसी वस्तु का नित्य या अनित्य होना विशिष्ट निमित्तों पर आधारित है, उत्पन्न होने वाली वस्तु अनित्य तथा उत्पादन-विनाश से रहित वस्तु नित्य कही जाती है, यह एक व्यवस्था है। प्रत्येक वस्तु न नित्य हो सकती है, न अनित्य। पृथक्त्ववाद आधुनिक रसायन शास्त्र से पर्याप्त सीमा तक मेल रखता है। रसायन शास्त्र के अनुसार आज तक ऐसे एक सौ दो पदार्थों का पता लग चुका है, जो मूल रूप में एक दूसरे से पृथक है, एक दूसरे में किसी का कोई अंश नहीं है, भविष्य में और भी ऐसे अनेक पदार्थों का पता लग जाने की संभावना है। सोना, चाँदी, लोहा, तांबा, पारा, गन्धक, जस्ता, सीसा, कैल्शियम, आक्सीजन, हाइड्रोजन, कॉर्बन, नाईट्रोजन, सिलिकन्, फास्फोरस, ऐल्युमिनिअम, आर्सनिक, प्लैटिनम्आदि सब ऐसे पदार्थ हैं, जो सर्वथा एक दूसरे से पृथक है। किसी में किसी का कोई अंश नहीं है, पर भौतिकी विज्ञान ने ही इस तथ्य को स्पष्ट कर दिया है कि ये सब किन्हीं मूलतत्त्वों के समिश्रण से बने हैं। वे मूल तत्त्व प्रोटॉन, इलैक्ट्रॉन और न्यूट्रॉन् हैं, भारतीय दार्शनिकविचार के अनुसार इन्हें यथाक्रम सत्व, रजस्, तमस् के वर्ग में समझा जा सकता है। वैसे भी उक्त पदार्थों में से प्रत्येक में आकाश, काल, सामान्य (जाति) एवं नियन्ता शक्ति परमात्मा आदि का विद्यमान रहना अनिवार्य है, इसलिये स्वरूप से इनके पृथक रहते भी इनमें अन्य पदार्थों का अस्तित्व रहता ही है। पदार्थों के इतरेतराभाव से सब पदार्थों का अभाव बताना सर्वथा प्रत्यक्ष विरुद्ध है। गाय घोड़ा नहीं, घोड़ा गाय नहीं, इसलिये न गाय है न घोड़ा, ऐसा कहना नितान्त विचार शून्य है।यद्यपि गाय घोड़ा नहीं है, पर गाय गाय है, घोड़ा घोड़ा है, उनके अपने अस्तित्व को कैसे झुठलाया जा सकता है? ‘स्वभाव’ से जगत् की उत्पत्ति कहना, किस अर्थ को प्रकट करता है, यह विचारणीय है। स्वभाव में ‘स्व’ पद का अर्थ क्या है? यदि पद मूलकारण को कहता है, तो इस पद मात्र के अलग कहने से कोई अन्तर नहीं आता, अपने मूल कारण से जगत् उत्पन्न होता है, यही उसका तात्पर्य हुआ। इसी प्रकार वर्तमान रूप में जगत् को अनादि कहना प्रमाण विरुद्ध है। जागतिक वस्तुओं में परिणाम व परिवर्तन अथवा उत्पादन-विनाश बराबर देखा जाता है, जो इसके बने हुए होने को सिद्ध करता है, इसी रूप में जगत् को अनादि कहना अयुक्त है। पृथिव्यादि पदार्थ अवयव संयोग से बने परीक्षा द्वारा प्रत्यक्ष देखे जाते हैं। यह कहना भी सर्वथा अयुक्त है कि जगत् का कर्त्ता ईश्वर कोई नहीं, जीवात्मा ही सिद्ध अवस्था को प्राप्त होकर जगद्रचना कर सकते हैं। जीवात्मा को सिद्ध अवस्था तक पहुँचने के लिये भी संसार की आवश्यकता है, यह संसार किसने बनाया ? किसी जीवात्मा का अनादि सिद्ध होना सभव नहीं। यदि कोई चेतन आत्मतत्त्व सृष्टि रचना का सामर्थ्य रखने वाला अनादि सिद्ध माना जाता है, तो उसे ही परमात्मा कहा जा सकता है। सृष्टि का क्रम प्रवाह से अनादि है, उत्पत्ति स्थिति और प्रलय जगत् के अनादिकाल से चले आते हैं, अनन्त काल तक इसी प्रकार चलते रहेंगे, यह ऐश्वरी व्यवस्था है। कल्प-कल्पान्तर में परमेश्वर ऐसी ही सृष्टि को बनाता, धारण करता एवं प्रलय करता रहता है। ईश्वर के कार्य में कभी भूल-चूक या विपर्यास नहीं होता।
प्रशन- सृष्टि विषय में क्या वेदादि शास्त्रों का एवं भारतीयदर्शनों का परस्पर विरोध नहीं है? कहीं आत्मा से, कहीं परमाणु से, कहीं प्रकृति से, कहीं ब्रह्म और काल एवं कर्म से सृष्टि कही है। इनमें स्पष्ट विरोध प्रतीत होता है । उत्तर– इनमें विरोध कोई नहीं, ये सब एक दूसरे के पूरक हैं। प्रत्येक कार्य अनेक कारणों से बनता है। यह कहा जा चुका है, कार्यमात्र के तीन कारण हुआ करते हैं, निमित्त, उपादान और साधारण। न्यायादिदर्शनों में जगत् के विभिन्न कारणों का वर्णन है और उसके लिये अन्य उपयोगी विधियों का। प्रत्येक वस्तु की सिद्धि के किसी भी स्वर पर हमें प्रमाणों का आश्रय लेना पड़ता है, इस स्थिति का कोई दर्शन विरोध नहीं करता। तत्त्व विषयक जिज्ञासा होने पर प्रारमभ में शिक्षा का उपक्रम वहीं से होता है, जिनका प्रतिपादन वैशेषिक दर्शन करता है। तत्त्वों के स्थूल-सूक्ष्म साधारण स्वरूप और उनके गुण-धर्मों की जानकारी पर ही आगे तत्त्वों की अतिसूक्ष्म अवस्थाओं को जानने-समझने की ओर प्रवृत्ति एवं क्षमता का होना समभव है। प्रमाण और बाह्य प्रमेय का विषय न्याय-वैशेषिक दर्शनों में प्रतिपादित किया गया है। तत्त्वों की उन अवस्थाओं और चेतन-अचेतन रूप में उनके विश्लेषण को सांय प्रस्तुत करता है। चेतन-अचेतन के भेद को साक्षात्कार करने की प्रक्रियाओं का वर्णन योग में है। इन प्रक्रियाओं के मुखय साधन भूत मन की जिन विविध अवस्थाओं के विश्लेषण का योग में वर्णन है, वह मनोविज्ञान की विभिन्न दिशाओं का केन्द्र भूत आधार है। समाज के कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य का वर्णन मीमांसा एवं समस्त विश्व के संचालक व नियन्ता चेतन तत्त्व का वर्णन वेदान्त करता है। यह ज्ञान साधन कार्यक्रम भारतीय संस्कृति के अनुसार वर्णाश्रम धर्मों एवं कर्त्तव्यों के रूप में पूर्णतया व्यवस्थित है। इन उद्देश्यों के रूप में कहीं किसी का किसी के साथ विरोध का उद्भावन अकल्पनीय है। दर्शनों में जिन तत्त्वों का निरूपण किया है, सृष्टि रचना में एक दूसरे के पूरक होकर वे तत्त्व पहले कहे तीन कारणों में अन्तर्हित अथवा समाविष्ट हैं, इनमें विरोध का कहीं अवकाश नहीं।
प्रश्न– पृथिव्यादि लोक-लोकान्तर तथा पृथिवी पर औषधि वनस्पति आदि उत्पन्न हो जाने पर संचरण शील प्राणी का प्रादुर्भव कैसे होता है? चालू सर्ग क्रम में ऐसे प्राणी का प्रजनन मिथुन मूलक देखा जाता है, यह स्थिति सर्वादिकाल में होनी संभव नहीं। यह एक उलझन भरी समस्या है कि सर्वप्रथम प्राणी का प्रादुर्भाव कैसे हुआ।
उत्तर- सर्वप्रथम प्राणी का प्रादुर्भाव बाह्य मिथुन मूलक नहीं होता। परमात्मा अपनी अचिन्त्य शक्ति एवं व्यवस्था के अनुसार स्त्री-पुरुषों के शरीर बनाकर उनमें जीवों का संयोग कर देता है। शरीर की रचना जिस प्रक्रिया के अनुसार चालू होती है, उसमें जीवात्मा का संचार प्रथमतः हो जाता है। प्राणी शरीर की रचना अत्यन्त जटिल है, शरीर-रचना की इस सुव्यवस्था को देखकर रचना करने वाले का अनुमान होता है। जो व्यवस्था जिस प्राणी वर्ग में निहित कर दी गई है, वह चालू संसार के मिथुन-मूलक प्रजनन में अब तक चली आ रही है और प्रलय पर्यन्त चलती रहेगी। इससे आदि शरीर की रचना बाह्य मैथुन रहित केवल परमात्मा की नित्य व्यवस्था के अनुसार होती है। यह अनुमान वर्तमान में देखी गई व्यवस्था के आधार पर किया जा सकता है।
प्रश्न– इतने कथन से आदि सर्ग में मानव शरीर रचना की प्रक्रिया का स्पष्टीकरण नहीं होता। इसका और स्पष्ट विवरण देना चाहिए।
उत्तर– आदि सर्ग में प्राणी देह की रचना ऐश्वरी सृष्टि में गिनी जाती है। सर्वप्रथम जो प्राणी हुए, विशेषतः मानव प्राणी, उनका पालन-पोषण करने वाला माता-पिता आदि कोई न था, इसलिये यह निश्चित समभावना होती है कि वे मानव किशोर अवस्था में प्रादुर्भूत हुए, कतिपय आधुनिक वैज्ञानिक भी ऐसा मानने लगे हैं। बोस्टन नगर के स्मिथसोनियन इन्स्टीट्यूट के जीव विज्ञान शास्त्र के अध्यक्ष डॉ. क्लॉर्क का कथन है- मानव जब प्रादुर्भूत हुआ, वह विचार करने, चलने फिरने और अपनी रक्षा करने के योग्य था- Man appeared able to think walk and defend himself. समस्या यह है कि मानव ऐसा विकसित देह सर्वप्रथम प्रादुर्भूत कैसे हुआ? उसकी रचना किस प्रकार हुई होगी? सचमुच यह समस्या अत्यन्त गमभीर है। ऐसी स्थिति में ऐसे शरीरों का प्रकट हो जाना अनायास बुद्धिगमय नहीं है। इसे समझने के लिये हमें चालू सर्ग काल के प्रजनन की स्थिति पर ध्यान देना चाहिये, समभव है वहाँ की कोई पकड़ इस समस्या को सुलझाने में सहयोग दे सके। साधारण रूप से प्रजनन की विधा चार वर्गों में विभक्त है- जरायुज, अण्डज, उद्भिज्ज और स्वेदज अथवा ऊष्मज। अन्तिम वर्ग अति सूक्ष्म, अदृश्य कृमि-कीटों से लगाकर दृश्य क्षुद्र जन्तुओं तक का है। इस वर्ग के प्राणी का देह नियत ऊष्मा पाकर अपने कारणों से उदभूत हो जाता है। उद्भिज्ज वर्ग वनस्पति का है। चालू सर्ग काल में देखा जाता है कि बीज से वृक्ष होता है, पर सबसे पहले वृक्ष का बीज कैसे हुआ, यह विचारणीय है। निश्चित है कि वह बीज वृक्ष पर नहीं लगा, तब यही अनुमान किया जा सकता है कि उसकी रचना प्रकृति गर्भ में होती रही होगी। बीज में प्रजनन शक्ति-अंश एक कोष (खोल) में सुरक्षित रहता है, यह स्पष्ट है। वृक्ष पर बीज के निर्माण की प्रक्रिया भी नियन्ता की व्यवस्था के अनुसार प्रकृति का एक चमत्कार है। वंश बीज-निर्माण की प्रक्रिया क्या है, प्रजनन-अंश किस प्रकार कोष में सुरक्षित हो जाते हैं, जड़ से बीज तक कैसे उसका निर्माण होता आता है, इसे आज तक किसने जाना है? इसी प्रकार अण्डज वर्ग में बीज एक अति सुरक्षित कोष में आहित रहता है, इस वर्ग में कीड़ी तथा उससेा भी अन्य कतिपय सूक्ष्म जन्तुओं से लेकर अनेक सरीसृप जाति के प्राणी स्थलचर तथा जलचर एवं नभचर पक्षी जाति का समावेश है। विभिन्न जातियों के देहों के अनुसार कोश की रचना छोटी-बड़ी देखी जाती है। इस वर्ग का भ्रूण एक विशेष प्रकार के खोल से सुरक्षित रहता है, मातृ-गर्भ र्में उपयुक्त पोषण प्राप्त कर गर्भ से बाहर भी नियत काल तक कोश युक्त रहता हुआ पोषण प्राप्त करता है। भ्रूण का यथायथ परिपाक होने पर खोल फटता है और बच्चा निकल आता है, यह प्रकृति का एक चमत्कार है। इस वर्ग में उत्पत्ति काल की दृष्टि से कुछ अधिक बड़े देह वाले प्राणियों का सामावेश है तथा यह एक विचारणीय बात है कि भ्रूण का गर्भ से बाहर भी परिपोषण होता है। अण्डज वर्ग के आगे बड़ी देह वाला प्राणी-वर्ग जरायुज है, जिसमें मानव एवं समस्त पशु-मृग आदि का समावेश है। कोश में भ्रूण के परिपोषण की प्राकृत व्यवस्था इस वर्ग में भी समान है। मातृगर्भ भ्रूण पूर्णाङ्ग होने तक जरायु में परिवेष्टित रहता है। स्निग्ध सुदृढ़ चमड़े जैसे पदार्थ की थैली का नाम जरायु है, पूर्णाङ्ग होने पर बालक इसको भेदकर ही मातृगर्भ से बाहर आता है। इस प्रकार भ्रूण की सुरक्षा, उपयुक्त पुष्टि व वृद्धि तक के लिए उसका विशिष्ट कोश में परिवेष्टित होना सर्वत्र प्राणी-वर्ग में समान है। यह एक ऐसी नियत व्यवस्था है, जो प्राणी के प्रादुर्भाव की आद्य-स्थिति पर पर्याप्त प्रकाश डालती है। चालू सर्ग काल अथवा मैथुनी सृष्टि में नर-मादा का संयोग प्राणी के साजात्य प्रजनन की जिस स्थिति को प्रस्तुत करता है, वह स्थिति अमैथुनी सृष्टि में प्राकृत नियमों वव्यवस्थाओं के अनुसार प्रकृति गर्भ में प्रस्तुत हो जाती है। इस व्यवस्था से और अण्डज वर्ग के सामान मातृगर्भ से बाहर भ्रूण की परिपोषण प्रक्रिया से यह अनुमान होता है कि सर्व-प्रथम आदिकाल में मानव आदि बड़े की रचना प्रकृति पोषित सुरक्षित उपयुक्त कोशों द्वारा हुई होगी। चालू सर्ग काल में देहों के अनुसार कोषों के आकार में विभिन्नता देखी जाती है। यह समभव है, आदि काल में प्रकृति निर्मित उपयुक्त कोशों में सुरक्षित एवं परिपोषित मानव आदि के किशोरावस्थापन्न सजीव देह यथावसर प्रादुर्भूत हुए हों। आदिसर्ग में विविध प्राणियों का अनेक संखया में प्रादुर्भाव हो जाता है, यह मानने में कोई बाधा नहीं है। यह सब जीवों के कर्मानुसार ऐश्वरी व्यवस्था के सहयोग से हुआ करता है।
प्रश्न– सर्व प्रथम मानव का प्रादुर्भा व पृथ्वी के किस प्रदेश पर हुआ?
उत्तर– भारतीय साहित्य के आधार पर अनेक दिशाओं से यह स्पष्ट होता है कि मानव का सर्वप्रथम प्रादुर्भाव ‘त्रिविष्टप’ नामक प्रदेश में हुआ, जो वर्तमान तिबत के कैलाश, मानसरोवर प्रदेश तथा उससे सुदूर पश्चिम और कुछ दक्षिण-पश्चिम की ओर फैला हुआ था। कुछ समय पश्चात गंगा सरस्वती आदि नदी घाटियों के द्वारा आर्यों ने भारत प्रदेश में आकर निवास किया और इसका आर्यावर्त्त नाम रक्खा, सर्वप्रथम यहाँ आर्यों का निवास हुआ। उनसे पहले यहाँ अन्य किसी मानव का निवास नहीं था। आर्यों का मूलस्थान और यह भूभाग एक ही देश था। आर्य कहीं बाहर से यहाँ कभी नहीं आये। इक्ष्वाकु से लेकर कौरव-पाण्डव पर्यन्त पृथ्वी के इन समस्त भागों पर आर्यों का अखण्ड राज्य और वेदों का थोड़ा-थोड़ा सर्वत्र प्रचार रहा। अनन्तर आर्यों का आलस्य, प्रमाद और परस्पर का विरोध समस्त ऐश्वर्य एवं विभूतियों को ले बैठा। पृथिव्यादि लोकों की लगभग एक अरब सत्तानवें करोड़ वर्ष की आयु में अब तक आर्यों का अधिक काल अभयुदय का बीता है। वेद धर्म पर प्रज्ञा पूर्वक आचरण करने से अब भी उत्कृष्ट अभयुदय की सभावना की जा सकती है। इस प्रकार सर्वशक्तिमान् परमेश्वर ने अतिसूक्ष्म प्रकृति रूप उपादान कारण से जगत् को बनाया, जो असंखय पृथिव्यादि लोक-लोकान्तरों के रूप में दृष्टिगोचर हो रहा है। ये समस्त लोक अपनी गति एवं परस्पर के आकर्षण से ऐश्वरी व्यवस्था के अनुसार अनन्त आकाश में अवस्थित हैं। जैसे परमेश्वर इन सबका उत्पादक है, वैसे ही इनका धारक एवं संहारक भी रहता है। हमारी इस पृथ्वी के समान अन्य लोक-लोकान्तरों में भी प्राणी का होना संभव है। जीवात्माओं के कर्मानुष्ठान और सुख-दुःखादि फलों को भोगने तथा आत्म-ज्ञान होने पर अपवर्ग की प्राप्ति जगद्रचना का प्रयोजन है। असंखय लोकान्तरों की रचना का निष्प्रयोजन होना असभव है, अतःलोकान्तरों में भी प्राणी का होना समभव है। वेद का ज्ञान सबके लिए समान है। समस्त विश्व पर परमेश्वर का नियन्त्रण रहता है। उसी व्यवस्था के अनुसार सब तत्त्व अपना कार्य किया करते हैं।

1. क्या प्रारंभ में एक ही वेद था जो बाद में चार भागों में बाँट दिया गया ?
वास्तव में मानव सृष्टि के बाद प्रारंभ से ही चार वेद थे, परन्तु कुछ पुराण जैसे वायु, विष्णु, मत्स्य एवं अग्नि पुराण में ऐसा वर्णन है कि प्रारंभ में एक ही वेद था, द्वारपर के अंत में कृषाद्वैपायन व्यास ने उसे चार भागों में बाँट दिया । ऐसा कहने मात्र जका अंतर हैं, क्योंकि आदि ईश्वरीय ज्ञान तो एक ही है, भाले ही चार वेदों में हो और उसी वेदज्ञान को अन्य ऋषियों की भांति द्वापर के अंत में कृष्णाद्वैपायन व्यास ने उसे समझाया हो । परन्तु, व्यास जी वेदों के रचयिता नहीं है, क्योंकि वेद तो व्यास जी से पहले से है । चारों वेदों के नाम से प्रारंभ से ही चार वेद है ।
2. प्रारंभ से ही चारों वेदों के क्या प्रमाण है ?
समस्त आर्यधर्मग्रंथों जैसे ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद, महाभारत, मनुस्मृति,यहाँ तक कि वेद से भी चार वेदों के प्रमाण मिलते है । अथर्ववेद में चारों वेदों के नाम के प्रमाण –

ऋग्, साम, यजु, मही (सकम्भसूत्र १५) 2. ऋग्, साम, यजु:, अथर्व (सकम्भसूत्र २०) 3. ऋग्, साम, यजु:, छंदासी (ओदन-सूत्र) 4. ऋग्, साम, यजु, उद्गीथ (उच्छिष्टस ५), 5. ऋग्, साम, यजु:, छंदासि (उच्छिष्टस २४)

चत्वारि शृङ्गास्त्रयो अस्य पादा: । (ऋ० ४/५८/३, यजु: १७/९१)
यस्मिन् वेद निहिता विश्वरूपा: । (ऋ०)
ब्रह्म प्रजापतिधीता लोक वेदा: सप्त ऋषयोअग्नय: ।
तस्माघज्ञात् सर्वहुत ऋच: सामानि जज्ञिरे ।
छन्दासि जज्ञिरे तस्माघजुस्तस्मादजायत । (अथर्व० १९/६/१३)
स्तोमश्च यजुश्चऋक् च सं च बृहच्च रथन्तरन्च स्वर्देवा अगन्म । (यजु:० १८/२९)
तत्रापरा ऋग्वेदो यजुर्वेद: सामवेदोअथर्ववेद । (मुण्डक० १०/७/१४)
विज्ञानेन वा ऋग्वेदं विजानाति यजुर्वेदं सामवेदमथर्वण चतुर्थम् । (छां० ७/७/१)
चत्वारो वै इमे वेद ऋग्वेद दो यजुर्वेद: सामवेदो ब्रह्मवेद इति । (गोपथ० २/१६)
वेदीश्चतुर्भि: सुप्रीता । (महाभा० द्रोण० ५१/२२)
यज्ञा वेदाश्च चत्वार: । (महाभा० वन० २१५/२२)
उपर्युक्त प्रमाणों के अलावा यज्ञ में चार ऋत्विककों की आवश्यकता होती है । इनमें ऋग्वेद का ज्ञाता होता, यजुर्वेद का उद्गाता, सामवेद का अध्वर्यु और अथर्ववेद का ज्ञाता ब्रह्मा कहलाता है । अत: चारों वेदों में से एक-एक वेद का विशेषज्ञ विद्वान् यज्ञ की सम्पूर्णता के लिए आवश्यक होता है ।इस प्रकार निश्चित रूप से वेद चार ही हैं, न कम न ज्यादा ।
3. कुछ कहते है कि वेद तो तीन ही है। क्या अथर्ववेद बाद में जोड़ा गया है ?
ऐसा कहना पूर्णतया गलत है, क्योंकि पिछले प्रमाणों में चरों वेदों का नाम एकसाथ आया है, उनमें अथर्ववेद भी शामिल है ।
                           मगर तीन वेदों की भांति वेदों की ‘त्रयी विद्या’ का ठीक अर्थ न समझने के कारण है । चारों वेद त्रयी विद्या से ओत-प्रेत है। कभी-कभी चारों वेदों को त्रयी विद्या से संबोधित किया जाता है, क्योंकि वेदों में तीन प्रकार की विद्याएँ है जैसाकि महाभारत के निम्न श्लोक से स्पष्ट है कि-
त्रयी विद्यामवेक्षेत् वेदषुक्तामथांगत: ।
ऋक्सामवणक्षिरतो यजुषोअथर्वणस्तथा ।।
(महाभा० शा० २३५)
चारों वेदों में तीन प्रकार की विद्याएँ है, जैसे ज्ञान, कर्म और उपासना । दूसरे, यास्काचार्य ने वेदों के आधिभौतिक, आधिदैविक एवं आध्यात्मिक भावों में तीन प्रकार से भाष्य किया । तीसरे, वेदों के मंत्रो की रचना तीन प्रकार की शैली में है, यानी गद्यात्मक, पद्यात्मक एवं गानात्मक । किन्तु इन तीन प्रकार की विद्याओं का वेदों के नामो से सम्बन्ध नहीं है । इसके अलावा, अथर्ववेद को विभिन्न नामों जैसे ब्रह्म, छन्दों वेद. छन्दासि, उद्गीथ, मही आदि नामों से भी व्यक्त किया गया है । इसके अलावा सद्गुरुशिष्य सर्वानुक्रमणी की भूमिका में लिखते है कि “हालांकि वेद चार हैं, परन्तु वे तीन प्रकार से विभाजित किए गए हैं, यानी गद्य, पद्य एवं गीत ।” इसका अर्थ यह नहीं कि वेद तीन ही है । विस्तार के लिए स्वामी विद्यानंद सरस्वती का ‘चत्वारो वै वेदा:’ देखिये ।
4. क्या यह ठीक है कि चारों वेदों की उत्पत्ति ब्रह्मा के चारों मुखों से हुई है ?
यह एक भ्रामक प्रचार है। न ब्रह्मा के चार मुख है और न उनसे चारों वेदों की उत्पत्ति हुई है। यह एक आलंकारिक भाषा में लिखा गया पौराणिक प्रचारमात्र है। इसका सही अर्थ यही है कि वेदों की उत्पत्ति स्वयं ब्रह्मा यानी परमेश्वर से हुई है।
                            अथर्ववेद में आया है ‘ब्रह्म ब्रह्मं ददातु’ (अथर्व०) पुन: यत्र ब्रह्म पवमान छन्दस्यां वाचं वदतु (अथर्व०) यानी ब्रह्म-परमेश्वर विभिन्न छन्दों में समस्त ज्ञान को देता है ।
                            यह पहले स्पष्ट किया जा चूका है कि वेद परमेश्वर से ही प्रकट हुए, किसी अन्य देवी-देवता आदि से उत्पन्न नहीं हुए । मनुस्मृति में स्पष्ट है कि “अग्निर्वायु-रविभ्यस्तु त्रयं ब्रह्म सनातनम् । दुदोह यज्ञसिद्दयर्थ ऋग्यजु:सामलक्षणम्” यानी ऋग्, साम, अथर्ववेद वाला तीन प्रकार का वेद ब्रह्म ऋषि, अग्नि, वायु और आदित्य से पढ़ा । अत: ब्रह्मा नामक किसी देवता ने वेद नहीं बनाएं, क्योंकि चारों वेद एक ही ब्रह्म से उत्पन्न है । अत: आलंकारिक भाषा में ब्रह्म के चारों मुखों की कल्पना कर चारों वेदों का स्त्रोत ‘चार मुख’ बता दिया ।
5. यदि वेद मानव सृष्टि के आदि से है तो क्या वैदिक संस्कृत भाषा भी तभी से है ?
नि:सन्देह वैदिक संस्कृत भाषा विश्व की समस्त भाषाओँ से प्राचीन है, एवं वर्तमान सभी भाषाओँ की जननी है । ऐसा सभी भाषाविद मानते है ।
6. विश्व की अन्य धर्म-पुस्तकों की तरह क्या मनुष्य वेदों की रचना नहीं कर सकता था ?
मनुष्य वेदों की रचना नहीं कर सकता, क्योंकि मनुष्य का ज्ञान सीमित, तात्कालिक, एकदेशीय एवं परिस्थितियों से प्रभावित होने के कारण सार्वदेशिक व सर्वव्यापी नहीं हो सकता । मनुष्य का ज्ञान संशयात्मक एवं विरोधाभासयुक्त हो सकता है । कोई भी मनुष्य समस्त प्रकार की विद्याओं में पारंगत नहीं हो सकता जिसका विश्वव्यापी प्रयोग किया जा सके ।
7. क्या वेदज्ञान के अलावा मनुष्य ज्ञान का विकास नहीं कर सकता ?
मनुष्य प्रारंभ में दिए ज्ञान का विकास कर सकता है, परन्तु मूल ज्ञान का निर्माण नहीं कर सकता क्योंकि, ज्ञान दो प्रकार का होता है- एक नैमित्तिक जिसे केवल ईश्वर ही दे सकता है, दूसरा स्वाभाविक जिसे मनुष्य अपने चिन्तन, मनन एवं अभ्यास से विकसित करता है । वेदों को ईश्वरीय ज्ञान न माननेवालों ने भी यही निष्कर्ष निकाला है कि मूल ज्ञान का स्त्रोत परमेश्वर ही है । वह ज्ञान वेदों में ही है, अन्य कहीं नहीं । पिछली शताब्दियों में मनुष्य ने अनेकानेक प्रयोग करके अनेकों वैज्ञानिक तथ्यों एवं तकनीकों का विकास किया है, मगर उनका मूल गणित, भौतिक आदि स्त्रोत के रूप में वेदों में ही है उसका अधिकतम विकास करना अभी भी शेष है, जिसकी श्री अरविन्द ने बहुत पहले कहा था ।
8. वेदों का आविर्भाव कितने वर्ष पहले हुआ है ?
वेदों का आर्विभाव मानव-सृष्टि के प्रारंभ में ही हुआ था और वेदी काल-गणना के अनुसार इसे 1,96,08,53,118 वर्ष हो गए है । वैज्ञानिक गणना के अनुसार भी, मानव-सृष्टि-रचना को करीब दो अरब वर्ष हो गए है । ये वैज्ञानिक तथ्य स्वामी दयानन्द द्वारा वेदों की काल रचना एवं सृष्टि संवत् के अनुकूल है ।

🚩🔥🙏 नमस्ते 🚩🙏🔥

शुक्रवार, 8 नवंबर 2019

रामायण भ्रांतियां का समाधान (भाग १)

क्या विवाह के समय श्री राम की आयु १६ वर्ष और माता सीता की आयु ६ वर्ष थी?

क्या विवाह के समय श्री राम की आयु १६ वर्ष और माता सीता की आयु ६ वर्ष थी?

कुछ विशिष्ट जनो को भगवान राम और माँ सीता के विवाह के सन्दर्भ में कुछ भ्रान्ति है. कुछ तर्क वाल्मीकि रामायण से लेकर ये निष्कर्ष निकला जा रहा है की विवाह के वक़्त माँ सीता की उम्र मात्र छ साल की थी, जो सही नहीं है.. बाल्मीकि रामायण से एक श्लोक का प्रमाण निकालकर कुछ लोग ऐसा प्रमाणित करना चाहते हैं की श्रीराम और माता सीता का विवाह “बालविवाह” था – अर्थात – श्री राम की आयु १६ और माता सीता की आयु ६ वर्ष थी – जबकि ये सत्य नहीं –

आइये बाल्मीकि रामायण में सबसे पहले इसी श्लोक पर चर्चा कर लेते हैं की वहां क्या लिखा है

उषित्वा द्वादश समाः इक्ष्वाकुणाम निवेशने।।
भुंजाना मानुषान भोगतसेव काम समृद्धिनी।।
(अरण्यकाण्ड ४७: ४)
ध्यान दे की इस श्लोक में द्वा और दश शब्द अलग अलग है. येद्वादश यानि बारह नहीं बल्कि द्वा “दो” को और दश “दशरथ” को संबोधित करता है. इसमें माँ सीता, रावन से, कह रही है की इक्ष्वाकु कुल के राजा दशरथ के यहाँ पर दो वर्ष में उन्हें हर प्रकार के वे सुख जो मानव के लिए उपलब्ध है उन्हें प्राप्त हुए है। क्योंकि इस श्लोक में इक्ष्वाकु कुल का नाम सीता जी बोल रही हैं – लेकिन उस कुल में दशरथ पुत्र राम से उनका विवाह हुआ – स्पष्ट है – पुरे श्लोक में दशरथ नाम कहीं और भी नहीं लिखा है – इसलिए “द्वा” दो को और “दश” – महाराज दशरथ को सम्बोधन है।

इसे पूर्ण रूप से न समझ कर – कुछ ऐसा अर्थ किया जाता है – एक उदहारण –

“उस समय छोटे बच्चो को कमरे में बंद रखा जाता था” –
इसे कुछ इस तरह अर्थ किया गया –
“उस समय छोटे बच्चो को कमरे में बंदर खा जाता था” –
श्लोक का अर्थ थोड़ा गलत करने से पूरा मंतव्य ही बदल गया।

मम भर्ता महातेजा वयसा पंच विंशक ।।३-४७-१०।।
अष्टा दश हि वर्षिणी नान जन्मनि गण्यते ।।३-४७-११।।

इस श्लोक में माँ सीता कह रही है की उस समय (वनवास प्रस्थान के समय) मेरे तेजस्वी पति की उम्र पच्चीस साल थी और उससमय मैं जन्म से अठारह वर्ष की हुई थी. इसे ये ज्ञात होता है की वनवास प्रस्थान के समय माँ सीता की उम्र अठारह साल की थी औरवो करीब दो साल राजा दशरथ के यहाँ रही थी यानि माँ सीता की शादी सोलह साल की उम्र के आस पास हुई थी. ये केवल सोच और समझ का फेर है।

सिद्धाश्रम : श्री राम १४-१६वे वर्ष में ऋषी विश्वमित्र के साथ सिद्धाश्रम को गए थे। इस तथ्य की पुष्टि वाल्मीक रामायण के बाल काण्ड के वीस्वें सर्ग के शलोक दो से भी हो जाती है, जिसमे राजा दशरथ अपनी व्यथा प्रकट करते हुए कहते हैं- उनका कमलनयन राम सोलह वर्ष का भी नहीं हुआ और उसमें राक्षसों से युद्ध करने की योग्यता भी नहीं है।

उनषोडशवर्षो में रामो राजीवलोचन: न युद्धयोग्य्तामास्य पश्यामि सहराक्षसौ॥
 (बालकाण्ड, सर्ग २०, शलोक २)
राम ऋषि विश्वामित्र के साथ चौदह अथवा सोलह वर्ष की उम्र में गए थे और उसके बाद ही उनका विवाह हुआ था इसे ये सिद्ध हो जाता है की रामकी शादी सोलह वर्ष के उपरान्त हुई थी

श्री राम और लक्ष्मण ने – ऋषि विश्वामित्र के आश्रम सिद्धाश्रम में करीब १२ वर्ष तक निवास किया और ऋषि विश्वामित्र ने उन्हें ७२ शस्त्रास्त्रों का सांगोपांग ज्ञान तथा अभ्यास कराया –

यदि श्री राम की आयु ऋषि विश्वामित्र के साथ उनके आश्रम में जाते समय १६ नहीं १४ भी माने तो ऋषि विश्वामित्र के आश्रम में विद्या ग्रहण करते हुए १२ साल व्यतीत हुए जिसका योग २६ वर्ष होता है –

उपरोक्त तथ्यों से सिद्ध है की श्रीराम की आयु मिथिला में स्वयंवर जाते समय २५-२६ वर्ष थी और माता सीता की आयु १६ वर्ष थी।

अब भी यदि कुछ अतिज्ञानी नहीं मानते – तो कृपया बताये –

स्वयंवर के समय श्री राम की आयु यदि १६ वर्ष और माता सीता की आयु यदि ६ वर्ष मानते हो – तो वनवास क्या श्री राम २-४ वर्ष की आयु में गए ?

🕉 महाराज जटायु 🕉

महाराज जटायु

धर्मात्मा महाराज जटायु कोई पक्षी गिद्ध नहीं – क्षत्रिय वर्ण के मनुष्य थे
महाराज जटायु की वंशावली –

ऋषि मरीचि कुलोत्त्पन्न – ऋषि ताक्षर्य कश्यप

और महाराज दक्ष कुलोत्त्पन्न – विनीता

ताक्षर्य कश्यप और विनीता के दो पुत्र –

गरुड़ और अरुण

अरुण के दो पुत्र हुए –

सम्पात्ति और जटायु

इन सभी महापुरषो का विवरण धीरे धीरे प्रस्तुत किया जायेगा – फिलहाल आज हम चर्चा करेंगे –

धर्मात्मा महाराज जटायु के बारे में –

महाराज जटायु – ऋषि ताक्षर्य कश्यप और विनीता के पुत्र थे, आप गृध्रराज भी कहे जाते हैं, क्योंकि गृध्र एक पर्वत क्षेत्र है – जिसकी आकृति एक गिद्ध की चोंच जैसी है – इनका राज्य – अवध (अयोध्या और मिथिला) के बीच का हिस्सा था – जो एक पहाड़ी क्षेत्र था। ऐसा में कोई भ्रान्ति वश नहीं लिख रहा हु – ना ही मेरी कोई कपोल कल्पना है – आप रामायण में रावण और जटायु का संवाद पढ़े तो स्पष्ट दीखता है – देखिये –

रावण को अपना परिचय देते हुए जटायु ने कहा –

मैं गृध कूट का भूतपूर्व राजा हूँ और मेरा नाम जटायु हैं

सन्दर्भ – अरण्यक 50/4 (जटायुः नाम नाम्ना अहम् गृध्र राजो महाबलः | 50/4)

क्योंकि उस समय में आश्रम व्यवस्था की मान्यता थी जिसकी वजह से समाज और देश व्यवस्थित थे – आज ये वयवस्था चरमरा गयी है जिसके कारण ही देश पतन की और अग्रसर है – खैर – उस समय धर्मात्मा जटायु वानप्रस्थ आश्रम में होंगे – तभी वे अपने राज्य को युवा हाथो में सौंप देश और समाज की व्यवस्था में लग गए – इसका महत्वपूर्ण परिणाम था की माता सीता को रावण से बचाने के लिए अपनी प्राणो की भी बाजी लगा दी –

कुछ लोग धर्मात्मा जटायु को – एक पक्षी – या फिर बहुत बड़ा शरीर वाला गिद्ध समझते हैं – ऐसे लोग केवल वो पढ़ते हैं जिससे उन्हें अपना मनोरथ सिद्ध करना हो – जो सत्य और न्याय से परिपूर्ण हो वो पढ़ना नहीं चाहते – क्योंकि यदि पक्षपात और दुराग्रह त्याग कर – सत्य अन्वेषी बने तो सब कुछ साफ़ और स्पष्ट है की वे एक मनुष्य ही थे देखिये-

  • जैसे की ऊपर वंशावली दी गयी है – धर्मात्मा जटायु – ऋषि मरीचि के कुल में उत्पन्न ताक्षर्य कश्यप ऋषि और महाराज दक्ष के कुल में उत्पन्न विनीता के पुत्र थे – तो भाई क्या एक मनुष्य के गिद्ध संतान उत्पन्न हो सकती है ?
  • प्रभु राम ने धर्मात्मा जटायु को अरण्य काण्ड में “गृध्राज जटायु” अनेक बार बोला है क्योंकि वो उन्हें जान गए थे की वो गृध्र प्रदेश नरेश जटायु हैं।
  • जटायु राज को इसी सर्ग में श्री राम ने द्विज कहकर सम्बोधित किया – जो ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य के लिए ही उपयोग होता है –
  • जटायु राज को श्री राम इसी सर्ग में अपने पिता दशरथ का मित्र बताते हैं।
  • जिस समय रावण सीता का अपहरण कर उसे ले जा रहा था तब जटायु को देख कर सीता ने कहाँ – हे आर्य जटायु ! यह पापी राक्षसपति रावण मुझे अनाथ की भान्ति उठाये ले जा रहा हैं । (सन्दर्भ-अरण्यक 49/38) – यहाँ भी जटायु महाराज को द्विज सम्बोधन है – और यहाँ द्विज किसी भी प्रकार से पक्षी के लिए नहीं हो सकता – क्योंकि रावण को अपना परिचय देते हुए – जटायु महाराज अपने को – गृध्र प्रदेश का भूतपूर्व राजा बता रहे हैं।
  • जटायु राज का इसी सर्ग के बाद अगले सर्ग में दाह संस्कार स्वयं श्री राम ने किया – कुछ लोग ध्यान पूर्वक पढ़ लेवे – क्योंकि बहुत से हिन्दू भाइयो के मन में विचार आता है की जटायु – एक बहुत विशाल – पर्वत तुल्य – और बृहद पक्षी (गिद्ध) थे – तो भाई मुझे केवल इतना बताओ –

यदि जटायु महाराज इतने ही विशाल गिद्ध थे – तो बाल्मीकि रामायण के अरण्यकाण्ड सर्ग 68 में – प्रभु श्री राम बाल्मीकि के शव को अपनी गोद में रखते हुए बड़े प्रेम से लक्ष्मण को कहते हैं – लक्ष्मण इनका दाह संस्कार हम करेंगे – प्रबंध करो – तब चिता पर जटायु महाराज को चिता पर लेटाकर – उनका दाह संस्कार प्रभु राम ने किया। तो बताओ भाई श्री राम इतने पर्वत तुल्य गिद्ध शरीर – को कैसे उठा कर चिता पर रखकर – दाह किया होगा ?

कुछ भाई अरण्य काण्ड के सर्ग ६७ का एक श्लोक प्रस्तुत करके कहते हैं की – श्री राम ने भी जटायु को गिद्ध ही समझा था – क्योंकि उन्होंने कहा की

“ये पर्वत के किंग्रे के तुल्य ने ही वैदेही सीता खा ली है, इसमें कोई संदेह नहीं।”

यहाँ पर्वत के किंग्रे तुल्य का सही अर्थ ना जानकार व्यर्थ ही आक्षेप करते हैं – पर्वत के किंग्रे तुल्य अर्थ बड़ा डील वाला – यानी औसत शरीर से बड़ा – और यहाँ वैदेही सीता खा ली है से तात्पर्य है की – उस वन में अनेक “जंगली – असभ्य – राक्षस प्रवर्ति के लोग निवास करते थे जो मांसभक्षी थे – इसलिए प्रभु राम ने ऐसी सम्भावना व्यक्त की। भाई कृपया समझ कर पढ़िए –

यदि पर्वत के किंग्रे तुल्य का अर्थ इतना ही बड़ा होगा – तो बताओ कैसे इतने बड़े भरी भरकम शरीर को प्रभु राम ने उठाकर चिता पर रखा होगा ? कैसे अपनी गोद में उस धर्मात्मा जटायु के सर को रखकर लक्ष्मण से वार्ता की होगी ?
इसी दाह संस्कार के बाद प्रभु राम ने – महाराज जटायु के लिए उदककर्म भी संपन्न किया था।

अब जहाँ तक हिन्दुओ को भी पता होगा – ये उदककर्म – मनुष्यो द्वारा – मनुष्यो के लिए ही किया जाता है – अब यदि फिर भी कोई धर्मात्मा जटायु को गिद्ध समझे – तो ये उसकी मूरखता ही सिद्ध होगी।

कृपया अपने महापुरषो के सत्य स्वरुप को जानिये – उनके बल, पराक्रम, शौर्य और वीरता को व्यर्थ ना करे। उनके पुरषार्थ का मजाक न बनाये। उन्हें पशु पक्षी तुल्य जानकार बताकर – समझकर – उनके चरित्र का मजाक ना स्वयं बनाये न किसी को बनाने ही दे।

क्या हनुमान जी उड़कर समुद्र लांघ लंका पहुंचे थे?

क्या हनुमान जी उड़कर समुद्र लांघ लंका पहुंचे थे?

सुन्दर काण्ड के पहले सर्ग में श्लोक संख्या १-९ – बाल्मीकि रामायण में हनुमान जी के उड़ने जैसा कोई वर्णन कहीं प्राप्त नहीं होता है –

आखिर सच क्या है – आइये एक नजर बाल्मीकि रामायण के सुन्दर काण्ड के पहले सर्ग में श्लोक संख्या १-९ तक देखे और विचार करते हैं :

जो हनुमान जी के उड़कर समुद्र लांघ कर लंका जाने की बात है वो भी एक मिथक ही है – यदि आप बाल्मीकि रामायण को पढ़े – तो सुन्दर काण्ड के पहले सर्ग में श्लोक संख्या १-९ – कृपया ध्यान दीजिये – इस रेफ को नोट कीजिये और जाकर चेक कीजिये – वहां वाल्मीकि जी लिखते हैं –

दुष्करं निष्प्रतिद्वद्वं चिकीर्षन्कर्म वानरः।
समुदग्रशिरोग्रीवो गवां पतिरिवाबभौ ।।१।।
पॢवग पॢवने कृतनिश्चयः।
ववृघे रामवृद्धयर्थे समुद्र इव पर्वसु ।।२।।
विकर्षन्नूर्मिजालानी बृहन्ति ळवणाम्भसि।
पुप्लुवे कपिशार्दूलो विकिरन्निव रोदसी ।।३।।
मेरुमंदरसंकाशानुदगतांसुमहार्णवे।
अत्यक्राम्न्महावेगस्त रंगंगान्यन्निव ।।४।।
तिमिनक्रझषाः कूर्मा दृश्यन्ते विवृतास्तदा।
वस्त्रापकर्षणेनेव शरीराणि शरीरिणाम ।।५।।
येनासौ याति बलवान्वेगेन कपिकुञ्जरः।
तेन मार्गेण सहसा द्रोणिकृत इवार्णवः ।।६।।
प्राप्तभूयिष्ठपारस्तु सर्वतः परिलोकयन्।
योजनानां शतस्यान्ते वनराजी ददर्श सः ।।७।।
सागरं सागगनूपानसागरानूपजान्द्रुमान।
सागरस्य च पत्नीनां मुखान्यापि विलोकयत ।।८।।
स चारुनानाविघरूपधारी परं समासाद्य समुद्रतीरम।
निपत्य तीरे च महोदधेस्तदा ददर्श लंकाममरावतीमिव ।।९।।
(सुन्दर काण्ड, सर्ग १, श्लोक संख्या १-९)

अर्थ:➧ बड़ा, कठिन, तुलना से रहित कर्म करना चाहता हुआ, ऊँचे सिर और ग्रीवावाला वानर सांड की तरह भासने लगा ।।१।।
डोंगी से तैरने में निश्चय वाला, डोंगी से तैरने वालो में श्रेष्ठो से देखा हुआ वह पर्वो में समुद्र के तरह राम के अर्थवृद्धि को प्राप्त हुआ।।२।।
उस खारी जल में बड़े बड़े २ लहरो के समूहों को चीरता हुआ वह वानर श्रेष्ठ मानो द्यौ पृथ्वी पर (जल के फूल) बिखेरता हुआ खेवा करने लगा।।३।।
मेरु मंदर के बराबर महासागर में उठती हुई लहरो को बड़े वेगवाला, मानो गिनता हुआ गया।।४।।
(बल से जल उछलने पर) मछलिये, मगर, मच्छ, इस तरह नंगे हुए दीखते हैं जैसे वस्त्र के खींच लेने से शरीर धारियों के शरीर।।५।।
बलवान वानर श्रेष्ठ वेग से जिस मार्ग से जा रहा था, उस मार्ग से समुद्र सहसा द्रोण की तरह होता जाता था (पानी में उसकी डोंगी के आकार बनते जाते थे)।।६।।
बहुत बड़ा भाग पार करके सब और देखता हुआ वह सौ योजन की समाप्ति पर वन समूह को देखता भया।।७।।
सागर, सागर के किनारे के देश, और उस देश में होने वाले वृक्ष और सागर की पत्नियें (नदियों) के मुहाने देखता भया।।८।।
सुन्दर नानाविधरूप धारी वानर समुद्र के परले तीर पर पहुंचकर महासागर के किनारे पर उतरकर अमरावती के तुल्य लंका को देखता भया।।९।।

इस सारे सर्ग से अधिकतर हनुमान जी का समुद्र को फांद कर पार होना पाया जाता है, जोकि असंभव है। और ये कोई मिथक अथवा लोकोक्ति बनायीं गयी लगती है – क्योंकि यहाँ सर्ग में ही स्वयं वाल्मीकि जी ने दूसरे श्लोक में हनुमान जी को डोंगी से तैर कर समुद्र पार करने का स्पष्ट इशारा किया है –

पॢव = छोटी नौका – डोंगी अथवा आज के समय पर तेज वेग से पानी में चलने वाली “वेवरनर” जैसा कोई तीव्र वाहन –

श्लोक ३ में लिखा है – “उस खारी जल में बड़े बड़े २ लहरो के समूहों को चीरता हुआ वह वानर श्रेष्ठ” – आप विचार करे – बिना जल में कोई नौका चलाये ये काम असंभव है।

श्लोक ४ में लिखा है – “मेरु मंदर के बराबर महासागर में उठती हुई लहरो को बड़े वेगवाला, मानो गिनता हुआ गया” – स्वयं विचार करे – लहरे उठती रहती हैं समुद्र में – पर जैसे कोई “सर्फिंग” करने गया मनुष्य उन उठती लहरो के ऊपर संतुलन बनाकर वेग से चलता है – ठीक वैसे ही इस श्लोक में बताया गया – उड़ना नहीं बताया।

श्लोक ४ में लिखा है – “बलवान वानर श्रेष्ठ वेग से जिस मार्ग से जा रहा था, उस मार्ग से समुद्र सहसा द्रोण की तरह होता जाता था (पानी में उसकी डोंगी के आकार बनते जाते थे) – इस श्लोक से तो सारी शंकाओ का पूर्ण समाधान ही हो गया – जब भी पानी पर डोंगी नाव कुछ भी चलेगी वो पानी को चीरकर आगे बढ़ेगी जिससे उस मार्ग में पानी का रास्ता कटता हुआ दिखेगा जो नाव अथवा डोंगी के आकार का ही होगा – अधिक विश्लेषण हेतु एक बार इस पोस्ट के साथ संलग्न चित्र को देखे –

श्लोक 9 में लिखा है –सुन्दर नानाविधरूप धारी वानर समुद्र के परले तीर पर पहुंचकर महासागर के किनारे पर उतरकर अमरावती के तुल्य लंका को देखता भया” – अब देखिये यहाँ स्पष्ट रूप से वर्णित है हनुमान जी समुद्र के पार लंका के किसी तीर (नदी अथवा समुद्र का किनारा) पर पहुंच कर लंका को देखने लगे।

यहाँ विचारने योग्य बात यह है की यदि हनुमान जी उड़कर लंका गए होते तो किसी समुद्र किनारे उतरने की कोई आवश्यकता नहीं थी – वो सीधे ही लंका के महल पर उतरते – या फिर जहाँ माता सीता को रखा गया था उस अशोक वाटिका में उतरते –
अधिक जानकारी के लिए सुन्दर काण्ड के दुसरे सर्ग की श्लोक संख्या १-१७ भी पढ़ लेवे –

यहाँ संक्षेप में बताता हु – वहां लिखा है –

हनुमान जी नीले हरे घास के, उत्तम गंध वाले, मधु वाले और उत्तम वृक्षों वाले वनो के मध्य में से गया।
 (सुन्दर काण्ड, सर्ग २, श्लोक ३)

अब बताओ भाई – यहाँ स्पष्ट लिखा है वनो के मध्य में से गए – फिर उड़ कर वनो के ऊपर से क्यों नहीं गए ???????

इसके आगे के श्लोको में भी हनुमान जी के उड़ने का कोई वर्णन नहीं बल्कि स्पष्ट लिखा है – वो चतुराई से कैसे लंका में दाखिल हुए – उसके लिए उन्हें शाम तक इन्तेजार करना पड़ा – यदि उड़ सकते होते तो शाम तक इन्तेजार करते क्या ????

हनुमान जी बन्दर नहीं थे

हनुमान जी बन्दर नहीं थे

भारतीय इतिहास में अनेक विद्वान् तथा बलवान् हुए हैं। हनुमान उनमें से एक व्यक्ति थे। उनकी सेवक के रूप में बहुत अच्छी है। उनका जीवन आदर्श ब्रह्मचारी का भी रहा है परन्तु हमारे नादान पौराणिक भाइयों ने उन्हें बन्दर मानकर उनके साथ अन्याय किया हैः-
एक वे हैं जो दूसरों की छवि को देते हैं सुधार।
एक हम हैं लिया अपनी ही सूरत को बिगाड़।।
वे बन्दर न थे, अपितु पूर्णतः ऊपरोक्त गुणों से युक्त एक प्रेरक, आदर्श तथा कुलीन महापुरुष थे। कुछ प्रमाणों से हम इसे स्पष्ट करने का प्रयास कर रहे हैं। मर्यादा राम से उनकी प्रथम भेंट तब हुई थी, जब राम व लक्ष्मण भगवती सीता की खोज में इधर-उधर भटक रहे थे। खोजते-खोजते वे दोनों ऋष्यमूक पर्वत पर- सुग्र्रीव की ओर गए तो सुग्रीव उन्हें दूर से देखकर भयभीत हो गया। उसने अपने मन्त्रियों से यह कहा कि ये दोनों वाली के ही भेजे हुए हैं ऐसा प्रतीत होता है। हे वानर शिरोमणी हनुमान! तुम जाकर पता लगाओ कि ये कोई दुर्भावना लेकर तो नहीं आये हैं।
सुग्रीव की इस बात को सुनकर हनुमान जहाँ अत्यन्त बलशाली श्री राम तथा लक्ष्मण थे, उस स्थान के लिए तत्काल चल दिये। वहाँ पहुँचने से पूर्व उन्होंने अपना रूप त्यागकर भिक्षु (=सामान्य तपस्वी) का रूप धारण किया तथा श्री राम व लक्ष्मण के पास जाकर अपना परिचय दिया तथा उनका परिचय लिया।
तत्पश्चात् श्री राम ने अनुज लक्ष्मण से कहा-
नानृग्वेदविनीतस्य नायजुर्वेदधारिणः।
नासामवेदविदुषः शक्यमेवं विभाषितुम्।।
(किष्किन्धा काण्ड, तृतीय सर्ग, श्लोक २८)
अर्थः➧ जिसे ऋग्वेद की शिक्षा नहीं मिली, जिसने यजुर्वेद का नहीं किया तथा जो सामवेद का विद्वान् नहीं है, वह इस प्रकार सुन्दर भाषा में वार्तालाप नहीं कर सकता।
नूनं व्याकरणं कृत्स्नमनेन बहुधा श्रुतम्।
बहु व्याहरतानेन न किंचिदपश िदतम्।।
 (किष्किन्धा काण्ड, तृतीय सर्ग श्लोक २९)
अर्थः➧ निश्चय ही इन्होंने व्याकरण का अनेक बार अध्ययन किया है। यही कारण है कि इनके इतने समय बोलने में इन्होंने कोई भी त्रुटि नहीं की है।
न मुखे नेत्रयोश्चापि ललाटे च भ्रुवोस्तथा।
अन्येष्वपि च सर्वेषु दोषः संविदितः क्वचित्।।
(किष्किन्धा काण्ड, तृतीय सर्ग, श्लोक ३०)
अर्थः➧ के समय इनके मुख, नेत्र, ललाट, भौंह तथा अन्य सब अंगों से भी कोई दोष प्रकट हुआ हो, ऐसा कहीं ज्ञात नहीं हुआ।
इससे स्पष्ट है कि हनुमान वेदों के विद्वान् तो थे ही, व्याकरण के उत्कृष्ट ज्ञाता भी थे तथा उनके शरीर के सभी अंग अपने-अपने करणीय कार्य उचित रूप में ही करते थे। शरीर के अंग जड़ पदार्थ हैं व मनुष्य का आत्मा ही अपने उच्च संस्कारों से उच्च कार्यों के लिए शरीर के अंगों का प्रयोग करता है। किसी बन्दर में यह योग्यता हो सकती है कि वह वेदों का विद्वान् बने? व्याकरण का विशेष ज्ञाता हो? अपने शरीर की उचित देखभाल भी करे?
रामायण का दूसरा प्रमाण इस विषय में प्रस्तुत करते हैं। यह प्रमाण तब का है, जब अंगद, व हनुमान आदि समुद्रतट पर बैठकर समुद्र पार जाकर सीता जी की खोज करने के लिए विचार कर रहे थे। तब ने हनुमान जी को उनकी उ कथा सुनाकर समुद्र लङ्घन के लिए उत्साहित किया। केवल एक ही श्लोक वहाँ से उद्धृत है-
सत्वं केसरिणः पुत्रःक्षेत्रजो भीमविक्रमः।
मारुतस्यौरसः पुत्रस्तेजसा चापि तत्समः।।
(किष्किन्धा काण्ड, सप्तषष्टितम सर्ग, श्लोक २९)
अर्थःहे वीरवर! तुम केसरी के क्षेत्रज पुत्र हो। तुम्हारा पराक्रम शत्रुओं के लिए भयंकर है। तुम वायुदेव के औरस पुत्र हो, इसलिए तेज की दृष्टि से उन्हीं के समान हो।
इससे सिद्ध है कि हनुमान जी के पिता केसरी थे परन्तु उनकी माता अंजनी ने पवन नामक पुरुष से नियोग द्वारा प्राप्त किया था। इस सत्य को स्वयं हनुमान जी ने भी स्वीकार किया, जब वे लंका में रावण के दरबार में प्रस्तुत किए गए थे-
अहं तु हनुमान्नाम मारुतस्यौरसः सुतः।
सीतायास्तु कृते तूर्णं शतयोजनमायतम्।।
(सुन्दरकाण्ड, त्रयस्त्रिंश सर्ग)
अर्थःमैं पवनदेव का औरस पुत्र हूँ। मेरा नाम हनुमान है। मैं सौ योजन पार कर सीता जी की खोज में आया हूँ।
हनुमान को मनुष्य न मानकर उन्हें बन्दर मानने वालों से हमारा निवेदन है कि इन दो प्रमाणों के आधार पर यह सिद्ध है कि हनुमान जी बन्दर न थे, अपितु वे एक नियोगज पुत्र थे। नियोग प्रथा मनुष्य समाज में अतीत में प्रचलित थी। यह प्रथा बन्दरों में प्रचलित होने का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता। रामायण के इस प्रबल प्रमाण के होते हुए हनुमान जी को मनुष्य मानना ही पड़ेगा।
रामायण में से ही हम तीसरा प्रमाण भी प्रस्तुत करते हुए सिद्ध कते हैं कि हनुमान मनुष्य ही थे, न कि वे बन्दर थे। यह प्रमाण तब का है, जब हनुमान लंका में पहुँच तो गए थे किन्तु बहुत प्रयास करने पर भी सीता जी का पता न कर पाए तो वे सोचने लगे थे कि बिना सीता जी का अता-पता पाए मैं यदि लौटूँगा तो राम जी तथा स्वामी सुग्रीव जी को सूचना दूँगा? वहाँ हा हाकार मचेगा। वाल्मीकि ऋषि के शब्द्दों मेंः-
सोऽहं नैव गमिष्यामि किष्कि न्धां नगरीमितः।
वानप्रस्थो भविष्यामि ह्यदृष्ट्वा जनकात्मजाम्।।
 (सुन्दरकाण्ड, सप्तम सर्ग)
अर्थःमैं यहाँ से लौटकर किष्किन्धा नहीं जाऊँगा। यदि मुझे सीता जी के दर्शन नहीं हुए तो मैं वानप्रस्थ धारण कर लूँगा।
हनुमान जी को मनुष्य न मानकर बन्दर घोषित करने वाले अपने पौराणिक भाई-बहनों से निवेदन है कि वे अपना हठ त्याग कर यह तथ्य तुरन्त स्वीकार कर लें कि हनुमान सच्चे वैदिक धर्मी मनुष्य थे, न कि वे बन्दर थे क्योंकि वानप्रस्थी बनने की बात सोचना तो दूर क ी बात है, वानप्रस्थ होता है, बन्दरों को यह भी ज्ञात नहीं होता। हनुमान को बन्दर मानने वाले लोग तुलसीदास गोस्वामी द्वारा रचित ‘‘हनुमान चालीसा’’ का पाठ करते हैं परन्तु उसमें भी एक प्रमाण ऐसा है जो हमारी बात का समर्थन करता हैः-
हाथ वज्र औ ध्वजा विराजे।
कान्धे मूँज जनेऊ साजे।।
काश! ऐसे लोग इस चालीसा में यह पाँचवा पद बोलते-पढ़ते समय इतना समझ पाते कि इसके अनुसार हनुमान जी अपने कन्धे पर जनेऊ धारण किए फिरते थे तथा बन्दर नहीं, अपितु जनेऊ (= यज्ञोपवीत) तो मनुष्य ही धारण करते हैं।
हनुमान दूरस्थ किसी पर्वत पर जाकर मूर्च्छित लक्ष्मण के उपचार के लिए संजीवनी बूटी लाए थे। यह कार्य भी कोई बन्दर नहीं कर सकता अपितु कोई मनुष्य ही कर सकता था जिसे जड़ी-बूटियों का पर्याप्त ज्ञान हो।
हनुमान से हटकर अब थोड़े विचार उनके समकालीन रामायण के कुछ अन्य पात्रों के विषय में भी प्रस्तुत हैं। इनमें एक प्रसंग वाली की पत्नी तारा से है। जब सुग्रीव दूसरी बार वाली को युद्ध के लिए ललकारने गया तो वाली की पत्नी तारा ने अपने पति को राम जी से मैत्री कर लेने की प्रार्थना की परन्तु वाली ने ऐसा न करके सुग्रीव का सामना करने, सुग्रीव का घमण्ड चूर-चूर करने, परन्तु सुग्रीव के प्राण हरण न करने का वचन देकर तारा को वापिस राजप्रसाद में चले जाने को कहा तो-
ततः स्वस्त्ययनं कृत्वा मन्त्रविद् विजयैषिणी।
अन्तःपुरं सह स्त्रीभिः प्रविष्टा शोकमोहिता।।
 (किष्किन्धा काण्ड, षोडश सर्ग श्लोक १२)
अर्थः➧ वह पति की विजय चाहती थी तथा उसे मन्त्र का भी ज्ञान था। इसलिए उसने वाली की मंङ्गल-कामना से स्वस्तिवाचन किया तथा शोक से मोहित होकर वह अन्य स्त्रियों के साथ अन्तःपुर को चली गई।
मन्त्र का ज्ञान बन्दरों को अथवा बन्दरियों को नहीं होता, न ही हो सकता है। अतः सिद्ध है कि हनुमान का जिन से मिलना-जुलनादि था, उनकी पत्नियाँ भी मनुष्य ही थीं। यही तारा जब अपने पति वाली को प्राण त्यागते देख रही थी तो अन्य बातों के अतिरिक्त यह भी बोली-
यद्यप्रियं किंचिदसम्प्रधार्य कृतं मया स्यात् तव दीर्घबाहो।
क्षमस्व मे तद्धरिवंशनाथ व्रजामि मूर्धा तव वीरपादौ।। 
 (किष्किन्धाकाण्ड, एकविंश सर्ग, श्लोक २५)
अर्थः➧ ‘‘महाबाहो! यदि नासमझी के कारण मैंने आपका कोई अपराध किया हो तो आप उसे क्षमा कर दें। वानरवंश के स्वामी वीर आर्यपुत्र! मैं आपके चरणों में मस्तक रखकर यह प्रार्थना करती हूँ।’’
इस श्लोक से सिद्ध है कि वाली आर्यों के एक वंश वानर में जन्मा मनुष्य ही था। इसी प्रकार तारा को भी महर्षि वाल्मीकि ने आर्य पुत्री ही घोषित कियाः-
तस्येन्द्रकल्पस्य दुरासदस्य महानुभावस्य समीपमार्या।
आर्तातितूर्णां व्यसनं प्रपन्ना जगाम तारा परिविह्वलन्ती।।
 (किष्किंधाकाण्ड, चतुर्विंश सर्ग, श्लोक २९)
अर्थः➧ ‘‘उस समय घोर संकट में पड़ी हुई शोक पीड़ित आर्या तारा अत्यन्त विह्वल हो गिरती-पड़ती तीव्र गति से महेन्द्र तुल्य दुर्जय वीर महानुभाव श्री राम के समीप गई।’’
वाली की मृत्यु के पश्चात् अङ्गद व सुग्रीव ने वाली के शव का अन्त्येष्टि-संस्कार शास्त्रीय विधि से कियाः-
ततोऽग्ंिन विधिवद् द वा सोऽपसव्यं चकार ह।
पितरं दीर्घमध्वानं प्रस्थितं व्याकुलेन्द्रियः।।
संस्कृत्य वालिनं तं तु विधिवत् प्लवगर्षभाः।
आजग्मुरुदकं कर्तुं नदीं शुभजलां शिवाम्।।
किष्किन्धाकाण्ड, षड्विंश सर्ग, श्लोक ५०-५१)
अर्थः➧ ‘‘फिर शास्त्रीय विधि के अनुसार उसमें आग लगाकर उन्होंने उसकी प्रदक्षिणा की। इसके बाद यह सोचकर कि मेरे पिता लम्बी यात्रा के लिए प्रस्थित हुए हैं, अङ्गद की सारी इन्द्रियाँ शोक से व्याकुल हो उठीं। इस प्रकार विधिवत् वाली का दाह संस्कार करके सभी वानर जलाञ्जलि देने के लिए पवित्र जल से भरी हुई कल्याणमयी तुङ्गभद्रा नदी के तट पर आए।’’
इस प्रमाण से सिद्ध होता है कि वाली, सुग्रीव, अङ्गद आदि वेद विहित शास्त्रीय कार्य करते थे। यह भी उनके मनुष्य होने का प्रमाण है।
उपर्युक्त तथ्यों के बाद हम अब सामान्य विश्लेषण करते हुए पौराणिकों से पूछते हैं कि वाली की पत्नी तारा, सुग्रीव की पत्नी रुमा हनुमान की माँ अंजनि मनुष्य योनि की स्त्रियाँ थीं तो उनके माताओं-पिताओं ने उन्हें बन्दरों अर्थात् वाली, सुग्रीव तथा केसरी के सङ्ग दिया था? बन्दरों व स्त्रियों से बन्दरों का जन्म होना अव्यवहारिक व अवैज्ञानिक है। अतः यह सर्वथा अमान्य है कि उक्त पुरुष बन्दर थे। यह भी निवेदन है कि बन्दरों, उनकी पत्नियों, उनके पिताओं तथा उनकी माताओं के नाम नहीं होते, उनके जीवन का कोई इतिहास नहीं होता, खाने-पीने व सोने-जागने के अतिरिक्त कोई अन्य कार्य वे करते नहीं। फिर ऊपरोक्त पात्रों के नामकरण हुए? उनके कार्य-व्यवहार मनुष्यों जैसे-कैसे हुए?
वास्तविकता यह है कि वानर एक जाति है। इसे आंग्ल भाषा में सरनेम भी कहते हैं। हिमाचल प्रदेश के काँगड़ा व हमीरपुर जिलों में नाग जाति के कुछ मनुष्य आपको मिल सकते हैं। नाग का अर्थ सर्प है परन्तु वे इस को अपने नाम के साथ सहर्ष लिखते हैं। पिछले वर्ष के न्द्र सरकार में कार्यरत एक उच्चाधिकारी जब सेवानिवृ ा हुए था तो किसी विशेष कारण वश उसका नाम भी दैनिक पत्रों में छपा था। तब पता चला कि वह भी ऊपरोक्त नाग जाति का ही सदस्य था। सन् १९६९ में भारत के राष्ट्रपति पद पर वी.वी. गिरि नामक एक दक्षिण भारतीय व्यक्ति आसीन हुआ था। गिरि का अर्थ पर्वत है परन्तु वह पर्वत न होकर मनुष्य ही था। गिरि उसका सरनेम था या उसकी जाति थी। पंजाब, हरियाणा, हिमाचल, राजस्थान तथा कुछ अन्य प्रदेशों में बहुत-से लोग (अधिकतर जन्मना क्षत्रिय) अपने नाम के साथ सिंह का प्रयोग करते हैं, जिसका अर्थ शेर है। हरियाणा में बहुत-से लोग मोर जाति से सम्बद्ध हैं और उनके नाम के पीछे मोर लिखा होता है। पंजाब के एक राज्यपाल जयसुख लाल हाथी हुए हैं। हरियाणा में सिंह मार नामक जाति के कई व्यक्ति आपको मिल सकते हैं।
इस वर्णन के आधार पर हमारा निवेदन है कि जिस प्रकार नाग, गिरि, मोर, सिंह, हाथी व सिंह मार नामक जातियाँ मनुष्यों की ही हैं, न कि सर्पों, पर्वतों, शेरों, हाथियों व शेरों के हत्यारों आदि की हैं, हालांकि इनके शा िदक अर्थ ऊपरोक्त ही है। इसी प्रकार रामायण के हनुमान, सुग्रीव, बाली, तारा, रुमा, जाम्बवान व अङ्गद आदि वानर नामक मनुष्य जाति के सदस्य थे, न कि ये बन्दर थे। यह उनके कार्यों व इतिहास से प्रमाणित किया गया है।

लव कुश के जन्म की यथार्थ कहानी….

लेखक – स्वामी विद्यानंद जी सरस्वती
लव कुश के जन्म की यथार्थ कहानी


राम द्वारा अयोध्या यज्ञ में महर्षि वाल्मीकि आये उन्होंने अपने दो हष्ट पुष्ट शिष्यों से कहा – तुम दोनों भाई सब ओर घूम फिर कर बड़े आनंदपूर्वक सम्पूर्ण रामायण का गान करो। यदि श्री रघुनाथ पूछें – बच्चो ! तुम दोनों किसके पुत्र हो तो महाराज से कह देना कि हम दोनों भाई महर्षि वाल्मीकि के शिष्य हैं । ९३ /५

उन दोनों को देख सुन कर लोग परस्पर कहने लगे – इन दोनों कुमारों की आकृति बिल्कुल रामचंद्र जी से मिलती है ये बिम्ब से प्रगट हुए प्रतिबिम्ब के सामान प्रतीत होते हैं । ९४/१४


यदि इनके सर पर जटाएं न होतीं और ये वल्कल वस्त्र न पहने होते तो हमें रामचन्द्र जी में और गायन करने वाले इन कुमारों में कोई अंतर दिखाई नहीं देता। ९४/१४


बीस सर्गों तक गायन सुनाने के बाद श्री राम ने अपने छोटे भाई भरत से दोनों भाइयों को १८ -१८ हजार मुद्राएं पुरस्कार रूप में देने को कह दिया। यह भी कह दिया कि और जो कुछ वे चाहें वह भी दे देना । पर दिए जाने पर भी दोनों भाइयों ने लेना स्वीकार नहीं किया । वे बोले – इस धन की क्या आवश्यकता है ? हम वनवासी हैं । जंगली फूल से निर्वाह करते हैं सोना चांदी लेकर क्या करेंगे । उनके ऐसा कहने पर श्रोताओं के मन में बड़ा कुतूहल हुआ । रामचंद्र जी सहित सभी श्रोता आश्चर्य चकित रह गए । रचयिता का नाम पूछे जाने पर उन्होंने बताया कि हमारे गुरु वाल्मीकि जी ने सब रचना की है । उन्होंने आपके चरित्र को महाकाव्य रूप दिया है इसमें आपके जीवन की सब बातें आ गयी हैं ९४/१८ – २८


उस कथा से रामचंद्र जी को मालूम हुआ कि कुश और लव दोनों सीता के पुत्र हैं । कालिदास के दुष्यंत के मन में शकुंतला के पुत्र नन्हे भरत को देखते ही जिन भावों का उद्रेक हुआ था , क्या राम के मन में लव और कुश को देख – सुनकर कुछ वैसी ही प्रतिक्रिया नहीं होनी चाहिए थी ? आदि कवि ऐसे मार्मिक प्रसंग को अछूता कैसे छोड़ देते । निश्चय ही यह समूचा प्रसंग सर्वथा कल्पित एवं प्रक्षिप्त है । यह जानकारी सभा के बीच बैठे हुए रामचन्द्र जी ने तो शुद्ध आचार विचार वाले दूतों को बुलाकर इतना ही कहा – तुम लोग भगवन वाल्मीकि के पास जाकर कहो कि यदि सीता का चरित्र शुध्द है और उनमें कोई पाप नहीं है तो वह महामुनि से अनुमति ले यहाँ जन समुदाय के सामने अपनी पवित्रता प्रमाणित करें।

इस प्रकरण के अनुसार रामचन्द्र जी को यज्ञ में आये कुमारों के रामायण पाठ से ही लव कुश के उनके अपने पुत्र होने का पता चला था । परन्तु इसी उत्तर काण्ड के सर्ग ६५-६६ के अनुसार शत्रुघ्न को लव कुश के जन्म लेने का बहुत पहले पता था | सीता के प्रसव काल में शत्रुघ्न वाल्मीकि के आश्रय में उपस्थित थे । जिस रात को शत्रुघ्न ने महर्षि की पर्णशाला में प्रवेश किया था। उसी रात सीता ने दो पुत्रों को जन्म दिया था । आधी रात के समय कुछ मुनि कुमारों ने वाल्मीकि जी के पास आकर बताया – “भगवन ! रामचन्द्र जी की पत्नी ने दो पुत्रों को जन्म दिया है । ” उन कुमारों की बात सुनकर महर्षि उस स्थान पर गए। सीता जी के वे दोनों पुत्र बाल चन्द्रमा के सामान सुन्दर तथा देवकुमारों के सामान तेजस्वी थे।

आधी रात को शत्रुघ्न को सीता के दो पुत्रों के होने का संवाद मिला। तब वे सीता की पर्णशाला में गए और बोले – माता जी यह बड़े सौभाग्य की बात है ” महात्मा शत्रुघ्न उस समय इतने प्रसन्न थे कि उनकी वह वर्षाकालीन सावन की रात बात की बात में बीत गई । सवेरा होने पर महापराक्रमी शत्रुघ्न हाथ जोड़ मुनि की आज्ञा लेकर पश्चिम दिशा की और चल दिए | 66/12-14

यह कैसे हो सकता है कि शत्रुघ्न ने वर्षों तक रामचंद्र जी को ही नहीं । सारे परिवार को सीता के पुत्रों के होने का शुभ समाचार न दिया हो । महर्षि वाल्मीकि का आश्रय भी अयोद्ध्या से कौन दूर था – उनका अयोध्या में आना जाना भी लगा रहता था । इसलिए यज्ञ के अवसर पर लव कुश के सार्वजानिक रूप से रामायण के गाये जाने के समय तक राम को अपने पुत्रों के पैदा होने का पता न चला हो, यह कैसे हो सकता है ? इससे उत्तरकाण्ड के प्रक्षिप्त होने के साथ साथ यह भी स्पष्ट हो जाता है कि वह किसी एक व्यक्ति की रचना भी नहीं है अन्यथा उसमें पूर्वापर विरोध न होता ।

प्रक्षिप्त उत्तरकाण्ड के अंतर्गत होने से लव कुश का राम की संतान होना भी संदिग्ध है । नारद द्वारा प्रस्तुत कथावस्तु के अनुसार ही वाल्मीकि कृत रामायण में उसका कोई उल्लेख नहीं है ।

वाल्मीकि रामायण और मूर्ति पूजा

 सभी हिंदू भाइयों में विश्वास है कि श्री राम शिवलिंग की पूजा करते थे इसमें उनका कोई गलती नहीं। असल में आज काल बाल्मीकि रामायण दुर्लभ हो गई है। और जो रामायण ज्यादा से ज्यादा मिलती है वह सब मिलावटी है, उनके काण्ड, सर्ग और श्लोकसंख्या विभिन्नता तथा अनेक अप्रासंगिक एवं प्रकृति नियम विरुद्ध स्थलों को देखते हुए यह सब ही मानते हैं कि अन्य ग्रंथों की भांति इस ग्रंथ में भी प्रक्षिप्त सामग्री की नुन्यता नहीं है। इस समय वाल्मीकि रामायण की दो प्रकार की प्रतियां मिलती है, एक गौड़ वा बंग देश की और दूसरी मुंबई की। मुंबई की प्रति में बंग देश की प्रति से एक कांड (उत्तर काण्ड) १६ सर्ग तथा ४७३५ श्लोक अधिक हैं। इटली भाषा में गौरीसियो (Gorreseo) संस्कृत के प्रसिद्ध विद्वान कृत रामायण का जो अनुवाद मिलता है, उसमें भी उत्तरकाण्डरहित केवल छः काण्ड हैं। इसी प्रकार चम्पु रामायण जो महाराज भोज के समय बनी थी और जिसमें वाल्मीकि रामायण का सार लिखा है, युद्धकाण्ड तक ही है। युद्धकाण्ड समाप्ति पर स्वयं वाल्मीकीय रामायण में रामायण का माहात्म्य वर्णन किया गया है जोकि किसी ग्रंथ के आदि या अन्य में ही लिखा जाता है, सिद्ध करता है कि उत्तरकाण्ड का समावेश पिछे से किया गया है।
इस प्रकार उपर्युक्त स्पष्ट प्रक्षिप्त भागों के होते हुए भी समस्त रामायण में सर्वत्र केवल वैदिक यज्ञों का वर्णन है, मूर्ति पूजा का कहीं उल्लेख नहीं है। मनुस्मृति की भांति वाल्मीकि रामायण में भी मांसाहार एवं यज्ञ में पशु बलि दी जाने की पुष्टि तो कुछ प्रक्षिप्त श्लोकों द्वारा अवश्य की गई है, जिसमें वाममार्ग का स्पष्ट हाथ दृष्टिगोचर होता है, किन्तु मूर्ति पूजा विषयक श्लोकों का सर्वथा अभाव, यह सिद्ध करने के लिए प्रर्याप्त है कि जिस समय में प्रक्षिप्त भाग मिलाये गए, उस समय में भी इस देश में मूर्ति पूजा जारी नहीं हुई थी। अतः हमारी यह धारणा कि मूर्ति पूजा का प्रचार इस देश में बौद्ध काल से पूर्व नहीं था, निराधार नहीं है।
आईए आज हम बाल्मीकि रामायण से देखते हैं कि सच में श्री राम ने शिवलिंग का पूजा किया था या नहीं।

कैसे आश्चर्य की बात है कि श्री राम स्वयं संध्योपासना और अग्निहोत्र करें, किन्तु उनके भक्त उनकी मूर्ति पूजा करके अपने आपको कृतकृत्य समझें! बुद्ध के भक्तों ने उनके आदेशों पर न चलकर उनकी मूर्ति की पूजा प्रारम्भ कर दी थी। परन्तु बौद्ध नास्तिक थे उनके समक्ष उनका कोई उपास्य देव नहीं था, अतः उन्होंने यदि ऐसा किया तो अस्वाभाविक नहीं है। दुःख तो राम के भक्तों पर है, जिन्होंने आस्तिक होते हुए भी राम के आदर्शों को न अपनाकर उनके स्थान पर मूर्ति पूजा प्रचलित कर दी।

तुलसीदास कृत रामायण में कुछ स्थलों पर मूर्ति पूजा का वर्णन, तुलसीदास जी की अपनी निजी कल्पना है। वह स्वयं वैष्णव थे, अतः यह स्थल केवल उनके अपने विचारों के ही प्रतिबिंब है; उनका आधार वाल्मिकीकृत रामायण नहीं। न सीता माता ने स्वयंवर के समय देवी की जाकर पूजा की और न राम ने सेतुबंध के अवसर पर रामेश्वर में शिवलिंग की स्थापना अथवा पूजा की। वाल्मिकीय रामायण में इतना वर्णन है कि लंका से विमान द्वारा लौटते समय राम ने सीता से संकेत करके कहा कि यहां महादेव की कृपा से हमने समुद्र का पुल वांधा था
एतत्तु दृश्यते तीर्थं सागरस्य महात्मनः ।
सेतुबन्ध इति ख्यातं त्रैलोक्यपरिपूजितम् ।
एतत् पवित्रं परमं महापातकनाशनम् ।
अत्र पूर्वं महादेवः प्रसादमकरोत् प्रभुः । 
(युद्ध काण्ड १२३/२०-२१ )
अर्थः➧ यह जो बड़े तट दिखाई दे रहा है, को सेतुबंध कहते हैं जो तीनों लोकों में प्रसिद्ध है यह परम पवित्र स्थान है यहां पापियों प्रायश्चित करते हैं, यहां सर्वव्यापक देवताओं में बड़े महादेव परमात्मा मुझे कृपा की थी।

उपर्युक्त श्लोक में कहीं भी शिवलिंग स्थापना तथा उसके पूजन की बात नहीं है। संभवतः महादेव शब्द, जिसका अर्थ है देवों में महान परमात्मा है, को देखकर तुलसीदास जी ने शिवलिंग स्थापना एवं उनकी पूजा की कल्पना कर ली। वैष्णव लोगों का स्वभाव ही ऐसा है संस्कृत तो आती नहीं कुछ भी बोल देते हैं।

[🌲🌳N.B — वाल्मीकि रामायण में यह श्लोक सर्ग ६९/७ में पाया जाता है। वाल्मीकि रामायण में यह श्लोक निम्नलिखित है 👇👇
एतत्तु दृश्यते तीर्थं सेतुबन्ध इति ख्यातम्।
अत्र पूर्वं महादेव: प्रसादमकरोद्विभुः।
अत्र राक्षसराजोऽयमाजगाम विभीषणः।।
अर्थः➧ यह समुद्र का किनारा= तट दिखाई दे रहा है जो सेतुबन्ध के नाम से प्रसिद्ध है। यह वह स्थान है जहां पर सर्वव्यापक देवों के देव महादेव परमात्मा ने हमारे ऊपर कृपा की थी। यही वह स्थान है जहां पर राक्षसेश्वर विभीषण मुझसे आकर मिले थे।
वाल्मीकि रामायण में यह शब्द नहीं पाया जाता है 👉 सागरस्य, महात्मनः, त्रैलोक्यपरिपूजितम्, परमं, महापातकनाशनम् ।
कुछ भाष्यकारों के रामायण में यह श्लोक सर्ग १२६/१६ में मिलते हैं। और उन भाष्यकारों ने महादेव का अर्थ जल में अधिष्ठाता देवता कहा है। कारण स्वरुप उन भाष्यकारों ने कहा है कि, लंका जाते समय जो घटनाएं हुई थी, अथवा जो जो कार्य किए गए थे, उनके वर्णन के पूर्वप्रसङ्गों में “महादेव के प्रसन्न” होने की चर्चा न पायी जाने के कारण, प्रत्युत समुद्रजल के अधिष्ठाता देवता का प्रसन्न हो कर सेतु बांधने की सलाह देने का टीकाकार का किया हुआ अर्थ जो उक्त श्लोक के नीचे पाया गया है युक्तियुक्त एवं प्रसङ्गानुकूल जान पड़ता है। क्योंकि, समुद्र पर पुल बांधने के पूर्व शिव जी ने श्रीरामचन्द्र जी के ऊपर क्या कृपा की थी, इसका कुछ भी उल्लेख युद्ध काण्ड में नहीं पाया जाता।
🌲🌳]

चौदह वर्ष के वनवास के दौरान श्रीराम कहाँ कहाँ रहे?

चौदह वर्ष के वनवास के दौरान श्रीराम कहाँ कहाँ रहे?

प्रभु श्रीराम को 14 वर्ष का वनवास हुआ। इस वनवास काल में श्रीराम ने कई ऋषि-मुनियों से शिक्षा और विद्या ग्रहण की, संपूर्ण भारत को उन्होंने एक ही विचारधारा के सूत्र में बांधा, लेकिन इस दौरान उनके साथ कुछ ऐसा भी घटा जिसने उनके जीवन को बदल कर रख दिया।

जाने-माने इतिहासकार और पुरातत्वशास्त्री अनुसंधानकर्ता डॉ. राम अवतार ने श्रीराम और सीता के जीवन की घटनाओं से जुड़े ऐसे 200 से भी अधिक स्थानों का पता लगाया है, जहां आज भी तत्संबंधी स्मारक स्थल विद्यमान हैं, जहां श्रीराम और सीता रुके या रहे थे। वहां के स्मारकों, भित्तिचित्रों, गुफाओं आदि स्थानों के समय-काल की जांच-पड़ताल वैज्ञानिक तरीकों से की। आओ जानते हैं कुछ प्रमुख स्थानों के बारे में;

1. श्रृंगवेरपुर: - राम को जब वनवास हुआ तो वाल्मीकि रामायण और शोधकर्ताओं के अनुसार वे सबसे पहले तमसा नदी पहुंचे, जो अयोध्या से 20 किमी दूर है। इसके बाद उन्होंने गोमती नदी पार की और प्रयागराज (इलाहाबाद) से 20-22 किलोमीटर दूर वे श्रृंगवेरपुर पहुंचे, जो निषादराज गुह का राज्य था। यहीं पर गंगा के तट पर उन्होंने केवट से गंगा पार करने को कहा था।

2. सिंगरौर: - इलाहाबाद से लगभग 35.2 किमी उत्तर-पश्चिम की ओर स्थित ‘सिंगरौर’ नामक स्थान ही प्राचीन समय में श्रृंगवेरपुर नाम से परिज्ञात था। रामायण में इस नगर का उल्लेख आता है। यह नगर गंगा घाटी के तट पर स्थित था। महाभारत में इसे ‘तीर्थस्थल’ कहा गया है।

3. कुरई: - इलाहाबाद जिले में ही कुरई नामक एक स्थान है, जो सिंगरौर के निकट गंगा नदी के तट पर स्थित है। गंगा के उस पार सिंगरौर तो इस पार कुरई। सिंगरौर में गंगा पार करने के पश्चात श्रीराम इसी स्थान पर उतरे थे।

इस ग्राम में एक छोटा-सा मंदिर है, जो स्थानीय लोकश्रुति के अनुसार उसी स्थान पर है, जहां गंगा को पार करने के पश्चात राम, लक्ष्मण और सीताजी ने कुछ देर विश्राम किया था।

4. चित्रकूट के घाट पर: - कुरई से आगे चलकर श्रीराम अपने भाई लक्ष्मण और पत्नी सहित प्रयाग पहुंचे थे। प्रयाग को वर्तमान में इलाहाबाद कहा जाता है। यहां गंगा-जमुना का संगम स्थल है। हिन्दुओं का यह सबसे बड़ा तीर्थस्थान है। प्रभु श्रीराम ने संगम के समीप यमुना नदी को पार किया और फिर पहुंच गए चित्रकूट। यहां स्थित स्मारकों में शामिल हैं, वाल्मीकि आश्रम, मांडव्य आश्रम, भरतकूप इत्यादि।

चित्रकूट में श्रीराम के दुर्लभ प्रमाण,,चित्रकूट वह स्थान है, जहां राम को मनाने के लिए भरत अपनी सेना के साथ पहुंचते हैं। तब जब दशरथ का देहांत हो जाता है। भारत यहां से राम की चरण पादुका ले जाकर उनकी चरण पादुका रखकर राज्य करते हैं।

5. अत्रि ऋषि का आश्रम: - चित्रकूट के पास ही सतना मध्यप्रदेश स्थित अत्रि ऋषि का आश्रम था। महर्षि अत्रि चित्रकूट के तपोवन में रहा करते थे। वहां श्रीराम ने कुछ वक्त बिताया।

अत्रि के आश्रम के आस-पास राक्षसों का समूह रहता था। अत्रि, उनके भक्तगण व माता अनुसूइया उन राक्षसों से भयभीत रहते थे। भगवान श्रीराम ने उन राक्षसों का वध किया। वाल्मीकि रामायण के अयोध्या कांड में इसका वर्णन मिलता है।

प्रातःकाल जब राम आश्रम से विदा होने लगे तो अत्रि ऋषि उन्हें विदा करते हुए बोले, ‘हे राघव! इन वनों में भयंकर राक्षस तथा सर्प निवास करते हैं, जो मनुष्यों को नाना प्रकार के कष्ट देते हैं। इनके कारण अनेक तपस्वियों को असमय ही काल का ग्रास बनना पड़ा है। मैं चाहता हूं, तुम इनका विनाश करके तपस्वियों की रक्षा करो।’

राम ने महर्षि की आज्ञा को शिरोधार्य कर उपद्रवी राक्षसों तथा मनुष्य का प्राणांत करने वाले भयानक सर्पों को नष्ट करने का वचन देखर सीता तथा लक्ष्मण के साथ आगे के लिए प्रस्थान किया।

6. दंडकारण्य: - अत्रि ऋषि के आश्रम में कुछ दिन रुकने के बाद श्रीराम ने मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के घने जंगलों को अपना आश्रय स्थल बनाया। यह जंगल क्षेत्र था दंडकारण्य। ‘अत्रि-आश्रम’ से ‘दंडकारण्य’ आरंभ हो जाता है। छत्तीसगढ़ के कुछ हिस्सों पर राम के नाना और कुछ पर बाणासुर का राज्य था। यहां के नदियों, पहाड़ों, सरोवरों एवं गुफाओं में राम के रहने के सबूतों की भरमार है। यहीं पर राम ने अपना वनवास काटा था। यहां वे लगभग 10 वर्षों से भी अधिक समय तक रहे थे।

‘अत्रि-आश्रम’ से भगवान राम मध्यप्रदेश के सतना पहुंचे, जहां ‘रामवन’ हैं। मध्यप्रदेश एवं छत्तीसगढ़ क्षेत्रों में नर्मदा व महानदी नदियों के किनारे 10 वर्षों तक उन्होंने कई ऋषि आश्रमों का भ्रमण किया। दंडकारण्य क्षेत्र तथा सतना के आगे वे विराध सरभंग एवं सुतीक्ष्ण मुनि आश्रमों में गए। बाद में सतीक्ष्ण आश्रम वापस आए। पन्ना, रायपुर, बस्तर और जगदलपुर में कई स्मारक विद्यमान हैं। उदाहरणत: मांडव्य आश्रम, श्रृंगी आश्रम, राम-लक्ष्मण मंदिर आदि।

शहडोल (अमरकंटक): - राम वहां से आधुनिक जबलपुर, शहडोल (अमरकंटक) गए होंगे। शहडोल से पूर्वोत्तर की ओर सरगुजा क्षेत्र है। यहां एक पर्वत का नाम ‘रामगढ़’ है। 30 फीट की ऊंचाई से एक झरना जिस कुंड में गिरता है, उसे ‘सीता कुंड’ कहा जाता है। यहां वशिष्ठ गुफा है। दो गुफाओं के नाम ‘लक्ष्मण बोंगरा’ और ‘सीता बोंगरा’ हैं। शहडोल से दक्षिण-पूर्व की ओर बिलासपुर के आसपास छत्तीसगढ़ है।

वर्तमान में करीब 92,300 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में फैले इस इलाके के पश्चिम में अबूझमाड़ पहाड़ियां तथा पूर्व में इसकी सीमा पर पूर्वी घाट शामिल हैं। दंडकारण्य में छत्तीसगढ़, ओडिशा एवं आंध्रप्रदेश राज्यों के हिस्से शामिल हैं। इसका विस्तार उत्तर से दक्षिण तक करीब 320 किमी तथा पूर्व से पश्चिम तक लगभग 480 किलोमीटर है।

यह क्षेत्र आजकल दंतेवाड़ा के नाम से जाना जाता है। यहां वर्तमान में गोंड जाति निवास करती है तथा समूचा दंडकारण्य अब नक्सलवाद की चपेट में है।

इसी दंडकारण्य का ही हिस्सा है आंध्रप्रदेश का एक शहर भद्राचलम। गोदावरी नदी के तट पर बसा यह शहर सीता-रामचंद्र मंदिर के लिए प्रसिद्ध है। यह मंदिर भद्रगिरि पर्वत पर है। कहा जाता है कि श्रीराम ने अपने वनवास के दौरान कुछ दिन इस भद्रगिरि पर्वत पर ही बिताए थे।

स्थानीय मान्यता के मुताबिक दंडकारण्य के आकाश में ही रावण और जटायु का युद्ध हुआ था और जटायु के कुछ अंग दंडकारण्य में आ गिरे थे। ऐसा माना जाता है कि दुनियाभर में सिर्फ यहीं पर जटायु का एकमात्र मंदिर है।

दंडकारण्य क्षे‍त्र की चर्चा पुराणों में विस्तार से मिलती है। इस क्षेत्र की उत्पत्ति कथा महर्षि अगस्त्य मुनि से जुड़ी हुई है। यहीं पर उनका महाराष्ट्र के नासिक के अलावा एक आश्रम था।

7. पंचवटी, नासिक: - दण्डकारण्य में मुनियों के आश्रमों में रहने के बाद श्रीराम कई नदियों, तालाबों, पर्वतों और वनों को पार करने के पश्चात नासिक में अगस्त्य मुनि के आश्रम गए। मुनि का आश्रम नासिक के पंचवटी क्षेत्र में था। त्रेतायुग में लक्ष्मण व सीता सहित श्रीरामजी ने वनवास का कुछ समय यहां बिताया।

उस काल में पंचवटी जनस्थान या दंडक वन के अंतर्गत आता था। पंचवटी या नासिक से गोदावरी का उद्गम स्थान त्र्यंम्बकेश्वर लगभग 32 किमी दूर है। वर्तमान में पंचवटी भारत के महाराष्ट्र के नासिक में गोदावरी नदी के किनारे स्थित विख्यात धार्मिक तीर्थस्थान है।

अगस्त्य मुनि ने श्रीराम को अग्निशाला में बनाए गए शस्त्र भेंट किए। नासिक में श्रीराम पंचवटी में रहे और गोदावरी के तट पर स्नान-ध्यान किया। नासिक में गोदावरी के तट पर पांच वृक्षों का स्थान पंचवटी कहा जाता है। ये पांच वृक्ष थे- पीपल, बरगद, आंवला, बेल तथा अशोक वट। यहीं पर सीता माता की गुफा के पास पांच प्राचीन वृक्ष हैं जिन्हें पंचवट के नाम से जाना जाता है। माना जाता है कि इन वृक्षों को राम-सीमा और लक्ष्मण ने अपने हाथों से लगाया था।

यहीं पर लक्ष्मण ने शूर्पणखा की नाक काटी थी। राम-लक्ष्मण ने खर व दूषण के साथ युद्ध किया था। यहां पर मारीच वध स्थल का स्मारक भी अस्तित्व में है। नासिक क्षेत्र स्मारकों से भरा पड़ा है, जैसे कि सीता सरोवर, राम कुंड, त्र्यम्बकेश्वर आदि। यहां श्रीराम का बनाया हुआ एक मंदिर खंडहर रूप में विद्यमान है।

मरीच का वध पंचवटी के निकट ही मृगव्याधेश्वर में हुआ था। गिद्धराज जटायु से श्रीराम की मैत्री भी यहीं हुई थी। वाल्मीकि रामायण, अरण्यकांड में पंचवटी का मनोहर वर्णन मिलता है।

8. सीताहरण का स्थान सर्वतीर्थ: - नासिक क्षेत्र में शूर्पणखा, मारीच और खर व दूषण के वध के बाद ही रावण ने सीता का हरण किया और जटायु का भी वध किया जिसकी स्मृति नासिक से 56 किमी दूर ताकेड गांव में ‘सर्वतीर्थ’ नामक स्थान पर आज भी संरक्षित है।

जटायु की मृत्यु सर्वतीर्थ नाम के स्थान पर हुई, जो नासिक जिले के इगतपुरी तहसील के ताकेड गांव में मौजूद है। इस स्थान को सर्वतीर्थ इसलिए कहा गया, क्योंकि यहीं पर मरणासन्न जटायु ने सीता माता के बारे में बताया। रामजी ने यहां जटायु का अंतिम संस्कार करके पिता और जटायु का श्राद्ध-तर्पण किया था। इसी तीर्थ पर लक्ष्मण रेखा थी।

9.पर्णशाला, भद्राचलम: - पर्णशाला आंध्रप्रदेश में खम्माम जिले के भद्राचलम में स्थित है। रामालय से लगभग 1 घंटे की दूरी पर स्थित पर्णशाला को ‘पनशाला’ या ‘पनसाला’ भी कहते हैं। हिन्दुओं के प्रमुख धार्मिक स्थलों में से यह एक है। पर्णशाला गोदावरी नदी के तट पर स्थित है। मान्यता है कि यही वह स्थान है, जहां से सीताजी का हरण हुआ था। हालांकि कुछ मानते हैं कि इस स्थान पर रावण ने अपना विमान उतारा था।

इस स्थल से ही रावण ने सीता को पुष्पक विमान में बिठाया था यानी सीताजी ने धरती यहां छोड़ी थी। इसी से वास्तविक हरण का स्थल यह माना जाता है। यहां पर राम-सीता का प्राचीन मंदिर है।

10. सीता की खोज तुंगभद्रा तथा कावेरी नदियों के क्षेत्र: - सर्वतीर्थ जहां जटायु का वध हुआ था, वह स्थान सीता की खोज का प्रथम स्थान था। उसके बाद श्रीराम-लक्ष्मण तुंगभद्रा तथा कावेरी नदियों के क्षेत्र में पहुंच गए। तुंगभद्रा एवं कावेरी नदी क्षेत्रों के अनेक स्थलों पर वे सीता की खोज में गए।

11. शबरी का आश्रम पम्पा सरोवर: - तुंगभद्रा और कावेरी नदी को पार करते हुए राम और लक्ष्‍मण चले सीता की खोज में। जटायु और कबंध से मिलने के पश्‍चात वे ऋष्यमूक पर्वत पहुंचे। रास्ते में वे पम्पा नदी के पास शबरी आश्रम भी गए, जो आजकल केरल में स्थित है।

पम्पा नदी भारत के केरल राज्य की तीसरी सबसे बड़ी नदी है। इसे ‘पम्बा’ नाम से भी जाना जाता है। ‘पम्पा’ तुंगभद्रा नदी का पुराना नाम है। श्रावणकौर रजवाड़े की सबसे लंबी नदी है। इसी नदी के किनारे पर हम्पी बसा हुआ है। यह स्थान बेर के वृक्षों के लिए आज भी प्रसिद्ध है। पौराणिक ग्रंथ ‘रामायण’ में भी हम्पी का उल्लेख वानर राज्य किष्किंधा की राजधानी के तौर पर किया गया है।

12. हनुमान से भेंट: - मलय पर्वत और चंदन वनों को पार करते हुए वे ऋष्यमूक पर्वत की ओर बढ़े। यहां उन्होंने हनुमान और सुग्रीव से भेंट की, सीता के आभूषणों को देखा और श्रीराम ने बाली का वध किया।

ऋष्यमूक पर्वत वाल्मीकि रामायण में वर्णित वानरों की राजधानी किष्किंधा के निकट स्थित था। इसी पर्वत पर श्रीराम की हनुमान से भेंट हुई थी। बाद में हनुमान ने राम और सुग्रीव की भेंट करवाई, जो एक अटूट मित्रता बन गई। जब महाबली बाली अपने भाई सुग्रीव को मारकर किष्किंधा से भागा तो वह ऋष्यमूक पर्वत पर ही आकर छिपकर रहने लगा था।

ऋष्यमूक पर्वत तथा किष्किंधा नगर कर्नाटक के हम्पी, जिला बेल्लारी में स्थित है। विरुपाक्ष मंदिर के पास से ऋष्यमूक पर्वत तक के लिए मार्ग जाता है। यहां तुंगभद्रा नदी (पम्पा) धनुष के आकार में बहती है। तुंगभद्रा नदी में पौराणिक चक्रतीर्थ माना गया है। पास ही पहाड़ी के नीचे श्रीराम मंदिर है। पास की पहाड़ी को ‘मतंग पर्वत’ माना जाता है। इसी पर्वत पर मतंग ऋषि का आश्रम था।

13. कोडीकरई: - हनुमान और सुग्रीव से मिलने के बाद श्रीराम ने अपनी सेना का गठन किया और लंका की ओर चल पड़े। मलय पर्वत, चंदन वन, अनेक नदियों, झरनों तथा वन-वाटिकाओं को पार करके राम और उनकी सेना ने समुद्र की ओर प्रस्थान किया। श्रीराम ने पहले अपनी सेना को कोडीकरई में एकत्रित किया।

तमिलनाडु की एक लंबी तटरेखा है, जो लगभग 1,000 किमी तक विस्‍तारित है। कोडीकरई समुद्र तट वेलांकनी के दक्षिण में स्थित है, जो पूर्व में बंगाल की खाड़ी और दक्षिण में पाल्‍क स्‍ट्रेट से घिरा हुआ है।

लेकिन राम की सेना ने उस स्थान के सर्वेक्षण के बाद जाना कि यहां से समुद्र को पार नहीं किया जा सकता और यह स्थान पुल बनाने के लिए उचित भी नहीं है, तब श्रीराम की सेना ने रामेश्वरम की ओर कूच किया।

14.रामेश्‍वरम: - रामेश्‍वरम समुद्र तट एक शांत समुद्र तट है और यहां का छिछला पानी तैरने और सन बेदिंग के लिए आदर्श है। रामेश्‍वरम प्रसिद्ध हिन्दू तीर्थ केंद्र है।

15.धनुषकोडी: - वाल्मीकि के अनुसार तीन दिन की खोजबीन के बाद श्रीराम ने रामेश्वरम के आगे समुद्र में वह स्थान ढूंढ़ निकाला, जहां से आसानी से श्रीलंका पहुंचा जा सकता हो। उन्होंने नल और नील की मदद से उक्त स्थान से लंका तक का पुनर्निर्माण करने का फैसला लिया।

छेदुकराई तथा रामेश्वरम के इर्द-गिर्द इस घटना से संबंधित अनेक स्मृतिचिह्न अभी भी मौजूद हैं। नाविक रामेश्वरम में धनुषकोडी नामक स्थान से यात्रियों को रामसेतु के अवशेषों को दिखाने ले जाते हैं।

धनुषकोडी भारत के तमिलनाडु राज्‍य के पूर्वी तट पर रामेश्वरम द्वीप के दक्षिणी किनारे पर स्थित एक गांव है। धनुषकोडी पंबन के दक्षिण-पूर्व में स्थित है। धनुषकोडी श्रीलंका में तलैमन्‍नार से करीब 18 मील पश्‍चिम में है।

इसका नाम धनुषकोडी इसलिए है कि यहां से श्रीलंका तक वानर सेना के माध्यम से नल और नील ने जो पुल (रामसेतु) बनाया था उसका आकार मार्ग धनुष के समान ही है। इन पूरे इलाकों को मन्नार समुद्री क्षेत्र के अंतर्गत माना जाता है। धनुषकोडी ही भारत और श्रीलंका के बीच एकमात्र स्‍थलीय सीमा है, जहां समुद्र नदी की गहराई जितना है जिसमें कहीं-कहीं भूमि नजर आती है।

दरअसल, यहां एक पुल डूबा पड़ा है। 1860 में इसकी स्पष्ट पहचान हुई और इसे हटाने के कई प्रयास किए गए। अंग्रेज इसे एडम ब्रिज कहने लगे तो स्थानीय लोगों में भी यह नाम प्रचलित हो गया। अंग्रेजों ने कभी इस पुल को क्षतिग्रस्त नहीं किया लेकिन आजाद भारत में पहले रेल ट्रैक निर्माण के चक्कर में बाद में बंदरगाह बनाने के चलते इस पुल को क्षतिग्रस्त किया गया।

30मील लंबा और सवा मील चौड़ा यह रामसेतु 5 से 30 फुट तक पानी में डूबा है। श्रीलंका सरकार इस डूबे हुए पुल (पम्बन से मन्नार) के ऊपर भू-मार्ग का निर्माण कराना चाहती है जबकि भारत सरकार नौवहन हेतु उसे तोड़ना चाहती है। इस कार्य को भारत सरकार ने सेतुसमुद्रम प्रोजेक्ट का नाम दिया है। श्रीलंका के ऊर्जा मंत्री श्रीजयसूर्या ने इस डूबे हुए रामसेतु पर भारत और श्रीलंका के बीच भू-मार्ग का निर्माण कराने का प्रस्ताव रखा था।

16.’नुवारा एलिया’ पर्वत श्रृंखला: --वाल्मिकी रामायण अनुसार श्रीलंका के मध्य में रावण का महल था। ‘नुवारा एलिया’ पहाड़ियों से लगभग 90 किलोमीटर दूर बांद्रवेला की तरफ मध्य लंका की ऊंची पहाड़ियों के बीचोबीच सुरंगों तथा गुफाओं के भंवरजाल मिलते हैं। यहां ऐसे कई पुरातात्विक अवशेष मिलते हैं जिनकी कार्बन डेटिंग से इनका काल निकाला गया है।

श्रीलंका में नुआरा एलिया पहाड़ियों के आसपास स्थित रावण फॉल, रावण गुफाएं, अशोक वाटिका, खंडहर हो चुके विभीषण के महल आदि की पुरातात्विक जांच से इनके रामायण काल के होने की पुष्टि होती है। आजकल भी इन स्थानों की भौगोलिक विशेषताएं, जीव, वनस्पति तथा स्मारक आदि बिलकुल वैसे ही हैं जैसे कि रामायण में वर्णित किए गए हैं।

 रामायण पर सत्य को जानने के लिए अवश्य देखे सारे लिंक यही पर है
1-रामायण महाझूठ भगवान राम ने माँ सीता को घर से नही निकाला 
https://youtu.be/vAnTHvmuqC4
2-रामायण कब हुई थी यह भी जाने 
https://youtu.be/OV7OBuLLmj0
3-लक्ष्मण रेखा एक महाझूठ, रामायण और तुलसी,वाल्मीकी रामायण
https://youtu.be/0ZeDID90Nc4
4-हनुमान जी लंका उड़कर नही तैरकर गये थे
https://youtu.be/QZ_f_Zf7xzU
5-क्या भगवान राम शिकारी थे? 
https://youtu.be/OXeLXsfYmto
6-क्या हनुमान जी बंदर थे
https://youtu.be/xAgHwMnCI5A
7-श्री राम ने शम्बुक जी को नही मारा
https://youtu.be/UTtRz-UDbAs
8-सीता माँ की अग्निपरीक्षा नही हुई थी
https://youtu.be/VQnopkVQVVg
9-वाल्मीकी रामायण और तुलसीदास रामायण और हिन्दु जनसंख्या
https://youtu.be/Ho5aNZyK0uU
10-रामायण मे महामिलावट ढोंगियो ने पूरा काण्ड ही मिला दिया
https://youtu.be/Vec1nv0QnEo
11- सीता माँ धरती से पैदा नही हुयी थी
https://youtu.be/Kqc52SVDJPw
12-रामायण का महाझूठ  
https://youtu.be/ENe5Z9QiHWw
13- क्या भगवान राम ने छुपकर मारा बालि को 
https://youtu.be/k381_3ilJpo
14-रामायण महाझूठ वय्भिचारी दशरथ की तीन पत्नियाँ  ➦
https://youtu.be/nWwTZe_wDeA
15- हनुमान जी को उड़ना नही आता था
https://youtu.be/aF-xAjE5k-Q
16-क्या श्री राम जी माँस खाते थे
https://youtu.be/OvjL88eO8vk
17-क्या भगवान हनुमान जी संजीवनी बूटी पर्वत उखाड़ लाए थे 
https://youtu.be/MGMQqGvhyAc
18-हनुमान जी की सूर्य खाने वाली कथा
https://youtu.be/p7Z1tYObYsY
19- रामायण मे महात्मा बुद्ध सिद्ध करने वाले तथाकथित दलित
https://youtu.be/KfN0MXvPfMQ
20- रामसेतु 7500वर्ष पुराना यह हिन्दुओ का भ्रम
https://youtu.be/Fzja0eI0B_U
21- क्या भगवान राम माँ सीता का बाल विवाह हुआ
https://youtu.be/38pv-mBr50U

                   और लिंक नही डाल पाया और भी बहुत सारे लिंक है जो आपको सत्य राह दिखाएंगे सत्य अपनाओ

ओउम् जय आर्यावर्त
चलो वेदों की ओर
सत्य सनातन वैदिक धर्म