मंगलवार, 19 नवंबर 2019

संकलित पोस्ट (भाग १)

नास्तिक मत खण्डन


शंका समाधान
नास्तिक ➥ यदि वह ईश्वर अनेक नहीं तो वह व्यापक है या एक देशी?
आस्तिक ➦ वह सर्वव्यापक है एकदेशी नहीं।यदि एक देशी होता तो अनेक विध संसार का पालन पोषण एवं संरक्षण कैसे कर सकता ?
नास्तिक ➥ यदि वह सर्वव्यापक है तो पुनः दिखाई क्यों नहीं देता।
आस्तिक ➦ दिखाई न देने के कई कारण होते हैं जैसे सांख्या-कारिका में कहा है -
अतिदूरात सामीप्यादिन्द्रियघातान्मनो ऽनवस्थनात् ।
सौक्ष्म्याद् व्यवधानादभिभवाद् समानाभिहाराच्च ।
  • (१) दिखाई न देने का प्रथम कारण है अति दूर होना जैसे लन्दन या अमेरिका दूर होने से दिखाई नहीं देते परन्तु दिखाई न देने पर भी उनकी सत्ता से इन्कार नहीं हो सकता।
  • (२) दूसरा कारण है अति समीप होना, अति समीप होने से भी वस्तु दिखाई नहीं देती जैसे आंख की लाली या आंख का सुरमा आंख के अति समीप होने पर भी दिखाई नहीं देते। अथवा पुस्तक आँख के अति समीप हो तो उसके अक्षर दिखाई नहीं देते।
  • (३) इन्द्रिय के विकृत या खराब होने पर भी कोई वस्तु दिखाई नहीं देती जैसे आंख दुखने पर या आंख के फूट जाने पर यदि कोई अन्धा कहे कि सूर्य चन्द्रादि की कोई सत्ता नहीं,तो क्या यह ठीक माना जायगा ।
  • (४) अति सूक्ष्म होने पर भी कोई वस्तु दिखाई नहीं देती, जैसे आत्मा, मन, बुद्धि , परमाणु, भूख ,प्यास , सुख-दुःख, ईर्ष्या, द्वेष आदि ।
  • (५) मन के अस्थिर होने पर भी कोई वस्तु दिखाई नहीं देती जैसे कोई व्यक्ति सामने से होकर निकल जाय, तो उसके विषय में पूछने पर उत्तर मिलता है कि मेरा ध्यान उस ओर नहीं था।
  • इस लिये मैं नहीं कह सकता कि वह यहाँ से निकला है या नहीं।
  • (६) ओट में रखी या बीच में किसी वस्तु का पर्दा होने से भी वस्तु दिखाई नहीं देती जैसे दीवार के पीछे रखी वस्तु या ट्रंक के अन्दर रखी वस्तु ।
  • (७) समान वस्तुओं के सम्मिश्रण हो जाने या परस्पर खलत मलत हो जाने पर भी वस्तु दिखाई नहीं देती जैसे दूध में पानी,तिलों में तेल,दही में मक्खन,लकड़ी में आग।इसी प्रकार परमात्मा सब वस्तुओं में व्यापक होने पर भी अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण आंखों से दिखाई नहीं देता।परन्तु –
  • जिस तरह अग्नि का शोला संग में मौजूद है।
  • इस तरह परमात्मा हर रंग में मौजूद है ।
  • (८) अभिभव से अर्थात् दब जाने पर भी कोई वस्तु दिखाई नहीं देती यथा दिन को तारे सूर्य के प्रकाश में दब जाने के कारण दिखाई नहीं देते अथवा आग में पड़ा लोहा अग्नि के प्रभाव से दिखाई नहीं देता। परन्तु ज्ञान की आंख से वह दिखाई देते हैं ।
ऐसे ही परमात्मा के दर्शन के लिए भी अन्दर की आंख की आवश्यकता है।

नास्तिक➥ यदि वह सब जगह सर्वत्र व्यापक है तब तो मल-मूत्र , गन्दगी , कूड़े-करकट में भी उसका वास मानना होगा,इस प्रकार तो दुर्गन्ध से उसकी बड़ी दुर्गति होगी ।
आस्तिक ➦ आपका यह विचार ठीक नहीं क्योंकि सुगन्ध दुर्गन्ध इन्द्रियों द्वारा प्रतीत होती है और परमात्मा इन्द्रियातीत अर्थात् इन्द्रियों से रहित है इसलिये उसे सुगन्ध दुर्गन्ध नहीं आती।
                                  दूसरे जो वस्तु अपने से भिन्न दूसरे स्थान पर या अपने से पृथक बाहर दूर हो उससे सुगन्ध दुर्गन्ध आती है जो वस्तु अपने ही अन्दर हो उससे सुगन्ध दुर्गन्ध नहीं आती। जैसे पाखाना अपने अन्दर हो तो दुर्गन्ध नहीं आती परन्तु बाहर पड़ा हो तो दुर्गन्ध आती है । इसी प्रकार यह सारा संसार और उस की सब वस्तुएँ भी ईश्वर के भीतर विद्यमान हैं इसलिये उसे सुगन्ध दुर्गन्ध नहीं आती ,न ही उस इनका कोई प्रभाव होता है ,कठोपनिषद् में ठीक कहा है―

सूर्यो यथो सर्वलोकस्य चक्षुनं लिप्यते चाक्षुषै र्बाह्यदोषैः,
एकस्तथा सर्व भूतान्तरात्मा न लिप्यते लोक दुःखेन बाह्य ।
―(कठो अ २-वल्ली २-श्लोक ११)
अर्थात्― जिस प्रकार सूर्य सब संसार की चक्षु है,परन्तु चक्षु के बाह्या दोषों से प्रभावित नहीं होता, इसी प्रकार सब प्राणियों का अन्तरात्मा लोक में होने वाले दुःखों से लिप्त नहीं होता क्योंकि वह सब में रहता और उसमें सब रहता है।संसार में रहते हुए भी वह सबसे बाह्य अर्थात् सब संसार से पृथक है,अर्थात् लिप्त नहीं है अलिप्त है।

नास्तिक ➥ जब वह स्वयं इन्द्रियरहित तथा इन्द्रियों से न जानने योग्य है तो उसका ज्ञान होना असम्भव है,पुनः जानने का प्रयत्न व्यर्थ है ?
आस्तिक➦ उसके जानने का प्रयत्न करना व्यर्थ नहीं क्योंकि ईश्वर की सत्ता का उसके विचित्र ब्रह्माण्ड और उसमें विचित्र नियमानुसार कार्यों को देखकर बुद्धिमान, ज्ञानी, तपस्वी भलीभांति अनुभव करते हैं।इसके अतिरिक्त प्रभु प्राप्ति का साधन इन्द्रियां नहीं अपितु जीवात्मा है, योगाभ्यास आदि क्रियाओं द्वारा जीवात्मा उनका प्रत्यक्ष अनुभव करता है तथा आनन्द का लाभ करता है―कठोपनिषद् में ठीक कहा है―
एको वशी सर्व भूतान्तरात्मा, एकं रुपं बहुधा यः करोति,
तमात्मास्थं येऽनु पश्यन्ति धीरास्तेषां सुखं शाश्वतंनेतरेषाम् ।
― (कठो अ २. वल्ली रचो १२)
अर्थात्―वह एक,सब को वश में रखने वाला,सब प्राणियों की अन्तरात्मा में स्थित है अपनी आत्मा में स्थित उस परमात्मा का जो ज्ञानीजन जन दर्शन लाभ करते हैं वे परमानन्द को प्राप्त करते हैं।
नास्तिक➥ ईश्वर को मानने से मनुष्य की स्वतन्त्रता जाती रहती है,इसलिये मानना व्यर्थ है ?
आस्तिक➦ ईश्वर को मानने तथा उसकी उपासना करने का अन्तिम फल मुक्ति है।मुक्ति स्वतन्त्रता का केन्द्र है जहाँ सब प्रकार के बन्धन टूट जाते हैं।अतः ईश्वर के मानने से मनुष्य की स्वतन्त्रता के साथ दुःखों की समाप्ति तथा आनन्द की प्राप्ति भी होती है इसलिए उसका मानना तथा जानना आवश्यक है, व्यर्थ नहीं।
नास्तिक➥ ईश्वर को अज्ञेय अर्थात् न जानने योग्य कहा है तो उसके जानने का परिश्रम करना व्यर्थ है ।
आस्तिक➦ सृष्टि और उसके विविध पदार्थों तथा उसमें काम कर रहे अनेक विध नियमों को देखकर उसके रचयिता का बोध सरलता से हो जाता है।जैसे आकाश,वायु,अणु,परमाणु आदि इन्द्रिय रहित हैं।परन्तु उनका निश्चय बुद्धि से हो जाता है,इसी प्रकार शुद्धान्तःकरण द्वारा प्रभु का ज्ञान हो जाता है।इसमें किसी प्रकार की कोई बाधा नहीं, परिश्रम की आवश्यकता है।
नास्तिक➥ ईश्वर को सगुण कहा गया है प्रत्येक सगुण वस्तु नाशवान होती है।इसलिये ईश्वर को भी नाशवान मानना पड़ेगा।
आस्तिक➦ प्रत्येक सगुण वस्तु नाशवान् होती है यह कोई नियम नहीं,जब सत्व,राजस्,तमस् गुणवाली प्रकृति ही नाशवान् नहीं।
तो ईश्वर सगुण होने से कैसे नाशवान् माना जा सकता है।ईश्वर न्याय,दया,ज्ञानादि गुणों से सगुण और अजर,अमर,अजन्मा आदि होने से निर्गुण कहाता है
ईश्वर है या नहीं?
संसार में ईश्वर है मानने वाले बहुत लोग हैं, परन्तु नास्तिक लोगों का मानना है कि ईश्वर नाम की कोई सत्ता या शक्ति नहीं है और न उसकी कोई आवश्यकता है।
इस सोच का आधार है कि ईश्वर किसी को दिखाई नहीं पड़ता है। ईश्वर को न कोई देख पाया है, न छू सका है, न सुन सका हैं, न ही सूंघ सका।

प्र. ➥ वह इन पाँचों इन्द्रियों से भी नहीं दिखाई देता। अतः वह ईश्वर जो आप कहते हैं। वह नहीं हो सकता।
उ.➦ इन पाँच इन्द्रियों के अलावा मन और बुद्धि भी है।
प्र. ➥ अरे भाई! आज तक आपने कभी सुना है कि यह व्यक्ति देखो मन से अथवा बुद्धि से देखता है।
उ. ➦ आप जिसे ‘‘देखना’’ मानते हो, वही ‘‘केवल देखना’’ नहीं होता, देखना का अर्थ जानना भी होता है। अब इसे उदाहरण से देखते हैं। जब कभी हम बातों को भूल जाते हैं, तब आँखें बन्द कर विचार करते हैं और झट से याद आने पर कहते हैं- मैंने विचार कर देखा। वास्तव में वही सही है।
                                एक प्रयोग और देखिये- अरे भाई! आप एक बार अनुमान करके तो देखो, आपको पता लगेगा। यहाँ भी ‘‘देखो’’ शब्द का प्रयोग ‘‘जानो’’ अर्थ में ही हुआ है। इससे पता चलता है कि बहुत वस्तुएँ ‘‘मन एवं बुद्धि’’ से भी जानी जाती है। देखना का प्रयोग जानने के अर्थ में भी होता है न कि मात्र आँखों से प्रत्यक्ष में।
प्र. ➥ तो मन से या बुद्धि से तो जाना जाना चाहिये परन्तु ऐसा भी तो नहीं।
उ. ➦ बुद्धि से तो अनुमान कर ही सकते हैं। बिना अनुमान किये ज्ञान नहीं हो सकता। अविद्या दूर करना चाहिये। जब अविद्या का नाश हो जावेगा तब मन के माध्यम से आत्मा तक और आत्मा से ईश्वर तक पहुँच सकेंगे।और जैसे भोजन सामने रखा है, पर उसे ग्रहण करने का प्रयत्न यदि न किया जावे, तो भूख नहीं हट सकती। उसी प्रकार ईश्वर को जानने के लिए प्रयत्न की आवश्यकता है।
प्र. ➥ वह प्रयास किस प्रकार से करें?
उ. ➦ जैसे आप धुएँ को देखकर अग्नि का अनुमान अथवा पुत्र को देखकर जन्मदाता का अनुमान करते हैं और जान लेते हैं कि यह ज्ञान सही होता है। जहाँ-जहाँ धुआँ होता है, वहाँ-वहाँ आग होती है।
                                  इसी प्रकार- जो-जो कार्य होता है, उसका कारण अवश्य होता है। और कोई भी कार्य है तो वह नष्ट भी होता है। आपने किसी घर को बना देखा, तो आपने अनुमान किया कि इसका बनाने वाला कोई अवश्य ही है। यह सृष्टि एक कार्य है क्योंकी यहां जो चीज बनाई गई वह नष्ट होती भी दिखाई पड़ती है। कार्य का करने वाला भी आवश्यक है, अब वही कौन है, यह भी अनुमान से सिद्ध होता है कि इस संसार को निर्माण करने वाला एक स्थान विशेष पर रहने वाला या मूर्ख नहीं हो सकता, अतः ईश्वर का अनुमान होता है।
प्र. ➥ यह संसार तो अपने आप ही बना है।
उ. ➦ अब आप पहले सिद्धान्त के विरुद्ध जा रहे हैं।पहले आपने स्वीकार किया था कि जो बना होता है, उसे बनाने वाला होता है।
प्र. ➥ क्योंकि यदि ईश्वर ने भी यदि इस संसार को बनाया है, यह कहे तो प्रश्न होगा कि ईश्वर को किसने बनाया?
उ. ➦ जो कार्य होता है, वह नष्ट होता रहता है और जो नष्ट होता हुआ, कोई भी कार्य दिखाई पड़ता है, उसको बनाने वाला कोई अवश्य ही होता है और ईश्वर नष्ट नहीं होता। अतः उसे बनाने वाला कोई भी नहीं हुआ, न है और न होगा।
प्र. ➥ तो वह ईश्वर कहाँ है?
उ. ➦ वह सर्वत्र कण-कण में है। तभी तो उसने इतनी बड़ी रचना की है एक स्थान पर बैठकर ऐसा करना सभव नहीं, और वह सब जगह है, अतः वह सब जानता है। और केवल सृष्टी केवल बना दी गई है ऐसा नहीं इसकी व्यवस्था यानि रखरखाव भी आवश्यक है और व्यवस्था का काम यदि ईश्वर एक स्थानपर बैठकर करे तो जहां वह नहीं रहेगा वहां की व्यवस्था कैसे चलेगी? अतः ईश्वर सब जगह है ।
प्र. ➥ तब तो प्राकृतिक आपदाएँ नहीं आनी चाहिये। क्योंकि ईश्वर सब जगह पर है, अतः उसे ध्यान देना चाहिये कि ये आपदाएँ लोगों को कष्ट पहुँचायेगी उनका कार्य करना भी व्यर्थ होगा, उसे तो इस प्रकार का निर्माण करना चाहिये कि कोई भी आपदाएँ आने ही न पावें।
उ. ➦ यह सब ईश्वर की व्यवस्था के अनुसार होता है या नियमानुसार कहो। क्योंकि ईश्वर को कर्मफल भी तो देने हैं। अतः इसमें हमारे कर्म ही कारण होते हैं। इससे अतिरिक्त, यह प्रदूषण करने का प्रभाव या परिणाम भी हो सकता है। जैसे कोई मनुष्य एक यन्त्र बनाता है और उसमें विद्युत् को सहन करने की क्षमता एक क्षमता तक ही होती है। यदि उसमें कोई अधिक विद्युत् दे देवें, तो वह जलकर नष्ट ही होगा। इसी प्रकार यह पृथ्वी भी एक सीमा तक ही सहन कर सकती है या सह सकती है। उसके पश्श्चात् जो होता है, वह हम देखते ही हैं। यदि व्यवस्था को कोई अव्यवस्था रूप देना चाहे, तो उसमें ईश्वर को क्या दोष?
प्र. ➥ यदि ईश्वर है और आप उसे मानते हैं, तो बताइये कि आज पूरे विश्व में इतने दुष्टकर्म हो रहे हैं परन्तु ईश्वर तो कुछ भी नहीं करता?
उ.➦ ईश्वर को क्या करना चाहिये, आप ही बताइये?
प्र. ➥ उसे शरीर धारण करना चाहिये और दुष्टों की समाप्ति कर देनी चाहिये।
उ. ➦ यदि वह शरीर धारण करे तो विश्वमें अन्य स्थानों का ध्यान कौन देगा? उनके कर्मों का ज्ञान कैसे होगा और ज्ञान नहीं होगा तो उनका फल भी नहीं दे सकेगा।
प्र. ➥ तो सब जगह पर होते हुए, कुछ भी तो नहीं करता?
उ. ➦ आपको कैसे पता कि वो कुछ भी नहीं करता?
प्र. ➥ क्या करता है, बताईये?
उ. ➦ वही तो सभी के कर्मों का उचित फल देता है। ये अलग-अलग प्रकार के जानवर हैं, वे सब इसी के व्यवस्था के अन्तर्गत है और लोग कर्म करने में स्वतन्त्र है और ईश्वर ने लोगों को स्वतंत्र छोड़ रखा है केवल कर्मनुसार फल देना निश्चित कर रखा है।
प्र. ➥ ईश्वर कैसे मिलेगा?
उ.➦ यह जो हम लोग पाप कर्म करते हैं, उसके कारण को (मिथ्या ज्ञान) को हटा दें तो वह परमात्मा प्राप्त होता है।

◼️तीर्थ 🤔◼️


✍🏻 लेखक - स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी

🤔 प्रश्न- तीर्थस्नान से पाप का नाश और पुण्य की उत्पत्ति अथवा आत्मा की शुद्धि होती है वा नहीं?
🌹 उत्तर- पाप का नाश पुण्य की उत्पत्ति और आत्मा की शुद्धि का विचार तो पीछे करेंगे, प्रथम तीर्थ क्या है यही सोचना चाहिए।
🤔 प्रश्न- गंगादि जो अनेक पवित्र स्थान हैं वही तीर्थ हैं, इसको तो सब लोग जानते हैं। इसमें सोचने की कौन सी गुह्य बात है?
🌹 उत्तर- इतना तो ठीक है, साधारण लोग गङ्गादि स्थानों को तीर्थ कहते हैं, किन्तु सोचने की बात यह है, कि ये स्थान वास्तव में तीर्थ हैं वा नहीं? और धर्म-पुस्तकों में इनको तीर्थ लिखा भी है वो नहीं ?
🤔 प्रश्न- क्या लोग बिना लिखे ही कहते हैं ? पुराणों में, महाभारत में तीर्थों का वर्णन है। वेद में तीर्थ शब्द आता है, अतः यह निर्विवाद विषय है। इस पर सोचने की आवश्यकता नहीं है। हाँ पाप-नाश और पुण्य उत्पत्ति की बात कहो।
🌹 उत्तर- वह भी कहेंगे, किन्तु प्रथम तो तीर्थ ही चिन्तनीय है, क्योंकि तीर्थ शब्द के अर्थ हैं, जिसके द्वारा लोग तर जाएं। क्या गंगादि स्नान से वा गंगा से ही लोग तर जाते हैं ? देखा तो यह जाता है, यदि किसी को तैरना न आता हो, वह किसी समय गंगा के गहरे जल में पड़ जाए तो डूब जाता है। और गंगास्नान से भी पाप का नाश और पुण्य की उत्पत्ति प्रतीत नहीं होती। इसलिए न तो यह तीर्थ है और न ही गंगा आदि स्नान से पाप का नाश और पुण्य की उत्पत्ति होती है। इसी कारण मनुस्मृति में मनु जी ने साफ लिखा है।
🔥 अद्भिर्गात्राणि शुध्यन्ति मनः सत्येन शुध्यति।
विद्यातपोभ्यां भूतात्मा बुद्धिर्ज्ञानेन शुध्यति ।
-मनु ५।१०९
जल के स्नान से शरीर शुद्ध होता है, मन सत्य बोलने, सत्य व्यवहार से शुद्ध होता है, विद्या और तप से आत्मा शुद्ध होता है बुद्धि यथार्थ ज्ञान से शुद्ध होती है।
मनु जी ने इस श्लोक में स्नान से शरीर के बाह्य अवयवों की शुद्धि लिखी है, आत्मा की शुद्धि के कारण विद्या और तप ही बताये हैं। आप गंगादि स्नान से आत्मा की शुद्धि कहते हैं, सो बात ठीक नहीं है। जो मनुस्मृति में लिखा है, वही युक्तियुक्त और ठीक है।
आपने कहा था कि महाभारत में तीर्थ का वर्णन है सो महाभारत में ऐसा लेख है, जब महाभारत युद्ध समाप्त हो गया, भीष्मपितामह जी शरशय्या पर विराजमान थे। उस समय श्री कृष्ण जी की सम्मति से पाण्डव उनकी सेवा में गये, वहाँ जाकर युधिष्ठिर जी ने भीष्मपितामह जी से अनेक विषयों के प्रश्न पूछे थे, उन प्रश्नों के भीष्मपितामह जी ने जो उत्तर दिये थे, वह महाभारत के अनुशासन पर्व में लिखे हुए हैं। वहाँ तीर्थ विषयक भी एक प्रश्न का उस समय भीष्म जी ने जो उत्तर दिया था, उसमें से कुछ श्लोक यहाँ लिखते हैं, जिससे महाभारत में तीर्थ विषयक सिद्धान्त का पता लग जाएगा।
युधिष्ठिर उवाच
🔥 यद्वरं सर्वतीर्थानां तन्मे ब्रूहि पितामह।
यत्र चैव परं शौचं तन्मे व्याख्यातुमर्हसि॥१॥
युधिष्ठिर जी ने कहा-हे पितामह सब तीर्थों में जो श्रेष्ठ है और जो उत्तम शौच, अर्थात् पवित्रता होती है, वह आप मुझे बतलायें।
भीष्म उवाच-
🔥 सर्वाणि खलु तीर्थानि गुणवन्ति मनीषिणाम्।
यत्तु तीर्थं च शौचं च तन्मे शृणु समाहितः ॥ २ ॥
सब तीर्थ मनीषियों के लिए गुणवान् हैं, उनमें जो पवित्र तीर्थ है। वह समाहित होकर सुन।
🔥 अगाधे विमले शुद्धे सत्यतोये धृतिहदे।
स्नातव्यं मानसे तीर्थे सत्यमाश्रित्य शाश्वतम् ॥ ३॥
🔥 तीर्थं शौचमनर्थित्वमार्जवं सत्त्वमार्दवम्।
अहिंसा सर्वभूतानामानृशंस्यं दमः शमः ॥ ४॥
🔥 निर्ममा निरहङ्कारा निर्द्वन्द्वा निष्परिग्रहा।
शुचयस्तीर्थभूतास्ते ये भैक्ष्यमुपभुञ्जते ॥ ५ ॥
गम्भीर, दोषरहित, पवित्र सत्यरूपी जल और धैर्य रूपी तालाब युक्त मानस तीर्थ में शाश्वत सत्य का अवलम्बन करके स्नान करना चाहिए। (अनर्थत्वं) किसी को अर्थी न होना, (आर्जवं) सरलता, (मार्दवं) नरमचित्त, सब जीवों की अहिंसा, अनृशंसता और शम (मन को वश में रखना) दम (इन्द्रिय दमन करना) ही पवित्र तीर्थ हैं।
जो लोग ममतारहित, निरहंकारी, अर्थात् अहंकार शून्य, सुख, दु:ख, शीत, आतप आदि द्वन्द्व सहन करनेवाले और निष्परिग्रह, अर्थात् संग्रह रहित, दानादि के लालच से रहित हैं और जो लोग भिक्षा धन से जीवन व्यतीत करनेवाले संन्यासी हैं, वे ही पवित्र तीर्थरूप हैं।
                                   इस प्रकरण में भीष्म जी ने आपके कहे गंगादि स्नान को कहीं तीर्थ नहीं बताया है। उसके विपरीत सत्य, धैर्घ्य, निर्लोभतो, सरलता, नम्र चित्त, अहिंसा, दया, शम, दम, ममतारहित, अहंकार वर्जित, द्वन्द्वों के सहन करनेवाले तपस्वी और भिक्षा से निर्वाह करनेवालों को ही तीर्थ बताया है। इससे सिद्ध है कि वास्तव में यही सच्चे तीर्थ हैं। जो मनुष्य को पवित्र करनेवाले हैं, यही वे तीर्थ हैं, जिनके सेवन से मनुष्य संसार-सागर से तर जाता है, गंगादि तीर्थ तो स्वार्थी लोगों ने साधारण प्रजा को ठगने के लिए बना लिये हैं और ये गंगादि तीर्थ तारनेवाले तो किसी अवस्था में भी नहीं होते हैं।
उसी प्रकरण में स्नान के विषय में भी भीष्म जी ने कहा है।
यथा-
🔥 नोदकक्लिन्नगात्रस्तु स्नात इत्यभिधीयते।
स स्नातो यो दमस्नातः स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः॥
🔥 मनसा च प्रदीप्तेन ब्रह्मज्ञानजलेन च।
स्नाति यो मानसे तीर्थे तत्स्नानं तत्त्वदर्शिनाम्॥
(महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय १०८)
जल से स्नान करनेवाले मनुष्य को स्नान (स्नान किया हुआ) नहीं कहते हैं। जो लोग दमस्नात हैं उन्हीं ने स्नान किया है और वे ही बाहर तथा भीतर पवित्र होते हैं।
ज्ञान से निर्मल किये हुए मन और ब्रह्म ज्ञान के जल के सहारे जो लोग मानस तीर्थ में स्नान करते हैं, उनका नहाना ही स्नान है। तत्त्वदर्शियों को ऐसा ही स्नान अभिमत है।
यहाँ भीष्मपितामह जी ने जल स्नान से आत्मशुद्धि का सर्वथा ही निषेध किया है, अतः जलादि के स्नान से मनु जी के लिखे अनुसार केवल शरीर की शुद्धि होती है। आत्मशुद्धि के लिए जल स्नान का कोई प्रयोजन नहीं है।
🤔 प्रश्न- यदि महाभारत में इस प्रकार निषेध है तो लोग गंगादि तीर्थों में स्नान करने क्यों आते हैं ? और पण्डे तीर्थों पर रहते हैं और वे बाहर जाकर तीर्थों का प्रचार भी करते हैं। क्या वे महाभारत नहीं पढ़े हैं?
🌹 उत्तर- महाभारत तो वे पढ़े हैं, परन्तु उन्हें तीर्थ स्नान करनेवालों को तीर्थ का माहात्म्य बताकर बहकाना है और उनका धनहरण करके अपनी जीविका चलानी है। और इसलिए वे तो स्वार्थी हैं, उनका कथन प्रमाण नहीं है।
🤔 प्रश्न- किसी आचार्य्य ने तीर्थ विषयक कुछ लिखा है ?
🌹 उत्तर- हाँ लिखा है।
🤔 प्रश्न- वह बतलाओ, क्या लिखा है?
🌹 उत्तर- महर्षि दयानन्द जी ने सत्यार्थप्रकाश में तीर्थ विषयक निम्न पाठ लिखा है-और ये तीर्थ (प्रथम भारतवर्ष में) नहीं थे, जब जैनियों ने गिरनार, पालिटाना शिखर शत्रुञ्जय और आबू आदि तीर्थ बनाये। उनके अनुकूल इन लोगों ने भी बना लिये। जो कोई इनके आरम्भ की परीक्षा करना चाहे, वे पण्डों की पुरानी से पुरानी बही और तांबे के पत्र आदि लेख देखें तो निश्चय हो जाएगा कि ये सब तीर्थ पांच सौ अथवा एक सहस्र वर्ष से इधर ही बने हैं, सहस्र वर्ष से उधर का लेख किसी के पास नहीं निकलता, इससे आधुनिक हैं।
🤔 प्रश्न- जो जो तीर्थ का माहात्म्य, अर्थात् 🔥 'अन्यक्षेत्रे कृतं पापं काशीक्षेत्रे विनश्यति।' इत्यादि बातें हैं, वे सच्ची हैं वो नहीं ?
🌹 उत्तर- नहीं, क्योंकि यदि पाप छूट जाते हों तो दरिद्रों को धन, राजपाट, अन्धों को आँखें मिल जातीं, कोढ़ियों का कोढ़ आदि रोग छूट जाता, ऐसा नहीं होता, इसलिए पाप वा पुण्य किसी का नहीं छूटता।।
🤔 प्रश्न- 🔥 गङ्गा गङ्गेति यो ब्रूयाद् योजनानां शतैरपि।
मुच्यते सर्वपापेभ्यो विष्णुलोकं स गच्छति॥ जो सैकड़ों सहस्रों कोस दूर से भी गंगा-गंगा कहे तो उसके पाप नष्ट हो कर वह विष्णु लोक, अर्थात् वैकुण्ठ को जाता है। क्या झूठ हो
जाएगा?
🌹 उत्तर- मिथ्या होने में क्या शङ्का?, क्योंकि गङ्गा.......नाम स्मरण से पाप कभी नहीं छूटता, जो छूटे तो दु:खी कोई न रहे और पाप करने से कोई भी न डरे। वैसे आजकल पोपलीला में पाप बढ़कर हो रहे हैं। मूढ़ों को विश्वास है कि हम.......तीर्थयात्रा करेंगे तो पापों को निवृत्ति हो जाएगी। इसी विश्वास पर पाप करके इस लोक और परलोक का नाश करते हैं, परन्तु किया हुआ पाप भोगना ही पड़ता है।
🤔 प्रश्न- तो कोई तीर्थ.......सत्य है वा नहीं?
🌹 उत्तर- है, वेदादि सत्यशास्त्रों का पढ़ना, पढ़ाना, धार्मिक विद्वानों का संग, परोपकार, धर्मानुष्ठान, योगाभ्यास, निर्वैर, निष्कपट, सत्यभाषण, सत्य का मानना, सत्य करना, ब्रह्मचर्य्य, आचार्थ्य, अतिथि, मातापिता की सेवा करना, परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना, उपासना, शान्ति, जितेन्द्रियता, सुशीलता, धर्मयुक्त, पुरुषार्थ, ज्ञान, विज्ञान आदि शुभ गुण, कर्म दुःखों से तारनेवाले होने से तीर्थ हैं। और जो जलस्थलमय हैं। वे तीर्थ कभी नहीं हो सकते, क्योंकि 🔥 ‘जना यैस्तरन्ति तानि तीर्थानि' मनुष्य जिसे करके दुःखों से तरें उनका नाम तीर्थ है। जलस्थल तरानेवाले नहीं, किन्तु डुबोकर मारनेवाले हैं।
🌺 पूर्वपक्षी-महर्षि दयानन्द जी का लेख सुनकर तो अब पूरा-पूरा निश्चय हो गया कि गङ्गादि तीर्थ केवल पोपों के बनाये हुए हैं। आगे को मैं भी जैसा महर्षि ने उपदेश किया है, वैसा करने का यत्न करूंगा।(‘‘वेदपथ'' से साभार)

आदि सृष्टि के मनुष्यो की भाषा क्या थी और भाषा का विस्तार कैसे हुआ ?


आदि सृष्टि के मनुष्यो की भाषा क्या थी और भाषा का विस्तार कैसे हुआ ?

भाषा की उत्पत्ति :

मानव जिस समय पृथ्वी पर उत्पन्न हुआ उस समय बोलने और समझने की शक्ति समपन्न अवस्था थी – यह निर्देश पहले भी किया जा चुका है की आदि सृष्टि के मनुष्य युवा अवस्था के उत्पन्न होते हैं – इसलिए उनमे बोलने की शक्ति थी तो यह भी मानना होगा की वर्ण भी थे जिनके द्वारा वह अपनी वाणी को प्रकट कर सके। यदि कोई यह माने की वर्ण नहीं थे तो उसके साथ यह भी स्वीकार करना ही पड़ेगा की मनुष्य आदिम अवस्था में गूंगा उत्पन्न हुआ। यदि गूंगा उत्पन्न हुआ तो फिर वह किसी भी हालत में बोलने वाला नहीं हो सकता। इसलिए निष्कर्ष यही निकलेगा की उसमे बोलने की शक्ति थी और जब बोलने की शक्ति थी तो ये भी तथ्यात्मक है की जो भाषा वो बोले उनके वर्ण भी होने चाहिए।
                         जो लोग कहते हैं की सेमिटिक भाषाए, हीब्रू अथवा अरबी आदि आर्य भाषाओ से स्वतंत्र हैं वह गलती पर हैं, कारण की मनुष्य किसी नवीन भाषा को तो कभी बना ही नहीं सकता ?
                        क्योंकि मैथुनी (सेक्स) सृष्टि के लोगो की भाषा सदैव उनके मातापिता तथा गुरु की भाषा होती है। लेकिन आदि मनुष्यो की भाषा पूर्ण (संस्कृत) भाषा ही थी ऐसा नियम इसलिए मान्य है क्योंकि आदि मनुष्यो का माता पिता और गुरु ईश्वर के अतिरिक्त और कोई थे ही नहीं। तो ऐसी स्थति में और कोई देशीय भाषा विरासत में मिलना असंभव है – तो साफ़ है उनकी केवल वही भाषा होगी जो सृष्टि के पदार्थो में विद्यमान हो – परमेश्वर द्वारा मनुष्य पर प्रकट किये जाने वाले ज्ञान के पूर्ण माध्यम होने की उस भाषा में क्षमता हो और वह ऐसी भाषा होनी चाहिए जो सदा प्रत्येक कल्प में एक सी रहती हो तथा आगे बोल चाल की समस्त भाषाओ को उत्पन्न करने में सक्षम हो। विशेष बात यह है की वो किसी देश विदेश की भाषा न हो और न उससे पूर्व कोई ज्ञान वा भाषा पृथ्वी पर कहीं मौजूद हो बस यही बात है जो विशेष वर्णन के योग्य है की परमेश्वर ने मानव के पृथ्वी पर आने के साथ ही साथ वेद ज्ञान की प्रेरणा मनुष्य में दी – और वह वेद की भाषा “संस्कृत” में ईश्वरीय ज्ञान मानव को मिला जो आदि ज्ञान और आदि भाषा – दोनों था।

वाणी भाषाओ का विस्तार –

ऊपर जो कुछ दर्शाया गया है उसका भाव यह है की आदि अमैथुनी सृष्टि के मनुष्यो के शरीर तथा शरीर के सब अंग आदि आदर्श रुपी थे, जैसे वो आदि सृष्टि के मनुष्य मैथुनी सृष्टि के मनुष्यो के लिए साँचे रुपी थे अर्थात मनुष्य समाज के प्रवर्तक थे वैसे ही आदि भाषा भी साँचा रुपी और सभी भाषाओ की प्रवर्तक होनी चाहिए। इसीलिए उस आदि भाषा का नाम संस्कृत है। संस्कृत का अर्थ होगा पूर्ण भाषा यानी जो पूर्ण भाषा हो वो संस्कृत कहलाएगी।

इसी प्रकार अपूर्ण भाषाए जो वेद भाषा से संकोच, अपभ्रंश और मलेच्छित आदि होकर मनुष्य के बोल चाल की भाषाए बनती हैं। क्योंकि संस्कृत भाषा के दो भाग हैं –

1. वैदिक संस्कृत
2. लौकिक संस्कृत

प्राय सभी पश्चिमी विद्वान और अनेक भारतीय अनुसन्धानी भी संस्कृत को ही सभी भाषाओ का मूल मानते हैं – पर ध्यान देने वाली बात है की लौकिक संस्कृत की जन्मदात्री वैदिक संस्कृत है। वैदिक संस्कृत ही आदि भाषा है क्योंकि वैदिक संस्कृत अर्थात वेद की भाषा कभी भी किसी भी देश वा किसी जाती की अपने बोलचाल की भाषा नहीं रही है – क्योंकि वेदो में वाक्, वाणी आदि पदो का प्रयोग देखा जाता है भाषा का नहीं।

अब हम समझते हैं भाषा का विस्तार किस प्रकार हुआ – देखिये वेद में वैदिकी वाणी को नित्य कहा है –
तस्मै नूनमभिद्यवे वाचा विरूप नित्यया।
(ऋग्वेद 8.75.6)
नित्यया वाचा – अर्थात नित्य वेदरूप वाणी – यानी की वैदिक संस्कृत यह सब वाणियों (भाषाओ) की अग्र और प्रथम है –
बृहस्पते प्रथमं वाचो अग्नं
(ऋग्वेद 10.71.1)
प्रभु से दी गयी वेदवाणी ही इस सृष्टि के प्रारंभिक शब्द थे।
ईश्वर की प्रेरणा से यह वाणी सृष्टि के प्रारम्भ में ऋषियों पर प्रकट होती है।
यज्ञेन वाचः पदवीयमायणतामानवविन्दन्नृषिषु प्रविष्टाम्।
(ऋग्वेद 10.71.3)
प्रभु अग्नि आदि को वेदज्ञान देते हैं इससे अन्य यज्ञीय वृत्तिवाले ऋषियों को यह प्राप्त होती है – इसी मन्त्र में आगे लिखा है –
                     इस ही प्रथम, निर्दोष और अग्र वाणी को लेकर लोग बोलने की भाषा का विस्तार करते हैं।
तामाभृत्या व्यदधुः पुरूत्रा तां सप्त रेभा अभी सं नवंते।।
(ऋग्वेद 10.71.3)
इस वाणी को ऋषि मानव समाज में प्रचारित करते हैं। यह वेदवाणी सात छन्दो से युक्त है अर्थात २ कान – २ नाक – २ आँख और एक मुख ये सात स्तोता बनकर इसे प्राप्त करते हैं –

उपरोक्त प्रमाणों और तथ्यों से सिद्ध होता है की मनुष्य की एक ही भाषा थी – और मनुष्यो ने इसी वेद वाणी से अर्थात प्रथम व पूर्ण भाषा संस्कृत से – अपूर्ण भाषाए – अर्थात जितनी भाषाए आज प्रचलित हैं उनका निर्माण किया – लेकिन वैदिक संस्कृत में आज भी कोई फेर बदल नहीं हो सका – क्योंकि वैदिक संस्कृत पूर्ण भाषा है

सृष्टि उत्पत्ति क्यों और कैसे ?

मानव का प्रादुर्भाव कहाँ ?

सृष्टि उत्पत्ति क्यों और कैसे ?

सृष्टि उत्पत्ति क्यों और कैसे ? मानव का प्रादुर्भाव कहाँ ? – आचार्य पं. उदयवीरजी शास्त्री पिछले अंक का शेष भाग…………
 उत्तर- प्रयोजन कामनामूलक होता है।ब्रह्म को ब्रह्मज्ञानियों ने पूर्णकाम व आप्तकाम बताया है, इसलिये सृष्टि रचना में ईश्वर का कामनामूलक कोई निजी प्रयोजन नहीं रहता। यह एक व्यवस्था है और ईश्वरीय व्यवस्था है, वह स्वयं अपनी व्यवस्था से बाहर नहीं जाता, उसके नियम सत्य हैं और पूर्ण हैं। उनके अनुसार ईश्वर सृष्टि रचना करता है- जीवात्माओं के भोग और अपवर्ग की सिद्धि के लिये। उसका यह कार्य उसकी एक स्वाभाविक विशेषता है, इसमें कभी कोई अन्तर या विपर्यास आने की संभावना नहीं की जा सकती। सृष्टि रचना के द्वारा ही परमात्मा का बोध होता है और इस मार्ग से जीवात्मा मोक्ष को प्राप्त करता है। जब यह प्राप्त नहीं होता, तब कर्मों को करता और उनके अनुसार सुख-दुःख आदि फलों को भोगा करता है, सृष्टि-रचना का यही प्रयोजन है। निराकार से साकार सृष्टि कैसे ?
प्रश्न- ईश्वर को निराकार माना जाता है, वह निराकार होता हुआ सृष्टि की रचना कैसे करता है? लोक में देखा जाता है कि कोई भीकर्त्ता देहादि साकार सहयोगी के बिना किसी प्रकार की रचना करने में असमर्थ रहता है, तब निराकार ईश्वर इस अनन्त विश्व की रचना करने में कैसे समर्थ होता है?
उत्तर – अनन्त विश्व की रचना करने वाला निराकार ही समर्थ हो सकता है। जहाँ ईश्वर को निराकार माना गया है, वहाँ उसे सर्वव्यापक और सर्वशक्तिमान भी कहा गया है। जैसा कि पहले कहा जा चुका है, ‘सर्वशक्तिमान्’ का यही तात्पर्य है कि वह जगद्रचना में अन्य किसी सहायक की अपेक्षा नहीं रखता, उसमें अनन्त शक्ति व पराक्रम है, उसका चैतन्यरूप सामर्थ्य असीम है, वह उसी सामर्थ्य द्वारा मूल उपादान जड़ प्रकृति को प्रेरित करता है, उसकी अनन्त सामर्थ्ययुक्त व्यवस्था सूक्ष्मातिसूक्ष्म तत्त्वों में सर्वत्र व्याप्त है। वह कण-कण में अपना कार्य किया करती है। जीवात्मा अल्पज्ञ, अल्प शक्ति एवं एकदेशी है। उसे अपने किसी कार्य को संपन्न करने के लिये अन्तरंग साधनकरण (बुद्धि मन आदि) तथा बाह्य साधन देह एवं देहावयवों की अपेक्षा रहती है, इसलिये लोक में देखी गई स्थूल व्यवस्था के अनुसार ऐश्वरीसृष्टि के विषय में ऊहा करना उपयुक्त न होगा। यदि गभीरतापूर्वक विचार किया जाय तो जीवात्मा द्वारा की जानेवाली प्रेरणाओं में उस स्थिति को पकड़ा जा सकता है, जहाँ किसी साकार सहयोगी की अपेक्षा नहीं जानी जाती। विचार कीजिये, आप कुर्सी पर बैठे हैं, मेज आपके सामने है, मेज पर आपका हाथ निश्चेष्ट रक्खा हुआ है, उससे कुछ दूर मेज के कोने पर कलम रक्खा है, आप उसे उठाकर कुछ लिखना चाहते हैं। आपकी इस इच्छा के साथ ही हाथ में हरकत होती है, वह ऊपर उठता और अँगुलियों में कलम पकड़ कर फिर पहली जगह आ टिकता है। अब विचारना यह है कि हाथ में उठने के लिये जो क्रिया हुई है, वह एक प्रेरणा का फल है, देह के अन्दर बैठा जो आपका चेतन आत्मा है, उसी से यह प्रेरणा प्राप्त होती है। प्रेरणा देने की सीमा में चैतन्य के अतिरिक्त किसी अन्य साकार सहयोगी का समावेश नहीं है। यहाँ केवल चेतन आत्मा प्रेरणा दे रहा है, जो निराकार है। उसके अन्य साधन बुद्धि, मन आदि प्रेर्यमाण सीमा में आते हैं, प्रेरक सीमा में नहीं। इससे यह परिणाम निकलता है कि चैतन्य एक ऐसा तत्त्व है, जो प्रेरणा का अन्य आधार व स्रोत है, जिसमें किसी अन्य साकार सहयोगी की अपेक्षा नहीं रहती। जीव-चेतन की शक्ति जैसे अति सीमित है, ऐसे ब्रह्म-चेतन की शक्ति असीमित है, जैसे जीव केवल देह में प्रेरणा प्रदान करता है, ऐसे परमेश्वर अनन्त सामर्थ्य युक्त होने से अनन्त विश्व को प्रेरित करता है। सृष्टि रचना के विचार में यदि साकार सहयोगी की कल्पना की जाय तो वस्तुतः यह रचना ही असम्भव हो जायेगी, क्योंकि वह सहयोगी भी बिना रचना के असंभव होगा। फलतः अनन्त विश्व की रचना के लिये निरपेक्ष निराकार चैतन्य ही समर्थ हो सकता है, यह निश्चित है। बिना कारण क्यों नहीं?
प्रश्न– ईश्वर जब सर्वशक्तिमान् है , तो वह बिना कारण के ही जगत् को क्यों नहीं बना देता?
उत्तर – यह संभव नहीं। बिना कारण के कोई कार्य नहीं होता, कारण न होना ‘अभाव’ का स्वरूप है, जो अभाव है, वह कभी भाव रूप में परिणत नहीं हो सकता और न भाव रूप पदार्थ का कभी सर्वथा अभाव होता है। बिना कारण अथवा अभाव से जगत् की उत्पत्ति कहना बन्ध्या पुत्र के विवाह के समान मिथ्या है।
प्रश्न– जब कारण के बिना कुछ नहीं हो सकता, तो कारण का भी कोई कारण मानना होगा, और उसका भी कोई अन्य कारण, इस प्रकार तुमहारे इस कथन में अनवस्था दोष आता है कि कारण के बिना कुछ नहीं हो सकता।
उत्तर– हमने यह नहीं कहा कि कारण के बिना कुछ नहीं हो सकता। ऐसे भी पदार्थ हैं, जो किसी के कारण हैं, पर वे स्वयं किसी के कारण हैं, तो वे स्वयं किसी के कार्य भी हैं। ऐसे पदार्थों को ‘कारण-कार्य’ अथवा ‘प्रकृति-विकृति’ कहा जाता है। जैसे घड़ा मिट्टी से बनता है, मिट्टी पृथ्वीरूप है, पृथ्वी घड़े मकान आदि का कारण होते हुए भी अपने कारणों का कार्य है, अर्थात जिन कारणों से पृथ्वी की रचना होती है, उनका कार्य है। परन्तु जो सब कार्य जगत् का मूलकारण है, उसका और कोई कारण नहीं होता, जगत् का मूल उपादान कारण अनादि पदार्थ है, वह किसी से उत्पन्न या परिणत नहीं होता, यदि ऐसा होता तो वह मूलकारण नहीं हो सकता था। इस प्रकार जैसे जगत् का कर्त्ता निमित्त कारण ईश्वर अनादि है, वैसे ही जगत् का मूल उपादान कारण प्रकृति भी अनादि है। उसका अन्य कोई कारण संभव नहीं, क्योंकि वह कार्य नहीं, केवल कारण है, अतएव अनवस्था दोष की यहाँ संभावना नहीं हो सकती।
प्रश्न- आप प्रकृति उपादान से जगत् की सृष्टि कहते हैं, पर अन्य अनेक आचार्यों के सृष्टि की उत्पत्ति के विषय में विविध विचार हैं, क्या उनमें कोई सत्यता नहीं है? उन विचारों को निम्नलिखित वादों के रूप में उपस्थित किया जा सकता है-शून्यवाद, अभाववाद, आकस्मिकवाद, सर्वानित्यत्ववाद, भूतनित्यत्ववाद, पृथक्त्ववाद, इतरेतराभाववाद, स्वभाववाद, जगदनादिवाद, जीवेश्वरवाद आदि। क्या इनके अनुसार सृष्टि की यथार्थ व्याखया संभव नहीं?
उत्तर – इन वादों के आधार पर सृष्टि की सत्य एवं पूर्ण व्याखया होना समभव नहीं, ये सब एकदेशी, अवैदिकवाद हैं, जो किसी एक अंश पर धुँधला-सा प्रकाश डालते हैं, कहीं वह भी नहीं, प्रत्युत प्रकाश की जगह अन्धकार का ही विस्तार करते हैं। जगत् की यथार्थ विद्यमानता पहले दोनों वादों को ठुकरा देती है। किसी वस्तु का होना कहना अथवा उत्पन्न होना बताना और उसे अकस्मात् कहना परस्पर विरोधी हैं। जो वस्तु उत्पन्न होती है, वह निश्चित ही अपने कारणों से होगी, यह अलग बात है कि हम उन कारणों को जान सकें या न जान सकें। सब वस्तु अनित्य है, अथवा भूतनित्य हैं, इसलिए सब वस्तु नित्य हैं, ये कथन अपने ही में मिथ्या है। किसी वस्तु का नित्य या अनित्य होना विशिष्ट निमित्तों पर आधारित है, उत्पन्न होने वाली वस्तु अनित्य तथा उत्पादन-विनाश से रहित वस्तु नित्य कही जाती है, यह एक व्यवस्था है। प्रत्येक वस्तु न नित्य हो सकती है, न अनित्य। पृथक्त्ववाद आधुनिक रसायन शास्त्र से पर्याप्त सीमा तक मेल रखता है। रसायन शास्त्र के अनुसार आज तक ऐसे एक सौ दो पदार्थों का पता लग चुका है, जो मूल रूप में एक दूसरे से पृथक है, एक दूसरे में किसी का कोई अंश नहीं है, भविष्य में और भी ऐसे अनेक पदार्थों का पता लग जाने की संभावना है। सोना, चाँदी, लोहा, तांबा, पारा, गन्धक, जस्ता, सीसा, कैल्शियम, आक्सीजन, हाइड्रोजन, कॉर्बन, नाईट्रोजन, सिलिकन्, फास्फोरस, ऐल्युमिनिअम, आर्सनिक, प्लैटिनम्आदि सब ऐसे पदार्थ हैं, जो सर्वथा एक दूसरे से पृथक है। किसी में किसी का कोई अंश नहीं है, पर भौतिकी विज्ञान ने ही इस तथ्य को स्पष्ट कर दिया है कि ये सब किन्हीं मूलतत्त्वों के समिश्रण से बने हैं। वे मूल तत्त्व प्रोटॉन, इलैक्ट्रॉन और न्यूट्रॉन् हैं, भारतीय दार्शनिकविचार के अनुसार इन्हें यथाक्रम सत्व, रजस्, तमस् के वर्ग में समझा जा सकता है। वैसे भी उक्त पदार्थों में से प्रत्येक में आकाश, काल, सामान्य (जाति) एवं नियन्ता शक्ति परमात्मा आदि का विद्यमान रहना अनिवार्य है, इसलिये स्वरूप से इनके पृथक रहते भी इनमें अन्य पदार्थों का अस्तित्व रहता ही है। पदार्थों के इतरेतराभाव से सब पदार्थों का अभाव बताना सर्वथा प्रत्यक्ष विरुद्ध है। गाय घोड़ा नहीं, घोड़ा गाय नहीं, इसलिये न गाय है न घोड़ा, ऐसा कहना नितान्त विचार शून्य है।यद्यपि गाय घोड़ा नहीं है, पर गाय गाय है, घोड़ा घोड़ा है, उनके अपने अस्तित्व को कैसे झुठलाया जा सकता है? ‘स्वभाव’ से जगत् की उत्पत्ति कहना, किस अर्थ को प्रकट करता है, यह विचारणीय है। स्वभाव में ‘स्व’ पद का अर्थ क्या है? यदि पद मूलकारण को कहता है, तो इस पद मात्र के अलग कहने से कोई अन्तर नहीं आता, अपने मूल कारण से जगत् उत्पन्न होता है, यही उसका तात्पर्य हुआ। इसी प्रकार वर्तमान रूप में जगत् को अनादि कहना प्रमाण विरुद्ध है। जागतिक वस्तुओं में परिणाम व परिवर्तन अथवा उत्पादन-विनाश बराबर देखा जाता है, जो इसके बने हुए होने को सिद्ध करता है, इसी रूप में जगत् को अनादि कहना अयुक्त है। पृथिव्यादि पदार्थ अवयव संयोग से बने परीक्षा द्वारा प्रत्यक्ष देखे जाते हैं। यह कहना भी सर्वथा अयुक्त है कि जगत् का कर्त्ता ईश्वर कोई नहीं, जीवात्मा ही सिद्ध अवस्था को प्राप्त होकर जगद्रचना कर सकते हैं। जीवात्मा को सिद्ध अवस्था तक पहुँचने के लिये भी संसार की आवश्यकता है, यह संसार किसने बनाया ? किसी जीवात्मा का अनादि सिद्ध होना सभव नहीं। यदि कोई चेतन आत्मतत्त्व सृष्टि रचना का सामर्थ्य रखने वाला अनादि सिद्ध माना जाता है, तो उसे ही परमात्मा कहा जा सकता है। सृष्टि का क्रम प्रवाह से अनादि है, उत्पत्ति स्थिति और प्रलय जगत् के अनादिकाल से चले आते हैं, अनन्त काल तक इसी प्रकार चलते रहेंगे, यह ऐश्वरी व्यवस्था है। कल्प-कल्पान्तर में परमेश्वर ऐसी ही सृष्टि को बनाता, धारण करता एवं प्रलय करता रहता है। ईश्वर के कार्य में कभी भूल-चूक या विपर्यास नहीं होता।
प्रशन- सृष्टि विषय में क्या वेदादि शास्त्रों का एवं भारतीयदर्शनों का परस्पर विरोध नहीं है? कहीं आत्मा से, कहीं परमाणु से, कहीं प्रकृति से, कहीं ब्रह्म और काल एवं कर्म से सृष्टि कही है। इनमें स्पष्ट विरोध प्रतीत होता है । उत्तर– इनमें विरोध कोई नहीं, ये सब एक दूसरे के पूरक हैं। प्रत्येक कार्य अनेक कारणों से बनता है। यह कहा जा चुका है, कार्यमात्र के तीन कारण हुआ करते हैं, निमित्त, उपादान और साधारण। न्यायादिदर्शनों में जगत् के विभिन्न कारणों का वर्णन है और उसके लिये अन्य उपयोगी विधियों का। प्रत्येक वस्तु की सिद्धि के किसी भी स्वर पर हमें प्रमाणों का आश्रय लेना पड़ता है, इस स्थिति का कोई दर्शन विरोध नहीं करता। तत्त्व विषयक जिज्ञासा होने पर प्रारमभ में शिक्षा का उपक्रम वहीं से होता है, जिनका प्रतिपादन वैशेषिक दर्शन करता है। तत्त्वों के स्थूल-सूक्ष्म साधारण स्वरूप और उनके गुण-धर्मों की जानकारी पर ही आगे तत्त्वों की अतिसूक्ष्म अवस्थाओं को जानने-समझने की ओर प्रवृत्ति एवं क्षमता का होना समभव है। प्रमाण और बाह्य प्रमेय का विषय न्याय-वैशेषिक दर्शनों में प्रतिपादित किया गया है। तत्त्वों की उन अवस्थाओं और चेतन-अचेतन रूप में उनके विश्लेषण को सांय प्रस्तुत करता है। चेतन-अचेतन के भेद को साक्षात्कार करने की प्रक्रियाओं का वर्णन योग में है। इन प्रक्रियाओं के मुखय साधन भूत मन की जिन विविध अवस्थाओं के विश्लेषण का योग में वर्णन है, वह मनोविज्ञान की विभिन्न दिशाओं का केन्द्र भूत आधार है। समाज के कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य का वर्णन मीमांसा एवं समस्त विश्व के संचालक व नियन्ता चेतन तत्त्व का वर्णन वेदान्त करता है। यह ज्ञान साधन कार्यक्रम भारतीय संस्कृति के अनुसार वर्णाश्रम धर्मों एवं कर्त्तव्यों के रूप में पूर्णतया व्यवस्थित है। इन उद्देश्यों के रूप में कहीं किसी का किसी के साथ विरोध का उद्भावन अकल्पनीय है। दर्शनों में जिन तत्त्वों का निरूपण किया है, सृष्टि रचना में एक दूसरे के पूरक होकर वे तत्त्व पहले कहे तीन कारणों में अन्तर्हित अथवा समाविष्ट हैं, इनमें विरोध का कहीं अवकाश नहीं।
प्रश्न– पृथिव्यादि लोक-लोकान्तर तथा पृथिवी पर औषधि वनस्पति आदि उत्पन्न हो जाने पर संचरण शील प्राणी का प्रादुर्भव कैसे होता है? चालू सर्ग क्रम में ऐसे प्राणी का प्रजनन मिथुन मूलक देखा जाता है, यह स्थिति सर्वादिकाल में होनी संभव नहीं। यह एक उलझन भरी समस्या है कि सर्वप्रथम प्राणी का प्रादुर्भाव कैसे हुआ।
उत्तर- सर्वप्रथम प्राणी का प्रादुर्भाव बाह्य मिथुन मूलक नहीं होता। परमात्मा अपनी अचिन्त्य शक्ति एवं व्यवस्था के अनुसार स्त्री-पुरुषों के शरीर बनाकर उनमें जीवों का संयोग कर देता है। शरीर की रचना जिस प्रक्रिया के अनुसार चालू होती है, उसमें जीवात्मा का संचार प्रथमतः हो जाता है। प्राणी शरीर की रचना अत्यन्त जटिल है, शरीर-रचना की इस सुव्यवस्था को देखकर रचना करने वाले का अनुमान होता है। जो व्यवस्था जिस प्राणी वर्ग में निहित कर दी गई है, वह चालू संसार के मिथुन-मूलक प्रजनन में अब तक चली आ रही है और प्रलय पर्यन्त चलती रहेगी। इससे आदि शरीर की रचना बाह्य मैथुन रहित केवल परमात्मा की नित्य व्यवस्था के अनुसार होती है। यह अनुमान वर्तमान में देखी गई व्यवस्था के आधार पर किया जा सकता है।
प्रश्न– इतने कथन से आदि सर्ग में मानव शरीर रचना की प्रक्रिया का स्पष्टीकरण नहीं होता। इसका और स्पष्ट विवरण देना चाहिए।
उत्तर– आदि सर्ग में प्राणी देह की रचना ऐश्वरी सृष्टि में गिनी जाती है। सर्वप्रथम जो प्राणी हुए, विशेषतः मानव प्राणी, उनका पालन-पोषण करने वाला माता-पिता आदि कोई न था, इसलिये यह निश्चित समभावना होती है कि वे मानव किशोर अवस्था में प्रादुर्भूत हुए, कतिपय आधुनिक वैज्ञानिक भी ऐसा मानने लगे हैं। बोस्टन नगर के स्मिथसोनियन इन्स्टीट्यूट के जीव विज्ञान शास्त्र के अध्यक्ष डॉ. क्लॉर्क का कथन है- मानव जब प्रादुर्भूत हुआ, वह विचार करने, चलने फिरने और अपनी रक्षा करने के योग्य था- Man appeared able to think walk and defend himself. समस्या यह है कि मानव ऐसा विकसित देह सर्वप्रथम प्रादुर्भूत कैसे हुआ? उसकी रचना किस प्रकार हुई होगी? सचमुच यह समस्या अत्यन्त गमभीर है। ऐसी स्थिति में ऐसे शरीरों का प्रकट हो जाना अनायास बुद्धिगमय नहीं है। इसे समझने के लिये हमें चालू सर्ग काल के प्रजनन की स्थिति पर ध्यान देना चाहिये, समभव है वहाँ की कोई पकड़ इस समस्या को सुलझाने में सहयोग दे सके। साधारण रूप से प्रजनन की विधा चार वर्गों में विभक्त है- जरायुज, अण्डज, उद्भिज्ज और स्वेदज अथवा ऊष्मज। अन्तिम वर्ग अति सूक्ष्म, अदृश्य कृमि-कीटों से लगाकर दृश्य क्षुद्र जन्तुओं तक का है। इस वर्ग के प्राणी का देह नियत ऊष्मा पाकर अपने कारणों से उदभूत हो जाता है। उद्भिज्ज वर्ग वनस्पति का है। चालू सर्ग काल में देखा जाता है कि बीज से वृक्ष होता है, पर सबसे पहले वृक्ष का बीज कैसे हुआ, यह विचारणीय है। निश्चित है कि वह बीज वृक्ष पर नहीं लगा, तब यही अनुमान किया जा सकता है कि उसकी रचना प्रकृति गर्भ में होती रही होगी। बीज में प्रजनन शक्ति-अंश एक कोष (खोल) में सुरक्षित रहता है, यह स्पष्ट है। वृक्ष पर बीज के निर्माण की प्रक्रिया भी नियन्ता की व्यवस्था के अनुसार प्रकृति का एक चमत्कार है। वंश बीज-निर्माण की प्रक्रिया क्या है, प्रजनन-अंश किस प्रकार कोष में सुरक्षित हो जाते हैं, जड़ से बीज तक कैसे उसका निर्माण होता आता है, इसे आज तक किसने जाना है? इसी प्रकार अण्डज वर्ग में बीज एक अति सुरक्षित कोष में आहित रहता है, इस वर्ग में कीड़ी तथा उससेा भी अन्य कतिपय सूक्ष्म जन्तुओं से लेकर अनेक सरीसृप जाति के प्राणी स्थलचर तथा जलचर एवं नभचर पक्षी जाति का समावेश है। विभिन्न जातियों के देहों के अनुसार कोश की रचना छोटी-बड़ी देखी जाती है। इस वर्ग का भ्रूण एक विशेष प्रकार के खोल से सुरक्षित रहता है, मातृ-गर्भ र्में उपयुक्त पोषण प्राप्त कर गर्भ से बाहर भी नियत काल तक कोश युक्त रहता हुआ पोषण प्राप्त करता है। भ्रूण का यथायथ परिपाक होने पर खोल फटता है और बच्चा निकल आता है, यह प्रकृति का एक चमत्कार है। इस वर्ग में उत्पत्ति काल की दृष्टि से कुछ अधिक बड़े देह वाले प्राणियों का सामावेश है तथा यह एक विचारणीय बात है कि भ्रूण का गर्भ से बाहर भी परिपोषण होता है। अण्डज वर्ग के आगे बड़ी देह वाला प्राणी-वर्ग जरायुज है, जिसमें मानव एवं समस्त पशु-मृग आदि का समावेश है। कोश में भ्रूण के परिपोषण की प्राकृत व्यवस्था इस वर्ग में भी समान है। मातृगर्भ भ्रूण पूर्णाङ्ग होने तक जरायु में परिवेष्टित रहता है। स्निग्ध सुदृढ़ चमड़े जैसे पदार्थ की थैली का नाम जरायु है, पूर्णाङ्ग होने पर बालक इसको भेदकर ही मातृगर्भ से बाहर आता है। इस प्रकार भ्रूण की सुरक्षा, उपयुक्त पुष्टि व वृद्धि तक के लिए उसका विशिष्ट कोश में परिवेष्टित होना सर्वत्र प्राणी-वर्ग में समान है। यह एक ऐसी नियत व्यवस्था है, जो प्राणी के प्रादुर्भाव की आद्य-स्थिति पर पर्याप्त प्रकाश डालती है। चालू सर्ग काल अथवा मैथुनी सृष्टि में नर-मादा का संयोग प्राणी के साजात्य प्रजनन की जिस स्थिति को प्रस्तुत करता है, वह स्थिति अमैथुनी सृष्टि में प्राकृत नियमों वव्यवस्थाओं के अनुसार प्रकृति गर्भ में प्रस्तुत हो जाती है। इस व्यवस्था से और अण्डज वर्ग के सामान मातृगर्भ से बाहर भ्रूण की परिपोषण प्रक्रिया से यह अनुमान होता है कि सर्व-प्रथम आदिकाल में मानव आदि बड़े की रचना प्रकृति पोषित सुरक्षित उपयुक्त कोशों द्वारा हुई होगी। चालू सर्ग काल में देहों के अनुसार कोषों के आकार में विभिन्नता देखी जाती है। यह समभव है, आदि काल में प्रकृति निर्मित उपयुक्त कोशों में सुरक्षित एवं परिपोषित मानव आदि के किशोरावस्थापन्न सजीव देह यथावसर प्रादुर्भूत हुए हों। आदिसर्ग में विविध प्राणियों का अनेक संखया में प्रादुर्भाव हो जाता है, यह मानने में कोई बाधा नहीं है। यह सब जीवों के कर्मानुसार ऐश्वरी व्यवस्था के सहयोग से हुआ करता है।
प्रश्न– सर्व प्रथम मानव का प्रादुर्भा व पृथ्वी के किस प्रदेश पर हुआ?
उत्तर– भारतीय साहित्य के आधार पर अनेक दिशाओं से यह स्पष्ट होता है कि मानव का सर्वप्रथम प्रादुर्भाव ‘त्रिविष्टप’ नामक प्रदेश में हुआ, जो वर्तमान तिबत के कैलाश, मानसरोवर प्रदेश तथा उससे सुदूर पश्चिम और कुछ दक्षिण-पश्चिम की ओर फैला हुआ था। कुछ समय पश्चात गंगा सरस्वती आदि नदी घाटियों के द्वारा आर्यों ने भारत प्रदेश में आकर निवास किया और इसका आर्यावर्त्त नाम रक्खा, सर्वप्रथम यहाँ आर्यों का निवास हुआ। उनसे पहले यहाँ अन्य किसी मानव का निवास नहीं था। आर्यों का मूलस्थान और यह भूभाग एक ही देश था। आर्य कहीं बाहर से यहाँ कभी नहीं आये। इक्ष्वाकु से लेकर कौरव-पाण्डव पर्यन्त पृथ्वी के इन समस्त भागों पर आर्यों का अखण्ड राज्य और वेदों का थोड़ा-थोड़ा सर्वत्र प्रचार रहा। अनन्तर आर्यों का आलस्य, प्रमाद और परस्पर का विरोध समस्त ऐश्वर्य एवं विभूतियों को ले बैठा। पृथिव्यादि लोकों की लगभग एक अरब सत्तानवें करोड़ वर्ष की आयु में अब तक आर्यों का अधिक काल अभयुदय का बीता है। वेद धर्म पर प्रज्ञा पूर्वक आचरण करने से अब भी उत्कृष्ट अभयुदय की सभावना की जा सकती है। इस प्रकार सर्वशक्तिमान् परमेश्वर ने अतिसूक्ष्म प्रकृति रूप उपादान कारण से जगत् को बनाया, जो असंखय पृथिव्यादि लोक-लोकान्तरों के रूप में दृष्टिगोचर हो रहा है। ये समस्त लोक अपनी गति एवं परस्पर के आकर्षण से ऐश्वरी व्यवस्था के अनुसार अनन्त आकाश में अवस्थित हैं। जैसे परमेश्वर इन सबका उत्पादक है, वैसे ही इनका धारक एवं संहारक भी रहता है। हमारी इस पृथ्वी के समान अन्य लोक-लोकान्तरों में भी प्राणी का होना संभव है। जीवात्माओं के कर्मानुष्ठान और सुख-दुःखादि फलों को भोगने तथा आत्म-ज्ञान होने पर अपवर्ग की प्राप्ति जगद्रचना का प्रयोजन है। असंखय लोकान्तरों की रचना का निष्प्रयोजन होना असभव है, अतःलोकान्तरों में भी प्राणी का होना समभव है। वेद का ज्ञान सबके लिए समान है। समस्त विश्व पर परमेश्वर का नियन्त्रण रहता है। उसी व्यवस्था के अनुसार सब तत्त्व अपना कार्य किया करते हैं।

1. क्या प्रारंभ में एक ही वेद था जो बाद में चार भागों में बाँट दिया गया ?
वास्तव में मानव सृष्टि के बाद प्रारंभ से ही चार वेद थे, परन्तु कुछ पुराण जैसे वायु, विष्णु, मत्स्य एवं अग्नि पुराण में ऐसा वर्णन है कि प्रारंभ में एक ही वेद था, द्वारपर के अंत में कृषाद्वैपायन व्यास ने उसे चार भागों में बाँट दिया । ऐसा कहने मात्र जका अंतर हैं, क्योंकि आदि ईश्वरीय ज्ञान तो एक ही है, भाले ही चार वेदों में हो और उसी वेदज्ञान को अन्य ऋषियों की भांति द्वापर के अंत में कृष्णाद्वैपायन व्यास ने उसे समझाया हो । परन्तु, व्यास जी वेदों के रचयिता नहीं है, क्योंकि वेद तो व्यास जी से पहले से है । चारों वेदों के नाम से प्रारंभ से ही चार वेद है ।
2. प्रारंभ से ही चारों वेदों के क्या प्रमाण है ?
समस्त आर्यधर्मग्रंथों जैसे ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद, महाभारत, मनुस्मृति,यहाँ तक कि वेद से भी चार वेदों के प्रमाण मिलते है । अथर्ववेद में चारों वेदों के नाम के प्रमाण –

ऋग्, साम, यजु, मही (सकम्भसूत्र १५) 2. ऋग्, साम, यजु:, अथर्व (सकम्भसूत्र २०) 3. ऋग्, साम, यजु:, छंदासी (ओदन-सूत्र) 4. ऋग्, साम, यजु, उद्गीथ (उच्छिष्टस ५), 5. ऋग्, साम, यजु:, छंदासि (उच्छिष्टस २४)

चत्वारि शृङ्गास्त्रयो अस्य पादा: । (ऋ० ४/५८/३, यजु: १७/९१)
यस्मिन् वेद निहिता विश्वरूपा: । (ऋ०)
ब्रह्म प्रजापतिधीता लोक वेदा: सप्त ऋषयोअग्नय: ।
तस्माघज्ञात् सर्वहुत ऋच: सामानि जज्ञिरे ।
छन्दासि जज्ञिरे तस्माघजुस्तस्मादजायत । (अथर्व० १९/६/१३)
स्तोमश्च यजुश्चऋक् च सं च बृहच्च रथन्तरन्च स्वर्देवा अगन्म । (यजु:० १८/२९)
तत्रापरा ऋग्वेदो यजुर्वेद: सामवेदोअथर्ववेद । (मुण्डक० १०/७/१४)
विज्ञानेन वा ऋग्वेदं विजानाति यजुर्वेदं सामवेदमथर्वण चतुर्थम् । (छां० ७/७/१)
चत्वारो वै इमे वेद ऋग्वेद दो यजुर्वेद: सामवेदो ब्रह्मवेद इति । (गोपथ० २/१६)
वेदीश्चतुर्भि: सुप्रीता । (महाभा० द्रोण० ५१/२२)
यज्ञा वेदाश्च चत्वार: । (महाभा० वन० २१५/२२)
उपर्युक्त प्रमाणों के अलावा यज्ञ में चार ऋत्विककों की आवश्यकता होती है । इनमें ऋग्वेद का ज्ञाता होता, यजुर्वेद का उद्गाता, सामवेद का अध्वर्यु और अथर्ववेद का ज्ञाता ब्रह्मा कहलाता है । अत: चारों वेदों में से एक-एक वेद का विशेषज्ञ विद्वान् यज्ञ की सम्पूर्णता के लिए आवश्यक होता है ।इस प्रकार निश्चित रूप से वेद चार ही हैं, न कम न ज्यादा ।
3. कुछ कहते है कि वेद तो तीन ही है। क्या अथर्ववेद बाद में जोड़ा गया है ?
ऐसा कहना पूर्णतया गलत है, क्योंकि पिछले प्रमाणों में चरों वेदों का नाम एकसाथ आया है, उनमें अथर्ववेद भी शामिल है ।
                           मगर तीन वेदों की भांति वेदों की ‘त्रयी विद्या’ का ठीक अर्थ न समझने के कारण है । चारों वेद त्रयी विद्या से ओत-प्रेत है। कभी-कभी चारों वेदों को त्रयी विद्या से संबोधित किया जाता है, क्योंकि वेदों में तीन प्रकार की विद्याएँ है जैसाकि महाभारत के निम्न श्लोक से स्पष्ट है कि-
त्रयी विद्यामवेक्षेत् वेदषुक्तामथांगत: ।
ऋक्सामवणक्षिरतो यजुषोअथर्वणस्तथा ।।
(महाभा० शा० २३५)
चारों वेदों में तीन प्रकार की विद्याएँ है, जैसे ज्ञान, कर्म और उपासना । दूसरे, यास्काचार्य ने वेदों के आधिभौतिक, आधिदैविक एवं आध्यात्मिक भावों में तीन प्रकार से भाष्य किया । तीसरे, वेदों के मंत्रो की रचना तीन प्रकार की शैली में है, यानी गद्यात्मक, पद्यात्मक एवं गानात्मक । किन्तु इन तीन प्रकार की विद्याओं का वेदों के नामो से सम्बन्ध नहीं है । इसके अलावा, अथर्ववेद को विभिन्न नामों जैसे ब्रह्म, छन्दों वेद. छन्दासि, उद्गीथ, मही आदि नामों से भी व्यक्त किया गया है । इसके अलावा सद्गुरुशिष्य सर्वानुक्रमणी की भूमिका में लिखते है कि “हालांकि वेद चार हैं, परन्तु वे तीन प्रकार से विभाजित किए गए हैं, यानी गद्य, पद्य एवं गीत ।” इसका अर्थ यह नहीं कि वेद तीन ही है । विस्तार के लिए स्वामी विद्यानंद सरस्वती का ‘चत्वारो वै वेदा:’ देखिये ।
4. क्या यह ठीक है कि चारों वेदों की उत्पत्ति ब्रह्मा के चारों मुखों से हुई है ?
यह एक भ्रामक प्रचार है। न ब्रह्मा के चार मुख है और न उनसे चारों वेदों की उत्पत्ति हुई है। यह एक आलंकारिक भाषा में लिखा गया पौराणिक प्रचारमात्र है। इसका सही अर्थ यही है कि वेदों की उत्पत्ति स्वयं ब्रह्मा यानी परमेश्वर से हुई है।
                            अथर्ववेद में आया है ‘ब्रह्म ब्रह्मं ददातु’ (अथर्व०) पुन: यत्र ब्रह्म पवमान छन्दस्यां वाचं वदतु (अथर्व०) यानी ब्रह्म-परमेश्वर विभिन्न छन्दों में समस्त ज्ञान को देता है ।
                            यह पहले स्पष्ट किया जा चूका है कि वेद परमेश्वर से ही प्रकट हुए, किसी अन्य देवी-देवता आदि से उत्पन्न नहीं हुए । मनुस्मृति में स्पष्ट है कि “अग्निर्वायु-रविभ्यस्तु त्रयं ब्रह्म सनातनम् । दुदोह यज्ञसिद्दयर्थ ऋग्यजु:सामलक्षणम्” यानी ऋग्, साम, अथर्ववेद वाला तीन प्रकार का वेद ब्रह्म ऋषि, अग्नि, वायु और आदित्य से पढ़ा । अत: ब्रह्मा नामक किसी देवता ने वेद नहीं बनाएं, क्योंकि चारों वेद एक ही ब्रह्म से उत्पन्न है । अत: आलंकारिक भाषा में ब्रह्म के चारों मुखों की कल्पना कर चारों वेदों का स्त्रोत ‘चार मुख’ बता दिया ।
5. यदि वेद मानव सृष्टि के आदि से है तो क्या वैदिक संस्कृत भाषा भी तभी से है ?
नि:सन्देह वैदिक संस्कृत भाषा विश्व की समस्त भाषाओँ से प्राचीन है, एवं वर्तमान सभी भाषाओँ की जननी है । ऐसा सभी भाषाविद मानते है ।
6. विश्व की अन्य धर्म-पुस्तकों की तरह क्या मनुष्य वेदों की रचना नहीं कर सकता था ?
मनुष्य वेदों की रचना नहीं कर सकता, क्योंकि मनुष्य का ज्ञान सीमित, तात्कालिक, एकदेशीय एवं परिस्थितियों से प्रभावित होने के कारण सार्वदेशिक व सर्वव्यापी नहीं हो सकता । मनुष्य का ज्ञान संशयात्मक एवं विरोधाभासयुक्त हो सकता है । कोई भी मनुष्य समस्त प्रकार की विद्याओं में पारंगत नहीं हो सकता जिसका विश्वव्यापी प्रयोग किया जा सके ।
7. क्या वेदज्ञान के अलावा मनुष्य ज्ञान का विकास नहीं कर सकता ?
मनुष्य प्रारंभ में दिए ज्ञान का विकास कर सकता है, परन्तु मूल ज्ञान का निर्माण नहीं कर सकता क्योंकि, ज्ञान दो प्रकार का होता है- एक नैमित्तिक जिसे केवल ईश्वर ही दे सकता है, दूसरा स्वाभाविक जिसे मनुष्य अपने चिन्तन, मनन एवं अभ्यास से विकसित करता है । वेदों को ईश्वरीय ज्ञान न माननेवालों ने भी यही निष्कर्ष निकाला है कि मूल ज्ञान का स्त्रोत परमेश्वर ही है । वह ज्ञान वेदों में ही है, अन्य कहीं नहीं । पिछली शताब्दियों में मनुष्य ने अनेकानेक प्रयोग करके अनेकों वैज्ञानिक तथ्यों एवं तकनीकों का विकास किया है, मगर उनका मूल गणित, भौतिक आदि स्त्रोत के रूप में वेदों में ही है उसका अधिकतम विकास करना अभी भी शेष है, जिसकी श्री अरविन्द ने बहुत पहले कहा था ।
8. वेदों का आविर्भाव कितने वर्ष पहले हुआ है ?
वेदों का आर्विभाव मानव-सृष्टि के प्रारंभ में ही हुआ था और वेदी काल-गणना के अनुसार इसे 1,96,08,53,118 वर्ष हो गए है । वैज्ञानिक गणना के अनुसार भी, मानव-सृष्टि-रचना को करीब दो अरब वर्ष हो गए है । ये वैज्ञानिक तथ्य स्वामी दयानन्द द्वारा वेदों की काल रचना एवं सृष्टि संवत् के अनुकूल है ।

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