प्रथमोऽनुवाकः॥
सूक्त १
०३।००१।०१
अग्निर्नः शत्रून् प्रत्येतु विद्वान् पतिदहन्नभिशस्तिमरातिम्।
स सेनां मोहयतु परेषां निर्हस्तांश्च कृणवज्जातवैदाः॥ १॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (अग्निः) अग्नि [के समान तेजस्वी] (विद्वान्) विद्वान् राजा (अभिशस्तिम्) मिथ्या अपवाद और (अरातिम्) शत्रुता को (प्रतिदहन्) सर्वथा भस्म करता हुआ, (नः) हमारे (शत्रून्) शत्रुओं पर (प्रति, एतु) चढ़ाई करे। (सः) वह (जातवेदाः) प्रजाओं का जाननेवाला वा बहुत धनवाला राजा (परेषाम्) शत्रुओं की (सेनाम्) सेना को (मोहयतु) व्याकुल कर देवे, (च) और [उन वैरियों को] (निर्हस्तान्) निहत्या (कृणवत्) कर डाले ॥१॥
भावार्थः जो मनुष्य प्रजा में अपकीर्ति और अशान्ति फैलावे, विद्वान् अर्थात् नीतिनिपुण राजा ऐसे दुष्टों और उनके साथियों को यथावत् दण्ड देवे, जिससे वे लोग निर्बल होकर उपद्रव न मचा सकें ॥१॥ यह मन्त्र कुछ भेद से सूक्त २ मन्त्र १ में है ॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थः (विद्वान्) युद्धविद्या का जाननेवाला, (अभिशस्तिम्) संमुख होकर हिंसा करनेवाले, (अरातिम्) दानभावना से रहित, अतः शत्रुरूप को, (प्रतिदहन्) उसके प्रत्येक सैनिक को दग्ध करता हुआ (न:) हमारा (अग्निः) अग्रणी सेनाध्यक्ष, (शत्रून्) शत्रुओं के (प्रत्येक) प्रति जाय। (सः) बह (जातवेदाः) युद्ध विद्या को जाननेवाला (परेषाम् सेनाम्) शत्रुओं की सेना को (मोहयतु) मुग्ध कर दे, कर्तव्याकर्तव्य के ज्ञान से रहित कर दे, (च) और (निर्हस्तान्) निहत्थे (कृणवत्) कर दे।
टिप्पणी: [विद्वान् तथा जातवेदाः पदों द्वारा अग्नि चेतन प्रतीत है, वह है हमारा सेनाध्यक्ष। निहत्थे का अभिप्राय है आयुधों से रहित कर देना, हस्तव्यापार से रहित कर देना।]
०३।००१।०२
यूयमुग्रा मरुत ईदृशे स्थाभि प्रेत मृणत सहध्वम्।
अमीमृणत् वसंवो नाथिता इमे अग्निर्ह्येषां दूतः प्रत्येतु विद्वान् ॥२॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (मरुतः) हे शत्रुघातक शूरों ! (यूयम्) तुम (ईदृशे) ऐसे [कर्म, संग्राम] में (उग्राः) तीव्रस्वभाव (स्थ) हो। (अभि, प्र, इत) आगे बढ़ो, (मृणत) मारो और (सहध्वम्) जीत लो। (इमे) इन (नाथिताः) प्रार्थना किये हुए (वसवः) श्रेष्ठ पुरुषों [मरुत् गणों] ने [दुष्टों को] (अमीमृणन्) मरवा डाला है। (एषाम्) इन शत्रुओं का (दूतः) दाहकारी (अग्निः) अग्नि [समान] (विद्वान्) विद्वान् राजा (हि) अवश्य करके (प्रत्येतु) चढ़ाई करे ॥२॥
भावार्थः जो शूरवीर संग्रामविजयी हों, जो बैरियों के नाश करने में सहायक रहे हों, उन वीरों को अग्रगामी करें और उनका उत्साह बढ़ाते रहें और राजा विजयी सेनापतियों की पुष्टि करता हुआ शत्रुओं पर चढ़ाई करे ॥२॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थः (उग्राः) हे उग्र तथा (मरुतः) मारने में कुशल संनिको ! (यूयम) तुम (ईदृश) इस प्रकार के युद्ध कर्म में (स्थित) स्थित होओ, (अभिप्रेत) शत्रुओं अभिमुख प्रयाण करो, (मृणत) उन्हें मारो, (सहध्वम्) उनका पराभव करो। (नाथिताः) अपने-अपने स्वामियों सहित (इमे) इन (वसवः) वसुओं [रुद्र और आदित्यों] ने (अमीमृणन्) शत्रुओं को मार दिया है। (एषाम्) इन शत्रुओं का (विद्वान्) दूतकर्म जाननेवाला (अग्नि:) अग्रणी अर्थात् मुखिया (दूतः) दूत (प्रत्येतु) हमारे प्रति आए।
टिप्पणी: [मरुतः = शत्रुओं को मारने में कुशल (यजु० १७।४०) सैनिक। राष्ट्र पर शत्रुसेना ने यदि आक्रमण किया है तो राष्ट्र के वसु आदि कोटि के विद्वान् भी, निज-निज अध्यक्षों सहित, युद्ध करते हैं। परिणाम यह होता है कि शत्रुपक्ष का दूत, समझौते के लिये, विजयी राष्ट्राधिपति की सेवा में उपस्थित होता है। अग्निः अग्रणीर्भवति (निरुक्त ७।४।१४) अग्निः= सेनाग्निरत्र विवक्षितः (सायण)।]
०३।००१।०३
अमित्रसेनां मघवन्नस्मान् छत्रूयतीमभि।
युवं तानिन्द्र वृत्रहन्नग्निश्च दहतं प्रति।।३॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (मघवन्) हे धनवान्, (वृत्रहन्) अन्धकार वा शत्रुओं के नाश करनेवाले, (इन्द्र) सूर्य [समान तेजस्वी] (च) और (अग्निः) हे अग्नि [समान शत्रुदाहक] ! (युवम्) तुम दोनों (अस्मान्) हमपर (शत्रूयतीम्) शत्रुओं के समान आचरण करती हुई (अमित्रसेनाम्) बैरियों की सेना को (अभि=अभिभूय) हराकर (तान्) चोरों वा म्लेच्छों की (प्रति, दहतम्) जला डालो ॥३॥
भावार्थः जैसे सूर्य अन्धकार का नाश करके और अग्नि अशुद्धतादि दुर्गुणों को जलाकर हटाते और अनेक प्रकार से उपयोगी होते हैं, ऐसे ही धनी और प्रतापी राजा कुमार्गियों को हटाकर उपकारी होवें ॥३॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थः (मघवन्) हे धनिक [इन्द्र !] (अस्मान्) हमारे साथ
(शत्रूयतीम्) शत्रुता का आचरण करनेवाली, (अमित्रसेनाम्, अभि) शत्रु की सेना
के अभिमुख [न जा] । (वृत्रहन्) हे वृक्रों अर्थात् हमारे राष्ट्र पर आवरण
डालनेवाले, उसे घेरनेवाले का (इन्द्र) हनन करनेवाले सम्राट् ! (च) और
(अग्निः) अग्रणी प्रधानमंत्री (युवम्) तुम दोनों (ताम्) उस सेना को,
(प्रति) प्रतिकूल होकर, (दहतम्) दग्ध करो, भस्मीभूत करो। [इन्द्र=
इन्द्रश्च सम्राट् (यजु० ८।३७)।
०३।००१।०४
प्रसूत इन्द्र प्रवता हरिभ्यां प्र ते वज्रः प्रमृणन्नेतु शत्रून्।
जहि प्रतीचो अनूचः पराचो विष्वक् सत्यं कृणुहि चित्तमेषाम् ॥४॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (इन्द्र) हे परम ऐश्वर्यवाले0 राजन् ! (प्रवता) उत्तम गति वा मार्ग से (हरिभ्याम्) स्वीकरण और प्रापण [ग्रहण और दान] के साथ (ते) तेरा (प्रसूतः) चलाया हुआ (वज्रः) वज्र अर्थात् दण्ड (शत्रून्) शत्रुओं को (प्रमृणन्) पीड़ा देता हुआ (प्र, एतु) आगे चले। (प्रतीचः) सन्मुख आते हुए, (अनूचः) पीछे से आते हुए और (पराचः) तिरस्कार करके चलते हुए [शत्रुओं] को (जहि) नाश कर दे और (एषाम्) इन [शत्रुओं] के (चित्तम्) चित्त को (विऽवक्) सब प्रकार (सत्यम्) सत्पुरुषों का हितकारी (कृणु) बना दे ॥४॥
भावार्थः नीतिज्ञ राजा-प्रजा और शत्रुओं से कर लेकर उनके हितकार्य में लगावे, जिससे सब बाहिरी-भीतरी शत्रु लोग नष्ट होकर दबे रहें और श्रेष्ठों का पालन किया करें ॥४॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थः (इन्द्र) हे सम्राट् ! (प्रसूतः) प्रेरित हुआ तू (हरिभ्याम्) दो अश्वों से युक्त (प्रवता) प्रकृष्ट गतिवाले रथ द्वारा [प्रयाण कर], (ते) तेरा (वज्रः) वध (शत्रून् प्रमृणन्) शत्रुओं को मारता हुआ (प्र एतु) प्रगति करे। (जहि) विनष्ट कर (प्रतिचः) हमारे प्रति गमन करनेवालों को, (अनुचः) हमारा पीछा करनेवालों को, (पराचः) युद्धस्थल छोड़कर परे भाग जाने वालों को। (एषाम्) इन शत्रुओं के (विष्वक्) नानामुखी (चित्तम्) चित्त को (सत्यम्) सत्यमार्गी (कृणुहि) तू कर दे।
टिप्पणी: [प्रसूतः= प्रेरित हुआ। प्र+ षू प्रेरण (तुदादि); प्रजा द्वारा या सैन्य द्वारा युद्धार्थ प्रेरित हुआ सम्राट्। सत्यम्="युद्ध न करना" यह चित्त का सत्यमार्गी होना है। विषु + अक्=विष्बक्; युद्ध करें या न करें, यह चित्तवृत्ति नानामुखी है।]
०३।००१।०५
इन्द्र सेनां मोहयामित्राणाम्।
अग्नेर्वातस्य ध्राज्या तान् विषूचो वि नाशय ॥५॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (इन्द्र) हे बड़े ऐश्वर्यवाले राजन् (अमित्राणाम्) शत्रुओं की (सेनाम्) सेना को (मोहय) व्याकुल कर दे। (अग्नेः) अग्नि के और (वातस्य) पवन के (ध्राज्या) झोंके से (विषूचः) सब ओर फिरनेवाले (तान्) चोरों को (वि, नाशय) नाश कर डाल ॥५॥
भावार्थः राजा अपनी सेना के बल से शत्रुसेना को जीते और जैसे दावानल वन को भस्म करता और प्रचण्ड वायु वृक्षादि को गिरा देता है, वैसे ही विघ्नकारी बैरियों को मिटाता रहे ॥५॥ इस मन्त्र का दूसरा आधा अ० ३।२।३। में आया है ॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थः (इन्द्र) हे सम्राट् ! (अमित्राणाम् सेनाम्) शत्रुओं की सेना को (मोहय) कर्त्तव्याकर्तव्य के ज्ञान से रहित कर। (विषूचः) सर्वत: पलायमान (तान्) उन सैनिकों को (अग्नि: वातस्य) अग्नि के तथा वायु के (ध्राज्या) वेग द्वारा (वि नाशय) विनष्ट कर।
टिप्पणी: [मोहय=देखो अथर्व० सूक्त २। मन्त्र १-४; तथा ५,६ अग्नेः = आग्नेय अस्त्र, तथा वातस्य=वायवीय अस्त्र।]
०३।००१।०६
इन्द्रः॒ सेनां॑ मोहयतु म॒रुतो॑ घ्न॒न्त्वोज॑सा ।
चक्षूं॑स्य॒ग्निरा द॑त्तां॒ पुन॑रेतु॒ परा॑जिता॥६॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (इन्द्रः) प्रतापी सूर्य (सेनाम्) [शत्रु] सेना को (मोहयतु) व्याकुल कर दे। (मरुतः) दोषनाशक पवन के झोंके (ओजसा) बल से (घ्नन्तु) नाश कर दें। (अग्निः) अग्नि (चक्षूंषि) नेत्रों को (आ, दत्ताम्) निकाल देवे। [जिससे] (पराजिता) हारी हुई सेना (पुनः) पीछे (एतु) चली जावे ॥६॥
भावार्थः युद्धकुशल सेनापति राजा अपनी सेना का व्यूह ऐसा करे जिससे उसकी सेनासूर्य, वायु और अग्नि वा बिजुली और जल के प्रयोगवाले अस्त्र, शस्त्र, विमान, रथ, नौकादि के बल से शत्रुसेना को नेत्रादि से अङ्ग-भङ्ग करके सर्वदा हराकर भगा दे ॥६॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थः (इन्द्रः) सम्राट् (सेनाम्) शत्रुसेना को (मोहयतु) कर्त्तव्याकर्तव्य के ज्ञान से रहित करे, (मरुत:) मारने में कुशल हमारे सैनिक (ओजसा) बल द्वारा (घ्नन्तु) सेना का हवन करें। (अग्नि:) अग्नि (चक्षुंषि) शत्रुओं की दृष्टियों का (आ धत्तम्) अपहरण करे, (पुनः) तत्पश्चात् (पराजिता) पराजित हुई अवशिष्ट-शिवसेना (एतु) हमारी शरण में आ जाए।
टिप्पणी: [मरुतः=सैनिका: (यजु०१७।४०)। अग्निः=सौराग्नि, सौर रश्मियां। सौर रश्मियों को यन्त्रित करके सैनिकों की चक्षुओं में डालने से चक्षु चुन्धिया जाती हैं और कुछ काल तक सैनिक देख नहीं सकते और इन्द्र के वश में होकर शरणागत हो जाते हैं। मोहयतु=मुह वैचित्ये (दिवादिः) वैचित्यम्=चिति अर्थात् चेतना से राहित्य।]
➤ see also: वेदों में परमेश्वर का स्वरूप
सूक्त २
०३।००२।०१
अग्निर्नो दूतः पुत्येतु विद्वान् पति दहन्नभिशस्तिमरातिम्।
स चित्तानि मोहयतु परेषां निर्हस्तांश्च कृणवज्जातवैंदाः ॥१॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (अग्निः) अग्नि [के समान तेजस्वी] (दूतः) अग्रगामी वा तापकारी (विद्वान्) विद्वान् राजा (नः) हमारेलिये (अभिशस्तिम्) मिथ्या अपवाद और (अरातिम्) शत्रुता को (प्रतिवहन्) सर्वथा भस्म करता हुआ (प्रत्येतु) चढ़ाई करे। (सः) वह (जातवेदाः) प्रजाओं का जाननेवाला [सेनापति] (परेषाम्) शत्रुओं के (चित्तानि) चित्तों को (मोहयतु) व्याकुल कर देवे (च) और [उनको] (निर्हस्तान्) निहत्था (कृणवत्) कर डाले ॥१॥
भावार्थः राजा सेनादि से ऐसा प्रबन्ध रक्खे कि प्रजा गण आपस में मिथ्या कलङ्क न लगावें और न वैर करें और दुराचारियों को दण्ड देता रहे कि वे शक्तिहीन होकर सदा दबे रहें, जिससे श्रेष्ठों को सुख मिले और राज्य बढ़ता रहे ॥१॥ यह मन्त्र इसी काण्ड के सूक्त १ मन्त्र १ में कुछ भेद से है ॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थः (नः) हमारा (विद्वान्) युद्धविद्याविज्ञ (दूतः) शत्रुओं का उपतापक (अग्निः) अग्रणी प्रधानमंत्री (प्रत्येतु) शत्रुओं के प्रतिमुख आए, (अभी शस्तिम्) अभिमुख होकर हिंसा करनेवाले, (अरातिम्) दानभावनारहित अतः शत्रु को (प्रतिदहन्) प्रतिकूल रूप में युद्ध करता हुआ। (सः) वह (परेषाम्) शत्रुओं के (चित्तानि) चित्तों को (मोहयतु) कर्त्तव्याकर्तव्य के ज्ञान से रहित करे, (च) और (जातवेदा:) नवजात परिस्थितियों का वेत्ता अग्रणी (निर्हस्तान् कृणवत्) उन्हें निहत्त्थे कर दे। [निर्हस्तान् (अथर्व ०१।१)]
अयमग्निरमूमुहद् यानि चित्तानि वो हृदि।
वि वो धमन्वोकसः प्र वो धमतु सर्वतः ॥२॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (अयम्) इस (अग्निः) अग्नि [समान तेजस्वी राजा] ने (चित्तानि) उन ज्ञानों को (अमूमुहत्) उलट-पलटकर दिया है (यानि) जो (वः) तुम्हारे (हृदि) हृदय में [थे]। वह (वः) तुमको (ओकसः) घर से (वि, धमतु) निकाल देवे, वह (वः) तुमको (सर्वतः) सब स्थान से (प्र घमतु) बाहिर कर देवे ॥२॥
भावार्थः जिस सेनापति राजा ने दुष्टों को वश में करके रक्खा था, वह राजा विरोधियों को प्रतिज्ञा भङ्ग करने पर देशनिकाला आदि दण्ड देवे ॥२॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थः (अयम्) इस (अग्निः) अग्रणी प्रधानमंत्री ने (व: अमूमुहत्) तुम्हें मुग्ध कर दिया है, कर्तव्याकर्तव्य के ज्ञान से रहित कर दिया है, (व:) तुम्हारे (हृदि) हृदय में (यानि) जो (चित्तानि) संकल्प हैं [उनसे रहित कर दिया है।] (वः) तुम्हें (ओकसः) गृहों से (वि धमतु) अग्रणी निकाल दे, (वः) तुग्हें (सर्वसः) सब स्थानों से (प्र धमतु) प्रकर्षतया निकाल दे।
टिप्पणी: [धमतु=धमा शब्दाग्निसंयोगयोः (भ्वादिः), ''शब्द' अर्थ अभिप्रेत है, अर्थात् निज आज्ञा द्वारा।]
इन्द्रं चित्तानिं मोहयंन्नर्वाङाकूत्या चर।
अग्नेर्वातस्य ध्राज्या तान् विषूचो वि नाशय ॥ ३॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (इन्द्र) हे महाप्रतापी राजन् ! [शत्रुओं के] (चित्तानि) चित्त को (मोहयन्) व्याकुल करता हुआ (अर्वाङ्) हमारे सन्मुख (आकूत्या) उत्तम संकल्प से (चर) आ। (अग्नेः) अग्नि के और (वातस्य) पवन के (ध्राज्या) झोंके से (तान्) उन (विषूचः) विरुद्ध गतिवालों को (वि, नाशय) नाश कर डाल ॥३॥
भावार्थः जैसे अग्नि और वायु मिलकर प्रचण्ड हो जाते हैं, इसी प्रकार राजा प्रचण्ड होकर दुष्टों को दण्ड देवे और सत्कर्मी पुरुषों का शिष्टाचार करे ॥३॥ इस मन्त्र का दूसरा आधा अ० ३।१।५। में आ चुका है ॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थः (इन्द्र) हे सम्राट्! (चित्तानि) शत्रुओं के चित्तों को (मोहयन्) मुग्ध करता हुआ, कर्तव्याकर्तव्य के ज्ञान से रहित करता हुआ तू, (आकूत्या) सफल हुए निज संकल्प के साथ, (अर्वाङ्) इधर हमारी ओर (चर) विचर [साम्राज्य में विचर], “अग्नेर्वातस्य आदि पूर्ववत् (अथर्व० १।५)
टिप्पणी: [मंत्र २ और ३ द्वारा प्रतीत है कि शत्रु के मोहन का अधिकार, प्रधानमन्त्री तथा सम्राट् दोनों को है।]
व्या कूतय एषामिताथो चित्तानि मुह्यत।
अथो यदद्यैषां हृदि तदेषां परि निर्जहि ॥४॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः हे (एषाम्) इन [शत्रुओं] के (आकूतयः) विचारो ! (वि) उलट-पलट होकर (इत) चले जाओ, (अथो) और हे (चित्तानि) इनके चित्तो ! (मुह्यत) व्याकुल हो जाओ। (अथो) और [हे राजन्] (यत्) जो कुछ [मनोरथ] (अद्य) अब (एषाम्) इनके (हृदि) हृदय में है, (एषाम्) इनके (तत्) उस [मनोरथ] को (परि) सर्वथा (निर्जहि) नाश कर दे ॥४॥
भावार्थः नीतिकुशल राजा दुराचारियों में परस्पर मतभेद करा दे और उनका मनोरथ सिद्ध न होने दे ॥४॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थः (व्याकूतयः) हे परस्पर विरुद्ध संकल्पों! (एषाम्) इन शत्रुओं के (चित्तानि) चित्तों को (इत) तुम प्राप्त होओ, (अथो) तथा (चित्तानि) हे शत्रुओं के चित्तों ! (मुह्यत) तुम मोहग्रस्त हो जाओ, कर्तव्याकर्तव्य के ज्ञान से रहित हो जाओ। (अथो) तथा (अद्य) आज (यद्) जो (एषाम् हृदि) इन शत्रुओं के हृदय में है, (एषाम्) इन शत्रुओं के (तत्) उस संकल्प को (परि निर्जहि) सर्वथा नष्ट कर दे।
टिप्पणी: [मन्त्र में इन्द्र के प्रति कहा है "निर्जहि"।]
अमीषां चित्तानि प्रतिमोहयन्ती गृहाणाङ्गान्यवे परेहि।
अभि प्रेहि निर्दह हृत्सु शोकैर्ग्राह्यामित्रांस्तमंसा विध्य शत्रुत् ॥५॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (अष्वे) हे शत्रुओं को मार डालने वा हटा देनेवाली सेना (अमीषाम्) उन [शत्रुओं] के (चित्तानि) चित्तों और (अङ्गानि) शरीर के अवयवों और सेनाविभागों को (प्रतिमोहयन्ती) व्याकुल करती हुई (गृहाण) पकड़ ले और (परा, इहि) पराक्रम से चल। (अभि) चारों ओर से (प्र, इहि) धावा कर (हृत्सु) उनके हृदयों में (शोकैः) शोकों से (निर्दह) जलन कर दे और (ग्राह्या) ग्रहणशक्ति [बन्धनादि] से और (तमसा) अन्धकार से (अमित्रान्) पीड़ा देनेवाले (शत्रून्) शत्रुओं को (विध्य) छेद डाल ॥५॥
भावार्थः सेनापति इस प्रकार व्यूह रचना करे कि उसकी उत्साहित सेना धावा करके अश्ववार अश्ववारों को, रथी रथियों को, पदाति पदातियों को व्याकुल कर दें, अर्थात् आग्नेय अस्त्रों से धूँआ धड़क और वारुणेय अस्त्रों से बन्धन में करके जीत लें ॥५॥
इस मन्त्र का ऋग्वेद १०।१०३।१२। यजुर्वेद १७।४४। सामवेद उ० ९।३।५ तथा निरुक्त ९।३३ में इस प्रकार समान पाठ है ॥
अ॒मीषां॑ चि॒त्तं प्र॑तिलो॒भय॑न्ती गृहा॒णाङ्गा॑न्यष्वे॒ परें॑हि।
अ॒भि प्रेहि॒ निर्द॑ह हृ॒त्सु शोकै॑र॒न्धेनामित्रा॒स्तम॑सा सचन्ताम् ॥
(अप्वे) हे शत्रुओं को मार डालने वा हटा देनेवाली सेना ! (अमीषाम्) उनके (चित्तम्) चित्त को (प्रतिलोभयन्ती) व्याकुल करती हुई (अङ्गानि) अङ्गों को (गृहाण) पकड़ ले और (परा, इहि) पराक्रम से चल। (अभि) चारों ओर से (प्र, इहि) आगे बढ़ (हृत्सु) उनके हृदयों में (शोकैः) शोकों से (निर्दह) जलन कर दे। (अन्धेन) गाढ़े [दृष्टि रोकनेवाले] (तमसा) अन्धकार से (अमित्राः) पीड़ा देनेवाले लोग (सचन्ताम्) संयुक्त हो जावें ॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थः (अमीषाम्) इन शत्रुओं के (चित्तानि) चित्तों को (प्रति मोहयन्ती) कर्तव्याकर्तव्य के ज्ञान से रहित करती हुई (अप्वे) हे अप्वा-इषु! (अङ्गानि) इनके अङ्गों को (गृहाण) जकड़ दे, (परेहि) और हम से पराङ्मुखी हुई शत्रु की ओर जा। (अभिप्रेहि) साक्षात् शत्रु की ओर प्रयाण कर और (हृत्सु शोकैः) हृदयस्थ शोकाग्नियों द्वारा (निर्दह) इन्हें दग्ध कर, (ग्राह्या) अङ्गों के जकड़नरूपी इषु द्वारा, तथा (तमसा) अन्धकार द्वारा (शत्रुन्) शत्रुओं को (विध्य) बींध।
टिप्पणी: [मंत्र में अप्वा द्वारा इषु का वर्णन हुआ है। अप्वा का अर्थ है अपगत हुई, जो शत्रु की ओर गमन करती है, अप + वा (गतौ, अदादिः)। इसके तीन काम हैं। (१) शत्रुसेना के अङ्गों को जकड़ देना, (२) शत्रुसेना में तमसा अर्थात् अन्धकार को फैला देना। (३) शत्रु सेना के चित्तों को कर्तव्याकर्तव्य ज्ञान से रहित कर देना। यह इषु भयस्वरूपा है, भयप्रदा है, भयानक है। इसे निरुक्त में "भय" शब्द द्वारा द्योतित किया है। यथा "व्याधिर्वा भयं वा" (६।३।१२; पदसंख्या ४८) अप्वा के चलाने की आज्ञा देता है इन्द्र अर्थात सम्राट्, परन्तु इसे फेंकते हैं "मरुतः" अर्थात् सैनिक (मन्त्र ६)। अप्वा को missile कह सकते हैं।]
असौ या सेना मरुतः परेषामस्मानैत्यभ्योजसा स्पर्धमाना।
तां विध्यत तमसापव्रतेन यथैषामन्यो अन्यं न जानात् ।।६।।
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (मरुतः) हे शूर पुरुषों (परेषाम्) बैरियों की (असौ) वह (या) जो (सेना) सेना (अस्मान्) हम पर (अभि) चारों ओर से (ओजसा) बल के साथ (स्पर्धमाना) ललकारती हुई (आ-एति) चढ़ी आती है। (ताम्) उसको (अपव्रतेन) क्रियाहीन कर देनेवाले (तमसा) अन्धकार से (विध्यत) छेद डालो, (यथा) जिससे (एषाम्) इनमें से (अन्यः) कोई (अन्यम्) किसी को (न) न (जानात्) जाने ॥६॥
भावार्थः सेनापति अपनी पलटनों को घातस्यानों में इस प्रकार खड़ा करे कि आती हुई शत्रुसेना को रोककर सब नष्ट कर देवें ॥६॥
(मरुतः) शब्द के लिये अ० १।२०।१। देखो ॥
यह मन्त्र यजुर्वेद में इस प्रकार है−
अ॒सौ या सेना॑ मरु॒तः परे॑षाम॒भ्यैति॑ न॒ ओज॑सा॒ स्पर्ध॑माना।
तां गू॑हत तम॒साप॑व्रतेन॒ यथा॒मी ऽग्र॒न्योऽअ॒न्यन्न जा॒नन् ॥
यजु०। १७।४७ ॥
(मरुतः) हे शूरों ! (परेषाम्) वैरियों की (असौ या सेना) वह जो सेना (नः) हमको (अभि) चारों ओर से (ओजसा स्पर्धमाना) बल के साथ ललकारती हुई (आ, एति) चली आती है। (ताम्) उसको (अपव्रतेन तमसा) क्रियाहीन कर देनेवाले अन्धकार से (गूहत) ढ़क दो, (यथा) जिससे (अमी) वे लोग (अन्यः, अन्यम्) एक दूसरे को (न जानन्) न जानें ॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थः (मरुतः)१ मारने में कुशल है सैनिकों ! (परेषाम्) शत्रुओं की (या) जो (असौ) बह (सेना) सेना (ओजसा) बलातिशय के कारण (स्पर्धमाना) स्पर्धा करती हुई (अस्मान् अभि) हमारे अभिमुख (इति) आती है (ताम्) उसे (अपव्रतेन) कर्महीन कर देनेवाले (तमसा) अन्धकारास्त्र द्वारा (विध्यत) बींधो, (यथा) जिस प्रकार कि (एषाम्) इन शत्रुओं के मध्य में (अन्यः) एक सैनिक (अन्यम्) दूसरे निज सैनिक को (न जानात्) न पहचान सकें।
टिप्पणी: [मरुतः = मारने में कुशल हमारे सैनिक (यजु० १७।४०)। व्रतम् कर्मनाम (निघं० २।१)।]
[१. म्रियते मारयति वा स मरुत्, मनुष्यजातिः (उणा १।९४ दयानन्द)।]
सूक्त ३
०३।००३।०१
अचिक्रदत् स्वपा इह भुवदग्ने व्य चस्व रोदसी उरूची।
युञ्जन्तु त्वा मुरुतों विश्ववेदस आमुं नय नमसा रातइंव्यम्।। १।।
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (अचिक्रदत्) उस [परमेश्वर] ने पुकारकर कहा है, “(इह) यहाँ पर (स्वपाः) अपनेजनों का पालनेवाला अथवा उत्तम कर्मोंवाला प्राणी (भुवत्) होवे।” (अग्ने) हे अग्नि [समान तेजस्वी राजन् !] (उरूची) बहुत पदार्थों को प्राप्त करानेवाले (रोदसी) सूर्य और पृथिवी में (वि) विविध प्रकार से (अचस्व) गति कर। (विश्ववेदसः) सब प्रकार के ज्ञान वा ध्यानवाले (मरुतः) शूर और विद्वान् पुरुष (त्वा) तुझसे (युञ्जन्तु) मिलें। [हे राजन्] (रातहव्यम्) भेंट वा भक्ति का दान करनेवाले (अमुम्) उस [प्रजागण] को (नमसा) अन्न वा सत्कार के साथ (आ, नय) अपने समीप आ ॥१॥
भावार्थः परमेश्वर ने यजुर्वेद में भी कहा है−
कु॒र्वन्ने॒वेह कर्माणि जिजीवि॒षेच्छ॒त समाः॑ ॥ यजु० ४०।२ ॥
मनुष्य (इह) यहाँ पर (कर्माणि कुर्वन् एव) कर्मों को करता हुआ ही (शतंसमाः) सौ वर्षो तक (जिजीविषेत्) जीना चाहे ॥
इस प्रकार राजा परमेश्वर की आज्ञापालन और स्वप्रजापालन में कुशल होकर सूर्यविद्या और पृथिवी आदि विद्या में निपुण बनकर विज्ञानी होवे, शूरवीर विद्वान् लोग उससे मिलें और राजा उन भक्त प्रजागणों का सत्कार करे ॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थः (अग्नि) हे अग्रणी प्रधानमंत्री ! (अचिक्रदत्त) [इन्द्र] ने बार-बार तुझे पुकारा है, (स्वपा:) ताकि उत्तमकर्मी वह इन्द्र (इह) इस अपने राष्ट्र में (भुवत्) पुनः सूचित हो जाय, एतदर्थ (उरूची) व्यापनशील, (रोदसी) द्युलोक और पृथिवी में (व्यचस्व) विविध प्रकार की गतियाँ कर [इन्द्र के अन्वेषण के लिए]। (विश्ववेदसः) विश्व के नेता प्रज्ञाशील (मरुतः) मनुष्य (त्वा) तुझे (युञ्जन्तु) इस कार्य में नियुक्त करें, (रात-हव्यम) सव प्रजा को अदनीय-अन्न देनेवाले ! (अमुम्) उस इन्द्र को (नमसा) नमस्कार के साथ नमस्कारपूर्वक (आ नय) इस साम्राज्य में वापिस ले आ।
टिप्पणी: [प्रजाजनों ने किसी कारण निज इंद्र अर्थात् सम्राट् को साम्राज्य से पदच्युत कर दिया है। वह रुष्ट होकर कहीं चला गया है। प्रज्ञानी पुरुष, अग्रणी अर्थात् प्रधानमन्त्री को इन्द्र को वापिस लाने के लिए नियुक्त करते हैं। अचिक्रदत्=क्रदि आह्वाने (भ्वादिः), चङ् आगम, लुङ् लकार। उरूची=उर्वञ्चने व्यापनशीले (सायण) उरु=अच् (अञ्चु, अच्, अचि, गतौ भ्वादिः)।]
दूरे चित् सन्तमरूषास इन्द्रमा च्यावयन्तु सख्याय विप्रम्।
यद् गायत्रीं बृहतीमर्कमस्मै सौत्रामण्या दधृषन्त देवा: ॥२॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (अरुषासः=०−षाः) गतिशील [उद्यमी] पुरुष (दूरे) दुर्गम वा दूर देश में (चित्) भी (सन्तम्) विद्यमान (विप्रम्) बुद्धिमान् (इन्द्रम्) बड़े प्रतापी राजा को (सख्याय) अपना सखा बनाने केलिये (आ, च्यावयन्तु) ले आवें। (यत्) क्योंकि (देवाः) व्यवहारकुशल महात्माओं ने (गायत्रीम्) गान क्रिया, (बृहतीम्) स्तुति क्रिया और (अर्कम्) अन्न वा सत्कार क्रिया को (अस्मै) इस [इन्द्र] के लिये (सौत्रामण्या) सुत्रामा [उत्तमरक्षक] के योग्य भक्ति के साथ (दधृषन्त) एकत्र किया है ॥२॥
भावार्थः उद्योगी प्रजागण प्रजापालक नीतिकुशल राजा को दूर देश से भी अपनी सहायता के लिये बुलावें और अनेक प्रकार से उनका उत्साह और अपना आनन्द बढ़ाने के लिये उसका योग्य अभिनन्दन करें और गायत्री, बृहती आदि छन्दों से भी उसका यश गावें ॥२॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थः (अरुषासः) न-रुष्ट प्रजाएं, (दुरे चित् सन्तम्) दूर में भी विद्यमान (विप्रम्) मेधावी (इन्द्रम्) सम्राट को, (सख्याय) पुनः मैत्री के लिए, (आ च्यावयन्तु) रोषभावना से पूर्णतया च्युत करें, विमुक्त करें। (यद्) यतः (देवा:) साम्राज्य के दिव्य अधिकारियों ने, (अस्मै) इस सम्राट के लिए, (सौत्रामण्या) सौत्रामणी क्रिया द्वारा, (बृहतीम्, गायत्रीम्) महती गायत्री रूप (अर्कम्) स्तुति साधना को, (दधृषन्त१) निर्धारित किया है; निश्चित किया है।
टिप्पणी: [सौत्रामण्या=सुत्रामा है इन्द्र अर्थात् सम्राट्, सौत्रामणी क्रिया है सम्राट् को प्रसन्न करने की क्रिया अर्थात विधि। वह है अर्चना का साधनभूत "महती गायत्री"। गायत्री का अभिप्राय है गुणगान, प्रकरणानुसार सम्राट् का गुणगान, उनकी प्रशंसा करना। इस विधि द्वारा सम्राट प्रसन्न होकर साम्राज्य में वापस आ जाता है। अर्कम्=अर्कः मन्त्रो भवति, यदनेनार्चन्ति (निरुक्त ५।१।४; पद संख्या २४)। प्रकरणानुसार मंत्र है गायत्री। गायत्री मन्त्र में सद्बुद्धि के लिए प्रार्थना है, सद्बुद्धि से प्रेरित हुआ सम्राट् प्रजा की प्रार्थना को स्वीकार कर लेता है। विप्रः मेधाविनाम (निघं० ३।१५)।]
[१. अघारयन् (सायण); अथवा धृ (यङलुक्)+सिप्+अट्। या धृष, धृषा[यङलुकि] प्रसहने प्रागल्भ्ये (चुरादिः, स्वादिः)।]
अ्रद्भ्यस्त्वा राजा वरुणो ह्वयतु सोमस्त्वा ह्वयतु पर्वतेभ्यः।
इन्द्रस्त्वा ह्वयतु विड्भ्य आभ्यः श्येनो भूत्वा विशु आ पतेमाः॥३ ॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः [हे राजराजेश्वर !] (वरुणः) अति श्रेष्ठ (राजा) शासनकर्त्ता पुरुष (त्वा) तुझको (अद्भ्यः) प्राणों के लिये (ह्वयतु) बुलावे, (सोमः) औषधों का रस निकालनेवाला [वैद्यराज] (त्वा) तुझको (पर्वतेभ्यः) [शरीर की] पुष्टियों के लिये (ह्वयतु) बुलावे। (इन्द्रः) बड़ा प्रतापी सेनापति वा निधिपति (त्वा) तुझको (आभ्यः विड्भ्यः) इन प्रजाओं के लिये (ह्वयतु) बुलावे [हे महाराजाधिराज !] (श्यैनः) शीघ्र गतिवाला [वा वाज पक्षी के समान शीघ्र गतिवाला] (भूत्वा) होकर (इमाः) इन (विशः) प्रजाओं में (आ, वत) उड़कर आ ॥३॥
भावार्थः राजा वरुण, सोम, इन्द्रादि पदवीवाले बड़े-२ अधिकारी अपने अधिकार की उन्नति के लिये राजाज्ञा का पालन करें और प्रधान राजा अपनी प्रजा के हित का उद्योग सदा करता रहे ॥३॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थः [हे सम्राट् !] (वरुणः राजा) वरुण राजा (त्वा) तुझे (अद्म्यः) सामुद्रिक जलों से (ह्वयतु) आह्वान करे, (सोमः) सोम (त्वा) तुझे (पर्वतेभ्यः) पर्वतों से (ह्वयतु) आह्वान करे। (इन्द्रः) सम्राट (त्वा) तुझे (आभ्यः विड्भ्यः) इन प्रजाओं से (ह्वयतु) आह्वान करे, (श्येनो१ भूत्वा) वाजपक्षी होकर तू (इमा: विशः) इन प्रजाओं में (पत आ) उड़कर आ जा।
टिप्पणी: [वरुण है राष्ट्राधिपति राजा, यथा "इन्द्रश्च सम्राड् वरुणश्च राजा" (यजु:० ८।३७)। वरुण राजा अधिपति है जलों का। वह सामुद्रिक जलों का अधिपति है, यथा "वरुणोऽपामधिपति:" (अथर्व० ५।४)। सोम है सेनाध्यक्षः, सेना-प्रेरक [षू प्रेरणे, तुदादिः), यह पर्वतीय युद्धों का भी अध्यक्ष है। इन्द्र है सम्राट्, जोकि सामयिक सम्राट है, जब तक कि पदच्युत सम्राट् बापस नहीं आ जाता। सोमः=सेनाध्यक्ष (यजु० १७।४९)।]
[१. वायुयान द्वारा। सम्भवतः उड़कर (श्येनः भूत्वा)। अश्वारोही तथा श्येनो भुत्वा दो विकल्प हैं 'आपत' में।]
श्येनो हव्यं नयत्वा परस्मादन्यक्षेत्रे अपरुद्धं चरन्तम्।
अश्विना पन्थां कृणुतां सुगं त इमं संजाता अभि संविशध्वम् ॥४॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (श्येनः) शीघ्रगतिवाले आप (अन्यक्षेत्रे) परदेश में (अपरुद्धम्) रोक दिये गये (चरन्तम्) उत्तम आचरण करते हुए (हव्यम्) बुलाने योग्य पुरुष को (परस्मात्) दूर देश से (आ नयतु) समीप लावें। (अश्विना=०−नौ) सूर्य और चन्द्रमा (ते) तेरे (पन्थाम्=पन्थानम्) मार्ग को (सुगम्) सुगम (कृणुताम) करें। (सजाताः) हे सजातीय लोगो ! (इमम्) इस [वीर पुरुष] से (अभि−सं−विशध्वम्) चारों ओर से मिलो ॥४
भावार्थः यदि कोई सत्पुरुष प्रजागण परदेश में रोक दिया गया हो, राजा उसे प्रयत्नपूर्वक बुला लेवे। और सूर्य-चन्द्रमा के समान नियम से प्रजापालन करे जिससे सब प्रजागण उससे मिले रहें ॥४॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थः [हे पदच्युत सम्राट् !] (श्येन:) बाजपक्षी के सदृश उड़नेवाला सामयिक सम्राट्, (हव्यम्) आह्वातव्य (त्वा) तुझे, (परस्मात्) परराष्ट्र से (आ नयतु) ले आए, जो तू कि (अन्यक्षेत्रे२) परराष्ट्र में (अपरुद्धम) स्वेच्छापूर्वक रुका हुआ है, और (चरन्तम्) स्वेच्छया परराष्ट्र में विचर रहा है। (अश्विना) अश्वों तथा अश्वरथों के अध्यक्ष अर्थात् अश्वारोही तथा अश्वरथारोही द्विविध अध्यक्ष (ते पन्थाम्) तेरे वापस आने के मार्ग को (सुगम्) सुगम (कुरुताम्) कर दें। (सजाताः) समान जातिवाले है प्रजाजनो ! (इमम् अभि) इस आनेवाले सम्राट् के अभिमुख (संविशध्वम्) तुम परस्पर मिलकर बैठो, [सामाजिक तथा साम्राज्य के कार्यों के लिए] "सजाता:" द्वारा यह दर्शाया है कि तुम और आगन्तुक सम्राट् एक ही जाति के हों, अतः भेदभाव त्याग दो। हव्यम्=ह्वातव्यम् (सायण)।]
टिप्पणी: [२. क्षेत्रसम्भवना कृषि के लिये, उसके जीवनार्थ परराष्ट्र में दिया गया खेत।]
ह्वयन्तु त्वा प्रतिजना: प्रति मित्रा अवृषत।
इन्द्राग्नी विश्वे देवास्ते विशि क्षेममदीधरन्॥५॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (प्रतिजनाः) प्रतिकूलजन (त्वा) तुझे (ह्वयन्तु) बुलावें। (मित्राः) स्नेही पुरुषों ने (प्रति) प्रत्यक्ष (अवृषत) सेवा की है। (इन्द्राग्नी) वायु और अग्नि [के समायन गुणवाले] (ते) उन (विश्वे देवाः) सब तेजस्वी पुरुषों ने (विशि) प्रजा में (क्षेमम्) कुशल (अदीधरन्) स्थापित की है ॥५॥
भावार्थः जिस राजा को प्रजागण चुनते हैं, बैरी लोग उस राजा के आधीन रहते हैं। और विद्वान् शूरवीर पुरुष प्रजा में उन्नति करते हैं ॥५॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थः [है सम्राट्] (प्रतिजना:) साम्राज्य के सब जन अर्थात् प्रत्येक जन (त्वा) तेरा (ह्वयन्तु) आह्वान करें, (प्रति) प्रतिकूल हुए (मित्रः) मित्र [राजाओं] ने तेरा (अवृषत) वरण कर लिया है, तुझे स्वीकृत कर लिया है। (इन्द्राग्नी) सामयिक सम्राट् और अग्रणी प्रधानमंत्री ने (विश्वदेवाः) तथा साम्राज्य के सब दिव्य व्यक्तियों ने (विशि) प्रजाजनों में (ते) तेरे लिए (क्षेमम्) सुरक्षा के निश्चय की (अदीधरन्) धारण कर ली है।
टिप्पणी: [पदपाठ में "प्रतिजनाः" समस्त पद है, और "प्रति, मित्रा;" असमस्त हैं। यह दर्शाने के लिए कि साम्राज्य का प्रति व्यक्ति तो तुझे चाहता ही है, परन्तु साम्राज्य के मित्र-राजा जो तेरा विरोध करते थे, परन्तु उन्होंने भी तेरा वरण कर लिया है, तथा साम्राज्य के सामयिक इन्द्र और अग्नि ने, तथा सब देवों ने तेरी सुरक्षा की धारणा अपनाली है। अवृषत=अट्+ वृञ् (वरणे, क्र्यादि:)। छान्दस लुङ्। ये मित्र राजा साम्राज्य के राष्ट्रों के अधिपति हैं, जिन्हें कि "वरुण" कहा है, यथा “इन्द्रश्च सम्राट वरुणश्च राजा” (यजु० ८।१७)।]
यस्ते हवं विवदत सजातो यश्च निष्ट्यः।
अपाञ्चमिन्द्र तं कृत्वाथेममिहाव गमय ॥६॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (अथ) और (इन्द्र) हे महाप्रतापी राजन् ! (यः) जो (सजातः) सजातीय (च) और (यः) जो (निष्ट्यः) विजातीय पुरुष (ते) तेरे (हवम्) विज्ञापन में (विवदत्) विवाद करे, (तम्) उसको (अपाञ्चम्) बहिष्कृत [देश बाहिर] (कृत्वा) करके (इमम्) इस [विज्ञापन] को (इह) यहाँ पर (अव, गमय) जता दे ॥६॥
भावार्थः राजा अपने और पराये का विचार छोड़ पक्षपात रहित होकर शान्तिनाशक विवादी पुरुष को देश बाहिर कर दे और यह विज्ञापन राज्यभर में प्रसिद्ध कर दे, जिससे फिर कोई धर्मविरुद्ध चेष्टा न करे ॥६॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थः (यः) जो कोई (सजातः) समान जाति का, (च) और (निष्ट्यः) पर जाति का अर्थात् विदेशी, (ते) तेरे (हवम्) आह्वान को (विवदत्) विवादग्रस्त करता है। (इन्द्र) हे सामयिक सम्राट् ! (तम्) उसे (अपाञ्चम्, कृत्वा) साम्राज्य से अपगत कर, निकालकर (अथ) तदनन्तर (इमम्) इस निश्चित सम्राट् को (इह) इस साम्राज्य में, (अब गमय) सम्राट् रूप में अवगत कर, विज्ञापित कर।
टिप्पणी: [सूक्त का वर्णन गाथारूप है। ऐसी परिस्थिति के उपस्थित हो जाने पर किस साधन का अवलंबन करना चाहिए, केवल इसका सुझाव ही सूक्त में दिया है। वेदों में गाथारूप में प्रायः वर्णन होता है— एतदर्थ देखो (अथर्व० १५।१५।११, १२) का अथर्ववेद-भाष्य। गाथारूप में वर्णन प्ररोचनार्थ होता है, रुचि बढ़ाने के लिए होता है। (अपाञ्चम् कृत्वा=अपगतं बहिष्कृतं कृत्वा (सायण)।]
सूक्त ४
०३।००४।०१
आ त्वा॑ गन्रा॒ष्त्रं स॒ह वर्च॒सोदि॑हि॒ प्राङ्वि॒शां पति॑रेक॒राट्त्वं वि रा॑ज ।
सर्वा॑स्त्वा राजन्प्र॒दिशो॑ ह्वयन्तूप॒सद्यो॑ नम॒स्यो॑ भवे॒ह ॥ १॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (राजन्) हे राजन् ! (राष्ट्रम्) यह राज्य (त्वा) तुझको (आ, गन्=अगमत्) प्राप्त हुआ है। (वर्चसा सह) तेज के साथ (उत्+इहि=उदिहि) उदय हो। (प्राङ्) अच्छे प्रकार पूजा हुआ, (विशाम्) प्रजाओं का (पतिः) रक्षक, (एकराट्) एक महाराजाधिराज (त्वम्) तू (वि, राज) विराजमान हो। (सर्वाः) सब (प्रदिशः) पूर्वादि दिशायें (त्वा) तुझको (ह्वयन्तु) पुकारें। (उपसद्यः) सबका सेवनीय और (नमस्यः) नमस्कार योग्य (इह) यहाँ पर [अपने राज्य में] (भव) तू हो ॥१॥
भावार्थः राजा सिंहासन पर विराजकर महाप्रतापी और प्रजापालक हो, सब दिशाओं में उसकी दुहाई फिरे और सब प्राजगण उसकी न्यायव्यवस्था पर चलकर उसका सदा आदर और अभिनन्दन करते रहें ॥१॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थः [हे सम्राट !] (त्वा) तुझे (राष्ट्रम्) राष्ट्र (आ गन्) पुनः आ गया है, प्राप्त हो गया है। (वर्चसा सह) निज तेज के साथ (उदिहि) सूर्य के सदृश तू उदित हो, (प्राङ्) प्रगति करता हुआ (विशाम् पतिः) प्रजाओं का पति (त्वम्) तु (एकराट्) मुख्य या अकेला राजा होकर (विराज) विराजमान हो, दीप्यमान हो। (राजन्) हे राजन ! (सर्वा दिशः) सब विशाओं में स्थित प्रजाएँ (त्वा ह्वयन्तु) तेरा आह्वान करें। (इह) इस साम्राज्य में (उपसद्यः) सब द्वारा समीप बैठने योग्य और (नमस्यः) नमस्कार योग्य (भव) तू हो।
टिप्पणी: [सूक्त ३ के अनुसार वापस आ गये सम्राट का वर्णन सुक्त ४ में है। एतदर्थ देखो मन्त्र ५, ६, ७। मन्त्र में "उदिहि" पद द्वारा उदय होना कहकर सम्राट् को सूर्य से उपमित किया है। प्राङ् के दो अर्थ हैं-पूर्व दिशा तथा प्रगति करनेवाला। प्राङ=प्र+अञ्चु गतौ। सूर्योदय पूर्व दिशा में ही होता है और पश्चिम की ओर गति करता है। उपसद्य:= उप+षद् (बैठना); अथवा उप + षद् (गतौ) उपगमन करना, समीप जाना, तद्योग्य। षद्लृ विशरणगत्यवसादनेषु (भ्वादिः, तुदादिः)।]
त्वां विशो॑ वृणतां रा॒ज्या॑य॒ त्वामि॒माः प्र॒दिशः॒ पञ्च॑ दे॒वीः।
वर्ष्म॑न्रा॒ष्ट्रस्य॑ क॒कुदि॑ श्रयस्व॒ ततो॑ न उ॒ग्रो वि भ॑जा॒ वसू॑नि ॥२॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः [हे राजन् !] (त्वाम्) तुझको (राज्याय) राज्य के लिये (विशः) प्रजायें और (त्वाम्) तुझको ही (इमाः) यह सब (पञ्च) विस्तीर्ण वा पाँच (देवीः=०−व्यः) दिव्य गुणवाली (प्रदिशः) महा दिशायें (वृणताम्) स्वीकार करें। (राष्ट्रस्य) राज्य के (वर्ष्मन्=०−णि) ऐश्वर्ययुक्त वा ऊँचे (ककुदि) शिखर पर (श्रयस्व) आश्रय ले। (ततः) फिर (उग्रः) तेजस्वी तू (नः) हमारे लिये (वसूनि) धनों का (वि, भज) विभाग कर ॥२॥
भावार्थः राजा को सब प्रजागण चुनें। और सब मनुष्यादि प्रजा और चारों पूर्वादि दिशाओं और पाँचवी ऊपर नीचे की दिशा के पदार्थ [जैसे आकाश मार्ग और भूगर्भादि के पदार्थ] सब राजा के आधीन रहें और यह बड़ा ऐश्वर्यवान् होकर राजभक्त सुपात्रों को विद्या और सुवर्णादि धनों का दान करता रहे ॥२॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थः [हे सम्राट् !] (त्वाम) तेरा (विशः) प्रजाएं (वृणताम्) वरण करें (राज्याय) राज्य के लिए (इमाः) ये (प्रदिशः) विस्तृत दिशाएँ, जोकि (पञ्च) पाँच हैं, और (देवीः) दिव्य प्रजाओं बाली हैं (त्वाम्) तेरा वरण करें। (वर्ष्मन्) श्रेष्ठ (राष्ट्रस्य ककुदि) राष्ट्र के उन्नत स्थान में या सिंहासन में (श्रयस्व) तूं आश्रय पा, (तत:) उस उन्नत स्थान या सिंहासन से (उग्र) उग्र हुआ तु (न:) हम प्रजाओं में (वसूनि, वि भज) सम्पत्तियों का विभाग कर। पञ्च=पचि विस्तारे (चुरादिः) यथा पंचास्यः= सिंह:। या ऊर्ध्वादिशा तथा शेष चार दिशाएँ।
टिप्पणी: [राष्ट्र में सम्पत्तियों का यथोचित विभाग करना चाहिए, जिससे सबका पालन-पोषण हो सके। ककूद=बैल के कन्धों में उच्च अङ्ग, तथा पर्वतशिखर।]
अछ॑ त्वा यन्तु ह॒विनः॑ सजा॒ता अ॒ग्निर्दू॒तो अ॑जि॒रः सं च॑रातै ।
जा॒याः पु॒त्राः सु॒मन॑सो भवन्तु ब॒हुं ब॒लिं प्रति॑ पश्यासा उ॒ग्रः॥३॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (हविनः) पुकार करनेवाले (सजाताः) सजातीय लोग (त्वा) तुझको (अच्छ) सन्मुख आकर (यन्तु) मिलें। (अग्निः) आग के समान (दूतः) तापकारी और (अजिरः) वेगवान् [आप] (सम्) यथायोग्य (चरातै) आचरण करें। (जायाः) हमारी धर्मपत्नियाँ और (पुत्राः) कुलशोधक वा बहुरक्षक सन्तान (सुमनसः) प्रसन्नमन (भवन्तु) रहें। (उग्रः) तेजस्वी तू (बहुं बलिम्) बहुत भेंट को (प्रति) सन्मुख (पश्यासै) देखे ॥३॥
भावार्थः सब भाई-बन्धु और प्रजागण राजा से मिले रहें और प्रसन्न होके (बलि) राजग्राह्य भागकर आदि देवें और वह राजा भी उनकी रक्षा में सर्वथा तत्पर रहे ॥३॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थः हे सम्राट् ! (त्वाम्) तुझे (सजाताः) समान जाति के अर्थात् एक वर्गीय राजा लोग (हविनः१) देय भेदों या राज्य करवाले हुए (अच्छ यन्तु) आभिमुख्येन प्राप्त प्राप्त हों। (अजिर:) तुझ द्वारा प्रेरित (अग्नि:) ज्ञानाग्निवाला (दूतः) दूत (संचरातै) स्व साम्राज्य तथा परराष्ट्र में संचार करे। (जायाः पुत्राः) साम्राज्य की पत्नियाँ और पुत्र (सुमनस:) सु प्रसन्न हों। (उग्रः) शासन में उग्र हुआ तू (बहुम्) बहुत (बलिम्) भेदों या राज्य करों को (प्रतिपश्यासै) देख।
टिप्पणी: [१. हविन. हु दाने (अदादिः) + इनिः (मत्वर्थे)।]
अ॒श्विना॒ त्वाग्रे॑ मि॒त्रावरु॑णो॒भा विश्वे दे॒वा म॒रुत॒स्त्वा ह्व॑यन्तु ।
अधा॒ मनो॑ वसु॒देया॑य कृणुष्व॒ ततो॑ न उ॒ग्रो वि भ॑जा॒ वसू॑नि ॥४ ॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (अग्रे) अगले वा मुख्य पद पर [विराजमान] (त्वा) तुझको (अश्विना=०−नौ) सूर्य और चन्द्र और (उभा=उभौ) दोनों (मित्रावरुणा=०−णौ) प्राण और अपान वा दिन और रात और (विश्वे देवाः) सब व्यवहारकुशल (मरुतः) शूर पुरुष (त्वा) तुझको (ह्वयन्तु) पुकारें [मार्गदर्शक हों]। (अधा) और तू (मनः) अपने मन को (वसुदेयाय) धन का दान करने के लिये (कृणुष्व) स्थिर कर। (ततः) फिर (उग्रः) तेजस्वी तू (नः) हमारेलिये (वसूनि) धनों का (वि, भज) विभाग कर ॥४॥
भावार्थः जैसे सूर्य और चन्द्र परस्पर आकर्षण से, दिन और रात, प्राण और अपान अपने-२ क्रम से और शूर विद्वान् पुरुष नियम पर चलने से संसार का उपकार करते हैं, इसी प्रकार ऐश्वर्यवान् राजा विचारपूर्वक सुपात्रों को दान देकर प्रजा की उन्नति करें ॥४॥
इस मन्त्र का अन्तिम पाद (ततो न उग्रो....) मन्त्र २ में आ चुका है। ऋ० म० ५ सू० १५ म० १५ का भी मिलान करें ॥
स्व॒स्ति पन्था॒मनु॑चरेम सूर्याचन्द्र॒मसा॑विव ॥
(सूर्याचन्द्रमसौ इव) सूर्य और चन्द्रमा के समान (स्वस्ति) कल्याणयुक्त (पन्थाम्) मार्ग पर (अनुचरेम) हम चलते रहें ॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थः [हे सम्राट्!] (अग्रे) प्रथम (अश्विना) अश्वारोही तथा अश्वरथारोही (त्वा) तेरा (ह्वयन्तु) आह्वान करें, (उभा मित्रावरुणा) दोनों मित्र राजा और वरुण राजा, (विश्वे देवाः) साम्राज्य के सब दिव्य अधिकारी या जन, तथा (मरुतः) सैनिक (त्वा) तेरा (ह्वयन्तु) आह्वान करें। (अधा) तदनन्तर [साम्राज्य में आकर] (वसुदेयाय) संपत्ति-प्रदान के लिये (मनः कृणुष्व) मन को तय्यार कर, (ततः) तदनन्तर (उग्र:) उग्र हुआ (नः) हमें (वसूनि) पत्तियों का (वि भज) यथोचित विभाग कर, बाण्ट।
टिप्पणी: [मित्रावरुणा=मित्र राजा, और वरुण माण्डलिक राजा, यथा "इन्द्रश्च सम्राट वरुणश्च राजा" (यजु० ८।३७)। मरुत:=सैनिक (यजु० १७।४०)।]
आ प्र द्र॑व पर॒मस्याः॑ परा॒वतः॑ शि॒वे ते॒ द्यावा॑पृथि॒वी उ॒भे स्ता॑म् ।
तद॒यं राजा॒ वरु॑ण॒स्तथा॑ह॒ स त्वा॒यम॑ह्व॒त्स उ॑पे॒दमेहि॑ ॥५॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (परमस्याः) अत्यन्त (परावतः) दूर देश से (आ, प्र, द्रव) आकर पधार। (ते) तेरेलिये (उभे) दोनों (द्यावापृथिवी=०−व्यौ) सूर्य और पृथिवी (शिवे) मङ्गलकारी (स्ताम्) होवें। (तथा) वैसा ही (अयम्) यह (राजा) राजा (वरुणः) सबमें श्रेष्ठ परमेश्वर (तत्) वह (आह) कहता है। सो (सः अयम्) इस [वरुण परमेश्वर] ने (त्वा) तुझको (अह्वत्) बुलाया है। (सः=सः त्वम्) सो तू (इदम्) इस [राज्य] को (उप) आदरपूर्वक (आ) आकर (इहि) प्राप्त कर ॥५॥
भावार्थः प्रजागण श्रेष्ठ राजा को दूर देश से भी बुला लेवें और वह अपने बुद्धिबल से ऐसा प्रबन्ध करे कि राज्यभर में दैवी और पार्थिव शान्ति रहें, अर्थात् अनावृष्टि और दुर्भिक्षादि में भी उपद्रव न मचे और आकाश, पृथिवी और समुद्रादि के मार्ग अनुकूल रहें। यही आज्ञा परमेश्वर ने वेदों में दी है, उसको राजा यथावत् माने ॥५॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थः [हे सम्राट् !] (आ प्रद्रव) स्व-साम्राज्य के अभिमुख, तू शीघ्रता से आ, (परमस्याः परावतः) अत्यन्त दूर देश से भी। (उभे द्यावापृथिवी) दोनों द्युलोक और पृथिवी (ते) तेरे लिए (शिवे) मङ्गलकारी (स्ताम्) हों। (तत्) इसे (अयम् राजा वरुणः) इस वरुण राजा ने भी (तथा) उस प्रकार (आह) कहा है, (सः) उस (अयम्) इस वरुण राजा ने (त्वा) तुझे (अह्वत्) बुलाया है, (सः) बह तू (इदम्) इस साम्राज्य में (एहि) आ।
टिप्पणी: [भावी सम्राट् परकीय राष्ट्र में विद्यमान है, परकीय राष्ट्र अति दूर है। वहाँ से आने में उसे कोई कष्ट न हो इसलिए मङ्गल की अभिलाषा प्रकट की है। मन्त्र के उत्तरार्द्ध में वरुण राजा का वर्णन है। वरुण राजा का वर्णन वरुण-सूक्त में हुआ है (अथर्व० ४।१६।१-९)। वरुण राजा परमेश्वर है। इसे "सः" द्वारा दूरस्थ तथा "अयम्" द्वारा समीपस्थ दर्शाता है, "तद् दूरे तद्वन्तिके" (यजु० ४०।५)। इससे यह दर्शाया है कि सर्वव्यापक वरुण-राजा भी भावी सम्राट के आगमन को चाहता है।]
इन्द्रे॑न्द्र मनु॒ष्या॑३ परे॑हि॒ सं ह्यज्ञा॑स्था॒ वरु॑णैः संविदा॒नः।
स त्वा॒यम॑ह्व॒त्स्वे स॒धस्थे॒ स दे॒वान्य॑क्ष॒त्स उ॑ कल्पय॒द्विशः॑॥६ ॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (इन्द्रेन्द्र) हे राजराजेश्वर ! (मनुष्याः=मनुष्यान्) मनुष्यों को (परेहि) समीप से प्राप्त कर, (हि) क्योंकि (वरुणैः) श्रेष्ठ पुरुषों से (संविदानः) मिलाप करता हुआ तू (सम्) यथाविधि (अज्ञास्थाः) जाना गया है। (सः अयम्) सो इस [प्रत्येक मनुष्य] ने (त्वा) तुझको (स्वे सधस्थे) अपने समाज में (अह्वत्) बुलाया है। (सः=सः भवान्) सो आप (देवान्) व्यवहार कुशल पुरुषों का (यक्षत्) सत्कार करें, (सः उ=सः उ भवान्) वही आप (विशः) प्रजाओं को (कल्पयात्) समर्थ करें ॥६॥
भावार्थः प्रजापालक राजा विद्वान् चतुर मनुष्यों से मिलता रहे और सुपात्रों को योग्यतानुसार पदाधिकारी करे ॥६॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थः (इन्द्रेन्द्र१) हे सम्राटों के भी सम्राट् ! (मनुष्याः) मनुष्य ! (परेहि) परेस्थित सिंहासन की ओर आ, (वरुणै:) वरण करनेवाले माण्डलिक बरुण-राजाओं के साथ (संविदान:) ऐकभत्य को प्राप्त तू, (सम्, हि, अशास्थाः) निश्चय से सम्यक् ज्ञानी हुआ है। (सः) उस वरुण-परमेश्वर ने (त्वा अह्वत्) तेरा आह्वान किया है। (स्वे सधस्थे) अपने साथ बैठने के निज सिंहासन पर, (सः) वह वरुण-परमेश्वर (देवान्) साम्राज्य के दिव्य अधिकारियों के (यक्षत्) साम्राज्य-यज्ञ को सफल करे, (सः उ) वह ही (विशः) प्रजाओं को (कल्पयात्) सामर्थ्यसम्पन्न करे।
टिप्पणी: [मनुष्याः में "दूराद्धूते च" (अष्टा० ८।२।८४) के अनुसार प्लुत होकर "विसर्गान्त आकार" हुआ है। सायणाचार्य ने "मनुष्यान्" अर्थ किया है और कहा है कि "शसो नत्वाभावः छान्दसः"। मन्त्र के उत्तरार्ध में यह दर्शाता है कि हे भावी सम्राट् ! सिंहासन पर तो बरुण-परमेश्वर स्थित है, उसने तेरा आह्वान किया है सिंहासन के अर्धासन पर, निज के साथ बैठने के लिए। तू जान कि शासन करते हुए साथ वरुण-परमेश्वर भी बैठा है तेरी शासन-व्यवस्था के निरीक्षण के लिए। अतः तू न्यायपूर्वक और धर्मपूर्वक शासन करना, तब तेरे राज्याधिकारी, तथा प्रजाएं सामर्थ्यसम्पन्न होगा। कल्पयात् =कृपू सामर्थ्ये (भ्वादिः)।]
[१. सम्राटों के भी सम्राट्। भिन्न-भिन्न जातियों के अपने-अपने सम्राट होते हैं। परन्तु भुमण्डल व्यापी संगठन में सम्राटो का भी एक सम्राट् होना आवश्यक है। इसे एकराट् (सूक्त ४।१) तथा जनराट् (अथर्थ ० २०।२१।९) कहते हैं।]
प॒थ्या॑ रे॒वती॑र्बहु॒धा विरू॑पाः॒ सर्वाः॑ सं॒गत्य॒ वरी॑यस्ते अक्रन् ।
तास्त्वा॒ सर्वाः॑ संविदा॒ना ह्व॑यन्तु दश॒मीमु॒ग्रः सु॒मना॑ वशे॒ह ॥७॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (पथ्याः) मार्ग पर चलनेवाली, (रेवतीः=०−त्यः) धनवाली, (बहुधा) प्रायः (विरूपाः) विविध आकार वा स्वभाववाली (सर्वाः) सब [प्रजाओं] ने (संगत्य) मिलकर (ते) तेरेलिये (वरीयः) अधिक विस्तीर्ण वा श्रेष्ठ [पद] (अक्रन्) किया है। (ताः सर्वाः) वे सब [प्रजायें] (संविदानाः) एकमत होकर (त्वा) तुझको (ह्वयन्तु) पुकारें। (उग्रः) तेजस्वी और (सुमनाः) प्रसन्न चित्त तू (इह) इस [राज्य] में (दशमीम्) दसवी [नव्वे वर्ष से ऊपर] अवस्था को (दश) वश में कर ॥७॥
भावार्थः सब प्रजागण मिलकर और सुमार्ग में चलकर राजा को सिंहासन पर बिठलावें और अपना रक्षक बनावें। और वह राजा भी इस प्रकार से न्याय और आनन्द करता हुआ नीरोग पूर्ण आयु भोगे ॥७॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थः (पथ्याः) सत्पथगामिनी, (रेवती:) धनसम्पन्ना, (बहुधा विरूपाः) बहुत प्रकार से विविध रूपोंवाली (सर्वाः) सब प्रजाओं ने (ते) तेरा (वरीयः) वरण अर्थात् चुनाव (अक्रन्) किया है, (ता: सर्वाः संविदानाः) वे सब एकमत हुई (त्वा) तेरा (ह्वयन्तु) आह्वान करें, (उग्र:) उग्र हुआ तु (दशमीम्) दसवीं अवस्था को, (सुमनाः) सुप्रसन्न मनवाला, (इह) इस सिंहासन पर रहकर (वश) सबको वश में कर।
टिप्पणी: [गौरवर्णी, कृष्णवर्णी तथा अन्यवर्णी सब प्रजाओं ने मिलकर, जिसका सम्राटरूप में चुनाव किया है, उसे आयुभर सम्राट रूप में रहने देना चाहिए। दशमी अवस्था है ९० वर्षों से ऊपर की अवस्था ।]
सूक्त ५
०३।००५।०१
आयम॑गन्पर्णम॒णिर्ब॒ली बले॑न प्रमृ॒णन्त्स॒पत्ना॑न् ।
ओजो॑ दे॒वानां॒ पय॒ ओष॑धीनां॒ वर्च॑सा मा जिन्व॒न्त्वप्र॑यावन् ॥ १ ॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (अयम्) यह (बली) बली (पर्णमणिः) पालन करनेवालों में प्रशंसनीय [परमेश्वर] (बलेन) अपने बल से (सपत्नान्) हमारे वैरियों को (प्रमृणन्) विध्वंस करता हुआ (आ अगन्) प्राप्त हुआ है (देवानाम्) इन्द्रियों का (ओजः) बल और (ओषधीनाम्) अन्नादि औषधों का (पयः) रस, (अप्रयावन्=०−वा) भूल न करनेवाला वह (मा) मुझको (वर्चसा) तेज से (जिन्वतु) सन्तुष्ट करे ॥१॥
भावार्थः जैसे अन्तर्यामी परम कारण परमेश्वर अपने सामर्थ्य से हमारे विघ्नों को हटाकर हमें ओजस्वी इन्द्रियाँ और पुष्टिकारक अन्नादि पदार्थ देकर उपकार करता है वैसे ही हम ओजस्वी, पराक्रमी होकर परस्पर उपकार करते रहें ॥१॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थः (अयम्) यह (पर्णमणि:) मणिरूप पर्ण अर्थात पालक (आ अगन्) आया है, (बली) बलवान् वह (बल) बल द्वारा (शत्रुन्) शत्रुओं को (प्रमृणन्) मारता हुआ। (देवानाम् ओजः) यह देवों का ओज रूप है, (ओषधीनां पयः) ओषधियों के सार के सदृश है, (अप्रयावन्१) छोड़कर न जानेवाला (मा) मुझे (वर्चसा) दीप्ति के साथ (जिन्वत्) प्रीणित करे, तृप्त करे।
टिप्पणी: (पर्णमणि =पर्ण है पालन करने वाला मणि अर्थात् रत्नरूप, सेना पति१। पर्ण= पृ पालनपूरणयोः (जुहोत्यादिः)। यह बली है और शत्रुओं को मारता है, अत: क्षत्रिय है। देवानाम् = विजिगीषुणाम् ("दिवु क्रीडाविजिगीषा...") (दिवादिः)। ओषधीनाम् सार:= ओषधियों के रस के सदृश राष्ट्रशरीर का रसरूप है। जिन्वतु=जिवि प्रीणनार्थः (भ्वादिः)।]
[१. अप्रयावन्=अ + प्र+या+ वनिप्= मां विहाय अनपगम्ता।]
मयि॑ क्ष॒त्रं प॑र्णमणे॒ मयि॑ धारयताद्र॒यिम् ।
अ॒हं रा॒ष्ट्रस्या॑भीव॒र्गे नि॒जो भू॑यासमुत्त॒मः ॥२॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (पर्णमणे) हे पालन करनेवालों में प्रशंसनीय ! तू (मयि) मुझमें (क्षत्रम्) बल और (मयि) मुझमें ही (रयिम्) सम्पत्ति (धारयतात्) स्थापित कर। (अहम्) मैं (राष्ट्रस्य) राज्य के (अभीवर्गे) मण्डल में (निजः) आप ही (उत्तमः) उत्तम (भूयासम्) बना रहूँ ॥२॥
भावार्थः मनुष्य सर्वशक्तिमान् परमेश्वर का ध्यान करता हुआ अपने बुद्धिबल और बाहुबल से शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति और सुवर्णादि धन प्राप्त करके संसार भर में कीर्ति बढ़ावे और आनन्द भोगे ॥२॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थः (पर्णमणि) हे पालक रत्न ! (मयि) मुझ सम्राट१ में (क्षत्रम्) क्षात्रबल, (मयि) मुझमें (रयिम्) धनसम्पत् (धारयतात्) स्थापित कर। (अहम्) मैं सम्राट (निजः) जोकि तुम्हारा अपना हूँ, (राष्ट्रस्य अभिवर्गे) राष्ट्र के सब वर्गों में (उत्तमः) सर्वोत्तम हो जाऊँ।
टिप्पणी: [वर्गे=मनुष्य वर्ग, पौरवर्ग, क्षत्रियवर्ग, भौमवर्ग आदि।]
[१. मन्त्र (६,७)। वह सम्राटों का भी सम्राट् है, भूमण्डल का सम्राट्। तथा इन्द्रेन्द्र (अथर्व० ३।४।६)।]
यं नि॑द॒धुर्वन॒स्पतौ॒ गुह्यं॑ दे॒वाः प्रि॒यं म॒णिम् ।
तम॒स्मभ्यं॑ स॒हायु॑षा दे॒वा द॑दतु॒ भर्त॑वे ॥ ३॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (यम्) जिस (गुह्यम्) गुप्त, (प्रियम्) प्रिय वा हितकारी (मणिम्) प्रशंसनीय [परमेश्वर] को (देवाः) व्यवहार जाननेवाले देवताओं ने (वनस्पती) वननीय अर्थात् सेवनीय गुणों के रक्षक [पुरुष] में (निदधुः) अवश्य दान किया है, (तम्) उस [परमेश्वर] को (अस्मभ्यम्) हमें (देवाः) तेजस्वी महात्मा पुरुष (आयुषा सह) बड़ी आयु के साथ (भर्तवे) हमारे पोषण करने के लिये (ददतु) दान करें ॥३॥
भावार्थः सूक्ष्मदर्शी देवताओं ने निश्चय किया है कि वह अन्तर्यामी, सर्वहितकारी परमेश्वर प्रत्येक शुभचिन्तक पुरुष में वर्तमान रहकर साहस बढ़ाता है, उसी परमात्मा का उपदेश विद्वान् महात्मा संसार में करें ॥३॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थः (देवाः) विजिगीषु सैनिकों ने (यम् प्रियं मणिम्) जिस प्रिय रत्न-रूप-सेनापति को (गृह्यम्) गोपनीय रूप में (निदधु:) स्थापित किया है, जैसे कि दिव्य शक्तियों ने (वनस्पतौ) वनस्पति में [रस] की, (तम्) उसे (आयुषा सह) आयु के साथ (देवाः) विजिगीषु-सैनिक (अस्मभ्यम्) हमारे लिये (ददतु) दें, [हमें सौंप दें], (भर्तवे) हमारे भरण-पोषण के लिये।
टिप्पणी: [आयुष सह=जीवित रूप में। सैनिकों को चाहिये कि निज सेनापति को सुरक्षित रखें, उसे गोपनीय रूप में रखें, उसे मरने से बचाय रखें। वनस्पतौ, देखो "ओषधीनां पयः" (मन्त्र १) देवः= दिबु क्रीडा विजिगीषा आदि (दिवादिः), विजिगीषु अर्थ अभिप्रेत है।]
सोम॑स्य प॒र्णः सह॑ उ॒ग्रमाग॒न्निन्द्रे॑ण द॒त्तो वरु॑णेन शि॒ष्टः।
तं प्रि॑यासं ब॒हु रोच॑मानो दीर्घायु॒त्वाय॑ श॒तशा॑रदाय ॥४॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (इन्द्रेण) बड़े ऐश्वर्यवाले और (वरुणेन) स्वीकरणीय श्रेष्ठ, गुरु आदि करके (दत्तः) हमें दिया हुआ और (शिष्टः) सिखाया हुआ (सोमस्य) अमृत का (पर्णः) पूर्ण करनेवाला परमेश्वर, (उग्रम्) पराक्रमवाला (सहः) बल [बलरूप], (आ) सब ओर से (अगन्) मिला है। (बहु) अनेक प्रकार से (रोचमानः) रुचि करता हुआ मैं (तम्) उः [अमृतपूरक परमेश्वर] को (शतशारदाय) सौ शरद् ऋतु युक्त (दीर्घायुत्वाय) बड़े जीवन के लिये (प्रियासम्) प्रसन्न करूँ ॥४॥
भावार्थः जब मनुष्य विद्वानों की शिक्षा पाकर शुद्ध मुक्त स्वभाव परमेश्वर के ज्ञान से आत्मा में बल पाता है, तब वह धर्मात्मा बड़े उत्साह से परमात्मा की आज्ञापालता हुआ बड़े अर्थात् यशस्वी जीवन के साथ आनन्द भोगता है ॥४॥ ‘इन्द्रेण दत्तो वरुणेन शिष्टः’ यह पाद, अ० २।२९।४। में और ‘दीर्घायुत्वाय शतशारदाय’ यह पाद, अ० १।३५।१। में आ चुके हैं ॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थः (इन्द्रेण) परमेश्वर्यवान् परमेश्त्र ने [कृपापूर्वक] (दत्तः) दिया, (वरुणेन) वरुण रूप आचार्य द्वारा (शिष्ट:) शिक्षा तथा अनुशासित, (सोमस्य) सेनाप्रेरक रोनाध्यक्ष का (पर्ण:) पालक, (उग्रम् सहः) उग्रबल रूप सेनापति (आ अगन्) मुझे प्राप्त हुआ है, (तम् प्रियासम्) उसे मैं अपना प्रिय जानूं, (बहु रोचमानः) बहुत प्रदीप्त होता हुआ, (दीर्घायुत्वाय) दीर्घायु के लिये, (शतशारदाय) सो शरद्-ऋतुओं के लिये [सौ वर्षों के लिये।
टिप्पणी: [वरुण है आचार्य। यथा "आचार्यो वरुणो भूत्वा" (अथर्व० ११।५।१५)। प्रियासम्=प्रिय [नामधातु]+सिप्, अट्, आकार का आगम। रोचमानः प्रदीप्त हुआ "सम्राटों का सम्राट" सेनापति की प्राप्ति के कारण प्रदीप्त हुआ, चमकता हुआ। सोमस्य=सोम है सेनाप्रेरक तथा सेनाध्यक्ष, जोकि युद्ध के लिये सेना के मुख्य भाग में आगे-आगे चलता है [षु प्रेरणे तुदादि:], देखो यजु० (१७।४०)। सेनापति द्वारा सुरक्षित "सम्राटों का सम्राट" सौ वर्षों तक जीवित रहने का अभिलाषी है। सोम और सेनापति दोनों का सम्बन्ध सेना के साथ है। सेनापति को "पर्णः" अर्थात् पालक कहा है, यह सोम का भी पालक है। सेनापति "पर्ण", गुरुकुल आश्रम में रहकर आचार्य द्वारा शिक्षित और अनुशासित हुआ है।]
आ मा॑रुक्षत्पर्णम॒णिर्म॒ह्या अ॑रिष्ट॒तात॑ये ।
यथा॒हमु॑त्त॒रो ऽसा॑न्यर्य॒म्ण उ॒त सं॒विदः॑ ॥५॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी
भाषार्थः (पर्णमणिः) पालन करनेवालों में श्रेष्ठ परमेश्वर (मह्यै अरिष्टतातये) बड़ी कुशलता के लिये (मा) मेरे (आ, अरुक्षत्) ऊपर बैठा है। (यथा) जिससे (अहम्) मैं (अर्यम्णः) श्रेष्ठों के मान करनेवाले, (उत) और (संविदः) ज्ञानी पुरुष से (उत्तरः) अधिक श्रेष्ठ (असानि) हो जाऊँ ॥५॥
भावार्थः सर्वोपरि परमेश्वर अन्तर्यामी होकर हमें दुष्कर्मों से बचने की प्रेरणा करता है जिससे हम श्रेष्ठों में अति श्रेष्ठ और ज्ञानियों में अति ज्ञानी होवें ॥५॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थः (मह्यै अरिष्टतातये) महा अहिंसा अर्थात् सुरक्षा के विस्तार के लिये, (पर्णगणिः) पालक-सेनापति रत्न१, (मा) मुझ सम्राटों के सम्राट् पर (आ अरुक्षत्) आरूढ़ हुआ है, (यथा) जिस प्रकार कि (अहम्) मैं (अर्यम्णः) अर्यमा से (उत) तथा (संविद:) सम्यक्-वेत्ता अर्थात् सम्यक-ज्ञानी से भी (उत्तरः) उत्कृष्टतर (असानि) हो जाऊँ।
टिप्पणी: [आ अरुक्षत्= आ+रूह + क्स: ( अष्टा० ३।१।४५), लुङ्लकार। भूमण्डल सम्राट सेनापति को अपने से भी ऊँचा मानता है, व्योंकि उसके कारण ही भूमण्डल की महारक्षा होती है। अर्यमा है न्यायाधीश, जोकि भुमण्डल में न्याय करता है। सम्राट् कहता है कि मैं सेनापत्ति के कारण अर्यमा-और-सम्यक् ज्ञानियों से भी उत्कृष्टतर हो जाऊँ। ]
[१. जातौ जातौ यदुत्कृष्टं तद् रत्मगभिधीयते (आप्टे)।]
ये धीवा॑नो रथका॒राः क॒र्मारा॒ ये म॑नी॒षिणः॑ ।
उ॑प॒स्तीन्प॑र्ण॒ मह्यं॑ त्वं॒ सर्वा॑न्कृण्व॒भितो॒ जना॑न् ॥६॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (ये) जो (धीवानः) तीक्ष्ण बुद्धिवाले (रथकाराः) रथों के बनानेवाले और (ये) जो (मनीषिणः) बड़े पण्डित (कर्माराः) कर्मों में गति रखनेवाले शिल्पीजन हैं। (पर्ण) हे पालन करनेवाले परमेश्वर ! (त्वम्) तू (मह्यम्) मेरेलिये (सर्वान्) उन सब (जनान्) जनों को (अभितः) चारों ओर से (उपस्तीन्) समीपवर्ती (कृणु) कर ॥६॥
भावार्थः सब मनुष्यों और विशेषकर राजा लोगों को चाहिये कि भूमिरथ, आकाशरथ, जलरथ आदि के बनानेवाले और अन्य शिल्पकर्मी, विश्वकर्मा चतुर विद्वानों का सत्कार करते रहें जिससे अनेक व्यापारों से संसार में उन्नति होवे ॥६॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थः (ये) जो (धीवानः) बद्धिमान (रथकारा:) रथों के निर्माता है (ये) जो (मनीषिणः) मननशील (कर्मारा:) लोहे कर्मोवाले हैं। (पर्ण) हे पालक सेनापति ! (त्वम्) तू तथा (सर्वान् जनान्) अन्य सब जनों को (मह्यम्) मुझ भूमण्डल राम्राट् के लिये (अभितः) मेरे अभिमुख (उपस्तीन्) मेरे समीप होनेवाले, या बैठनेवाले (कृणु) कर
टिप्पणी: [कर्मारा:=अयस्कारप्रभृतयः (सायण)। कर्म+आर [ores], खनिज-ores में काम करनेवाले, कच्ची धातु में काम करनेवाले। उपस्तीन्=उप + अस् भुवि या आस उपवेशने (सायण)। भूमण्डल का सम्राट सेनापति से कहता है कि रथकार आदि को मेरे समीप होने या बैठने के लिये प्रोत्साहित कर, प्रेरित कर, उन्हें मेरे समीप आने या आकर बैठने में निषेध न कर।]
ये राजा॑नो राज॒कृतः॑ सू॒ता ग्रा॑म॒ण्य॑श्च॒ ये ।
उ॑प॒स्तीन्प॑र्ण॒ मह्यं॒ त्वं सर्वा॑न्कृण्व॒भितो॒ जना॑न् ॥ ७॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (ये) जो (राजानः) ऐश्वर्यवाले (राजकृतः) राजाओं के बनानेवाले, (च) और (ये) जो (सूताः) सर्वप्रेरक, (ग्रामज्यः) ग्रामों के नेता लोग हैं। (पण) हे पालन करनेवाले परमेश्वर ! (त्वम्) तू (मह्यम्) मेरेलिए (सर्वान्) उन सब (जनान्) जनों को (अभितः) चारों ओर से (उपस्तीन्) समीपवर्ती (कृणु) कर ॥७॥
भावार्थः चक्रवर्ती राजा सबके राजाधिराज परमेश्वर का ध्यान करता हुआ अपने हितकारी माण्डलिक राजाओं और अन्य प्रधान पुरुषों को यथोचित व्यवहार से अपना इष्ट मित्र बनाये रक्खे ॥७॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थः (वे) जो (राजानः) राजा हैं, (राजा कृतः) तथा [निर्वाचन द्वारा] राजाओं को करने वाली प्रजाएं हैं, (ये) जो (सुताः) प्रजाओं के प्रेरक नेता, (च) और (ग्रामण्यः) ग्रामों के नेता हैं, (सर्वान् तान्) आदि पूर्ववत् [मन्त्र ६।]
टिप्पणी: [राजकृतः यथा "विशस्त्त्वा सर्वा वाच्छन्तु मा त्वद्राष्ट्रमधिभ्रशत्" (अथर्व० ६।८७।१); तथा सूक्त (८६-८८)।]
प॒र्णो ऽसि॑ तनू॒पानः॒ सयो॑निर्वी॒रो वी॒रेण॒ मया॑ ।
सं॑वत्स॒रस्य॒ तेज॑सा॒ तेन॑ बध्नामि त्वा मणे ॥८॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (मणे) हे प्रशंसनीय परमेश्वर ! तू (पर्णः) हमारा पूर्ण करनेवाला, (तनूपानः) शरीररक्षक और (वीरेण मया) मुझ वीर के साथ (सयोनिः) मिलने योग्य घर में रहनेवाला (वीरः) वीर (असि) है। (संवत्सरस्य) सबमें यथानियम वास करनेवाले [तेरे] (तेन तेजसा) उस तेज से (त्वा) तुझको (बध्नामि) मैं बाँधता हूँ ॥८॥
भावार्थः मनुष्य उस उत्तम कामनाओं के पूरक और शरीररक्षक महापराक्रमी परमेश्वर को अपने साथ सब स्थानों में निवास करता हुआ जानकर और उसके तेजोमय स्वरूप को हृदय में धारण करके पराक्रमी और तेजस्वी होकर आनन्द भोगे ॥८॥
ईश्वर का जीव के साथ नित्य सम्बन्ध है जैसे-
द्वा सु॑प॒र्णा स॒युजा॒ सखा॑या समा॒नं वृ॒क्षं परि॑षस्वजाते।
तयो॑र॒न्यः पिप्प॑लं स्वा॒द्वत्त्यन॑श्नन्न॒न्यो अ॒भिचा॑कशीति ॥
ऋ० १।१६४।२०, अ० ९।९।२० ॥
(द्वा) दो (सुपर्णा) सुन्दर पालनशक्तिवाले, (सयुजा) समान सम्बन्ध रखनेवाले, (सखाया) मित्रों के समान वर्तमान [ईश्वर और जीव] (समानम्) एक (वृक्षम्) सेवनीय [संसार वा वृक्ष] से (परि) सब प्रकार (सस्वजाते) सम्बन्ध रखते हैं। (तयोः) उन दोनों में (अन्यः) एक [जीव, ईश्वराधीन होने से] (स्वादु) चखने योग्य (पिप्पलम्) फल [पुण्य-पाप का] (अत्ति) खाता है (अन्यः) दूसरा [परमात्मा] (अनश्नन्) न खाता हुआ (अभि) भले प्रकार [जीवों को] (चाकशीति) देखता है ॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थः (मणे) हे रत्न ! [सेनापति !] (पर्णः असि) तू पालक है, (तनुपान:) साम्राज्य शरीर का पालक है, (सयोनिः) हम दोनों की समान-योनि है, प्रजा; (बीरः) तू वीर है। (संवत्सरस्व) संवत्सर के तेजोमय आदित्य१ के (तेन तेजसा) उस तेज से युक्त (त्वा) तुझे (बध्नामि) मैं अपने साथ बांधता हूँ, सुदृढ़ सम्बद्ध करता हूँ।
टिप्पणी: [तनूपान:=साम्राज्य-शरीर तथा सम्राट् का निज-शरीर। पालक सेनापति दोनों शरीरों की रक्षा करता है। साम्राज्य भी शरीर है, यथा "यजु० २०।५।९; तथा विशेषतया मन्त्र ८।" सयोनी= योनिः, प्रजा। अथवा सम्राट् और सेनापति की समान योनि [घर] (निघं० ३।४), है "भूमण्डल।" दोनों वीर हैं "वीरो, बीरेन मया।" बध्नामि=बन्धन केवल धागे आदि द्वारा ही नहीं होता। "देशबन्धः चित्तस्य धारणा" (योग ३।१) में नासिकाग्र आदि में चित्त को बांधने का भी कथन हुआ है। धारणा योगाङ्ग है। इसी प्रकार मन्त्र में "बध्नामि" का अर्थ भी यथोचित हो करना चाहिए।]
[१. संवत्सरस्य तेजसा=संवत्सरस्य, एतदुपलक्षितकालभेदनियामकस्य आदित्यस्य तेजसा युक्तं त्वाम् (सायण)।]
विशेष वक्तव्य
दर्शनशास्त्र के अनुसार वैदिक वाक्यरचना बुद्धिपूर्वक हुई है यथा "बुद्धिपूर्वा वाक्यकृतिर्वेद।" अतः सूक्त ५ के मन्थार्थ बुद्धिग्राह्य ही किये गए हैं। सायणाचार्य ने सूक्तार्थ सोमोषधि के पत्ते के सम्बन्ध में किये हैं, जिसमें मन्त्रार्थ संगत नहीं होते।
॥ इति प्रथमोऽनुवाकः ॥
॥ अथद्वितीयोऽनुवाकः॥
सूक्त ६
पुमा॑न्पुं॒सः परि॑जातो ऽश्व॒त्थः ख॑दि॒रादधि॑ ।
स ह॑न्तु॒ शत्रू॑न्माम॒कान्यान॒हं द्वेष्मि॒ ये च॒ माम् ॥१॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (सः) वह (पुमान्) रक्षाशील (अश्वत्थः) अश्वत्थामा अर्थात् अश्वों, बलवानों में ठहरनेवाला पुरुष, अथवा वीरों के ठहरने का स्थान पीपल का वृक्ष, (पुंसः) रक्षाशील (खदिरात् अधि) स्थिर स्वभाववाले परमेश्वर से, अथवा खैर वृक्ष से (परिजातः) प्रकट होकर (मामकान् शत्रून्) मेरे उन शत्रुओं वा रोगों को (हन्तु) नाश करे (यान्) जिन्हें (अहम्) मैं (द्वेष्मि) वैरी जानता हूँ (च) और (ये) जो (माम्) मुझे [वैरी जानते हैं] ॥१॥
भावार्थः जो पुरुष सर्वरक्षक दृढ़ स्वभावादि गुणवाले परमेश्वर को विचार करके अपने को सुधारते हैं, वे शूरों में महाशूर होकर कुकर्मी शत्रुओं से बचाकर संसार में कीर्ति पाते हैं ॥१॥
२−अश्वत्थ, पीपल का वृक्ष, दूसरे वृक्षों के खोखले, घरों की भीतों और अन्य स्थानों में उगता है और बहुत गुणकारी है। खैर के वृक्ष पर उगने से अधिक गुणदायक हो जाता है। लोग बड़ा आदर करके पवित्र पीपल की चित्तप्रसादक छाया और वायु में सन्ध्या, हवन, व्यायाम आदि करते और इसके दूध, पत्ते, फल, लकड़ी से बहुत ओषधियाँ बनाते हैं। शब्दकल्पद्रुम कोष में इसको मधुर, कसैला, शीतल, कफ-पित्त विनाशी, रक्तदाहशान्तिकारक आदि और खदिर अर्थात् खैर को शीतल, तीखा, कसैला, दाँतों का हितकारी, कृमि, प्रमेह, ज्वर, फोड़े, कुष्ठ, शोथ, आम, पित्त, रुधिर पाण्डु और कफ का विनाशक आदि लिखा है ॥
पाद्मोत्तरखण्ड अध्याय १२६, १६०−१६१ में अश्वत्थ की कथा सविस्तार लिखी है ॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थः (पुंसः) अभिवर्धनशील पिता से (पुमान्) अभिवर्धनशीलपुत्र (परिजातः) पैदा होता है, जैसेकि (खदिरात् अधि) खैर से (अश्वत्थः१) पीपल। (सः) वह अभिवर्धनशील पुत्र (मामकान्) मेरे (शत्रून् हन्तु) शत्रुओं का हनन करे, (यान्) जिनके साथ (अहम्) मैं (द्वेष्मि) द्वेष करता हूँ, (च) और (ये) जो (माम्) मेरे साथ द्वेष करते हैं।
टिप्पणी: [मन्त्र के प्रारम्भ में "पुमान् पुंसः" का कथन हुआ है, अतः समग्र सूक्त में "पुमान् पुंसः" का भी वर्णन अभीष्ट प्रतीत होता है। "अश्वत्थः खदिरात्" तो दृष्टान्तरूप है। तथा देखो "संस्कारविधि: पुंसवन संस्कार।"
जैसे पुत्र पिता के शत्रुओं का हनन करता है, वैसे अश्वत्थ अर्थात् खदिर२ से उत्पन्न अश्वत्थ भी रोगों का हनन करता है। मन्त्र २ से ८ तक में अश्वत्थ पद पठित है, तो भी इस दष्टान्त पद द्वारा दाष्टन्ति या उपमेयरूप में पुमान्-पुरुष भी अभिप्रेत है।
[ १. अश्वत्थः -- Figtree (आप्टे)। Fig= सम्भवतः अञ्जीर।
२. खदिर के कोटर अर्थात् गड़हे से उत्पन्न अश्वत्थ में खदिर की भी रोग निवारण शक्ति होती है और निज की भी]
तान॑श्वत्थ॒ निः शृ॑णीहि॒ शत्रू॑न्वैबाध॒दोध॑तः ।
इन्द्रे॑ण वृत्र॒घ्ना मे॒दी मि॒त्रेण॒ वरु॑णेन च ॥२॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (अश्वत्थ) हे बलवानों में ठहरनेवाले शूर [वा पीपलवृक्ष !] (वृत्रघ्ना) अन्धकार मिटानेवाले (इन्द्रेण) सूर्य से, (मित्रेण) प्रेरणा करनेवाले वायु से (च) और (वरुणेन) स्वीकार करने योग्य जल से (मेदी+सन्) स्नेही होकर (तान्) उन (वैबाधदोधतः) विविध बाधा डालनेवाले क्रोधशील (शत्रून्) शत्रुओं वा रोगों को (निः) सर्वथा (शृणीहि) मार डाल ॥२॥
भावार्थः राजा सूर्यादि के समान गुणयुक्त होकर भीतरी और बाहरी वैरियों का और सद्वैद्य पीपल के प्रयोग से रोगों का नाश करके प्रजा में शान्ति रक्खे ॥२॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थः (अश्वत्थ) हे अश्वत्थ ! (वैबाधदोधतः) बाधा डालनेवाले और कंपा देनेवाले (तान् शत्रून्) उन शत्रुओं का (निशृणीहि) निःशेषेण विनाश कर; (वृत्रघ्ना इन्द्रेण मेदी) वृत्रघाती इन्द्र के साथ, (मित्रेण) मित्र के साथ, (च) और (वरुणेन) वरुण के साथ स्नेही तू।
टिप्पणी: [मन्त्र में उपमान-अश्वत्थ और उपमेय-पुमान् दोनों का वर्णन है। अश्वत्थ रोग-शत्रुओं का विनाशक है। इस अर्थ में इन्द्र है विद्युत्, मित्र है सूर्य, बरुण है मेघ। इन तीन की सहायता द्वारा अश्वत्थ बढ़ता है, अतः वह इनके साथ स्नेह करता है। उपमेय-पुमान् राष्ट्रिय शत्रुओं का विनाश करता है। इस अर्थ में इन्द्र है सम्राट्, मित्र है मित्र राजा, तथा वरुण है माण्डलिक राजा। "इन्द्रश्च सम्राड् बरुणश्च राजा" (यजु० ८।३७)। वैवाधदोधत:- विबाध+अण (स्वार्थे) +धूञ् कम्पने [यङ् लुक्+ शातृ प्रत्यय+ द्वितीया विभक्ति।]
यथा॑श्वत्थ नि॒रभ॑नो॒ ऽन्तर्म॑ह॒त्य॑र्ण॒वे ।
ए॒वा तान्त्सर्वा॒न्निर्भ॑ङ्ग्धि॒ यान॒हं द्वेष्मि॒ ये च॒ माम् ॥३॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (अश्वत्थ) हे वीरों में ठहरनेवाले राजन् ! [वा पीपलवृक्ष !] (यथा) जैसे (महति) बड़े (अर्णवे अन्तः) समुद्र के बीच में (निरभनः) निश्चय करके तू भद्र करनेवाला हुआ है। (एव) वैसे ही (तान् सर्वान्) उन सबको (निर्) निरन्तर (भङ्ग्धि) नष्ट कर दे, (यान्) जिन्हें (अहम्) मैं (द्वेष्मि) वैरी जानता हूँ, (च) और (ये) जो (माम्) मुझे [वैरी जानते हैं] ॥३॥
भावार्थः मनुष्यों को शूरवीर और सद्वैद्य होकर दुःखसागर में डूबे हुए प्रजागणों के उभारने में प्रयत्न करना चाहिये ॥३॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थः (अश्वत्थ) हे अश्वत्थ ! (महति अर्णवे अन्तः) महान-समुद्र अर्थात् वायुमण्डल में (यथा) जिस प्रकार तू (निरभनः) नितरां शक्तिपूर्वक बढ़ा है, (एवा) इस प्रकार की शक्ति से (तान् सर्वान्) उन सबको (निर्भङ्गधि) निःशेषेण भग्न कर (ये माम्) जोकि मेरे साथ द्वेष करते हैं, (च) और (यान्) जिनके साथ मैं द्वेष करता हूँ।
टिप्पणी: [निरभनः=नि+रभ् राभस्ये (भ्वादिः), रभस् पूर्वक बढ़ना। अश्वत्थ, रोग निवारणार्थ, मानो वायुमण्डल में शक्तिपूर्वक बढ़ा है। वायु मंडल में रोग पैदा होते हैं, उनके निवारण के लिए। अन्तरिक्ष महार्णव है, महासमुद्र है। यथा "उत्तरस्मादधरं समुद्रम्" (ऋ० १०।९८।५) में उत्तर समुद्र द्वारा अंतरिक्ष समुद्र अभिप्रेत है, (निरुक्त २।३।१०, ११)। मन्त्र में अश्वत्थ को सम्बोधित किया है ओकि सूक्त में उपमानरूप है। इस द्वारा उपमेय भी अभिप्रेत है "पुमान् पुरुष" [मन्त्र १] वह निज राष्ट्रपति के शत्रुओं का भग्न करता है, जोकि अंतरिक्ष से वायुयानों द्वारा आक्रमण करते हैं। ऐसा आदेश राष्ट्रपति ने "पुमान्-पुरुष" को दिया है। निरभनः= नि+रभ्+ युच् (औणादिक २।७५) नकारस्य णकाराभावः छान्दसः।]
यः सह॑मान॒श्चर॑सि सासहा॒न इ॑व ऋष॒भः ।
तेना॑श्वत्थ॒ त्वया॑ व॒यं स॒पत्ना॑न्त्सहिषीमहि ॥४॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (अश्वत्थ) हे शूरों में ठहरनेवाले राजन् ! [वा पीपलवृक्ष] ! (यः) जो तू (सहमानः) [वैरियों को] दबाता हुआ, (सासहानः) महाबली (ऋषभः इव) श्रेष्ठ पुरुष वा बलीवर्द वा ऋषभ औषध के समान (चरसि) विचरता है। (तेन त्वया) उस तेरे साथ (वयम्) हम (सपत्नान्) वैरियों को (सहिषीमहि) हरा देवें ॥४॥
भावार्थः प्रजागण शूरवीर नीतिनिपुण राजा और सद्वैद्य के सहाय से शत्रुओं को वश में करते रहें। ऋषभ औषध विशेष है। इसको शब्दकल्पद्रुम कोष में मीठा, शीतल, रक्त-पित्त विरेक नाशक, वीर्य-श्लेष्मकारी और दाहक्षय ज्वरहारी आदि लिखा है ॥४॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थः (अश्वत्थ) हे अश्वत्थ सदृश [पुमान्-पुरुष!] (सहमानः य:) शत्रुओं का पराभव करनेवाला जो तु, (सासहानः) पराभव करनेवाले (ऋषभः इव) ऋषभ या पुरुषर्षभ की तरह (चरसि) विचरता है, (तेन त्वया) उस तुझ द्वारा (वयम्) हम (सपत्नान्) शत्रुओं का (सहीषीमहि) पराभव करें।
टिप्पणी: [मन्त्र में अश्वत्थ पद निज अर्थ में प्रयुक्त नहीं हुआ, अपितु वह निज उपमेय "पुमान्-पुरुष" का द्योतक है । इसीलिए इसे ऋषभ के सदृश स्वच्छन्द विचरनेवाला कहा है, तथा शत्रुओं का पराभव करनेवाला कहा है। सासहान:= सह यङ्लुक्+ शानच्; सह = षह मर्षणे (चुरादिः)।
सि॒नात्वे॑ना॒न्निरृ॑तिर्मृ॒त्योः पाशै॑रमो॒क्यैः ।
अश्व॑त्थ॒ शत्रू॑न्माम॒कान्यान॒हं द्वेष्मि॒ ये च॒ माम् ।।५ ॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (अश्वत्थ) हे शूरों में ठहरनेवाले राजन् ! [वा पीपल वृक्ष !] (निर्ऋति) अलक्ष्मी (मृत्योः) मृत्यु के (अमोक्यैः) न खुल सकनेवाले (पाशैः) पाशों से (एनान्) इन (मामकान् शत्रून्) मेरे शत्रुओं को (सिनातु) बाँध लेवे, (यान्) जिन्हें (अहम्) मैं (द्वेष्मि) वैरी जानता हूँ, (च) और (ये) जो (माम्) मुझे [वैरी जानते हैं] ॥५॥
भावार्थः राजा सत्पुरुषों के विरोधी दुराचारियों को दृढ़ बन्धनों में डालकर निर्धन और नष्ट कर दे ॥५॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थः (निर्ऋतिः) कृच्छ्रापति (अमोक्यैः) न मोचन कर सकने योग्य (मृत्योः पाशै:) मृत्यु के फन्दों द्वारा (एतान् मामकान) इन मेरे शरओं को (सिनातु) बांधे, (अश्वत्थ) हे उपमेय "पुमान्-पुरुष"! (यान अहं द्वेष्मि) जिनके साथ में द्वेष करता हूँ (च) और (ये) जो (माम्) मेरे साथ द्वेष करते हैं।
टिप्पणी: [मनुष्य में अश्वत्थ पद निज उपमेय "पुमान्-पुरुष" का द्योतक है। अथवा "जहत् लक्षणा वत्ति" द्वारा अश्वत्थ निज अर्थ का परित्याग कर "पुमान-पुरुष" का कथन करता है, जैसेकि "गङ्गायां घोषाः" में गङ्गा पद निज अर्थ का परित्याग कर गङ्गा-तट का कथन करता है।]
यथा॑श्वत्थ वानस्प॒त्याना॒रोह॑न्कृणु॒षे ऽध॑रान् ।
ए॒वा मे॒ शत्रो॑र्मू॒र्धानं॒ विष्व॑ग्भिन्द्धि॒ सह॑स्व च ॥६॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (यथा) जिस प्रकार से (अश्वत्थ) हे शूरों में ठहरनेवाले अश्वत्थामा राजन् ! [वा पीपलवृक्ष !] (वानस्पत्यान्) सेवकों वा सेवनीय गणों के रक्षक [आप] से सम्बन्धवाले पुरुषों [वा वृक्ष समूहों] पर (आरोहन्) ऊँचा होकर (अधरान्) नीचे (कृणुवे) तू करता है (एव) वैसे ही (मे शत्रोः) मेरे शत्रु के (मूर्धानम्) मस्तक को (विष्वक्) सब विधि से (भिन्धि) तोड़ दे (च) और (सहस्व) जीत ले ॥६॥
भावार्थः समस्त और प्रत्येक प्रजागण समर्थ शूरवीर पुरुष वा सद्वैद्य को नायक बनाकर शत्रुओं और रोगों से अपने को बचावें ॥६॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थः (अश्वत्थ) हे अश्वत्थ ! (वनस्पत्यान्) वनस्पतियों के समूहों पर (आरोहन्) आरोहण करता हुआ तू (यथा) जिस प्रकार उन्हें (अधरान् कृणुषे) नीचा करता है, (एवा=एवम्) इसी तरह (मे शत्रोः मुर्धानम्) मेरे शत्रु के मुखिया को (विष्वक्) सब प्रकार से (भिन्द्धि) छिन्न-भिन्न कर (च) और (सहस्व) पराभूत कर।
टिप्पणी: [अश्वत्थ, खदिर आदि के कोटर से उत्पन्न होकर [मन्त्र १] उन्हें अपने से नीचे कर देता है, और उन पर आरोहण कर उनसे ऊंचा हो जाता है, इसी प्रकार उपमान-अस्वस्थ द्वारा अभिप्रेत उपमेय "पुमान्-पुरुष" के प्रति कहा है कि तू मेरे शत्रु का भेदन आदि कर, (निज शक्ति द्वारा शत्रु से ऊँचा होकर, उत्कृष्ट होकर)। वनस्पत्यान्=समूहार्थे, ण्यः (सायण)। मुर्धानम्=अथवा शिरः।]
ते ऽध॒राञ्चः॒ प्र प्ल॑वन्तां छि॒न्ना नौरि॑व॒ बन्ध॑नात् ।
न वै॑बा॒धप्र॑णुत्तानां॒ पुन॑रस्ति नि॒वर्त॑नम् ॥७॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (ते) वे (अधराञ्चः) अधोगतिवाले लोग वा रोग (बन्धनात्) बन्धन से (छिन्ना) छूटी हुई (नौः इव) नाव के समान (प्र प्लवन्ताम्) बहते चले जावें जिससे (वैबाधप्रणुतानाम्) विविध बाधा डालनेवालों में पड़े हुए लोगों का (पुनः) फिर (निवर्तनम्) लौटना (न) नहीं (अस्ति) हो ॥७॥
भावार्थः महादुष्ट रोग वा दुराचारियों के हटाने के लिए कठिन उपाय करने चाहियें, क्योंकि कोमलता से उनका सुधार नहीं हो सकता ॥७॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थः (ते) वे शत्रु (अधराञ्चः) नीचे की ओर (प्र प्लवन्ताम्) शीघ्रता से प्रवाहित हो जाएं, (इव) जैसे (बन्धनात्) वन्धन से (छिन्ना) कटी (नौः) नौका [शीघ्रगामिनी नदी में शीघ्रता से प्रवाहित हो जाती है]। वैवाध=वैबाध, प्रणुत्तानाम्) विविध बाधनाओं से धकेले गयों का (पुनः) फिर (निवर्तनम्) लौट आना (न अस्ति) नहीं होता है।
टिप्पणी: [प्रजा के शत्रु, जो कि विविध बाधाओं१ के कारण स्वराष्ट्र से प्रजा द्वारा धकेल दिये जाते हैं, उनका राष्ट्र में पुनरागमन नहीं होता, क्योंकि वे अधरगतिवाले होते हैं। अधराञ्चः पद द्विविधार्थक हैं। सायणाचार्य ने "वैबाध" का अर्थ खदिरोत्पन्न "अश्वत्थ" किया है, जोकि अविश्वसनीय है ।]
[१. जो शासक प्रजा के कार्यों में बाधाएं उपस्थित करते हैं, वे प्रजा के शत्रु हैं, अतः प्रजा द्वारा निज राष्ट्र से धकेल दिये जाते हैं।]
प्रैणा॑न्नुदे॒ मन॑सा॒ प्र चि॒त्तेनो॒त ब्रह्म॑णा ।
प्रैणा॑न्वृ॒क्षस्य॒ शाख॑याश्व॒त्थस्य॑ नुदामहे ॥८।।
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (एनान्) इन [शत्रुओं] को (मनसा) मननशक्ति से, (चित्तेन) ज्ञानशक्ति से (उत) और (ब्रह्मणा) वेदशक्ति से (प्र प्र) सर्वथा (नुदे) मैं हटाता हूँ। (एनान्) इनको (वृक्षस्य) स्वीकार करने योग्य (अश्वत्थस्य) बलवानों में ठहरनेवाले शूर [वा पीपल] की (शाखया) व्याप्ति [वा शाखा] से (प्र, नुदामहे) हम निकाले देते हैं ॥८॥
भावार्थः प्रत्येक व्यक्ति और सब लोग मिलकर शूरवीर वा पीपल के प्रभाव से आगा-पीछा विचारकर शत्रुओं को नष्ट कर देते हैं ॥८॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थः (एनान्) इन शत्रुओं को (मनसा) संकल्प द्वारा (प्र नुदे) में धकेलता हूँ, (चित्तेन) सम्यक्-ज्ञान द्वारा (प्रणुदे) मैं धकेलता हूँ, (उत) तथा (ब्रह्मणा) ब्रह्म की कृपा द्वारा (प्रणुदे) मैं धकेलता हूँ; (एनान्) इन शत्रुओं को (अश्वत्थस्य वृक्षस्य शाखया) अश्वत्थ वृक्ष की शाखा द्वारा (प्र णुदामदे) हम धकेलते हैं।
टिप्पणी: [शत्रु रोगरूपी नहीं प्रतीत होते, अपितु ये राष्ट्रिय शत्रु हैं मातुष। इन्हें दृढ़ संकल्पों, सम्पर्क-ज्ञानों तथा ब्रह्म से शक्ति पाकर धकेला गया है। अश्वत्थ प्रकरण द्वारा वृक्ष ही है, शाखया पद द्वारा और भी निश्चय हो जाता है कि यह वृक्ष ही है। अतः वृक्षस्थ पद विकल्प के लिए है, अश्वत्थ की या किसी भी वृक्ष की शाखा द्वारा। "नुदामहे" द्वारा ज्ञात होता है कि शुत्रुओं को धकेलनेवाले बहुत हैं। ये प्रजाएँ हैं। जब समग्र प्रजा मिलकर "राष्ट्रिय शत्रु-स्वकीय राजा" को राष्ट्र से धकेलने के लिए तत्पर हो जाए तो वह वृक्षों की शाखाओं के प्रहारों द्वारा ही शत्रु-राजा को अपने राष्ट्र से धकेल सकती है, किसी उग्र शस्त्रास्त्र की आवश्यकता नहीं होती, इसे मन्त्र में दर्शाया है।]
सूक्त ७
ह॑रि॒णस्य॑ रघु॒ष्यदो ऽधि॑ शी॒र्षणि॑ भेष॒जम् ।
स क्षे॑त्रि॒यं वि॒षाण॑या विषू॒चीन॑मनीनशत् ॥१॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (रघुष्यदः) शीघ्रगामी (हरिणस्य) अन्धकार हरनेवाले सूर्यरूप परमेश्वर के (शीर्षणि अधि) आश्रय में ही (भेषजम्) भय जीतनेवाला औषध है, (सः) उस [ईश्वर] ने (विषाणया) विविध सीगों से (क्षेत्रियम्) शरीर वा वंश के रोग को (विषूचीनम्) सब ओर से (अनीनशत्) नष्ट कर दिया है ॥१॥
दूसरा अर्थ−(रघुष्यदः) शीघ्रगामी (हरिणस्य) हरिण वे (शीर्षणि अधि) मस्तक के भीतर (भेषजम्) औषध है। (सः) उस [हरिण] ने (विषाणया) [अपने] सींग से (क्षेत्रियम्) शरीर वा वंश के रोग को (विषूचीनम्) सब ओर (अनीनशत्) नष्ट कर दिया है ॥१॥
भावार्थः परमेश्वर ने आदि सृष्टि में वेद द्वारा हमारे स्वाभाविक और शारीरिक रोगों की औषधि दी है उसीके आज्ञापालन में हमारा कल्याण है ॥१॥
“हरिण” शब्दकल्पद्रुम कोष में विष्णु, शिव, सूर्य, हंस और पशुविशेष मृग का नाम है और पहिले चारों नाम प्रायः परमेश्वर के हैं ॥
दूसरा अर्थ−मृग के सींग आदि से मनुष्य बड़े-२ रोग नष्ट करें। मृग की नाभि में प्रसिद्ध औषधि कस्तूरी होती है। उसका सींग पसली आदि की पीड़ा में लगाया जाता हैं, प्रायः घरों में रक्खा रहता है और उसमें नौसादर भी होता है। विषाणम्=सींग कुष्ठ का औषध है ॥१॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थः (रधुष्यदः) शीघ्र स्यन्दन अर्थात् गमन करनेवाले (हरिणस्य) हरिण के (शीर्षणि अधि) सिर पर (भेषजम्) रोगनिवर्तक औषध है। (सः) वह हरिण (विषाणया) शृङ्ग द्वारा (क्षेत्रियम्) माता पिता के शरीर से प्राप्त (बिषूचीनम्) प्रसृत रोग को (अनीनशत्) नष्ट करता है।
टिप्पणी: [विषुचीनम्= विषु (सर्वत्र)+ अचि या अच (गतौ) (भ्वादिः)। क्षेत्रियम्= परक्षेत्र में चिकित्सा रोग (अष्टा० ५।२।९२)। अथवा "क्षेत्रियम्= वर्तमान क्षेत्र अर्थात् शरीर का रोग। क्षेत्र = शरोर (गीता १३।१)।]
अनु॑ त्वा हरि॒णो वृषा॑ प॒द्भिश्च॒तुर्भि॑रक्रमीत् ।
विषा॑णे॒ वि ष्य॑ गुष्पि॒तं यद॑स्य क्षेत्रि॒यं हृ॒दि ।।२॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः [हे मनुष्य] (वृषा) परम ऐश्वर्यवाला (हरिणः) विष्णु भगवान् (चतुर्भिः) मांगने योग्य [अथवा चार, धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष] (पद्भिः) पदार्थों के साथ (त्वा अनु) तेरे साथ-२ (अक्रमीत्) पद जमाकर आगे बढ़ा है। (विषाणे) [परमेश्वर के] विविध दान में [उस रोग को] (विष्य) नाश कर दे (यत्) जो (क्षेत्रियम्) शरीर वा वंश का रोग (अस्य) इसके (हृदि) हृदय में (गुष्पितम्=गुफितम्) गुँथा हुआ है ॥२॥
दूसरा अर्थ−[हे मनुष्य !] (वृषा) बलवान् (हरिणः) हरिण (चतुर्भिः पद्भिः) चारों पैरों से (त्वा अनु) तेरे अनुकूल (अक्रमीत्) प्राप्त हुआ है ॥ (विषाणे) हे सींग ! [उस रोग को] (विष्य) नाश कर दे (यत्) जो (क्षेत्रियम्) शरीर वा वंश का रोग (अस्य हृदि) इसके हृदय में (गुष्पितम्) गुंथा हुआ है ॥२॥
भावार्थः परमेश्वर अनेक उत्तम-२ पदार्थ देकर सदा सहायक रहता है। उसकी अनन्त दया से औषधि द्वारा नीरोग रहकर अपना सामर्थ्य बढ़ावें ॥२॥
दूसरा अर्थ−मनुष्य हरिण के सींग आदि औषधि से रोगनिवृत्ति करें ॥२॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थः [हे क्षेत्रिय रोग!] (वृषा) सुखवर्षी (हरिण:) हरिण ने (त्वा अनु) तेरे पीछे-पीछे चलकर (चतुर्भिः पद्धिः) चार पैरों द्वारा (अक्रमीत्) तुझपर आक्रमण किया है। (विषाणे) हे सींग! (अस्य) इस रोगी के (हृदि) हृदय में (यत्) जो (क्षेत्रियम्) क्षेत्रीय-रोग (गुष्पितम्) गुम्फित हुआ है, उसे (विष्य) अन्त कर दे।
टिप्पणी: [हरिण वृषा है, सुखवर्षी है, यत: यह रोगनिवारक है; अथवा वर्षा का अर्थ है सेचनसमर्थ पुमान् हरिण। विष्य=वि+ षो अन्तकर्मंणि (दिवादिः)] विषाणा अर्थात शृङ्ग की भस्म अभिप्रेत है। इसके गुण हैं– निमोनिया, इन्फ्लुएंजा, सर्दी, जुकाम, पार्श्वशूल, खाँसी और कफ का परिहार (बैद्यनाथ पञ्चाङ्ग)। मन्त्र में हृदय रोग का विशेष कथन हुआ है।]
अ॒दो यद॑व॒रोच॑ते॒ चतु॑ष्पक्षमिव छ॒दिः ।
तेना॑ ते॒ सर्वं॑ क्षेत्रि॒यमङ्गे॑भ्यो नाशयामसि ।।३।।
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (अदः) वह (यत्) जो [वा पूजनीय ब्रह्म] (चतुष्पक्षम्) याचनीय व्यवहारों से युक्त, अथवा चार पक्षवाले (छदिः इव) घर के समान (अवरोचते) चमकता है। (तेन) उसके द्वारा (ते अङ्गेभ्यः) तेरे अङ्गों से (सर्वम्) सब (क्षेत्रियम्) शरीर वा वंश के रोग को (नाशयामसि=०−मः) हम नाश करते हैं ॥३॥
भावार्थः ज्ञानी पुरुष उस सर्वत्र विराजमान परब्रह्म की रचनाओं में उत्तम कर्मों से युक्त घर के समान आनन्द पाकर अपने सब विघ्नों का सब जगह नाश करके आगे बढ़े चले जाते हैं ॥३॥
२−हरिण के सींग आदि औषध से रोग नष्ट करना चाहिये ॥३॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थः (अद्) वह दृश्यमान (यद्) जोकि (अवरोचते) नीचे पृथिवी की ओर चमकता है, (चतुष्पक्षम्) चार कोनोंवालो (छदिः) छत की (इव) तरह। (तेन) उस द्वारा (ते अङ्गेभ्यः) तरे अंगों से (सर्वम् क्षेत्रियम्) सब क्षेत्रिय रोग को (नाशयामसि) हम नष्ट करते हैं।
टिप्पणी: [छदिः=अथवा "छदिः गृहनाम" (निघं० ३।४)। चतुष्पक्ष छत या-गृह कौन-सा तारामण्डल अर्थात् constellation है, अनुसन्धेय है। इस काल में भी क्षेत्रिय रोग की चिकित्सा का विधान हुआ है। देखो मन्त्र ४ की व्याख्या।]
अ॒मू ये दि॒वि सु॒भगे॑ वि॒चृतौ॒ नाम॒ तार॑के ।
वि क्षे॑त्रि॒यस्य॑ मुञ्चतामध॒मं पाश॑मुत्त॒मम् ॥४।।
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (अमू) वे (ये) जो (सुभगे) बड़े ऐश्वर्यवाले (विचृतौ) [अन्धकार से] छुड़ानेवाले (नाम) प्रसिद्ध (तारके) दो तारे [सूर्य और चन्द्रमा] (दिवि) आकाश में हैं, वे दोनों (क्षेत्रियस्य) शरीर वा वंश के दोष वा रोग के (अधमम्) नीचे और (उत्तमम्) ऊँचे (पाशम्) पाश को (वि+मुञ्चताम्) छुड़ा देवे ॥४॥
भावार्थः जैसे सूर्य और चन्द्रमा परस्पर आकर्षण से प्रकाश, वृष्टि और पुष्टि आदि देकर संसार का उपकार करते हैं, इसी प्रकार मनुष्य सुमार्ग में चलकर सब विघ्नों को हटाकर स्वस्थ और यशस्वी हों ॥४॥ यह मन्त्र अ० २।८।१। में कुछ भेद से आ चुका है ॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थः (अमू ये) वे दो जोकि (सुभगे) उत्तम भाग्यशाली हैं, (विचृतौ नाम तारके) और विचृत्त नामवाले दो तारा (दिवि) द्युलोक में हैं, वे (अधमम्) शरीर के अधोभाग के, (उत्तमम्) तथा ऊर्ध्वभाग के (क्षेत्रियस्य) क्षेत्रिय रोगसम्बन्धी (पाशम्) फंदे को (वि मुञ्चताम्) विमुक्त करें।
टिप्पणी: [नाम=अथवा प्रसिद्ध" सुभगे=प्रकाशयुक्त होने से भाग्यशाली। विचृतौ=वि+चृत् (हिंसा), चृती हिंसाय्रन्थनयोः, तुदादिः)। "ये दो तारा, मूलनामक-नक्षत्र हैं" (सायण)। विचृतौ=वि+चृत्; क्विप+ द्विवचन। द्विवचन है नक्षत्र और तदधिष्ठान की अपेक्षा से (सायण) (अथर्व० २।८।१)। परन्तु मन्त्रानुसार ये दो तारा हैं, न कि मूखनक्षत्र तथा तदधिष्ठान। ये दो तारा वृश्चिक-राशि की पूंछ के डंक में है। क्षेत्रिय-रोग सम्भवतः शारीरिक है; क्षेत्र है शरीर "इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते" (गीता १३।१)। जिस काल में इन दो ताराओं का उदय हो, उस काल में क्षत्रिय रोग की चिकित्सा करने का विधान हुआ है। चिकित्सा का सम्बन्ध बाल के साथ भी होता है। काल का ध्यान न कर चिकित्सा करने से चिकित्सा अधिक लाभकारी नहीं होती।]
आप॒ इद्वा उ॑ भेष॒जीरापो॑ अमीव॒चात॑नीः ।
आपो॒ विश्व॑स्य भेष॒जीस्तास्त्वा॑ मुञ्चन्तु क्षेत्रि॒यात्॥५॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (आपः) सर्वव्यापक परमेश्वर वा जल (इत् वै उ) अवश्य ही (भेषजीः=०−ज्यः) भय निवारक है, (आपः) परमेश्वर, वा जल (अमीवचातनीः=०−न्यः) पीड़ानाशक है। (आपः) परमेश्वर वा जल (विश्वस्य) सबका (भेषजीः) भय निवारक है, (ताः) वह (त्वा) तुझको (क्षेत्रियात्) शरीर वा वंश के दोष वा रोग से (मुञ्चन्तु) छुड़ावे ॥५॥
भावार्थः परमेश्वर ने मनुष्य को बुद्धि, नेत्र, हस्तादि, सूर्य, चन्द्र, पृथिवी आदि और अन्नादि पदार्थ देकर बड़ा उपकार किया है, सो हम भी उसको धन्यवाद देते हुए सबके साथ उपकार करें और खेती आदि में जल के सुप्रयोग से पुरानी और नवी दरिद्रता और स्नान आदि में प्रयोगों से सब रोग नाश करें ॥५॥ ‘आपः’ शब्द नित्य स्त्रीलिङ्ग बहुवचनान्त है, इसीसे उसके विशेषण भी स्त्रीलिङ्ग बहुवचनान्त हैं। ‘आपः’ शब्द परमेश्वरवाची भी है, प्रमाण में अगला मन्त्र है। उसमें एकवचनान्त शब्दों के साथ प्रयोग से उसका अर्थ एक परमेश्वर का है ॥
तदे॒वाग्निस्तदा॑दि॒त्यस्तद्वा॒युस्तदु॑ च॒न्द्रमा॑।
तदे॒व शु॒क्रं तद् ब्र॒ह्म ता आपः॒ स प्र॒जापतिः ॥
(तत्) विस्तार करनेवाला प्रसिद्ध ब्रह्म (एव) ही (अग्निः) ज्ञानस्वख्य, (तत्) ब्रह्म ही (आदित्यः) प्रकाशस्वरूप, (तत्) ब्रह्म ही (वायुः) गतिशील बलवान् और (तत् उ) ब्रह्म ही (चन्द्रमाः) आनन्द कारक है। (तत् एव) ब्रह्म ही (शुक्रम्) शुक्ल वा शुद्धस्वभाव, (तत्) सब में विस्तृत ब्रह्म (ब्रह्म) महान् (ताः) वही (आपः) सर्वव्यापक और (सः) वही (प्रजापतिः) प्रजापालक है ॥
तनोति विस्तारयतीति तद् ब्रह्म। तनु विस्तारे अदिः, स च डित् (उ० १।१३२) ॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थः (आपः) जल (इत्) ही (वै उ) निश्चय से (भेषजीः) भेषज अर्थात् औषधरूप हैं, (आप:) जल (अमीवचातनी:) रोगविनाशक हैं। (आप:) जल (विश्वस) समग्र प्रकार के रोग समूह की (भेषजी:) औषध हैं। (ता:) वे जल (त्वा) तुझे (क्षेत्रियात्) शारीरिक रोग से (मुञ्चन्तु) मुक्त करें, छुड़ाएं।
टिप्पणी: [आपः अर्थात जलचिकित्सा को सब प्रकार के रोगों की नाशिका कहा है। अमीव=अम रोगे (चुरादि:) आपः के लिए, देखो अथव० १।४।४; १।५।१-४; १।६।२, ३, ४)।]
यदा॑सु॒तेः क्रि॒यमा॑नायाः क्षेत्रि॒यं त्वा॑ व्यान॒शे ।
वेदा॒हं तस्य॑ भेष॒जं क्षे॑त्रि॒यं ना॑शयामि॒ त्वत्॥६।
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (यत्) जो (क्षेत्रियम्) शरीर वा वंश का रोग (क्रियमाणायाः) बिगड़ते हुए (आसुतेः) काढ़े से (त्वा) तुझमें (व्यानशे) व्याप गया है। (अहम्) मैं (तस्य) उसका (भेषजम्) औषध (वेद) जानता हूँ। (क्षेत्रियम्) शरीर वा वंश के रोग को (त्वत्) तुमसे (नाशयामि) नाश करता हूँ ॥६॥
भावार्थः विकृत औषध और विकृत अन्न के काढ़े वा पाक रस आदि से शरीर में भारी रोग व्याप जाते हैं, मनुष्य हितकारक पदार्थों का सेवन प्रयत्न करके किया करें ॥६॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थः (क्रियमाणायाः) की जानेवाली (आसुतेः) प्रसव क्रिया के होते (यत् क्षेत्रियम्) जो शारीरिक रोग (त्वा व्यानशे) तुझे व्याप्त हो गया है, (तस्य) उसके (भेषजम्) औषध को (अहम् वेद) मैं जानता हूँ, (त्वत्) तुझ से (क्षेत्रियम्) शरीर-सम्बन्धी रोग को (नाशयामि) मैं नष्ट करता हूँ।
टिप्पणी: १. आसुतेः=आसुति पद पञ्चम्यन्त। लौकिक संस्कृत में "आसुति" का अर्थ होता है "सुरानिर्माण"। सायण ने आसुति की व्युत्पत्ति "आ+ सिच्" (सींचने) अर्थ में की है। यथा "आसूयते आसिच्यते इत्यामुतिः, द्रवीभूतमन्नम्" द्रवीभूतमन्नम् को स्पष्ट शब्दों में सुरा सायण ने भी नहीं कहा। तथा मन्त्र में भी आसुति का अर्थ, सुरानिर्माण संगत नहीं प्रतीत होता, अपितु प्रसूति अर्थ ही सुसंगत प्रतीत होता है।
[चिकित्सक कहता है प्रसवासन्ना स्त्री को कि सुत या सुता की उत्पत्ति कर्म में जो रोग हो जाता है, उसकी भेषज मैं जानता हूँ, अत: मैं तेरे रोग को नष्ट करता हूँ। इस कथन द्वारा प्रसूता को आश्वासन देता है। आसुतिः, सुत और सुता एक ही धातु के रूप हैं "षु प्रसवे"। व्यानशे = वि +आ+नुट् + अशूङ् व्याप्तौ, लिट् लकार (सायण)।]
अ॑पवा॒से नक्ष॑त्राणामपवा॒स उ॒षसा॑मु॒त ।
अपा॒स्मत्सर्वं॑ दुर्भू॒तमप॑ क्षेत्रि॒यमु॑छतु॥७॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (नक्षत्राणाम्) नक्षत्रों के (अपवासे) छिपने पर (उत) और (उषसाम्) प्रभात वेलाओं के (अपवासे) चले जाने पर (अस्मत्) हमसे (सर्वम्) सब (दुर्भूतम्) अनिष्ट (अप=अप उच्छतु) चला जावे और (क्षेत्रियम्) शरीर वा वंश का रोग (अप) हट जावे ॥७॥
भावार्थः यह मन्त्र उपसंहार है, अर्थात् जैसे प्रतापी सूर्य के चमकने पर तारे छिप जाते और उषाओं का रङ्ग फीका पड़ जाता है, वैसे ही उद्योगी पुरुष आलस्यादि अनिष्टों और रोगों को दबाकर आनन्द भोगता है ॥७॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थः (नक्षत्राणाम्) नक्षत्रों के (अपवासे) अगगत हो जाने पर, प्रवसित हो जाने पर, (उत) तथा (ऊषसाम्) उषाओं के (अपवासे) अपगत अर्थात प्रवासित हो जाने पर (अस्मत्) हमसे (सर्वम्, दुर्भूतम्) सब दुष्कृत (अप) अपगत हो जाय, (क्षेत्रियम्) शारीरिक रोग (अप उच्छतु) अपगत हो जाय।
टिप्पणी: [नक्षत्रों के प्रवास और उषाओं के प्रवास पर, सूर्य की रश्मियां चमकने लगती हैं, दिन का प्रकाश हो जाता है। इस काल में प्रदीप्त हुई रश्मियों के सेवन से क्षेत्रिय रोग क्षीण होता जाता है। यह ["सूर्यरश्मि-चिकित्सा" है। उषसाम् में बहुवचन यह सूचित करता है कि नाना उषा कालों के पश्चात्, नाना दिनों तक, सूर्य रश्मिचिकित्सा करनी चाहिए। सूर्योदय काल में सूर्यरश्मियाँ लाल होती हैं, जोकि रोगकीटाणुओं का हनन करती हैं (अथर्व ० २।३२।१)]
सूक्त ८
आ या॑तु मि॒त्र ऋ॒तुभिः॒ कल्प॑मानः संवे॒शय॑न्पृथि॒वीमु॒स्रिया॑भिः ।
था॒स्मभ्य॒म्वरु॑णो वा॒युर॒ग्निर्बृ॒हद्रा॒ष्ट्रं सं॑वे॒श्य॑म्दधातु ॥ १॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (ऋतुभिः) ऋतुओं से (कल्पमानः) समर्थ होता हुआ और (उस्रियाभिः) किरणों से (पृथिवीम्) पृथिवी को (संवेशयन्) सुखी करता हुआ (मित्रः) मरण से बचानेवाला वा लोकों का चलानेवाला सूर्य (आयातु) आवे। (अथ) और (वरुणः) वृष्टि आदि का जल (वायुः) पवन और (अग्निः) अग्नि (अस्मभ्यम्) हमारेलिए (बृहत्) विशाल (संवेश्यम्) शान्तिदायक (राष्ट्रम्) राज्य को (दधातु) स्थिर करे ॥१॥
भावार्थः राजा प्रयत्न करे कि उसके प्रजागण सब ऋतुओं से पृथिवी पर भानुताप [सूर्य की किरणों को कांच के दर्पणों से खींचने का यन्त्र] आदि यन्त्रों द्वारा सूर्य से, जलचक्र, जलनाली आदि द्वारा जल से, पवनचक्रादि द्वारा पवन से और आग्नेय अस्त्र-शस्त्र द्वारा अग्नि से, विमान, अग्निरथ, नौका आदि में अनेक विधि से उपकार लेकर राज्य की उन्नति करें ॥१॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थः (मित्रः) जैसे बर्षा द्वारा स्निग्ध करनेवाला (ऋतुभिः) ऋतुओं के कारण (कल्पमानः) सामर्थ्य-सम्पन्न हुआ [सूर्य], (पृथ्वी) भूमण्डल को (उस्रियाभिः) रश्मियों द्वारा (संवेशयन्) सब के लिये प्रवेशयोग्य करता है, वैसे मित्र अर्थात् सबका मित्र अधिकारी (आ यातु) भूमण्डल के शासन के लिये आए। (अथ) तदनन्तर (वरुणः) राष्ट्रपति, (वायुः) अन्तरिक्ष का अधिपति, (अग्रणीः) अग्रणी प्रधानमन्त्री (अस्मभ्यम्) हम सब के लिये (बृहद्रराष्ट्रम) महाराष्ट्र को (संवेश्यम्) सबके लिये प्रवेशयोग्य (दधातु) विदधातु, अर्थात् करे।
टिप्पणी: [मन्त्र में सूर्य और भूमंडल के प्रधानमन्त्री का संश्लिष्ट वर्णन है। सूर्य को और प्रधानमंत्री को मित्र कहा है। सूर्य ऋतुओं के परिवर्तन द्वारा सामर्थ्यसम्पन्न होता रहता है, शीतऋतु से ग्रीष्म ऋतु में आते हुए सूर्य का सामर्थ्य बढ़ता जाता है। इसी प्रकार भूमण्डल के प्रधानमन्त्री की शक्ति भी दिनोदिन बढ़ती जाती है। वृहद-राष्ट्र है भूमण्डलीयरूपी-राष्ट्र। जब भूमण्डल एक महान्-राष्ट्र में परिणत हो जाता है तब समग्र भूमण्डल, सब के लिये प्रवेश१ योग्य हो जाता है (संवेश्य), कहीं भी प्रवेश के लिये permit और visa२ को आवश्यकता नहीं रहती। उस्रियाभिः गोभिः, किरणैरित्यर्थः (सायण)। दधातु=प्रत्येकापेक्षा एकवचनम् (सायण)]
[१. क्योंकि एक महाराष्ट्र में प्रत्येक व्यक्ति समग्र पृथिवी को अपनी माता अर्थात् मातृभूमि जानने लगता है, अतः समग्र पृथिवी को बह निजगृह समझता है। यथा "माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः। पर्जन्यः पिता स उ नः पिपर्तु" (अथर्व ११।१।१२) २. निज देश से परदेश जाने के लिए निज सरकार द्वारा प्राप्त स्वीकृति Permit, और विदेश में प्रवेश के लिए विदेशी सरकार द्वारा प्राप्त स्वीकृति Visa है।]
धा॒ता रा॒तिः स॑वि॒तेदं जु॑शन्ता॒मिन्द्र॒स्त्वष्टा॒ प्रति॑ हर्यन्तु मे॒ वचः॑ ।
हु॒वे दे॒वीमदि॑तिं॒ शूर॑पुत्रां सजा॒तानां॑ मध्यमे॒ष्ठा यथासा॑नि ॥ २॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (धाता) पोषणकर्ता, (रातिः) दानकर्ता, (सविता) सर्वप्रेरक, (इन्द्रः) बड़ा ऐश्वर्यवान् और (त्वष्टा) देवशिल्पी वा विश्वकर्मा [यह सब पुरुष] (मे) मेरे (इदम्) परम ऐश्वर्य के कारण (वचः) वचन को (जुषन्ताम्) विचारें और (प्रति) प्रत्यक्षरूप से (हर्यन्तु) स्वीकार करें। (देवीम्) दिव्य गुणवाली, (शूरपुत्राम्) शूर पुत्रोंवाली (अदितिम्) अदान वा अखण्ड व्रतवाली देवमाता [चतुर स्त्री वा विद्या] को (हुवे) मैं आवाहन करता हूँ, (यथा) जिससे मैं (सजातानाम्) अपने समान जन्मवाले भाई-बन्धुओं में (मध्यमेष्ठाः) प्रधान मध्यस्थ [mediator]होकर (असानि) रहूँ ॥२॥
भावार्थः राजा बड़े-बड़े गुणवान् पुरुषों, बड़ी-बड़ी गुणवती स्त्रियों और विद्या की प्रतिष्ठा बढ़ावे, जिससे वह उनके सहाय से अपनी उन्नति करे ॥२॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थः (धाता) धारण-पोषण करनेवाला अधिकारी, (राति:) दानाधिकारी, (सविता) जन्मों तथा कोष का अधिकारी (इदम् मे बच:) इस मेरे कथन को (जुषन्ताम्) प्रीतिपूर्वक सेवित करें, सुनें, (इन्द्र:) सम्राट्, (त्वष्टा) तथा कारीगरी का अधिकारी [मेरे इस कथन को] (प्रतिहर्यन्तु) कागनापूर्वक सुनें। (शूरपुत्राम्) युद्धशूर, दानशूर, धर्मशूर आदि पुत्रोंवाली (अदितिम्) अदीना (देवीम्) मातृदेवी [सम्राट-पत्नी] का भी (हुवै) मैं [शासनकार्य में] आह्वान करता हूं, (यथा सजातानाम्) ताकि समानजाति के [राजाओं में] (मध्यमेष्ठाः) मध्यस्थ (असानि) मैं हो जाऊँ।
टिप्पणी: [सविता=षु प्रसवे तथा ऐश्वर्ये (भ्वादिः) सविता इन दो विभागों का अधिकारी है। त्वष्टा=त्वक्षतेर्वा स्यात् करोतिकर्मणः (निरुक्त ८।२।१४; त्वष्टा पद (११)। हर्यन्तु=हर्य गतिकान्त्योः (भ्वादिः)। असानि-=असेलोटि आडागमः (अष्टा० ३।४।९२)। मध्यमेष्ठा:=वरुण राजाओं में विवाद उपस्थित हो जाने पर मध्यस्थ होकर ताकि मैं निर्णय दे सकूं। शुरपुत्राम्=सम्राट् की पत्नी मातृवत् हुई, सम्राट् के सब शूरों की माता है। वह अदीना है, सम्राट् की पत्नी होने से, किसी के प्रति दैन्यभाव में नहीं।]
हु॒वे सोमं॑ सवि॒तारं॒ नमो॑भि॒र्विश्वा॑नादि॒त्याँ अ॒हमु॑त्तर॒त्वे ।
अ॒यम॒ग्निर्दी॑दायद्दी॒र्घमे॒व स॑जा॒तैरि॒द्धो ऽप्र॑तिब्रुवद्भिः॥ ३॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (अहम्) मैं (सोमम्) ऐश्वर्यवाले और (सवितारम्) सर्वप्रेरक पुरुष को और (विश्वान्) सब (आदित्यान्) अदीन देवमाता के पुत्रों वा तेजस्वी शूरजनों को (उत्तरत्वे) श्रेष्ठता के निमित्त (नमोभिः) अनेक सत्कारों से (हुवे) आवाहन करता हूँ। (अप्रतिब्रुवद्भिः) प्रतिकूल न बोलनेवाले (सजातैः) समान जन्मवाले भाई-बन्धुओं करके (इद्धः) प्रकाशित किया हुआ (अयम्) यह (अग्निः) अग्नि [सदृश तेजस्वी पुरुष] (दीर्घम्) बहुत काल तक (एव) अवश्य (दीदयत्) ज्योतिवाला रहे ॥३॥
भावार्थः जो राजा शूरवीर सत्यवादी पुरुषों और भाई-बन्धुओं का सत्कार करता रहता है, वह उनकी सहायता से चिरकाल तक तेजस्वी होकर संसार में कीर्ति पाता है ॥३॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थः (उत्तरत्वे) "मैं बड़ा" या "मैं बड़ा" इस प्रकार के युद्ध१ में (अहम्) मैं (नमोभिः) नमस्कारों द्वारा (सवितारम् सोमम्) सेनाप्रेरक सेनाध्यक्ष को, तथा (विद्वान्) सब (आदित्यान्) [वसु, रुद्र] आदि के तथा आदित्य कोटि के विद्वानों का (हुवे) आह्वान करता हूं। (अप्रतिब्रुवद्भिः) विरोध में अर्थात् प्रतिकूल न बोलते हुए (सजातैः) समान जाति के [वरुण राजाओं द्वारा] (इद्ध:) प्रदीप्त (अयम्, अग्निः) यह युद्धाग्नि (दीर्घम्, एव) दीर्घ काल तक (दीदाायत) प्रदीप्त रहे।
टिप्पणी: [सोम सबिता= जात्येकवचन; सेनाओं के प्रेरक सब सेनाध्यक्ष (यजु० १७।४०)। मन्त्र में साम्राज्य के सेनाधिपति की उक्ति है, ‘नमोभिः’ का अभिप्राय है यथोचित संमानों पूर्वक। वसु आदि विद्वानों का आह्वान हुआ है परामर्श के लिये।]
[१. मैं शक्तिशाली, इस प्रकार की स्पर्धा में दो राजा जब युद्ध करने में प्रवृत्त हो जाते हैं।]
इ॒हेद॑साथ॒ न प॒रो ग॑मा॒थेर्यो॑ गो॒पाः पु॑ष्ट॒पति॑र्व॒ आज॑त् ।
अ॒स्मै कामा॒योप॑ का॒मिनी॒र्विश्वे॑ वो दे॒वा उ॑प॒संय॑न्तु ॥४॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः [हे प्रजाओं ! स्त्री-पुरुषों !] (इह इत्) यहाँ पर ही (असाथ) रहो, (परः) दूर (न) मत (गमाथ) जाओ, (इर्यः) अन्नवान् वा विद्यावान् (गोपाः) भूमि, वा विद्या वा गौ का रक्षक, (पुष्टपतिः) पोषण का स्वामी पुरुष (वः) तुमको (आ, अजत्) यहाँ लावे। (अस्मै) इस [पुरुष] के अर्थ (कामाय) कामना [की पूर्ति] के लिए (विश्वे) सब (देवाः) उत्तम-उत्तम गुण (कामिनीः) उत्तम कामनावाली (वः) तुम प्रजाओं को (उप) अच्छे प्रकार से (उपसंयन्तु) आकर प्राप्त हों ॥४॥
भावार्थः राजा राज्य की वृद्धि के लिए प्रजा अर्थात् स्त्री-पुरुषों को नगरों में बसावे और अन्नादि से पोषण करके शुभ गुणों के उपार्जन में सदा प्रवृत्त रक्खे ॥४॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: [हे प्रजााओं !] (इह इद्) इस निज राष्ट्र में ही (असाथ) तुम बने रहो, (पर: न गमाथ) राष्ट्र को छोड़कर परे न जाओ, (इर्यः) प्रेरक, (पुष्ठपतिः) पुष्टान्न का पति (गोपा:) पृथिवीपालक राजा (व:) तुम्हें (आजत्) यहीं रहने में प्रेरित करें (अस्मै कामाय) राजा की इस कामना के लिये (उपकामिनी:) राजा के समीप रहने की कामनावाली हो जाओ। (विश्वे देवाः) राष्ट्र के सब दिव्यजन (वः) तुम्हारे (उप) समीप (सं यन्तु) मिलकर आएं। [तुम्हें यहीं रहने को प्रेरित करने के लिये।]
टिप्पणी: ["अहमुत्तरत्व" की स्पर्धा में युद्धोपस्थित हो जाने, या इसकी सम्भावना में कई प्रजाजन निजराष्ट्र को छोड़कर परकीय किसी राष्ट्र में चले जाना चाहते हैं, इस विचार से कि उन्हें न जाने जीवनार्थ अन्न भी मिल सकेगा, या नहीं। प्रजा के कतिपय दिव्य नेता उन्हें कहते हैं कि पुष्टान्न का स्वामी राजा तुम्हें आश्वासन देता है कि राष्ट्र में प्रभूत अन्न है। इसलिये जीवनरक्षार्थ तुम राष्ट्र छोड़कर अन्यत्र न जाओ। ईर्यः= ईर गतौ, तुम्हारा प्रेरक या शत्रु को कंपा देनेवाला राजा (ईर गतौ कम्पने च) (अदादि:)।]
सं वो॒ मनां॑सि॒ सं व्र॒ता समाकू॑तीर्नमामसि ।
अ॒मी ये विव्र॑ता॒ स्थन॒ तान्वः॒ सं न॑मयामसि ॥५॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः [हे मनुष्यों !] (वः) तुम्हारे (मनांसि) मनों को (सम्) ठीक रीति से, (व्रता=व्रतानि) कर्मों को (सम्) ठीक रीति से, (आकूतीः) संकल्पों को (सम्) ठीक रीति से (नमामसि=०−मः) हम झुकते हैं। (अमी ये) यह जो तुम (विव्रताः) विरुद्ध कर्मी (स्थन) हो, (तान् वः) उन तुमको (सम्) ठीक रीति से (नमयामसि=०−मः) हम झुकाते हैं ॥५॥
भावार्थः प्रधान पुरुष सबके उत्तम विचारों, उत्तम कर्मों और उत्तम मनोरथों को माने और धर्मपथ में विरुद्ध मतवालों को भी सहमत कर लेवे ॥५॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (वः) तुम्हारे (मनांसि) मनों को (सम् नमामसि) हम परस्पर मिलाते हैं, (व्रता=व्रतानि) कर्मों को (सम्) परस्पर मिलाते हैं (आकूती:) संकल्पों को (सम्) परस्पर मिलाते हैं। (अमी) वे तुम (ये) जो (विव्रताः स्थन) परस्पर विरुद्ध कर्मोंवाले हो (तान् व:) उन तुमको (सम् नमयामसि) हम परस्पर मिलाते हैं।
टिप्पणी: [प्रजाजन दो विचारोंवाले हैं। कई तो राष्ट्र त्याग कर चले जाने के विचारवाले हैं। कई निज राष्ट्र में ही रहने के विचारवाले हैं। इस प्रकार वे परस्पर विरुद्ध विचारों तथा कर्मोंवाले हैं। राष्ट्र के दिव्यजन उन्हें एक मत करने के लिये यत्नवान् हैं। व्रतम् कर्मनाम (निघं० २। १)]
अ॒हं गृ॑भ्णामि॒ मन॑सा॒ मनां॑सि॒ मम॑ चि॒त्तमनु॑ चि॒त्तेभि॒रेत॑ ।
मम॒ वशे॑षु॒ हृद॑यानि वः कृणोमि॒ मम॑ या॒तमनु॑वर्त्मान॒ एत॑ ॥ ६॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (अहम्) मैं (मनसा) अपने मन से (मनांसि) तुम्हारे मनों को (गृभ्णामि= गृह्णामि) थामता हूँ, (मम) मेरे (चित्तम् अनु) चित्त के पीछे-पीछे (चित्तेभिः=चित्तैः) अपने चित्तों से (आ इत) आओ। (मम वशेषु) अपने वश में (वः हृदयानि) तुम्हारे हृदयों को (कृणोमि) मैं करता हूँ, (मम यातम्) मेरी चाल पर (अनुवर्त्मानः) मार्ग चलते हुए (आ इत) यहाँ आओ ॥६॥
भावार्थः प्रधान पुरुष अपने शुभ विचार और साहस से सब सभासदों और प्रजागणों को धर्म पथ पर चलाकर परस्पर मेल के साथ साहसी और उत्साही बनावे ॥६॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: [हे प्रजाजनो !] (मनांसि) तुम्हारे मनों को (मनसा) निज मन द्वारा (अहम्) मैं सम्राट् (गृभ्णामि) अपने अनुकूल करता हूं, (चित्तेभिः) निज चित्तों द्वारा (मम) मेरे (चित्तम्, अनु) चित्त के, अनुकूल हुए (एत) आया करो। [मुझे मिलने के लिए] (मम) मेरी (वशेषु) इच्छाओं में (वः) तुम्हारे (हृदयानि कृणोमि) हृदयों को मैं करता हूं, (मम) मेरे (यातम्) चलने के (अनुवत्मनि:) अनुवर्ती हुए (एत) आया करो।
टिप्पणी: [वशेषु=वश कान्तौ (अदादि), कान्ति=कामना, इच्छा।]
सूक्त ९
क॒र्शप॑स्य विश॒पस्य॒ द्यौः पि॒ता पृ॑थि॒वी मा॒ता ।
यथा॑भिच॒क्र दे॒वास्तथाप॑ कृणुता॒ पुनः॑॥१॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (कर्शफस्य) निर्बल का और (विशफस्य) प्रबल का (द्यौः) प्रकाशमान परमेश्वर (पिता) पिता और (पृथिवी) विस्तीर्ण परमेश्वर (माता) निर्मात्री, माता है। (देवाः) हे विजयी पुरुषों ! (यथा) जैसे [शत्रुओं को] (अभिचक्र) तुमने हराया था, (तथा) वैसे ही (पुनः) फिर [उन्हें] (अपकृणुत) हटा दो ॥१॥
भावार्थः जगत् के माता-पिता परमेश्वर ने वृष्टि द्वारा सूर्य और पृथिवी के संयोग से सब निर्बल और प्रबल जीवों को उत्पन्न किया है, इसलिये सब सबल और निर्बल मिलकर अविद्या, निर्धनता आदि शत्रुओं को मिटाकर आनन्द से रहें ॥१॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (कर्शफस्य१)= करशफस्य [सायण] शफ अर्थात खुरों द्वारा काम करनेवाले या खुररूपी "कर" अर्थात् हाथोंवाले का, (विशफस्य) तथा शफों से बिहीन का (पिता द्यौः) पिता है द्युलोक, (माता) तथा माता है (पृथिवी) पथिवी। (देवा:) द्यौः और पूथिवी आदि दिव्यतत्त्वों ने (यथा) जिस प्रकार (अभि चक्रे) हमारे संमुख यह सृष्टि पैदा की है, (तथा) उसी प्रकार (पुनः) फिर (अपकृणुत) तुम इस सृष्टि को अपकृत अर्थात् अपगत करो।
टिप्पणी: [प्राणी-सृष्टि दो प्रकार की है, खुरोंवाली तथा खुरों से रहित। दोनों प्रकार की सृष्टियाँ द्यूलोक तथा पुथिबी से उत्पन्न हुई हैं। जैसे ये उत्पन्न हुई हैं वैसे फिर अपगत होकर उत्पन्न होती रहेंगी। यह उत्पत्ति तथा प्रलय का चक्र अनादिकाल से चल रहा है।]
[१. करोति कर्माणि शफैः यः, सः कर्शफः, अश्वादिः। तथा शफैः विहीन: विशफ: मनुष्यादिः।]
अ॑श्रे॒ष्माणो॑ अधारय॒न्तथा॒ तन्मनु॑ना कृ॒तम् ।
कृ॒णोमि॒ वध्रि॒ विष्क॑न्धं मुष्काब॒र्हो गवा॑मिव ॥२।
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (अश्रेष्माणः) दाह [डाह] न करनेवाले पुरुषों ने [जगत् को] (अधारयन्) धारण किया है, (तथा) उसी प्रकार से ही (तत्) वह [जगत् का धारण] (मनुना) सर्वज्ञ परमेश्वर करके (कृतम्) किया गया है। (विष्कन्धम्) विघ्न को (वध्रि) निर्बल (कृणोमि) मैं करता हूँ, (गवाम् इव) जैसे बैलों के (मुष्काबर्हः) अण्डकोष तोड़नेवाला [बैलों को निर्बल कर देता है] ॥२॥
भावार्थः पक्षपातरहित परमेश्वर संसार का धारण-पोषण करता है, उसी प्रकार धर्मात्मा पुरुष किसीसे वैर न करके उपकार करते आये हैं, वैसे ही प्रत्येक मनुष्य विघ्नों को हटाकर उन्नति करे, जैसे दुर्दमनीय बैल को असह्यबल से हीन करके कृषि आदि में चलाते हैं ॥२॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (अश्रेष्मान:) न दुग्ध हुए तत्वों ने (अधारयन्) हमारा धारण-पोषण किया हुआ है, (तथा) उस प्रकार का (तत्) वह विधान (मनुना) मनस्वी परमेश्वर ने (कृतम्) किया है। (मुष्काबर्ह:) मुष्कों अर्थात् अण्डकोषों का हनन (इव गवाम्) जैसे बैलों का किया जाता है, वैसे (वध्रि) बधिया तथा (विष्कन्धम्) अवशोषण (कृणोमि) मैं कर देता हूँ [जगत् का]। बर्ह= हिंसायाम् (भ्वादिः)।
टिप्पणी: ['अश्रेष्माणः' जो प्रलय में दग्ध नहीं हुए उन्होंने हम सबका धारण-पोषण किया है। यह परमेश्वर ने विधान कर रखा है। परमेश्वर ही संसार का विधान करता और वह ही संसार को बधिया१ करता अर्थात् उत्पत्ति से रहित करता और अवशोषित करता है (प्रलय में); अश्रेष्माण:२ = अ+श्रिषु (दाह, भ्वादिः)। विष्कन्धम् = विशेषेण शोषणम्, (स्कन्दिर् शोषणे भ्वादिः)।]
[१. प्रलयकाल में जगत् शक्तिरहित हो जाता है, यह जगह का बधियापन है।
२. अश्रेष्माण:= दग्ध न होनेवाले तत्व तीन हैं, परमेश्वर, जीव और प्रकृति। प्रलयाग्नि भी इन्हें दग्ध नहीं कर सकती। इन तीनों ने जगत् का धारण-पोषण किया हुआ है। परमेश्वर तो कर्तृत्वरूप में जगत् का घर धारण-पोषण करता है। जीव निज कर्मों के फलस्वरूप भोगापवर्ग के लिए दृश्य जगत् की उत्पत्ति में कारण हुआ जगत् का धारण-पोषण करता है। प्रकृति तो साक्षात् रूप में दृश्य जगत् में परिणत हुई उसका धारण-पोषण कर रही है।]
पि॒शङ्गे॒ सूत्रे॒ खृग॑लं॒ तदा ब॑ध्नन्ति वे॒धसः॑ ।
श्र॑व॒स्युं शुष्मं॑ काब॒वं वध्रिं॑ कृण्वन्तु ब॒न्धुरः॑॥ ३॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (वेधसः) बुद्धिमान् पुरुष (पिशंगे) व्यवस्था वा अवयवों से युक्त वा दृढ़ (सूत्रे) सूत में (तत्) विस्तीर्ण (खृगलम्) खनती वा छिद्र में गलानेवाले, विघ्न को (आ) सब ओर से (बध्नन्ति) बाँधते हैं। (बन्धुरः=०−राः) बन्धुजन (श्रवस्युम्) प्रसिद्ध, (शुष्मम्) सुखानेवाले (काववम्) स्तुतिनाशक शत्रु को (बध्रिम्) निवीर्य (कृण्वन्तु) कर देवें ॥३॥
भावार्थः विद्वान् लोग वेद द्वारा छोटे-छोटों के मेल से बड़ी-२ विपत्तियों को हटा देते हैं, इससे सब बान्धव मिलकर बाहरी और भीतरी दोषों को मिटाकर सुख भोगें ॥३॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (पिशङ्गे)= नानावर्णी (सूत्रे) प्रकृतिरूपी सूत्र में, (वेधसः) विधातृ तत्त्व, (तत्) उस (खृगलम्) खर वस्तुओं का आस्रावण करनेवाले आदित्य को (आबध्नन्ति) द्युलोक में बांधे रखते हैं, उसे जोकि (श्रवस्युम्) विश्रुत है, (शुष्मम्) बलशाली है, (काववम्) रुपवान है, उसे विधातृतत्व (वध्रिम्) बधिया सदृश (कुर्वन्तु) करें, (बन्धुरः) जैसे कि बन्धुत्व सम्पन्न परमेश्वर, प्रलय में इसे बधिया कर देता है। "कृण्वन्तु" गर्मी के कारण व्याकुल हो जाने से यह याचना हुई है।
टिप्पणी: [प्रकृति नाना वर्णोंवाली है, लोहित, शुक्ल तथा कृष्णा है। यथा "अजामेकां लोहितशुक्लकृष्णां वह्वीः प्रजा: सृजमानां सरुपा:" (श्वेता० उप० अध्याय ४, संदर्भ ५)। इस प्रकृतिरूपी सूत्र में आदित्य आदि पिरोए हुए हैं, जैसेकि सूत्र में मणियां पिरोहित होती हैं। अथर्ववेद में प्रकृति को सूत्र और परमेश्वर को "सूत्रस्य सूत्रम्" कहा है (१०।८।३७, ३८)। शुष्मम् बलनाम (निघं० २।९)। अथवा शुष्मम्= सुखा देनेवाला, शुष शोषणे (दिवादि:), आदित्य की गर्मी सुखा देती है। काबवम्=रूपवान, कबृ वर्णे (भ्वादिः), काबवम्= कबृ+ अण्+ वः (मत्वर्थीयः) खृगलम्१= खर वस्तु है बर्फ आदि, गल=स्रवर्णे (चुरादिः), स्रवणम्=द्रवीभूत होना, बहना, गला देना।]
[१. खृगल है आदित्य। यह खर अर्थात् कठोर वस्तुओं को गला देता है, स्रवित अर्थात् द्रवीभूत कर देता है। पृथिवी के गेट में खर-पदार्थ पिगली-अवस्था में हैं, जोकि पृथिवी के उदगाररूप में पृथिवीतल पर प्रकट होते रहते हैं, और जो ज्वालामुखी पर्वतों द्वारा उत्क्षिप्त होते रहते हैं। पृथ्वी के पेट में वह गर्मी आदित्य की है। पथिती आग्नेय-आदित्य से ही प्रकट हुई है। अतः आदित्य को 'खुगल' कहा है। खृगल है खरगल, खर वस्तुओं को गला देनेवाला स्रवित अर्थात् द्रवीभूत कर देनेवाला। पृथिवी पर के पर्वत उत्क्षेपरूप ही है।]
येना॑ श्रवस्यव॒श्चर॑थ दे॒वा इ॑वासुरमा॒यया॑ ।
शुनां॑ क॒पिरि॑व॒ दूष॑णो॒ बन्धु॑रा काब॒वस्य॑ च ॥४॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (येन) जिस [बल] के साथ (श्रवस्यवः) हे प्रसिद्ध महापुरुषों ! (देवाः इव) विजयी लोगों के समान (असुरमायया) प्रकाशमान ईश्वर की बुद्धि से (चरथ) तुम आचरण करते हो, [उसी बल के साथ] (शुनाम्) कुत्तों के (दूषणः) तुच्छ जाननेवाले (कपिः इव) बन्दर के समान (बन्धुरा) बन्धनशक्ति [नीतिविद्या] (च) निश्चय करके (काववस्य) स्तुतिनाशक शत्रु की [तुच्छ करनेवाली होती है] ॥४॥
भावार्थः शास्त्रबल से प्रसिद्ध पुरुष अन्य महात्माओं का अनुकरण करके तीव्र बुद्धि के साथ उदाहरण बनते हैं, इसी प्रकार सब पुरुष नीतिबल से शत्रुओं पर प्रबल रहें, जैसे बन्दर वृक्ष पर चढ़कर कुत्तों से निर्भय रहता है ॥४॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: [हे प्रजाजनो !] (श्ववस्यवः) यश चाहने की इच्छावाले तुम (येन) जिस विधि से (चरथ) विचरते हो, (इव) जैसे की (असुरमाया) आसुरी माया से प्रेरित हुए (देवाः) देवकोटि के सज्जन विचरते हैं, (च) और (काबवस्य) रूप के (बन्धुराः) बन्धु हुए तुम विचरते है [वे तुम दूषित हो] (इव) जैसेकि (शुनाम्) कुत्तों में से (कपि:) बन्दर (दूषण:) दूषित होता है।
टिप्पणी: [जैसे सर्वसाधारणजन यश की इच्छा से विचरते हैं वैसे देवकोटि के राज्जन भी यदि आसुरीमाया से प्रेरित हुए विचरते हैं तो वे दुषित हो जाते हैं, क्योंकि वे रूप के बन्धु होते हैं। कुत्ते कामवासनाओंवाले होते हैं, परन्तु बन्दर उनकी अपेक्षया भी अधिक कामवासनावाला होता है, अतः वह दूषित है। बन्धुरा में विसर्गलोष छान्दस है। दूषणः कर्तरि ल्यूट (सायण)। देवकोटि के सज्जन भी आसुरीमाया के वशीभूत होकर कुपथ में प्रवृत्त हो जाते हैं, जैसेकि कवि ने कहा है कि,-"अपथे पदमर्पयन्ति हि गुणवन्तोऽपि रजोनिमीलिताः"।]
दुष्ट्यै॒ हि त्वा॑ भ॒त्स्यामि॑ दूषयि॒ष्यामि॑ काब॒वम् ।
उदा॒शवो॒ रथा॑ इव श॒पथे॑भिः सरिष्यथ ॥५॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (दुष्ट्यै) दुष्टता [हटाने] के लिए, (हि) ही (काववम्) स्तुति नाशक (त्वा) तुझको (भत्स्यामि) मैं बाँधूँगा और (दूषयिष्यामि) दोषी ठहराऊँगा। (आशवः) शीघ्रगामी (रथाः इव) रथों के समान (शपथेभिः=०−थैः) हमारे शाप अर्थात् दण्ड वचनों से (उत् सरिष्यथ) तुम सब बन्धन में चले जाओगे ॥५॥
भावार्थः राजा नाम में धब्बा लगानेवाले दुष्ट को कारागार में रखकर उसके दोष प्रसिद्ध कर दे और उसके सहायकों को भी उचित दण्ड देवे ॥५॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: [हे प्रजानन !] (दुष्ट्यै) तेरी दूषित वृत्ति के निवारण के लिये (त्वा) तुझे (भत्स्यामि) मैं कल्याणमार्गी बनाऊँगा, (काबवम्) रूपादि विषयोंवाले तुझको (दूषयिष्यामि) मैं विकृत कर दूंगा [पूर्वावस्था से विभिन्न अवस्था वाला कर दूंगा]। (उदाशवः) उन्नति के मार्ग पर शीघ्र चलनेवाले (रथा: इव) रथों के सदृश, (शपथेभी:) मेरे शपथों के कारण, (सरिष्यथ) तुम शीघ्रता से चल सकोगे।
टिप्पणी: [दुष्ट्यै = तुमर्थे चतुर्थी। भत्स्यामि= भदि कल्याणे सुखे च (भ्वादि:)। "शपथेभिः" द्वारा वक्ता ने निज दृढ़ संकल्प सूचित किया है, जिस द्वारा व्यक्ति शीघ्र कल्याणमार्ग में चल सकेगा। शपथेभिः= शपथों में दृढ़संकल्प होते हैं। यथा "अद्या मुरीय यदि यातुधानो अस्मि" (निरुक्त ७।१।३); तथा (अथर्व० ८।४।१५)।]
एक॑शतं॒ विष्क॑न्धानि॒ विष्ठि॑ता पृथि॒वीमनु॑ ।
तेषां॒ त्वामग्रे॒ उज्ज॑हरुर्म॒णिं वि॑ष्कन्ध॒दूष॑णम् ॥६ ॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (एकशतम्) एक सौ एक (विष्कन्धानि) विघ्न (पृथिवीम् अनु) पृथिवी पर (विष्ठिता=०−तानि) फैले हुए हैं [हे शूर !] (तेषाम् अग्रे) उनके सन्मुख (विष्कन्धदूषणम्) विघ्ननाशक (मणिम) प्रशंसनीय मणिरूप (त्वाम्) तुझको उन्होंने [देवताओं ने] (उत् जहरुः) ऊँचा उठाया है ॥६॥
भावार्थः प्रतिष्ठित लोग राजा को ‘एकशतम्’ अनेक विघ्नों से रक्षा के लिए अग्रगामी बनाते हैं, इसलिये राजा अपने धर्म का यथार्थ पालन करे ॥६॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (एकशतम्) एक सौ एक (विष्कन्धानि) शोषण (पृथिवीमनु) पृथिवी में (विष्ठिता) विविधरूप में स्थित हैं। (तेषाम्) उनके निवारण के लिए, (मणिम्१) तुझ पुरुष-रत्न को [देवों ने] (अग्रे) पहिले (उज्जहरुः) चुना है, (विष्कन्धदूषणम्) शोषकों के विनाशकरूप में।
टिप्पणी: [१. मणि = रत्न। (आप्टे)। रत्न="जातौ जातौ यदुत्कृष्टं तद्रत्नममिधीयते" (मल्लिनाथ)। मनुष्यों में उत्कृष्ट मनुष्य को भी मणि और रत्न कह सकते हैं, यथा चन्द्रमणि आदि।]
[विष्ठिता=विष्ठितानि। विष्कन्ध हैं रोग, जोकि शरीर और शारीरिक शक्तियों का शोषण कर देते हैं, "स्कन्दिर् गतिशोषणयोः" (भ्वादिः)। ये रोग १०१ हैं। मनुष्य का जीवन है शतायुः और एक वर्ष वह मातृयोनि में निवास करता है। जीवन वर्षों की संख्यानुसार शोषक रोगों को १०१ कहा है। उज्जहरु:=उत्+हृञ् हरणे (भ्वादिः), ऊपर की ओर हरण करना, ऊंचा करना, चुनना।]
सूक्त १०
प्र॑थ॒मा ह॒ व्यु॑वास॒ सा धे॒नुर॑भवद्य॒मे ।
सा नः॒ पय॑स्वती दुहा॒मुत्त॑रामुत्तरा॒म्समा॑म् ॥१॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (सा) वह [ईश्वरी वा लक्ष्मी] (प्रथमा) प्रसिद्ध वा पहली शक्ति [प्रकृति] (ह) निश्चय करके (वि, उवास) प्रकाशित हुई। वह (यमे) नियम में (धेनुः) तृप्त करनेवाली [वा गौ के समान] (अभवत्) हुई है। (सा) वह (पयस्वती) दुधेल [प्रकृति] (नः) हमको (उत्तराम्-उत्तराम्) उत्तम-उत्तम (समाम्) सम [समान वा निष्पक्ष] शक्ति से (दुहाम्) भरती रहे ॥१॥
भावार्थः इस सूक्त में ‘रात्रि’ म० और ‘एका-टका’ म० ५ दोनों शब्द प्रकृति के वाचक हैं। प्रकृति ईश्वरशक्ति वा जगत् की सामग्री, सृष्टि से पहिले विद्यमान थी, उसने ईश्वर नियम से [मन्त्र २ वा ८ देखो] विविध पदार्थ सूर्य, अन्नादि उत्पन्न किये हैं। विद्वान् लोग प्रकृति के विज्ञान और प्रयोग से अधिक-२ ऐश्वर्यवान् होते हैं ॥१॥ इस मन्त्र का उत्तरार्ध ‘सा नः पयस्वती’ ऋ० ४।५७।७ में हैं ॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (प्रथमा) सृष्टि के प्रारम्भ में पहली उषा ने (ब्युवास) तमस् अर्थात् अन्धकार को स्थानच्युत कर दिया, [विवासित कर दिया] (सा) वह उषा (यमे) दिन-रात के जोड़े में (धेनुः अभवत्) खाद्य-अन्न प्रदान करनेवाली हो गई। (सा) वह (न:) हमारे लिए (पयस्वती) दुग्धवाली हो गई, वह (उत्तराम्, उत्तराम्, समाम्) उत्तरोत्तर वर्षों में (दुहाम) दुग्ध बादि दोहन करे, प्रदान करे। समा=चान्द्रवर्ष (स+[चन्द्र]+मा), संवत्सर है सौरवर्ष।
यां दे॒वाः प्र॑ति॒नन्द॑न्ति॒ रात्रि॑म्धे॒नुमु॑पाय॒तीम् ।
सं॑वत्स॒रस्य॒ या पत्नी॒ सा नो॑ अस्तु सुमङ्ग॒ली ।।२।।
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (देवाः) महात्मा पुरुष, वा सूर्य, वायु चन्द्रादि दिव्य पदार्थ (उपायतीम्) पास आती हुई (धेनुम्) तृप्त करनेवाली (याम्) जिस (रात्रिम्) दानशीला और ग्रहणशीला शक्ति, वा रात्रिरूप [प्रकृति] को (प्रतिनन्दन्ति) अभिनन्दन करते [धन्य मानते] हैं और (या) जो (संवत्सरस्य) यथावत् निवास देनेवाले [परमेश्वर] की (पत्नी) पालनशक्ति है, (सा=सा सा) वह ईश्वरी (नः) हमारेलिये (सुमङ्गली) बड़े-२ मङ्गल करनेवाली (अस्तु) होवे ॥२॥
भावार्थः प्रकृति ईश्वरनियम से पदार्थों को उत्पन्न करके जीवों को सुख देकर उनका दुःख हरती है और अनन्त होने से वह रात्रि वा अन्धकाररूप है। विज्ञानी पुरुष खोज लगा-लगाकर उससे उपकार लेकर विविध उन्नति करते हैं ॥२॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (उपायतीम्) समीप आती हुई (याम्) जिस (धेनुम्, रात्रिम्) धेनुरूपा रात्री को [प्राप्त कर] (देवाः) दिव्य शक्तियां (प्रतिनन्दन्ति) समृद्ध होती हैं, तथा (या) जो रात्री (संवत्सरस्य पत्नी) संवत्सर की पत्नी है, (सा) वह (नः) हमें (सुमज्ली अस्तु) उत्तम-मङ्गलकारिणी हो।
टिप्पणी: [संवत्सर है सौर वर्ष। मन्त्र में समाम् द्वारा चान्द्रवर्ष का कथन हुआ है। सौर वर्ष का प्रारम्भ रात्री द्वारा कहा है। दिन, रात्री के १२ बजे की समाप्ति पर, आनेवाली रात्री के १२ बजे तक होता है। इस आनेवाली रात्री के पश्चात् दिन का प्रारम्भ होता है जोकि नववर्ष को प्रारम्भ करता है। इस नववर्ष के आते भूमण्डल की दिव्य शक्तियां समृद्ध होने लगती हैं। यह रात्री नववर्ष की पत्नी होती है, नववर्ष की दिव्य शक्तियों की उत्पादिका होती है। नन्दन्ति=टुनदि समृद्धौ (भ्वादिः)। इस प्रथमा रात्री को संवत्सर की पत्नी कहा है। इस प्रथमा रात्री से संवत्सर प्रारब्ध होता है, सम्भवतः यह अभिप्राय है।]
सं॑वत्स॒रस्य॑ प्रति॒मां यां त्वा॑ रात्र्यु॒पास्म॑हे ।
सा न॒ आयु॑ष्मतीं प्र॒जां रा॒यस्पोषे॑ण॒ सं सृ॑ज ॥३॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (रात्रि) हे सुखदात्री वा दुःखहर्त्री वा रात्रिरूप [प्रकृति] (संवत्सरस्य) यथावत् निवास देनेवाले परमेश्वर की (प्रतिमाम्) प्रतिमा [प्रतिरूप वा प्रतिनिधि] (याम्) सर्वत्र व्यापिनी (त्वा) तुझको (उपास्महे) हम भजते हैं। (सा) वह लक्ष्मी तू (नः) हमारेलिये (आयुष्मतीम्) चिरंजीविनी (प्रजाम्) प्रजा को (रायः) धन की (पोषेण) बढ़ती के साथ (संसृज) संयुक्त कर ॥३॥
भावार्थः अनन्त परमेश्वरी प्रकृति के सूक्ष्म और स्थूलरूप के ज्ञान से उपकार लेकर हम अपनी सन्तान के सहित धनी, स्वस्थ और चिरंजीवी बने रहें ॥३॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (रात्रि) हे रात्रि ! (याम् त्वा) जिस तुझको (संवत्सरस्य) सौरवर्ष की (प्रतिमाम्) प्रतिकृति रूप में, या निर्मात्रीरूप में (उपास्महे) हम उपासित१ करते हैं, (सा) वह तूं (नः प्रजाम्) हमारी पुत्र-पौत्र आदि सन्तान को (आयुष्मतीम्) प्रशंसित आयुवाली (रायस्पोषेण) तथा सम्पत्ति की पुष्टि के (सं सृज) साथ सम्बद्ध कर ।
टिप्पणी: [रात्री सौर वर्ष की पत्नी है, निर्मात्री है (देखो मन्त्र २ की व्याख्या। आयुष्मतीम्= प्रशंसार्थे मतूप्। उपास्महे= आसना परमेश्वर की को जाती है, ध्यान में उसके समीप बैठा जाता है। उप (समीप)+ आस (उपवेशने) बैठना। मन्त्र में रात्रि के समीपस्थ होने का निर्देश हुआ है, जोकि नववर्ष की पहली रात्री है। इस रात्री में प्रसन्नता प्रकट करना इसकी उपासना है।]
[१. अथवा रात्रीमुपाश्रित्य परमात्मानमुपाास्य है ।]
इ॒यमे॒व सा या प्र॑थ॒मा व्यौछ॑दा॒स्वित॑रासु चरति॒ प्रवि॑ष्टा ।
म॒हान्तो॑ अस्यां महि॒मानो॑ अ॒न्तर्व॒धूर्जि॑गाय नव॒गज्जनि॑त्री ॥४॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (इयम् एव) यही (सा) वह ईश्वरी, [रात्रि, प्रकृति] है (या जो प्रथमा) प्रथम (वि-औच्छत्) प्रकाशमान हुई है और (आसु) इन सब और (इतरासु) दूसरी [सृष्टियों] में (प्रविष्टा) प्रविष्ट होकर (चरति) विचरती है। (अस्याम अन्तः) इसके भीतर (महान्तः) बड़ी-२ (महिमानः) महिमायें हैं। उस (नवगत्) नवीन-२ गतिवाली (वधूः) प्राप्ति योग्य (जनित्री) जननी ने [अनर्थों को] (जिगाय) जीत लिया है ॥४॥
भावार्थः परमाणुरूपा प्रकृति जगत् के सब पदार्थों में प्रविष्ट है। विद्वान् लोग जैसे-२ खोजते हैं, उसकी नवीन-२ शक्तियों का प्रादुर्भाव करके सुख पाते हैं ॥४॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (इयम् एव सा) यह ही वह (प्रथमा) पहली उषा है (या) जिससे कि (इतरासु प्रविष्टा) अन्य उषाओं में प्रविष्ट होकर (व्यौच्छत्) तमस् का निरसन किया है, (चरति) और उनमें विचरती है। (अस्याम् अन्तः) इस पहली उषा के भीतर (महान्तः महिमानः) अपरिमित महिमाएँ हैं, (जिगाय) अत: यह विजेत्री हुई है, जैसेकि (नवगत वधू) पतिगृह में नई-नई गई वधू, (जनित्री) सन्तानोत्पादिका बनकर, विजयवाली हो जाती है।
टिप्पणी: [सृष्टि के प्रारम्भ में प्रकट हुई पहली उषा ही मानो तदनन्तर प्रकट हुई उषाओं में प्रकट हो रही है। इन सब उषाओं के स्वरूपों में साम्य है। अतः इन उषाओं में प्रथमोत्पन्न उषा का प्रकट होना कहा है। नववधू सन्तानोत्पादन कर, पतिगृहवासियों को प्रसन्न कर, उनके मनों पर विजय पा लेती है, क्योंकि यह वंशपरम्परा को जारी रखने में सहायिका हुई है।]
वा॑नस्प॒त्या ग्रावा॑णो॒ घोष॑मक्रत ह॒विष्कृ॒ण्वन्तः॑ परिवत्स॒रीण॑म् ।
एका॑ष्टके सुप्र॒जसः॑ सु॒वीरा॑ व॒यं स्या॑म॒ पत॑यो रयी॒णाम्।।५।।
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (वानस्पत्याः) वनस्पति अर्थात् सेवकों वा सेवनीय गुणों के रक्षक परमेश्वर से सम्बन्धवाले (ग्रावाणः) सूक्ष्मदर्शी, स्तोता पुरुषों ने, (परिवत्सरीणम्) परिवत्सर, सब प्रकार निवास देनेवाले परमेश्वर से सिद्ध किये हुए (हविः) ग्राह्य वस्तु को (कृण्वन्तः) उत्पन्न करते हुए, (घोषम्) ध्वनि (अक्रत) की है। “(एकाष्टके) हे अकेली व्याप्तिवाली वा अकेली भोजन स्थानशक्ति [प्रकृति] ! (वयम्) हम लोग (सुप्रजसः) उत्तम सन्तानवाले, (सुवीराः) उत्तम वीरोंवाले और (रयीणाम्) सब प्रकार के धनों के (पतयः) पति (स्याम्) होवें” ॥५॥
भावार्थः ऋषि-मुनि प्रकृति द्वारा परमेश्वर रचित पदार्थों के गुणों के ज्ञान और प्रयोग से सब प्रकार का सुख भोगते हैं। इसी प्रकार सब मनुष्य उद्योग करके आनन्द भोगें ॥५॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (परिवत्सरीणम्) संवत्सर भर पैदा किये जानेवाले (हविः कृण्वन्त) खाद्यान्न के उत्पादक, तथा (वानस्पत्याः) वनों के अधिपतियों अर्थात् महाकाय वृक्षों के उत्पादक (ग्रावाण:) मेघों ने (घोषम्) गर्जना (अक्रत) की है। (एकाष्टके) हे माघकृष्णाष्टमी! (सुप्रजसः) उत्तम संतानोंवाले तथा (सुवीराः) उत्तम वीर (वयम्) हम, (रयीणाम्) सम्पत्तियों के (पतय: स्याम) स्वामी हों।
टिप्पणी: [हविः=हु दानाक्षनयोः (जुहोत्यादिः), अदन अर्थ अभिप्रेत है, अर्थात अदनीय अन्न। ग्रवाण:= ग्रावा मेघनाम (निघं० १।१०)। मेघ की वर्षा द्वारा वनस्पतियां तथा अदनीय अन्न पैदा होते हैं। माघकृष्णाष्टमी से इसकी पत्नी और पति संवत्सर का प्रारम्भ होता है [मन्त्र २, ८]। एकाष्टका=माघकृष्णाष्टमी (मन्त्र १२, सायण)।]
इडा॑यास्प॒दं घृ॒तव॑त्सरीसृ॒पं जात॑वेदः॒ प्रति॑ ह॒व्या गृ॑भाय।
ये ग्रा॒म्याः प॒शवो॑ वि॒श्वरू॑पा॒स्तेषां॑ सप्ता॒नां मयि॒ रन्ति॑रस्तु ॥६॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (जातवेदः) हे उत्पन्न पदार्थों के ज्ञानवाले पुरुष ! (इडायाः) प्राप्ति योग्य [प्रकृति] के (घृतवत्) सारयुक्त और (सरीसृपम्) अत्यन्त रेंगते हुए (पदम् प्रति) पद से (हव्या=हव्यानि) देने-लेने योग्य वस्तुओं को (गृभाय) ग्रहण कर। (ये) जो (ग्राम्यः) ग्राम निवासी, (विश्वरूपाः) नानारूपवाले (पशवः) व्यक्त और अव्यक्त वाणीवाले जीव हैं। (तेषाम्) उन सब (सप्तानाम्) आपस में मिले हुए प्राणियों की (रन्तिः) प्रीति वा क्रीड़ा (मयि) मुझमें (अस्तु) होवे ॥६॥
भावार्थः सृष्टिविद्या में निपुण पुरुष संसार के पदार्थों से विज्ञान द्वारा उपकार लेकर सब प्राणियों को सुखी रखकर आप सुखी रहते हैं ॥६॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (इडाया:१) स्तुत्या [एकाष्टका को] (पद्म२) गति (घृतवत्३ सरीसृपम्४) पिघले घृत के सदृश अति सर्पणवाली है, (जातवेदः) हे जातप्रज्ञ परमेश्वर ! तू (हव्या=हवींषि) हमारी प्रदत्त हव्या को (प्रतिगृभाय) ग्रहण कर। (ये) जो (विश्वरूपाः) नानारूपाकृतियोंवाले (ग्राम्याः पशवः) ग्राम के पशु हैं, (तेषाम्, सप्तानाम्) उन सात का (रन्तिः) रमण (मयि अस्तु) मुझमें हो [यह प्रार्थना की गई है।]
टिप्पणी: [प्रकरण के अनुसार इडा का अर्थ एकाष्टका प्रतीत होता है (मन्त्र ५)। एकाष्टका की गति अति-सर्पणशील है। परमेश्वर के प्रति प्रकृतिजन्य हवियों को समर्पित कर, उसे ग्रहण करने की प्रार्थना की है। ग्राम के सात पशु हैं गौ, अश्व, अजा, अवि, पुरुष, गर्दभ अौर उष्ट्र (सायण)। फलरूप में इनका रमण चाहा है। एकाष्टका है माघकृष्णाष्टमी (सायण), (अथर्व० १०।५।१)]
[१. इडा= ईड स्तुतौ, दीर्घ ईकार का ह्रस्वत्व छान्दस है।
२. पद्म= पद गतौ अर्थात् गति, विचलन।
३. घुतवत्= घृतम् उदकनाम (निघं० १।१२)।
४. सरीसृपम्= उदकवत् अति सर्पणशील; यङ्लुगन्तरूप।
ज्योतिष सिद्धान्तानुसार भूमध्यरेखा तथा क्रान्तिवृत्त के मेल अर्थात् परस्पर कटाव के बिन्दुओं का जब संक्रमण होता है तो यह संक्रमण शनैः-शनै: इन बिन्दुओं पर पूर्वापेक्षया कुछ शीघ्र पहुँच जाता है। इसे "Precession of equinoxes" कहते हैं। Equinoxes का अर्थ है "दिन और रात का बराबर हो जाना।" यह बराबर होना राशिचक्र में पश्चिम से पूर्व की ओर होता रहता है। राशियों का क्रम है, मेष, वृष, मिथुन आदि, और इनका विपरीत क्रम है, मीन, कुम्भ, मकर बादि। Equinoxes की गति इस विपरीत क्रम में होती रहती है। इस गति का प्रभाव एकाष्टका पर भी होता है। इसे "सरीसृपम्" द्वारा निर्दिष्ट किया है। एकाष्टका = माघकृष्णाष्टमी (सायण)।]
आ मा॑ पु॒ष्टे च॒ पोषे॑ च॒ रात्रि॑ दे॒वानां॑ सुम॒तौ स्या॑म ।
पू॒र्णा द॑र्वे॒ परा॑ पत॒ सुपू॑र्णा॒ पुन॒रा प॑त ।
सर्वा॑न्य॒ज्ञान्त्सं॑भुञ्ज॒तीष॒मूर्जं॑ न॒ आ भ॑र ॥७।।
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (रात्रि) हे सुख देनेवाली वा दुःख हरनेवाली, वा रात्रीरूप [प्रकृति] (पुष्टे) धन की समृद्धि (च) और (पोषे) अन्नादि की वृद्धि में (च) निश्चय करके (मा) मुझको (आ=आ भर) भर दे, [जिससे] (देवानाम्) देवताओं की (सुमतौ) सुमति में (स्याम) हम रहें। (दर्वे) हे दुःख दलनेवाली ! [वा चमसारूप !] (पूर्णा) भरी-भराई (परापत) ऊपर आ और (पुनः) बार-२ (सुपूर्णा) भले प्रकार भरी-भराई (आ पत) पास आ ! (सर्वान्) सब (यज्ञान्) पूजनीय गुणों का (सम्भुञ्जती) ठीक-ठीक पालन करती हुई तू (इषम्) अन्न और (ऊर्जम्) बल (नः) हमें (आ भर) लाकर भर दे ॥७॥
भावार्थः मनुष्य सृष्टि के पदार्थों के गुण साक्षात् करके जितना-२ आगे बढ़ता है, उतना-२ ही वह धनी और बली होकर देवताओं का प्रिय होता और आनन्द भोगता है ॥७॥ ‘पूर्णा दर्वे.... पुनरापत’ इतना भाग यजुर्वेद अ० ३।४९ में है, वहाँ ‘दर्वे’ के स्थान पर ‘दर्वि’ पद है ॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (रात्रि) हे रात्रि ! (मा) मुझे (पुष्टे च पोषे च) पुष्ट पदार्थों में, और [उन द्वारा प्राप्त] पुष्टि में (आ) आस्थापित कर, ताकि (देवानाम्) दिव्य व्यक्तियों की (सुमतौ) सुमति में (स्याम) हम हों। (दर्वे) हे दारु द्वारा निर्मित कड़छी! (परापत) अग्नि की ओर तु जा गिर, तदनन्तर (सुपूर्णा) और अभिमत फलों से पूर्ण हुई, भरी हुई (पुनः) फिर (आ पत) हमारी ओर आ गिर। (सर्वान यज्ञान्) सब यज्ञों को (संभुञ्जती) सम्यक सफल करती हुई (नः) हमारे लिये (इषम्) अभीष्ट अन्न, (च) और (ऊर्जम्) बल और प्राण (आ भर=आ हर) ला।
टिप्पणी: [रात्री है संवत्सर की प्रथमा रात्री, जिस रात्री से संवत्सर का प्रारम्भ होता है। उस रात्री में सांवत्सरिक यज्ञ करना चाहिए (मन्त्र ५)। इस यज्ञ में यज्ञकर्त्ताओं को दिव्य व्यक्तियों की सुमति के अनुसार जीवनचर्या करनी चाहिए। घृत तथा हवियों को यज्ञाग्नि में डालने के लिए दारुनिर्मित कड़छी चाहिए, ताकि आहुतियाँ प्रभूतमात्रा में दी जा सकें, कड़छी को पूर्ण भरकर आहुतियां दी जा सकें, उसका फल भी प्रभुत होगा। सब यज्ञों के पूर्णतया परिपालित होने पर हमें अभीष्ट अन्न और उस द्वारा बल और प्राणशक्ति प्राप्त होगी। ऊर्ज बलप्राणनयोः (चुरादिः)। भुञ्जती = भुज पालने (रुधादिः), भोजन से पालन होता ही है। यज्ञों और यज्ञियाग्नियों को समुचित भोजन मिलने पर ये भी परिपालित होंगे।]
आयम॑गन्त्संवत्स॒रः पति॑रेकाष्टके॒ तव॑ ।
सा न॒ आयु॑ष्मतीं प्र॒जां रा॒यस्पोषे॑ण॒ सं सृ॑ज ।।८॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (एकाष्टके) अकेली व्यापक रहनेवाली, वा अकेली भोजन स्थानशक्ति ! [प्रकृति] (अयम्) यह (संवत्सरः) यथावत् निवास देनेवाला, (तव) तेरा (पतिः) पति वा रक्षक [परमेश्वर] (आ अगन्) प्राप्त हुआ है। (सा) लक्ष्मी तू (नः) हमारेलिए (आयुष्मतीम्) बड़ी आयुवाली (प्रजाम्) प्रजा को (रायः) धन की (पोषेण) बढ़ती के साथ (संसृज) संयुक्त कर ॥८॥
भावार्थः विद्वान् साक्षात् कर लेते हैं कि परमेश्वर ही प्रकृति, जगत् सामग्री का स्वामी अर्थात् उसके अंशों का संयोजक और वियोजक है और प्रकृति के यथावत् प्रयोग से मनुष्य अपनी सन्तान सहित चिरंजीवी और धनी होते हैं ॥८॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (एकाष्टके) हे एकाष्टका की रात्री! (अयम्) यह (तव पतिः) तेरा पति (संवत्सरः) सौर वर्ष (आ अगन्) आ गया है। (सा) वह तू (न: प्रजाम्) हमारी प्रजा को (आयुष्मतीम्) दीर्घायु कर और (रायस्पोषण) धन की पुष्टि के साथ (संसृज) उसका संसर्ग अर्थात् सम्बन्ध कर।
टिप्पणी: [ मंत्र (२) में रात्री को संवत्सर की पत्नी कहा है, अतः संवत्सर है उसका पति। व्याख्या के लिये देखो मन्त्र (२)।]
ऋ॒तून्य॑ज ऋतु॒पती॑नार्त॒वानु॒त हा॑य॒नान् ।
समाः॑ संवत्स॒रान्मासा॑न्भू॒तस्य॒ पत॑ये यजे ॥९॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (ऋतून्) ऋतुओं, (ऋतुपतीन्) ऋतुओं के स्वामियों [सूर्य, वायु आदिकों], (आर्तवान्) ऋतुओं में उत्पन्न होनेवाले (हायनान्) पाने योग्य चावल आदि पदार्थों से (संवत्सरान्) यथाविधि निवास देनेवाले (मासान्) कर्मों के नापनेवाले महीनों (उत) और (समाः) सब अनुकूल क्रियाओं को (भूतस्य) सत्ता में आये हुए जगत् के (पतये) पति के (यजे यजे) मैं बार-बार अर्पण करता हूँ ॥९॥
भावार्थः तत्त्वज्ञानी पुरुष ग्रीष्म, वर्षा, शीतादि ऋतुओं और उनके कारण सूर्य, चन्द्र, वायु, पृथिवी आदि एवं संसार के अन्य पदार्थों तथा क्रियाओं का आदि कारण जगत् पिता परमेश्वर को मानते और उसका धन्यवाद करते हैं ॥९॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (ऋतून् यजे) मैं ऋतूयज्ञ करता हूँ, (ऋतुपतीन्) ऋतुओं के पतियों को, (आर्तवान्) ऋतुओं के समूहों या अवयवों को, (उत) तथा (हायनान्=सायनान) अयनोंवाले आयनवर्षों को, (समाः) चान्द्रवर्षों को, (संवत्सरान्) सौरवर्षों को, (मासान्) मासों को [लक्ष्य कर] यज्ञ करता हूँ। (भूतस्य पतये) और भौतिक जगत् के पति अर्थात् परमेश्वर का (यजे) मैं यजन करता हूँ।
टिप्पणी: [संवत्सर की पहली रात्री से प्रारम्भ कर प्रत्येक ऋतु तथा मास में यज्ञ करने का विधान हुआ है। ये यज्ञ भौतिक जगत् के पति परमेश्वर की प्रसन्नता के लिये हैं। दो अयनों के मेल से हायन होता है। दो अयन हैं उत्तरायण तथा दक्षिणायन। हायन है सायन, यथा सिन्धु है हिन्दु। सकार को हकार प्रायः हो जाता है। ऋतुपति हैं अग्नि, वायु, विद्युत्, मेघ, आदित्य आदि।]
ऋ॒तुभ्य॑ष्ट्वार्त॒वेभ्यो॑ मा॒द्भ्यः सं॑वत्स॒रेभ्यः॑ ।
धा॒त्रे वि॑धा॒त्रे स॒मृधे॑ भू॒तस्य॒ पत॑ये यजे॥१०॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः [हे काष्टके प्रकृति !] (त्वा) तुझको (ऋतुभ्यः) ऋतुओं के लिए, (आर्तवेभ्यः) ऋतुओं में उत्पन्न पदार्थों के लिए, (माद्भ्यः) महीनों के लिए और (संवत्सरेभ्यः) यथावत् निवास देनेवाले वर्षों के [सुधार के] लिए, (धात्रे) धारण करनेवाले, (विधात्रे) रचनेवाले, (समृधे) यथा नियम बढ़ानेवाले (भूतस्य) जगत् के (पतये) पति के लिए (यजे) मैं समर्पण करता हूँ ॥१०॥
भावार्थः परमेश्वर नियम से जगत् की उत्पन्न करनेवाली प्रकृति की चेष्टाओं को सब ऋतुओं में देखते हुए विद्वान् लोग अपने समय को उपकार में लगाते हैं ॥१०॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (त्वा) तुझे (ऋतुभ्यः) ऋतुओं [की पुष्टि के] लिये, (आर्तर्वेभ्यः) ऋतुओं के समूह या अवयवों [की पुष्टि] के लिये, (माद्भ्यः) मासों [की पुष्टि के] लिये, (संवत्सरेभ्यः) संवत्सरों [की पुष्टि के] लिये, (धात्रे) तथा धारणपोषण करनेवाले के लिये, (विधात्रे) जगत् का विधिविधान करनेवाले के लिये, (समृधे) सब की समृद्धि के लिये, (भूतस्य पतये) भूत-भौतिक जगत् के स्वामी परमेश्वर [की प्रसन्नता] के लिये (यजे) मैं यज्ञ करता हूँ।
टिप्पणी: [त्वा=तुझे लक्ष्य करके, अर्थात संवत्सर की रात्री को लक्ष्य करके, अर्थात् संवत्सर की पहली रात्री से मैं यज्ञ प्रारम्भ करता हूँ।]
इड॑या॒ जुह्व॑तो व॒यं दे॒वान्घृ॒तव॑ता यजे ।
गृ॒हानलु॑भ्यतो व॒यं सं॑ विशे॒मोप॒ गोम॑तः॥११॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (इडया) स्तुतियोग्य प्रकृति [की विद्या] से (घृतवता=घृतवता कर्मणा) सारयुक्त [कर्म] के द्वारा (जुह्वतः) होम [आत्मदान] करनेवाले (देवान्) देवताओं को (वयम्) हम (यजे=यजामहे) पूजते हैं [जिससे] (अलुभ्यतः) तृष्णारहित [सर्वथा भरे-पूरे] और (गोमतः) बहुत सी उत्तम-२ गौओंवाले (गृहान्) घरों में (उप=उपेत्य) आकर (वयम्) हम (संविशेम) सुख से रहें ॥११॥
भावार्थः संसार के ज्ञान से उत्तम कामों में आत्मदान करनेवाले महात्माओं के हम आदरपूर्वक अनुगामी बनें और सब कामनाओं तथा घृत दुग्धादि पोषक पदार्थों को प्राप्त करके आनन्द भोगें ॥११॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (घृतवता इडया) घृतसम्पृक्त अन्न द्वारा (वयम्) हम (जुहूत:) आहुतियाँ देते हुए (देवान्) अग्नि आदि देवों का [यजन करते हैं], (यजे) मैं प्रत्येक गृहस्थी भी यज्ञ करता हूं। (अलुभ्यतः वयम्) निर्लोभी हुए हम (गोमतः) गौओंवाले (गृहान्) घरों में (उप) उपस्थित हुए (सं विशेम) मिलकर प्रवेश करें।
टिप्पणी: [नवनिर्मित गृहों में प्रवेश करने का कथन हुआ है। प्रवेश के लिये सबको अर्थात् प्रत्येक को गृहप्रवेश संस्कार करना चाहिए। गृहों में गोसम्पत्ति होनी चाहिए। गृहस्थियों को निर्लोभी होना चाहिए, ताकि भिक्षुकों और अतिथियों का वे सत्कार कर सकें। इडा= अन्न (निघं० २।७) अन्नाहुतियां घृतसम्पृक्त होनी चाहिए। सम्भवतः मन्त्र में नवसस्येष्टि का भी विधान हुआ है।]
ए॑काष्ट॒का तप॑सा त॒प्यमा॑ना ज॒जान॒ गर्भं॑ महि॒मान॒मिन्द्र॑म् ।
तेन॑ दे॒वा व्य॑सहन्त॒ शत्रू॑न्ह॒न्ता दस्यू॑नामभव॒च्छची॒पतिः॑ ॥१२॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (एकाष्टका) अकेली व्यापक रहनेवाली वा अकेली भोजन स्थानशक्ति [प्रकृति] ने (तपसा) बड़े ऐश्वर्यवाले ब्रह्मद्वारा (तप्यमाना) ऐश्वर्यवाली होकर (गर्भम्) स्तुतियोग्य, (महिमानम्) पूजनीय (इन्द्रम्) परम ऐश्वर्यवाले जीव को (जजान) प्रकट किया। (तेन) उस [इन्द्र, जीव] के द्वारा (देवाः) प्रकाशमान इन्द्रियों ने (शत्रून्) शत्रुओं [दोषों] को (वि) विविध प्रकार से (असहन्त) हराया है और (शचीपतिः) वाणियों वा कर्मों वा बुद्धियों का पति [इन्द्र, जीव] (दस्यूनाम्) दस्युओं को (हन्ता) मारनेवाला (अभवत्) हुआ है ॥१२॥
भावार्थः मनुष्य ईश्वरनियम से प्रकृति के संयोग-वियोग से शरीर पाकर इन्द्रियों द्वारा परीक्षा करके दोषों का त्याग और गुणों का ग्रहण करके आनन्द भोगते और भुगाते हैं ॥१२॥
‘तपस्’ शब्द ब्रह्म वा परमेश्वरवाची है, जैसे−“ओं तपः। ओं सत्यम्” प्राणायाम मन्त्र में है। ऋग्वेद मण्डल १० सूक्त १९० मन्त्र १ में भी ऐसा वर्णन है ॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (एकाष्टका) एकाष्टका ने, (तपसा तप्यमाना) अर्थात् तप द्वारा प्रतप्त हुई ने, (गर्भम् जजान) गर्भ को जन्म दिया, (महिमानम् इन्द्रम्) अर्थात् महिमासम्पन्न आदित्य को। (तेन) उस आदित्य द्वारा (देवाः) दिव्यतत्त्वों ने (शत्रून व्यसहन्त) शत्रुओं का विशेषतया पराभव किया, अतः (शचीपतिः) शक्तियों का अधिपति आदित्य (दस्युनाम हन्ता अभवत्) अपक्षयकारियों का हनन करने वाला हुआ।
टिप्पणी: [एकाष्टका है माघकृष्णाष्टमी (सायण, मन्त्र १२)। पौषमास तक आदित्य दक्षिण तक जाता रहता है। माघमास से आदित्य की गति उत्तरायण की ओर हो जाती है, और क्रमशः उत्तरोत्तर गति करता हुआ अधिकाधिक गर्म होता जाता है। यह स्थिति है एकाष्टका की गर्मी को गर्भरूप में धारण करने की। तदनन्तर गर्मी के अधिक बढ़ जाने पर आदित्य को एकाष्टका जन्म देती है। एकाष्टका के "तपसा तप्यमाना जजान" का यह अभिप्राय प्रतीत होता है। इन्द्र है परमैश्वर्यवान् आदित्य। आदित्य का पूर्णरूप में प्रतप्त हो जाना उसका परम ऐश्वर्य है। ऐसे आदित्य को राहायता द्वारा दिव्य शक्तियां अन्धकार तथा शैत्यरूपी शत्रुओं का पराभव करती हैं।]
इन्द्र॑पुत्रे॒ सोम॑पुत्रे दुहि॒तासि॑ प्र॒जाप॑तेः ।
कामा॑न॒स्माकं॑ पूरय॒ प्रति॑ गृह्णाहि नो ह॒विः॥१३ ॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (इन्द्रपुत्रे) हे सूर्य जैसे पुत्रवाली ! (सोमपुत्रे) हे चन्द्रमा जैसे पुत्रवाली ! [प्रकृति] तू (प्रजापतेः) प्रजारक्षक परमेश्वर के (दुहिता) कार्यों की पूर्ण करनेवाली (असि) है, (अस्माकम्) हमारे (कामान्) मनोरथों को (पूरय) पूर्ण कर, (नः) हमारी (हविः) भक्ति को (प्रति गृह्णाहि) स्वीकार कर ॥१३॥
भावार्थः परमेश्वर ने प्रकृति से सूर्य-चन्द्रादिलोक और बड़े-बड़े प्रतापी तथा उपकारी मनुष्य उत्पन्न किये हैं, उस प्रकृति की शक्तियों के ज्ञान और प्रयोग से संसार की भलाई चाहनेवाले पुरुष अपनी कामनायें पूरी करते हैं ॥१३॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: हे एकाष्टका ! तु इन्द्रपुत्रवाली है, सोमपुत्रवाली है, प्रजापति परमेश्वर की तू दुहिता है। (अस्माकम्, कामान्) हमारी कामनाओं को (पूरय) पूरी कर, सफल कर। (न:) हमारी (हवि) हवि को (प्रति गृह्णाहि) स्वीकार कर।
टिप्पणी: [एकाष्टका अर्थात् माघ कृष्णाष्टमी के दो पुत्र हैं इन्द्र अर्थात् आदित्य और सोम अर्थात् चन्द्रमा। आदित्य तो दिन में और चन्द्रमा रात्री में प्रकाश देकर हमारी कामनाओं को पूर्ण करता है, दिन और रात्री में की गई कामनाओं को ये दोनों पूर्ण करते हैं, सफल करते हैं। एकाष्टका प्रजाओं-के-पति परमेश्वर की दुहिता है, परमेश्वर की कामनाओं का दोहन करती है “दुहिता दोग्धतेर्वा”(निरुक्त ३/१/३) परमेश्वर की कामना है प्राणियों को सृष्ट्युत्पादन द्वारा भोगापवर्ग का प्रदान। परमेश्वर की इस कामना द्वारा हम प्राणियों की कामनाएं पूर्ण हो रही हैं, सफल हो रही हैं। हविः है माघकृष्णाष्टमी पर किये गये यज्ञ की हविः।]
॥ इति द्वितीयोऽनुवाकः ॥
सूक्त ११
मु॒ञ्चामि॑ त्वा ह॒विषा॒ जीव॑नाय॒ कम॑ज्ञातय॒क्ष्मादु॒त रा॑जय॒क्ष्मात्।
ग्राहि॑र्ज॒ग्राह॒ यद्ये॒तदे॑नं॒ तस्या॑ इन्द्राग्नी॒ प्र मु॑मुक्तमेनम् ॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः [हे प्राणी !] (त्वा) तुझको (हविषा) भक्ति के साथ (कम्) सुख से (जीवनाय) जीवन के लिए (अज्ञातयक्ष्मात्) अप्रकट रोग से (उत) और (राजयक्ष्मात्) राज रोग से (मुञ्चामि) मैं छुड़ाता हूँ। (यदि) जो (ग्राहिः) जकड़नेवाली पीड़ा [गठियारोग] ने (एतत्) इस समय में (एनम्) इस प्राणी को (जग्राह) पकड़ लिया है, (तस्याः) उस [पीड़ा] से (इन्द्राग्नी) हे सूर्य और अग्नि ! (एनम्) इस [प्राणी] को (प्र मुमुक्तम्) तुम छुड़ाओ ॥१॥
भावार्थःसद्वैद्य गुप्त और प्रकट रोगों से विचारपूर्वक रोगी को अच्छा करता है, ऐसे ही प्रत्येक मनुष्य (इन्द्राग्नी) सूर्य और अग्नि अर्थात् सूर्य से लेकर अग्नि पर्यन्त अर्थात् दिव्य और पार्थिव सब पदार्थों से उपकार लेकर, अथवा सूर्य और अग्नि के समान तेजस्वी विद्वानों से मिलकर, अपने दोषों को मिटाकर यशस्वी होवे ॥१॥
इस मन्त्र का मिलान अथर्व० का० २ सू० ९ मं० १ से करो ॥
मन्त्र १-४ ऋग्वेद १०।१६१।१-४ में कुछ भेद से और फिर अथर्व० २०।९६।६-९ में हैं। ऋग्वेद में इस सूक्त ऋषि “प्राजापत्यो यक्ष्मनाशनः” और देवता “राजयक्ष्मघ्नम्” है ॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: [हे रुग्ण!] (त्वा) तुझे, (कम् जीवनाय)१ सुखी जीवन के लिए, (अज्ञातयक्ष्मात्) अप्रकटित लक्षणों वाले यक्ष्मा रोग से, (उत) तथा (राजयक्ष्मात्) मुख्य यक्ष्मा रोग से, (हविषा) यज्ञियाग्नि में हविः द्वारा, (मुञ्चामि) में मुक्त करता हूँ, छुड़ाता हूँ। (यदि एतत् एनम्) यदि इस यक्ष्म ने इस रुग्ण को (ग्राहिः) जकड़नेवाले रोग के रूप में (जग्राह) जकड़ा हुआ है, तो (तस्याः) उस जकड़न से (एनम्) इस रुग्ण को (इन्द्राग्नी) आदित्य और यज्ञियाग्नि (प्र मुमुक्तम्) पूर्णतया मुक्त करें।
टिप्पणी: [इन्द्र है आदित्य (अथर्व० ३।१०।१३), आदित्य की रश्मियों द्वारा यक्ष्म का
निवारण। आदित्य को "सप्तरश्मि" कहा है, (अथर्व० २०।८८।४), तथा
"सप्तनामादित्यः सप्तास्मै रश्मयो रसानभिसन्नाम यन्ति" (निरुक्त ४।४।२७)।
वैज्ञानिक दृष्टि में सात रश्मियाँ, यथा, Red, Yellow, Orange, Green,
Blue, Indigo, Violet. इन रश्मियों द्वारा चिकित्सा करने से यक्ष्म-रोग की
निवृत्ति कही है। ये सात वर्ण की पट्टियाँ वर्षा काल में इन्द्रधनुष में
दृष्टिगोचर होती हैं। "हविषा" द्वारा यक्ष्मरोग की निवारक औषधियाँ अभिप्रेत
हैं। हविः से उत्थित यज्ञधूम को श्वासों द्वारा ग्रहण करना चाहिए। इससे
यज्ञधूम रक्त में मिलकर शीघ्र रोग निवारण हो जाता है।]
[१. कम्-सुखम्। यथा 'नाके' (निरुक्त २।४।१४)।]
०३।०११।०२
यदि॑ क्षि॒तायु॒र्यदि॑ वा॒ परे॑तो॒ यदि॑ मृ॒त्योर॑न्ति॒कं नी॑त ए॒व।
तमा ह॑रामि॒ निरृ॑तेरु॒पस्था॒दस्पा॑र्षमेनं श॒तशा॑रदाय ॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (यदि) चाहे [यह] (क्षितायुः) टूटी आयुवाला, (यदि वा) अथवा (परेतः) अङ्ग-भङ्ग है, (यदि) चाहे (मृत्योः) मृत्यु के (अन्तिकम्) समीप (एव) ही (नीतिः=नि−इतः) आ चुका है। (तम्) उसको (निर्ऋतेः) महामारी की (उपस्थात्) गोद से (आ हराभि) लिये आता हूँ, (एनम्) इसको (शतशारदाय+जीवनाय) सौ शरद् ऋतुओंवाले [जीवन] के लिये (अस्पार्षम्) मैंने प्रबल किया है ॥२॥
भावार्थः जैसे चतुर वैद्य रत्न यत्न करके भारी-२ रोगियों को चङ्गा करता है, ऐसे ही मनुष्य शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक कठिन संकट पड़ने पर अपने आत्मा को प्रबल रक्खे ॥२॥
अथर्व० १।३५।१। में ‘दीर्घायुत्वाय शतशारदाय’ पाठ है, यहाँ ‘जीवनाय’ पद मन्त्र १ से लाया गया है ॥
अन्य दो संहिताओं, सायणभाष्य और ऋग्वेद में ‘अस्पार्षम्’ पाठ है, परन्तु बम्बई गवर्नमेंट संहिता में शोधा हुआ और अथर्व० का० २० सू० ९६ म० ७ में ‘अस्पार्शम्’ पाठ है। हमने ‘अस्पार्षम्’ लिया है ॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (यदि क्षितायुः) यदि यह क्षीणायु हो गया है, (यदि वा) या (परेत:)
आरोग्यवस्था से परे हो गया है, (यदि मृत्यो: अन्तिकम्, नीत एव) यदि मृत्यु
के समीप ही प्राप्त हो गया है, तो भी (तम्) उसको (निर्ऋते:) कृच्छापत्ति की
(उपस्थात्) गोद से (आ हरामि) मैं छीन लाता हूँ, (एनम्) इसको (शतशारदाय)१
सौ वर्षों के जीवन के लिए (अस्पार्शम्) मैंने स्पर्श कर दिया है।
टिप्पणी: [हस्तस्पर्श द्वारा चिकित्सक रोगी में शक्तिसंचार कर उसे रोग से मुक्त कर
देता है। देखो (अथर्व० २०।९६।६-१०)। निर्ऋतिः=कृच्छापत्तिः (निरुक्त
२।२९)।]
०३।०११।०३
स॑हस्रा॒क्षेण॑ श॒तवी॑र्येण श॒तायु॑षा ह॒विषाहा॑र्षमेनम्।
इन्द्रो॒ यथै॑नं श॒रदो॒ नया॒त्यति॒ विश्व॑स्य दुरि॒तस्य॑ पा॒रम् ॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (सहस्राक्षेण) सहस्रों नेत्रवाले, (शतवीर्येण) सैकड़ों सामर्थ्यवाले (शतायुषा) सैकड़ों जीवनशक्तिवाले (हविषा) आत्मदान वा भक्ति से (एनम्) इस [आत्मा] को (आ अहार्षम्) मैंने उभारा है। (यथा) जिससे (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् मनुष्य (एनम्) इस [देही] को (विश्वस्य) प्रत्येक (दुरितस्य) कष्ट के (पारम्) पार (अति=अतीत्य) निकालकर (शरदः) [सौ] शरद् ऋतुओं तक (नयाति) पहुँचावे ॥३॥
भावार्थःजब मनुष्य एकाग्रचित्त होकर अनेक प्रकार से अपनी दर्शनशक्ति, कर्मशक्ति और जीविकाशक्ति बढ़ाकर अपने को सुधारता है, तब वह इन्द्र पुरुष सब उलझनों को सुलझाकर यशस्वी होकर चिरंजीवी होता है ॥३॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (सहस्राक्षेण) हजारों रोगों का क्षय करनेवाली, (शतवीर्येण) सैकड़ों
शक्तियों वाली, (शतायुषा) सौ वर्षों की आयु करनेवाली (हविषा) हविः द्वारा
(एनम्) इस रुग्ण को (आहार्षम्) मैं छीन लाया हूँ। (यथा) जिस प्रकार कि
(इन्द्रः) आदित्य (एनम्) इस रुग्ण को (शरदः) सौ शरद् ऋतुओं अर्थात् वर्षों
तक (नयाति) पहुँचाए, तथा (विश्वस्य) सब (दूरितस्य) बुरे परिणामों से
(पारम्) पार कर (अति नयाति) ले चले, पहुँचा दे।
टिप्पणी: [इन्द्रः अर्थात् आदित्य, निज रश्मियों द्वारा, रुग्ण के रोगों का विनाश कर
सौ वर्ष की आयुवाला कर देता है, और रोगनाशक हवि भी इसे शतायुः कर देती है;
देखो मन्त्र १ ]
०३।०११।०४
श॒तं जी॑व श॒रदो॒ वर्ध॑मानः श॒तं हे॑म॒न्तान्छ॒तमु॑ वस॒न्तान्।
श॒तं त॒ इन्द्रो॑ अ॒ग्निः स॑वि॒ता बृह॒स्पतिः॑ श॒तायु॑षा ह॒विषाहा॑र्षमेनम् ॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (वर्धमानः+त्वम्) बढ़ती करता हुआ तू (शतम् शरदः) सौ शरद् ऋतुओं तक (शतम् हेमन्तान्) सौ शीत ऋतुओं तक (उ) और (शतम् वसन्तान्) सौ वसन्त ऋतुओं तक (जीव) जीता रह। (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् (अग्निः) तेजस्वी विद्वान्, (सविता) सबका चलानेवाला, (बृहस्पतिः+अहं जीवः) बड़ों-बड़ों के रक्षक मैंने (शतम्) अनेक प्रकार से (ते) तेरेलिये (शतायुषा) सैकड़ों जीवन शक्तिवाले (हविषा) आत्मदान वा भक्ति से (एनम्) इस [आत्मा] को (आ अहार्षम्) उभारा है ॥४॥<
भावार्थः मनुष्य उचित रीति से वर्षा, शीत और उष्ण ऋतुओं को सहकर बहु प्रकार मन्त्रोक्त विधि पर विद्यादिबल से शक्तिमान् होकर जीविका उपार्जन करता हुआ आत्मा की उन्नति करे ॥४॥
ऋग्वेद में (इन्द्रः अग्निः)=इन्द्राग्नी और (आ अहार्षम् एनम्)=[इमम् पुनः दुः] ॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (शतं शरदः जीव) तू हे वरुण! सौ शरद्-ऋतु जीवित हो (वर्धमानः) बढ़ता हुआ,
(शत हेमन्तान्) सौ हेमन्त ऋतु (उ) तथा (शतम् वसन्तान्) सौ बसन्त ऋतु [जीवित
हो]। (इन्द्रः) आदित्य, (अग्निः) यज्ञियाग्नि, (सविता) सविता, (बृहस्पतिः)
बृहस्पति (ते शतम्) तेरी सौ वर्षों की आयु करें, (शतायुषा हविषा) सौ
वर्षों की आयु करनेवाली रोगनाशक हवि द्वारा (एनम्) इस रुग्ण को (आ हार्षम्)
मैं मृत्यु से छीन लाया हूँ।
टिप्पणी: [सविता="तस्य कालो यदा द्यौरपहततमस्का
आकीर्णरश्मिर्भवति" (निरुक्त १२।२।१२); सविता पद ७। इन्द्र है
परमैश्वर्यसम्पन्न आदित्य, अर्थात् चमकता सूर्य और सविता उस काल का आदित्य
है जबकि द्यौ में तो प्रकाश हो, परन्तु पृथिवी पर अभी अन्धकार की सत्ता बनी
रहे। बृहस्पति है ग्रह। इसका भी सम्बन्ध आयु के साथ प्रतीत होता है। अथवा
बृहस्पति है परमेश्वर जोकि बृहतों का पति है।]
०३।०११।०५
प्र वि॑शतं प्राणापानावन॒ड्वाहा॑विव व्र॒जम्।
व्य॒न्ये य॑न्तु मृ॒त्यवो॒ याना॒हुरित॑रान्छ॒तम् ॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (प्राणापानौ) हे श्वास और प्रश्वास तुम दोनों, [इस शरीर में] (प्र विशतम्) प्रवेश करते रहो, (अनड्वाहौ-इव) रथ ले चलनेवाले दो बैल जैसे (व्रजम्) गोशाला में (अन्ये) दूसरे (मृत्यवः) मृत्यु के कारण (वि यन्तु) उलटे चले जावें (यान्) जिन (इतरान्) कामनानाशक [मृत्युओं] को (शतम्) सौ प्रकार का (आहुः) बतलाते हैं ॥५॥
भावार्थः मनुष्य प्राणायाम, व्यायामादि से अपने प्राण और अपान को अनुकूल रखकर शारीरिक अवस्था सुधारे रहें और दुराचारों से बचकर अपना जीवन शुभ कामों में लगावें ॥५॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (प्राणापानौ) हे प्राण और अपान! (प्र विशतम्) तुम दोनों रोगी में प्रवेश
करो, (इव) जैसेकि (अनड्वाहौ) शकटवाहन में समर्थ दो बैल (व्रजम्) गोशाला में
प्रविष्ट होते हैं। (अन्ये) अन्य (मृत्यवः) मृत्यु (वि यन्तु) विगत हो
जाएँ (यान् आहुः) जिन्हें कहते हैं, (इतरान् शतम्) उससे भिन्न सौ।
टिप्पणी: [भिन्न= यक्ष्म रोग से भिन्न रोग। शतम्= सौ वर्षों की आयु में व्यापी अन्य रोग।]
०३।०११।०६
इ॒हैव स्तं॑ प्राणापानौ॒ माप॑ गातमि॒तो यु॒वम्।
शरी॑रम॒स्याङ्गा॑नि ज॒रसे॑ वहतं॒ पुनः॑ ॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (प्राणापानौ) हे श्वास-प्रश्वास ! (युवम्) तुम दोनों (इह एव) इसमें ही (स्तम्) रहो, (इतः) इससे (मा अप गातम्) दूर मत जाओ। (अस्य) इस [प्राणी] के (शरीरम्) शरीर और (अङ्गानि) अङ्गों को (जरसे) स्तुति के लिये (पुनः) अवश्य (वहतम्) तुम दोनों ले चलो ॥६॥
भावार्थः प्राण और अपान वायु का संचार ठीक न होने से रुधिर जमकर रोग उत्पन्न होता है, इससे मनुष्य सब शरीर में वायु संचार ठीक रखकर दृढ़ शरीरवाले हों और स्तुति प्राप्त करें ॥६॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (प्राणापानौ) हे प्राण और अपान ! तुम (इह एव) इसके शरीर में ही (स्तम्)
रहो, (इतः) इस शरीर से (युवम्) तुम दोनों (मा अप गातम्) अपगत न होओ। (अस्य)
इसके (शरीरम् अङ्गानि) शरीर और अंगों को (पुनः) फिर (जरसे) जरावस्था के
लिए (वहतम्) प्राप्त कराओ। वहतम्= वह प्रापणे (भ्वादिः)।
०३।०११।०७
ज॒रायै॑ त्वा॒ परि॑ ददामि ज॒रायै॒ नि धु॑वामि त्वा।
ज॒रा त्वा॑ भ॒द्रा ने॑ष्ट॒ व्य॒न्ये य॑न्तु मृ॒त्यवो॒ याना॒हुरित॑रान्छ॒तम् ॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः [हे प्राणी !] (त्वा) तुझे (जरायै) स्तुति पाने के लिये (परि) सब प्रकार (ददामि) दान करता हूँ। (जरायै) स्तुति के लिये (त्वा) तेरे (नि धुवामि) निहोरे करता हूँ [अथवा, तुझे झकझोरता हूँ] (जरा) स्तुति (त्वा) तुझे (भद्रा=भद्राणि) अनेक सुख (नेष्ट) पहुँचावे। (अन्ये) दूसरे (मृत्यवः) मृत्यु के कारण (वि यन्तु) उलटे चले जावें, (यान्) जिन (इतरान्) कामनानाशक [मृत्युओं] को (शतम्) सौ प्रकार का (आहुः) बतलाते हैं ॥७॥
भावार्थः मनुष्य कभी नम्र, कभी कठोर होकर स्तुति के लिये अपनी आत्मा लगावे और निर्धनता, रोगादि मृत्यु के कारणों को हटाकर सुखी रहे ॥७॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ:[हे व्याधिनिर्मुक्ता] (त्वा) तुझे (जरा) जरावस्था के लिए (परिददामि)
रक्षार्थ में प्रदान करता हूँ, [हे व्याधि!] (त्वा) तुझे (जरायै) इसकी
जरावस्था के लिए (नि धुवामि) मैं नितरां कम्पित करता हूँ। [हे
व्याधिनिर्मुक्त!] (त्वा) तुझे (भद्रा) कल्याणकारिणी तथा सुखदायिनी (जरा)
जरावस्था (नेष्ट) प्राप्त हुई है। (अन्ये मृत्यवः) अन्य मृत्युएं (वि
यन्तु) विगत हो जायेँ, (यान्) जिन्हें (आहुः) कहते हैं (इतरान्) तद्भिन्न
(शतम्) सौ।
टिप्पणी: [धुवामि=धूञ् कम्पने (चुरादिः)। परि ददामि=रक्षार्थ दानं परिदानम् (सायण)।
भद्रा=भदि कल्याणे सुखे च (भ्वादिः)। नेष्ट=णीञ् प्रापणे (भ्वादिः) छान्दसो
लुङ (सायण)।]
०३।०११।०८
अ॒भि त्वा॑ जरि॒माहि॑त॒ गामु॒क्षण॑मिव॒ रज्ज्वा॑।
यस्त्वा॑ मृ॒त्युर॒भ्यध॑त्त॒ जाय॑मानं सुपा॒शया॑।
तं ते॑ स॒त्यस्य॒ हस्ता॑भ्या॒मुद॑मुञ्च॒द्बृह॒स्पतिः॑ ॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः [हे प्राणी !] (जरिमा) निर्बलता ने (त्वा) तुझको (अभि अहित) बाँधा है, (उक्षणम्) बलवान् (गाम् इव) बैल को जैसे (रज्ज्वा) रस्सी से (यः मृत्युः) जिस मृत्यु ने (जायमानम्) उत्पन्न वा प्रसिद्ध होते हुए (त्वा) तुझको (सुपाशया) दृढ़ फंदे से (अभि अधत्त) बन्धन में किया है, (तम्) उस [मृत्यु] को (सत्यस्य) सत्य के (ते) तेरे (हस्ताभ्याम्) दोनों हाथों के हित के लिये (बृहस्पतिः) बड़ों-बड़ों के रक्षक [देवगुरु] परमेश्वर वा आचार्य ने [तुझसे] (उत् अमुञ्चत्) छुड़ा दिया है ॥८॥
भावार्थः मनुष्य जन्म से लेकर भूख, पियास, रोग आदि विपत्तियों से ईश्वरदत्त ज्ञान और विद्वानों की रक्षा तथा शिक्षा द्वारा छूटकर दोनों हाथों अर्थात् सब प्रकार से धर्म आचरण के लिये आगे बढ़ता है ॥८॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ:[हे व्याधिनिर्मुक्त!] (त्वा) तुझे (जरिमा) जरा ने (अभि अहित) बाँध लिया
है, (गाम् उक्षणम्) गौ और बैल को (रज्वा इव) रस्सी द्वारा जैसे [बाँधा जाता
है]। (जायमानं त्वा) पैदा होते हुए तुझे (य: मृत्युः) जिस मृत्यु ने
(सुपाशया) उत्तम फंदे द्वारा (अभि अधत्त) बाँधा था, (ते) तेरे (तम्) उस
मृत्युपाश को (बृहस्पतिः) वेदवार के पति ने (सत्यस्य हस्ताभ्याम्) सच्चाई
वाले दो हाथों द्वारा (राज्य) उन्मुक्त कर दिया है, छोड़ दिया है।
टिप्पणी:
[अभि अहित= अभिपूर्वों दधातिर्बन्धने वर्तते यथा" अश्वाभिधानीमा दते",
दधातेर्लुङ् (सायण)। सुपाशया= पाश को सुपाशा कहा है। यह उत्तम पाश है, यतः
इस नाल से बंधी सन्तान पैदा होती है। यह है नाभि-नालरूपी पाश अर्थात्
रस्सी। मृत्युः=प्रत्येक प्राणी के पैदा होते ही उसके साथ मृत्यु का
सम्बन्ध रहता है, जो पैदा होता है उसकी मृत्यु भी अवश्यम्भावी है।
बृहस्पतिः=बृहती वेदवाक्, उसका पतिः, वेदज्ञ विद्वान्। हस्ताभ्याम् यथा
"हस्ताभ्यां दशशाखाभ्याम्...ताभ्यां त्वाभि मृशामसि" (अथर्व ४।१३।७)।
अभिमर्शन=स्पर्श करना। स्पर्शकर्ता के दोनों हाथ सत्यकर्मा होने चाहिएँ तभी
इन द्वारा स्पर्श करने से रोगी रोग मुक्त हो सकता है, अन्यथा नहीं।]
सूक्त १२
०३।०१२।०१
इ॒हैव ध्रु॒वां नि मि॑नोमि॒ शालां॒ क्षेमे॑ तिष्ठाति घृ॒तमु॒क्षमा॑णा।
तां त्वा॑ शाले॒ सर्व॑वीराः सु॒वीरा॒ अरि॑ष्टवीरा॒ उप॒ सं च॑रेम ॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (इह एव) यहाँ पर ही (ध्रुवाम्) ठहराऊँ (शालाम्) शाला को (नि मिनोमि) जमाकर बनाता हूँ। वह (घृतम्) घी (उक्षमाणा) सींचती हुई (क्षेमे) लब्ध वस्तु की रक्षा में (तिष्ठाति) ठहरी रहे। (शाले) हे शाला (ताम् त्वा) उस तुझमें (उप=उपेत्य) आकर (सर्ववीराः) सब वीर पुरुषोंवाले (सुवीराः) अच्छे-अच्छे पराक्रमी पुरुषोंवाले और (अरिष्टवीराः) नीरोग पुरुषोंवाले (संचरेम) हम चलते-फिरते रहें ॥१॥
भावार्थः हम अपने घर दृढ़ और उचित विभागवाले बनावें जिससे वायु,घाम (धूप) आदि के यथावत् सेवन से सब गृहस्थ स्त्री-पुरुष सदा हृष्ट-पुष्ट और स्वस्थ रहें ॥१॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (इह एव) इस भूमिप्रदेश में ही (ध्रुवाम्) स्थिर (शालाम्) शाला को
(निमिनोमि) में आधाररूप में स्थापित करता हूँ, (घृतम् उक्षमाणा) घृत का
सेंचन करती हुई (क्षेमे) हमारे क्षेम या निवास के निमित्त (तिष्ठाति) यह
स्थित है। (सर्ववीराः) सब वीर सन्तानोंवाले (सुवीराः) उत्तम सन्तानोंवाले,
(अरिष्टवीराः) तथा अहिंसित सन्तानों वाले हम (ताम् त्वा) उस तेरे (उप) समीप
(संचरेम) मिलकर विचरें।
टिप्पणी: [क्षेमे=सुरक्षा तथा प्रसन्नता के निमित्त (आप्टे) या हमारे निवास के
निमित्त "क्षि निवासे (तुदादिः)। घृतम्=घी (मन्त्र २) में गोमती, घृतवती,
पयस्वती के अनुसार। निमिनोमि= नि+इुमिञ् प्रक्षेपणे (स्वादिः), नींवरूप में
रोड़ी आदि का प्रक्षेपण करता हूँ, अर्थात् नींव डालता हूँ। शाला, देखो
(अथर्व० ९।३।१-३१)। क्षेम की व्युत्पत्ति के सम्बन्ध में
दशपाद्युणादिवृत्ति में "क्षि निवासगत्योः" का भी उल्लेख किया है (७।२६),
इसलिए निवासार्थ भी उपपन्न है।]
०३।०१२।०२
इ॒हैव ध्रु॒वा प्रति॑ तिष्ठ शा॒ले ऽश्वा॑वती॒ गोम॑ती सू॒नृता॑वती।
ऊर्ज॑स्वती घृ॒तव॑ती॒ पय॑स्व॒त्युच्छ्र॑यस्व मह॒ते सौभ॑गाय ॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (शाले) हे शाला ! तू (इह एव) यहाँ पर ही (अश्वावती) बहुत घोड़ोंवाली, (गोमती) बहुत गौओंवाली और (सूनृतावती) बहुत प्रिय सत्य वाणियोंवाली होकर (ध्रुवा) ठहराऊँ (प्रति तिष्ठ) जमी रह। (ऊर्जस्वती) बहुत अन्नवाली, (घृतवती) बहुत घीवाली और (पयस्वती) बहुत दूधवाली होकर (महते) बड़ी (सौभगाय) सुन्दर सौभाग्य के लिये (उत् श्रयस्व) ऊँची हो ॥२॥
भावार्थः मनुष्य शाला में योग्य-योग्य स्थान बनाकर उनको आवश्यक पदार्थों से भरपूर रक्खे ॥२॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (शाले) हे शाला! (इह एव) यहाँ ही (ध्रुवा) स्थिर हुई (प्रति तिष्ठ) स्थित
हो, या प्रतिष्ठा को प्राप्त हो, (अश्वावती) अश्वों और अश्वाओंवाली,
(गोमती) गौओंवाली, (सूनृतावती) प्रिय और सत्य वाणियों वाली, (ऊर्जस्वती) बल
और प्राणदायक अन्नवाली, (घृतवती) घृतवाली (पयस्वती) दूध वाली तू (महते
सौभगाय) हमारे महासौभाग्य के लिए (उत् श्रयस्व) ऊपर उठ।
टिप्पणी:[सूनृतावती, जिसमें निवास करनेवाले सदा सत्य और प्रिय वाणियाँ ही बोलते हैं। ऊर्जस्वती=ऊर्ज बल-प्राणनयों (चुरादिः)।]
०३।०१२।०३
ध॑रु॒ण्य॑सि शाले बृ॒हछ॑न्दाः॒ पूति॑धान्या।
आ त्वा॑ व॒त्सो ग॑मे॒दा कु॑मा॒र आ धे॒नवः॑ सा॒यमा॒स्पन्द॑मानाः ॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (शाले) हे शाला ! तू (बृहच्छन्दाः) विशाल छतवाली, वा बहुत से छन्द वा वेद मन्त्रोंवाली, (पूतिधान्या) शुद्ध धान्यवाली (धरुणी) भण्डार (असि) है। (त्वा) तुझमें (वत्सः) बछड़ा (आ) और (कुमारः) बालक (आ गमेत्) आवे। (सायम्) सायंकाल में (आस्पन्दमानाः) कूदती हुई (धेनवः) दुधैल गौयें (आ=आगच्छन्तु) आवें ॥३॥
भावार्थः स्पष्ट है और-और स्थानों के साथ घरों में वेदिकभवन भी होवे ॥३॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ:(शाले) हे शाला! (धरुणी असि) तू हमारा धारण करनेवाली है, (बृहत् छन्दाः)
बहुत वैदिक छन्दोंवाली, (पूतिधान्या) पवित्रान्नवाली है। (वत्सः) बछड़ा
(त्वा) तुझे (आ गमेत्) प्राप्त हो, (कुमारः) कुमार पुत्र (आ) तुझे प्राप्त
हो, (आस्पन्दमानाः) उछलती-कूदती हुई (धेनवः) दुग्धवती गौएँ (सायम्) सायंकाल
(आ) तुझे प्राप्त हों।]
टिप्पणी: [बृहत् छन्दा:=जिस शाला में प्रभूत वैदिक स्वाध्याय होता रहे। अथवा बड़े छतवाली।]
०३।०१२।०४
इ॒मां शालां॑ सवि॒ता वा॒युरिन्द्रो॒ बृह॒स्पति॒र्नि मि॑नोतु प्रजा॒नन्।
उ॒क्षन्तू॒द्ना म॒रुतो॑ घृ॒तेन॒ भगो॑ नो॒ राजा॒ नि कृ॒षिं त॑नोतु ॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (इमाम् शालाम्) इस शाला को (सविता) सबका चलानेवाला पुरुष [वा सूर्य,] (वायुः) वेगवान् पुरुष [वा पवन] (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् पुरुष [वा मेघ] और (प्रजानन्) ज्ञानवान (बृहस्पतिः) बड़े-बड़े कामों का रक्षक पुरुष [प्रत्येक] (नि मिनोतु) जमाकर बनावे। (मरुतः) शूर देवता [विद्वान् लोग] (उद्ना) जल से और (घृतेन) घी से (उक्षन्तु) सींचें और (भगः) भाग्यवान् (राजा) राजा [प्रधान पुरुष] (नः) हमारेलिये (कृषिम्) खेती को (नि) सदैव (तनोतु) बढ़ावे ॥४॥
भावार्थः शाला निर्माण में प्रधान और सब कार्यकर्ता कर्म-कुशल हों, धाम, वायु और मेघ, तथा जल, घी आदि सामग्री के लिये यथावत् अवकाश रहे। और निर्वाह के लिए खेतीविद्या का सत्कार करें ॥४॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (इमाम् शालाम्) इस शाला को (सविता) सविता, (वायुः) वायु, (इन्द्रः)
प्रकाशैश्वर्यवाला आदित्य [सुरक्षित करे], (प्रजानन्) शाला निर्माण को
जाननेवाला (बृहस्पतिः) बृहती वेदवाक् का पति (निमिनोतु) निर्माण करे या
निर्माण करनेवाली वस्तुओं का इसमें प्रक्षेपण करे (मरुतः) मानसून वायुएँ
(उद्ना) जल द्वारा, (घृतेन) तथा घृत द्वारा (उक्षन्तु) सिंचन करें, (न:)
हमारा (भगः) भाग्यवान् (राजा) राष्ट्रपति (कृषिम्) कृषि का (नितनोतु)
नितरां विस्तार करे।
टिप्पणी: [वायु, उदित आदित्य और "सविता अर्थात् उदीयमान आदित्य"=ये हमारी रक्षा
करते हैं। अग्नि आदि की व्याख्या देखो (अथर्व० ३।११।४)। घृतेन=वर्षा द्वारा
चारा मिलने पर गौओं से प्राप्त घृत। अथवा "घृ रक्षणे" क्षरित हुए जल
द्वारा।]
०३।०१२।०५
मान॑स्य पत्नि शर॒णा स्यो॒ना दे॒वी दे॒वेभि॒र्निमि॑ता॒स्यग्रे॑।
तृणं॒ वसा॑ना सु॒मना॑ अस॒स्त्वमथा॒स्मभ्यं॑ स॒हवी॑रं र॒यिं दाः॑ ॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (मानस्य) हे मान अर्थात् प्रतिष्ठा की (पत्नि) रक्षा करनेवाली, (शरणा) शरण देनेवाली, (स्योना) सुखदायिनी, (देवी) उजियालेवाली तू (देवेभिः=०−वैः) देवताओं [विश्वकर्मा पुरुषों] करके (निमिता) मायी हुई (अग्रे) हमारे सम्मुख (असि) वर्तमान है। (तृणम्) घास को (व़साना) पहिने हुए (त्वम्) तू (सुमनाः) प्रसन्न मनवाली (असः) हो, (अथ) और (अस्मभ्यम्) हमें (सहवीरम्) वीर पुरुषों के सहित (रयिम्) धन (दाः) दे ॥५॥
भावार्थः सब मनुष्य गृहनिर्माण विद्या में कुशल पुरुषों से सम्मति लेकर बाहिर और भीतर से मनोरम घर बनावें, जिससे संसार में सम्मान हो और सब गृहस्थ स्वस्थ, वीर, उद्योगी होकर धनवान् होवें ॥५॥ ‘अथास्मभ्यं सहवीरं रयिं दाः’ यह पाद अ० २।६।५। में आया है ॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (मानस्य पत्नी) हे मान की पत्नी! (शरणा) तू शरणरूपा है, आश्रय है, (स्योना)
सुखकारी है, (देवी) दिव्यरूपा या "द्योतमाना" [सायण] है, (अग्रे) गृहस्थी
होने से पूर्व (देवेभिः) दिव्य बृहस्पतियों द्वारा (निमिता असि) तू निर्मित
होती रही है [सायण]। (त्वम् तृणम् वसाना१) तू तृण का वस्त्र ओढ़ती हुई,
(सुमना) हमारी मनों को प्रसन्न करनेवाली (अस) हो, (अथा) तदनन्तर
(अस्मभ्यम्) हमारे लिए (सहवीरम्) वीर सन्तानों सहित (रयिम् दाः) सम्पत्ति
प्रदान कर।
टिप्पणी: [मन्त्र में पत्नी उपमान है, और शाला उपमेय है। उपमानवाचक पद लुप्त है।
पत्नीपद सूचक है पति की सत्ता का, और शालापद सूचक है शाला के स्वामी का।
पत्नी की सत्ता द्वारा पति का मान बना रहता है और शाला की सत्ता द्वारा
शालाधिपति का मान बना रहता है। शाला के बिना गृहस्थी की ध्रुवा स्थिति नहीं
होती, वह कभी किरायादार हुआ एक शाला का आश्रय लेता है, कभी दूसरी शाला का,
जैसेकि पुरुष पत्नी के विना सहायतार्थ भटकता रहता है, और सामाजिक जीवन में
उसकी स्थिति नहीं बन पाती। स्थिति के बनने के पश्चात् ही वह सन्तानों सहित
सम्पत्तियों को प्राप्त करने का अधिकारी बन पाता है। "तृणं वसाना" द्वारा
सर्वसुलभशाला सूचित हुई है। "तृणं वसाना" द्वारा झोंपड़ी प्रतीत होती है
अथवा फूस की छत्त गर्मी-सर्दी से बचाती है।]
[१. वस आच्छादने (अदादिः)।]
०३।०१२।०६
ऋ॒तेन॒ स्थूणा॒मधि॑ रोह वंशो॒ग्रो वि॒राज॒न्नप॑ वृङ्क्ष्व॒ शत्रू॑न्।
मा ते॑ रिषन्नुपस॒त्तारो॑ गृ॒हाणां॑ शाले श॒तं जी॑वेम श॒रदः॒ सर्व॑वीराः ॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (वंश) हे बाँस तू (ऋतेन) अपने सत्य से (स्थूणाम्) थूनी [टेक वा खूँटी] पर (अधि रोह) चढ़ जा और (उग्रः) दृढ़ वा प्रचण्ड होकर (विराजन्) विशेषरूप से प्रकाशित होता हुआ तू (शत्रून्) शत्रुओं को (अप वृङ्क्ष्व) दूर हटा दे। (शाले) हे शाला ! (ते) तेरे (गृहाणाम्) घरों के (उपसत्तारः) रहनेवाले पुरुष (मा रिषन्) दुःखी न होवें। (सर्ववीराः) सब वीरों को रखते हुए हम लोग (शतम्) सौ (शरदः) शरद् ऋतुओं तक (जीवेम) जीते रहें ॥६॥
भावार्थःमनुष्य अपने घर ऊँचे, दृढ़ और प्रकाशयुक्त बनावें जिससे चोर-डाकू सिंहादि हिंसक और रोग न सता सकें तथा सब लोग स्वस्थ होकर वीर रहें ॥६॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ:(वंश१) हे वंश! (ऋतेन) विधान द्वारा (स्थूणाम्) खम्भे पर अधिरोह आरोहण कर, (उग्र:) उग्र अर्थात् न टूटता-फूटता तू (विराजन्) विराजता हुआ (शत्रून२) शत्रुओं को (अप वृङ्क्ष्व) हटाकर वर्जित कर। (शाले) हे विशाल कोठी! (ते) तेरे (गृहाणाम्) घरों को (उप=उपेत्य) प्राप्त कर (सत्तारः) बैठने अर्थात् रहनेवाले (मा रिषन्) दुःखी या हिंसित न हों, (सर्ववीराः) सब वीर हुए (शतं शरदः) सौ शरद ऋतुओं तक (जीवेम) हम जीवित हों।
टिप्पणी: [मन्त्र ५ में तो सम्भवत: झोंपड़ी का वर्णन हुआ है, और मन्त्र ६ में विशाल कोठी का। तभी शाला में "गृहाणाम्" द्वारा नाना गृहों या कमरों का कथन हुआ है। वंश का अर्थ है बांस। प्रत्येक गृह की छत्त में सुदृढ़ बाँस को, कड़ी रूप में स्थापित करना कहा है।]
[१. वंश=बांस, "वने शेते" इति।]
[२. शाला में निवास करने से अपने शरीर तथा सन्तानों और सम्पत्ति की रक्षा हो जाती है। शत्रु उसका विनाश नहीं कर पाते। अतः शाला को शत्रुओं से वर्जित करनेवाली कहा है।]
०३।०१२।०७
एमां कु॑मा॒रस्तरु॑ण॒ आ व॒त्सो जग॑ता स॒ह।
एमां प॑रि॒स्रुतः॑ कु॒म्भ आ द॒ध्नः क॒लशै॑रगुः ॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः(इमाम्) इस [शाला] में (कुमारः) बालक, (आ) और (तरुणः) युवा, (आ) और (जगता सह) चलनेवाले गौ आदि के साथ (वत्सः) बछड़ा, (आ) और (इमाम्) इस [शाला] में (परिस्रुतः) पिघलते हुए रस का (कुम्भः) घड़ा (दध्नः) दही के (कलशैः) कलशों के साथ (आ अगुः) आये हैं ॥७॥
भावार्थःगृहस्थ लोग सब प्रकार की आवश्यक सामग्री अपने घरों में रक्खें ॥७॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ:(इमाम्) इस शाला को (कुमारः) कुमार पुत्र तथा (तरुणः) युवा पुत्र (आ) प्राप्त हुए हैं, (जगता सह) गमन करनेवाली अर्थात् चलती-फिरती गौ के साथ (वत्सः) बछड़ा (आ) आया है, प्राप्त हुआ है। (इमाम्) इस शाला को (परिस्रुतः कुम्भः) परिस्रवणशील मधु तथा घृत का घड़ा (आ) प्राप्त हुआ है, और (दध्न:) दधि के (कलशैः) कलशै: के साथ ये सब (आ अगुः) आ गये हैं, प्राप्त हो गये हैं।
०३।०१२।०८
पू॒र्णं ना॑रि॒ प्र भ॑र कु॒म्भमे॒तं घृ॒तस्य॒ धारा॑म॒मृते॑न॒ संभृ॑ताम्।
इ॒मां पा॒तॄन॒मृते॑ना सम॑ङ्ग्धीष्टापू॒र्तम॒भि र॑क्षात्येनाम् ॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः(नारि) हे नर का हित करनेवाली गृहपत्नी ! (एतम्) इस (पूर्णम्) पूरे (कुम्भम्) घड़े में से (अमृतेन) अमृत [हितकारी पदार्थ] से (संभृताम्) भरी हुई (घृतस्य) घी की (धाराम्) धारा को (प्र, भर=हर) अच्छे प्रकार ला। (इमाम्) इस [शाला] को और (पातॄन्) पानकर्ताओं वा रक्षकों को (अमृतेन) अमृत से (सम्) अच्छे प्रकार (अङ्ग्धि) पूर्ण कर। (इष्टापूर्तम्) यज्ञ और वेदों का अध्ययन, अन्नदानादि पुण्यकर्म (एनाम्) इस [शाला] की (अभि) सब ओर से (रक्षाति) रक्षा करे ॥८॥
भावार्थःगृहपत्नी घर को घृत, दुग्ध आदि अमृत पदार्थों से परिपूर्ण रखकर सब कुटुम्बियों को स्वस्थ और पुष्ट रक्खे। और सब स्त्री-पुरुष धार्मिक, पुरुषार्थी तथा धनी होकर चोर-उचक्के सिंहादि दुष्टों से रक्षा करते हुए बस्ती को बसाये रक्खें ॥८॥ मनु भगवान् ने कहा है−सदा प्रहृष्टया भाव्यं गृहकार्येषु दक्षया। सुसंस्कृतोपस्करया व्यये चामुक्तहस्तया ॥ मनु० ५।१५०॥ स्त्री सदा प्रसन्नचित्त और घर के कामों में चतुर हो और (सुसंस्कृतोपस्करया) घर की सामग्री बासन-भाँडे भली-भाँति ठीक रखती हुई, व्यय करने में हाथ सकोड़ों रहे ॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ:(नारि) हे नारी! अर्थात् पत्नी (अमृतेन संभृताम्) अमृत से सम्यक् भरी हुई (घृतस्य धाराम्) घृत की धारा को [प्राप्त करके], (एतम्, कुम्भम्) इस कुम्भ को (पूर्णं प्रभर) पूर्णरूप में प्रकृष्टतया भर दे (इमाम्=इमान्) इन (पातृन्) [घृत को] पीनेवालों को (अमृतेन) अमृत से (समङ्ग्धि) सम्यक् प्रदीप्त कर दे। (इष्टापूर्तम्) यज्ञ और आपूर्तकर्म (एनाम्) इस शाला की (अभि रक्षाति) सब ओर से रक्षा करें।
टिप्पणी: [अमृतेन संभृताम्=न मरने अर्थात् दीर्घजीवन से सम्यक्-भरी हुई। घृतपान द्वारा श्रीरहित-शरीर श्रीयुक्त हो जाता है। यथा "अश्रीरं चित् कृणुथा सुप्रतीकम्" (अथर्व० ४।२१।६)। यह उद्धरण गौओं के सम्बन्ध में है, गौ के दूध, घृत आदि के सम्बन्ध में है। सु प्रतीकम्१=सुमुखम, शोभन मुखम्। इमाम्=इमान्। इष्टापूर्तम्=यज्ञ तथा आपूर्त अर्थात् रतिकर्म, यथा कृपनिर्माण, तालाब निर्माण, धर्मशाला निर्माण, अनाथसेवा आदि। इन कर्मों द्वारा शाला की रक्षा होती है। समङ्ग्धि= सम्+अञ्जू व्यक्तिम्रक्षणकान्तिगतिषु (रुधादिः)। सुप्रतीकम्=शोभनावयवम् (सायण), (अथर्व० ४।२१।६)।]
[१. प्रतीकम्=Face (आप्टे)।]
०३।०१२।०९
इ॒मा आपः॒ प्र भ॑राम्यय॒क्ष्मा य॑क्ष्म॒नाश॑नीः।
गृ॒हानुप॒ प्र सी॑दाम्य॒मृते॑न स॒हाग्निना॑ ॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः(इमाः) इस (अयक्ष्माः) रोगरहित (यक्ष्मनाशनीः) रोगनाशक (अपः) जल को (प्र) अच्छे प्रकार (आ भरामि) मैं लाता हूँ। (अमृतेन) मृत्यु से बचानेवाले अन्न, घृत, दुग्धादि सामग्री और (अग्निना सह) अग्नि के सहित (गृहान्) घरों में (उप=उपेत्य) आकर (प्र) अच्छे प्रकार (सीदामि) मैं बैठता हूँ ॥९॥
भावार्थः गृहपति रोगों से बचने और स्वास्थ्य बढ़ाने के लिये अपने घर में शुद्ध जल, अग्नि आदि पदार्थों का सदा उचित प्रयोग करें ॥९॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (अयक्ष्मा:) यक्ष्मरहित, (यक्ष्मनाशनी:) और यक्ष्म के नाशक (इमा आपः) ये जल हैं, (इमाः) इन्हें (प्र भरामि) प्रकर्षरूप में शाला में मैं लाता हूँ। (गृहान्) घरों को (उप=उपेत्य) प्राप्त कर, (अमृतेन अग्निना सह) शीघ्र न मरने देनेवाली यज्ञियाग्नि के साथ, (प्र सीदामि) मैं प्रसन्न होता हूँ, या स्थित होता हूँ। शाला के लिए देखो (अथर्व० ९।३।१-३१)।]
सूक्त १३
०३।०१३।०१
यद॒दः सं॑प्रय॒तीरहा॒वन॑दता ह॒ते।
तस्मा॒दा न॒द्यो॒ नाम॑ स्थ॒ ता वो॒ नामा॑नि सिन्धवः ॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः(सिन्धवः) हे बहनेवाली नदियों ! (संप्रयतीः=संप्रयत्यः+यूयम्) मिलकर आगे बढ़ती हुई तुमने (अहौ हते) मेघ के ताड़े जाने पर (अदः) वह (यत्) जो (अनहत) नाद किया है। (तस्मात्) इसलिये (आ) ही (नद्यः) नाद करनेवाली, नदी (नाम) नाम (स्थ) तुम हो, (ता=तानि) वह [वैसे ही] (वः) तुम्हारे (नामानि) नाम हैं ॥१॥
भावार्थःजब मेघ आपस में टकराकर गरजकर बरसते हैं, तब वह जल पृथिवी पर एकत्र होकर नाद करता हुआ बहता है, इससे उसका नदी नाम है। इसी प्रकार वैदिक शब्दों की व्युत्पत्ति समझकर अर्थ करना चाहिये ॥१॥ अजमेर पुस्तक में ‘संप्रयतिः’ है, हमने अन्य पुस्तकों से ‘संप्रयतीः’ पाठ लिया है ॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ:(अहौ) मेघ के (हते) हनन हो जाने पर (यत्) जो (अदः) उस प्रदेश में (सं प्रयती:) मिलकर प्रयाण करती हुई "आप:" ने (अनदत) नाद किया, (तस्मात्) उससे (आ) आभिमुख्य रूप में (नद्यः नाम स्थ) नदीनामवाली तुम हो, (व:) [हे आपः!] तुम्हारे (ता=तानि नामानि) वे नाम हैं, (सिन्धवः) अर्थात् सिन्धु।
टिप्पणी: [अहौ=मेघे, “अहिवतु खलु मन्त्रवर्णा ब्राह्मणवादाश्च" (निरुक्त २।५।१६), तथा "अहिः अयनात् एति अन्तरिक्षे" (निरुक्त २।५।१७)। मन्त्र में दो नामों के निर्वचन दिए हैं, नद्यः का निर्वचन नदन द्वारा और सिन्धवः का निर्वचन स्यन्दन द्वारा।]
०३।०१३।०२
यत्प्रेषि॑ता॒ वरु॑णे॒नाच्छीभं॑ स॒मव॑ल्गत।
तदा॑प्नो॒दिन्द्रो॑ वो य॒तीस्तस्मा॒दापो॒ अनु॑ ष्ठन ॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः(यत्) जब (आत्) फिर (वरुणेन) सूर्य करके (प्रेषिताः) भेजे हुए तुम (शीभम्) शीघ्र (समवल्गत) मिलकर चलो, (तत्) तव (इन्द्रः) जीव ने [वा सूर्य ने] (यतीः) चलते हुए। (वः) तुमको (आप्नोत्) प्राप्त किया (तस्मात्) उससे (अनु) पीछे (आपः) प्राप्तियोग्य जल [नाम] (स्थन) तुम हो ॥२॥
भावार्थः इस मन्त्र में ‘आप्नोत्’ और ‘आपः’ शब्द एक ही धातु ‘आप्लृ व्याप्तौ’ से सिद्ध है। जब सूर्य की शक्ति से जल भूमि पर आकर फैलता है, तब जीव उसे पाता है, [और सूर्य भी फिर से लेता है] इससे जल का नाम ‘आपः’ पाने योग्य वस्तु है। ‘आपः’ शब्द नित्य स्त्रीलिङ्ग बहुवचनान्त है ॥२॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ:(यत्) जो (वरुणेन) वरुण देवता या आकाश का आवरण करनेवाले मेघ द्वारा (प्रेषिताः) प्रेरित हुए या भेजे गये हे आपः ! (शुभम्) शीघ्र (समवल्गत) मिलकर तुम गति करते हो, (तत्) तो (वः) तुम्हें (यती:) चलती हुई को (इन्द्रः) आदित्य (आप्नोत्) प्राप्त करता है, (तस्मात्) उस कारण से (आपः) हे जलो! (अनु) तत्पश्चात् (आपः स्तन) "आपः" तुम हो।
टिप्पणी: [वरुण है अपांपतिः (अथर्व० ५।२४।४) अथवा "वरुणः" आकाश का आवरण करनेवाला मेघशीभम् क्षिप्रनाम (निघं० २।१५)। अवल्गत=वल्गु गत्यर्थः (भ्वादि:)। वर्षा के पश्चात् आप: जब मिलकर गति करते हैं, प्रवाहित होते हैं, तदनन्तर आदित्य निज रश्मियों द्वारा इन्हें प्राप्त करता है, मेघरुप में परिणत करता है। "आपन" क्रिया के कारण "आप:" नाम हुआ है। मन्त्र में "आप:" का निर्वचन हुआ है।]
०३।०१३।०३
अ॑पका॒मं स्यन्द॑माना॒ अवी॑वरत वो॒ हि क॑म्।
इन्द्रो॑ वः॒ शक्ति॑भिर्देवी॒स्तस्मा॒द्वार्नाम॑ वो हि॒तम् ॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (वः) वेगवान् वा वरणीय (इन्द्रः) जीव [वा सूर्य्य] ने (हि) ही (अपकामम्) व्यर्थ (स्यन्दमानाः) बहते हुए (वः) तुमको (शक्तिभिः) अपनी शक्तियों द्वारा (कम्) सुख से (अवीवरत) वरण [स्वीकार] अथवा, वारण [रोकना] किया, (तस्मात्) इससे (देवीः=देव्यः) हे दिव्य गुणवाली वा खेलवाली जल धाराओ ! (वः) तुम्हारा (नाम) नाम (वार्) वरणयोग्य वा वारणयोग्य जल (हितम्) रक्खा गया है ॥३॥
भावार्थः मनुष्य भूमि पर अन्नादि के लिये और सूर्य्य आकाश में वृष्टि के लिये जल को चाहता है वा रोकता है, इसलिये जल का नाम ‘वार्’ है। ‘अवीवरत’ क्रिया और ‘वार्’ शब्द दोनों ‘वृञ्’ चाहना वा रोकना धातु से बनते हैं ॥३॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थः(अपकामम्) बिना कामना (स्यन्दमानाः) प्रवाहित होती हुई (व:) तुम्हें (हि) यतः (इन्द्रः) आदित्य ने (अवीवरत) "वर" बनकर वरण कर लिया (शक्तिभिः) निज शक्तियों द्वारा। (देवी:) हे आप: देवियो! (तस्मात्) उस वरण के कारण (व:) तुम्हारा (नाम) नाम (वाः) वा अर्थात् वारि [जल] (हितम्) रखा गया है, अथवा हितकर हुआ है।
टिप्पणी: [अभिप्राय यह कि "आप:" हैं तो देवीः, अर्थात् दिव्य गुणोंवाली, परन्तु बिना कामना के इधर उधर चलती-फिरती रहती हैं इनके दिव्यगुणों को देखकर, इन्द्र अर्थात् आदित्य ने निज पत्नीरूप में इनका वरण कर लिया है, और आदित्य की शक्तियों द्वारा प्रभावित होकर "आप:" ने पत्नी बनना स्वीकार कर लिया है। इसलिए आप: का नाम "वा:" हुआ है, आदित्य द्वारा वरण कर लेने के कारण। वाः=वृञ् वरणे। प्ररोचनार्थ कथा द्वारा वर-वधू के परस्पर चुनाव का वर्णन हुआ है। "अवीवरत तथा वा: " दोनों में वृञ् वरणे का प्रयोग हुआ है। हि=हेत्वपदेशे (निरुक्त १।२।५)। कम्=पदपूरणार्थः(निरुक्त १।३।९)।]
०३।०१३।०४
एको॑ वो दे॒वोऽप्य॑तिष्ठ॒त्स्यन्द॑माना यथाव॒शम्।
उदा॑निषुर्म॒हीरिति॒ तस्मा॑दुद॒कमु॑च्यते ॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (एकः) अकेला (देवः) जयशील परमात्मा (यथावशम्) इच्छानुसार (स्यन्दमानाः) बहते हुए (वः) तुम्हारा (अपि अतिष्ठत्) अधिष्ठाता हुआ। (महीः=महत्यः) शक्तिवाले [आपः जल] ने (इति) इस प्रकार (उत्+आनिषुः) ऊपर को श्वास ली, (तस्मात्) इसलिये (उदकम्) ऊपर को श्वास लेनेवाला उदक वा जल (उच्यते) कहा जाता है ॥४॥
भावार्थः ईश्वर की सामर्थ्य से सूर्य्य द्वारा जल आकाश में चढ़ता है, इसलिये ‘उदक’ जल का नाम है। ‘उत् आनिषुः’ और ‘उदकम्’ उत्+अन, श्वास लेना-धातु से बनते हैं ॥४॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थः (यथावशम्) यथेच्छापूर्वक (स्पन्दमानाः) स्रवण करते हुए (व:) तुम पर [हे आपः ] हे जलो! (एकः देवः) एक देव आदित्य (अपि अतिष्ठत्) अधिष्ठित हुआ है, अतः (मही:) महती तुम (उदानिषुः इति) ऊपर आकाश की ओर उत्प्राणित हुई हो, (तस्मात्) उससे (उदकम् उच्यते) तुम्हें उदक कहा जाता है।
टिप्पणी: ["उदानिषुः" द्वारा उदक का निर्वाचन अभिप्रेत है। उदानिषु:=उद्+आ+अन् (प्राणने)। लुङि रूपम्।]
०३।०१३।०५
आपो॑ भ॒द्रा घृ॒तमिदाप॑ आसन्न॒ग्नीषोमौ॑ बिभ्र॒त्याप॒ इत्ताः।
ती॒व्रो रसो॑ मधु॒पृचा॑मरंग॒म आ मा॑ प्रा॒णेन॑ स॒ह वर्च॑सा गमेत् ॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (आपः) जल (भद्राः) मङ्गलमय और (आपः) जल (इत्) ही (घृतम्) घृत (आसन्) था। (ताः) वह (इत्) ही (आपः) जल (अग्नीषोमौ) अग्नि और चन्द्रमा को (बिभ्रति) पुष्ट करता है। (मधुपृचाम्) मधुरता से भरी [जल धाराओं] का (अरंगमः) परिपूर्ण मिलनेवाला, (तीव्रः) तीव्र [तीक्ष्ण, शीघ्र प्रवेश होनेवाला] (रसः) रस (मा) मुझको (प्राणेन) प्राण और (वर्चसा सह) कान्ति वा बल के साथ (आ गमेत्) आगे ले चले ॥५॥
भावार्थःजल से घृत सारमय पदार्थ उत्पन्न होते हैं, जल अग्नि अर्थात् जठराग्नि, बिजुली, बड़वानल आदि और चन्द्रलोक से मिलकर हमें पुष्टि देता है और कृषि आदि में प्रयुक्त होकर अन्नादि उत्पन्न करके प्राणियों का बल और तेज बढ़ाता है ॥५॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थः(आप:) जल (भद्राः) कल्याणकारी तथा सुखदायी हैं, (आप:) जल (घृतम् इत् आसन) घृत ही हैं। (आप:) जल (अग्निषोमौ) अग्नि और सोम रूप (आसन्) थे, (ता: आपः इत्) वे आपः ही (विभ्रति) इन दो अग्नि और सोम का धारण करते हैं। (मधुपृचाम्) मधुसम्पृक्त आपः का (तीव्रः रसः) तीव्र रस (अरंगम) पर्याप्त रूप में प्राप्त होता हुआ, (प्राणेन वर्चसा सह) प्राण और वर्चस् के साथ (मा) मुझे (आ गमेत्) प्राप्त हो।
टिप्पणी: [आपः घृतम्=गौएँ जल पीती हैं तो उनका दूध भी आप: प्रधान होता है, जिसमें कि घृत प्रच्छननरूप में विद्यमान होता है—सम्भवत: यह अभिप्राय हो। अग्नीषोमौ विभ्रति=आप: में अग्नि और सोम हैं। मेघों में विद्युत चमकती है, जोकि अग्निरूप है, इसके प्रपात से वृक्ष आदि भस्मीभूत हो जाते हैं। परन्तु मेघ जब बरसता है तो उसका वर्षा जल शीत होता है, सौम्यरूप होता है, यह आपः में सोम की सत्ता है। मधुपृचाम्=मधुरदुग्ध से सम्पृक्त गौओं का तीव्ररस है दुग्ध। इसके पर्याप्त पान करने से प्राणशक्ति बढ़ती और वर्चस् अर्थात् मुख और शरीर में दीप्ति प्राप्त होती है। यथा "यूयं गावो मेदयथा कृशं चिदभ्रीरं चित् कृणुथा सुप्रतीकम्" (अथर्व० ४।२१।६)। "आपः घृतम्" में, कारण में कार्य का उपचार है। आपः है कारण और घृतम् है कार्य।]
०३।०१३।०६
आदित्प॑श्याम्यु॒त वा॑ शृणो॒म्या मा॒ घोषो॑ गच्छति॒ वाङ्मा॑साम्।
मन्ये॑ भेजा॒नो अ॒मृत॑स्य॒ तर्हि॒ हिर॑ण्यवर्णा॒ अतृ॑पं य॒दा वः॑ ॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः(आत्) तब (इत्) ही (पश्यामि) मैं देखता हूँ, (उत) और (वा) अथवा (शृणोमि) मैं सुनता हूँ, (आसाम्) इसकी [जल के रस की] (घोषः) ध्वनि (मा) मुझे (आ गच्छति) आती है और (वाक्) वाक्शक्ति (मा) मुझे [आती है]। (हिरण्यवर्णाः) हे कमनीय पदार्थ वा सुवर्ण का विस्तार करनेवाले [जल]। (तर्हि) तभी (अमृतस्य) अमृत का (भेजानः) भोग करता हुआ मैं (मन्ये) अपने को मानूँ, (यदा) जब (वः) तुम्हारी (अतृपम्) तृप्ति मैंने पाई है ॥६॥
भावार्थःजल के यथावत् प्रयोग से प्राणी में दर्शनशक्ति और श्रवणशक्ति और ‘घोष’ ध्वन्यात्मक शब्द और ‘वाक्’ वर्णात्मक शब्द बोलने की शक्ति होती है और तभी वह इष्ट सुवर्णादि धन की प्राप्ति से भूख आदि से मृत्युदुःख का त्याग करके अमृत अर्थात् आनन्द भोगता है ॥६॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थः (आत् इत्) तदनन्तर (पश्यामि) मैं देखता हूँ, (उत वा) तथा (शृणोमि) सुनता हूँ (मा) मुझे (घोषः) शब्द (आ गच्छति) प्राप्त होता है, (मा वाक्) तथा मुझे वाणी (आ गच्छति) प्राप्त होती है (आसाम्) इन आप: के [रसागमन से, मन्त्र ५]। (तहि) तब (अमृतस्य) अमृत का (भेजानः) सेवन करता हुआ (मन्ये) मैं अपने को मानता हूँ (यदा) जबकि (हिरण्यवर्णाः) हितरमणीयवर्ण वाले हे आपः! (व:) तुम्हारे सेवन से (अतृपम्) मैं तृप्त हो जाता हूँ।
टिप्पणी: [आत् इत्=मन्त्र ५ के अनुसार "तीव्र रस" के सेवन पश्चात्
श्रवण आदि में शक्ति संचार हो जाने पर। भेजन:= भज सेवायाम् (भ्वादिः)।]
०३।०१३।०७
इ॒दं व॑ आपो॒ हृद॑यम॒यं व॒त्स ऋ॑तावरीः।
इ॒हेत्थमेत॑ शक्वरी॒र्यत्रे॒दं वे॒शया॑मि वः ॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (आपः) हे प्राप्ति के योग्य जल धाराओं ! (इदम्) यह (वः) तुम्हारा (हृदयम्) स्वीकार योग्य हृदय वा कर्म है। (ऋतावरीः) हे सत्यशील [जलधाराओं !] (अयम्) यह (वत्सः) निवास देनेवाला, आश्रय है। (शक्वरीः) हे शक्तिवालियों ! (इत्थम्) इस प्रकार से (इह) यहाँ पर (आ इत) आओ, (यत्र) जहाँ (वः) तुम्हारे (इदम्) जल को (वेशयामि) प्रवेश करूँ ॥७॥
भावार्थःकृषि, यन्त्र, औषधादि में जल के यथायोग्य प्रयोग से प्राणियों को सुख मिलता है ॥७॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थः (आप:) हे आपः! (इदम्) उदक (व:) तुम्हारा (हृदयम्) हृदय१ है, (अयम् वत्सः) [उदक] यह तुम्हारा वत्स है (ऋतावरी:) हे उदकवाली नदियों! (इह) इस स्थान में (शक्वरीः) हे शक्तिशाली आपः! (इत्थम्) इस प्रकार तुम (एत) आओ, (यत्र) जिस स्थान में (व:) तुम्हारे (इदम्) उदक को (वेशयामि) मैं प्रविष्ट करता हूँ।
टिप्पणी: ["इदम् उदकनाम" (निघं० १।१२)। यह उदक "ऋतावरी:" ऋत अर्थात् जलवाली नदियों का हृदयरूप है। हृदय में रक्तरूपी उदक होता है, तुम में भी ऋत अर्थात् उदक विद्यमान है, "ऋतम् उदकनाम" (निघं० १।१२) इस उदक के कारण नदियों को ऋतावरी: कहा है। "ऋतावर्यः नदीनाम" (निघं० १।१३)। उदक नदियों से उत्पन्न होते हैं, अत: उदक नदियों के वत्स हैं। आपः हैं शक्वरीः, शक्तिशाली। इन द्वारा कृषि होती है तथा अन्य कार्य भी सम्पन्न होते हैं। वेशयामि द्वारा कुल्या का वर्णन हुआ है। कुल्या२ है धारा, नहर।]
[१. जिस स्थान में कि उदक का प्रवेश हुआ है उसे हृदय कहा है, उदकपूर्ण स्थान हृदय-सदृश है। २. कौ पृथिव्यां लीयते। जोकि पृथिवी में ही लीन हो जाती है, समुद्र तक नहीं पहुँचती।]
सूक्त १४
०३।०१४।०१
सं वो॑ गो॒ष्ठेन॑ सु॒षदा॒ सं र॒य्या सं सुभू॑त्या।
अह॑र्जातस्य॒ यन्नाम॒ तेना॑ वः॒ सं सृ॑जामसि ॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः[हे गौओं !] (वः) तुमको (सुषदा) सुख से बैठने योग्य (गोष्ठेन) गोशाला से (सम्) मिलाकर (रय्या) धन से (सम्) मिलाकर और (सुभूत्या) बहुत सम्पत्ति से (सम्) मिलाकर और (अहर्जातस्य) प्रतिदिन उत्पन्न होनेवाले [प्राणी] का (यत् नाम) जो नाम है, (तेन) उस [नाम] से (वः) तुमको (सम्, सृजामसि=०−मः) हम मिलाकर रखते हैं ॥१॥
भावार्थःमनुष्य गौओं को स्वच्छ नीरोग गोशाला में रखकर पालें और उनको अपने धन और सम्पत्ति का कारण जानकर अन्य प्राणियों के समान उनके नाम बहुला, कामधेनु, नन्दिनी आदि रक्खे ॥१॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थः [हे गौओ!] (वः) तुम्हारा (सुषदा गोष्ठेन) सुखपूर्वक बैठनेवाली गोशाला के साथ, (सम् सृजामसि) संसर्ग हम करते हैं, (रय्या सम्) आहार आदिरूप धन के साथ संसर्ग करते हैं, (सुभूत्या सम्) समृद्धि के साथ संसर्ग करते हैं। (अहर्जातस्य) प्रतिदिन पैदा अर्थात् प्रकट हुए सूर्यसम्बन्धी (यत्) जो (नाम) उदक है, (तेन) उसके साथ (व:) तुम्हारा (सं सृजामसि) हम संसर्ग करते हैं।
टिप्पणी:["नाम उदकनाम" (निघं० १।१२)। अभिप्राय यह कि प्रतिदिन ताजे उदक के साथ तुम्हारा संसर्ग करते हैं, तुम्हारे पीने के लिए। यथा "शुद्धा अप: सुप्रपाणे पिबन्तीः" (अथर्व० ४।२१।७)।]
०३।०१४।०२
सं वः॑ सृजत्वर्य॒मा सं पू॒षा सं बृह॒स्पतिः॑।
समिन्द्रो॒ यो ध॑नंज॒यो मयि॑ पुष्यत॒ यद्वसु॑ ॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (वः) तुमको (अर्यमा) अरि अर्थात् हिंसकों का नियामक [गोपाल] (सम्) मिलाकर (पूषा) पोषण करनेवाला [गृहपति] (सम्) मिलाकर और (बृहस्पतिः) बड़े-बड़ों का रक्षक [विद्वान् वैद्यादि पुरुष] (सम्) मिलाकर और (इन्द्रः) बड़े ऐश्वर्यवाला राजा, (यः धनंजयः) जो धनों का जीतनेवाला है, (सम् सृजतु) मिलाकर रक्खे। (मयि) मुझमें (यत्) पूजनीय (वसु) धन को (पुष्यत) तुम पुष्ट करो ॥२॥
भावार्थःसब प्रजागण और प्रजापालक राजा राजनियम से गौओं की वृद्धि करें जिससे कृषि, व्यापारादि द्वारा संसार में धन बढ़े ॥२॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थः [हे गौओ!] (व:) तुम्हारा (सं सृजतु) संसर्ग करे [शुद्ध उदक आदि के साथ, मन्त्र १] (अर्यमा) राष्ट्र का न्यायाधीश (सम्) तुम्हारा संसर्ग करे (पूषा) राष्ट्र के पोषण का अधिकारी, (सम्) तुम्हारा संसर्ग करे (बृहस्पतिः) बृहती-वेदवाणी का अर्थात् धर्म शिक्षा का अधिकारी। (यः) जो (धनंजयः) धनाधिपति (इन्द्रः) सम्राट् है वह (सम्) तुम्हारा संसर्ग करे [शुद्ध उदक आदि के साथ, मन्त्र १], (मयि) ताकि मुझ [प्रत्येक राष्ट्रवासी] में, (पुष्यत) हे गौओ! परिपुष्ट करो (यद्) जो कि (वसु) क्षीरघृतादि तुम्हारी सम्पत्ति है।
टिप्पणी:[जैसे राष्ट्र की मनुष्यप्रजा के खाद्य-पेय तथा सुरक्षा के लिए नियम होते हैं, वैसे राष्ट्र के अधिकारी, गौ आदि पशु प्रजा के लिए भी नियम बनाएँ-यह अभिप्राय है।]
०३।०१४।०३
सं॑जग्मा॒ना अबि॑भ्युषीर॒स्मिन्गो॒ष्ठे क॑री॒षिणीः॑।
बिभ्र॑तीः सो॒म्यं मध्व॑नमी॒वा उ॒पेत॑न ॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः(अस्मिन् गोष्ठे) इस गोशाला में (संजग्मानाः) मिलकर चलती हुई, (अबिभ्युषीः=०−ष्यः) निर्भय रहती हुई, (करीषिणीः=०−ण्यः) गोबर करनेवाली, (सोम्यम्) अमृतमय (मधु) रस (बिभ्रतीः=०−त्यः) धारण करती हुई, (अनमीवाः) नीरोग तुम (उपेतन=उप, आ, इत) चली आओ ॥३॥
भावार्थःमनुष्य गौओं को हिंसक जीवों से बचाकर नीरोग रक्खें जिससे वे रोगनाशक, अमृतमय दूध, घृत आदि पदार्थ देती रहें। गौ के मूत्र, गोबर, दूध आदि के गुण और प्रयोग बहुत हैं ॥३॥
शब्दकल्पद्रुम कोष में गौ के गुण वर्णन करते हुए कहा है−गोमूत्रं गोमयं क्षीरं सर्पिर्दधि च रोचना। षडङ्गमेतन्मङ्गल्यं पवित्रं सर्वदा गवाम् ॥ गोमूत्र, गोबर, दूध, घी, दही और गोरोचना, गौओं के यह छह प्रकार के सर्वदा मङ्गलकारी शुद्ध पदार्थ हैं ॥ मनु भगवान् का वचन है-
गोमूत्रं गोमयं क्षीरं दधि सर्पिः कुशोदकम्।
एकरात्रोपवासश्च कृच्छ्रं सान्तपनं स्मृतम् ॥
मनु० ११।२१२ ॥
गोमूत्र, गोबर, दूध, दही, घी और कुशा का पानी, एक दिन [खावे] फिर एक दिन-रात उपवास करे। यह कृच्छ्र सान्तपन कहाता है ॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थः [हे गौओ।] (संजग्मानाः) मिलकर गमन करती हुई, (अबिभ्युषी:) चोर और व्याघ्र आदि के भय से रहित हुई, (करीषिणी:) खाद के लिए गोबर देती हुई (अस्मिन् गोष्ठे) इस गोशाला में रहो। तथा (सोम्यम्) सोमसदृश गुणकारी (मधु) मधुर दूध का (बिभ्रतीः) धारण करती हुई, (अनमीवाः) तथा रोगरहित हुई, (उपतेन) हमारे समीप आओ।
०३।०१४।०४
इ॒हैव गा॑व॒ एत॑ने॒हो शके॑व पुष्यत।
इ॒हैवोत प्र जा॑यध्वं॒ मयि॑ सं॒ज्ञान॑मस्तु वः ॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (गावः) हे गौओ ! (इह एव) यहाँ ही (एतन) आओ (इहो=इह उ) यहाँ ही (शका इव) समर्था [गृहपत्नी] के समान (पुष्यत) पोषण करो। (उत) और (इह एव) यहाँ पर ही (प्रजायध्वम्) बच्चों से बढ़ो। (मयि) मुझमें (वः) तुम्हारा (संज्ञानम्) प्रेम (अस्तु) होवे ॥४॥
भावार्थःजैसे समर्थ गृहपत्नी घरवालों का पोषण करके प्रसन्न रखती है, ऐसे ही गौएँ अपने दूध घी, आदि से अपने रक्षकों को पुष्ट और स्वस्थ करती हैं। इससे सब मनुष्य प्रीतिपूर्वक उनका पालन करें और उनका वंश बढ़ावें ॥४॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थः (गावः) हे गौओ! (इह एव) इस गोशाला में ही (एतन) आओ, (इह उ) इस गोशाला में ही (पुष्यत) परिपुष्ट होओ, परिपुष्टान्न का ग्रहण करो, (शका इव) शक्तिशाली हस्तिनी१ के सदृश परिपुष्ट होओ। (इह एव) इस गोशाला में ही (प्रजायध्वम्) सन्तानें पैदा करो। (मयि) मुझ गोशालाधिपति में (व:) तुम्हारा (संज्ञानम्) ऐकमत्य या संप्रीति (अस्तु) हो।
टिप्पणी: [ग्वाले के साथ गौएँ संचरणार्थ बाहर जाती हैं, उनके प्रति कहा है कि लौटकर तुम अपनी गोशाला में ही वापिस आओ, भ्रमवश अन्य किसी स्थान में न चली जाओ। सायणाचार्य ने "शका" का अर्थ किया है "मक्षिका, अर्थात् जैसे मक्षिकाएँ प्रभूत संख्या में पैदा हो जाती हैं, वैसे हे गौओ! तुम भी प्रभूत संतानों को को पैदा करो।] [१. गौएँ भी महाकाया होती हैं, और हस्तिनी भी महाकाया होती है। गौ और हस्तिनी दोनों पद स्त्रीलिङ्गी हैं। इस प्रकार दोनों में साम्य है। हस्तिनी शका है, शक्तिशाली है। मक्षिका शक्तिशाली नहीं। ]
०३।०१४।०५
शि॒वो वो॑ गो॒ष्ठो भ॑वतु शारि॒शाके॑व पुष्यत।
इ॒हैवोत प्र जा॑यध्वं॒ मया॑ वः॒ सं सृ॑जामसि ॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (वः) तुम्हारी (गोष्ठः) गोशाला (शिवः) मङ्गलदायक (भवतु) होवे।
(शारिशाका इव) शालि [साठी चावल] की शाखा [उपज] के समान (पुष्यत) पोषण करो। (उत) और
(इह एव) यहाँ ही (प्रजायध्वम्) बच्चों से बढ़ो। (मया=अस्माभिः) अपने साथ (वः) तुमको
(संसृजामसि=०−मः) हम मिलाकर रखते हैं ॥५॥
भावार्थः जैसे ‘शारि, शालि’ साठी चावल की शालि ‘शाका’ थोड़े प्रयत्न से साठ दिन में ही पक जाती है, वैसे ही मनुष्य यत्नपूर्वक थोड़े परिश्रम से पालन करके गौओं से दूध, घी और खेती के लिये बैल आदि पाकर बहुत लाभ उठाते हैं ॥५॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थः [हे गौओ!] (गोष्ठः) गोशाला (व:) तुम्हारे लिए (शिव:) सुखकारी (भवतु) हो, (शारिशाकेव१) मैना और [शाका] शुक अर्थात् तोते के सदृश (पुष्यत) गोशाला में परिपुष्ट होओ। (उत) तथा (इह एव) इस गोशाला में ही (प्रजायध्वम्) तुम सन्ताने उत्पन्न करो, (वः) तुम्हारा (मया) मेरे अर्थात् अपने साथ (सं सृजामसि) मैं संसर्ग करता हूँ। [मन्त्र ४ में शका पाठ है, शाका पाठ नहीं।]
टिप्पणी:[शारि:=A bird called sarika (आप्टे)। शारि अर्थात् सारिका स्त्रीलिङ्गी पद है, अत: सम्भवतः मैना-पक्षिणी है। शाका=शुकः, तोता?। इस सम्बन्ध में कहा है कि "आत्मनो मुखदोषेण बध्यन्ते शुकसारिकाः", सारिका पंजरस्था (आप्टे) अर्थात् अपने मुखदोष के कारण शुक और सारिका बाँधे जाते हैं। सारिका है पिञ्जरे में स्थित। मुखदोष है मनुष्य के सदृश बोलना। शुक और शारि [सारिका] दोनों मनुष्य के सदृश बोल सकते हैं। सृजामसि=सृजामि मैना और शुक का परिपोषण गृहस्थी प्रायः प्रेम से करते हैं, इसी प्रकार गौओं का परिपोषण भी प्रेमपूर्वक करना चाहिए,—यह सूचित किया है।]
[१. शारिशाकेव=शारि है शकुनिः, अर्थात् पक्षिणी (दशपाद्युणादिवृत्तिः १।५६)। तथा शारि: पक्षी (उणा० ४।१२९, दयानन्द)। शारि के सहयोग द्वारा शाका भी पक्षिणी प्रतीत होती है, सम्भवत: मैना। "शुकशारिकम्" भी पाठ है (उणा० ४।१२९, दयानन्द)। इस द्वन्द्व समास द्वारा शाका पद शुक अर्थात् तोता या तोती अर्थ सूचित करता है।]
०३।०१४।०६
मया॑ गावो॒ गोप॑तिना सचध्वम॒यं वो॑ गो॒ष्ठ इ॒ह पो॑षयि॒ष्णुः।
रा॒यस्पोषे॑ण बहु॒ला भव॑न्तीर्जी॒वा जीव॑न्ती॒रुप॑ वः सदेम ॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः(गावः) हे गौओं ! (मया गोपतिना) मुझ गोपति से (सचध्वम्) मिली
रहो। (इह) यहाँ (अयम्) यह (पोषयिष्णुः) पोषण करनेवाली (वः) तुम्हारी (गोष्ठः) गोशाला
है। (रायः) धन की (पोषेण) पुष्टि से (बहुलाः) बहुत पदार्थ देनेवाली अथवा वृद्धि करनेवाली
(भवन्तीः) होती हुई और (जीवन्तीः) जीती हुई (वः) तुमको (जीवाः) जीते हुए हम लोग (उप)
आदर से (सदेम) प्राप्त करते रहें ॥६॥
भावार्थः मनुष्य गौओं की सेवा से दुग्ध, घृत, कृषि आदि की उन्नति करके बहुत काल तक जीते और सुख भोगते रहें ॥६॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थः(गाव:) है गौओ! (मया गोपतिना) मुझ गोपति के साथ (सचध्यम्) तुम सम्बद्ध रहो, (इह) इस स्थान में (व: गोष्ठः) तुम्हारी गोशाला है, (अयम्) यह गोष्ठ अर्थात् गोशाला (व:) तुम्हारी (पोषयिष्णुः) पोषिका है। (रायस्पोषेण) धन की पुष्टि द्वारा (बहुला भवन्तीः) बहुत होती हुई, (जीवन्तीः) तथा चिरकाल तक जीवित रहती हुई (व:) तुम्हारे (उप) समीप (जीवाः) जीवित हम (सदेम) स्थित रहे।
टिप्पणी: [रायस्पोषेण=धन की पुष्टि है, धन की समृद्धि। गौओं के घृतादि के विक्रय द्वारा धन का आधिक्य हो जाता है और धनाधिक्य से गौओं को खरीद कर गौओं का बाहुल्य हो जाता है। जीवा: मनुष्यों का जीवन, गौओं के दुग्ध, दधि तथा घृत के सेवन से बढ़ता है और वे दीर्घायु हो जाते हैं। दुग्धादि शरीर की परिपुष्टि करते हैं। गौओं का दुग्धादि सात्त्विक होता है, सत्त्व के बढ़ने से आयु दीर्घ हो जाती है।]
सूक्त १५
०३।०१५।०१
इन्द्र॑म॒हं व॒णिजं॑ चोदयामि॒ स न॒ ऐतु॑ पुरए॒ता नो॑ अस्तु।
नु॒दन्नरा॑तिं परिप॒न्थिनं॑ मृ॒गं स ईशा॑नो धन॒दा अ॑स्तु॒ मह्य॑म् ॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (अहम्) मैं (इन्द्रम्) बड़े ऐश्वर्यवाले (वणिजम्) वणिक् को (चोदयामि) आगे बढ़ाता हूँ, (सः) वह (नः) हममें (एतु) आवे और (नः) हमारा (पुरएता) अगुआ (अस्तु) होवे। (अरातिम्) वैरी, (परिपन्थिनम्) डाकू और (मृगम्) वनैले पशु को (नुदन्) रगेदता हुआ (सः) वह (ईशानः) समर्थ पुरुष (मह्यम्) मुझे (धनदाः) धन देनेवाला (अस्तु) होवे ॥१॥
भावार्थःमनुष्य व्यापारकुशल पुरुष को अपना मुखिया बनाकर वाणिज्य और मार्ग की ऊँच-नीच समझकर वाणिज्य में धन लगाने से लाभ उठाते हैं ॥१॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थः (अहम्) मैं [राष्ट्रपति राजा] (वणिजम्) वाणिज्य अर्थात् व्यापार के कर्त्ता (इन्द्रम्) ऐश्वर्यशाली को (चोदयामि) प्रेरित करता हूँ, (सः) वह (नः) हमें (ऐतु) प्राप्त हो, (नः) हमारा (पुरः एता) अग्रगामी, अग्रणी (अस्तु) हो। (अरातिम्) अदाता को, (परिपन्थिनम्) मत्प्रदर्शित पथ के विरोधी को (मृगम्) मृग सदृश कृषिविनाशक को (नुदन्) धकेलता हुआ, (सः) वह (ईशानः) धनेश्वर इन्द्र (मह्यम्) मुझे (धनदा:) धनदाता (अस्तु) हो।
टिप्पणी: [राजा, व्यापारज्ञ वणिक् को, व्यापाराध्यक्ष नियत करता है। उसे कहता है कि मैंने व्यापार की जो नीति निर्धारित की है, उसके विरोधी को तू धकेल दे और वन्यमृगों को भी धकेल दे, जो कि समीपस्थ ग्रामीण-कृषि का विनाश करते हैं। मन्त्र आधिभौतिक अर्थ को परिपुष्ट करता है 'इन्द्र' को वणिक् कहकर।]
०३।०१५।०२
ये पन्था॑नो ब॒हवो॑ देव॒याना॑ अन्त॒रा द्यावा॑पृथि॒वी सं॒चर॑न्ति।
ते मा॑ जुषन्तां॒ पय॑सा घृ॒तेन॒ यथा॑ क्री॒त्वा धन॑मा॒हरा॑णि ॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (ये) जो (देवयानाः) विद्वान् व्यापारियों के यानों रथादिकों के योग्य (बहवः) बहुत से (पन्थानः) मार्ग (द्यावापृथिव्यौ=०−व्यौ) सूर्य और पृथिवी के (अन्तरा) बीच (संचरन्ति) चलते रहते हैं, (ते) वे [मार्ग] (पयसा) दूध से और (घृतेन) घी से (मा) मुझको (जुषन्ताम्) तृप्त करें, (यथा) जिससे (क्रीत्वा) मोल लेकर [व्यापार करके] (धनम्) धन (आहराणि) मैं लाऊँ ॥२॥
भावार्थःव्यापारी लोग विमान, रथ, नौकादि द्वारा आकाश, भूमि, समुद्र, पर्वत, आदि से देश-देशान्तरों में जाकर अनेक प्रकार व्यापार करके मूलधन बढ़ावें और धनाढ्य होकर घर आवें ॥२॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थः (द्यावापृथिवी अन्तरा) द्युलोक तथा पृथिवी के मध्य में अर्थात् अन्तरिक्ष के वायुमण्डल में, (देवयानाः) व्यवहारियों के (ये पन्थानः) जो मार्ग (संचरन्ति) संचरित होते हैं, (ते) वे मार्ग (पयसा घृतेन) दुग्ध और घृत द्वारा (मा जुषन्ताम्) मेरी सेवा करें, (यथा) जिस प्रकार कि (क्रीत्वा) खरीद कर (धनम् आहरामि) धन को मैं प्राप्त करूं।
टिप्पणी: [देवयाना:=दीव्यन्ति व्यवहरन्तीति देवा: वणिजः। ते यत्र यान्ति
ते देवयानाः (सायण)। तथा देवाः= दिवु क्रीड़ा विजिगीषा "व्यवहार" आदि (दिवादिः)।
संचरन्ति= वे मार्ग जिनमें प्राय: वायुयानों द्वारा संचार होता है। ये मार्ग वायुयानों
के आने जाने के लिए निश्चित किये जाते हैं। दुग्ध-घृत आदि के विक्रय से प्राप्त धन
द्वारा देश-देशान्तरों से वस्तुओं का क्रय करके धन के आहरण का कथन हुआ है। क्रीत वस्तुएँ
लाकर निजदेश में इनके विक्रय से धन की प्राप्ति होती है।]
०३।०१५।०३
इ॒ध्मेना॑ग्न इ॒च्छमा॑नो घृ॒तेन॑ जु॒होमि॑ ह॒व्यं तर॑से॒ बला॑य।
याव॒दीशे॒ ब्रह्म॑णा॒ वन्द॑मान इ॒मां धियं॑ शत॒सेया॑य दे॒वीम् ॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः(अग्ने) हे अग्निसदृश तेजस्वी विद्वान् ! (इच्छमानः) [लाभ की] इच्छा करता हुआ मैं (इध्मेन) इन्धन और (घृतेन) घृत से (तरसे) तरानेवाले वा जितानेवाले (बलाय) बल के लिए (हव्यम्) हवनसामग्री का (जुहोमि) होम करता हूँ, (यावत्) जहाँ तक (ब्रह्मणा) ब्रह्म द्वारा [दी हुई] (इमाम्) इस (देवीम्) व्यवहारकुशल (धियम्) निश्चल बुद्धि की (वन्दमानः) वन्दना करता हुआ मैं (शतसेयाय) सैकड़ों उद्यम के लिए (ईशे) समर्थ हूँ ॥३॥
भावार्थःजैसे समिधा और घृतादि से अग्नि का तेज बढ़कर अन्धकार हटता है, वैसे ही मनुष्य सर्वोत्तम वेदविद्या को प्रीतिपूर्वक ग्रहण करके सामर्थ्य भर वाणिज्य में उद्योग करके प्रभूत धन पावें और दरिद्रतादि को मिटावें ॥३॥ यह मन्त्र ऋग्वेद म० ३ सू० १८ म० ३ में है ॥३॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थः(अग्ने) हे अग्रणी प्रधानमंत्रिन् ! (इच्छमानः) चाहता हुआ में (तरसे बलाय) राष्ट्र के [दुःखों से] सन्तरण के लिए और शारीरिक बल की प्राप्ति के लिए, (इध्मेन) इध्म द्वारा, (घृतेन हव्यम्) घृतसम्मृक्त हवि की (जुहोमि) मैं आहुतियाँ देता हूँ (यावत् ईशे) जितनी कि मुझमें शक्ति है; (ब्रह्मणा वन्दमानः) वेद द्वारा परमेश्वर की स्तुति करता हुआ। तो (इमाम् देवीम् धियम्) मेरी इस दिव्य बुद्धि अर्थात् संकल्प को (शतसेयाय) शत-प्रति-शत दान कर देने के लिए [स्वीकृत कर।]
टिप्पणी: [जो व्यक्ति राष्ट्र को दुःखों तथा कष्टों से तैराने के लिए, तथा प्रजाजन के शारीरिक बल की वृद्धि के लिए, यावत्-शक्य निज सम्पत्ति लगा देना चाहता है, वह चाहता है कि अवशिष्ट को भी वह प्रजार्थ प्रदान कर दे तथा अवशिष्ट और आहुत सम्पत्ति पर "कर" न लगाया जाय-ऐसी प्रार्थना अग्रणी अर्थात् प्रधानमन्त्री से करता है। शतसेयाय= शत+षणु दाने (स्वादि:)। तरसे= तृ प्लवनसंतरणयोः (भ्वादिः)।]
०३।०१५।०४
इ॒माम॑ग्ने श॒रणिं॑ मीमृषो नो॒ यमध्वा॑न॒मगा॑म दू॒रम्।
शु॒नं नो॑ अस्तु प्रप॒णो वि॒क्रय॑श्च प्रतिप॒णः फ॒लिनं॑ मा कृणोतु।
इ॒दं ह॒व्यं सं॑विदा॒नौ जु॑षेथां शु॒नं नो॑ अस्तु चरि॒तमुत्थि॑तं च ॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (अग्ने) हे अग्नि सदृश तेजस्वी विद्वान् ! (नः) हमारी (इमाम्) इस (शरणिम्) पीड़ा को [उस मार्ग में] (मीमृषः) तूने सहा है (यम् दूरम् अध्वानम्) जिस दूर मार्ग को (अगाम) हम चले गये हैं। (नः) हमारा (प्रपणः) क्रय [मोल लेना] (च) और (विक्रयः) विक्री (शुनम्) सुखदायक (अस्तु) हो, (प्रतिपणः) वस्तुओं का लौट-फेर (मा) मुझको (फलिनम्) बहुत लाभवाला (कृणोतु) करे। (संविदानौ) एक मत होते हुए तुम दोनों [हम और तुम] (इदम् हव्यम्) इस भेंट को (जुषेथाम्) सेवें। (नः) हमारा (चरितम्) व्यापार (च) और (उत्थितम्) उठान [लाभ] (शुनम्) सुखदायक (अस्तु) होवे ॥४॥
भावार्थः जो मनुष्य विनयपूर्वक अपनी चूक मानकर विद्वानों की सम्मति से अपना सुधार करते हैं, वे व्यापार में अधिक लाभ उठाकर आनन्द पाते हैं ॥४॥ इस मन्त्र की प्रथम पङ्क्ति कुछ भेद से ऋ० म० १ सू० ३१ म० १६ में है ॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थः (अग्ने) हे अग्रणी प्रधानमन्त्रिन्! (यम् अध्वानम्) जिस मार्ग पर (दूरम्) दूर तक (अगाम) हम चले गये हैं, (न:) हमारी (इमाम् शरणिम्) इस आज्ञा भंग को (मीमृषः) तू सहन कर। (प्रपण:) व्यापारिक वस्तुओं का खरीदना अर्थात् क्रय करना, (विक्रय: च:) और उसका बेचना (न:) हमारे लिए (शुनम् अस्तु) सुखरूप हो तथा (प्रतिपणः) प्रत्येक वस्तु का बेचना (मा) मुझ प्रत्येक को (फलिनम् कृणोतु) फल लाभ करने वाला करे। (संविदानौ) तुम दोनों एकमत हुए (इदम् हव्यम्) इस हविः का (जुषेथाम्) सेवन करो। (चरितम्) खरीद में तथा विक्रय में संचरित अर्थात् लगाया गया धन, (च) और (उत्थितम्) उससे उठा अर्थात् प्राप्त हुआ लाभ, (न:) हम प्रत्येक प्रजाजन को (शुनम् अस्तु) सुखरूप हो।
टिप्पणी: [(मीमृष:) प्रधानमन्त्री ने व्यापारार्थ जिन देशों में जाने का निर्देश दिया था, क्रय के लिए उन देशों के दूर के देशों में भी चले जाना आज्ञाभंग है, इसे सहन करने की प्रार्थना व्यापारियों ने की है। हव्य है विक्रय-प्राप्त धनलाभ [उत्थितम्], इसका सेवन व्यापारी तथा राष्ट्र को ऐकमत्य होकर करना चाहिए। "हव्य" को यज्ञिय-हव्य जानना चाहिए, अत: इसके बाँटने में व्यापारी और प्रधानमन्त्री में वैमत्य न होना चाहिए, अपितु धर्म भावना से इसका विभाग करना चाहिए। यह विभाग राष्ट्र की सम्पत्ति है, व्यक्तिरूप प्रधानमंत्री की नहीं। मीमृष:= मृष तितिक्षायाम् (दिवादिः; चुरादिः), तितिक्षा है सहन करना। शुनम् सुखनाम (निघं० ३।६)]
०३।०१५।०५
येन॒ धने॑न प्रप॒णं चरा॑मि॒ धने॑न देवा॒ धन॑मि॒च्छमा॑नः।
तन्मे॒ भूयो॑ भवतु॒ मा कनी॒योऽग्ने॑ सात॒घ्नो दे॒वान्ह॒विषा॒ नि षे॑ध ॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (देवाः) हे व्यवहार-कुशल व्यापारियों ! (धनेन) मूलधन से (धनम्) धन (इच्छमानः) चाहनेवाला मैं (येन धनेन) जिस धन से (प्रपणम्) व्यापार (चरामि) चलाता हूँ, (तत्) वह धन (मे) मेरेलिये (भूयः) अधिक-अधिक (भवतु) होवे, (कनीयः) थोड़ा (मा) न [होवे]। (अग्ने) हे अग्निसदृश तेजस्वी विद्वान् ! (सातघ्नः) लाभ नाश करनेवाले (देवान्) मूर्खों को (हविषा) हमारी भक्ति द्वारा (निषेध) रोक दे ॥५॥
भावार्थः नवशिक्षित व्यापारी बड़े-बड़े व्यापारियों से लाभ-हानि की रीतें समझकर अपने मूल धन को बढ़ाते रहें और कुव्यवहारियों के फंदे में न पड़ें ॥५॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थः (देवाः) हे व्यवहार अर्थात् व्यापार के दिव्य अध्यक्षो! (धनम्, इच्छमानः) धन चाहता हुआ, (येन धनेन) जिस मूल धन के द्वारा (प्रपणम् चरामि) मैं व्यापारिक वस्तुओं का क्रय करता हूँ, (तत् मे) वह मेरा मूलधन (भूयः, भवतु) बढ़ता रहे, (कनीयः मा) कम न हो, (अग्ने) हे अग्रणी प्रधानमन्त्रिन्! (सातघ्नः) लाभ का हनन करनेवाले (देवान्) अन्य विजिगीषु व्यापारियों को (हविषा) हव्यांश द्वारा (निषेध) बाधा डालने से निवारित कर।
टिप्पणी: [सातघ्नः-सात लाभं घ्नन्तीति सातघ्नः (सायण)। देवान्=दिवु क्रीड़ा विजिगीषा.... (दिवादिः), अर्थात् प्रतिस्पर्धा में व्यापार में निजविजय चाहनेवाले व्यापारी। इन्हें हमारे व्यापारों से प्राप्त धन का हिस्सा देकर सन्तुष्ट कर प्रतिस्पर्धा से निवारित कर, यह प्रधानमन्त्री को कहा गया है।]
०३।०१५।०६
येन॒ धने॑न प्रप॒णं चरा॑मि॒ धने॑न देवा॒ धन॑मि॒च्छमा॑नः।
तस्मि॑न्म॒ इन्द्रो॒ रुचि॒मा द॑धातु प्र॒जाप॑तिः सवि॒ता सोमो॑ अ॒ग्निः ॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः((देवाः) हे व्यवहारकुशल व्यापारियो ! (धनेन) मूल धन से (धनम्) धन (इच्छमानः) चाहता हुआ मैं (येन धनेन) जिस धन से (प्रपणम्) व्यापार (चरामि) चलाता हूँ (तस्मिन्) उस [धन] में (मे) मुझे (प्रजापतिः) प्रजापालक (सविता) ऐश्वर्यवान् (सोमः) चन्द्र [समान शान्त-स्वभाव] (अग्निः) अग्नि [समान तेजस्वी], (इन्द्रः) बड़ा समर्थ प्रधान पुरुष (रुचिम्) रुचि (आदधातु) देवे ॥६॥
भावार्थः मनुष्य उत्तम स्वभाववाले अनुभवी पुरुषों की सम्मति से व्यापार में मन लगाकर लाभ के साथ मूल धन को बढ़ावें ॥६॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थः (येन धनेन इच्छमानः) पूर्ववत् (मन्त्र ५)। (तस्मिन्) उस व्यापार में (मे रुचिम्) मुझ व्यापारी की रुचि को (इन्द्रः आ दधातु) सम्राट् स्थापित करे, (प्रजापतिः) प्रजाओं का पति, अर्थात् राजा, (सविता) प्रसवों तथा राष्ट्र के ऐश्वर्य का अध्यक्ष [Finance Minister], (सोमः) जलाध्यक्ष, (अग्निः) तथा अग्रणी प्रधानमन्त्री।
टिप्पणी: [इन्द्र=वाणिज्य का अधिकारी (मन्त्र १), अथवा साम्राज्य का सम्राट "इन्द्रश्च सम्राड् वरुणश्च राजा" (यजु:० ८।३७)। सविता= षु प्रसवैश्वर्ययोः (भ्वादिः), यह दो विभागों का अधिकारी, अर्थात् मन्त्री है। सोमः=water (आप्टे)। छोटे व्यापारियों की व्यापार में तभी रुचि हो सकती है जबकि कथित अधिकारी, इन्हें बड़े व्यापारियों द्वारा दी गई प्रतिस्पर्धा से सुरक्षित कर दें। जलाध्यक्ष का कथन हुआ है कृषि द्वारा किये जानेवाले व्यापार में।]
०३।०१५।०७
उप॑ त्वा॒ नम॑सा व॒यं होत॑र्वैश्वानर स्तु॒मः।
स नः॑ प्र॒जास्वा॒त्मसु॒ गोषु॑ प्रा॒णेषु॑ जागृहि ॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (होतः) हे दानशील ! (वैश्वानर) हे सब नरों के हितकारक, वा सबके नायक पुरुष ! (वयम्) हम लोग (नमसा) नमस्कार के साथ (त्वा) तुझको (उप) आदर से (स्तुमः) सराहते हैं। (सः=सः त्वम्) सो तू (नः) हमारी (प्रजासु) प्रजाओं पर, (आत्मसु) आत्माओं वा शरीरों पर (गोषु) गौओं पर और (प्राणेषु) प्राणों वा जीवनों पर (जागृहि) जागता रह ॥७॥
भावार्थः व्यापारी लोग सर्वहितकारी, कर्मकुशल पुरुष को प्रधान बनाकर अपने धनादि की रक्षा करें ॥७॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थः (वैश्वानर) हे सब नर नारियों के हितकारी, (होत:)१ तथा सबके दाता परमेश्वर!] (वयम्) हम (नमसा) नमस्कारपूर्वक (त्वा उप) तेरे समीप हुए (स्तुमः) तेरी स्तुति करते हैं। (सः) वह तू (न:) हमारी (प्रजासु) पुत्रादि प्रजाओं में, (आत्मसु) हमारी आत्माओं में, (गोषु) हमारी इन्द्रियों में, (प्राणेषु) हमारे प्राणों में (जागृहि) जागरित रह।
टिप्पणी: [राष्ट्र का प्रत्येक प्रजाजन परमेश्वर से प्रार्थना करता है कि तू हमारी प्रजा आदि की रक्षा के लिए, उनमें व्याप्त हुआ, सदा जागरित रहे, हम सब नमस्कारों द्वारा तेरी स्तुति करते हैं । वैश्वानर=विश्वनरहित (सायण)। वैदिक धर्म अनुसार राष्ट्र का प्रत्येक जन परमेश्वर की उपासना तथा स्तुति किया करे, इसका विधान मन्त्र में हुआ है। वैदिक राष्ट्र secular अर्थात् धर्मनिरपेक्ष नहीं, अपितु धर्मभावनाओंवाला है।]
[ १. हु दानादनयोः (जुहोत्यादि)।]
०३।०१५।०८
वि॒श्वाहा॑ ते॒ सद॒मिद्भ॑रे॒माश्वा॑येव॒ तिष्ठ॑ते जातवेदः।
रा॒यस्पोषे॑ण॒ समि॒षा मद॑न्तो॒ मा ते॑ अग्ने॒ प्रति॑वेशा रिषाम ॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (जातवेदः) हे उत्तम धनवाले पुरुष ! (विश्वाहा=०−हानि) सब दिनों (ते) तेरे [उद्देश्य के] लिये (इत्) ही (सदम्) समाज को (भरेम) भरते रहें, (इव) जैसे (तिष्ठते) थान पर ठहरे हुए (अश्वाय) घोड़े को [घास अन्नादि भरते हैं]। (अग्ने) हे अग्नि समान तेजस्वी विद्वान् ! (रायः) धन की (पोषेण) पुष्टि से और (इषा) अन्न से (समु) अच्छे प्रकार (मदन्तः) आनन्द करते हुए (ते) तेरे (प्रतिवेशाः) सन्मुख रहनेवाले हम लोग (आ रिषाम) न दुःखी होवें ॥८॥
भावार्थः जैसे मार्ग से आये घोड़े को अन्न-घासादि से पुष्ट करते हैं, इसी प्रकार सब व्यापारी बड़ी-बड़ी वणिक् मण्डली बनाकर प्रधान पुरुष की शक्ति बढ़ावें, जिससे सब लोग बहुत सा धन और अन्नादि पाकर आनन्द भोगें ॥८॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थः (जातवेदः) उत्पन्न पदार्थों में विद्यमान [हे अग्नि!] (विश्वाहा) सब दिन (सदम् इत्) सदा ही (ते) तेरे लिए (भरेम) हम आहुतियाँ प्रदान करें, (तिष्ठते) अश्वशाला में स्थित (अश्वाय) अश्व के लिए (इव) जैसे [घास-चारा दिया जाता है।] (रायस्पोषण) धन की परिपुष्टि द्वारा, (इषा) तथा अन्न द्वारा (सम् मदन्तः) हृष्ट तथा प्रसन्न होते हुए, (अग्ने) हे यज्ञिय अग्नि ! (ते प्रतिवेशाः) तेरे समीपस्थ रहनेवाले हम (मा रिषाम१) न हिंसित हो।
टिप्पणी: [रुष रिष हिंसायाम् (भ्वादि:, दिवादि:)। यज्ञियाग्नि में प्रतिदिन रोगनाशक औषधियों की आहुतियां से रोगनिवारण होकर प्रजा का स्वास्थ्यसंवर्धन होता है। अतः यह भी राष्ट्रीय धर्म है (अथर्ववेद १/३१/१-३)।]
इति तृतीयोऽनुवाकः ॥
सूक्त १६
०३।०१६।०१
प्रा॒तर॒ग्निं प्रा॒तरिन्द्रं॑ हवामहे प्रा॒तर्मि॒त्रावरु॑णा प्रा॒तर॒श्विना॑।
प्रा॒तर्भगं॑ पू॒षणं॒ ब्रह्म॑ण॒स्पतिं॑ प्रा॒तः सोम॑मु॒त रु॒द्रं ह॑वामहे ॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (प्रातः) प्रातःकाल (अग्निम्) [पार्थिव] अग्नि को, (प्रातः) प्रातःकाल (इन्द्रम्) बिजुली वा सूर्य को, (प्रातः) प्रातःकाल (मित्रावरुणा=०-णौ) प्राण और अपान को, (प्रातः) प्रातःकाल (अश्विना) कामों में व्याप्ति रखनेवाले माता पिता को (हवामहे) हम बुलाते हैं। (प्रातः) प्रातःकाल (भगम्) ऐश्वर्यवान्, (पूषणम्) पोषण करनेवाले (ब्रह्मणः) वेद, ब्रह्माण्ड, अन्न वा धन के (पतिम्) पति, परमेश्वर को, (प्रातः) प्रातःकाल (सोमम्) ऐश्वर्य करानेवाले वा मनन किये हुए पदार्थ वा आत्मा [अपने बल] वा अमृत [मोक्ष, वा अन्न, दुग्ध, घृतादि] को (उत) और (रुद्रम्) दुःखनाशक वा ज्ञानदाता आचार्य को (हवामहे) हम बुलाते हैं ॥१॥
भावार्थः मनुष्य प्रातःकाल [सूर्य निकलने से छः घड़ी पहिले] परमेश्वर का ध्यान करता हुआ, मन्त्र में वर्णित पार्थिव और सौर अग्नि के प्रयोग आदि अन्य आवश्यक कर्मों का विचार करके आत्मा को बढ़ाता हुआ अपने कर्त्तव्य में लगे ॥१॥ यह पूरा सूक्त कुछ भेद से ऋग्वेद ७।४१।१-७ और यजुर्वेद अध्याय ३४ मन्त्र ३४-५० में है ॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थः (प्रात:) प्रातःकाल [की उपासना में] (अग्निम्) पापदाहक परमेश्वर का, (प्रातः इन्द्रम्) प्रात:काल परमैश्वर्यवान् परमेश्वर का, (प्रातः) प्रात:काल (मित्रावरुणा) सर्वस्नेही अतः वरण करने योग्य परमेश्वर का, (प्रातः) प्रात:काल (अश्विनौ) प्राणायाम द्वारा प्राणापान अर्थात् श्वास-प्रश्वास का, (प्रातः) प्रातःकाल (भगम्) भगों से सम्पन्न भजन परमेश्वर का, (प्रातः) प्रात:काल (पूषणम्) पोषक परमेश्वर का, तथा (ब्रह्मणस्पतिम्) ब्रह्माण्ड तथा वेद के पति परमेश्वर का, (प्रातः) प्रात:काल (सोमम्) सौम्य स्वभाववाले परमेश्वर का, (उत) तथा (रुद्रम्) हमारे कर्मानुसार रौद्र फलप्रद स्वभाववाले परमेश्वर का (हवामहे) हम आह्वान करते हैं।
टिप्पणी: [मन्त्रोक्त नाम परमेश्वर के हैं और परमेश्वर के भिन्न- भिन्न गुण-कर्मों का प्रतिपादन करते हैं। अग्नि सर्वदाहक है, परमेश्वर भी सब दुरितों का दाहक है। मित्र:=ञिमिदा स्नेहने (भ्वादिः); वरुणः व्रियते वाऽसौ वरुणः (उणा० ३।५३, दयानन्द) (अश्विनौ नासत्यौ, नासाप्रभवौ इति वा, (निरुक्त ६।३।१३; पद ५०, ५१)। सोमम्, रुद्रम्=परमेश्वर है तो सौम्य स्वभाववाला, परन्तु हमारे दुष्कर्मों का उग्रफल देने में वह रुद्ररूप है, रुलाता भी है, ताकि मनुष्य दुष्कर्मों से विरत हो जाए। इस प्रकार रौद्ररूप में भी वह सौम्य स्वभावाला है। भगम्=समग्रैश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान, वैराग्य-ये ६ भग हैं, तथा भग=भजनीय, भज सेवायाम् (भ्वादिः)। आह्वान=ध्यान में ध्याता के चित्त में उपस्थित होना प्रकट होना, हवामहे द्वारा परमेश्वर का आह्वान है।]
०३।०१६।०२
प्रा॑त॒र्जितं॒ भग॑मु॒ग्रं ह॑वामहे व॒यं पु॒त्रमदि॑ते॒र्यो वि॑ध॒र्ता।
आ॒ध्रश्चि॒द्यं मन्य॑मानस्तु॒रश्चि॒द्राजा॑ चि॒द्यं भगं॑ भ॒क्षीत्याह॑ ॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (वयम्) हम (प्रातर्जितम्) प्रातःकाल में [अन्धकारादि को] जीतनेवाले (भगम्) सूर्य [समान] (उग्रम्) तेजस्वी (पुत्रम्) पवित्र, अथवा बहुविधि से रक्षा करनेवाले, अथवा नरक से बचानेवाले [परमेश्वर] को (हवामहे) बुलाते हैं, (यः) जो [परमेश्वर] (अदितेः) प्रकृति वा भूमि का (विधर्त्ता) धारण करनेवाला और (यम्) जिस [परमेश्वर] को (मन्यमानः) पूजता हुआ (आध्रः) सब प्रकार धारण योग्य कंगाल, (चित्) भी, और (तुरः) शीघ्रकारी बलवान् (चित्) भी, और (राजा) ऐश्वर्यवान् राजा (चित्) भी (इति) इस प्रकार (आह) कहता है, “(यम्) यश और (भगम्) धन को (भक्षि=अहं भक्षीय) मैं सेवूँ” ॥२॥
भावार्थःजैसे सूर्य प्रातःकाल अन्धकार, आलस्यादि मिटाकर जीवों में नयी शक्ति देता है, ऐसे ही सब छोटे बड़े जीव और पृथिवी आदि लोक भी परमात्मा की शक्ति से अपनी अपनी शक्ति बढ़ाते हैं, उसीका धन्यवाद हम सब पिता पुत्रादि मिलकर गावें ॥२॥ ‘हवामहे’ के स्थान पर ऋग्वेद और यजुर्वेद में ‘हुवेम’ पद है ॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थः (प्रातर्जितम्) प्रात:काल की उपासना में सर्वविजयी, (भगम्) ऐश्वर्यवाली तथा भजनीय, (उग्रम्) कर्मों के फल प्रदान में उग्र, (अदितेः पुत्रम्) वेदवाणी के पुत्र रूप परमेश्वर का (वयम् हवामहे) हम आह्वान करते हैं, (यः) जोकि (विधर्ता) विविध जगत् का धारण करता है, (आध्रः चित्) अतृप्त भी, (तुरः चित्) धन से प्रवृद्ध भी, (राजा चित्) राजा भी (मन्यमानः) परमेश्वर का मनन करता हुआ (यम् भगम्) जिस भजनीय के सम्बन्ध में (इति आह) यह कहता है कि (भक्षि) इसका भजन किया कर।
टिप्पणी:[अदिते: पुत्रम्=अदिति: वाङ्नाम (निघं० १।११), परमेश्वर अदिति अर्थात् वेदवाणी का पुत्र है, यतः वेदवाणी द्वारा वह प्रकट होता है। यथा "स वा ऋग्भ्योऽजायत तस्मादृचोऽजायन्त" अथर्व० (१३।४(४)।३८)। अर्थात् वह परमेश्वर निश्चय से ऋचाओं से पैदा हुआ है, यतः उससे ऋचाएँ पैदा हुई हैं। ऋचाएँ पैदा हुई निज उत्पादक को जताती हैं। ऋचाओं से पैदा होना, अदिति का पुत्र होना है। ऋचाएँ हैं वेद वाक् अर्थात् अदिति। आध्र:=आधारवितव्यो दरिद्रः (सायण)। तथा न ध्रायति, "ध्रै तृप्तौ", न तृप्यति स अध्रः, नञो दीर्घश्छान्दसः, यद्वा आ समन्तात् ध्र: आध्रः। यद्वा अध्र एव आध्रः स्वार्थे तद्धितः। आध्रः अतृप्तः बुभुक्षितो दद्धिः (महीधर)। तुर:= "तु" वृद्धौ, क्विप् लोपः; (अदादिः)+ र: (मत्वर्थीय:) यथा, मधुरः= मधु+रः (मत्वर्थीयः), मधुबाला।]
०३।०१६।०३
भग॒ प्रणे॑त॒र्भग॒ सत्य॑राधो॒ भगे॒मां धिय॒मुद॑वा॒ दद॑न्नः।
भग॒ प्र णो॑ जनय॒ गोभि॒रश्वै॒र्भग॒ प्र नृभि॑र्नृ॒वन्तः॑ स्याम ॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (भग) हे भगवान् ! (प्रणेतः) हे बड़े नेता ! (भग) हे सेवनीय
! (सत्यराधः) हे सत्य धनी ! (भग) हे ज्ञानस्वरूप परमेश्वर ! (इमाम्) इस [वेदोक्त]
(धियम्) बुद्धि को (ददत्) देता हुआ तू (नः) हमारी (उत्) उत्तमता से (अवा) रक्षा कर।
(भग) हे ज्योतिःस्वरूप ! (नः) हमको (गोभिः) गौओं से और (अश्वैः) घोड़ों से (प्र जनय)
अच्छे प्रकार बढ़ा। (भग) हे शिव (नृभिः) नेता पुरुषों के साथ हम (नृवन्तः) नेता पुरुषोंवाले
होकर (प्र स्याम) समर्थ होवें ॥३॥
भावार्थः जो मनुष्य ईश्वर की प्रार्थना और आज्ञा पालन करते और नेता वा वीर पुरुषों को अपनाते हैं, वे संसार में उन्नति करके यशस्वी और ऐश्वर्यवान् होते हैं ॥३॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थः (भग) हे भजनीय! (प्रणेतः) हे प्रकृष्ट नेतः! (भग) हे भजनीय! (सत्यराधः) हे अनश्वर धनवाले! (भग) हे भजनीय (नः) हमें (ददत्) देता हुआ तू (इमाम् धियम्) हमारी इस बुद्धि को (उद् अव) उत्कृष्ट कर। (भग) हे भजनीय! (न:) हमें (गोभिः अश्वैः) गोओं और अश्वों के साथ-साथ (प्र जनय) प्रकृष्ट जननशक्ति प्रदान कर; (भग) हे भजनीय! (प्र नृभिः) प्रकृष्ट नर-नारियों द्वारा (नृवन्तः) नर-नारियोंवाले (स्याम) हम हों।
टिप्पणी:[भग=अथवा, हे भगवाले, ऐश्वर्यसम्पन्न ! तब ही "ददत्" और "राधः" पद सार्थक होते हैं। धनवान् ही तो दे सकता है, निर्धन नहीं। उद् अव=अव धातु नानार्थक है। उत्कृष्ट बुद्धिवाला ही धन प्रदान करता है। अत: दानबुद्धि की प्राप्ति के लिए भग से प्रार्थना की है।]
०३।०१६।०४
उ॒तेदानीं॒ भग॑वन्तः स्यामो॒त प्र॑पि॒त्व उ॒त मध्ये॒ अह्ना॑म्।
उ॒तोदि॑तौ मघव॒न्त्सूर्य॑स्य व॒यं दे॒वानां॑ सुम॒तौ स्या॑म ॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (उत) और (इदानीम्) इस समय (उत उत) और भी (अह्नाम्) दिनों के
(मध्ये) मध्य (प्रपित्वे) पाये हुए [ऐश्वर्य] में हम (भगवन्तः) बड़े ऐश्वर्यवाले (स्याम)
होवें। (उत) और (मघवन्) हे महाधनी ईश्वर ! (सूर्यस्य) सूर्य के (उदितौ) उदय में (देवानाम्)
विद्वानों की (सुमतौ) सुमति में (वयम्) हम (स्याम) रहें ॥४॥
भावार्थःमन्त्र ३ के अनुसार पाये हुए ऐश्वर्य को हम सब और आगे भी बढ़ावें, और जैसे सूर्य के उदय में प्रकाश बढ़ता जाता है वैसे ही देवताओं के अनुकरण से हम अपनी धार्मिक बुद्धि का अभ्युदय करें ॥४॥ ‘उदितौ’ के स्थान पर ऋग् और यजुर्वेद में ‘उदिता’ है ॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थः (उत) तथा (इदानीम्) इस काल में (भगवन्त:) भगवाले (स्याम) हम हों, (उत) तथा (प्रपित्वे) [सूर्य के] पश्चिम में प्रपतनकाल में, (उत) तथा (अह्राम् मध्ये) दिनों के मध्यकाल में, (उत) तथा (सूर्यस्य उदितौ) सूर्य के उदयकाल में (मघवन्) हे धनशाली परमेश्वर! (वयम्) हम (देवानाम्) देवताओं की (सुमतौ स्याम) सुमति में हों, रहें।
टिप्पणी: [देवानाम्=देवो दानाद् वा (निरुक्त ७।४।१५)। इदानीम्= अब अर्थात् जब भी कोई प्रत्याशी माँगने के लिए आ जाए। मन्त्र में "मघवन्" पद द्वारा भग के धनवान् स्वरूप का कथन किया है। देवों की सुमति है दान करने की, हम दानी भी इस सुमति में रहें, ऐसी प्रार्थना या इच्छा प्रकट की गई है।]
०३।०१६।०५
भग॑ ए॒व भग॑वाँ अस्तु दे॒वस्तेना॑ व॒यं भग॑वन्तः स्याम।
तं त्वा॑ भग॒ सर्व॒ इज्जो॑हवीमि॒ स नो॑ भग पुरए॒ता भ॑वे॒ह ॥
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✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः“(भगः) सेवनीय (देवः) विद्वान् विजयी पुरुष (एव) ही (भगवान्) भगवान् [भाग्यवान्, बड़े ऐश्वर्यवाला] (अस्तु) होवे” (तेन) इसी [कारण] से (वयम्) हम (भगवन्तः) भाग्यवान् (स्याम) होवें। (तम् त्वा) उस तुझको, (भग) हे ईश्वर ! (सर्वः=सर्वः अहम्) मैं सब (इत्) ही (जोहवीमि) बार बार पुकारता हूँ। (सः=सः त्वम्) सो तू, (भग) हे शिव ! (इह) यहाँ पर (नः) हमारा (पुरएता) अगुआ (भव) हो ॥५॥
भावार्थः“सुकर्मी पुरुषार्थी पुरुष ही भाग्यवान् होवें” यह ईश्वर आज्ञा है, इससे सब लोग धार्मिक पुरुषार्थी होकर भाग्यवान् बनें। ईश्वर ही अपने ध्यानी आज्ञापालकों का मार्गदर्शक होता है ॥५॥ ‘देवः, जोहवीमि’ के स्थान पर ऋग् और यजुर्वेद में ‘देवा, जोहवीति’ पद हैं ॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थः (देवः) दाता (भग एव) भजनीय परमेश्वर ही (भगवान् अस्तु) ऐश्वर्यवान् हो, (तेन) उस द्वारा (वयम्) हम (भगवन्तः) ऐश्वर्यवाले (स्याम) हों। (भग) हे भजनीय! (सर्वः) मैं सर्वस्वरूप हुआ, (तम् त्वा इत्) उस तुझ का ही (जोहवीमि) पुनः-पुनः आह्वान करता हूँ, (भग) हे भजनीय! (सः) वह तू (इह) इस दानकर्म में (नः) हमारा (पुरः एता) अग्रगन्ता, अगुआ (भव) हो।
टिप्पणी:[भावना यह है कि परमेश्वर ही दाता है, सब प्राणियों को दान दे रहा है, उसी के दान द्वारा सब प्राणी जीवित होते हैं। अतः हे परमेश्वर! तू ही सदा भगवान् अर्थात् ऐश्वर्यशाली हो, और तेरे दिये दान द्वारा ही हम भी ऐश्वर्यवान् हों। मनुष्यदाता की इच्छा पर है कि वह माँगनेवाले को धन दे या न दे। तू तो बिना मांगे सबको दे रहा है। अतः मैं भी सर्वरूप होकर, सबको अपना जानकर तेरा बार-बार आह्वान करता हूँ, ताकि मुझमें सर्वभावना सदा बनी रहे।]
०३।०१६।०६
सम॑ध्व॒रायो॒षसो॑ नमन्त दधि॒क्रावे॑व॒ शुच॑ये प॒दाय॑।
अ॑र्वाची॒नं व॑सु॒विदं॒ भगं॑ मे॒ रथ॑मि॒वाश्वा॑ वा॒जिन॒ आ व॑हन्तु ॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (उषसः) उषायें [प्रभात वेलायें] (अध्वराय) मार्ग देने के लिए, अथवा हिंसारहित यज्ञ के लिए (सम् नमन्त=०-न्ते) झुकती हैं, (दधिक्रावा इव) जैसे चढ़ाकर चलनेवाला, वा हींसनेवाला घोड़ा (शुचये) शुद्ध [अचूक] (पदाय) पद रखने के लिये। (वाजिनः) अन्नवान् वा बलवान् वा ज्ञानवान् (अर्वाचीनम्) नवीन नवीन और (वसुविदम्) धन प्राप्त करानेवाले (भगम्) ऐश्वर्य को (मे) मेरे लिये (आ वहन्तु) लावें (अश्वाः इव) जैसे घोड़े (रथम्) रथ को [लाते हैं] ॥६॥
भावार्थःजैसे उषा देवी अन्धकार हटाकर मार्ग खेलती चलती है अथवा, जैसे बली और वेगवान् घोड़ा अपने अश्ववार वा रथको मार्ग चलकर ठिकाने पर शीघ्र पहुँचाता है, इसी प्रकार पुरुषार्थी पुरुष बड़े-बड़े महात्माओं के सत्सङ्ग और अनुकरण से अपना ऐश्वर्य बढ़ाते रहें ॥६॥ ‘मे’ के स्थान पर ऋग् और यजुर्वेद में ‘नः’ पद है ॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थः (अध्वराय) हिंसारहित यज्ञ के लिए (उषसः) उपाएँ (सम् नमन्त) सन्नत होती हैं, प्रह्वीभूत होती हैं, झुकती हैं, (इव) जैसेकि (शुचये पदाय) शुद्ध पवित्र स्थान के लिए (दधिक्रावा) आदित्य झुकता है। उषाएँ (मे) मेरे लिए (वसुविदम्) वसुओं को प्राप्त करानेवाले (भगम्) भजनीय परमेश्वर को (अर्वाचीनम्) मेरी ओर (आ वहन्तु) प्राप्त कराएं, (इव) जैसेकि (वाजिनः अश्वाः) वेगवाले अश्व (रथम्) रथ को (आ वहन्तु) हमारे अभिमुख प्राप्त कराते हैं।
टिप्पणी:[अध्वराय=ध्वरति हिंसाकर्मा तत्प्रतिषेधः (निरुक्त १।३।८)। दधिक्रावा है आदित्यः, "दधत् क्रामतीति वा" (निरुक्त २।७।२७), अर्थात् जो सौरलोक का "धारण" करता हुआ "पादविक्षेप” करता है; क्रमु पादविक्षेपे (भ्वादिः)। आदित्य की रश्मियों का प्रसार है पादविक्षेप। शुचिपद है द्युलोक, आदित्य उदित हुआ लोक में रश्मियों का विक्षेप करता है। निरुक्त में "दधिक्राः" पद की व्याख्या की है और अथर्व में दधिक्रावा पद पठित है। दोनों का अर्थ समान है। अध्वर के लिए उप:काल तथा आदित्यकाल दोनों उपयुक्त हैं, रात्रीकाल में अध्वर या यज्ञ नहीं होते।]
०३।०१६।०७
अश्वा॑वती॒र्गोम॑तीर्न उ॒षासो॑ वी॒रव॑तीः॒ सद॑मुच्छन्तु भ॒द्राः।
घृ॒तं दुहा॑ना वि॒श्वतः॒ प्रपी॑ता यू॒यं पा॑त स्व॒स्तिभिः॒ सदा॑ नः ॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (अश्ववतीः=०-त्यः) उत्तम-उत्तम घोड़ोंवाली, (गोमतीः) उत्तम-उत्तम गौओंवाली, (वीरवतीः) बहुत वीर पुरुषोंवाली और (भद्राः) मङ्गल करनेवाली (उषासः=उषसः) उषायें (नः सदम्) हमारे समाज पर (उच्छन्तु) चमकती रहें। (घृतम्) घृत [सार पदार्थ] को (दुहानाः) दुहते हुए और (विश्वतः) सब प्रकार से (प्रपीताः) भरे हुए (यूयम्) तुम [वीर पुरुषो !] (स्वस्तिभिः) अनेक सुखों से (सदा) सदा (नः) हमारी (पात) रक्षा करो ॥७॥
भावार्थः सब स्त्री पुरुष प्रयत्न करके अपने घरों को घोड़ों, गौओं और वीर पुरुषों से भरे रक्खें, और सब मिलकर तत्त्व ग्रहण करके सदा परस्पर रक्षा करें ॥७॥ ‘यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः’ यह पाद प्रायः ऋग्वेद मण्डल ७ के सब सूक्तों के अन्त में है ॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थः (अश्वावती:) अश्वोंवाली, (गोमतीः) गौओंवाली, (वीरवती:) वीरपुत्रोंवाली (भद्राः) कल्याणकारिणी तथा सुखदायिनी (उषस:) उषाएं (नः) हमारे लिए (सदम्) सदा (उच्छन्तु) चमकती रहें। (घृतम्) घृत मिश्रित दुग्ध को (दुहाना:) देती हुई (विश्वतः) सब ओर (प्रपीता:) प्रकर्षेण आप्यायित हुई (यूयम्) तुम हे उषाओं! (स्वस्तिभिः) उत्तम स्थितियों द्वारा (नः) हमारी (सदा पात) सदा रक्षा करो।
टिप्पणी:[अभिप्राय यह कि प्रति प्रातःकाल की उषाओं के चमकते समय हमारे अश्व आदि यथावस्थित रहें, जैसेकि उषा:काल के पूर्व वे विद्यमान थे। उषा:कालों में हम गोदोहन कर घृतमिश्रित दुग्ध को प्राप्त करें। उषाएं हमारे स्वास्थ्य की रक्षा करती हैं ]
सूक्त १७
०३।०१७।०१
सीरा॑ युञ्जन्ति क॒वयो॑ यु॒गा वि त॑न्वते॒ पृथ॑क्।
धीरा॑ दे॒वेषु॑ सुम्न॒यौ ॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (धीराः) धीर (कवयः) बुद्धिमान् [किसान] लोग (देवेषु) व्यवहारी पुरुषों पर [सुम्नयौ] सुख पाने [की आशा] में (सीरा=सीराणि) हलों को (युञ्जन्ति) जोड़ते हैं, और (युगा=युगानि) जुओं को (पृथक्) अलग-अलग करके [दोनों ओर] (वि तन्वते) फैलाते हैं ॥१॥
भावार्थः जैसे किसान लोग खेती करके अन्य पुरुषों को सुख पहुँचाते और आप सुखी रहते हैं, इसी प्रकार सब मनुष्यों को परस्पर उपकारी होकर सुख भोगना चाहिये ॥१॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थः(कवयः) बुद्धिमान् (सीराः) हलों को (युञ्जन्ति) युक्त करते हैं, और (पृथक्) पृथक्-पृथक् बैलों में (युगा=युगानि) जुआओं का (वि तन्वन्ति) विस्तार करते हैं। (धीराः) बुद्धिमान् (देवेषु) देवकार्यों के निमित्त (सुम्नयौ) सुख प्राप्त करानेवाले दो बैलों को [हल में] युक्त करते हैं।
टिप्पणी:[हलों को युक्त करना, बैलों के साथ। तथा प्रत्येक बैल पर जुआ लगाना। देवकार्य हैं यज्ञादि; तथा अतिथिदेव आदि का सत्कार। कृषि से उत्पन्न अन्न द्वारा इनका सत्कार भी देवकार्य है। कृषिकर्म बुद्धिमानों का काम है, जोकि वंशपरम्परा में जारी रहता है। नौकरी तो कुछ काल के लिए होती है, और कृषिकर्म एक स्थिर कार्य है। कवयः=कविः मेधाविनाम (निघं० ३।१५)। धीरा:= धी+रा: (मत्वर्थीयः)। सुम्नयौ१=सुम्नं सुखनाम (निघं० ३।६)+या प्रापणे। हल के साथ दो बैलों को जोतना चाहिए, भूमिकर्षण में एक बैल का जोतना उसके लिए कष्टदायक होता है।] [१. सुमन्यौ बलीवर्दौ (सायण), याते: "आतो मनिन्" इति विच् (सायण)।]
०३।०१७।०२
यु॒नक्त॒ सीरा॒ वि यु॒गा त॑नोत कृ॒ते योनौ॑ वपते॒ह बीज॑म्।
वि॒राजः॒ श्नुष्टिः॒ सभ॑रा असन्नो॒ नेदी॑य॒ इत्सृ॒ण्यः॑ प॒क्वमा य॑वन् ॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (विराजः) हे शोभायमान [किसानो !] (सीरा=सीराणि) हलों को (युनक्त) जोड़ो, (युगा=युगानि) जूओं को (वितनोत) फैलाओ, और (कृते) बने हुए (योनौ) खेत में (इह) यहाँ पर (बीजम्) बीज (वपत) बोओ। (श्नुष्टिः) [तुम्हारी] अन्न की उपज (नः) हमारे लिये (सभराः) भरी पूरी (असत्) होवे, (सृण्यः) हंसुये वा दरांत (इत्) भी (पक्वम्) पके अन्न को (नेदीयः) अधिक निकट (आ यवन्) लावें ॥२
भावार्थःचतुर किसान यथाविधि खेत जोतकर उत्तम बीज आदि साधनों से उत्तम अन्न आदि पाते हैं, इसी सिद्धान्त पर विद्वान् बलवान् स्त्री पुरुष ब्रह्मचर्य सेवन से यथावत् क्रिया के साथ बलवान् बुद्धिमान् और आयुष्मान् सन्तान उत्पन्न करते हैं, देखो-श्रीमद्दयानन्दकृत संस्कारविधि गर्भाधान प्रकरण ॥२॥ यह मन्त्र कुछ पदभेद से ऋ० १०।१०१।३ और य० १२।६८ में है
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थः[हे बुद्धिमानो!] (सीराः) हलों को (युनक्त) युगों के साथ संयुक्त करो, (युगा=युगानि) युगों को (वितनोत) बैलों के कन्धों पर विस्तारित करो। (कृते योनौ) तय्यार की गई (इह) इस भूमि में (बीजम्, आवपत) बीज बोओ। (विराज:) अन्न का (श्नुष्टि:) शीघ्र प्राप्त करानेवाला (सभरा:) अन्न से भरा हुआ सिट्टा अर्थात् गुच्छा (न:) हमारा (असत्) हो, तथा (पक्वम्) पका अन्न (सृण्यः) दात्री के (नेदीयः) समीप (आ यवन्) प्राप्त हो।
टिप्पणी: [आयवन्= एयात् (यजु० १२।६८), आ इयात्।]
०३।०१७।०३
लाङ्ग॑लं पवी॒रव॑त्सु॒शीमं॑ सोम॒सत्स॑रु।
उदिद्व॑पतु॒ गामविं॑ प्र॒स्थाव॑द्रथ॒वाह॑नं॒ पीब॑रीं च प्रफ॒र्व्य॑म् ॥
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थः (पवीरवत्) अच्छे फालेवाला (सुशीमम्) बहुत सुख देनेवाला, और (सोमसत्सरु=सोमसत्+स्रु, यद्वा, स-ऊम, उभ वा+सत्सरु) ऐश्वर्ययुक्त व अमृतयुक्त मूठवाला, अथवा रस्सीवाला और मूठवाला (लाङ्गलम्) हल (इत्) ही (अविम्) रक्षा करनेवाली, और (पीबरीम्) वृद्धिवाली (गाम्) भूमि को (च) और (प्रस्थावत्) प्रस्थान वा चढ़ाई के योग्य और (प्रफर्व्यम्) शीघ्र गतिवाले (रथवाहनम्) रथयान [गाड़ी] को (उत्) उत्तमता से (वपतु) उत्पन्न करे ॥३॥
भावार्थःउत्तम साधनों से खेती में अधिक धान्य उत्पन्न होता है, उससे राज्य की और अश्व, बैल आदि की वृद्धि से राजा और प्रजा सुख भोगते हैं ॥३॥ यह मन्त्र कुछ शब्दभेद से यजुर्वेद १२।७१ में है ॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थः (लाङ्गलम्) हल (पवीरवत्) प्रशंसित फाल से युक्त, (सुशीमम्) सुन्दर-सुखदायक, तथा (सोमसत्सरु) जलवाली भूमि में सुगमता से सरण कर सकनेवाला हो। वह (उद् इत् वपतु) निश्चय से उद्वाप अर्थात् उत्पन्न करे (गाम्, अविम्) गौ और बकरी को, (प्रस्थावत्) प्रस्थान कर सकनेवाले (रथवाहनम्) रथ के वहन करने में समर्थ बैल को (च) और (प्रफर्व्यम्) फुरतीली (पीबरीम्) स्थूल, पुष्टाङ्गी गौ और अजा को१।
टिप्पणी: [सुशीमम्=सु+शम् (सुखनाम निघं० ३।६)। [सोमसत्सरु= पदपाठ में "सोमसत्ऽसरु" पाठ है, नकि "सोमसत्सरु"। अतः सोमसत् का अर्थ "जलवाली भूमि" किया है। अभिप्राय यह है कि हल जैसेकि गीली भूमि में सुगमता से चल सकता है वैसे वह सूखी भूमि में भी सुगमता से चल सकनेवाला होना चाहिए, ताकि भूमि के कर्षण में बैलों को कष्ट न हो। अत: हल का फाल, मुख में लगा लोहखण्ड, अति तीक्ष्ण होना चाहिए। "कर्षणेन धान्यादिसमृद्धौ सत्याम् एतद् गवादिसमृद्धिर्भवति" (सायण)। सोमः=water (आप्टे)। सुशीमम्२=कर्षकस्य सुखकरम् (सायण)।] [१. कौदृशीम् गामविं च, प्रफर्व्यम्, प्रकर्षेण फर्वति गच्छति, युवतित्वादतिवेगवतीम, पीवरीम् पुष्टाङ्गीम् (महीधर, यजु:० १२।७१)। २. सुशेवम्=(यजु० १२।७१)। अथवा "शीभम् क्षिप्रनाम" (निघं० २।१५)। लाङ्गलम् सुशीभम् सुक्षिप्रकारी (भूमिकर्षणे)।]
०३।०१७।०४
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (इन्द्रः) भूमि जोतनेवाला (सीताम्) हल की रेखा
[जुती धरती] को (नि) नीचे (गृह्णातु) दबावे,
(पूषा) पोषण करनेवाला
[किसान] (ताम्) उस [जुती धरती] की (अभिरक्षतु) सब ओर से रखवाली करे। (सा) वह (पयस्वती)
पानी से भरी [जुती धरती] (नः) हमको (उत्तराम्-उत्तराम्) उत्तम-उत्तम (समाम्) अनुकूल
क्रिया से (दुहाम्) भरती रहे ॥४॥
भावार्थः किसान बीज बोने
के पीछे जुती धरती को पटेले से चौरस करके रक्षा करे और यथासमय पानी देता रहे जिससे
खेतों में ठीक-ठीक उपज होवे ॥४॥ यह मन्त्र कुछ भेद से ऋ० ४।५७।७ में है और इसका उत्तरार्ध
अ० ३।१०।१। में आ चुका है ॥४॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (इन्द्रः) सम्राट् (सीताम्) कृष्टभूमि में
हल की लकीर का (निगृह्णातु) निग्रह करे,
नियन्त्रण करे, (पूषा) पोषण का अधिकार (ताम्) उस सीता की (अभी रक्षतु) सर्वतः रक्षा करे। (सा) वह
कृष्टभूमि अर्थात् हल की पद्धतिवाली भूमि (उत्तराम्,
उत्तराम्) उत्तरोत्तर
(समाम्) वर्षों में (पयस्वती) दुग्ध तथा जलवाली हुई (नः) हमें (दुहाम्) दुग्धादि देती
रहे।
टिप्पणी: [इन्द्र: अर्थात् सम्राट्, निज साम्राज्य में, नियम निर्माण करे कि जिसकी भूमि है,
और जिसने उसमें बीजावाप
किया है, उसपर अधिकार उसी का रहे यह है "नि गृह्णातु"। पूषा है सीता से
प्राप्त पुष्टान्न का अधिकारी, वह उस भूमि की रक्षा
करता रहे। पयः के दो अर्थ हैं जल तथा दुग्ध। कृष्टभूमि में बीजवाप हो जाने पर उसके
सींचने का भी अधिकारी पूषा है। वह जलप्रबन्ध कर अन्नवती भूमि में जलसेचन का भी प्रबन्ध
करे। "उत्तराम् उत्तराम् समाम्" उत्तरोत्तर वर्षों में भी भूमि के पूर्व स्वामी का स्थायित्व
बना रहना चाहिए।]
०३।०१७।०५
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (सुफालाः) सुन्दर फाले (शुनम्) सुख से (भूमिम्)
भूमि को (वि तुदन्तु) जोतें। (कीनाशाः) क्लेश सहनेवाले किसान (वाहान् अनु) बैलादि वाहनों
के पीछे-पीछे (शुनम्) सुख से (यन्तु) चलें। (हविषा) जल से (तोशमाना=तोषमानौ) सन्तुष्ट
करनेवाले (शुनासीरा=०-रौ) हे पवन और सूर्य तुम दोनों ! (अस्मै) इस पुरुष के लिए (सुपिप्पलाः)
सुन्दर फलवाली (ओषधीः) जौ, चावल आदि औषधियाँ (कर्तम्) करो ॥५॥
भावार्थः चतुर किसान लोग
उत्तम कृषिशस्त्रों, उत्तम बैल आदिकों और पानी आदि की सुधि रखने
से उत्तम अन्नादि पदार्थ उत्पन्न करते हैं,
इसी प्रकार विद्वान्
लोग विद्याबल से अनेक शिल्पों का आविष्कार करके संसार को सुख पहुँचाते और आप सुख भोगते
हैं ॥५॥ यह मन्त्र कुछ भेद से ऋ० ४।५७।८ और य० १२।६९ में है ॥ यजुर्वेद अ० २२ म० २२
में वर्णन है−निका॒मे निका॑मे नः प॒र्जन्यो वर्षतु॒ फल॑वत्यो न॒ ओषधयः पच्यन्ताम् ॥
कामना के अनुसार ही हमारे लिए मेह बरसे,
हमारे लिए उत्तम
फलवाली जो आदि ओषधियाँ पकें ॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (सुफाला:) शोभन फालोंवाले हल (शुनम्) सुखपूर्वक
(भूमिम्) भूमि को (वितुदन्तु) काटें,
(कीनाशाः) किसान
(शुनम्) सुखपूर्वक (वाहान्) बैलों के (अनु) पीछे पीछे (यन्तु) चलें। (शुनासीरौ) वायु
और आदित्य (हविषा) जल द्वारा (तोशमानौ) किसानों को सन्तुष्ट (कर्तम्) करें और (अस्मै)
इसके लिए (औषधि:) औषधि रूप व्रीहि-यव आदि को (सुपिप्पलाः) उत्तम फलों से युक्त (कर्तम्)
करें। "कर्तम्"
का अन्वय दो बार
हुआ है।
टिप्पणी: [हविषा=हविः उदकनाम (निघं० १।१२)। शुनासीरा=शुनो वायुः सीर आदित्यः (निरुक्त ९।४।४०; पदसंख्या ३४), मेघ वायु में भरे हुए, वर्षा करते हैं; आदित्य तीक्ष्ण रश्मियों द्वारा भूमिष्ठ उदक
को वाष्पीभूत कर वायु में मेघ को स्थापित करता है। तुदन्तु=तुद व्यथने (तुदादिः) व्यथा
है, काटना,
भूमि को।]
०३।०१७।०६
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (वाहाः) बैल आदि पशु (शुनम्) सुख से रहें।
(नरः) हाँकनेवाले किसान (शुनम्) सुख से रहें। (लाङ्गलम्) हल (शुनम्) सुख से (कृषतु)
जोते। (वरत्राः) हल की रस्सियाँ (शुनम्) सुख से (बध्यन्ताम्) बाँधी जावें। (अष्ट्राम्)
पैना [आर वा काँटे] को (शुनम्) सुख से (उत् इङ्गय) ऊपर चला ॥६॥
भावार्थः किसान लोग सब सामग्री
उत्तम रीति से बनाकर रखने से अपने सब काम सुख से चलावें ॥६॥ यह मन्त्र ६-८ कुछ भेद
से ऋ० ४।५७।४-६ में है ॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (वाहाः) बैल (शुनम्) सुखी हों, (नरः) नर-नारियां (शुनम्) सुखी हों,
(लाङ्गलम) हल (शुनम्)
सुखकारी हुआ (कृषतु) भूमि का कर्षण करे। (वरत्रा:) रस्सियाँ (शुनम्) सुखपूर्वक (बध्यन्ताम्)
बैलों पर बाँधी जाएँ, (अष्ट्राम्) भयदायक कशा को (उदिङ्गय) तू ऊपर
उठा, प्रेरित कर।
टिप्पणी: [हल द्वारा जब कृषि-भूमि में कर्षण हो जाय तब बैल आदि पशु और नर-नारियाँ सुखी हो
जाती हैं, क्योंकि कर्षण द्वारा प्रभूत अन्न पैदा हो
जायेगा। अष्ट्रा का अर्थ है कशा अर्थात् चाबुक,
बैलों में त्रास
पैदा करने के लिए। अष्ट्रा=अस गतिदीप्त्यादानेषु;
अष इत्येके (भ्वादिः), अर्थात् "अष+ त्रस्"
(उद्वेगे, दिवादिः), त्रास पैदा करनेवाली, बैलों में भय पैदा करनेवाली कशा अर्थात् चाबुक। उदिङ्गय="उद्" ऊपर,
इगि गतौ (भ्वादिः), उद्गत कर, ऊपर उठा।]
०३।०१७।०७
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (शुनासीरा=०-रौ) हे वायु और सूर्य तुम दोनों
! (इह स्म) यहाँ पर ही (मे) मेरी [विनय] (जुषेथाम्) स्वीकार करो, (यत् पयः) जो जल (दिवि) आकाश मे (चक्रथुः) तुम दोनों ने बनाया है, (तेन) उससे (इमाम्) इस [भूमि] को (उप सिञ्चतम्) सींचते रहो ॥७॥
भावार्थः पवन और सूर्य के
द्वारा पृथिवी का जल आकाश में जाकर फिर पृथिवी पर बरसता है, वह खेती के लिए बहुत उपयोगी होता है ॥७॥ यह मन्त्र कुछ भेद से निरु० ९।४१ में भी
है ॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (इह स्म) हम इस कृष्ट क्षेत्र में विद्यमान
हैं। (मे) मुझ प्रत्येक द्वारा दी गई आहुति का (जुषेथाम्) सेवन करो (शुनासीरा) हे वायु
और आदित्य तुम दोनों। (दिवि) द्योतनशील अन्तरिक्ष में (यत्) जो (पयः) जल (चक्रथुः)
तुम दोनों ने पैदा किया है, (तेन) उस द्वारा (इमाम्) इस कृष्टभूमि को
(उप सिञ्चतम्) सींचो।
टिप्पणी: [ग्रामनिवासी कृष्टभूमि में उपस्थित होकर वर्षा निमित्त आहुतियाँ देते हैं और प्रत्येक
ग्रामवासी अपने अपने हाथ से आहुतियाँ देता है। यह वर्षयज्ञ है।]
०३।०१७।०८
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (सीते) हे जुती धरती ! [लक्ष्मी, खेती] (त्वा) तेरी (वन्दामहे) हम वन्दना करते हैं, (सुभगे) हे सौभाग्यवती [बड़े ऐश्वर्यवाली] (अर्वाची) हमारे सन्मुख (भव) रह, (यथा) जिससे तू (नः) हमारे लिए (सुमनाः) प्रसन्न मनवाली (असः) होवे, और (यथा) जिससे (नः) हमारे लिए (सुफला) सुन्दर फलवाली (भुवः) होवे ॥८॥
भावार्थः मनुष्य खेती को
मन लगा करके चौकसी रक्खे, जिससे अन्नवान् और धनवान् होकर सदा आनन्द
भोगे ॥८॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (सीते) हल द्वारा कृष्ट हे भूभाग! (त्वा वन्दामहे)
तेरी हम स्तुति करते हैं, तेरे गुणों का कथन करते हैं, (सुभगे) हे उत्तम ऐश्वर्य देनेवाली भूमि! (अर्वाची भव) हमारे अभिमुखी तू हो। (यथा)
जिस प्रकार कि (न:) हमारे (सुमनाः) मनों को प्रसन्न करनेवाली (असः) तू हो, (यथा) जिस प्रकार कि (न:) हमें (सुफला) उत्तम फल देनेवाली (भुवः) तू हो।
टिप्पणी: [वन्दामहे=वदि अभिवादनस्तुत्योः (भ्वादिः),
स्तुति अर्थ अभिप्रेत
है। सीता अन्नोत्पादन द्वारा सब प्राणियों का पालन करती है—यह उसकी स्तुति है, गुणों का कथन है। अर्वाची का अभिप्राय है
हमारे प्रति फलोन्मुखी होना। उत्तम-ऐश्वर्य है अन्न और तदद्वारा प्राप्त अन्य पदार्थ।
उत्तम फल है कृषिजन्य अन्न।]
०३।०१७।०९
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (घृतेन) घी से और (मधुना) मधु [शहद] से (समक्ता)
यथाविधि सानी हुई (सीता) जुती धरती (विश्वैः) सब (देवैः) व्यवहारकुशल (मरुद्भिः) विद्वान्
देवताओं करके (अनुमता) अङ्गीकृत है। (सीते) हे जुती धरती ! (सा) सो (ऊर्जस्वती) बलवती
और (घृतवत्) घृतयुक्त [अन्न आदि] से (पिन्वमाना) सींचती हुई तू (पयसा) दूध के साथ
(नः) हमारे (अभ्याववृत्स्व) सब ओर से सन्मुख वर्तमान हो ॥९॥
भावार्थः चतुर किसान युक्ति
से बीज में वा धरती में घी और मधु आदि मिलाकर धान्य आदि को पुष्ट और मधुर बनावें, जैसे क्रिया विशेष से, माली लोग आम, दाख, केसर,
फूल आदि को उत्तम
बनाते और मनुष्य उत्तम सन्तान उत्पन्न करते हैं ॥९॥ यह मन्त्र कुछ भेद से यजुर्वेद
अ० १२ म० ७० में है ॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (मधुना घृतेन) मधुर जल द्वारा (सम् अक्ता)
सम्यक् अभिव्यक्त हुई (सीता) कृष्टभूमि,
(विश्वैः देवैः) सब
देवों द्वारा, (मरुद्भिः) और मानसून वायुओं द्वारा (अनुमता)
अनुकूलरूप में स्वीकृत हुई (सा) वह (सीते) हे कृष्टभूमि ! (न: अभि) हमारे अभिमुख, (पयसा) दुग्ध के साथ (आववृत्स्व) तू आ,
(ऊर्जस्वती) अन्नवाली
तथा (घृतवत्) घृतवाले दुग्ध को (पिन्वमाना) सींचती हुई।
टिप्पणी: [घृतम् उदकनाम (निघं० १।१२)। अक्ता=अञ्जू व्यक्तिम्रक्षणकान्तिगतिषु (रुधादिः), व्यक्ति=अभिव्यक्ति। विश्वैः देवैः=वायु,
आदित्य आदि देव।
मरुद्भिः= मानसून वायुएँ, जोकि जल से भरपूर होती हैं (अथर्व० ४।२७।४, ५)। घृतवत्= कृष्टभूमि से अन्न पैदा हुआ और उस अन्न के खिलाने से गौओं से घृतमिश्रित
दुग्ध प्राप्त हुआ। (पिन्वमाना=पिवि सेवने,
"सेचने चेत्येके"(भ्यादिः)]
०३।०१८।०१
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (वीरुधाम्) उगती हुई लताओं [सृष्टि के पदार्थों]
में (इमाम्) इस (बलवत्तमाम्) बड़ी बलवाली (ओषधिम्) रोगनाशक ओषधि [ब्रह्मविद्या] को
(खनामि) मैं खोदता हूँ, (यया) जिस [ओषधि] से [प्राणी] (सपत्नीम्) विरोधिनी
[अविद्या] को (बाधते) हटाता है, और (यया) जिससे
(पतिम्) सर्वरक्षक वा सर्वशक्तिमान् परमेश्वर को (संविन्दते) यथावत् पाता है ॥१॥
भावार्थः मनुष्य ब्रह्मविद्या
परिश्रमपूर्वक प्राप्त करें। ईश्वर ज्ञान से ही विज्ञान बढ़कर मिथ्या ज्ञान का नाश
होकर परम ऐश्वर्य वा मोक्ष मिलता है ॥१॥ यह सूक्त कुछ भेद से ऋग्वेद म० १०।१४५।१-६
में है। अजमेर वैदिक यन्त्रालय की ऋग्वेदसंहिता,
मोहमयी [मुम्बई]
की शाकलऋक्संहिता, और ऋग्वेदीय सायणभाष्य में “उपनिषत्सपत्नीबाधनम्” इस सूक्त का देवता लिखा है, इससे इस सूक्त में ब्रह्मविद्या का ही उपदेश है ॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (वीरुधां बलवत्तमाम) विरोहणशील औषधियों में
अतिशय बलवाली (इमाम) इस (ओषधिम) औषधि को (खनामि) खोदकर मैं निकालती हूँ, (यया) जिस द्वारा (सपत्नीम्) सपत्नी को [उत्तरा कुमारी, मन्त्र ४] (बाधते) हटाती है और (यया) जिस द्वारा वह (पतिम्) पति को (संविन्दते)
सम्यक् विधि१ से प्राप्त करती है।
टिप्पणी: [विवाह विधि से]
०३।०१८।०२
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (उत्तानपर्णे) हे विस्तृत पालनवाली ! (सुभगे)
हे बड़े ऐश्वर्यवाली ! (देवजूते) हे विद्वानों करके प्राप्त की हुई ! (सहस्वति) हे
बलवती [ब्रह्मविद्या] ! (मे) मेरी (सपत्नीम्) विरोधिनी [अविद्या] को (परा नुद) दूर
हटा दे और (पतिम्) सर्वरक्षक वा सर्वशक्तिमान् परमेश्वर को (मे) मेरा (केवलम्) सेवनीय
(कृधि) कर ॥२॥
भावार्थः अनन्यवृत्ति पुरुष
ब्रह्मविद्या से अविद्या को हटाकर आनन्दस्वरूप जगदीश्वर को जानकर आनन्द भोगता है ॥२॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (उत्तानपर्णे) ऊपर की ओर फैले हुए पत्तोंवाली, (सुभगे) सौभाग्य प्रदान करनेवाली,
(देवजूते) दिव्य प्राकृतिक
जीवात्मा द्वारा प्रेरित हुई, (सरस्वति) पराभव करनेवाली
हे ओषधि! (मे) मेरी (सपत्नीम्) सपत्नी को (पराणुद) परे धकेल और (पतिम्) पति को (मे)
मेरे लिए (केवलम्) केवल (कृधि) कर दे।
०३।०१८।०३
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: [हे सपत्नी अविद्या] (ते) तेरा (नाम) नाम
(नहि) कभी नहीं (जग्राह) मैंने लिया है,
(अस्मिन्) इस (पतौ)
जगत् पति परमेश्वर में (नो) कभी नहीं (रमसे) तू रमण करती है। (पराम्) बैरिनि (सपत्नीम्)
विरोध डालनेवाली [अविद्या] को (परावतम् एव) बहुत दूर ही (गमयामसि) हम पहुँचाते हैं
॥३॥
भावार्थः विद्वान् लोग अविद्या
का मान नहीं करके अविद्यारहित सर्वविद्यायुक्त परमात्मा का ध्यान करते, और अविद्या को हटाकर सत्यज्ञान पाते हैं ॥३॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: [हे सपत्नि!] पति (ते) तेरा (नाम) नाम भी
(नहि जग्राह) नहीं लेता और (नो) न (अस्मिन् पतौ) इस पति में (रमसे) तू रमण करती है, अर्थात् इसे तू पसन्द भी नहीं। अत: (पराम् एव परावतम्) दूर से दूर (सपत्नीम्, गमयामसि) तुझ सपत्नी को हम भेज देते हैं।
टिप्पणी: [परावत: दूरनाम (निघं ३।२६)।]
०३।०१८।०४
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (उत्तरे) हे अति उत्तम [ब्रह्मविद्या] (अहम्)
मैं [प्रजा] (उत्तरा) अधिक उत्तम [भूयासम्=हो जाऊँ],
(उत्तराभ्यः) अन्य
उत्तम [पशु आदि प्रजाओं] से (इत्) तो (उत्तरा) अधिक उत्तम [प्रजा अस्मि=प्रजा हूँ]
(मम) मेरी (या) जो (अधरा) नीच (सपत्नी) विरोधिनी [अविद्या है], (सा) वह (अधराभ्यः) नीच [विपत्तियों] से (अधः) नीची है ॥४॥
भावार्थः मनुष्य सब पशु आदि
प्राणियों से उत्तम है, इससे वह सब उत्तम विद्याओं में परम उत्तम
ब्रह्मविद्या प्राप्त करके सर्वोत्कृष्ट होवे,
और सब विपत्तियों
वा क्लेशों के मूल अविद्या को निकालता रहे ॥४॥ भगवान् पतञ्जलि का वचन है−अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः
पञ्च क्लेशाः ॥ अविद्या क्षेत्रमुत्तरेषां प्रसुप्ततनुविच्छिन्नोदाराणाम् ॥ यो. द.
२।३,४ ॥ १-(अविद्या) मिथ्याज्ञान, २-(अस्मिता) अहंकार, ३-(राग) राग वा तृष्णा, ४-(द्वेष) द्वेष वा घृणा, और ५-(अभिनिवेश)
शरीर से प्रीति वा मरण से भय, यह पाँच क्लेश हैं
॥ अविद्या पिछले चार [अस्मिता आदि] का खेत है,
चाहे वे १-सोते हुए, २-सूक्ष्म, ३-दबे हुए,
वा ४-फैले हुए हों
॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (उत्तरे) हे उत्कृष्ट औषधि! तेरे कारण (अहम्)
मैं (उत्तरा) उत्कृष्ट हो गई हूँ, (उत्तराभ्यः) उत्कृष्टा
नारियों से (इत्) भी (उत्तरा) मैं उत्कृष्टा हूँ। (अधः)१ तदनन्तर (या मम सपत्नी) जो
मेरी सपत्नी है (सा) वह (अधराभ्यः) निकृष्टाओं से भी (अधरा) निकृष्टा है। [पति प्राप्त
करनेवाली कुमारी सर्वश्रेष्ठा है, गुणों में। अतः वह
पति प्राप्त करने में योग्यता रखती है और सपत्नी गुणों में निकृष्टाओं से भी निकृष्टा
है, अत: वह त्याज्या है।]
टिप्पणी: [१. अधः= अथ अनन्तरम् (सायण)। अथवा अधस्कृतः त्वमसि संभाव्यमानेन पत्या। अधस्कृता
अपमानिता।]
०३।०१८।०५
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: [हे विद्या] (अहम्) मैं (सहमाना) जयशील [प्रजा]
(अस्मि) हूँ, (अथो) और (त्वम्) तू भी (सासहिः=ससहिः) जयशील
(असि) है। (उभे) दोनों हम [तू और मैं] (सहस्वती=०-त्यौ) जयशील (भूत्वा) होकर (मे) मेरी
(सपत्नीम्) विरोधिनी [अविद्या] को (सहावहै) जीत लें ॥५॥
भावार्थः योगी जन ब्रह्मविद्या
में एकवृत्ति होकर अविद्या को जीतकर आनन्द भोगते हैं ॥५॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (अहम्) मैं विवाहेच्छु कुमारी (अस्मि) हूँ, (सहमाना) सपत्नी का पराभव करनेवाली,
(अथो) तथा (त्वम्)
हे ओषधि! तू (असि) है (सासहि:) अति पराभव करनेवाली;
(उभे) हम दोनों (सहस्वती
भूत्वा) पराभव करनेवाली होकर, (मे) मेरी (सपत्नीम्)
सपत्नी को (सहावहै) हम दोनों पराभूत करें।
०३।०१८।०६
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: [हे जीव !] (ते) तेरे लिए (सहमानाम्) प्रबल
[अविद्या] को (अभि=अभिभूय) हराकर (अधाम्) मैंने रक्खा है, और (ते) तेरे लिये (सहीयसीम्) अधिक प्रबल [ब्रह्मविद्या] को (उप) आदर से (अधाम्)
मैंने रक्खा है, सो (ते मनः) तेरा मन (माम् अनु) मेरे पीछे-पीछे
[योगी के स्वरूप में] (प्रधावतु) दौड़ता रहे और (धावतु) दौड़ता रहे, (गौः इव) जैसे गौ (वत्सम्) अपने बछड़े के पीछे,
और (वाः इव) जैसे
जल (पथा) अपने मार्ग से [दौड़ता है] ॥६॥
भावार्थः योगवृत्तियों के
निरोध से अविद्या को जीतकर स्वरूप अर्थात् अपनी और परमात्मा की शक्ति को जानकर परोपकार
में आगे बढ़ता है, जैसे स्वभाव से गौ अपने छोटे बच्चे के पीछे
दौड़ती फिरती है और पानी नीचे मार्ग से समुद्र को चला जाता है ॥६॥ भगवान् पतञ्जलि ने
कहा है−योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः ॥ तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम् ॥ यो० द० १।२, ३ ॥ योग चित्त की वृत्तियों का रोकना है ॥१॥ तब देखनेवाले को अपने रूप में चित्त
का ठहराव होता है ॥२॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: [हे भावी पति!] (ते अभि) तेरे अभिमुख अर्थात्
संमुख (सहमानाम्) पराभव करनेवाली औषधि को (अधाम्) मैं भाविनी पत्नी ने रख दिया है, (सहीयसीम्) अतिशय से पराभव करनेवाली औषधि के (उप) तेरे समीप (अधाम्) मैंने रख दिया
है; (माम् अनु) मेरी अनुकूलता में (ते) तेरा (मन:)
मन (प्र धावतु) शीघ्रता से दौड़कर आए,
(इव) जैसेकि (गौः)
अर्थात् दुग्धवती गौ (वत्सम्) निज वत्स की ओर (धावतु) दौड़कर आती है, (इव) जैसेकि (वाः) वारि अर्थात् जल (पथा) निम्न मार्ग द्वारा (धावतु) दौड़कर प्रवाहित
होता है।
टिप्पणी: ["अभि" अर्थात् संमुख रखना तथा "उप" अर्थात् समीप रखना, इन दो भावों में अन्तर है, भेद है। औषधि भावी-पति
के मन को, भाविनी-पत्नी की ओर आकृष्ट करती है और भावी-पति
का मन मानो दौड़कर भावना-पत्नी की ओर झुक जाता है।] तथा ओषधि है सात्त्विक चित्तवृत्ति।
यह ओषधि है,"ओषद्धयन्तीति वा" (निरुक्त ९।३।२७),
अर्थात् जो दग्ध
करती हुई राजसवृत्ति का पान करती है,
उसे विनष्ट करती
है। यह चित्तभूमि में दबी पड़ी है। पवित्र जीवात्मा चित्तभूमि से इसे खोद निकालता है।
प्रतिस्पर्धी ये दो चित्तवृत्तियाँ हैं;
अथवा मन की शिवसंकल्परूपी
और अशिवसंकल्परूपी दो वृत्तियाँ हैं,
जिनमें आपस में प्रतिस्पर्धा
होती रहती है। शिवसंकल्परूपी वृत्ति
"उत्तरा" है, उत्कृष्टा है (मन्त्र ४) और अशिवसंकल्परूपी
वृत्ति "अधरा"
है, निकृष्टा है। पवित्र जीवात्मा मनोमयी
"उत्तरा वृत्ति" को अपना लेता है और अधरा वृत्ति का परित्याग कर देता है। इसे
अपनाकर जीवात्मा इस मनोमयी शिवसंकल्परूपी वृत्ति का पति बन जाता है (मन्त्र ३)। "उत्तरा चित्त वृत्ति"
को "उत्तानपर्णा'
कहा है (मन्त्र २)।
यह ऊपर की ओर विस्तृत हुई पालन-पोषण करती है। ऊपर की ओर विस्तृत होने का अभिप्राय है
मस्तिष्क तक फैल जाना; (उत्+ तन् विस्तारे+ पृ पालन-पूरणयोः, जुहोत्यादिः)। उत्तरा चित्तवृत्ति जब मस्तिष्क में फैल जाती है, तब यह 'मस्तिष्क द्वारा' समग्र शरीर को उत्कृष्ट कर देती है। सूक्त में व्यावहारिक विवाह के वर्णनपूर्वक
अध्यात्म तत्त्वों का प्रदर्शन अभिप्रेत है।
०३।०१९।०१
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (मे) मेरे लिये [इन वीरों को] (इदम्) यह (ब्रह्म)
वेदज्ञान वा अन्न वा धन (संशितम्) यथाविधि सिद्ध किया गया है, और (वीर्यम्) वीरता और (बलम्) सेना दल (संशितम्) यथाविधि सिद्ध किया गया है, (संशितम्) यथाविधि सिद्ध किया हुआ (क्षत्रम्) राज्य (अजरम्) अटल (अस्तु) होवे, (येषाम्) जिनका मैं (जिष्णुः) विजयी (पुरोहितः) पुरोहित अर्थात् प्रधान (अस्मि)
हूँ ॥१॥
भावार्थः सेनापति राजा विद्या, अन्न, और धन आदि की यथावत् वृद्धि करके अपने वीरों
और सेना का उत्साह बढ़ाता रहे, जिससे राज्य चिरस्थायी
हो ॥१॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (मे) मेरी (इदम्) यह (ब्रह्म) ब्राह्मशक्ति
(संशितम्) तीक्ष्ण हो, (वीर्यम्) वीरता तथा (बलम्) शारीरिक बल (संशितम्)
तीक्ष्ण हो, अमोघ फलवाला हो। (क्षत्रम्) क्षात्रबल (अजरम्)
जरारहित अर्थात् जीर्ण न होनेवाला हो,
(जिष्णुः) तथा जयशील
(अस्तु) हो, वह प्रजाजन (येषाम्) जिनका कि (पुरोहितः)
अगुआ (अस्मि) मैं हूँ।
टिप्पणी: [(पुरोहितः) अगुआ रूप में निहित अर्थात् स्थापित,
संभवत: प्रधानमंत्री।)]
०३।०१९।०२
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (अहम्) मैं (एषाम्) इन [अपने वीरों] के (राष्ट्रम्)
राज्य (ओजः) शारीरिक बल, (वीर्यम्) वीरता और (बलम्) सेना दल को (सम्)
भले प्रकार (संस्यामि) जोड़ता हूँ। (अहम्) मैं (शत्रूणाम्) शत्रुओं की (बाहून्) भुजाओं
को (अनेन) इस (हविषा) अन्न वा आवाहन से (वृश्चामि) काटता हूँ ॥२॥
भावार्थः राजा सत्कारपूर्वक
अपने वीरों को, सामाजिक शारीरिक और ‘हविषा’ आर्थिक दशा के सुधार से सन्तुष्ट रखकर शत्रुओं
का नाश करे ॥२॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (एषाम्) इनके (राष्ट्रम) राष्ट्र को (अहम)
मैं पुरोहित (सं स्यामि= सं श्यामि) सम्यक् तीक्ष्ण करता हूं, प्रभावशाली करता हूं, (ओजः,
वीर्यम, बलम्) ओज, वीरता,
शारीरिक बल को (सम, स्यामि) मैं तीक्ष्ण करता हूँ। (अनेन हविषा) संग्रामयज्ञ में या राष्ट्रयज्ञ में
दी गई इस हवि द्वारा (अहम्) मैं पुरोहित (मन्त्र १) (शत्रूणाम्) शत्रुओं के (बाहून्)
बाहुओं को (वृश्चामि) काटता हूँ। (एषाम्) इनके अर्थात् शत्रु सैनिकों के।
टिप्पणी: [हविः के दो अभिप्राय हैं, (१) "कर" रूप में धनप्रदान स्वेच्छापूर्वक, (२) युद्ध में योद्धाओं के शरीरों की हविः।]
०३।०१९।०३
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: वे [शत्रु] (नीचैः) नीचे (पद्यन्ताम्) गिरें और (अधरे) नीचे (भवन्तु) रहें, (ये) जो (नः) हमारे (मघवानम्) धनी (सूरिम्) सूरमा राजा पर (पृतन्यान्) सेना चढ़ावें।
(अहम्) मैं (ब्रह्मणा) वेद ज्ञान से (अमित्रान्) शत्रुओं को (क्षिणामि) मारे डालता
हूँ और (स्वान्) अपने लोगों को (उन्नयामि) ऊँचा करता हूँ ॥३॥
भावार्थः सैनिक लोग ललकार
कर वैरियों पर धावा करके मार गिरावें,
और राजा उन अपने
वीरों को ऊँची-२ पदवी देवें ॥३॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (नीचैः पद्यन्ताम्) हम से नीचे हो जाएँ, (अधरे भवन्तु) निकृष्ट अर्थात् पादाक्रान्त हो जाएँ, (ये) जो कि (न:) हमारे (मघवानम्) धनिक (सूरिम्) और प्रेरक राजा को (पृतन्यान्) पृतना
अर्थात् सेना द्वारा आक्रान्त करते हैं। (ब्रह्मणा) वेदोक्त विधि द्वारा (अमित्रान्)
शत्रुओं को (क्षिणामि) मैं क्षीण करता हूँ और (स्वान्) अपनों को (अहम्) मैं (उन्नयामि)
उन्नत करता हूँ।
टिप्पणी: [सूरिम्=षू प्रेरणे (तुदादि:)।]
०३।०१९।०४
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: वे वीर (परशोः) परसे [कुल्हाड़ी] से (तीक्ष्णीयांसः) अधिक तीक्ष्ण, (अग्नेः) अग्नि से (तीक्ष्णतराः) अधिक तीक्ष्ण (उत) और (इन्द्रस्य) मेघ के (वज्रात्)
वज्र [बिजुली] से (तीक्ष्णीयांसः) अधिक तीक्ष्ण हैं,
(येषाम्) जिनका मैं
(पुरोहितः) पुरोहित वा मुखिया (अस्मि) हूँ ॥४॥
भावार्थः सेनापति अपनी सेना
का आत्मबल बढ़ावे। आत्मबल से अस्त्र शस्त्र आदि की अपेक्षा अधिक कार्य सिद्ध होता है
॥४॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (येषाम्) जिनका (पुरोहितः) अगुआ (अस्मि) मैं
हूँ, वे (परशो:) कुल्हाड़े से भी (तीक्ष्णीयांसः)
अधिक तीक्ष्ण हैं, (उत अग्नेः) तथा अग्नि से भी (तीक्ष्णतराः)
अधिक तीक्ष्ण हैं। (इन्द्रस्य) विद्युत् के (वज्रात्) वज्र से भी (तीक्ष्णीयांसः) अधिक
तीक्ष्ण हैं।
टिप्पणी: [परशु, अग्नि,
विद्युत के वज्र, उत्तरोत्तर अधिक तीक्ष्ण हैं। पुरोहित अर्थात् अग्रणी व्यक्ति कहता है कि जिन प्रजाजनों
का मैं मुखिया हूँ, वे अधिकाधिक तीक्ष्ण हैं शत्रुओं के विनाश
के लिए।]
०३।०१९।०५
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (अहम्) मैं (एषाम्) इन [वीरों] के (आयुधा=०-नि)
हथियारों को (संस्यामि) जोड़ता हूँ [दृढ़ करता हूँ],
(एषाम्) इनके (सुवीरम्)
साहसी वीरोंवाले (राष्ट्रम्) राज्य को (वर्धयामि) बढ़ाता हूँ, (एषाम्) इनका (क्षत्रम्) क्षत्रियपन (अजरम्) अजर [अटल] और (जिष्णु) विजयी (अस्तु)
होवे। (विश्वे) सब (देवाः) दिव्य [विजयी,
कमनीय, वा प्रशंसनीय धार्मिक] गुण (एषाम्) इनके (चित्तम्) चित्त को (अवन्तु) तृप्त करें
॥५॥
भावार्थः चतुर सेनापति अपने
योधाओं के बाण [तोष, तुपक,
धनुषादि] तरवारि, शक्ति, भाले आदि अस्त्र शस्त्र धनुर्वेद की रीति
से दृढ़ बनवावे, और प्रसिद्ध वीरों का पद बढ़ाकर उत्साह बढ़ावे
॥५॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (अहम्) मैं अगुआ (एषाम्) इनके (आयुधा) युद्धसाधनों
को (सं स्यामि) सम्यक् तीक्ष्ण करता हूं,
(एषाम्) इनके (सुवीरम्)
उत्तम वीरों वाले (राष्ट्रम्) राष्ट्र को (वर्धयामि) वृद्धियुक्त करता हूँ। (एषाम्)
इनका (क्षत्रम) क्षात्रबल (अजरम्) जरारहित अर्थात् अजीर्ण तथा (जिष्णु) जयशील (अस्तु)
हो, (एषाम्) इनके (चितम्) मानसिक संकल्प की (विश्वेदेवाः)
राष्ट्र के सब दिव्यजन (अवन्तु) रक्षा करें।
टिप्पणी: [संकल्प है शत्रु का पराजय करना।]
०३।०१९।०६
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (मघवन्) हे बड़े धनी राजन् ! (वाजिनानि) सेना
दल (उत् हर्षन्ताम्) मन को ऊँचा उठावें और (जयताम्) जीतते हुए (वीराणाम्) वीरों का
(घोषः) जयजयकार वा सिंहनाद (उत् एतु) ऊँचा उठे। (उलुलयः) जलानेवालों के जलानेवाले, (केतुमन्तः) ऊँचे झण्डावाले (घोषाः) जयजयकार शब्द (पृथक्) नाना रूप में (उत् ईरताम्)
ऊपर चढ़ें। (इन्द्रज्येष्ठाः) इन्द्र प्रतापी पुरुष को ज्येष्ठ वा स्वामी रखनेवाले
(मरुतः) शूर (देवाः) जय चाहनेवाले देवता लोग (सेनया) सेना के साथ (यन्तु) चलें ॥६॥
भावार्थः समस्त सेनादल बड़ी
उमंग से व्यूह बनाकर नानारूप में मारू बाजे गाजे के साथ “जय जय” करते हुए आगे बढ़ें और सब दलपति लोग प्रधान
सेनापति की आज्ञानुसार अपनी-२ टुकरी लेकर धावा करें ॥६॥ यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद
१०।१०३।१० और यजुर्वेद १७।४२ में है ॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (मघवन) हे धनवान् सम्राट्। (वाजिनानि) हस्ति, अश्व, रथादि बल (उद्धर्षन्ताम) उत्कृष्ट हर्षयुक्त
हो, (जायताम् वीराणाम्) जय पाते हुए वीर सैनिकों
का (घोषः) विजय नाद (उद् एतु) ऊँचा उठे। (केतुमन्तः) झण्डोंवाले, (उलुलय:) उरु अर्थात् महोच्च (घोषाः) विजयनाद (पृथक्) पृथक् पृथक् सैनिक वर्ग से
(उदीरताम्) उद्गत हों, ऊँचे उठें। (इन्द्रज्येष्ठाः) सर्वन्येष्ठ-सम्राट्-सहित, (देवा:) राष्ट्र के दिव्य अधिकारी,
तथा (मरुत:) शत्रुओं
को मारनेवाले सेनाधिकारी, (सेनया) सेना के साथ (यन्तु) चलें।
टिप्पणी: [उलुलय:= उरुलयः, ऊँचे घोषों को भी लीन कर देनेवाले महानादी
घोष, विजयनाद। वाजिनानि= वाजः बलनाम (निघं० २।९);=हस्ती, अश्व,
रथादि (सायण)। इन्द्रः=इन्द्रश्च
सम्राट् (यजु:० ८।३७)। मरुत:=मारयतीति वा स मरुत मनुष्य जाति (उणा ० १।९४, दयानन्द)]
०३।०१९।०७
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (नरः) हे नरो (प्र इत) धावा करो, (जयत) जीतो ! (वः) तुम्हारी (बाहवः) भुजायें (उग्राः) प्रचण्ड [कट्टर] (सन्तु) होवें।
(तीक्ष्णेषवः) हे तीखे बाणवाले ! (उग्रायुधाः) हे कट्टर हथियारोंवाले (उग्रबाहवः) हे
कट्टर भुजाओंवाले वीरों ! (अबलधन्वनः) निर्बल धनुषवाले (अबलान्) निर्बल [शत्रुओं] को
(हत) मारो ॥७॥
भावार्थः ‘प्रेता जयता’ पदों में दीर्घत्व उत्साह के लिए है। सेनापति
की आज्ञा से सब सैनिक लोग उमंग के साथ मारू बजाते गाते धावा करके तुच्छ वैरियों को
मारें ॥७॥ यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद १०।१०३।१३। और यजुर्वेद १७।४६ में है ॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (नरः) हे नेतृरूप सैनिकों। (प्रेत) प्रक्रमपूर्वक
युद्धभूमि में जाओ, (जयत) और विजय प्राप्त करो, (वः) तुम्हारे (बाहवः) बाहु (उग्राः सन्तु) उग्र हों। (तीक्ष्णेषवः) तीखे इषुओंवाले, (उग्रायुधाः) उग्र आयुधोंवाले, (उग्रबाहव:) तथा उग्र
बाहुओंवाले तुम, (अबलधन्वनः) अबल धनुषोंवालों, (अबलान्) निर्बल शत्रुओं को (हत) मारो,
उनका हनन करो।
०३।०१९।०८
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (ब्रह्मसंशिते) हे ब्रह्माओं, वेदवेत्ताओं से प्रशंसित वा यथावत् तीक्ष्ण की हुई (शरव्ये) बाण विद्या में चतुर
सेना ! (अवसृष्टा) छोड़ी हुई तू (परा) पराक्रम के साथ (पत) झपट। (अमित्रान्) वैरियों
को (जय) जीत, (प्र पद्यस्व) आगे बढ़, (एषाम्) इनमें से (वरंवरम्) एक एक बड़े वीर को (जहि) मार डाल, (अमीषाम्) इनमें से (कश्चन) कोई भी (मा मोचि) न छूटे ॥८॥
भावार्थः धर्मज्ञ और युद्धविद्या
में कुशल आचार्यों से शिक्षा पाकर सेना के स्त्री पुरुष सेनापति की आज्ञा पाते ही उमंग
से धावा करके शत्रुओं को मार गिरावें ॥८॥ यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद ६।७५।१६। और
यजुर्वेद १७।४५। में है ॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (ब्रह्मसंशिते) वेदोक्त विधि द्वारा तेज की
गई (शरव्ये) हे शरसंहति। (अवसृष्टा) धनुष् से विमुक्त हुई तू (परापत) परे शत्रुसेना
की ओर जा। (अमित्रान्) शत्रुओं पर (जय) विजय पा,
(प्र पद्यस्य) शत्रुओं
को तू प्राप्त हो, (एषाम्) इनमें का (वरंवरम्) प्रत्येक श्रेष्ठ
का (जहि) हनन कर, (अमीषाम्) इनमें का (कश्चन) कोई भी (मा मोचि)
न छूटने पाए।
टिप्पणी: [शरव्या= यह ऐसा यन्त्र है जिसमें नाना शर होते हैं , जोकि युगपत् शत्रु पर छोड़े जाते हैं। शरव्या= शरसंहतिः (सायण) अथर्व० १।१९।३।]
०३।०२०।०१
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (अग्ने) हे विद्वान् पुरुष ! (अयम्) यह [सर्वव्यापी
परमेश्वर] (ते) तेरा (ऋत्वियः) सब ऋतुओं [कालों] में मिलनेवाला (योनिः) कारण है, (यतः) जिससे (जातः) प्रकट होकर (अरोचनाः) तू प्रकाशमान हुआ है, (तम्) उस [योनि] को (जानन्) पहिचानकर (आ रोह) ऊँचा चढ़, (अथ) और (नः) हमारे लिये (रयिम्) धन (वर्धय) बढ़ा ॥१॥
भावार्थः परमात्मा ने अपनी
सर्वशक्तिमत्ता और सर्वव्यापकता से हमें बड़ा समर्थ और उपकारी मनुष्य देह दिया है, ऐसा जानकर हम अपना ऐश्वर्य बढ़ावें ॥१॥ यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद ३।२९।१०। और
यजुर्वेद ३।१४ और १२।५२ एवं १५।५६। में है ॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (अग्ने) हे अग्निनामक परमेश्वर! (अयम् ते योनिः)
यह [हृदय] तेरा घर है, (ऋत्वियः) जिसेकि ऋतु अर्थात् काल प्राप्त
हो गया है, (यतः जातः) जहाँ से प्रकट हुआ तू (अरोचथाः)
प्रदीप्त होता है। (जानन्१) जानता हुआ (तम्) उस पर (आरोह२) तू आरोहण कर, (अध) तदनन्तर (नः रयिम्) हमारी सम्पत्ति को (वर्धय) बढ़ा।
टिप्पणी: [परमेश्वर का नाम है अग्नि, वह अग्नि के सदृश
प्रकाशित होता है (यजु:० ३२।१), हृदय-गृह में। योनिः
गृहनाम (निघं० ३।४)। प्रार्थी परमेश्वर से प्रार्थना करता है कि मेरे हृदय-गृह में
तेरे प्रदीप्त होने का काल हो गया है,
अत: तू प्रकाशित
हो, और प्रकाशित होकर हम योगियों की अध्यात्मसम्पत्तियों
को बड़ा] [१. "जानन्"
द्वारा अग्नि को
चेतन कहा है, अतः अग्नि प्राकृतिक अर्थात् जड़ नहीं। २.
आरोहण का अर्थ है चढ़ना। वेद में चार पैरों पर खड़ी हस्तिनी के सदृश, चार स्तम्भों पर निर्मित शाला का कथन हुआ है (अथर्व० ९।३।१७), जिस पर आरोहण सीढ़ी द्वारा हो सकता है। इसलिए हृदय गृह पर परमेश्वर का आरोहण कहा
है।]
०३।०२०।०२
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (अग्ने) हे विद्वान् पुरुष ! (अच्छ) अच्छे
प्रकार से (इह) यहाँ पर (नः) हमसे (वद) बोल,
और (प्रत्यङ्) प्रत्यक्ष
होकर (नः) हमारे लिए (सुमनाः) प्रसन्न मन (भव) हो। (विशाम् पते) हे प्रजाओं के रक्षक
! (नः) हमें (प्र यच्छ) दान दे, (त्वम्) तू (नः) हमारा
(धनदाः) धनदाता (असि) है ॥२॥
भावार्थः सब मनुष्य विद्वानों
से विद्या ग्रहण करके संसार में ऐश्वर्य प्राप्त करें ॥२॥ मन्त्र २-७ ऋग्वेद म० १०
सू० १४१ म० १-५ में कुछ भेद से हैं। यह मन्त्र कुछ भेद से यजुर्वेद अ० ९ मन्त्र २८
में है ॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (अग्ने) हे अग्नि के सदृश प्रकाशमान परमेश्वर!
(इह) इस जीवन में (न: अच्छ) हमारे अभिमुख होकर (वद) हमारे साथ वार्तालाप कर, (नः प्रत्यङ्) हमारे प्रति गति करता हुआ तू (सुमनाः भव) सुप्रसन्न हो। (विशांपते)
हे प्रजाओं के पति! (नः प्रयच्छ) हमें प्रदान कर [धन], (त्वम्) तू (न:) हमारा (धनदाः असि) धनदाता है।
टिप्पणी: [हृदय में प्रकट हुए परमेश्वर के साथ वार्तालाप सम्भव है, जबकि हृदयस्थ जीवात्मा और उसमें प्रकट परमेश्वर,
एक-दूसरे के अभिमुख
होते हैं। धन प्राकृतिक नहीं, अपितु अध्यात्म है।]
०३।०२०।०३
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (अर्यमा) वैरियों का नियन्ता वीर पुरुष, (प्र) अच्छे प्रकार (भगः) ऐश्वर्यवान् धनी पुरुष (प्र) अच्छे प्रकार, और (बृहस्पतिः) बड़ी-बड़ी विद्याओं का स्वामी,
प्रधान आचार्य (प्र)
अच्छे प्रकार (नः) हमें (देवीः) दिव्य शक्तियाँ (प्र यच्छतु) प्रदान करे। (उत) और
(सूनृता) प्रिय सत्य वाणी (देवी) देवी [दिव्य गुणवाली] (मे) मुझे (रयिम्) ऐश्वर्य
(प्र) अच्छे प्रकार (दधातु) देवे ॥३॥
भावार्थः मनुष्य, विशेष गुणी आचार्यों से विशेष शिक्षाएँ पाकर,
सत्यवादी सत्यकर्मी
होकर ऐश्वर्यवान् होवें ॥३॥ यह मन्त्र कुछ भेद से यजुर्वेद ९।२९। में है ॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (अर्यमा) कामादि अरियों का नियन्त्रण करनेवाला
परमेश्वर! (नः प्रयच्छतु) हमें अध्यात्म सम्पत्ति प्रदान करे, (भग:) षड्विध सम्पत्तियोंवाला परमेश्वर (प्र यच्छतु) इन षड्विध सम्पत्तियों को प्रदान
करें, (बृहस्पति प्रयच्छतु) वेदवाणी का पति बृहती
वेदवाणी को प्रदान करे। (देवीः) मेरी दिव्य चित्तवृत्तियां (प्र यच्छन्तु) प्रदान करें
मुझे दिव्यचित्तवृत्तियों को, (उत) तथा (सूनृता
देवी) दिव्या-सत्य-प्रियरूपा वाणी (मे) मुझे (प्र दधातु रयिम्) प्रदान करे सत्य-प्रियरूपा
वाणी को।
टिप्पणी: [अर्यमा=अरीन् नियच्छतीति (निरुक्त ११।३।२३)। यद्यपि यह निर्वाचन आदित्य के सम्बन्ध
में है, तो भी
"अदीन् नियच्छतिमात्र" निर्वाचन का ग्रहण किया है। षड्विध सम्पत्तियां= ऐश्वर्यस्य
समग्रस्य धर्मस्य यशसः श्रियः। ज्ञानवैराग्ययोश्चैव षण्णां भग इतीरणा॥]
०३।०२०।०४
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (अवसे) रक्षा के लिए (गीर्भिः) स्तुतियों से
(सोमम्) ऐश्वर्य के कारण, (राजानम्) सबके शासक (अग्निम्) विद्वान् (आदित्यम्)
बड़े दीप्यमान, (विष्णुम्) सबमें व्यापक, (सूर्यम्) चलानेवाले, (ब्रह्माणम्) सबमें बड़े वेदप्रकाशक ब्रह्मा
(च) और (बृहस्पतिम्) बड़े बड़ों के रक्षक बृहस्पति [परमेश्वर वा मनुष्य] को (हवामहे)
हम बुलाते हैं ॥४॥
भावार्थः सब मनुष्य जगदीश्वर
के गुण, कर्म स्वभाव के ज्ञान और बड़े लोगों के आश्रय
से अपना सामर्थ्य बढ़ावें ॥४॥ यह मन्त्र कुछ भेद से यजुर्वेद ९।२६ में है ॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (सोमम् राजानम्) सर्वोत्पादक अतः सबके राजा
परमेश्वर का, तथा (अग्निम्) अग्नि के सदृश प्रकाशमान परमेश्वर
का, (अवसे) निज रक्षार्थ, (गोभिः) स्तुतिरूपा वेदवाणियों द्वारा (हवामहे) हम आह्वान करते हैं। तथा (आदित्यम्, विष्णुम्, सूर्यम्,
ब्रह्माणम् च बृहस्पतिम्)१
आदित्य नामक, सर्वव्यापक, सर्वप्रेरक, चतुर्वेदविद्, बृहद्-ब्रह्माण्ड के पति परमेश्वर का स्तुतिवाणियों द्वारा हम आह्वान करते हैं।
टिप्पणी: [सोम=षु प्रसवे (भ्वादिः)। आदित्य= परमेश्वर,
यथा "तदेवाग्निस्तदादित्यः (यजुः ३२।२), तथा आदित्यवर्णम्, तमसः परस्तात् (यजु:० ३१।१८)। विष्णुम्= विष्लृ
व्याप्तौ (जुहोत्यादिः)। सूर्यम्=षू प्रेरणे (तुदादिः), सूर्य के प्रकाश में प्राणी निज कार्यों में प्रेरित होते हैं। ब्रह्मा है चतुर्वेदविद्
परमेश्वर। सूक्त में अग्नि आदि नामों (मन्त्र १) द्वारा नाना देवता अभिमत नहीं, अपितु एक ही परमेश्वर के भिन्न भिन्न गुणकर्मों के प्रदर्शक हैं इन नामों द्वारा
एक ही परमेश्वर का आह्वान किया है हदय में।] [१. बृहस्पति:=अथवा वृहती वेदवाणी का पति:।
यथा "वृहस्पते प्रथमं वाचो अग्रम्" (ऋ० १०।७१।१)। ]
०३।०२०।०५
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (अग्ने) हे विद्वान् ! [परमेश्वर वा पुरुष]
(अग्निभिः) विद्वानों के द्वारा (त्वम्) तू (नः) हमारे (ब्रह्म) वेद ज्ञान वा ब्रह्मचर्य
(च) और (यज्ञम्) यज्ञ [१-विद्वानों के पूजन,
२-पदार्थों के संगतिकरण, और ३-विद्यादि के दान] को (वर्धय) बढ़ा,
(देव) हे दानशील, ! (त्वम्) तू (नः) हममें से (दातवे) दानशील पुरुष को (दानाय) दान
के लिए (रयिम्) धन (चोदय) भेज ॥५॥
भावार्थः मनुष्य परमेश्वर
के ज्ञान से अपना ज्ञान और कर्मकौशल्य बढ़ावें और उपकारी कामों में आप सहायक बनें और
दूसरों को सहायक बनावें ॥५॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (अग्ने) हे अग्नि नामवाले, या अग्नि के सदृश प्रकाशवाले परमेश्वर! (त्वम्) तू (अग्निभिः) गार्हपत्य, आहवनीय, दक्षिणाग्नि आदि अग्नियों के द्वारा (नः ब्रह्म)
हमारे अन्न को (च) और (यज्ञम्) यज्ञ को (वर्धय) बढ़ा। (देव) हे परमेश्वरदेव! (त्वम्)
तू (न:) हमारे (दातवे) दाता के लिए (रयिम् चोदय) धन को प्रेरित कर, (दानाय) ताकि वह दान करे।
टिप्पणी: [ब्रह्म=अन्ननाम (निघं० २।७)। अग्नियों में आहुतियों द्वारा वर्षा और तद् द्वारा
अन्न पैदा होता है। दातवे="दातु"
पद का चतुर्थ्येकवचन
दातु= दाता कर्तरि१ तु प्रत्यय।" तु" प्रत्यय औणादिक (१।७२।७५)। सायण पाठ है, दातवे; दत्तवते।] [१. दातवे में तुमुन्नर्थ मानने
पर दातवे और दानाय में पुनरुक्ति दोष होता है।]
०३।०२०।०६
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (उभौ) दोनों (सुहवा=०-वौ) सुख से बुलाने योग्य
(इन्द्रवायू) सूर्य और पवन [के समान स्त्री पुरुष] को (इह इह) यहाँ पर ही (हवामहे)
हम बुलाते हैं, (यथा) जिससे (सर्वः इत्) सभी (जनः) जने (नः)
हमारी (संगत्याम्) संगति में (सुमनाः) प्रसन्न चित्तवाले (असत्) होवें, (च) और (नः) हमारी (दानकामः) दान के लिए कामना (भुवत्) होवे ॥६॥
भावार्थः सब स्त्री पुरुष
प्रयत्न करके घर में और सभा में परस्पर परोपकारी,
प्रसन्न चित्त, धार्मिक और धर्मकार्यों में दानशील हों,
जैसे सूर्य अपने
प्रकाश और वृष्टि आदि से और पवन अपने चेष्टादान और शीघ्रगमन आदि से असंख्य लाभ पहुँचाते
हैं ॥६॥ यह मन्त्र कुछ भेद से यजुर्वेद ३३।८६ में है ॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (इन्द्रवायू) सम्राट् और वायुमंडल के अधिपति
(उभौ) इन दोनों का (इह) इस यज्ञकर्म में (हवामहे) हम आह्वान करते हैं, (सुहवौ) ये दोनों सुगमता से आह्वानयोग्य हों,
अतः इन दोनों को
(इह) इस यज्ञकर्म में (हवामहे) हम आहूत करते हैं। (यथा) जिस प्रकार कि (नः) हमारा
(सर्वः इत् जनः) सब जनसमूह, (संगत्याम्) पारस्परिक सत्सङ्ग में (सुमना:
असत्) सुप्रसन्न मनवाला हो, (च) और (न:) हमें (दानकामः) दान देने की कामनावाला
(भूत) हो ।
टिप्पणी: [इन्द्र=सम्राट् (यजु० ८।३७)। वायु है वायुमण्डल का अधिपति, वायुमण्डल में यानों द्वारा धनार्जन का अधिपति (अथर्व० ३।१५।१-६)। सत्सङ्गों में
दान की आवश्यकता तो होती ही है अत:
"दानकामः" कहा है। प्रत्येक व्यक्ति का यह कर्त्तव्य है कि वह सत्सङ्गों
में सहयोग दे, और दान भी करे।]
०३।०२०।०७
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: [हे ईश्वर !] (अर्यमणम्) वैरियों के रोकनेवाले
राजा, (बृहस्पतिम्) बड़े बड़ों के रक्षक गुरु और
(इन्द्रम्) बड़े ऐश्वर्यवाले पुरुष और (वातम्) पवन,
(विष्णुम्) यज्ञ, (च) और (वाजिनम्) वेगवाले, वा अन्नवाले, वा बलवाले (सवितारम्) लोकों के चलानेवाले सूर्य से (सरस्वतीम्) विज्ञानों के भण्डार
सरस्वती, वेदविद्या को (दानाय) दान के लिये (चोदय)
प्रवृत्त कर ॥७॥
भावार्थः ईश्वरभक्त (अर्यमा)
राजा वा सेनापति, (बृहस्पति) प्रधान आचार्य और (इन्द्र) दण्डनेता
वा कोषाध्यक्ष आदि अधिकारी अपने-२ पदों पर दृढ़ रहकर पवन, सूर्य, अग्नि,
जल, पृथिवी आदि अद्भुत पदार्थों द्वारा वेदविज्ञान फैलावें ॥७॥ यह मन्त्र कुछ भेद से
यजुर्वेद अ० ९ म० २७ में है ॥ मनु महाराज ने लिखा है−सैनापत्यं च राज्यं च दण्डनेतृत्वमेव
च। सर्वलोकाधिपत्यं च वेदशास्त्रविदर्हति ॥ मनु० १२।१० ॥ वेद शास्त्र का जाननेवाला
पुरुष, सेनापति के पद, राजा के पद, और दण्डदाता के पद और सब लोगों पर आधिपत्य
[चक्रवर्ति राज्य] के योग्य होता है ॥७॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: [हे अग्नि! मन्त्र ५], (अर्यमणम्) अरियों के नियन्ता को,
(बृहस्पतिम्) राष्ट्र
को बृहती-सेना के अधिपति को, (इन्द्रम्) सम्राट्
को, (वातम्) वायुमंडल के अधिपति को, (विष्णुम्) वनों तथा ओषधियों के अधिपति को,
(सरस्वतीम्) ज्ञानाधिपति
महिला को, (च) तथा (वाजिनम् सवितारम्) अन्न के अधिष्ठाता
अन्नोत्पादन के अधिपति को (दानाय चोदय) दान देने के लिए प्रेरित कर।
टिप्पणी: [राष्ट्र के सब अधिकारियों को राष्ट्रोन्नति के लिए दान देने में प्रेरणा की प्रार्थना
अग्नि नामक परमेश्वर से की गई है। अर्यमा=अदीन् नियच्छतीति (निरुक्त ११।३।२३), अदिति पद की व्याख्या में। अर्यमा है सेनाध्यक्ष और बृहस्पति है राष्ट्र की वृहती-सेना-का
अधिपति। विष्णु:= "ध्रुवां दिग् विष्णुरधिपतिः कल्माषग्रीवो
रक्षिता वीरुध इषवः" (अथर्व० ३।२७।५)। सरस्वती= सरो विज्ञानं वा
विद्यतेऽस्यां सा [वाक्] (उणा० ४।१९०;
दयानन्द)। यह महिला
है जो कि शिक्षा की अधिकारिणी है। वाजिनम्,
सवितारम्= वाजः अन्ननाम
(निघं० २।७); सविता है अन्नोत्पादन अर्थात् कृषि का अधिकारी।
षु प्रसवैश्वर्ययोः (भ्वादि:)। अर्यमा आदि के आधिभौतिक स्वरूपों के प्रदर्शन में यथातथा
प्रयत्न हुआ है। मन्त्र ७वाँ वाज प्रसव के सम्बन्ध में है। इस प्रकार मन्त्र १ और ७
में परस्पर सम्बन्ध दर्शाया है।]
०३।०२०।०८
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (वाजस्य) बल के (प्रसवे) उत्पत्ति में (नु)
ही (संबभूविम) हम समर्थ हुए हैं, (च) और (इमा=इमानि)
यह (विश्वा=विश्वानि) सब (भुवनानि) लोक (अन्तः) [उसीके] भीतर हैं, (प्रजानन्) ज्ञानवान् ईश्वर (अदित्सन्तम्) देने की इच्छा न करनेवाले से (उत) भी
(दापयतु) दिलावे। (च) और [हे ईश्वर] (नः) हमें (सर्ववीरम्) सर्ववीरों से युक्त (रयिम्)
धन (नि) नित्य (यच्छ) दे ॥८॥
भावार्थः सब चराचर जगत् अन्न
के आश्रित ठहरा है। सर्वज्ञ परमेश्वर अदानी पुरुषों को भी सुपात्रों के लिये दान शक्ति
देवे, और हमें और हमारे वीरों को धनी बनावे ॥८॥
यह मन्त्र कुछ भेद से यजुर्वेद १९।२५ वा २४ में है ॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (वाजस्य प्रसवे) अन्न की उत्पत्ति में (नु)
निश्चय से (संवभूविम) हम मिलकर रहे हैं,
(च), और (इमा विश्वा भुवनानि) ये सब उत्पन्न प्राणी (अन्तः) अन्न के भीतर सत्तावान्
रहे हैं। (प्रजानन्) इसे जानता हुआ [सम्राट्] (उत अदित्सन्तम्) दान देने की अनिच्छा
वाले को भी (दापयतु) दान देनेवाला करे। (च) और [ हे सम्राट्] (न:) हमें (सर्ववीरम्)
सब वीर पुत्रोंवाली (रयिम्) सम्पत्ति (नि यच्छ) नितरां प्रदान कर। वीरपुत्र=दानवीर
पुत्र, दानशूर पुत्र।
टिप्पणी: [अन्तः= सब प्राणियों की सत्ता अन्नाधीन है। यथा
" अन्नाद् रेतः रेतसः
पुरुषः" (तैत्ति० उपनिषद्) अर्थात् अत्र से वीर्य और
वीर्य से पुरुष। पुरुष पद सब प्राणियों का उपलक्षक है, प्राणी वीर्यजात ही हैं।]
०३।०२०।०९
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (पञ्च) फैली हुई [वा पाँच] (प्रदिशः) उत्तम
दान क्रियायें [वा प्रधान दिशायें] (मे) मेरे लिये (उर्वीः) फैली हुई शक्तियों को
(यथाबलम्) यथाशक्ति (दुह्राम्) भरती रहें,
(दुह्राम्) भरती रहें।
(मनसा) मन [मनन शक्ति] से (च) और (हृदयेन) हृदय [ग्रहण शक्ति] से (सर्वाः) सब (आकूतीः)
संकल्पों को (प्र, आपेयम्) मैं पाता रहूँ ॥९॥
भावार्थः मनुष्य विद्या आदि
के दान से अपना सामर्थ्य बढ़ावें और सब दिशाओं से उत्तम गुण प्राप्त करें तथा श्रवण, मनन और निदिध्यासन [ध्यान देकर विचार] से अपने मनोरथ सिद्ध करें ॥९॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (पञ्च प्रदिशः) पञ्च या विस्तृत सब दिशाएँ
(मे) मेरे लिए (दुह्राम्) अभिमत फल का दोहन करें,
(उर्वीः) तथा महती, ६ संख्या वाली द्यौ पृथिवी आदि (यथाबलम्) निज शक्त्यनुसार (दुह्राम्) मुझे अभिमत
फल का दोहन करें। ताकि (मनसा) मन द्वारा (हृदयेन च) और इदय द्वारा (सर्वाः आकूतिः)
सब संकल्पों को (प्रापेयम्) मैं प्राप्त करूं।
टिप्पणी: [पञ्च=पचि विस्तारे (चुरादिः)। ६ उर्वी:=द्यौश्च पृथिवी च, अहश्च रात्री च आपश्च ओषधीश्च (सायण)। मनसा=मन द्वारा। हृदयेन=हार्दिक भावनाओं
द्वारा। दुह्राम् में दुह धातु के प्रयोग द्वारा प्रदिश: तथा उर्वीः को गोरूप में वर्णित
किया है। जैसे कि गौएँ हमें दुग्ध प्रदान करती हैं,
वैसे प्रदिश: आदि
अभिमत फल का प्रदान करें। द्यौः आदि को धेनवः कहा भी है (अथर्व० ४।३९,१-१०)।]
०३।०२०।१०
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (गोसनिम्) गोलोक [गौओं वा स्वर्ग] की देनेवाली
(वाचम्) वाणी को (उदेयम्) मैं बोलूँ। [हे ईश्वर !] (वर्चसा) तेज के साथ (मा=माम्) मेरे
ऊपर (अभ्युदिहि) सब ओर से उदय हो। (वायुः) प्राण वायु [मुझको] (सर्वतः) सब प्रकार से
(आ रुन्धाम्) घेरे रहे। (त्वष्टा) विश्वकर्मा परमेश्वर वा सूर्य (मे) मेरे लिए (पोषम्)
पोषण (दधातु) देता रहे ॥१०॥
भावार्थः मनुष्य ईश्वर के
ध्यान से सत्यवादी और सत्यकर्मी होकर अपने प्राणों को वश में रक्खे और पुरुषार्थी होकर
सूर्य से वृष्टि द्वारा अपना पोषण प्राप्त करे ॥१०॥ ॥ इति चतुर्थोऽनुवाकः ॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (गोसनिम्) गोदान१ सम्बन्धी (वाचम्) वेद वाक्
का (उदेयम्) मैं कथन अर्थात् प्रवचन करूं,
[हे वाक्!] (वर्चसा)
निजज्ञानदीप्ति के साथ (मा अभि) मेरे अभिमुख (उदिहि) उदित हो। (वायुः) वायुनामक परमेश्वर
(सर्वत:) सब ओर (आ रुन्धाम्) मेरा आवरण करे,
(त्वष्टा) कारीगर
परमेश्वर (मे) मुझ में (पोषम्) पुष्टि (दधातु) स्थापित करे।
टिप्पणी: [गोसनिम्=गौः वाङ्नाम (निघं० १।११)+ षणु दाने (तनादि:)। वाक् का दान करनेवाली वाणी
है वेदवाक्। वेदवाक् ही सब वाणियों की मातृरूपा है। सब वाणियों का मूलस्रोत वेदवाणी
ही है। अभ्युदिहि="उदिहि"
द्वारा दृष्टान्तरूप
में सूर्योदय अभिप्रेत है, जोकि दीप्ति द्वारा सबको प्रकाशित करता है।
इसी प्रकार वेद वाक् है, जोकि निजज्ञान दीप्ति द्वारा ज्ञेयों का ज्ञान
देती है। वायु से अभिप्रेत परमेश्वर है (यजुः० ३२।१)। परमेश्वर वायु अर्थात् प्राणरूप
होकर सबका आवरण कर रहा है। रुन्धाम्=रुधिर् आवरणे (रुधादि:)। त्वष्टा="त्वक्षतेर्वा स्यात् करोतिकर्मणः" (निरुक्त ८।२।११)।
"त्वक्षु तनूकरणे" (भ्वादिः) तनूकरण अर्थात् सूक्ष्मकरण का काम बढ़ई करता है। वह
स्थूल काष्ठ से सूक्ष्म चमस, तथा कुर्सी आदि का
निर्माण करता है। परमेश्वर भी बढ़ई के सदृश कारीगर है। वह महाव्यापिनी प्रकृति से अल्पकाय
पृथिवी आदि और अन्न का उत्पादन कर हम में पोषण स्थापित कर रहा है। उदेयम्="वद व्यक्तायां वाचि"
(भ्वादिः), "लिङयाशिष्यङ्"
(अष्टा० ३।१।८६) इत्यङ्।
उदेयम्=उद्यासम् उच्यासम् (सायण)] [१. परमेश्वर ने गोदान अर्थात् वेदवाणी हम सबको दी
है, उसका दान किया है। यथा, "यथेमां वाचं कल्याणीमावदानी जनेभ्य:" आदि (यजु:० २६।२)। इसे
"गोसनिम्" द्वारा निर्दिष्ट किया है। इस वेद वाणी के संबंध में कहा है
कि "वाचम् उदेयम्"।]
०३।०२१।०१
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (ये) जो (अग्नयः) अग्नियाँ [ईश्वर के तेज] (अप्सुअन्तः) जल के
भीतर, (ये) जो (वृत्रे) मेघ में, (ये) जो (पुरुषे) पुरुष [मनुष्य
शरीर] में और (ये) जो (अश्मसु) शिलाओं में हैं। (यः) जिस [अग्नि] ने (ओषधीः) औषधियों
[अन्न, सोम लता आदि] में, और (यः) जिसने
(वनस्पतीन्) वनस्पतियों [वृक्ष आदि] में (आ विवेश) प्रवेश किया है, (तेभ्यः) उन (अग्निभ्यः) अग्नियों [ईश्वर तेजों] को (एतत्) यह (हुतम्) दान
[आत्मसमर्पण] (अस्तु) होवे ॥१॥
भावार्थः इस सूक्त में गुणों के वर्णन से गुणी परमेश्वर का ग्रहण है, अर्थात् जिस
परमेश्वर की शक्ति से समुद्र में बड़वानल, मेघ में बिजुली,
मनुष्य में अन्न पाचक अग्नि और पत्थर में चकमक, ओषधियों में फलपाक अग्नि आदि अद्भुत उपकारी शक्तियाँ वर्त्तमान हैं,
उनके प्रेरक परमेश्वर को हमारा प्रणाम है ॥१॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (ये) जो (अग्नयः) अग्नियाँ (अप्सु अन्तः) जलों के भीतर हैं, (ये) जो (वृत्रे)
आकाश के आवरण करनेवाले मेघ हैं, (ये) जो (पुरुष) पुरुष में,
(ये) जो (अश्मसु) नामाविध व्यापी-मेघों में या सूर्यकान्तादिशिलाओं में
हैं। (यः) जो अग्नि (ओषधीः आविवेश) ओषधियों में प्रविष्ट है, (यः) जो अग्नि (वनस्पतीन्) वनस्पतियों में प्रविष्ट है (तेभ्यः अग्निभ्यः) उन
अग्नियों के लिए (एतत्) यह हविः (हुतमस्तु) प्रदत्त हो।
टिप्पणी: [मन्त्र
में "ये""बहुवचन" द्वारा नाना अग्नियाँ प्रत्येक वस्तु में दर्शाकर, उन अग्नियों
के "एकत्व" को "यः" द्वारा मन्त्र के उत्तरार्ध में दर्शाया है।
एकवचन द्वारा एक परमेश्वराग्नि को दर्शाया है, यथा "तदेवाग्निस्तदादित्यः"
(यजु:० ३२।१); और बहुवचन द्वारा परमेश्वराग्नियों को परमेश्वर
की इच्छा, ज्ञान और कृति रूप में दर्शाया है। परमेश्वर एकाग्निरूप
में भी सब में प्रविष्ट है, और इच्छा, ज्ञान,
और कृतिरूप में भी सब में प्रविष्ट है। एक परमेश्वराग्नि के स्वरूप का
स्पष्टीकरण मन्त्र (३) आदि में "देवः" आदि पदों द्वारा हुआ है। अश्मा मेघनाथ
(निघं० १।१०)। पुरुष में भी इच्छा, ज्ञान और कृतिरूप में अग्नियां१
प्रविष्ट हैं, जोकि परमेश्वर की इच्छा, ज्ञान और कृतिरूप अग्नियों द्वारा अभिव्यक्त होती हैं। पुरुष की इच्छा आदि
की अभिव्यक्ति शरीर के होते होती है, और शरीर का निर्माण परमेश्वर
द्वारा होता है।] [१. ज्ञान, इच्छा, कृति
अर्थात् संकल्प विषयों का प्रकाश करते हैं, अतः ये अग्नियाँ हैं,
"अग्निवत् प्रकाशिका है"]
०३।०२१।०२
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (यः) जो [अग्नि] (सोमे) सोम [चन्द्र, अमृत वा दूध,
घी, आदि] के (अन्तः) भीतर, (यः) जो (गोषु अन्तः) गौ आदि पालतू पशुओं में, (यः)
जो (वयःसु) पक्षियों में और (यः) जो (मृगेषु) बनैले जीवों में (आविष्टः) प्रविष्ट है,
और (यः) जिसने (द्विपदः) दोपायों, और (यः) जिसने
(चतुष्पदः) चौपायों में (आविवेश) प्रवेश किया है, (तेभ्यः) उन
(अग्निभ्यः) अग्नियों [ईश्वरतेजों] को (एतत्) यह (हुतम्) दान [आत्मसमर्पण] (अस्तु)
होवे ॥२॥
भावार्थः जो अग्नि चन्द्रमा में सूर्य से है और जो सोमलता वा दूध आदि में
रस पकाकर पौष्टिक बनाता है, और जो प्राणियों में वेग,
बलवत्ता, जंगलीपन, और अन्य
विशेषता का कारण है, उस अग्नि के संयोजक, वियोजक परमात्मा को हमारा नमस्कार है ॥२॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (यः) जो (सोमे अन्तः) चन्द्रमा के भीतर [अग्निः] परमेश्वराग्नि
है, (यः) जो (गोषु अन्तः) गमन करनेवाले नक्षत्र आदि में परमेश्वराग्नि है,
(यः) जो (वयःसु) पक्षियों में, (यः) जो (मृगेषु)
मृगों में (आविष्टः) सर्वत्र प्रविष्ट परमेश्वराग्नि है। (यः) जो (आविवेश) सर्वत्र
प्रविष्ट है (द्विपदः) दो-पायों में, (यः) जो (चतुष्पदः) चौ-पायों
में, (तेभ्यः अग्निभ्यः) उन अग्नियों के लिए (एतत्) यह हवि (हुतम्
अस्तु) प्रदत्त हो।
टिप्पणी: [परमेश्वराग्नि
सर्वव्यापक होने से सबमें प्रविष्ट है। पदार्थगत है। नाना प्रवेश्यों की दृष्टि से
परमेश्वराग्नि को नानारूपों में दर्शाया है। अतः अग्नि पद का प्रयोग हुआ है। परमेश्वर
के प्रत्येक अग्नि स्वरूप के प्रति आहुति समर्पित की गई है।]
०३।०२१।०३
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (यः) जो (देवः) प्रकाशमान वा जय चाहनेवाला [अग्नि] (इन्द्रेण)
ऐश्वर्यवान् शूर के साथ (सरथम्) एक रथ पर चढ़कर (याति) चलता है, और [जो हमारे]
(वैश्वानरः) सब नरों का हितकारी, (उत) और [जो शत्रु का] (विश्वदाव्यः)
सब कुछ जलानेवाला है, और (यम्) जिस (सासहिम्) विजयी [अग्नि] को
(पृतनासु) संग्रामों में (जोहवीमि) वारंवार आवाहन करता हूँ, (तेभ्यः) उन (अग्निभ्यः) अग्नियों [ईश्वरतेजों] को (एतत्) यह (हुतम्) दान [आत्मसमर्पण]
(अस्तु) होवे ॥३॥
भावार्थः जिस परमात्मा के तेज को हृदय में धारण करके साहसी शूर आग्नेय अस्त्र-शस्त्रधारी
सेना के द्वारा शत्रुओं को शीघ्र जीत लेता है, उस जगदीश्वर
को हमारा नमस्कार है ॥३॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (यः) जो (वैश्वानरः) समग्र नर-नारियों का हित करनेवाला, तथा (विश्वदाव्यः)
समग्र जगत् के लिए दावाग्नि के सदृश (देव:) परमेश्वर देव, (इन्द्रेण)
इन्द्रियों के स्वामी जीवात्मा के साथ (सरथम्) एक शरीररथ में आरूढ़ हुआ (याति) गमन
करता है, विचरता है। (यम्) जिस (पृतनासु) देवासुर संग्रामों में
(साहसिम्) अत्यर्थ पराभव करनेवाले को (जोहवीमि) मैं बार-बार पुकारता हूँ, (तेभ्यः अग्निभ्य:) उन वैश्वानर आदि अग्नियों के लिए [निज सहायतार्थ] (एतत्)
यह प्राकृतिक तथा आत्महवि (हुतम् अस्तु) प्रदत्त हो, अर्पित हो।
टिप्पणी: [सरथम्="आत्मानं
रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु" (कठ० उप० ३।३), अर्थात् जीवात्मा है रथस्वामी और
शरीर है रथ। इन्द्र अर्थात् इन्द्रियों का अधिष्ठाता जीवात्मा। यह और वैश्वानर-देव–ये दोनों, शरीर-रथस्थ हदय में विद्यमान हैं, और परस्पर सखा हैं। पृतनासु=आध्यात्मिक देवासुर-संग्राम, जोकि मनुष्य जीवन में होते रहते हैं। परमेश्वर निज ध्याताओं की आसुर भावनाओं
का पराभव करता है। अग्निभ्यः=इन्द्र और वैश्वानर-देव आदि अग्नियाँ हैं। ये आसुरी-भावनाओं
को दग्ध करती हैं।]
०३।०२१।०४
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (यः) जो (देवः) प्रकाशमान अग्नि, [वैरियों में]
(विश्वात्) सबका खानेवाला है, (यम्) जिसको (उ) ही (कामम्) कमनीय
वा कामना पूरी करनेवाला (आहुः) लोग कहते हैं, (यम्) जिसको (दातारम्)
देनेवाला और (प्रतिगृह्णन्तम्) लेनेवाला (आहुः) बताते हैं। (यः) जो (धीरः) पुष्टि करनेवाला,
(शक्रः) शक्तिमान् (परिभूः) सर्वव्यापक और (अदाभ्यः) न दबने योग्य है,
(तेभ्यः) उन (अग्निभ्यः) अग्नियों [ईश्वरतेजों] को (एतत्) यह (हुतम्)
दान [आत्मसमर्पण] (अस्तु) होवे ॥४॥
भावार्थः जिस परमात्मा को विद्वान् लोग आनन्ददाता और प्रार्थना का माननेवाला
जानते हैं, और जिसके ध्यान से पुरुषार्थी लोग शत्रुओं को जीतते हैं, उसको हमारा प्रणाम है ॥४॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (यः) जो (देव:) परमेश्वर-देव (विश्वाद्) विश्व को खा जाता है
[प्रलयकाल में] (यम्, उ) जिसे ही (कामम्) कामनावाला या काम्य (आहुः) कहते हैं, (यम्) जिसे (दातारम्) दाता तथा (प्रतिगृह्णन्तम्) हमारी भक्ति-श्रद्धा को स्वीकार
करनेवाला (आहुः) कहते हैं। (यः) जो (धीरः) धीमान्, (शक्रः) शक्तिशाली, (परिभूः) सर्वत्र विद्यमान, (अदाभ्यः) न खाया जा सकनेवाला
है, (तेभ्यः अग्नि भ्यः) परमेश्वर के उन अग्निस्वरूपों के लिए
(एतत्) यह प्राकृतिक तथा आत्म हविः (हुतम्, अस्तु) प्रदत्त हो,
अर्पित हो।
टिप्पणी: [परमेश्वर विश्वाद् है, विश्व+अद भक्षणे (अदादिः), वह विश्व का भक्षण
करता है, अतः अग्निरूप है। वह कामनावाला है,
अतः काम है। इसे
उपनिषदों में "अकामयत"
द्वारा कहा है। कामना
द्वारा जगत् को वह प्रकाशित करता है,
इसलिए भी वह अग्नि है। अग्नि प्रकाशक होती है। वह धीर
है, बुद्धिमान् है, ज्ञानवान् है। ज्ञान ज्ञेयों को प्रकाशित करता है, इसलिए भी वह अग्निरूप है।]
०३।०२१।०५
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (त्रयोदश) तेरह [दो कान, दो
नथनें, दो आंखें और एक मुख यह सात शिर के, और दो हाथ, दो पद, एक उपस्थेन्द्रिय, और
एक गुदास्थान, यह छः शिर के नीचे के] (भौवनाः) भुवनों से संबन्धवाले प्राणी, और
(पञ्च) पांच [पृथिवी, जल, तेज, वायु और आकाश, इन पांच तत्त्व] से संबन्धवाले
(मानवाः) मनुष्य (मनसा) मनन शक्ति से (वर्चोधसे) तेज धारण करानेवाले और
(सूनृतावते) प्रिय सत्य वाणीवाले (यशसे) यश के लिये (यम्) जिस (त्वा) तुझ [अग्नि]
को (होतारम्) दानी (अभि) सब प्रकार (संविदुः) ठीक ठीक जानते हैं, (तेभ्यः) उन
(अग्निभ्यः) अग्नियों [ईश्वर तेजों] को (एतत्) यह (हुतम्) दान [आत्मसमर्पण]
(अस्तु) होवे ॥५॥
भावार्थः सब शरीरधारी उस परमपिता की महिमा विचारपूर्वक
गाकर तेजस्वी, सत्यवादी और यशस्वी होते हैं, उसको यह हमारा नमस्कार है ॥५॥ ‘पञ्च मानवाः’ शब्द
‘पञ्चजनाः’ शब्द का पर्यायवाची है, जिसका अर्थ “मनुष्य” है−निघ० २।३। उसकी व्याख्या, निरु० ३।८ में इस प्रकार की है−“पञ्च जनाः” गन्धर्व,
पितर, देव, असुर और राक्षस, ऐसा कोई-२ मानते हैं, चारों वर्ण और निषाद पाँचवाँ, यह औपमन्यव ऋषि का मत है निषाद किस लिये, इसमें पाप स्थित है ॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: [हे परमेश्वराग्नि!] (यम्, त्वा) जिस तुझको, (होतारम्) दाता तथा अत्तारूप में (भौवनाः) भुवनवासी (त्रयोदश) १३ मास,
१ तथा (पञ्च)२ पाँच
प्रकार के (मानवाः) मननाभ्यासी मनुष्य, (मनसा) मन या मनन द्वारा (अभि) साक्षात्
(संविदः) सम्यक्तया
जानते हैं, उस (वर्चोधसे) दीपिथारी के लिए, (यशसे) यशस्वी के लिए, (सुनृतावते) प्रिय तथा सत्य वेद वाणी वाले के लिए, (तेभ्य अग्निभ्य ) उन् सब तेरै आग्नेय स्वरूपों के
लिए, (एतत्) यह प्राकृतिक तथा अध्यात्म अर्थात् आत्महत्या (हुतम् अस्तु)
आहुति रूप में प्रदत्त हो, समर्पित हो।
टिप्पणी: [परमेश्वर अग्निरूप है। यथा "तदेवाग्निस्तदादित्यः"
(यजु:० ३२।१)। परमेश्वर के
नानाविध आग्नेयस्वरूपों
के प्रति प्राकृतिक तथा आत्महविः समर्पित की है। चांद, सूर्य,
विद्युत, तथा नक्षत्र तारागण परमेश्वराग्नि के ही नानारूप हैं, "तस्य भासा सर्वमिदं विभाति"] [१. मासों
में संविदु: की शक्ति नहीं, मास जड़ हैं। अत: मास का अभिप्राय है मास-निवासिनः, उपचारात्। यथा मञ्चा:
क्रोशन्ति=मञ्चस्थाः
पुरुषाः क्रोशन्ति। २. पाँच प्रकार के मानव यथा,
"पञ्चजना मम होत्रं
जुषध्वम्" गन्धर्वाः पितरो देवा असुरा रक्षांसि (निरुक्त ३।२।८)। होत्रम् का अभिप्राय है अग्निहोत्र आदि यज्ञ। पितरः और देवा: के साथ पठित "गन्धर्वाः, असुराः, रक्षांसि" पद भी श्रेष्टार्थवाचक हैं। गन्धर्वा हैं गानविद्याज्ञातारः, असुराः हैं प्रज्ञानवन्तः" असुः
प्रज्ञानाम"
(निघं० ३।९)। रक्षासि हैं रक्षक। परमेश्वर को भी रक्षस् कहा है, यथा "स एव मृत्युः सोऽमृतं सोभ्वं स
रक्षः" (अथर्व० १३।३।२५)। परमेश्वर
रक्षस् है, वह सबका रक्षक है। १३ मास हैं,
१२ मास संवत्सर के
और १ अधिमास यथा "अहोरात्रैर्विमितं त्रिंशदङ्ग त्रयोदशं
मासं यो निर्मिमीते" (अथर्व०
१३।३।८)। यह चान्द्रमास
है। सौरवर्ष के दिन अधिक होते और चान्द्रवर्ष के दिन ३० कम होते हैं। उनकी पूर्ति के लिए १३वॉ अधिमास है। अधिमास=अधिक मास। मानवा:=मननाभ्यासिनः। यह अर्थ यहाँ संगत प्रतीत
होता है। यद्यपि अद्भुत है।
ऐसा अद्भुत अर्थ
भी है "मानुष=मनुष्यहितोऽयमादित्यः" (मा ते राधांसि) मन्त्र ऋ० १।८४।२० पर निरुक्त १३ (१४) ३
(२), खं० ३७ (५०)।]
०३।०२१।०६
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (उक्षान्नाय)
प्रबलों के अन्नदाता, (वशान्नाय) वशीभूत निर्बल प्रजाओं के अन्नदाता,
(सोमपृष्ठाय) अमृत
सींचनेवाले और (वेधसे) उत्पन्न करनेवाले (तेभ्यः) उन [चार प्रकार के] (वैश्वानरज्येष्ठेभ्यः) सब नरों के हितकारी [परमेश्वर] को प्रधान रखनेवाले (अग्निभ्यः) अग्नियों [ईश्वरतेजों]
को (एतत्) यह (हुतम्) दान [आत्मसमर्पण]
(अस्तु) होवे ॥६॥
भावार्थः जिस (वैश्वानर) सब मनुष्य आदि के हितकारी परमेश्वर की शक्ति से सब प्राणी पुष्ट होते हैं, उसको हमारा नमस्कार है ॥६॥
इस मन्त्र का पूर्वार्ध
ऋग्वेद ८।४३।११ में है ॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (उक्षान्नाय) वर्षा द्वारा सींचनेवाला आदित्य जिसका अन्न
है, उसके लिए,
(बशान्नाय) तथा वशा जिसका अन्न है उसके लिए, (सोमपृष्ठाय) उत्पन्न जगत् का जो पृष्ठ
अर्थात् आधार है
उसके लिए, (वेधसे) जगत् का, या विधियों का विधान करनेवाले
के लिए, (वैश्वानर-ज्येष्ठेभ्यः) समग्र नर-नारियों का हित करनेवाला परमेश्वररूप जिनमें ज्येष्ठ है, (तेथ्य: अग्निभ्य:) उन अग्नियों के लिए
(एतत्) यह प्राकृतिक
तथा आत्महविः (हुतम्, अरस्तु) प्रदत्त हो, अर्पित हो।
टिप्पणी: [उक्षा= उक्ष सेचने (भ्वादिः), "आदित्याद् जायते वृष्टिः वृष्टेरन्नम्"। वशा="वशेदं सर्वमभवत, देवा मनुष्या असुराः पितर ऋषयः" (अथर्व० १०।१०।२६) अर्थात् यह दृश्यमान जगत् तथा देव,
मनुष्य, असुर, पितर और ऋषि "वशा" हैं। अर्थात् उक्षा और दृश्यमान जगत्, तथा देव आदि जिसके अन्त हैं। प्रलयकाल में आदित्य तथा वशोक्त सब परमेश्वराग्नि के अन्नरूप हो जाते हैं। परमेश्वर अन्नाद है,
मंत्राभिप्रेत अन्न
का अदन करता है। यह सृष्टिकाल में भी हो रहा है, और महाप्रलय काल में भी। परमेश्वर अन्न भी
है। उपासक इसके अन्नरस अर्थात् आनन्दरस
का पान करते हैं, और यह अन्नाद भी है। यथा "अहमन्नम्, अहमन्नादः" (तैत्ति० उप० वल्ली ३।१०।६)। सोमपृष्ठाय सोम है उत्पन्न जगत् (षु प्रसवे, भ्वादिः,
अदादि)। परमेश्वर
उत्पन्न जगत् की पीठ है, आधार है। जैसे अश्व की पीठ अश्वारोही का आधार होती है। वैश्वानरज्येष्ठेभ्यः=परमेश्वर है वैश्वानर,
सब नर नारियों का
हितकारी। सबका हितकारी होने से यह सर्व ज्येष्ठ अग्नि
है। अग्नि रूप होकर यह पाप-मल
को भस्मीभूत कर देता
है और प्रलय में जगत् को भी।]
०३।०२१।०७
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (ये)
जो [तेज] (दिवम्)
सूर्यलोक में, (पृथिवीम्) पृथिवी में और (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्ष में (अनु) लगातार और (विद्युतम्)
बिजुली में (अनुसंचरन्ति)
लगातार चलते रहते
हैं, (ये) जो (दिक्षु अन्तः) दिशाओं के भीतर और
(ये) जो (वाते अन्तः) पवन के भीतर हैं, (तेभ्यः) उन (अग्निभिः) अग्नियों
[ईश्वर तेजों] को
(एतत्) यह (हुतम्) दान [आत्मसमर्पण] (अस्तु) होवे ॥७॥
भावार्थः जिस परमात्मा के
तेज सब लोकों, सब पदार्थों और सब दिशाओं में हैं, उस जगदीश्वर को हमारा नमस्कार है ॥७॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (ये) जो अग्नियाँ (दिवम्) द्युलोक में, (पृथिवीम्) पृथिवी में, (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्ष में (अनु) अनुप्रवेश करके (संचरन्ति) संचार करती हैं, (ये) जो (विद्युतम्) विद्योतमान राशिचक्र में विचरती
हैं। (ये) जो (दिक्षु अन्तः)
सब दिशाओं के भीतर
हैं, (थे) जो (वाते अन्तः) वायु के भीतर उल्काग्नियाँ हैं,
(तेभ्यः अग्निभ्यः)
उन अग्नियों के लिए (एतत्) यह प्राकृतिक तथा आत्म हवि: (हुतमस्तु) प्रदत्त हो, अर्पित हो।
टिप्पणी: [उल्का=(अथर्व० १९।९।८,९)। दिक्षु= अथर्व०
(१९।८।१)। ये अग्नियाँ हैं परमेश्वर का
तेज:स्वरूप जो कि
इनमें भासित हो रहा है, "तस्य भासा सर्वमिदं विभाति" (मुण्डक० उप० २।२।१०)।]
०३।०२१।०८
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (हिरण्यपाणिम्) सूर्य
आदि तेजों से स्तुति किये हुए (सवितारम्) सबके प्रेरक (इन्द्रम्) बड़े ऐश्वर्यवाले
(बृहस्पतिम्) बड़े लोकों के रक्षक (वरुणम्) सबमें श्रेष्ठ, (मित्रम्) हितकारी (अग्निम्) ज्ञानस्वरूप परमेश्वर से (विश्वान्) सब (देवान्) विजय
करानेवाले (अङ्गिरसः) ज्ञानों वा पुरुषार्थों को (हवामहे) हम माँगते हैं (इमम्) इस
(क्रव्यादम्) मांस खानेवाले (अग्निम्) अग्नि [समान दुःख] को (शमयन्तु) वे शान्त कर
दें ॥८॥
भावार्थः मनुष्य ईश्वर के
अनुपम गुणों का अनुभव करके पुरुषार्थी बनें और अग्नि समान तापकारी और शरीरशोषक दुःखों
का नाश करें ॥८॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (हिरण्यपाणिम्) हिरण्य
जिसके हाथ में है (सवितारम्) उस सर्वप्रेरक या सर्वोत्पादक परमेश्वर का (इन्द्रम्)
इन्द्रियों के अधिष्ठाता जीवात्मा का,
(बृहस्पतिम्) बृहती
वेदवाणी के पति का, (वरुणम्) अपांपति का, (मित्रम्) स्नेहकारी [वर्षा द्वारा] मेघ का,
(अग्निम्) यज्ञियाग्नि
का तथा (अङ्गिरसः विश्वान् देवान्) अङ्गों तथा अङ्गी शरीर के सब रसों का (हवामहे) हम
कथन करते हैं, ये सब (इमम्, क्रव्यादम्,१ अग्निम्) इस कच्चे मांस का भक्षण करनेवाली
शवाग्नि को (शमयन्तु) शान्त करें।"हिरण्यपाणिम्" द्वारा यह दर्शाया है कि परमेश्वर ही सबकी रक्षा दान द्वारा
कर रहा है।
०३।०२१।०९
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (क्रव्यात्) मांस
खानेवाला (अग्निः) अग्नि [समान तापकारी दुःख] (शान्तः) शान्त हो। (पुरुषरेषणः) पुरुषों
का सतानेवाला [कष्ट] (शान्तः) शान्त हो। (अथो) और भी (यः) जो (विश्वदाव्यः) सब [सुखों]
का जलानेवाला है (तम्) उस (क्रव्यादम्) मांस खानेवाले [अग्निरूप दुःख] को (अशीशमम्)
मैंने शान्त कर दिया है ॥९॥
भावार्थः दूरदर्शी पुरुष
विघ्नों को हटाकर आप सुखी रहते और सबको सुखी रखते हैं ॥९॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: [सविता आदि के प्रभाव
द्वारा, मन्त्र ८] (क्रव्याद् अग्निः शान्तः) कच्चे
मांस की भक्षक अग्नि शान्त हो गई है,
(पुरुषरेषणः) पुरुषहिंसक
क्रव्याद् अग्नि (शान्त:) शान्त हो गई है (अथो) तथा (य:) जो अग्नि (विश्वदाव्यः) विश्व
का दहन करनेवाली दावाग्नि है (तम् क्रव्यादम्) उस क्रव्याद् अग्नि को (अशीशमम्) मैंने
शान्त कर दिया है।
टिप्पणी: [विश्वदाव्यः=हृदयस्थ ताप-संतापरूपी अग्नि। यह अग्नि सब पुरुषों को दावाग्नि के
सदृश दग्ध करती रहती है। "अशीशमम्"
उक्ति परमेश्वर की
है।]
[१. क्रव्यम्=कृवि हिंसाकरणयोश्च (भ्यादिः)। हिंसा
द्वारा प्राप्त मांस अर्थात् शरीर।]
०३।०२१।१०
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (ये) जो (पर्वताः)
पहाड़ (सोमपृष्ठाः) सोम [अमृत अर्थात् ओषधि वा जल] को पीठ पर रखनेवाले हैं, [उन्होंने और] (उत्तानशीवरीः वर्यः) ऊपर को मुख करके सोनेवाले [सूर्य की ओर चढ़नेवाले]
(आपः) जल, (वातः) पवन,
(पर्जन्यः) मेघ, (आत्) और (अग्निः) अग्नि, (ते) उन सबने (क्रव्यादम्)
मांसभक्षक [अग्नि रूप दुःख] को (अशीशमन्) शान्त कर दिया है ॥१०॥
भावार्थः मनुष्य प्रयत्न
करें कि सोमलता आदि औषध उत्पन्न करनेवाले पर्वत,
जल, वायु, मेघ,
अग्नि आदि सब पदार्थ
शुद्ध रहकर सुखदायक होवें ॥१०॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (सोमपृष्ठाः) सोमौषधि
जिनकी पीठ पर विद्यमान है, ऐसे (ये) जो (पर्वता:) पर्वत हैं, तथा (उत्तानशीवरी:) ऊपर-ताने अर्थात् विस्तृत वायु-मण्डल में शयन करनेवाले जो
(आपः) जल हैं; (वातः) प्रवाही वायु (पर्जन्य:) मेघ, (आत्) तदनन्तर (अग्निः) यज्ञियाग्नि है (ते) उन्होंने (क्रव्यादम्) कच्चे मांस का
भक्षण करनेवाली शवाग्नि अर्थात् श्मशानाग्नि को (अशीशमन्) शान्त कर दिया है, प्रभावरहित कर दिया है।
टिप्पणी: [सोम है वीरुघों का अधिपति यथा
"सोमो वीरुधामधिपतिः।" (अथर्व० ५।२४।७)। आप: हैं ऊपर अर्थात् वायुमण्डल में शयन किये
हुए जल, जिनकी जागृति वर्षाकाल में होती है तथा वायु
आदि, क्रव्यादग्नि को शान्त कर देते हैं। मनुष्य
की आयु १०० वर्षों की कही है। १०० वर्षों से पूर्व मृत्यु अन्नादि के दोषादि द्वारा
होती है। इस मृत्यु में शरीर कच्चे मांस-वाला होता है, पूर्णतया परिपक्व मांसवाला नहीं होता,
यह "क्रव्य" होता है, इसे भक्षण करनेवाली श्मशानाग्नि क्रव्यादग्नि है। क्रव्यम्= कृवि हिंसा- करणयोश्च।
सोम आदि के सेवन में क्रव्यादग्नि शान्त हो जाती है।]
०३।०२२।०१
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (हस्तिवर्चसम्) हाथी
के बल से युक्त (बृहत्) बड़ा (यशः) यश (प्रथताम्) फैले, (यत्) जो (अदित्याः) अदीन वेदवाणी वा प्रकृति के (तन्वः) विस्तार से (संबभूव) उत्पन्न
हुआ है, (तत्) सो (एतत्) यह [यश] (मह्यम्) मुझको (सजोषाः)
समान प्रीतिवाली (अदितिः) अखण्ड वेदवाणी वा प्रकृति और (विश्वे) सब (देवाः) प्रकाशमान
गुणों ने (सर्वे) सर्वव्यापक विष्णु भगवान् में (सम्) ठीक प्रकार से (अदुः) दिया है
॥१॥
भावार्थः मनुष्य वेदविद्या
और प्रकृति के यथावत् ज्ञान से (जिस सबका केन्द्र परमेश्वर है) हाथी आदि का सामर्थ्य
पाकर यशस्वी होता है। म० ६ देखो ॥१॥ भगवान् पतञ्जलि का वचन है−बलेषु हस्तिबलादीनि ॥
यो० द० ३।२३ ॥ बलों में [संयम करने से] हाथी के से बल हो जाते हैं ॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (हस्तिवर्चसम्) हाथी
के तेज जैसा तेज (प्रथताम्) राष्ट्र में फैले,
(बृहद् यशः) यह तेज
महायशरूप है [यश का उत्पादक है], (यत्) जो तेज कि
(अदित्याः) अदीना अर्थात् न क्षीण होनेवाली प्रकृति की (तन्व:) तनु१ से (सं बभूव) सम्पन्न
हुआ है। (विश्वे देवा:) प्रकृतिजन्य सब प्राकृतिक दिव्य शक्तियों ने तथा (सजोषाः अदितिः)
प्रेमवाली प्रकृति ने, (सर्वे) इन सबने, (तत् एतत्) प्रसिद्ध इस तेज को (मह्यम्) मुझे (सम्, अदुः) परस्पर मिल कर दिया है।
टिप्पणी: [हस्तिवर्चस है महाबलरूपी तेज। सजोषा:=प्रकृति प्रेममयी माता रूप है, जिसने कि हमें शरीर, इन्द्रियाँ तथा मन, बुद्धि तथा खाद्य-पेय अन्न प्रदान किया है और हमारी रक्षा के लिए पृथ्वी, वायु तथा आदित्य आदि प्रदान किये हैं।] [हाथी महाकाय है, उसकी उत्पादक-माता भी महाकाया होनी चाहिए। प्रकृति विस्तार में महाकाया है। इसे
द्योतित करने के लिए "तनू"
का प्रयोग हुआ है, तनु विस्तारे (तनादि:)]
०३।०२२।०२
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (मित्रः) सबका मित्र, (च) और (वरुणः) अति श्रेष्ठ (च) और (इन्द्रः) परम ऐश्वर्यवान् (च) और (रुद्रः) ज्ञानदाता
वा दुःखनाशक परमेश्वर (चेततु) चेताता रहे,
और (ते) वे [प्रसिद्ध]
(विश्वधायसः) सब जगत् के पोषण करनेवाले (देवासः=देवाः) दिव्य पदार्थ [पृथिवी, जल, वायु,
तेज, आकाश आदि] (मा) मुझको (वर्चसा) तेज वा बल से (अञ्जन्तु) कान्तिवाला करें ॥२॥
भावार्थः सब स्त्री पुरुष
परमेश्वर की महिमा को जानें और विज्ञानपूर्वक सब पदार्थों से उपकार लेकर तेजस्वी और
यशस्वी होवें ॥२॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (मित्र: च) मित्रों
को बढ़ानेवाला मन्त्री, (वरुण: च) और निज प्रत्येक राष्ट्र का अधिपति, (इन्द्रः) सम्राट, (रुद्रः च) और रौद्रकर्मा युद्ध मंत्री, (चेततु) इनमें से प्रत्येक [ राष्ट्र में] सचेत रहे, सावधान रहे। (विश्वधायसः देवासः) सब प्रजाजनों का धारण-पोषण करनेवाले अन्य अधिकारी
वर्ग (ते) वे (मा) मुझ साम्राज्य के स्वामी को,
(वर्चसा) वर्चस् द्वारा
(अञ्जन्तु) कान्तियुक्त करें। "च" पद समुच्चयार्थक हैं।
टिप्पणी: [मित्र:=मित्रेणाग्ने मित्रधा यतस्व (अथर्व० २।६।४), अर्थात् हे अग्नि अर्थात् अग्रणी प्रधानमन्त्री! तू मित्र अर्थात् स्नेही "मित्र" नामक मन्त्री द्वारा
मित्रधा होकर, मित्र राजाओं को धारण करने में यत्न किया
कर। अग्नि:=अग्रणीर्भवति (निरुक्त ७।४।१४)। वरुणः="इन्द्रश्च सम्राड्
वरुणश्च राजा" (यजु:० ८।३७)। विश्वधायस विश्व+धा (युक्)+असुन्, प्रथमा विभक्ति बहुवचन। अञ्जन्तु=अञ्जू व्यक्तिम्रक्षणकान्तिगतिषु (रुधादिः)।]
०३।०२२।०३
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (येन) जिस (वर्चसा)
तेज से (हस्ती) हाथी, और (येन) जिस [तेज] से (राजा) ऐश्वर्यवान्
राजा (मनुष्येषु) मनुष्यों और (अप्सुअन्तः) जल और अन्तरिक्ष के भीतर (संबभूव) पराक्रमी
हुआ है, और (येन) जिस [तेज] से (देवाः) देवताओं [महात्मा
पुरुषों] ने (अग्रे) पहिले काल में (देवताम्) देवतापन (आयन्) पाया है, (अग्ने) हे ज्ञानस्वरूप जगदीश्वर ! (तेन वर्चसा) उस तेज से (माम्) मुझको (अद्य)
आज (वर्चस्विनम्) तेजस्वी (कृणु) कर ॥३॥
भावार्थः सब स्त्री पुरुष
हाथी आदि पशुओं, और पूर्वज शूरवीर ऋषि महात्माओं के बुद्धि
बल का अनुभव करके (अद्य) आज अर्थात् शीघ्र उपाय से जल, थल, और आकाश में, (अग्नि) परमेश्वर की भक्ति के साथ अपनी गति बढ़ावें और अग्नि के समान तेजस्वी होकर
संसार में कीर्तिमान् होवें ॥३॥ योगेश्वर पतञ्जलि का वचन है−तीव्रसंवेगानामासन्नः ॥
यो० द० १।२१ ॥ [समाधिलाभ] उग्र अच्छे वेगवालों के समीप होता
है ॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (येन वर्चसा) जिस
वर्चस् के साथ (हस्ती संबभूव) हाथी पैदा हुआ है,
(येन) जिस वर्चस्
के साथ (राजा मनुष्येषु) राजा मनुष्यों में हुआ है [जिस वर्चस् के साथ] (अप्सु अन्तः)
मेघीय जलों में विद्युत पैदा होती है,
(येन) जिस वर्चस्
के साथ (अग्रे) पूर्वकाल से (देवा:) दिव्यजन (देवताम् आयन्) देवता को प्राप्त हुए हैं, (तेन वर्चसा) उस वर्चस् के साथ (अग्ने) हे अग्रणी प्रधानमन्त्री। (माम्) मुझको
(अद्य) आज (वर्चस्विनम् कृणु) वर्चस्वी कर।
टिप्पणी: [वर्चस्= वर्च दीप्तौ (भ्वादिः)। हस्ती आदि में दीप्ति अर्थात् तेज पृथक् पृथक्
रूपवाला है। हस्ती का तेज है बल, शारीरिक बल। राजा
आदि में भी तेज अपने अपने ढंग का है। व्यक्ति जोकि प्रजाओं द्वारा "राजा" निर्वाचित हुआ है, वह प्रधानमन्त्री से कहता है कि आज जबकि मैं राजासनस्थ हुआ हैं, तू मुझे वर्चस्वी कर, राज्य में मेरे वर्चस् को बढ़ा। निर्वाचन
काल में राज्याधिकारी अधिकार से वञ्चित कर दिए जाने चाहिएं, केवल प्रधानमंत्री ही निर्वाचन का प्रबन्ध करे-यह भाव प्रतीत होता है।]
०३।०२२।०४
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (यत्) जिस कारण से
(जातवेदः) उत्पन्न संसार के ज्ञानवाले परमेश्वर ! (ते) तेरे लिये (आहुतेः) आहुति [आत्मदान]
से [हमारा] (वर्चः) तेज (बृहत्) बड़ा (भवति) होता है, (यावत्) जितना (वर्चः) तेज वा बल (आसुरस्य) प्राणियों वा मेघों के हितकारक (सूर्यस्य)
सूर्य का (च) और (हस्तिनः) हाथी का है,
(तावत्) उतना (वर्चः)
तेज वा बल (मे) मेरे लिये (पुष्करस्रजा=०-जौ) पोषण देनेवाले (अश्विना=०-नौ) माता पिता
वा सूर्य्य चन्द्रमा (आधत्ताम्) सब प्रकार देवें ॥४॥
भावार्थः सब स्त्री पुरुष
माता पिता की सुशिक्षा और सूर्य चन्द्रमा के समान नियम से परमेश्वर की आज्ञापालन में
मन लगाकर अपना बल बढ़ावें और सूर्य आदि दूरस्थ और हाथी आदि पृथिवीस्थ पदार्थों का बल, विज्ञान द्वारा जानकर उन्नति करें ॥४॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (जातवेदः) उत्पन्न
पदार्थों में विद्यमान हे अग्नि! (आहुते:) आहुति से (यत्) जो (ते) तेरा (बृहत् वर्चः)
महावर्चस् (भवति) हो जाता है, (यावत्) जितना बड़ा
(सूर्यस्य वर्चः) सूर्य का वर्चस् है,
(च) और जितना बड़ा
(आसुरस्य) प्राणवान् (हस्तिनः) हाथी का वर्चस् है,
(पुष्करस्रजा) पद्ममाला
धारण करनेवाले (अश्विना) हे दो अश्वियो! (तावत्) उतना बड़ा वर्चस् (मे) मुझमें (आ धत्ताम्)
तुम स्थापित करो।
टिप्पणी: [जातवेदः= जाते-जाते विद्यते वा (निरुक्त ७।५।१९) आसुरस्य=असुर एव आसुरः, स्वार्थेऽण् । असुरः= प्राणवान्,
यथा असुरत्वम्= प्राणवत्वम्
(निरुक्त १०।३।३४)। मे=मह्यम्। अश्विना= रथाश्वों और अश्वारोहियों के अश्व; दो प्रकार के अश्वों के नियन्ता दो सेनापति। पुष्करस्रजा=दोनों सेनापतियों के सत्कारार्थ
पद्मपुष्पमालाएँ। मे वर्च: आधत्ताम्= मुझ निर्वाचित राजा में दोनों सेनापति वर्चस्
का आधान करें।]
०३।०२२।०५
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (यावत्) जितनी दूर
(चतस्रः) चारों (प्रदिशः) महादिशायें हैं,
और (यावत्) जितनी
दूर (चक्षुः) आँख [दर्शन शक्ति] (समश्नुते) फैलती है, (तावत्) वहाँ तक (मयि) मुझमें (तत्) वह (हस्तिवर्चसम्) हाथी के बलवाला (इन्द्रियम्)
परम ऐश्वर्य (समैतु) आकर मिले ॥५॥
भावार्थः मनुष्य सब पार्थिव
और दिव्य पदार्थों के यथावत् ज्ञान से सामर्थ्य बढ़ाकर उन्नति करें ॥५॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (चतस्रः प्रदिशः)
चार प्रकृष्ट-दिशाएँ (यावत्) जितने प्रदेश में व्याप्त हैं तथा (चक्षुः) रूपग्राहक
आँख (यावत्) जितने प्रदेश को (समश्नुते) सम्यक् व्याप्त करती है, जितने प्रदेश तक देख सकती है, (तावत्) उतना (इन्द्रियम्)
ऐन्द्रियिक बल (समैतु) मुझे प्राप्त हो,
(मयि) और मुझमें
(तद्) वह अर्थात् उत्तम (हस्तिवर्चसम्) हाथी का वर्चस् (ऐतु) प्राप्त हो। हस्तिवर्चस्
है, बल का अतिशय।
०३।०२२।०६
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (हि) क्योंकि (सुषदाम्)
सुखसे चढ़ने योग्य (मृगाणाम्) पशुओं में (हस्ती) हाथी (अतिष्ठावान्) प्रतिष्ठावाला
(बभूव) हुआ है, (तस्य) उसके (भगेन) सेवनीय (वर्चसा) कान्ति
से (अहम्) मैं (माम्) अपने को (अभिषिञ्चामि) भले प्रकार सींचूँ [शुद्ध करूँ] ॥६॥
भावार्थः जैसे हाथी में अन्य
पशुओं से अधिक बुद्धि बल होता है, वैसे ही प्रधान पुरुष
अन्य पुरुषों से अधिक बुद्धिबलवाला होवे ॥६॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (सुषदाम्) सुख से
स्थित हुए। (मृगाणाम्) मृगों के मध्य,
(हस्ती) हाथी, (हि) निश्चय से (अतिष्ठावान्) बल में सबको अतिक्रान्त करके स्थित हुआ है; (तस्य) उस हाथी के (भगेन) यश द्वारा (वर्चसा) तथा तेज द्वारा. (अहम्) मैं (माम्)
अपने-आपका (अभिषिच्यामि) अभिषेक करता है।
टिप्पणी: [भगेन=यशसा, यथा
"ऐश्वर्यस्य समग्रस्य
धर्मस्य यशसः श्रियः। ज्ञानवैराग्ययोश्चैव षण्णां भग इतीरणा।" नवनिर्वाचित राजा,
जल द्वारा अभिषिक्त
न होकर, अपने-आपको यश और तेज द्वारा अभिषिक्त होने
का अभिलाषी है। यह चाहता है कि राज्य में उसका यश और तेज बढ़े।।
०३।०२३।०१
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: [हे स्त्री] (येन)
जिस कारण से तू (वेहत्) बन्घ्या [बाँझ] (बभूविथ) हुई है, (तत्) उस कारण को (त्वत्) तुझसे (नाशयामसि) हम नष्ट करते हैं। (इदम्=इदानीम्) अभी
(तत्) उसको (त्वत्) तुझसे (अन्यत्र) और कहीं (दूरे) दूर (अप=अपहृत्य) हटाकर (निदध्मसि=०-ध्मः)
हम रखते हैं ॥१॥
भावार्थः सद्वैद्य पुत्रेष्टि
यज्ञ करके ओषधि द्वारा बाँझपन मिटाकर वीर सन्तान उत्पन्न करते हैं, देखो−श्रीमद् दयानन्दकृत संस्कारविधि-गर्भाधानप्रकरण ॥१॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: [हे नारी!! (येन)
जिस कारण से (बेहत्) गर्भघातिनी (बभूविथ) तू हुई है,
(तत्) उसे (त्वत्)
तुझसे (नाशयामसि) हम [वैद्य] नष्ट करते हैं। (इदम् तत्) इस प्रसिद्ध कारण को (त्वत्
अप) तुझसे अपगत कर, (अन्यत्र दूरे) अन्यत्र दूर (निदध्मसि) हम
स्थापित करते हैं [फैक देते हैं, सायण।]
०३।०२३।०२
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: [हे सुभगे] (पुमान्)
रक्षा करनेवाला, पराक्रमी (गर्भः) गर्भ (ते) तेरे (योनिम्)
गर्भाशय में (आ एतु) आवे, (बाणः इव) जैसे बाण (इषुधिम्) तूणीर [तीरों
के थैले] में। (अत्र) इस घर में (दशमास्यः) दश महीने तक पुष्ट हुआ, (ते) तेरा (वीरः) वीर, (पुत्र) कुलशोधक बालक (आ जायताम्) अच्छे प्रकार
उत्पन्न हो ॥२॥
भावार्थः वधू और वर यथाविधि
ब्रह्मचारी रहकर युक्त आहार विहार करके सन्तान उत्पन्न करें, जिससे गर्भ अवश्य स्थिर रहे और पूर्ण रीति से पुष्ट होकर वीर सन्तान उत्पन्न हो
॥२॥ यहाँ पर अथर्ववेद का० १ सू० ११ मन्त्र ६ का मिलान करो। ऋग्वेद में ऐसा वर्णन है−द॒श
मासा॑ञ्छशया॒नः कु॑मा॒रो अधि मा॒तरि॑। नि॒रैतु॑ जी॒वो अक्ष॑तो जी॒वो जीव॑न्त्या॒ अधि॑
॥ ऋ० ५।७८।९ ॥ (मातरि अधि) माता के गर्भ में जो (कुमारः)
बालक (दश मासान्) दश महीनों तक (शशयानः) सोता रहा है, वह (जीवः) जीता हुआ (अक्षतः) घाव से रहित (जीवः) जीव (जीवन्त्याः अधि) जीवती हुई
माता से (निरैतु) बाहिर आवे। श्री सायणाचार्य ने यह मन्त्र इस प्रकार श्लोक में लिखा
है−दश मासानुषित्वासौ जननीजठरे सुखम्। निर्गच्छतु सुखं जीवो जननी चापि जीवतु ॥ ऋ० सा०
भा० ५।७८।९। (जननीजठरे) माता के पेट में (सुखम्) सुख से
(दश मासान्) दस महीनों तक (उषित्वा) सोकर (असौ जीवः) वह जीव (निर्गच्छतु) बाहिर आवे, (च) और (जननी अपि) माता भी (जीवतु) जीवित रहे ॥२॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (ते योनिम्) तेरी
योनि में (पुमान् गर्भः) पुमान् गर्भ (आ एतु) आए (इव) जैसे कि (बाणः) बाण (इषुधिम्१)
इषुओं को धारण करनेवाले निषङ्ग में स्वभावतः प्राप्त हो जाता है। (अत्र) इस प्रसूतिकाल
में या इस तेरे घर में (दशमास्यः) दसवें मास में पैदा होनेवाला (ते वीरः पुत्रः) तेरा
वीर पुत्र (आ जायताम्) आजाए या उत्पन्न हो।
टिप्पणी: [१. इषुधि:= इषुओं को रखने की थैली। युद्धकाल में यह योद्धाओं की पीठ पर बांधी रहती
है। इसे निषङ्ग तुणीर तथा तर्कश भी कहते हैं।]
०३।०२३।०३
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: [हे वधू] (पुमांसम्)
रक्षा करनेवाला (पुत्रम्) बहुरक्षक,
वीर सन्तान (जनय)
उत्पन्न कर, (तम् अनु) उसके पीछे (पुमान्) रक्षा करनेवाला
वीर बालक (जायताम्) उत्पन्न होवे। (जातानाम्) उत्पन्न हुए (पुत्राणाम्) नरक से बचानेवाले
सन्तानों की (माता) माननीय माता (भवासि) हो,
(च) और [उनकी भी]
(यान्) जिनको (जनयाः) तू उत्पन्न करे ॥३॥
भावार्थः माता पिता ब्रह्मचर्य
और इष्ट भोजन, छादन,
व्यायाम आदि से प्रयत्न
करें कि उनके सब पुत्र पुत्री सदैव पराक्रमी उत्पन्न होवे और माता पिता तथा संसार की
सेवा करके ‘पुमान्’
रक्षक बने रहें ॥३॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: [हे नारी!] (पुमांसम्)
पुमान् (पुत्र) पुत्र को (जनय) तू जन्म दे,
(तम् अनु) उसके अनन्तर
(पुमान्) पुमान् पुत्र (जायताम्) पैदा हो। (भवासि) तू हो (जातानां पुत्राणाम्) उत्पन्न
हुए पुत्रों की, (च) और (यान्) जिन्हें तू (जनयाः) पैदा करेगी, उनकी (माता) माता।
०३।०२३।०४
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (च) और (यानि) जैसे
(भद्राणि) मङ्गलदायक (बीजानि) बालकों को (ऋषभाः) सूक्ष्मदर्शी ऋषि लोग, अथवा, ऋषभ ओषधि के रस (जनयन्ति) उत्पन्न करते हैं, (तैः) वैसे ही [सन्तानों] के साथ (त्वम्) तू (पुत्रम्) कुलशोधक वा बहुरक्षक बालक
को (विन्दस्व) प्राप्त कर, (सा=सा त्वम्) सो तू (प्रसूः) जननेवाली (धेनुका)
दूध पिलानेवाली माता [अथवा दुधैल गौ के समान] (भव) हो ॥४॥
भावार्थः मनुष्य बड़े लोगों
से ब्रह्मचर्य विद्या और ओषधि विद्या प्राप्त करके बली धर्मात्मा सन्तान उत्पन्न करें।
और बलवती माता अपने बच्चों को अपना दूध पिलाकर बलवान् करे, जैसे गौ दूध पिलाकर बच्चे को पुष्ट बनाती है ॥४॥ शब्दकल्पद्रुमकोष में ऋषभ औषध
को मधुर, शीतल,
रक्तपित्तविकारनाशी
वीर्य श्लेष्मकारी, और दाहज्वरहारी लिखा है ॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (यानि) जिन (भद्राणि
बीजानि) भद्र बीजों को (ऋषभाः) ऋषभगण की ओषधियाँ (जनयन्ति) पैदा करती हैं, (तै:) उन बीजों [के सेवन] द्वारा (त्वम्) तू (पुत्रम् विन्दस्व) पुत्र प्राप्त कर, (सा) वह तू [हे नारी!] (प्रसूः) प्रसव करनेवाली होकर, (धेनुका) अल्पकाया, दूध देनेवाली गौ (भव) बन।
टिप्पणी: [बीजानि पद द्वारा प्रतीत होता है कि
"ऋषभा:" ओषधियाँ हैं,
जिनके भद्रबीजों
के सेवन से नारी पुत्र प्रसव कर नवजात शिशुओं को दुग्ध पिला सकती है। बीज भद्र होने
चाहिएँ, दूषितावस्था के नहीं। ऋषभा: को मंत्र ६ में
वीरुध कहा है, और ओषधय: भी, तथा "मूलम्"
द्वारा इनकी जड़ों
को भी सूचित किया है।]
०३।०२३।०५
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (ते) तेरे लिये (प्राजापत्यम्)
सन्तानरक्षक कर्म [गर्भाधान, पुंसवनादि संस्कार]
(कृणोमि) मैं करता हूँ, (ते) तेरा (गर्भः) गर्भ (योनिम्) गर्भाशय में
(आ एतु) आवे। (नारि) हे नर की हितकारिणी ! (त्वम्) तू (पुत्रम्) कुलशोधक सन्तान (विन्दस्व)
प्राप्त कर (यः) जो (तुभ्यम्) तुझको (शम्) सुखदायक (असत्) होवे, (उ) और (त्वम्) तू (तस्मै) उसको (शम्) सुखदायक (भव) हो ॥५॥
भावार्थः सब मनुष्य वैद्यक
शास्त्र के अनुसार उचित काल में उचित रीति से अमोघ गर्भाधानादि संस्कार करके सन्तान
उत्पन्न करें, जिससे उस सन्तान का जन्म, आप उसको और माता पिता सबको सुखदायक हों ॥५॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (ते) तेरे लिए (प्राजापत्यम्)
प्रजोत्पादक यज्ञ (कृणोमि) मैं पति करता हूँ,
[अभिप्राय है गर्भाधान
संस्कार], (गर्भः) गर्भ (ते योनिम्) तेरी योनि को (आ
एतु) प्राप्त हो (नारि) हे नारि! (त्वम्) तू (पुत्रम् विन्दस्व) पुत्र को प्राप्त कर, (यः) जो पुत्र कि (तुभ्यम्) तेरे लिए (शम् असत्) सुखदायी हो, (शम् उ) और सुख देनेवाली ही (तस्मै) उस पुत्र के लिए (त्वम्) तू (भव) हो।
टिप्पणी: ["आ योनिं गर्भ एतु ते"
द्वारा स्पष्ट है
कि मन्त्र में गर्भाधान का वर्णन है। इस निमित्त किये जानेवाले यज्ञ को "प्राजापत्य"
कहा है। प्रजापति
है परमेश्वर। वह समग्र प्राणियों का पति है,
रक्षक है। पति भी
सन्तानोत्पत्ति कर, सन्तानों का पति अर्थात् रक्षक बनना चाहता
है। अतः गर्भाधानसम्बन्धी यज्ञ अर्थात् संस्कार करता है। ताकि गर्भाधान के समय पति-पत्नी
की भावनाएँ यज्ञमयी हों।]
०३।०२३।०६
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (यासाम् वीरुधाम्)
जिन उगनेवाली अन्नादि ओषधियों का (द्यौः) सूर्य (पिता) पालनेवाला, (पृथिवी) पृथिवी (माता) उत्पन्न करनेवाली,
और (समुद्रः) समुद्र
[जल] (मूलम्) जड़ (बभूव) हुआ है, (ताः) वे (देवीः)
दिव्य गुणवाली (ओषधयः) औषधें (पुत्रविद्याय) सन्तान पाने के लिये (त्वा) तेरी (प्र)
अच्छे प्रकार (अवन्तु) रक्षा करें ॥६॥
भावार्थः अन्न आदि अनेक औषधियाँ
सूर्य द्वारा वृष्टि और प्रकाश पाकर पृथिवी और जल के संयोग से उत्पन्न होती हैं, उनमें से उत्तम-२ बलवर्धक औषधों के उचित खान पान से माता पिता उत्तम सन्तान उत्पन्न
करें ॥६॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (यासाम् वीरुधाम्)
जिन विरोहणशील औषधियों का (पिता) पिता (द्यौः) द्युलोक है, (माता पृथिवी) और माता पृथिवी है,
(समुद्र:) समुद्र
(मूलम्) मूल कारण (बभूव) है; (ता: दैवीः ओषधयः)
वे दिव्य औषधियां, (पुत्रविद्याय) पुत्र प्राप्ति के लिए, (त्वा प्रावन्तु) तुझे सुरक्षित करें।
टिप्पणी: [द्यौः पिता है, वर्षारूपी वीर्यप्रदाता। पृथिवी माता है, ओषधियाँ पृथिवी से प्राप्त होती हैं। समुद्र है
"मूलम्" अर्थात् मूलकारण,
ये सामुद्रिक औषधियां
हैं, जो आसन्न समुद्र-तट१ पर पैदा होती हैं।]
[१. यथा "गङ्गायां घोषाः"=गङ्गातटे घोषाः,
उपचारात्।]
०३।०२४।०१
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (ओषधयः) ओषधियाँ,
चावल जौ आदि वस्तुएँ
(पयस्वतीः=०-त्यः) सारवाली होवें, और (मामकम्) मेरा (वचः) वचन (पयस्वत्) सारवाला होवे। (अथो) और भी (अहम्) मैं (पयस्वतीनाम्) सारवाली [ओषधियों] का (सहस्रशः) सहस्रों प्रकार से (आ) यथाविधि (भरे) धारण करूँ ॥१॥
भावार्थः मनुष्य विद्यापूर्वक
अन्न आदि पदार्थों को उत्तम बनावें और दृढ़ सत्य वचन बोलें। ऐसा करने से शारीरिक और
आत्मिक उन्नति होती है ॥१॥
मनु महाराज का वचन
है−
उद्भिजाः स्थावराः
सर्वे बीजकाण्डप्ररोहिणः। ओषध्यः फलपाकान्ता बहुपुष्पफलोपगाः ॥ मनु० १।४६ ॥ भूमि को
फाड़कर उपजनेवाले, और बीज वा शाखा से उगनेवाले सब वृक्ष हैं, फल पाक के साथ नष्ट होनेवाली और बहुत फूल फलवाली ओषधियाँ [चावल, जौ आदि] हैं ॥१॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (पयस्वतीः) सारवाली
हैं (ओषधयः) ओषधियाँ, (पयस्वत्) सारवाला है (मामकम् वचः) मेरा वचन।
(अथो) तथा (पयस्वतीनाम्) सारवाली (सहस्रशः) हजारों ओषधियों को (अहम्) मैं (आ भरे) प्राप्त
करूं।
०३।०२४।०२
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (अहम्) मैं (पयस्वन्तम्)
सारवाले परमेश्वर को (वेद) जानता हूँ। (बहु) बहुत सा (धान्यम्) धान्य (चकार) उसने उत्पन्न
किया है। (यः) जो (देवः) दानशील ईश्वर (संभूत्वा) यथावत् पोषक (नाम) नाम (अयज्वनः)
यज्ञ न करनेवाले के (गृहे) घर में (योयः=यस्-यः) गतिवाला है, (तम्) उस [परमात्मा] का (वयम्) हम (हवामहे) आवाहन करते हैं ॥२॥
भावार्थः प्रत्येक प्राणी
उस उत्तम पदार्थों के भण्डार परमात्मा को जानता है,
जो अनेक अन्न उपजाकर
[धर्मात्माओं का तो क्या कहना है] पापियों तक के घर भोजन पहुँचाता है। हम उसकी उपासना
नित्य किया करें ॥२॥ शेखसादी शीराजी ने अपनी पुस्तक पुष्पवाटिका [गुलिस्ता] में इस
मन्त्र का आशय इस प्रकार दिखलाया है−“ऐ करीमे कि अज खजानै
गैब। गब्रो तर्सा वजीफा खुरदारी ॥१॥ दोस्तां रा कुजा कुनी महरूम्। तो कि वा दुश्मनां
नजरदारी ॥२॥” हे ऐसे उदार कि तू गुप्त कोष के विरोधी और
नास्तिक को पेटियाँ खिलाता है। मित्रों को तू कब निराश करे, जब कि तू द्वेषियों पर आँख रखता है ॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (अहम्) मैं (वेद)
जानता हूँ (पयस्वन्तम्) जलवाले को,
जिसने कि (बहु धान्यम्)
बहुत धान्य (चकार) पैदा किया है। (संभृत्वा नाम य: देव:) संभरण-पोषण करने में जो प्रसिद्ध
व्यवहारकुशल दिव्य व्यक्ति है, (तं वयम् हवामहे)
उसका हम आह्वान करते हैं, (य: यः) और जो-जो [संभरण-पोषण करनेवाला व्यवहार
कुशल] (अयज्वन:) राष्ट्र-यज्ञ न करने वाले के (गृहे) पर में नियत है उस-उसका भी आह्वान
करते हैं।
टिप्पणी: [पयस्वान् है मेघ। मेघ है जलवाला। इस द्वारा वर्षा से धान्य बहुत पैदा होता है।
संभृत्वा=संपूर्वात् भृञ:१ क्वनिप् (अष्टा० ३।२।७५),
तुक् (अष्टा० ६।१।७१), (सायण), (य: य:) जो जो "संभृत्वा"। देवः= दिवु क्रीडा
विजिगीषाव्यवहार आदि (दिवादिः) अर्थात् व्यवहारकुशल
"राज्यकर" का अधिकारी (य: यः) जो-जो भी
"राज्यकर" के संग्रह करने में,
राष्ट्रयज्ञ के न
करनेवालों के घर घर में नियुक्त हैं,
उनका आह्वान है, उन द्वारा संगृहीत "राज्यकर"
की राशि के परिज्ञानार्थ। "अयज्यनः गृहे"
जात्येकवचन है, अभिप्राय है "अयज्वनां गृहेषु"। "राज्यकर"
स्वेच्छापूर्वक देना, यह प्रत्येक भूमिपति का कर्तव्य है,
तो भी उनकी सुविधा
के लिए संग्रह करनेवाले नियुक्त किये गये हैं।] [१. भृञ् धारणपोषणयोः, तथा भृञ् भरणे।]
०३।०२४।०३
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (इमाः) यह (याः) जो
(मानवीः=०-व्यः) मानुषी (पञ्च) पाँच भूत [पृथिवी आदि] से सम्बन्धवाली (कृष्टयः) प्रजायें
(पञ्च प्रदिशः) पाँच फैली हुई दिशाओं में हैं,
वे प्रजायें (शापम्)
अनिष्ट वा मलिनता हटाकर (इह) यहाँ पर (स्फातिम्) बढ़ती को (समावहान्) यथावत् लावें, और (नदीः इव नद्यः इव) जैसे नदियाँ (वृष्टे) बरसने पर [अनिष्ट वा मलिनता हटाकर]
(शतधारम्) सैकड़ों धाराओंवाले और (सहस्रधारम्) सहस्रों विधि से धारण करनेवाले, (अक्षितम्) अक्षय (उत्सम्) सींचने के साधन [झरना,
कूप आदि] को (उत्=उदावहन्ति)
निकालती हैं (एव=एवम्) ऐसे ही (अस्माक=अस्माकम्) हमारा (इदम्) यह (धान्यम्) धान्य
(सहस्रधारम्) सहस्रों प्रकार से धारण करनेवाला और (अक्षितम्) अक्षय [होवे] ॥३, ४॥
भावार्थः मनुष्य खेती व्यापार
आदि द्वारा पूर्वादि चार दिशाओं और ऊपर नीचे की दिशा [वायु मण्डल वा पाताल] से बहुत
धन प्राप्त करें और अनेक प्रयोगों से उसकी यथावत् वृद्धि करें, जैसे बरसा का जल नदियों में एकत्र होकर और झरनों, कूपों, नालियों से खेती आदि में पहुँचकर दरिद्रता
आदि मिटाकर संसार को लाभ पहुँचाता है ॥३,
४॥ मन्त्र ३ व ४
युग्मक छन्द हैं ॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (इमाः याः) ये जो
(पञ्च) विस्तृत (प्रदिशः) प्रकृष्ट दिशाएँ हैं,
और (पञ्च) विस्तृत
(मानवी) मानुष (कृष्टयः) कृषि करनेवाली प्रजाएँ हैं,
ये (इह) इस राज्य
में (स्फातिम्) समृद्धि को (समावहान्) हम परस्पर मिलकर प्राप्त करें, प्रवाहित करें, (इव) जैसेकि (नदी:) नदियाँ (वृष्टे) वर्षा
में (शापम्) शापरूप मल को प्रवाहित कर देती हैं।
टिप्पणी: [पञ्च=पचि विस्तारवचने (चुरादिः)। कृष्टयः मनुष्यानाम (निघं० २।३), संभवतः कृषि करनेवाले मनुष्य।]
०३।०२४।०४
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (इमाः) यह (याः) जो
(मानवीः=०-व्यः) मानुषी (पञ्च) पाँच भूत [पृथिवी आदि] से सम्बन्धवाली (कृष्टयः) प्रजायें
(पञ्च प्रदिशः) पाँच फैली हुई दिशाओं में हैं,
वे प्रजायें (शापम्)
अनिष्ट वा मलिनता हटाकर (इह) यहाँ पर (स्फातिम्) बढ़ती को (समावहान्) यथावत् लावें, और (नदीः इव नद्यः इव) जैसे नदियाँ (वृष्टे) बरसने पर [अनिष्ट वा मलिनता हटाकर]
(शतधारम्) सैकड़ों धाराओंवाले और (सहस्रधारम्) सहस्रों विधि से धारण करनेवाले, (अक्षितम्) अक्षय (उत्सम्) सींचने के साधन [झरना,
कूप आदि] को (उत्=उदावहन्ति)
निकालती हैं (एव=एवम्) ऐसे ही (अस्माक=अस्माकम्) हमारा (इदम्) यह (धान्यम्) धान्य
(सहस्रधारम्) सहस्रों प्रकार से धारण करनेवाला और (अक्षितम्) अक्षय [होवे] ॥३, ४॥
भावार्थः मनुष्य खेती व्यापार
आदि द्वारा पूर्वादि चार दिशाओं और ऊपर नीचे की दिशा [वायु मण्डल वा पाताल] से बहुत
धन प्राप्त करें और अनेक प्रयोगों से उसकी यथावत् वृद्धि करें, जैसे बरसा का जल नदियों में एकत्र होकर और झरनों, कूपों, नालियों से खेती आदि में पहुँचकर दरिद्रता
आदि मिटाकर संसार को लाभ पहुँचाता है ॥३,
४॥ मन्त्र ३ व ४
युग्मक छन्द हैं ॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (उत्सम्) जैसेकि चश्मा, (शतधारम् सहस्रधारम्) सौ धाराओं वाला तथा हजार धाराओंवाला (उत्) उद्धृत हुआ (अक्षितम्)
क्षीण नहीं होता, (एव) इसी प्रकार (अस्माक=अस्माकम्) हमारा
(इदम् धान्यम्) यह धान्य (अक्षितम्) क्षीण नहीं होता, (सहस्रधारम्) और हजारों का धारण-पोषण करता है। उत्=उद्भूतम् (सायण)।
टिप्पणी: [मन्त्र २ में बहुधान्यम्, तथा मन्त्र ३ में
स्फातिम् के कारण हमारा धान्य अक्षित है।]
०३।०२४।०५
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (शतहस्त) हे सैकड़ों
हाथोंवाले ! [मनुष्य !] [धान्य को-म० ४] (समाहर) बटोर कर ला, और (सहस्रहस्त) हे सहस्रों हाथोंवाले (सम्) अच्छे प्रकार से (किर) फैला। (च) और
(कृतस्य) किये हुए और (कार्यस्य) कर्तव्य कर्म की (स्फातिम्) बढ़ती को (इह) यहाँ पर
(समावह) मिलकर ला ॥५॥
भावार्थः मनुष्य सैकड़ों
तथा सहस्रों प्रकार से कर्मकुशल होकर,
और सहस्रों कर्मकुशलों
से मिलकर धन धान्य एकत्र करे और उत्तम कर्मों में व्यय करके आगा पीछा सोचकर सदैव उन्नति
करता रहे ॥५॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: [हे कृषि करने वाले
! मन्त्र ३] (शतहस्त) सौ हाथोंवाला होकर (समाहर) धान्य आदि का संग्रह कर, और (सहस्रहस्त) हजार हाथोंवाला होकर (संकिर) सम्यक् दान कर। (इह) इस राज्य में
(कृतस्य) किये दान की, (च) और (कार्यस्य) भावी काल में किये जाने
वाले योग्य दान की (स्फातिम्) वृद्धि को (सम् आवह) संप्राप्त कर।
टिप्पणी: [कृषक के लिए कहा है कि तू जितना धान्य प्राप्त करता है, उससे अधिक दान देने के लिए प्रयल कर। संकिर=सम् कृ विक्षेपे (तुदादि:)। विक्षेप
है फेंकना। इस द्वारा सम्पत्ति में मोह त्याग सूचित किया है।]
०३।०२४।०६
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (तिस्रः) तीन (मात्राः)
मात्रायें [भाग] (गन्धर्वाणाम्) विद्या वा पृथिवी धारण करनेवालों की, और (चतस्रः) चार (गृहपत्न्याः) गृहपत्नी [घर की पालन शक्ति] की [होवें], (तासाम्) उन सब [मात्राओं] में से (या) जो (स्फातिमत्तमा) अत्यन्त समृद्धिवाली है, (तया) उस [मात्रा] से (त्वा) तुझको (अभि) सब ओर से (मृशामसि=०-मः) हम छूते [संयुक्त
करते] हैं ॥६॥
भावार्थः सब कुटुम्बी लोग
जो धन धान्य कमावें, उसमें से उत्तम अधिकांश अनदेखे विपत्ति समय
के लिए प्रधान पुरुष को सौपें, और शेष के सात भाग
करके तीन भाग विद्यावृद्धि और राजप्रबन्ध आदि और चार भाग सामान्य निर्वाह खान पान वस्त्र
आदि में व्यय करें। यह वैदिक शिक्षा सब मनुष्यों के सुख का मूल है ॥६॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (गन्धर्वाणाम्) पृथिवी
के धारण करनेवाले पतियों का (मात्रा) हिस्सा है (तिस्रः) तीन और (गृहपत्याः) गृहपत्नी
की मात्राएँ हैं, हिस्से में चार (तासाम्) उन मात्राओं में
(या) जो (स्फातिमत्तमा) अतिसमृद्धियुक्त मात्रा है,
(तया) उस मात्रा के
साथ (त्वा) हे गृहपत्नी ! (अभिमृशामसि) हम तेरा स्पर्श करते हैं।
टिप्पणी: [अभिमृशामसि द्वारा राज्याधिकारी गृहपति को आश्वासन देते हैं। गृहपत्नी जब प्राप्त
सम्पत्ति की अधिकारिणी हो, तो वह गृहजीवन में स्वतन्त्रता अनुभव कर सकती
है। और पति-पत्नी परस्पर के सहयोगपूर्वक अधिक सुखी रह सकते हैं ।]
०३।०२४।०७
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (प्रजापते) हे प्रजापालक
गृहस्थ ! (उपोहः) योग [प्राप्ति] (च) और (समूहः) संग्रह [क्षेम वा रक्षा] दोनों (च)
निश्चय करके (ते) तेरे (क्षत्तारौ) क्षत्रिय [क्षति वा हानि से बचानेवाले] हैं। (तौ)
वे दोनों (इह) यहाँ पर (स्फातिम्) बढ़ती और (बहुम्) बहुत (अक्षितम्) अचूक (भूमानम्)
अधिकाई (आ वहताम्) लावें ॥७॥
भावार्थः गृहस्थ लोग पुरुषार्थ
करके विद्या, धन,
धान्य आदि जीवन सामग्री
की १-प्राप्ति, २-रक्षा और ३-वृद्धि वा ऋद्धि सिद्धि करके
आनन्द भोगें ॥७॥ यजुर्वेद में आया हैः−योगक्षे॒मो नः॑ कल्पताम् ॥ य० २२।२२ ॥ (नः) हमारा (योगक्षेमः) योग-अप्राप्त वस्तु का लाभ, और क्षेम-प्राप्त पदार्थ की रक्षा (कल्पताम्) समर्थ अर्थात् पर्याप्त होवे ॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (प्रजापते) उत्पन्न
सन्तानों के रक्षक! [हे सद्गृहस्थ] (उपोह:) धन की प्राप्ति (च) और (समूहः) उसका समूहीकरण
अर्थात् बढ़ाना, (ते) तेरे लिए, (क्षत्तारौ) क्षतिनद से तैरानेवाले हैं;
(तौ) वे दोनों (इह)
इस गृहस्थ में (स्फातिम्) समृद्धि को,
(अक्षितम्) तथा न
क्षीण होनेवाले (बहुम्) बहुत प्रकार की (भूमानम्) बहुतायत को (आ वहताम्) प्राप्त कराएँ,
टिप्पणी: [वह प्रापणे]। [उपोह:=उप+ वह प्राप्तौ (भ्वादिः)। समूहः=सम्+ वह प्राप्तौ। क्षत्तारौ=क्षत्
तृ संतरणे (भ्वादिः)।]
०३।०२५।०१
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: [हे अविद्या !] (उत्तुदः)
तेरा उखाड़नेवाला [विद्वान्] (त्वा) तुझको (उत् तुदतु) उखाड़ दे। (स्वे शयने) अपने
शयन स्थान [हृदय] में (मा धृथाः) मत ठहर। (कामस्य) सुकामना का (या) जो [तेरे लिये]
(भीमा) भयानक (इषुः) तीर है, (तया) उससे (त्वा)
तुझको (हृदि) हृदय में (विध्यामि) बेधता हूँ ॥१॥
भावार्थः सब स्त्री पुरुष
ब्रह्मचर्यादि तपोबल द्वारा अविद्या को हृदय से मिटावें, जैसे शूर वीर योद्धा शत्रु सेना को अस्त्र शस्त्रों से मार गिराता है ॥१॥ इस सूक्त
में स्त्री लिङ्ग शब्द अविद्या और विद्या के लिए आये हैं। पहले तीन मन्त्र अविद्यापरक, और पिछले तीन विद्यापरक हैं। अलङ्कार से अविद्या को दुःखदायिनी और विद्या को सुखदायिनी
मानकर संबोधन किया है ॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (उत्तुदः) अति व्यथाकारी
काम (उत् तुदतु) हे पत्नी! तुझे व्यथित करे,
(स्वे शयने) निज शय्या
पर (मा धृथाः) तू धारित न हो। (कामस्य) कामवासना की (या भीमा इषुः) जो भयानक इषु है
(तया) उस द्वारा (त्वा) तुझे (हदि) हृदय में (विध्यामि) मैं बींधता हूँ।
टिप्पणी: [रुष्ट हुई पत्नी के प्रति उसका पति कहता है कि तुझे काम के बाण द्वारा बींधता हूँ, इससे तू शय्या पर सुख से शयन न कर सकेगी।]
०३।०२५।०२
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (आधीपर्णाम्) अधिष्ठान
वा प्रतिष्ठा के पंखवाले, (कामशल्याम्) वीर्य [तपोबल] की अणिवाले (संकल्पकुल्मलाम्)
संकल्प के दंड छिद्रवाले (ताम्) उस [प्रसिद्ध,
बुद्धि रूपी] (इषुम्)
तीर को (सुसंनताम्) ठीक-२ लक्ष्य पर सीधा (कृत्वा) करके (कामः) सुन्दर मनोरथ (त्वा)
तुझ [अविद्या] को (हृदि) हृदय में (विध्यतु) बेधे ॥२॥
भावार्थः ब्रह्मचारी योगी
बुद्धि बल से अविद्या को हटाकर प्रतिष्ठावान् बलवान्, और सत्यसंकल्पी होता है ॥२॥ मुण्डकोपनिषद् का वचन है−प्रणवो धनुः शरो ह्यात्मा
ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते। अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्तन्मयो भवेत् ॥ मुण्ड० उ० २।२।४
॥ (प्रणवः) (धनुः) धनुष् (आत्मा हि) आत्मा ही
(शरः) तीर, और (ब्रह्म) ब्रह्म (तल्लक्ष्यम्) उसका लक्ष्य
(उच्यते) कहा जाता है, (अप्रमत्तेन) अप्रमत्त, अति सावधान मनुष्य (वेद्धव्यम्) बेधे,
और वह (शरवत्) तीर
के समान (तन्मयः) उसमें लय (भवेत्) हो जावे ॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (आधीपर्णाम्) मानसिक
चिन्तारूमी पंखोंवाली, (कामशल्याम्) अभिलाक्षारूपी लोहाग्रवाली, (संकल्पकुल्मलाम्) संकल्परूपी फूलती हुई कलीवाली,
(ताम्) उस कामेषु
को (सुसंनतां कृत्वा) उत्तम प्रकार से तेरी ओर नत करके, झुकाकर (काम:) काम (त्वा) तुझे (हृदि विध्यतु) हृदय में वीधें।
टिप्पणी: [पर्ण को पुंख भी कहते हैं अर्थात् खिलती हुई कली (उणा० ४।१८८; दयानन्द)। खिले फूल, मेघगर्जना,
वसन्त ऋतु आदि कामोत्तेजक
हैं-ऐसा कामविज्ञ कहते हैं।]
०३।०२५।०३
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (कामस्य) सुन्दर मनोरथ
का (सुसंनता) ठीक-२ लक्ष्य पर चलाया हुआ,
(प्राचीनपक्षा) प्राचीन
[वेदविज्ञान] का पंख रखनेवाला, (व्योषा) विविध प्रकार
से [अविद्या का] दाह करनेवाला [बुद्धिरूपी] (या) जो (इषुः) तीर [अविद्या] की (प्लीहानम्)
गति [वा तिल्ली नाम मर्मस्थान] को (शोषयति) सुखा देता है, (तया) उससे (त्वा) तुझ [अविद्या] को (हृदि) हृदय में (विध्यामि) बेधता हूँ ॥३॥
भावार्थः मनुष्य पूर्ण ब्रह्मचर्य
और दृढ़ प्रतिज्ञा से वेदविज्ञान द्वारा अविद्या मिटाकर आनन्द भोगे, जैसे शूर वैरी का मर्मस्थान छेद कर सुखी होता है ॥३॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (सु संनता) उत्तम
प्रकार से झुकी हुई, (प्राचीनपक्षा) प्रगति देनेवाले पंखवाली (व्योषाः)
विविध प्रकार से जलानेवाली (कामस्य इषुः) काम की इषु (या) जोकि (प्लीहानम्) तिल्ली
को (शोषयति) सूखा१ कर देती है, (तया) उस द्वारा
(त्वा) तुझे (हृदि विध्यामि) हृदय में मैं पति बींधता हूँ।
टिप्पणी: [व्योषाः=वि+उष दाहे (भ्वादिः)। सम्भवतः असफल कामवासना चिन्ता तिल्ली (Spleen) को सुखा देती हो।] [१. प्लीहा अर्थात् तिल्ली रक्त का निर्माण
करती है। चिन्ता रक्त को सुखा देती है। यह है प्लीहा का शोषण। Spleen=a blood forming organ (your guide to Health) पूना, इण्डिया।]
०३।०२५।०४
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: [हे विद्या] (व्योषया)
विशेष दाह करनेवाली (शुचा) पीड़ा से (विद्धा) बिंधी हुई, (शुष्कास्या) सूखे मुखवाली, (मृदुः) कोमल स्वभाववाली
(निमन्युः) निरभिमान, (केवली) सेवनीया, (प्रियवादिनी) प्रिय बोलनेवाली और (अनुव्रता) अनुकूल आचरणवाली [पतिव्रता स्त्री
के समान] तू (मा अभि) मेरी ओर (सर्प) चली आ ॥४॥
भावार्थः यहाँ से तीन मन्त्र
विद्यापरक हैं। मन्त्र का आशय यह है,
जो ब्रह्मचारी विद्या
के लिए पूरी लालसा से यत्नपूर्वक परिश्रम करता है,
विद्या शीघ्र ही
उसको मिलकर हितकारिणी होती है, जैसे सती गुणवती
स्त्री मन, वचन और कर्म से अपने पति की सेवा करती है
॥४॥ ऋग्वेद के परमब्रह्मज्ञान सूक्त वा विद्यासूक्त में भी विद्या की उपमा पतिव्रता
स्त्री से दी है। उ॒त त्वः॒ पश्य॒न्न द॑दर्श॒ वाच॑मु॒त त्वः॑ शृ॒ण्वन्न शृ॑णोत्येनाम्।
उतो त्व॑स्मै तन्वं१ विस॑स्रे जा॒येव॒ पत्य॑ उश॒ती सु॒वासाः॑ ॥ ऋ० १०।७१।४ ॥ (त्वः) एक पुरुष ने (पश्यन् उत) देखते हुए भी (वाचम्) वेद वाणी को (न ददर्श) नहीं
देखा है, (त्वः) एक पुरुष (शृण्वन् उत) सुनता हुआ भी
(एनाम्) इसको (न शृणोति) नहीं सुनता है। (उतो) किन्तु (त्वस्मै) एक पुरुष को [अपना]
(तन्वम्) स्वरूप [परमज्ञान] (विसस्रे) उसने दिखाया है, (इव) जैसे (उशती) अनुरागवती (सुवासाः) सुन्दर वस्त्रवाली (जाया) पत्नी [अपने] (पत्ये)
पति को ॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (व्योषया शुचा) विदाहयुक्त
शोक द्वारा (विद्धा) बींधी हुई, (शुष्कास्या) दाह
के कारण रुद्ध गलेवाली तू (मा अभि) मेरी ओर (सर्प) आ। और तू (मृदुः) मृदुभाषिणी, (निमन्युः) मन्युरहित, (प्रियवादिनी) प्रिय बोलनेवाली, (अनुव्रता) मेरे अनुकूल कर्मोवाली हुई,
(केवली) केवल मेरी
हो जा।
०३।०२५।०५
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: [हे विद्या !] (त्वा)
तुझको (आजन्या) पूरे उपाय से [अपनी] (मातुः) माता से (अथो) और (पितुः) पिता से (परि)
सब ओर (आ) यथानियम (अजामि) प्राप्त करता हूँ,
(यथा) जिससे (मम)
मेरे (क्रतौ) कर्म वा बुद्धि में (असः) तू रहे,
(मम चित्तम्) मेरे
चित्त में (उपायसि) तू पहुँचती है ॥५॥
भावार्थः सब स्त्री पुरुष
माता-पिता आदि से विद्या पाकर परीक्षा द्वारा साक्षात् करके हृदय में दृढ़ करें ॥५॥
इस मन्त्र का उत्तरार्ध कुछ भेद से अथर्व० १।३४।२ में आया है ॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (परि मातुः) माता
के पास से, (अथो) मा (परि पितुः) पिता के पास से, (त्वा) तुझे (अजन्या) निज प्रेरणा द्वारा (आ अजामि) पूर्णतया मैं प्रेरित करता हूँ, (यथा) जिस प्रकार कि (मम क्रतौ असः) मेरे कर्मों में सहयोगिनी तू हो जाए और (मम
चित्तम् उप) मेरे चित्त के समीप (अयसि) तू आ जाए।
टिप्पणी: [विवाहित पत्नियाँ रुष्ट होकर माता-पिता की शरण में चली जाती हैं, वे ही उनके स्वाभाविक आश्रय होते हैं।]
०३।०२५।०६
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (मित्रावरुणौ) हे
प्राण और अपान (अस्यै) इस [विद्या] के लिए [मेरे] (हृदः) हृदय के (चित्तानि) विचारों
को (वि अस्यतम्) फैलाओ। (अथ) और (एनाम्) इसको (अक्रतुम्) अहिंसिका [हितकारिणी] (कृत्वा)
करके (मम एव) मेरे ही (वशे) वश में (कृणुतम्) करो ॥६॥
भावार्थः सब ब्रह्मचारी और
ब्रह्मचारिणी प्राण और अपान अर्थात् इन्द्रियों को जीतकर अपने विचारों को बढ़ाकर महाहितकारिणी
विद्या को उपयोगी बनावें ॥६॥ इति पञ्चमोऽनुवाकः ॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (मित्रावरुणौ) हे
स्नेही तथा वरणीय परमेश्वर ! (अस्यै) इसके (हृदः) हृदय से (चितानि) संकल्पों या विचारों
को (व्यस्यतम्) फैंक दे, निकाल दे। (अथ) तदनन्तर (एनाम) इसे (अक्रतुम
कृत्वा) कर्म तथा प्रज्ञा से रहित कर,
(मम एव) मेरे ही
(वशे) वश में (कृणुतम्) कर दे।
टिप्पणी: [मित्रावरुणौ=एक ही परमेश्वर के गुण-कर्म के भेद से दो नाम हैं। मित्रपद द्वारा
परमेश्वर के स्नेह का कथन किया है और वरुणपद द्वारा परमेश्वर की वरणीयता का। निरुक्तकार
की दृष्टि में केवल तीन देव हैं, अग्नि, इन्द्र, [वायु] और आदित्य। प्रत्येक के गुण कर्म के
भेद से प्रत्येक के नाना दैवत नाम हैं। यथा-"तासां महाभाग्यादेकैकस्या
अपि बहूनि नामधेयानि भवन्ति अपि वा कर्म-पृथक्त्वाद यथा होताध्वर्युर्ब्रह्मोद्गातेत्यप्येकस्य
सतः" (निरुक्त ७।२।५)। "तथा तिस्र एव देवता इति नैरुक्ताः। अग्निः पृथिवीस्थानो, वायुर्वा इन्द्रो वा अन्तरिक्षस्थानः,
सूर्यो द्युस्थानः।" (निरुक्त ७।२।५)।]
०३।०२६।०१
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (ये) जो तुम (अस्याम्)
इस (प्राच्याम्) पूर्व वा सन्मुख (दिशि) दिशा में (हेतयः) वज्ररूप (नाम) नाम (देवाः)
विजय चाहनेवाले (स्थ) हो (तेषाम् वः) उन तुम्हारी (अग्निः) अग्नि [अग्नि विद्या] (इषवः)
तीर हैं, (ते) वे तुम (नः) हमें (मृडत) सुखी करो, (ते) वे तुम (नः) हमारे लिये (अधि) अधिकारपूर्वक (ब्रूत) बोलो, (तेभ्यः वः) उन तुम्हारे लिए (नमः) सत्कार वा अन्न होवे, (तेभ्यः वः) उन तुम्हारे लिए (स्वाहा) सुन्दर वाणी [प्रशंसा] होवे ॥१॥
भावार्थः सेनानी अपनी सेना
का व्यूह करके आग्नेय अस्त्रवाले शूरवीरों को पूर्व दिशा में वा अपने सन्मुख स्थान
में रक्खें, वे लोग शत्रुओं को जीतकर अपने राजा की दुहाई
वा जयघोषणा करें, और राजा सत्कारपूर्वक ऊँचे-२ अधिकार देकर
उनका उत्साह बढ़ावे ॥१॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (अस्याम् प्राच्यां
दिशि) [हमारे राष्ट्र की] इस पूर्व की दिशा में (ये) जो तुम (हेतयः) हननकर्ता (नाम)
नामवाले (देवाः) विजिगीषु सैनिक (स्थ) हो,
(तेषाम् वः) उन तुम्हारे
(इषवः) इषु (अग्नि:) आग्नेय हैं। (ते) वे तुम (नः मृडत) हमें सुखी करो, (ते) वे तुम (नः) हमें (अधिबूत) राष्ट्र रक्षा के सम्बन्ध में अधिक ज्ञान का कथन
करो, (तेभ्यः वः) उन तुम के लिए (नमः) नमस्कार हो, (तेभ्यः वः) उन तुम के लिए (स्वाहा) हमारी सम्पत्तियों की आहुति हो, प्रदान हो।
टिप्पणी: [देवा:=दिवु क्रीड़ा विजिगीषा आदि (दिवादि)।]
०३।०२६।०२
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (ये) जो तुम (अस्याम्)
इस (दक्षिणायाम्) दक्षिण वा दाहिनी (दिशि) दिशा में (अविष्यवः) रक्षा की इच्छावाले
(नाम) नाम (देवाः) विजय चाहनेवाले वीर (स्थ) हो,
(तेषाम् नः) उन तुम्हारा
(कामः) मनोरथ (इषवः) तीर हैं, (ते) वे तुम (नः)
हमें.... [म० १] ॥२॥
भावार्थः दक्षिण दिशा वा
दाहिनी ओर वाले रक्षक विजयी वीर दृढ़ मनोरथ से शत्रुओं को जीतकर... [म० १] ॥२॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (अस्याम् दक्षिणायाम्
दिशि) [हमारे राष्ट्र की] इस दक्षिण दिशा में (ये) जो तुम (अविष्यवः) "स्वेच्छापूर्वक रक्षा करनेवाले" (नाम) अर्थात् इस नामवाले (देवाः) विजिगीषु सैनिक हो, (तेषाम् वः) उन तुम की (काम:) कामना अर्थात् इच्छा ही (इषवः) इषु हैं। (ते) वे तुम
(नः मृडत) हमें सुखी करो, (ते) वे तुम (नः) हमें (अधिबूत) राष्ट्र रक्षा
के सम्बन्ध में अधिक ज्ञान का कथन करो,
(तेभ्यः वः) उन तुम
के लिए (नमः) नमस्कार हो, (तेभ्यः वः) उन तुम के लिए (स्वाहा) हमारी
सम्पत्तियों की आहुति हो, प्रदान हो।
टिप्पणी: [काम:=राष्ट्र रक्षा के लिए स्वेच्छापूर्वक कामना। अविष्यवः=अव (रक्षणे, भ्वादिः) +असुन्+क्यच् (इच्छा) +उः। स्वेच्छापूर्वक राष्ट्र रक्षा करना, न की भृती के कारण। स्वेच्छापूर्वक राष्ट्र रक्षा की कामना राष्ट्रीय शत्रुओं के
विनाश में सर्वोत्तम स्वरूप है।]
०३।०२६।०३
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (ये) जो तुम (अस्याम्)
इस (प्रतीच्याम्) पश्चिम वा पीछेवाली (दिशि) दिशा में (वैराजाः) विविध ऐश्वर्यवाले
क्षत्रिय (नाम) नाम (देवाः) विजय चाहनेवाले वीर (स्थ) हो, (तेषाम् वः) उन तुम्हारा (आपः) जल [जल विद्या] (इषवः) तीर हैं, (ते) वे तुम (नः) हमें.... [म० १] ॥३॥
भावार्थः पश्चिम वा पीछेवाली
दिशा के क्षत्रिय लोग वारुणास्त्र वा जलास्त्रों से शत्रुओं को जीतकर.... [म० १] ॥३॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (ये) जो (अस्याम्
प्रतीच्याम् दिशि) इस पश्चिम दिशा में (वैराजाः नाम) अन्नस्वामी, अर्थात् इस नामवाले, (देवाः) व्यवहारी अर्थात् व्यापारी (स्थ) तुम
हो (तेषां वः) उन तुम्हारे (इषवः) इषु (आप:) जल हैं। (ते) वे तुम (नः मृडत) हमें सुखी
करो, (ते) वे तुम (नः) हमें (अधिबूत) राष्ट्र रक्षा
के सम्बन्ध में अधिक ज्ञान का कथन करो,
(तेभ्यः वः) उन तुम
के लिए (नमः) नमस्कार हो, (तेभ्यः वः) उन तुम के लिए (स्वाहा) हमारी
सम्पत्तियों की आहुति हो, प्रदान हो।
टिप्पणी: [मन्त्रोक्त देव वैश्य हैं, जोकि अन्नस्वामी
हैं। विराट= अन्नम् (सायण)। इषु है आप: अर्थात् जल। जल के द्वारा अन्नोत्पत्ति होती
है। इसलिए सूक्त २७, मन्त्र ३ में प्रतीची दिशा का अधिपति वरुण
कहा है, "वरुण अपामधिपतिः" (अथर्व० ५।२४।४)। राष्ट्र-रक्षा के लिए अन्न पर्याप्त चाहिए, ताकि अन्न द्वारा परिपुष्ट सैनिक और प्रजाजन राष्ट्र-रक्षा कर सकें। स्वाहा=सूक्तियाँ, प्रशंसाएँ। वैश्यों से अन्न प्राप्त कर राष्ट्राधिकारी उनकी प्रशंसा करते हैं।
स्वाहा=सु आह (निरुक्त ८।३।२०; पदसंख्या १३)।]
०३।०२६।०४
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (ये) जो तुम (अस्याम्)
इस (उदीच्याम्) उत्तर वा बायीं ओर वाली (दिशि) दिशा में (प्रविध्यन्तः) वेधनेवाले
(नाम) नाम (देवाः) विजय चाहनेवाले वीर (स्थ) हो,
(तेषाम् वः) उन तुम्हारा
(वातः) पवन (इषवः) तीर हैं, (ते) वे तुम (नः) हमें.... [म० १] ॥४॥
भावार्थः उत्तर वा बायीं
ओर वाली दिशा में बरछी, भाले,
गोली आदि से छेदनेवाले
वायुविद्या में कुशल योद्धा, वायव्य अस्त्र शस्त्र, विमानों द्वारा वैरियों को जीतकर... [म० १] ॥४॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (ये) जो (अस्याम्
उदीच्यां दिशि) इस उत्तर की दिशा में (प्रविध्यन्तः) प्रकर्षेण बींधनेवाले, (नाम) अर्थात् इस नामवाले (देवाः) विजिगीषु सैनिक (स्थ) हो, (तेषां वः) उन तुम्हारे (इषवः) इषु (वात) वायु हैं, या वायव्यास्त्र हैं। (ते) वे तुम (नः मृडत) हमें सुखी करो, (ते) वे तुम (नः) हमें (अधिबूत) राष्ट्र रक्षा के सम्बन्ध में अधिक ज्ञान का कथन
करो, (तेभ्यः वः) उन तुम के लिए (नमः) नमस्कार हो, (तेभ्यः वः) उन तुम के लिए (स्वाहा) हमारी सम्पत्तियों की आहुति हो, प्रदान हो।
टिप्पणी: [वात:= निरुक्तकार ने" अप्वा"
का कथन किया है
(६।३।१२, पदसंख्या ४८) अप्वा=यह अस्त्र है शत्रु पर
फैंकने के लिए। यह प्रक्षेप्ता से अपगत हुआ,
वा=वायुरूप होकर, या गतिवाला होकर शत्रु की ओर जाता है। अप्वा१=अपूर्वा (गतौ, अदादिः)। निरुक्तकार ने इसे "व्याधिर्वा भयं वा" कहा है और निर्वचन दिया है
"यदनया विद्धोऽपवीयते" (६।३।१२)। यह वायुरूप हुआ शत्रु की ओर जाता है। देखो (अथर्व०
३।१।३,५,६, तथा ३।२।१,५,६)। अप्वा वस्तुत:
भयरूप है शत्रुओं के लिए।] [१. अप्वा और अपवीयते में शब्दसाम्य भी है और अर्थसाम्य
भी। अप्वा=अप्+वा (गतौ); अपवीयते=अप्+वा (गतौ; अदादिः) ।]
०३।०२६।०५
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (ये) जो तुम (अस्याम्)
इस (ध्रुवायाम्) स्थिर वा निश्चित (दिशि) दिशा में (निलिम्पाः) लेप करनेवाले वैद्य
(नाम) नाम (देवाः) विजय चाहनेवाले वीर (स्थ) हों,
(तेषाम् वः) उन तुम्हारी
(ओषधीः) अन्न, सोमलतादि ओषधियाँ (इषवः) तीर है, (ते) वे तुम (नः) हमें... [म० १] ॥५॥
भावार्थः लेप पट्टी आदि करनेवाले
सद्वैद्य दृढ़ निश्चित स्थान में औषधालय बनाकर सैनिकों को स्वस्थ रखकर शत्रुओं को जीतकर...
[म० १] ॥५॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (ये) जो (अस्याम्
ध्रुवायां दिशि) इस स्थिर भूमिरूपा दिशा में (निलिम्पा:) नितरां लिप्त, (नाम) अर्थात् इस नामवाले (देवाः) मोदप्रमोद में रत रहते (स्थ) हो (तेषाम् वः) उन
तुम्हारे (इषवः) इषु हैं (औषधि:) औषधियां। (ते) वे तुम (नः मृडत) हमें सुखी करो, (ते) वे तुम (नः) हमें (अधिबूत) राष्ट्र रक्षा के सम्बन्ध में अधिक ज्ञान का कथन
करो, (तेभ्यः वः) उन तुम के लिए (नमः) नमस्कार हो, (तेभ्यः वः) उन तुम के लिए (स्वाहा) हमारी सम्पत्तियों की आहुति हो, प्रदान हो।
टिप्पणी: [ध्रुवा दिशा है पृथिवी, अतः पार्थिव जीवनों में लिप्त मनुष्य। दिवु=मोद-प्रमोदरूप
जीवनोंवाले (दिवादिः)। ये औषधियां उत्पन्न कर राष्ट्र की सेवा करते हैं। अन्नरूपी ओषधियों
का वर्णन मन्त्र ३ में हुआ है। अत: औषधि: पद रोगनिवारक औषधियों के लिए है, युद्ध में आहत सैनिकों के लिए तथा सब प्रजा के लिए रोगोपचार में औषधियां चाहिएँ।
स्वाहा=प्रशंसावचन हो उनके लिए।]
०३।०२६।०६
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (ये) जो तुम (अस्याम्)
इस (ऊर्ध्वायाम्) ऊपरवाली (दिशि) दिशा में (अवस्वन्तः) रक्षा के अधिकारी (नाम) नाम
(देवाः) विजय चाहनेवाले वीर (स्थ) हो,
(तेषाम् वः) उन तुम्हारा
(बृहस्पतिः) बड़ों का स्वामी, मुख्य सेनापति (इषवः)
तीर हैं, (ते) वे तुम (नः) हमें (मृडत) सुखी करो, (ते) वे तुम (नः) हमारे लिए (अधि) अधिकारपूर्वक (ब्रूत) बोले, (तेभ्यः वः) उन तुम्हारे लिए (नमः) सत्कार वा अन्न होवे, (तेभ्यः वः) उन तुम्हारे लिए (स्वाहा) सुन्दर वाणी [प्रशंसा] होवे ॥६॥
भावार्थः बड़े साहसी रक्षाधिकारी, युद्ध विद्या में कुशल योधा लोग ऊँचे स्थान पर रहकर मुख्य सेनापति की सहायता से
वैरियों को जीतकर अपने राजा की दुहाई वा जय घोषणा करें, और राजा सत्कार पूर्वक ऊँचे-२ अधिकार देकर उनका उत्साह बढ़ावे ॥६॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (ये) जो (अस्याम्
ऊर्ध्वायाम् दिशि) इस ऊर्ध्व दिशा में (अवस्वन्तः) रक्षा करनेवाले, (नाम) अर्थात् इस नामवाले, (देवा: स्थ) विजिगीषु
सैनिक तुम हो, (तेषाम् वः) उन तुम्हारे (इषवः) इषु (बृहस्पति:)
बृहद्-ब्रह्माण्ड-का पति परमेश्वर है। (ते) वे तुम (नः मृडत) हमें सुखी करो, (ते) वे तुम (नः) हमें (अधिबूत) राष्ट्र रक्षा के सम्बन्ध में अधिक ज्ञान का कथन
करो, (तेभ्यः वः) उन तुम के लिए (नमः) नमस्कार हो, (तेभ्यः वः) उन तुम के लिए (स्वाहा) हमारी सम्पत्तियों की आहुति हो, प्रदान हो। (स्वाहा) उनकी रक्षा के लिए सर्वस्व समर्पण हो।
टिप्पणी: [ऊर्ध्वादिशा द्युलोक की ओर अपरिमित परिमाण में विस्तृत है, अत: उसका पति बृहस्पति कहा है,
जबकि "बृहतामपि-पति"
है। वह ही इषुरूप
होकर सबकी रक्षा कर रहा है। अवस्वन्तः= अवनं रक्षणं तद्वन्तः (सायण)]
०३।०२७।०१
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (प्राची=प्राच्याः)
पूर्व वा सन्मुखवाली (दिक्=दिशः) दिशा का (अग्निः) अग्नि [अग्नि विद्या में निपुण सेनापति]
(अधिपतिः) अधिष्ठाता हो, (असितः) कृष्ण सर्प [के समान सेना व्यूह]
(रक्षिता) रक्षक हो, (आदित्याः) सूर्य से संबन्धवाले (इषवः) बाण
हों। (तेभ्यः) उन (अधिपतिभ्यः) अधिष्ठाताओं और (रक्षितृभ्यः) रक्षकों के लिये (नमो
नमः) बहुत बहुत सत्कार वा अन्न और (एम्यः) इन (इषुभ्यः) बाणों [बाणवालों] के लिये
(नमोनमः) बहुत-२ सत्कार वा अन्न (अस्तु) होवे (यः) जो [वैरी] (अस्मान्) हमसे (द्वेष्टि)
वैर करता है, [अथवा] (यम्) जिस [वैरी से] (वयम्) हम (द्विष्मः)
वैर करते हैं, [हे शूरो] (तम्) उसको (वः) तुम्हारे (जम्भे)
जबड़े में (दध्मः) हम धरते हैं ॥१॥
भावार्थः (आदित्याः इषवः) बाण अर्थात् सब अस्त्र शस्त्र सूर्य वा बिजुली वा अग्नि के प्रयोग
से चलनेवाले हों। शत्रु दो प्रकार के होते हैं,
एक वे जो अपनी दुष्टता
से धर्मात्माओं को बुरा जानते हैं,
दूसरे वे जिनको धर्मात्मा
लोग उनकी दुष्टता के कारण बुरा समझते हैं। उक्त दिशा में (अग्नि) पदवाला सेनापति (असित)
नाम काले साँप के समान सेना व्यूह से ऐसे दुष्टों को जीतकर सैनिकों सहित यशस्वी होकर
धर्मात्माओं की रक्षा करे ॥१॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (प्राची दिक्) पूर्व
की दिशा है, (अग्नि: अधिपति) अग्नि अधिपति है। (असितः)
यह सीमाबद्ध नहीं, (रक्षिता) रक्षण करता है, (आदित्य) आदित्य की रश्मियाँ (इषवः) इषुरूप हैं। (तेभ्यः) उन के प्रति (नमः) हमारा
प्रह्णीभाव हो, (अधिपतिभ्यः नमः) उन अधिपतियों के प्रति प्रह्णीभाव
हो, (रक्षितृभ्यः नमः ) उन रक्षकों के प्रति प्रह्णीभाव
हो, (इषुभ्यः नमः) इषुरुप उनके प्रति प्रह्णीभाव
हो, (एभ्यः) इन सबके प्रति (नमः) प्रह्णीभाव (अस्तु)
हो। (यः) जो (अस्मान् द्वेष्टि) हमारे साथ द्वेष करता है, (यम् वयम् द्विष्मः) और जिसके साथ प्रतिक्रियारूप हम द्वेष करते हैं (तम्) उसे
(व: जम्भे) तुम्हारी दाढ़ में (दध्मः) हम स्थापित करते हैं।
टिप्पणी: [अभिप्राय है द्वेष्टा को आदित्य रश्मियों के प्रति सुपुर्द करते हैं। यन्त्र द्वारा
आदित्य रश्मियों को एकत्रित कर उन द्वारा उसे जला देते हैं। नमः=णम प्रह्वत्वे शब्दे
च। प्रह्णीभाव है उनके प्रति झुकना,
उन्हें सर्वोपरि
शक्ति मानकर उनका प्रयोग करना।]
०३।०२७।०२
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (दक्षिणा-०-णायाः)
दक्षिण वा दाहिनी ओर वाली (दिक्=दिशः) दिशा का (इन्द्रः) बड़े ऐश्वर्यवाला इन्द्र
[अधिकारी सेनापति] (अधिपतिः) अधिष्ठाता हो,
(तिरश्चिराजिः) तिरछी
धारीवाले साँप यद्वा पशु पक्षी आदि की पङ्क्ति [के समान सेना व्यूह] (रक्षिता) रक्षक
हो, (पितरः) रक्षा करने हारे (इषवः) बाण होवें।
(तेभ्यः) उन (अधिपतिभ्यः) अधिष्ठाताओं और.... [म० १] ॥२॥
भावार्थः उक्त दिशा में
[इन्द्र पदधारी सेनापति] (तिरश्चिराजिः) नाम सेना व्यूह करके शत्रुओं को जीतकर....
[म० १] ॥२॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (दक्षिणा दिक्) दक्षिण
दिशा है, (तिरश्चिराजी) टेढ़ी रेखा वाला (इन्द्रः) इन्द्र१
[विद्युत्] (रक्षिता) रक्षा करता है,
(पितरः) पालक वायुएँ
(इषवः) इषु है। (तेभ्यः) उन के प्रति (नमः) हमारा प्रह्णीभाव हो, (अधिपतिभ्यः नमः) उन अधिपतियों के प्रति प्रह्णीभाव हो, (रक्षितृभ्यः नमः ) उन रक्षकों के प्रति प्रह्णीभाव हो, (इषुभ्यः नमः) इषुरुप उनके प्रति प्रह्णीभाव हो,
(एभ्यः) इन सबके प्रति
(नमः) प्रह्णीभाव (अस्तु) हो। (यः) जो (अस्मान् द्वेष्टि) हमारे साथ द्वेष करता है, (यम् वयम् द्विष्मः) और जिसके साथ प्रतिक्रियारूप हम द्वेष करते हैं (तम्) उसे
(व: जम्भे) तुम्हारी दाढ़ में (दध्मः) हम स्थापित करते हैं।
टिप्पणी: [दक्षिण समुद्र से जब मानसून वायु चलती है,
तब यह मेघ भरी होती
है और इसमें इन्द्र अर्थात् विद्युत टेढ़ी रेखा में चलती हुई चलती है, जोकि मेघ को ताड़ित कर वर्षा करती है।२] [१. इन्द्र मध्यस्थानी देवता है। २. वर्षा
प्रथम पश्चिम दिशा से प्रारम्भ होती है। तत्पश्चात् प्रधानवर्षा दक्षिण समुद्र से मानसून
वायुओं में प्रकट होती है। इन्हें पितरः कहा है,
ये पितृवत् हमारी
रक्षा करती हैं। यह वैज्ञानिक तथ्य है कि प्रथम वर्षा का प्रारम्भ पश्चिम से, और तत्पश्चात् प्रधान वर्षा का दक्षिण समुद्र से आगमन होना।]
०३।०२७।०३
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (प्रतीची=०-च्याः)
पश्चिम वा पीछे की (दिक्=दिशः) दिशा का (वरुणः) शत्रुओं का रोकनेवाला, वरुण [पदवाला सेनापति] (अधिपतिः) अधिष्ठाता हो,
(पृदाकः) अजगर, बिच्छू, बाघ,
चीता वा हाथी [के
समान सेना व्यूह] (रक्षिता) रक्षक हो,
और (अन्नम्) अन्न
(इषवः) बाण होवें। (तेभ्यः अधिपतिभ्यः) उन अधिष्ठाताओं और.... [म० १] ॥३॥
भावार्थः उक्त दिशा में
(वरुण) नाम अधिकारी सेनापति (पृदाकः) नाम सेनाव्यूह बनाकर, और अन्न आदि सामग्री एकत्र रखकर शत्रुओं को जीतकर... [म० १] ॥३॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (प्रतीची दिक्) पश्चिम
की दिशा है, (वरुणः अधिपतिः) वरुण अधिपति है, (पृदाकुः) वह पालनप्रदान करता है,
(रक्षिता) तो रक्षा
करता है, (अन्नम् इषवः) अन्न उसके इषु हैं। (तेभ्यः)
उन के प्रति (नमः) हमारा प्रह्णीभाव हो,
(अधिपतिभ्यः नमः)
उन अधिपतियों के प्रति प्रह्णीभाव हो,
(रक्षितृभ्यः नमः
) उन रक्षकों के प्रति प्रह्णीभाव हो,
(इषुभ्यः नमः) इषुरुप
उनके प्रति प्रह्णीभाव हो, (एभ्यः) इन सबके प्रति (नमः) प्रह्णीभाव (अस्तु)
हो। (यः) जो (अस्मान् द्वेष्टि) हमारे साथ द्वेष करता है, (यम् वयम् द्विष्मः) और जिसके साथ प्रतिक्रियारूप हम द्वेष करते हैं (तम्) उसे
(व: जम्भे) तुम्हारी दाढ़ में (दध्मः) हम स्थापित करते हैं।
टिप्पणी: [वरुणः अपामधिपतिः (अधर्व० ५।२४।४)। अत: वरुण भी वर्षा द्वारा अन्नप्रदान करता है
अन्न इषु हैं। अन्न खाने से शरीर में शक्ति बढ़ती है। और शक्ति के बढ़ने से रोगकीटाणु
शरीर पर प्रहार नहीं कर पाते, अतः अन्न इषु हैं।
पृदाकु=पृदाकु सर्प भी सम्भव है। वर्षाऋतु में मेघ अन्तरिक्ष में नाना आकृतियाँ धारण
करते हैं, उनमें पृदाकु की भी आकृति सम्भावित है। कवि
ने एक-मेघाकृति को गज अर्थात् हाथी रूप भी कहा है। यथा मेघ के सम्बन्ध में कहा है, "वप्रक्रीड़ापरिणतगजप्रेक्षादियं ददर्श"। पृदाकु:=प् (पालनम्)+ दा (दानम्) कुः (करोतीति)। मन्त्र में
पूदाकु मेघ की एक आकृतिविशेष है, यह वर्षा द्वारा
अन्न प्रदान करती है।]
०३।०२७।०४
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (उदीची=०-च्याः) उत्तर
वा बाईं ओर वाली (दिक्=दिशः) दिशा का (सोमः) प्रेरक वा उत्तेजक [सोम पद वाला सेनापति]
(अधिपतिः) अधिष्ठाता हो, (स्वजः) आप उत्पन्न होनेवाला वा बहुत दौड़नेवाले
साँप [के समान सेना व्यूह] (रक्षिता) रक्षक होवे,
और (अशनिः) बिजुली
(इषवः) बाण होवें। (तेभ्यः अधिपतिभ्यः) उन अधिष्ठाताओं और... [म० १] ॥४॥
भावार्थः इस दिशा में (सोम)
नाम अधिकारी सेनापति (स्वज) नाम सेना व्यूह रचकर बिजुली के अस्त्र शस्त्रों से शत्रुओं
को जीतकर.... [म० १] ॥४॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (उदीची दिक्) उत्तर
की दिशा है, (सोमः अधिपति) सौम्य स्वभाव वाला अधिपति है, (स्वजः) स्वयम् अर्थात् स्वभावत: उत्पन्न हुआ है,
(रक्षिता) रक्षा करता
है, (अशनिः इषवः) व्याप्त प्रकाश इषुरूप हैं।
(तेभ्यः) उन के प्रति (नमः) हमारा प्रह्णीभाव हो,
(अधिपतिभ्यः नमः)
उन अधिपतियों के प्रति प्रह्णीभाव हो,
(रक्षितृभ्यः नमः
) उन रक्षकों के प्रति प्रह्णीभाव हो,
(इषुभ्यः नमः) इषुरुप
उनके प्रति प्रह्णीभाव हो, (एभ्यः) इन सबके प्रति (नमः) प्रह्णीभाव (अस्तु)
हो। (यः) जो (अस्मान् द्वेष्टि) हमारे साथ द्वेष करता है, (यम् वयम् द्विष्मः) और जिसके साथ प्रतिक्रियारूप हम द्वेष करते हैं (तम्) उसे
(व: जम्भे) तुम्हारी दाढ़ में (दध्मः) हम स्थापित करते हैं। अशनि=आशूङ व्याप्तौ (भ्वादिः)।
अशनि उत्तरध्रुव में व्याप्त होकर वहाँ के अन्धकार के विनाश के लिए इषुरूप है।
टिप्पणी: [सोमः=सौम्यस्वभाववाला है उत्तरदिशास्थ Aurora
(औरोरा) यथा "A luminous meteoric Phenomenon of electrical
charactor seen in and towards the Polar regions with a tremulous motion and
giving forth streams of light. Aurora Borealis, north lights." (चेम्बरज, २०वीं शतक, कोश)।"औरोरा" यह प्रकाशमान घटना है,
जोकि वैद्युत है, और उत्तरदिशा सम्बन्धी है, जोकि उत्तर व में
दृष्टिगोचर होती है, चन्चलगतिवाली है, और प्रकाशमयी धाराओंरूपी है, इसे उत्तरीय प्रकाश
कहते हैं। ये धाराएँ प्रकाशमयी है,
और शीतल हैं। अतः
सौम्यस्वभाव वाली हैं।।]
०३।०२७।०५
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (ध्रुवा=ध्रुवायाः)
स्थिर (दिक्=दिशः) दिशा का (विष्णुः) कामों में व्यापक [सद्वैद्य] (अधिपतिः) अधिष्ठाता
होवे, (कल्माषग्रीवः) चितकबरे वा काले गलेवाले साँप
[के समान सेना व्यूह] (रक्षिता) रक्षक होवे,
और (वीरुधः) जड़ी
बूटी औषधें (इषवः) बाण होवें। (तेभ्यः अधिपतिभ्यः) उन अधिष्ठाताओं और.... [म० १] ॥५॥
भावार्थः सद्वैद्य दृढ़ वा
निश्चित स्थान में औषधालय से सैनिकों को स्वस्थ रक्खे और उसके साथ सेना ‘कल्माषग्रीवा’ नाम व्यूह बनाकर रहे, और सब मिलकर शत्रुओं को जीतकर... [म० १] ॥५॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (ध्रुवा दिक्) ध्रुवा
अर्थात् स्थिरा, पूथिवीरूपा, दिशा है, (विष्णु:) रश्मियों से व्याप्त आदित्य (अधिपतिः)
अधिपति है। (कल्माषग्रीवः) यह कृष्णवर्णवाली लताओं को मालारूप में ग्रीवा में धारण
किये हुआ है, (रक्षिता) हमारा रक्षक है, (वीरुधः) विविधरूप में आरोहण करनेवाली लताएँ और वृक्ष आदि इसके (इषवः) इषु हैं।
(तेभ्यः) उन के प्रति (नमः) हमारा प्रह्णीभाव हो,
(अधिपतिभ्यः नमः)
उन अधिपतियों के प्रति प्रह्णीभाव हो,
(रक्षितृभ्यः नमः
) उन रक्षकों के प्रति प्रह्णीभाव हो,
(इषुभ्यः नमः) इषुरुप
उनके प्रति प्रह्णीभाव हो, (एभ्यः) इन सबके प्रति (नमः) प्रह्णीभाव (अस्तु)
हो। (यः) जो (अस्मान् द्वेष्टि) हमारे साथ द्वेष करता है, (यम् वयम् द्विष्मः) और जिसके साथ प्रतिक्रियारूप हम द्वेष करते हैं (तम्) उसे
(व: जम्भे) तुम्हारी दाढ़ में (दध्मः) हम स्थापित करते हैं।
टिप्पणी: [विष्णुः=व्यश्नोतेर्वा (निरुक्त १२।२।१८),
विष्णु अर्थात् आदित्य
रश्मियों द्वारा व्याप्त होता है। रश्मियों द्वारा व्याप्त आदित्य को "अवि" भी कहा है (अथर्व० १०।८।३१), अवि है रक्षक, इसके सम्बन्ध में कहा है कि "यस्या रूपेणेमे वृक्षा हरितम्रजः" विष्णु अर्थात् आदित्य के ताप और प्रकाश द्वारा वीरुधें प्राप्त
होती हैं, ये इषुरूप हैं, रोगों की विनाशिका हैं। अवशिष्ट मन्त्र के अर्थों तथा भावार्थों के लिए देखो मन्त्र
(१)।]
०३।०२७।०६
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (ऊर्ध्वा=ऊर्ध्वायाः)
ऊपरवाली (दिक्=दिशः) दिशा का (बृहस्पतिः) बड़े-२ शूरों का स्वामी, बृहस्पति [पद वाला सेनापति] (अधिपतिः) अधिष्ठाता हो, (श्वित्रः) श्वेत वर्णवाले साँप [के समान सेना व्यूह] (रक्षिता) रक्षक होवे, (वर्षम्) वर्षा [वृष्टि विद्या] (इषवः) बाण होवें। (तेभ्यः अधिपतिभ्यः रक्षितृभ्यः)
उन अधिष्ठाताओं और रक्षकों के लिये (नमोनमः) बहुत-२ सत्कार वा अन्न, और (एभ्यः इषुभ्यः) उन बाणों [बाण वालों] को (नमो नमः) बहुत-२ सत्कार वा अन्न
(अस्तु) होवे। (यः) जो [वैरी] (अस्मान् द्वेष्टि) हमसे वैर करता है, [अथवा] (यम्) जिससे (वयम् द्विष्मः) हम वैर करते हैं, [हे शूरो !] (तम्) उसको (वः जम्भे) तुम्हारे जबड़े में (दध्मः) हम धरते हैं ॥६॥
भावार्थः (बृहस्पति) मुख्य सेनापति पर्वत आदि उच्च स्थान में (श्वित्र) नाम सेनाव्यूह रचकर
ठहरे और वारुणेय अर्थात् जल संबन्धी अस्त्र शस्त्रों से, अथवा अस्त्र शस्त्रों की वर्षा करके वैरियों को मिटाकर संसार में सैनिकों समेत
कीर्ति पावे ॥६॥ यही मन्त्र [अथर्व० का० ३ सू० २७ म० १-६] महर्षि दयानन्द सरस्वती कृत
पुस्तक “पञ्चमहायज्ञविधिः” में “मनसा परिक्रमा मन्त्राः” के नाम से ईश्वरपरक अर्थ में आये हैं,
वह अर्थ इस प्रकार
होता है−पदार्थ−(प्राची=प्राच्याः) पूर्व वा सन्मुखवाली (दिक्=दिशः) दिशा का (अग्निः)
ज्ञानस्वरूप परमेश्वर (अधिपतिः) अधिष्ठाता और (असितः) बन्धनरहित (रक्षिता) रक्षक है, [जिसके] (आदित्याः) प्राण और किरणें (इषवः) बाण [के समान] हैं (तेभ्यः) उन (अधिपतिभ्यः)
अधिष्ठाता, (रक्षितृभ्यः) रक्षा करनेवाले ईश्वरीय गुणों
को (नमोनमः) बारम्बार नमस्कार, और (एभ्यः) इन (इषुभ्यः)
बाणों [पापियों के लिये बाणरूप गुणों] को (नमोनमः) बारम्बार नमस्कार, और (एभ्यः) इन (इषुभ्यः) बाणों [पापियों के लिये बाणरूप गुणों] को (नमोनमः) बारम्बार
नमस्कार (अस्तु) होवे। (यः) जो [अज्ञानी] (अस्मान्) हमसे (द्वेष्टि) वैर करता है, [अथवा] (यम्) जिस [अज्ञानी] से (वयम्) हम (द्विष्मः) वैर करते हैं, [हे ईश्वर गुणो !] (तम्) उसको (वः) तुम्हारे (जम्भे) मुख वा वश में (दध्मः) हम धरते
हैं ॥१॥ भावार्थ−मनुष्य अपने सन्मुख और पूर्व दिशा में जगद्रक्षक परमात्मा को साक्षात्
जानकर पापों से बचें और सब प्राणी अज्ञान और वैर छोड़कर परस्पर मित्रवत् रहें। यही
भावार्थ अगले मन्त्रों में लगालें ॥१॥ पदार्थ−(दक्षिणा=दक्षिणस्याः) दक्षिण वा दाहिनी
(दिक्=दिशः) दिशा का (इन्द्रः) पूर्ण ऐश्वर्यवाला परमेश्वर (अधिपतिः) अधिष्ठाता और
(तिरश्चिराजिः=०-जेः) तिरछे चलनेवाले कीट,
पतङ्ग, बिच्छू आदि की पंक्ति से (रक्षिता) बचानेवाला है, और (पितरः) ज्ञानी लोग (इषवः) बाण [के समान] हैं। (तेभ्यः) उन.... [म० १] ॥२॥ पदार्थ−(प्रतीची=०-च्याः)
पश्चिम वा पीछेवाली (दिक्=दिशः) दिशा का (वरुणः) सब में उत्तम परमेश्वर (अधिपतिः) अधिष्ठाता, (पृदाकु=०-कुभ्यः) बड़े-२ अजगर सर्पादि विषधारी प्राणियों से (रक्षिता) बचानेवाला
है, (अन्नम्) जिसके अन्न [अर्थात् पृथिव्यादि पदार्थ]
(इषवः) बाण [बाणों के समान श्रेष्ठों की रक्षा और दुष्टों की ताड़ना के लिये] हैं।
(तेभ्यः) उन..... [म० १] ॥३॥ पदार्थ−(उदीची=०-च्याः) उत्तर वा बाईं (दिक्=दिशः) दिशा
का (सोमः) सब जगत् का उत्पन्न करनेवाला परमेश्वर (अधिपतिः) अधिष्ठाता और (स्वजः) अच्छे
प्रकार अजन्मा (रक्षिता) बचानेवाला है,
[जिसके] (अशनिः) बिजुली
(इषवः) बाण हैं। (तेभ्यः) उन.... [म० १] ॥४॥ पदार्थ−(ध्रुवा=ध्रुवायाः) नीचेवाली (दिक्=दिशः)
दिशा का (विष्णुः) व्यापक परमात्मा (अधिपतिः) अधिष्ठाता और (कल्माषग्रीवः) हरित रंगवाले
वृक्षादि की ग्रीवावाला (रक्षिता) बचानेवाला है,
[जिसके] (वीरुधः)
सब वृक्ष (इषवः) बाण [के समान] हैं। (तेभ्यः) उन... [म० १] ॥५॥ पदार्थ−(ऊर्ध्वा=ऊर्ध्वायाः)
ऊपरवाली (दिक्=दिशः) दिशा का (बृहस्पतिः) बड़ी वाणी अर्थात् वेदशास्त्र, और बड़े आकाशादि का स्वामी परमेश्वर (अधिपतिः) अधिष्ठाता और (श्वित्रः) ज्ञानमय
और वृद्धिमय (रक्षिता) बचानेवाला है,
जिसके (वर्षम्) बरसा
के बिन्दु (इषवः) बाण [के समान] हैं। (तेभ्यः) उन... [म० १] ॥६॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (ऊर्ध्वा दिक्) ऊपर
की दिशा है, (बृहस्पतिः) बृहत् अर्थात् महा विस्तारी द्युलोक,१ (अधिपतिः) अधिपति है, (श्वित्रः) यह श्वित्र है, (रक्षिता) रक्षक है (वर्षम् इषवः) वर्षा इसके इषु हैं।
टिप्पणी: [बृहस्पतिः= "बृहत् चासौ पति," अथवा "बृहताम् अधिपतिः," द्युलोके। श्वित्रः= श्वेतते वर्णविशिष्टो भवतीति। कुष्ठभेदो
वा (उणा० २।१३; दयानन्द)। द्युलोक चमकते ताराओं द्वारा श्वेतवर्णवाला
है, तथा श्वेतवर्णी ताराओं के मध्यवर्ती स्थानों
में आकाश की नीलिमा के कारण कुष्ठरोगरूपी भी है। द्युलोक की ओर से वर्षा आती है। यह
वर्षा इषुरूप है; गर्मी,
सोखा, अन्नादि के अभाव की विनाशिका है। अवशिष्ट मन्त्रार्थ तथा भावार्थ के लिए देखो मन्त्र
(१)।] [१. ऊर्ध्वादिक् में ही ग्रह,
उपग्रह, आदित्य, चन्द्रमा,
नक्षत्र, तारागण निवास करते तथा विचर रहे हैं,
अतः ऊर्ध्वादिक ही
वस्तु संसार या ब्रह्माण्ड है। शेष दिशाएँ तो लगभग शून्यसदृश हैं।]
०३।०२८।०१
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (एषा) यह [साधारणी
सृष्टि] (एकैकया) एक एक (सृष्ट्या) सृष्टि [सृष्टि के परमाणु] से (सम्=संभूय) मिलकर
(बभूव) हुई है, (यत्र) जिसमें (भूतकृतः) पृथ्वी आदि भूतों
से बनानेवाले (विश्वरूपाः) नाना रूपवाले [ईश्वर गुणों] ने (गाः) भूमि, सूर्य आदि लोकों को (असृजन्त) सृजा है। (यत्र) जहाँ पर (यमिनी) उत्तम नियमवाली
[बुद्धि] (अपर्तुः) ऋतु अर्थात् क्रम वा व्यवस्था से विरुद्ध (विजायते) हो जाती है
[वहाँ] (सा) वह [व्यवस्था विरुद्ध बुद्धि] (रिफती) पीड़ा देती हुई और (रुशती) सताती
हुई (पशून्) व्यक्त वाणीवाले और अव्यक्त वाणीवाले जीवों को (क्षिणाति) नष्ट कर देती
है ॥१॥
भावार्थः ईश्वर ने अपनी सर्वशक्तिमत्ता
से एक-एक परमाणु के संयोग से नियमानुसार यह इतनी बड़ी सृष्टि रची है। जो प्राणी ईश्वरीय
नियम तोड़ता है, वह दुःख उठाता है ॥१॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (एषा) यह सृष्टि
(एकैकया) एक-एक से (सृष्ट्या) सर्जन द्वारा अर्थात् क्रमशः (सम्बभूव) निर्मित हुई है, (यत्र) जिस सृष्टि में (भूतकृतः) भूतसृष्टि के सदश उत्पन्न करनेवालों ने (विश्वरूपाः)
विश्व का निरूपण करनेवाली (गाः) वेदवाणियों का (असृजन्त) सर्जन किया। (यत्र) जहाँ
(यमिती) यम नियमों का उपदेश करनेवाली वेदवाणी (अपर्तुः१) ऋतु अर्थात समय को अपगत करके
(विजायते) विधिविरुद्ध रूप में प्रकट की जाती है,
तो (सा) वह वेदवाणी
मानो (रिफती२, रुशती) हिंसित होती हुई तथा विनष्ट होती हुई
(पशून्) पञ्चविध पशुओं का (क्षिणाति) क्षय कर देती है।[वेदोक्त कर्मों से रहित पुरुष
भी पशुसदृश हैं।]
टिप्पणी: [गा:= गौ: वाङ्नाम (निघं० १।११)। गाः बहुवचन में है। वेदवाणियाँ चार हैं, ऋक्, यजुः साम,
अथर्व। भूतकृतः=भूतकाल
की सृष्टियों के सदृश वेदवाणियों को आविर्भूत करनेवाले अग्नि, वायु, आदित्य,
अङ्गिरा है चार ऋषि।
विश्वरूपाः=वेदवाणियाँ विश्व के घटकों का निरूपण करती हैं, यतः उनमें सब विद्याएँ मूलरूप में विद्यमान हैं। एकैकया= एक-एक करके, अर्थात् क्रमशः सृष्टि की उत्पत्ति हुई है,
युगपत् नहीं। पहिले
विराट् पैदा हुआ, उसके अतिविरेचन से तारा-नक्षत्र पैदा हुए, तदनन्तर आदित्य, आदित्य परिवार, पृथिवी, और प्राणिजगत् पैदा हुआ। पशून्=तवेमे पञ्च
पशवो विभक्ता गावो अश्वाः पुरुषा अजावयः (अथर्व० १०।२।९)।]
[१. अपर्तु:= ऋतु अर्थात् शिष्यों के आयु:-काल अर्थात्
योग्यताकाल का विचार न करके दी गई यमिनी अर्थात् आध्यात्मिक वेदवाणी स्वयं भी विनष्ट
होती है, निष्फला होती है, और ग्रहण करनेवालों और उनकी सम्पत्तियों को भी नष्ट कर देती है। यथा–विद्या ह वै ब्राह्मणमाजगाम गोपाय मा शेवधिष्टेऽहमस्मि। असूयकायानृजवेऽयताय न मा
ब्रूया वीर्यवती तथा स्याम्। (निरुक्त २।१।४)। इस उद्धरण में कहा है कि विद्या ब्राह्मण
की निधि है, इसका प्रदान ब्राह्मण अर्थात् वेदवेत्ता और
ब्रह्मवेत्ता उसे प्रदान न करे जो कि निन्दक है,
कुटिल है, और संयमी नहीं है। २. रिफ हिंसायाम् (तुदादि:) रूश हिंसायाम् (तुदादि:)। अपात्रों
और कुपात्रों को दी गई पमिनी वेदवाणी उनके लिए क्रव्याद हो जाती है (मन्त्र २)।]
०३।०२८।०२
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (एषा) यह [व्यवस्था
विरुद्ध बुद्धि] (क्रव्याद्) मांस खानेवाली और (व्यद्वरी) अनेक विधि से भक्षणशीला
(भूत्वा) होकर (पशून्) दो पाए और चौपाये जीवों को (संक्षिणाति) सर्वथा नष्ट करती है।
(उत) इस लिये (एनाम्) इस [अनिष्ट बुद्धि को] (ब्रह्मणे) ब्रह्म [ईश्वर, वेद, वा ब्राह्मण को] (दद्यात्) वह सौंपे, (तथा) तो वह (स्योना) सुखदायिनी और (शिवा) कल्याणी (स्यात्) हो जावे ॥२॥
भावार्थः कुबुद्धि पापी मनुष्य
परमात्मा वा वेद वा उत्तम विद्वान् की शरण लेकर उत्तम कर्म करने से सुधर जाता है ॥२॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (एषा) यह [यमनियमोंवाली
वेदवाणी] (क्रव्याद्) मांस खाने वाली,
तथा (व्यद्वरी) विविध
रूप में खानेवाली (भूत्वा) होकर (पशून्) पञ्चविध पशुओं [मन्त्र १] का (संक्षिणाति)
सम्यक् क्षय कर देती है। (उत) इसलिए (एनाम्) इस वेदवाणी को (ब्रह्मणे) वेदवाणी के अधिकारी
को (दद्यात्) दे, (तथा) इस प्रकार (स्योना) यमिनी वेदवाणी सुखकरी, (शिवा) तथा कल्याणकारी (स्यात्) हो जाए।
टिप्पणी: [वेद वाणी का तो सर्वत्र प्रचार होना चाहिए,
"यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि
जनेभ्यः" (यजुः० २६।२) तथापि यमनियमों का प्रतिपादक
वेदभाग ब्राह्मी प्रकृति के व्यक्ति को ही देना चाहिए। क्रव्याद= क्रव्य+ अद् भक्षणे।]
०३।०२८।०३
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (हे यमिनि) उत्तम
नियमवाली बुद्धि ! (पुरुषेभ्यः) पुरुषों के लिये (शिवा) कल्याणी और (गोभ्यः) गौओं को
और (अश्वेभ्यः) घोड़ों को (शिवा) कल्याणी (भव) हो,
(इह) यहाँ (अस्मै
सर्वस्मै क्षेत्राय) इस सब खेत को (शिवा) कल्याणी और (नः) हमको (शिवा) कल्याणी (एधि)
हो ॥३॥
भावार्थः मनुष्य ईश्वर ज्ञान
से उत्तम बुद्धि पाकर सब संसार को सुखदायी होता है ॥३॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: [हे आध्यात्मिक वेदवाणी!]
(पुरुपेभ्यः) हम गृहस्थ-पुरुषों के लिए (शिवा भव) कल्याणकारी हो, (गोभ्यः अश्वेभ्यः) हमारी गौओं और अश्वों के लिए (शिवा) कल्याणकारी हो। (अस्मै सर्वस्मै
क्षेत्राय) इस सब कृषिक्षेत्र के लिए (शिवा) कल्याणकारी हो। (इह) इस गृहस्थजीवन में
(न:) हम सब के लिए (शिवा) कल्याणकारी (एधि) हो।
टिप्पणी: [आध्यात्मिक वेदवाणी का प्रसार उन गृहस्थों में भी होना चाहिए, जिनका जीवन आध्यात्मिक हो, ताकि उस आध्यात्मिकता
में वे गृहप्रबंध किया करें।]
०३।०२८।०४
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (इह) यहाँ पर (पुष्टिः)
पुष्टि, और (इह) यहाँ पर ही (रसः) रस होवे। (यमिनि)
हे उत्तम नियमवाली बुद्धि ! (इह) यहाँ पर (सहस्रसातमा) अत्यन्त करके सहस्रों प्रकार
से धन देनेवाली (भव) हो, और (पशून्) व्यक्त और अव्यक्त वाणीवाले जीवों
को (पोषय) पुष्ट कर ॥४॥
भावार्थः उत्तम नियम युक्त
बुद्धि से मनुष्य अनेक प्रकार की वृद्धि और दूध,
घी, आदि रस और बहुत सा धन पाकर सब जीवों की रक्षा करता है ॥४॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (इह) इस गृहस्थ में
(पुष्टिः) पोषण हो, (इह) इसमें (रसः) दुग्धघृत आदि रस हो, (इह) इसमें (सहस्रसातमा) हजारों सुखों को अतिशयदान करनेवाली (भव) तू हो। (यमिनि)
हे यमनियमोंवाली वेदवाणी! (पशून्) पञ्चविध पशुओं को (पोषय) परिपुष्ट कर।
टिप्पणी: [सहस्रसातमा= सहस्र+षण्ड (दाने,
तनादि)+तमप्। मन्त्र
में गृहस्थजीवन को आध्यात्मिक बनाने का निर्देश हुआ है।]
०३।०२८।०५
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (यत्र) जहाँ पर (सुहार्दः)
सुन्दर हृदयवाले (सुकृतः) सुकर्मी लोग (स्वायाः तन्वः) अपने शरीर का (रोगम्) रोग (विहाय)
त्यागकर (मदन्ति) आनन्द भोगते हैं। (तम्) उस (लोकम्) लोक [जनसमूह] को (यमिनी) उत्तम
नियमवाली [सुमति] (अभिसंबभूव) साक्षात् आकर मिली है। (सा) वह [सुमति] (नः) हमारे (पुरुषान्)
पुरुषों (च) और (पशून्) ढोरों को (मा हिंसीत्) न पीड़ा दे ॥५॥
भावार्थः जिस घर में परस्पर
हितैषी पुण्यात्मा स्त्री पुरुष नीरोग रहकर विद्या और धन को भोगते हैं, वह उनकी नियमवती सुमति देवी का साक्षात् फल है। वहाँ पर सब मनुष्य और गौ, घोड़े आदि बहुत काल तक जीकर आपस में उपकारी होते हैं ॥५॥ इस मन्त्र का पूर्वार्ध
अ० का० ६ सू० १२० म० ३ में इस प्रकार है−यत्रा॑ सु॒हार्दः॑ सु॒कृतो॒ मद॑न्ति वि॒हाय॒
रोगं॑ त॒न्वः स्वायाः॑। अश्लो॑णा॒ अङ्गै॒रह्रु॒ताः स्व॒र्गे तत्र॑ पश्येम पि॒तरौ॑
च पु॒त्रान् ॥ जहाँ पर सुन्दर हृदयवाले सुकर्मी लोग अपने शरीर का रोग त्यागकर आनन्द
भोगते हैं, (तत्र) वहाँ पर (स्वर्गे) स्वर्ग में (अश्लोणाः)
बिना लंगड़े हुए और (अङ्गैः अह्रुताः) अङ्गों से विना टेढ़े हुए हम (पितरौ) माता पिता
(च) और (पुत्रान्) सन्तानों को (पश्येम) देखते रहें ॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (यत्र) जिस गृहस्थ
में (सुहार्द:) उत्तम हार्दिक भावनाओंवाले,
(सुकृतः) तथा उत्तम
कर्मोंवाले, (स्वायाः) निज (तन्वः) तनू के (रोगम् विहाय)
रोग को त्याग कर, (मदन्ति) मोद-प्रमोद करते हैं, (तम् लोकम्) उस गृहस्थ लोक में,
(यमिनि) हे यमनियमोंवालो
वेदवाणी! (अभि) साक्षात् (सम्बभूव) तू सम्यक् प्रकार से सत्तावाली हुई है। (सा) वह
वेदवाणी (नः) हमारे (पुरुषान्) पुरुषों की (च) और (पशून्) पशुओं की (मा हिंसीत) हिंसा
न करे।
टिप्पणी: [जिस गृहस्थ में आध्यात्मिक वेदवाणी की सम्यक् सत्ता होती है, उस गृहस्थ में, असामयिक मृत्यु नहीं होती, क्योंकि गृहस्थी वेदवाणी में कथित जीवन-चर्या करते हैं। "लोकम्" का अभिप्राय पदलोक
नहीं, अपितु गृहस्थलोक है। यथा "पितृलोकात् पतिं यतीः"
(अथर्व० १४।२।५२; विवाह प्रकरण)। इस प्रकरण में कहा है कि
"उशती-कन्यला इमाः
पितृलोकात् पतिं बतीः"। इससे स्पष्ट है कि "लोक" पद पितृगृह का भी वाचक है।]
०३।०२८।०६
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (यत्र) जहाँ पर (सुहार्दाम्)
सुन्दर हृदयवाले (सुकृताम्) सुकर्मियों का और (यत्र) जहाँ पर (अग्निहोत्रहुताम्) अग्निहोत्र
करनेवालों का (लोकः) लोक [जन समूह] है,
(तम् लोकम्) उस लोक
को (यमिनी) उत्तम नियमवाली [सुमति] (अभिसम्बभूव) साक्षात् आकर मिली है। (सा) वह [सुमति]
(नः पुरुषान्) हमारे पुरुषों (च) और (पशून्) ढोरों को (मा हिंसीत्) न पीड़ा दे ॥६॥
भावार्थः जहाँ सब स्त्री
पुरुष एकमन रहकर पुण्यात्मा पुरुषार्थी होकर अग्निहोत्र करते अर्थात् वेदमन्त्रों से
अग्नि में मिष्ट सुगन्ध द्रव्य चढ़ाकर वायुशुद्धि करते और अग्निविद्या द्वारा अग्निनौका, अग्नियान, विमान आदि रचते, वहाँ (यमिनी) नियमवती सुमति के निवास से सब जने आनन्द भोगते हैं ॥६॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (यत्र) जिस गृहस्थ
में (सुहार्दाम्) उत्तम हार्दिक भावनाओंवालों का तथा (सुकृताम्) सुकर्मियों का (लोकः)
स्थान है, या दर्शन होता है, (यत्र) जिस गृहस्थ में (अग्निहोत्रहुताम्) अग्निहोत्र करनेवालों का (लोकः) स्थान
है, या दर्शन होता है, (तम् लोकम्) उस गृहस्थ लोक में,
(यमिनि) हे यमनियमोंवालो
वेदवाणी! (अभि) साक्षात् (सम्बभूव) तू सम्यक् प्रकार से सत्तावाली हुई है। (सा) वह
वेदवाणी (नः) हमारे (पुरुषान्) पुरुषों की (च) और (पशून्) पशुओं की (मा हिंसीत) हिंसा
न करे।
टिप्पणी: [लोकम्=लोकृ दर्शने (भ्वादिः)। मनु ने गृहस्थ के लिए पञ्चमहायज्ञों का विधान किया
है, उनमें अग्निहोत्र भी एक महायज्ञ है।]
०३।०२९।०१
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (यत्) जिस कारण से
(यमस्य) नियमकर्त्ता परमेश्वर के (अमी सभासदः) ये सभासद् (राजानः) ऐश्वर्यवाले राजा
लोग (इष्टापूर्तस्य) यज्ञ, वेदाध्ययन,
अन्न दानादि पुण्यकर्म
के [फल], (षोडशम्) सोलहवें पदार्थ मोक्ष को [चार वर्ण, चार आश्रम, सुनना,
विचारना, ध्यान करना, अप्राप्त की इच्छा, प्राप्त की रक्षा, रक्षित का बढ़ाना, बढ़े हुए का अच्छे मार्ग में व्यय करना,
इन पन्द्रह प्रकार
के अनुष्ठान से पाये हुए सोलहवें मोक्ष को] (विभजन्ते) विशेष करके भोगते हैं, (तस्मात्) उसी कारण से [आत्मा को] (दत्तः) दिया हुआ, (शितिपात्) उजियाले और अन्धेरे में गतिवाला,
(अविः) प्रभु (स्वधा)
हमारे आत्मा को पुष्ट करनेवाला वा धन का देनेवाला अमृतरूप वा अन्न रूप होकर [पुरुषार्थी
को] (प्र) अच्छे प्रकार से (मुञ्चति) मुक्त करता है ॥१॥
भावार्थः धर्मराज परमेश्वर
की आज्ञा माननेवाले पुरुषार्थी स्त्री पुरुष मोक्ष सुख भोगते रहते हैं, इसीसे सब लोग उस अन्तर्यामी को हृदय में रखकर पुरुषार्थ से (स्वधा) अमृत अर्थात्
आत्मबल और धनधान्य पाकर मोक्ष आनन्द भोगें ॥१॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (इष्टापूर्तस्य षोडशम्)
यज्ञों और सामाजिक उपकारों के (यत्) जिस १६वें भाग को भी (राजानः) राजा लोग (विभजन्ते)
राष्ट्र-कर रूप में विभक्त कर लेते हैं,
(अमी) तो ये राजा
लोग (यमस्य) नियन्ता मृत्यु के (सभासदः) सभासद् होते हैं। (तस्मात्) उस पाप से, (अविः दत्तः) राष्ट्र के प्रति समर्पित किया गया प्रत्येक [राजा] का आत्मा, जोकि शरीर-रक्षक है, वह (प्रमुञ्चति) दण्ड से प्रमुक्त कर देता
है, जबकि वह राजा (शितिपात्) शुभ्रगतिक अर्थात्
शुभ्राचारी हुआ (स्वधा१) अपने राष्ट्र का धारण-पोषण करनेवाला हो जाता है।
टिप्पणी: [यज्ञ और सामाजिक उपकार के काम राष्ट्र की रक्षा करते हैं। उन पर राष्ट्र कर लगाना
वैदिक प्रथा के विरुद्ध है। जो राजा इन रक्षा के कामों पर राष्ट्र कर लगाते हैं, वे पापकर्म करते हैं। परन्तु जो-जो राजा निज आत्मा को राष्ट्र रक्षा के निमित्त
सुपुर्द कर देता है, वह राष्ट्र का अवि अर्थात् रक्षक होकर शुद्धाचारी
हो जाता है, वह राष्ट्रदण्ड से प्रमुक्त कर दिया जाता
है। वेद में वेदवक्ता—ब्रह्मज्ञ पर शुल्क लगाना निषिद्ध है (अथर्व०
५।१९।३), क्योंकि इसका धन सोम आदि यज्ञों के निमित्त
होता है, सोम आदि यज्ञ ही इसके दायाद अर्थात् सम्पत्ति
के खानेवाले, उत्तराधिकारी होते हैं (अथर्व० ५।१८।६)। प्रजोपकारी
कर्मों पर तथा यज्ञ कार्य पर व्यय किये गये धन पर
"राज्य-कर" लगाना पापकर्म है। स्वधा [छान्दस प्रयोग]=स्व+धाः; धा=धारणपोषणयोः (जुहोत्यादिः)। शितिपात् या शितिपाद् की विशेष व्याख्या के लिए
देखो (मन्त्र २) की व्याख्या। अथवा स्वधा अन्ननाम है, (निघं० २।७) अर्थात् इष्टापूर्त के १६वें विभाग को राज्यकर में विभक्त करनेवाला
राजा यम अर्थात् मृत्यु का अन्नरूप हो जाता है,
प्रजा द्वारा मार
दिया जाता है।]
[१. इष्टापूर्त पर
राज्यकर लगाना, तथा राजा के स्वोपभोग के लिए 'राजकर' लगाना वेद-निपिद्ध है। केवल राष्ट्रोन्नति
के लिए "राष्ट्रकर"
या साम्राज्य-कर
लगाना वेदानुमोदित है।]
०३।०२९।०२
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (आकूतिप्रः) संकल्पों
का पूरा करनेवाला, [आत्मा को] (दत्तः) दिया हुआ, (शितिपात्) प्रकाश और अप्रकाश में गतिवाला (अविः) रक्षक प्रभु (आभवन्) व्यापक, (प्रभवन्) समर्थ और (भवन्) वर्तमान होता हुआ (सर्वान्) कामान् तब सुन्दर कामनाओं
को (पूरयति) पूरा करता है, और (न) नहीं (उपदस्यति) घटता है ॥२॥
भावार्थः उस सर्वशक्तिमान्
परमात्मा का इतना बड़ा कोश है कि सब सृष्टि की शुभ कामनाओं को पूरा करते-करते भी भरपूर
ही बना रहते हैं ॥२॥ बृहदारण्यकोपनिषद में पाठ है−पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥ बृहदा० ५।१।१ ॥ ओ३म्। वह [ब्रह्म] पूर्ण
[भरपूर] है, यह [जगत्] पूर्ण है, पूर्ण से पूर्ण उदय होता है, पूर्ण से पूर्ण लेकर
पूर्ण ही बच रहता है ॥२॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (आ भवन्) समग्र [राष्ट्र]
में सत्तावाला, (प्रभवन्) प्रभाववाला अर्थात् प्रभु हुआ, (भवन्) तथा विद्यमान हुआ, (आकूतिप्रः) संकल्पों
को पूर्ण करनेवाला (शितिपात्) शुष्क अर्थात् निर्मल शारीरिक पाद आदि अवयवोंवाला [राजा], (अवि:) प्रजारक्षक हुआ, (दत्तः) प्रजा द्वारा निर्वाचित अर्थात् समर्पित
किया, (न उपदस्यति) नहीं क्षीण होता।
टिप्पणी: [मन्त्र (१) में धार्मिक तथा प्रजोपकारी कार्यों में लगाए धन पर भी राज्य कर लगानेवाले
राजाओं में, प्रत्येक राजा के लिए प्रायश्चित्त विधान
किया है। उसी राजा का वर्णन मन्त्र (२) में हुआ है। जो राजा प्रायश्चित्त कर लेता है, राष्ट्र में वह (अविः) प्रजारक्षक हुआ,
[न कि अनुचित राज्य-कर
लगाकर प्रजारक्षक हुआ], (शितिपात्) शारीरिक पाद आदि अङ्गों में निर्मल
हुआ, संकल्पों को पूर्ण कर लेता है, और प्रजा का प्रभु बनकर रहता है,
तथा प्रजा द्वारा
दण्डित नहीं होता। ऐसा राजा प्रजा द्वारा निर्वाचित हुआ शासन के लिए समर्पित किया जाता
है शिलपा-"जङ्गाभ्यां पद्भ्यां धर्मोऽस्मि विशि राजा
प्रतिष्ठितः" (यजु:० २०.९) में, सम्राट् कहता है कि "मैं जङ्घाओं और पादों द्वारा धर्मरूप हूँ, धार्मिक कार्यों का सम्पादन करता हूँ,
क्योंकि मैं जानता
हूँ कि मेरी प्रतिष्ठा, दीर्घस्थिति या ख्याति प्रजा पर निर्भर है।
सम्राट् की यह धार्मिक भावना "शितिपात् या शितिपाद्" में निहित है। आकूतिप्र:-आकूतिः (संकल्प)+प्रा (प्रा पूरणे, अदादिः)। (दसु उपक्षये, दिवादिः)।]
०३।०२९।०३
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (यः) जो कोई (लोकेन)
संसार करके (संमितम्) सम्मान किये गए,
(शितिपादम्) प्रकाश
और अन्धकार में गतिवाले (अविम्) रक्षक प्रभु का [अपने आत्मा में] (ददाति) दान करता
है, (सः) वह पुरुष (नाकम्) दुःखरहित स्वर्ग को
(अभ्यारोहति) चढ़ जाता है, (तत्र) जहाँ पर (अबलेन) निर्बल करके (बलीयसे)
अधिक बलवान् को (शुल्कः) शुल्क [कर] (न) नहीं (क्रियते) किया जाता है ॥३॥
भावार्थः जो कोई सर्वश्रेष्ठ
परब्रह्म को अपने में ग्रहण करता है,
वह सन्मार्गी बड़ों
और छोटों के साथ एक सा न्याय करता हुआ सदा आनन्द भोगता है ॥३॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (य:) जो प्रजावर्ग
(लोकेन संमितम्) लोक द्वारा सम्यक्-मापे गये,
जाँचे गये, (शितिपादम्) निर्मल शारीरिक पाद आदि अवयवोंवाले,
(अविम्) रक्षा करनेवाले
व्यक्ति को (ददाति) राष्ट्र के लिए देता है;
(सः) वह प्रजावर्ग
(नाकम्) सुखविशेष को [स्वर्गीय या मोक्षसम्बन्धी सुख को] (अभि) लक्ष्य कर, (अरोहति) आरोहण करता है, बढ़ता है,
(यत्र) जहाँ (अवलेन)
बलहीन द्वारा (बलीयसे) अधिक बलवान् के लिए (शुल्क:१) "राज-कर" (न क्रियते) नहीं
किया जाता, दिया जाता। "राज कर" भिन्न है"राज्य-कर" से।
टिप्पणी: [य:=प्रजावर्ग। प्रजावर्ग, लोकसम्मत व्यक्ति
को निर्वाचित कर राष्ट्र के लिए समर्पित करता है,
ताकि वह "अवि" अर्थात् राष्ट्र-रक्षक होकर शासन करे, और राजवर्ग अनुचित स्वभोगार्थ
"राज-कर" न ले सके। इससे प्रजावर्ग सुखविशेष को प्राप्त करता है। मन्त्र
में "अध्यारोहति" पाठ नहीं, अपितु "अभ्यारोहति"
पाठ है। मन्त्र
(१) में "राजानः विभजन्ते" की ओर निर्देश है। इसे
"अबलेन बलीयसे" द्वारा निर्दिष्ट किया है।] [१. शुल्क:=अधिकवलस्य राज्ञो न्यूनबलेन
परिसरवर्तिना राज्ञा देयः "कर"
विशेषः (सायण)।]
०३।०२९।०४
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (पञ्चापूपम्) विस्तीर्ण
वा [पूर्वादि चार और ऊपर नीचे की पाँचवीं] पाँचों दिशाओं में अटूट शक्तिवाले, अथवा बिना सड़ी रोटी देनेवाले (शितिपादम्) प्रकाश और अन्धकार में गतिवाले, (लोकेन) संसार करके (संमितम्) सम्मान किये गए (अविम्) रक्षक प्रभु का [अपने आत्मा
में] (दाता) अच्छे प्रकार दान करनेवाला (पितॄणाम्) रक्षक पुरुषों [बलवान् और विद्वानों]
के (लोके) लोक में (अक्षितम्) अक्षयता [नित्य वृद्धि] को (उपजीवति) भोगता है ॥४॥
भावार्थः अक्षय शक्तिवाले, सृष्टि भर को नित्य नवीन भोजन देनेवाले सर्वद्रष्टा परमेश्वर का उपासक माता पिता
आदि विद्वान् वीर पितरों के साथ अक्षय (नित्य नवीन) सुख पाता है ॥४॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (पञ्चापूपम्) पाँच
इन्द्रियों की अपवित्रता से निज को सुरक्षित करनेवाले, (शितिपादम्) निर्मल शारीरिक पाद आदि अवयवोंवाले,
(लोकेन संमितम्) प्रजावर्ग
द्वारा सम्यक् प्रकार से माप लिये गये,
जाँच लिये गये (अविम्)
रक्षा करनेवाले व्यक्ति को (प्रदाता) प्रदान करनेवाला (उप जीवति) जीवित करता है, (पितॄणां लोके) पितरों की लोकसभा में (अक्षितम्) न क्षीणकाल तक।
टिप्पणी: [पञ्च=पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ। अपूपम्=अ+पूञ् पवने (क्र्यादिः)+ पा (रक्षणे) पितृणाम्
लोके= यथा "सभा च मा समितिश्चावतां प्रजापते र्दुहितरौ
संविदाने। येना संगच्छा उपमा स शिक्षाच्यार वदामि पितरः सङ्गतेषु।" (अथर्व० ७।१२।१)। उपजीवति=इन पितरों के लोक में प्रदाता का नाम
सदा विश्रुत रहता है।]
०३।०२९।०५
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (पञ्चापूपम्) विस्तीर्ण
वा [पूर्वादि चार और ऊपर नीचे की पाँचवीं] पाँचों दिशाओं में अटूट शक्तिवाले अथवा बिना
सड़ी रोटी देनेवाले, (शितिपादम्) प्रकाश और अन्धकार में गतिवाले, (लोकेन) संसार के (संमितम्) सम्मान किये गए (अविम्) रक्षक प्रभु का [अपने आत्मा
में] (प्रदाता) अच्छे प्रकार दान करनेवाला (सूर्यामासयोः) सूर्य और चन्द्रमा में [उनके
नियम में] (अक्षितम्) अक्षयता [नित्यवृद्धि] को (उपजीवति) भोगता है ॥५॥
भावार्थः सूर्य आकर्षण और
वृष्टि आदि से पृथिवी आदि लोकों का धारण करता और चन्द्रमा सूर्य से प्रकाश पाकर हमें
पुष्टि पहुँचाता है। इसी प्रकार जो मनुष्य मन्त्रोक्त ईश्वर को अपने हृदय में रखकर
परोपकार करता है उसका सुख नित्य बढ़ता है ॥५॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (पञ्चापूपम्) पाँच
इन्द्रियों की अपवित्रता से निज को सुरक्षित करनेवाले, (शितिपादम्) निर्मल शारीरिक पाद आदि अवयवोंवाले,
(लोकेन संमितम्) प्रजावर्ग
द्वारा सम्यक् प्रकार से माप लिये गये,
जाँच लिये गये (अविम्)
रक्षा करनेवाले व्यक्ति को (प्रदाता) प्रदान करनेवाला (उप जीवति) जीवित करता है, "सूर्यामासयो:"
सप्तमी विभक्ति द्विवचन। "मास" शब्द चन्द्रमस् पद का उत्तरांश है। यथा देवदत्तः
दत्तः।अभिप्राय यह सूर्य और चन्द्र में,
अर्थात् दिन और रात्री
में। सूर्य का काल है दिन, और चन्द्रमा का काल है रात्री। अर्थात् दिन-रात
प्रदाता का नाम अक्षीण रूप में विश्रुत रहता है।
०३।०२९।०६
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (शितिपात्) प्रकाश
और अन्धकार में गतिवाला परमेश्वर (इरा इव) भूमि वा विद्या के समान और (समुद्रः) समुद्र, अर्थात् (महत्) बड़े (पयः इव) जलराशि के समान (न) नहीं (उप दस्यति) घटता है, और (देवौ) दिव्य गुणवाले (सवासिनौ इव) साथ-साथ निवास करनेवाले दोनों [प्राण और
अपना वा दिनरात] के समान वह (न) नहीं (उप दस्यति) घटता है ॥६॥
भावार्थः जैसे भूमि, विद्या, जल,
वायु आदि उचित प्रयोग
से अधिक-अधिक उपकारी होते हैं, इसी प्रकार ईश्वर
का उपकारी कोश विज्ञान द्वारा मनुष्य को बढ़ाता चला जाता है ॥६॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (शितिपात्) निर्मल
शारीरिक पाद आदि अवयवोंवाला [रक्षक राजा,
मन्त्र ४] (इरा इव)
भूमि की तरह (न उपदस्थति) नहीं क्षीण होता,
(समुद्र: इव पयो महत्)
समुद्र जैसे महा जलराशि द्वारा क्षीण नहीं होता,
तथा (इव) जैसे (सवासिनौ
देवी) सहवासी दो देव अश्विनी क्षीण नहीं होते वैसे शितिपात् (नोप दस्यति) नहीं क्षीण
होता।
टिप्पणी: [इरा=पृथिवीनाम (निघं० १।१)। शीतपात् -राजा,
यतः अवि है, प्रजारक्षक है, अतः वह राजपद से क्षीण नहीं होता, प्रजा द्वारा पदच्युत नहीं किया जाता।]
०३।०२९।०७
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (कः) किसने (इदम्)
यह [कर्मफल] (कस्मै) किसको (अदात्) दिया है ?
[इसका उत्तर] (कामः)
मनोरथ [वा कामना योग्य परमेश्वर] ने (कामाय) मनोरथ [वा कामना करनेवाले जीव] को (अदात्)
दिया है। (कामः) मनोरथ [वा कमनीय ईश्वर] (दाता) देनेवाला और (कामः) मनोरथ [वा कामनावाला
जीव] (प्रतिग्रहीता) लेनेवाला है। (कामः) मनोरथ ने (समुद्रम्) समुद्र [पार्थिव समुद्र
वा अन्तरिक्ष] में (आ विवेश) प्रवेश किया है।
(काम) हे मनोरथ !
[वा कमनीय ईश्वर] (त्वा) तुझको (प्रति गृह्णामि) मैं जीव ग्रहण करता हूँ, (एतत्) यह [सब काम] (ते) तेरा है ॥७॥
भावार्थः संसार में देना
लेना अर्थात् सब उपकारी काम कामना से सिद्ध होते हैं, कामना से ही प्रयत्न के साथ मन देने पर मनुष्य के सब कठिन कामों को परमेश्वर सुगम
कर देता है ॥७॥ यह मन्त्र कुछ भेद से यजुर्वेद ७।४८ में है। उसका अर्थ यहाँ श्रीमद्
दयानन्द सरस्वती के भाष्य के आधार पर किया है। को॑ऽदा॒त् कस्मा॑ अ॒दात् कामो॑ऽदा॒त्
कामा॑यादात्। कामो॑ दा॒ता कामः॑ प्रतिग्र॒हीता कामैतत्ते॑ ॥ य० ७।४८ ॥ (कः) किसने [कर्मफल] (अदात्) दिया है,
और [कस्मै] किसको
[अदात्] दिया है। इन दो प्रश्नों के उत्तर,
(कामः) कामना योग्य
परमेश्वर ने (अदात्) दिया है, और (कामाय) कामना
करनेवाले जीव को (अदात्) दिया है। (कामः) योगीजनों के कामना योग्य परमेश्वर [दाता]
देनेवाला है। (कामः) कामना करनेवाला जीव (प्रतिग्रहीता) लेनेवाला है। (काम) हे कामना
करनेवाले जीव ! (ते) तेरे लिये (एतत्) यह सब है ॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (क:) किसने (इदम्)
यह राजपद (अदात्) दिया है, (कस्मै) किसके लिए दिया है। (कामः) कामना ने
(कामाय अदात्) कामना के लिए दिया है। (कामः दाता) कामना देनेवाली है, (कामः प्रतिग्रहीता) कामना ग्रहण करनेवाली अर्थात् स्वीकार करनेवाली है, (कामः) कामना (समुद्रम् आविवेश) हृदय-समुद्र में प्रविष्ट हुई है। (कामेन) कामना
द्वारा (त्वा) तुझ राजपद को (प्रतिगृह्णामि) मैं राजा स्वीकार करता हूँ। (काम) हे कामना
! (एतत्) यह राजपद (ते) तेरे लिए या तेरा है।
टिप्पणी: [अभिप्राय यह कि प्रजा ने यदि राजा को राजपद दिया, तो अपनी कामना की पूर्ति के लिए दिया,
ताकि उसकी सुरक्षा
हो सके, और राजा ने जो राजपद ग्रहण किया, वह इसलिए की प्रजा में उसका मान और यश हो सके। इस प्रकार प्रदान-और-प्रतिग्रह परस्पर
की स्वार्थपूर्ति के लिए हैं। इस प्रदान और प्रतिग्रह की कामना का स्त्रोत हृदय-समुद्र
है। हृदयात्समुद्रात् (यजु० १७।९३) तथा (अथर्व० १६।३।६)। इस प्रकार सांसारिक व्यवहार "प्रदान-प्रतिग्रह"
स्वार्थपूर्ति के
अधीन हैं। कामना के सम्बन्ध में तत्त्वदर्शन की व्याख्या के लिए देखो याज्ञवल्क्य और
मैत्रेयी का संवाद (अध्याय ४। ब्राह्मण ५। सन्दर्भ बृहदारण्यक उपनिषद्)।]
०३।०२९।०८
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (हे) काम (भूमिः)
भूमि और (इदम्) यह (महत्) बड़ा (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्ष भी (त्वा) तुझको (प्रति गृह्णातु)
स्वीकार करे। (अहम्) मैं जीव, (प्रतिगृह्य) पाकर, (मा) न (प्राणेन) प्राण [शरीर बल] से,
(मा) न (आत्मना) आत्मबल
से, और (मा) न (प्रजया) प्रजा से, (वि राधिषि) अलग हो जाऊँ ॥८॥
भावार्थः पुरुषार्थी मनुष्य
सत्य कामना से भूमि और आकाश का राज्य हस्तगत कर लेता है, और शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक बल दृढ़ करके संसार में
सुखी रहता है ॥८॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: [हे राजपद!] (त्वा)
तुझे (भूमिः) राष्ट्रभूमि (प्रतिगृह्णातु) स्वीकार करे, तथा (इदम्) यह (महत् अन्तरिक्षम्) राष्ट्र का महा अन्तरिक्ष स्वीकार करे। (प्रतिगृह्य)
तुझे हे राजपद! स्वीकार करके (अहम्) मैं राजा (मा प्राणेन) न प्राण से, (मा आत्मना) न शरीररथ जीवात्मा से,
(मा प्रजया) न प्रजा
से (वि राधिषि) कहीं वर्जित हो जाऊँ।
टिप्पणी: [विराधिषि=वि+राध (संसिद्धौ, स्वादिः), संसिद्धि से विमुक्त होना। मा विराधिषि=मैं कहीं संसिद्धि से विमुक्त हो जाऊँ।
अभिप्राय यह कि राजपद का ग्रहण करना विपत्ति से रहित नहीं। विरोधी प्रजा के उत्थान
हो जाने से राजा स्वयम् और उसका परिवार विपत्तिग्रस्त हो सकता है। अत: मानों राजपद
मैंने स्वीकार नहीं किया, अपितु राष्ट्रभूमि ने और राष्ट्र के अन्तरिक्ष
ने स्वीकार किया है। मैं तो इनका प्रतिनिधि होकर राजपद को स्वीकार कर रहा हूँ। प्रजा
जब भी चाहे मैं प्रतिनिधित्व का परित्याग कर दूंगा। जितने भूखण्ड पर जिसका राज्य होता
है, उतने भूखण्ड के ऊपर का महत् अन्तरिक्ष भी
उसीका होता है, यह दर्शाने के लिए भूमि के साथ अन्तरिक्ष
का भी कथन हुआ है। अन्तरिक्ष वहीं तक होता है,
जितनी ऊँचाई तक कि
वायुमण्डल होता है, यतः अन्तरिक्ष का देवता वायु है।]
०३।०३०।०१
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (सहृदयम्) एकहृदयता, (सांमनस्यम्) एकमनता और (अविद्वेषम्) निर्वैरता (वः) तुम्हारे लिये (कृणोमि) मैं
करता हूँ। (अन्यो अन्यम्) एक दूसरे को (अभि) सब ओर से (हर्यत) तुम प्रीति से चाहो
(अघ्न्या इव) जैसे न मारने योग्य, गौ (जातम्) उत्पन्न
हुए (वत्सम्) बछड़े को [प्यार करती है] ॥१॥
भावार्थः ईश्वर उपदेश करता
है, सब मनुष्य वेदानुगामी होकर सत्य ग्रहण करके
एकमतता करें और आपा छोड़कर सच्चे प्रेम से एक दूसरे को सुधारें, जैसे गौ आपा छोड़कर तद्रूप होकर पूर्ण प्रीति से उत्पन्न हुए बच्चे को जीभ से चाटकर
शुद्ध करती और खड़ा करके दूध पिलाती और पुष्ट करती है ॥१॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: [हे सद्गृहस्थो!]
(व:) तुम्हारे लिए (सहृदय) समानहृदय,
(सांमनस्यम्) समान
मन, (अविद्वेषम्) द्वेष का अभाव (कृणोमि) मैं परमेश्वर
नियत करता हूँ, (अन्यो अन्यम्) परस्पर एक-दूसरे की (अभिहर्यत)
कामना किया करो, एक-दूसरे को चाहा करो। (अघ्न्या जातं वत्समिव)
गौ जैसे नवजात वत्स को चाहती है।
टिप्पणी: [हदयों की समानता है भावनाओं की समानता,
परस्पर प्रेम। मनों
की समानता है विचारों की समानता। दो प्रकार की समानता हो जाने पर पारस्परिक द्वेष का
अभाव हो जाता है। तथा परस्पर के साथ मिलने की कामना अर्थात् इच्छा किया करो, जैसेकि गौ नवजात निज वत्स को चाहती है,
उसके साथ प्रेम करती
है। अघ्न्या का अर्थ है, न हन्तव्याः, जिसका कि हनन न करना चाहिए।]
०३।०३०।०२
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (पुत्रः) कुलशोधक
पवित्र, बहुरक्षक वा नरक से बचानेवाला पुत्र [सन्तान]
(पितुः) पिता के (अनुव्रतः) अनुकूल व्रती होकर (मात्रा) माता के साथ (संमनाः) एक मनवाला
(भवतु) होवे। (जाया) पत्नी (पत्ये) पति से (मधुमतीम्) जैसे मधु में सनी और (शन्तिवाम्)
शान्ति से भरी (वाचम्) वाणी (वदतु) बोले ॥२॥
भावार्थः सन्तान माता पिता
के आज्ञाकारी, और माता पिता सन्तानों के हितकारी, पत्नी और पति आपस में मधुरभाषी तथा सुखदायी हों। यही वैदिक कर्म आनन्दमूल है। मन्त्र
१ देखो ॥२॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (पुत्रः) पुत्र (पितुः
अनुव्रतः) पिता के अनुकूल कर्मों को करनेवाला हो,
(मात्रा संमनाः भवतु)
और माता के साथ समान मनवाला हो। (जाया) पत्नी (पत्ये) पति के लिए (मधुमतीम्) मधुर अर्थात्
मीठी, (शान्तिवाम्) तथा शान्तिप्रद (वाचम्) वाणी
को (वदतु) बोला करे। व्रतम् कर्मनाम (निघं० २।१)।
०३।०३०।०३
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (भ्राता) भ्राता
(भ्रातरम्) भ्राता से (मा द्विक्षत्) द्वेष न करे (उत) और (स्वसा) बहिन (स्वसारम्)
बहिन से भी (मा) नहीं। (सम्यञ्चः) एक मत वाले और (सव्रताः) एकव्रती (भूत्वा) होकर
(भद्रया) कल्याणी रीति से (वाचम्) वाणी (वदत) बोलो ॥३॥
भावार्थः भाई-भाई, बहिन-बहिन और सब कुटुम्बी नियमपूर्वक मेल से वैदिक रीति पर चलकर सुख भोगें ॥३॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (मा) न (भ्राता) भाई
(भ्रातरम्) भाई के साथ (द्विक्षत्) द्वेष करे,
(मा) न (स्वसा) बहिन
(स्वसारम्) बहिन के साथ द्वेष करे। (सम्यञ्च:) सम्यक् व्यवहारोंवाले, (सव्रताः) तथा समान कर्मोवाले (भूत्वा) होकर,
(भद्रया) सुखदायक
तरीके के साथ (वाचम् वदत) वाणी बोला करो।
०३।०३०।०४
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (येन) जिस [वेद पथ]
से (देवाः) विजय चाहनेवाले पुरुष (न) नहीं (वियन्ति) विरुद्ध चलते हैं (च) और (नो)
न कभी (मिथः) आपस में (विद्विषते) विद्वेष करते हैं। (तत्) उस (ब्रह्म) वेद पथ को
(वः) तुम्हारे (गृहे) घर में (पुरुषेभ्यः) सब पुरुषों के लिये (संज्ञानम्) ठीक-ठीक
ज्ञान का कारण (कृण्मः) हम करते हैं ॥४॥
भावार्थः सार्वभौम हितकारी
वेदमार्ग पर चलकर घर के सब लोग आनन्द भोगें ॥४॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (येन) जिस द्वारा
(देवाः) माता-पिता आदि देव (न वियन्ति) न विरुद्ध-विरुद्ध मार्ग पर चलते हैं, (नो च) और न (मिथः) परस्पर (विद्विषते) विद्वेष करते हैं, (तत्) उस (ब्रह्म) अर्थात् वेद को (वः) तुम्हारे (गृहे) घर में (कृण्मः) हम नियम
करते हैं, जोकि (पुरुषेभ्यः) गृहस्थ पुरुषों के लिए
(संज्ञानम्) गृहजीवन सम्बन्धी यथार्थ ज्ञान देता है। देवा:=मातृदेवो भव, पितृदेवोभव, आचार्यदेवो भव (तैत्तिरीय उपनिषद् अनुवाक
११, संदर्भ २)। गृहस्थ पुरुषों के लिए वेदस्वाध्याय
नियत किया है, ताकि उन्हें गृहस्थ धर्म का सम्यक्-ज्ञान
हो सके।
०३।०३०।०५
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (ज्यायस्वन्तः) बड़ों
का मान रखनेवाले (चित्तिनः) उत्तम चित्तवाले,
(संराधयन्तः) समृद्धि
[धन धान्य की वृद्धि] करते हुए और (सधुराः) एक धुरा होकर (चरन्तः) चलते हुए तुम लोग
(मा वि यौष्ट) अलग-अलग न होओ, और (अन्यो अन्यस्मै)
एक दूसरे से (वल्गु) मनोहर (वदन्तः) बोलते हुए (एत) आओ। (वः) तुमको (सध्रीचीनान्) साथ-साथ
गति [उद्योग वा विज्ञान] वाले और (संमनसः) एक मनवाले (कृणोमि) मैं करता हूँ ॥५॥
भावार्थः वेदानुयायी मनुष्य
विद्यावृद्ध, धनवृद्ध,
आयुवृद्धों का आदर
करके उत्तम गुणों की प्राप्ति, और मिलकर उद्योग
से, धन धान्य राज आदि बढ़ाते और आनन्द भोगते हैं
॥५॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (ज्यायस्वन्तः) बुजुर्गों
की सत्तावाले, (चित्तिनः) निज-निज कर्तव्यों में सचेत, (संराधयन्तः) मिलकर गृह्यकार्यों को सिद्ध करते हुए, (सधुराः) गृहशकट को समान धुरा में (चरन्तः) मिलकर चलते हुए (मा वि यौष्ट) परस्पर
वियुक्त अर्थात् पृथक् न होओ। (अन्यो अन्यस्मै) एक दूसरे के लिए (वल्गुः) शोभन अर्थात्
प्रियवचन (वदन्तः) बोलते हुए (एत) घर में आया करो,
(सध्रीचीनान् वः)
साथ-साथ गृहकार्यों में चलते हुए तुम्हें (संमनसः) एक विचारोंवाले (कृणोमि) मैं परमेश्वर
करता हूँ।
टिप्पणी: [सधुरा:=शकट की एक-धुरा में लगे बैल जैसे परस्पर मिलकर चलते हैं, वैसे गृहस्थ-शकट की धुरा में लगकर तुम सब परस्पर मिलकर चला करो। एत= बाहर के कामों
से निवृत्त होकर जब घर आया करो, तो एक-दूसरे के प्रति
प्रियभाषण किया करो।]
०३।०३०।०६
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (वः) तुम्हारी (प्रपा)
जलशाला (समानी) एक हो, और (अन्नभागः) अन्न का भाग (सह) साथ-साथ हो, (समाने) एक ही [योक्त्रे] जोते में (वः) तुमको (सह) साथ-साथ (युनज्मि) मैं जोड़ता
हूँ। (सम्यञ्चः) मिलकर गति [उद्योग वा ज्ञान] रखनेवाले तुम (अग्निम्) अग्नि [ईश्वर
वा भौतिक अग्नि] को (सपर्यत) पूजो (इव) जैसे (अराः) अरा [पहिये के दंडे] (नाभिम्) नाभि
[पहिये के बीचवाले काठ] में (अभितः) चारों ओर से [सटे होते हैं] ॥६॥
भावार्थः जैसे अरे एक नाभि
में सटकर पहिये को रथ का बोझ सुगमता से ले चलने योग्य करते हैं, ऐसे ही मनुष्य एक वेदानुकूल धार्मिक रीति पर चलकर अपना खान-पान मिलकर करें, मिलकर रहें और मिलकर ही (अग्नि) को पूजें अर्थात् १-परमेश्वर की उपासना करें, २-शारीरिक अग्नि को, जो जीवन और वीरपन का चिह्न है, स्थिर रक्खें, ३-हवन करके जलवायु शुद्ध रक्खें और ४-शिल्पव्यवहार
में प्रयोग करके उपकार करें और सुख से रहें ॥६॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (समानी प्रपा) एक-पानीयशाला
हो, (व:) तुम्हारा (अन्नभागः) अन्न का सेवन (सह)
साथ-साथ हो। (समाने योक्त्रे) एक-जुए में (व:) तुमको (सह) साथ-साथ (युनज्मि) मैं जोतता
है; (सम्यञ्च:) परस्पर संगत हुए अर्थात् मिलकर
(अग्निम्) अग्निहोत्र की अग्नि की (सपर्यत) पूजा किया करो, (इव) जैसे कि (नाभिम् अभितः) रथचक्र की नाभि अर्थात् केन्द्र के चारों ओर (अराः)
अरा लगे होते हैं।
टिप्पणी: [अभिप्राय यह, ग्रहवासियों का खाना-पीना एक-सा और साथ-साथ
बैठकर होना चाहिए। अन्नभाग:=भज सेवायाम्। समाने युक्त्रे=सधुराः चरन्तः (मन्त्र ५)।
सपर्यत=सपर पूजायाम् (कण्ड्वादि)। अरा:=जैसे रथचक्र के केन्द्र के चारों ओर अरा लगे
रहते हैं, वैसे अग्निहोत्र में अग्निकुण्ड के चारों
ओर बैठकर अग्निहोत्र किया करो। अरा:=spokes.]
०३।०३०।०७
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (संवननेन) यथावत्
सेवन वा व्यापार से (वः सर्वान्) तुम सबको (सध्रीचीनान्) साथ-साथ गति [उद्योग वा ज्ञान]
वाले, (संमनसः) एक मन वाले और (एकश्नुष्टीन्) एक
भोजनवाले (कृणोमि) मैं करता हूँ। (देवाः इव) विजय चाहनेवाले पुरुषों के समान (अमृतम्)
अमरपन [जीवन की सफलता] को (रक्षमाणाः) रखते हुए तुम [बने रहो] (सायं प्रातः) सायंकाल
और प्रातःकाल में (सौमनसः) चित्त की प्रसन्नता (वः) तुम्हारे लिये (अस्तु) होवे ॥७॥
भावार्थः ‘देव’ पुरुषार्थी विजयी पुरुष मिलकर मृत्यु के कारण
आलस्य आदि छोड़ने से अमर अर्थात् यशस्वी होते हैं। इसी प्रकार सब मनुष्य आपस में मिलकर
उद्योग करके सुखी रहें और सायं प्रातः दो काल परमेश्वर की आराधना करके चित्त प्रसन्न
करें ॥७॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: गृहकार्यों के सम्पादन में (व:) तुम्हें, (सध्रीचीनान्) साथ-साथ चलनेवालों अर्थात् सहोद्योगियों को (संमनसः) एकमनवाले, एकविचारवाले (कृणोमि) मैं परमेश्वर करता हूँ,
(संवननेन) तथा पारस्परिक
मेल, सहमति द्वारा (सर्वान्) सबको (एकश्नुष्टीन्)
एकविध अन्न का भोजन करनेवाला करता हूँ। (देवाः) मातृदेव तथा पितृदेव या अन्य दिव्यगुणी
(इव) जैसे (अमृतम्) निज अमरपन की (रक्षमाणाः) रक्षा करते हुए (सौमनसः) प्रसन्नचित्त
होते हैं, वैसे (सायम् प्रातः) सायम् तथा प्रातः काल
(व:) तुम्हारे (सौमनसः) चित्त की प्रसन्नता (अस्तु) हो।
टिप्पणी: [देवा: अमृतम्=गृहस्थ में रहते मातृदेव तथा पितृ देव, गृहकार्यों में व्यापृत रहते हुए भी,
निज अमरपन को न भूलें, उसकी सदा रक्षा करते रहें। श्नुष्टीन्=अश भोजने (क्र्यादिः)। एकश्नुष्टिम्= एकविधस्य
अन्नस्य भुक्तिम् (सायण)।]
०३।०३१।०१
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (देवाः) विजय चाहनेवाले
पुरुष (जरसा) आयु के घटाव से (वि) अलग (अवृतन्) रहे हैं। (अग्ने) हे विद्वान् पुरुष
(त्वम्) तू (अरात्या) कंजूसी वा शत्रुता से (वि=वि वर्तस्व) अलग रह। (अहम्) मैं (सर्वेण)
सब (पाप्मना) पाप कर्म से (वि) अलग और (यक्ष्मेण) राजरोग, क्षयी आदि से (वि=विवर्त्तै) अलग रहूँ और (आयुषा) जीवन [उत्साह] से (सम्=सम् वर्तै)
मिला रहूँ ॥१॥
भावार्थः पुरुषार्थी लोग
ब्रह्मचर्य आदि के सेवन से सदा बलवान् रहते हैं,
इसी प्रकार सब मनुष्य
मानसिक पाप और शारीरिक रोग के त्याग और शुभ गुणों के सेवन से बल बढ़ाकर अपना जीवन सफल
करें ॥१॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (देवाः) सूर्य, चन्द्र आदि देव (जरसा) जीर्णावस्था से (वि अवृतन्) वियुक्त हैं, पृथक् हैं, (अग्ने) हे यज्ञियाग्नि! (त्वम्) तू (अरात्याः)
अदान से (वि) वियुक्त है, पृथक् है। (अहम्) मैं (सर्वेण पाप्मना) सब
प्रकार के पाप से (वि) वियुक्त हो जाऊँ (यक्ष्मेण वि) और यक्ष्मरोग से वियुक्त हो जाऊँ, (आयुषा सम्) स्वस्थ तथा दीर्घायु से सम्पन्न हो जाऊँ।
टिप्पणी: [सूर्य, चन्द्र आदि दिव्य-तत्त्व जब से पैदा हुए हैं, निज शक्तियों द्वारा तरुणावस्था में है। यज्ञियाग्नि में भी जो हवि डाली जाती है, वह सुसंस्कृत होकर वायुमण्डल में फैल जाती है। अत: यज्ञियाग्नि अदानी नहीं। मैं
रोगी भी सब पापों से और यक्ष्मा रोग से वियुक्त होकर स्वस्थ आयु से संयुक्त हो जाऊँ, ऐसी अभिलाषा या प्रार्थना है। पापों से वियुक्त हो जाने पर, रोगों से वियुक्त होकर, स्वस्थ आयु प्राप्त होती है।]
०३।०३१।०२
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (पवमानः) शोधन करनेवाला
पुरुष (आर्त्या) पीड़ा से (वि) अलग,
और (शक्रः) शक्तिमान्
पुरुष (पापकृत्यया) पाप क्रिया से (वि=वि वर्तताम्) अलग रहे। (अहम्) मैं (सर्वेण पाप्मना)
सब पाप कर्म से... [म० १] ॥२॥
भावार्थः मनुष्य शुद्ध आचरण
से सामाजिक आत्मिक और शारीरिक पीड़ा मिटावे और बलवान् होकर पाप को हटावे ॥२॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (पवमानः) पवित्र व्यक्ति
(आर्त्या) पीड़ा से (वि) वियुक्त होता है,
(शक्रः) धर्म में
शक्तिशाली (पापकृत्यया) पापकर्म से (वि) वियुक्त होता है; इसी प्रकार (अहम) मैं (सर्वेण पाप्मना) सब पापों से (वि) वियुक्त हो जाऊँ, (यक्ष्मेण) यक्ष्मा रोग से (वि) वियुक्त हो जाऊँ,
(आयुषा) और स्वस्थ
आयु से (सम्) संयुक्त हो जाऊं ।
०३।०३१।०३
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (ग्राम्याः) ग्रामवाले
(पशवः) जीव (आरण्यैः) जङ्गली जीवों से (वि) अलग,
और (आपः) जल (तृष्णया)
पियास से (वि) अलग, (असरन्) चले हैं। (अहम्) मैं (सर्वेण पाप्मना)
सब पाप कर्म से... [म० १] ॥३॥
भावार्थः जैसे ग्राम्य पशु
जङ्गली जीवों से अलग रहकर प्रसन्न रहते हैं और जल की उपस्थिति में पियास से निवृत्ति
होती है, इसी प्रकार मनुष्य पाप से निवृत्त होकर सबके
सुख में प्रवृत्त हों ॥३॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (ग्राम्या: पशवः)
ग्राम के पशु (आरण्यैः) अरण्य के पशुओं से (वि) वियुक्त हैं, (आप:) जल (तृष्णया) पिपासा से (वि असरन्) वियुक्त हैं; इसी प्रकार (अहम्) मैं (सर्वेण पाप्मना) सब पापों से (वि) वियुक्त हो जाऊँ, (यक्ष्मेण) यक्ष्मा रोग से (वि) वियुक्त हो जाऊँ और (आयुषा) स्वस्थ आयु से (सम्)
संयुक्त हो जाऊँ।
०३।०३१।०४
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (इमे) ये दोनों (द्यावापृथिव्यौ)
सूर्य और पृथिवी (वि) अलग-अलग (इतः) चलते हैं,
(पन्थानः) सब मार्ग
(दिशंदिशम्) दिशा दिशा को (वि=वियन्ति) अलग-अलग जाते हैं। (अहम्) मैं (सर्वेण पाप्मना)
सब पाप कर्म से... [म० १] ॥४॥
भावार्थः सूर्य पृथिवी और
मार्ग अलग-अलग रहकर संसार का क्लेश हरते हैं,
ऐसे ही सब मनुष्य
दुःख का नाश करके सुख भोगें ॥४॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (इमे) ये (द्यावापृथिवी)
द्यौ-और-पृथिवी (वि इतः) विगत हैं,
परस्पर वियुक्त हैं, (पन्थान:) मार्ग (दिशंदिशम्) प्रतिदिशा में (वि) विगत होते हैं, अर्थात् केन्द्र स्थान से भिन्न-भिन्न दिशाओं में जाते हैं; इसी प्रकार (अहम्) मैं (सर्वेण पाप्मना) सब पापों से (वि) वियुक्त हो जाऊँ, (यक्ष्मेण) यक्ष्मरोग से (वि) वियुक्त हो जाऊँ और (आयुषा) स्वस्थ आयु से (सम्) संयुक्त
हो जाऊँ।
०३।०३१।०५
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (त्वष्टा) सूक्ष्मदर्शी
पिता (दुहित्रे) बेटी को (वहतुम्) दायज [स्त्री धन] (युनक्ति=वि युनक्ति) अलग करके
देता है। (इति) इसी प्रकार (इदम् विश्वम्) यह प्रत्येक (भुवनम्) लोक (वि याति) अलग-अलग
चलता है। (अहम्) मैं (सर्वेण पाप्मना) सब पाप कर्म से... [म० १] ॥५॥
भावार्थः जैसे पिता पुत्री
को दायज देकर सदा हित करता रहता है,
सब लोक और पदार्थ
अलग-अलग रहकर परस्पर उपकार करते हैं,
इसी प्रकार प्रत्येक
मनुष्य आत्मिक और शारीरिक दोष हटाकर परस्पर सुख बढ़ावें ॥५॥ इस मन्त्र का पूर्वार्ध
ऋग्वेद १०।१७१।१। में इस प्रकार है−त्वष्टा॑ दुहि॒त्रे वह॒तुं कृ॑णो॒तीतीदं विश्वं॒
भुव॑नं॒ समे॑ति ॥ (त्वष्टा) सूक्ष्मदर्शी पिता (दुहित्रे) बेटी
के लिये (वहतुम्) दायज (कृणोति) करता है,
(इति) इस प्रकार
(इदम् विश्वम् भुवनम्) यह सब जगत् (समेति) मिलकर चलता है ॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (त्वष्टा) सूर्य
(दुहित्रे) निज दुहिता के लिए (वहतुम्)१ विवाह की (युनक्ति) योजना करता है, (इति) इस हेतु (विश्वम् भुवनम्) समग्र भूतजात (वियाति) विगत हो जाता है; (अहम्) मैं भी (सर्वेण पाप्मना) सब पापों से (वि) वियुक्त हो जाऊँ, (यक्ष्मेण) यक्ष्मरोग से (वि) वियुक्त हो जाऊँ,
(आयुषा) और स्वस्थ
आयु से (सम्) संयुक्त हो जाऊँ।
टिप्पणी: [त्वष्टा=सूर्य, यथा-"त्विषेर्वा स्याद्
दीप्तिकर्मणः" (निरुक्त ८।२।१३)। सूर्य की दुहिता है सौररश्मि।
इसकी एकरश्मि चन्द्रमा में जाकर चन्द्रमा के गृह को प्रकाशित करती है, यह है सौरदुहिता का चन्द्रमा के साथ विवाह।
"अथाप्यस्यैको रश्मिश्चन्द्रमसं
प्रति दीप्यते। आदित्यतोऽस्य दीप्तिर्भवति"
(निरुक्त २।२।६)।
तथा "सुषुम्णः सूर्यरश्मिश्चन्द्रमा गन्धर्वः" (यजु० १८।४०),
अर्थात् सूर्य की
रश्मि उत्तम सुखदायी है, और चन्द्रमा उस गो-नामक रश्मि को धारण करता
है। तथा "अत्राह गोरमन्यत नाम त्वष्टुरपीच्यम्। इत्या
चन्द्रमसो गृहे॥" (ऋ० १।८४।१५), पद ५४ (निरुक्त ४।४।२५), अर्थात् सूर्य की
रश्मियों ने सूर्य से पृथक होकर चन्द्रमा के घर में जाना मान लिया, स्वीकार कर लिया। इस प्रकार उपर्युक्त प्रमाणों से यह स्पष्ट है कि सूर्य की दुहिता
का विवाह चन्द्रमा के साथ होता है। इस विवाहकाल में
"वि याति" की भावना निम्नलिखित है—
वेदानुसार बाल-विवाह
निषिद्ध है और युवा-विवाह अनुमोदित है। शुक्लपक्ष में चन्द्रमा का युवापन पूर्णिमा
के दिन होता है। इस दिन आदित्य भी अस्तंगत हुआ होता है और द्युलोक के नक्षत्र और तारागण
भी चन्द्रमा के पूर्ण प्रकाश में दृष्टिगोचर नहीं होते और छिप जाते हैं। यह है "विश्वं भुवनं वियाति"]
[१. बहतुम्=विवाह (अथर्व० १४।१।१४)]
०३।०३१।०६
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (अग्नि) अग्नि (प्राणान्)
प्राणों, जीवनशक्तियों को (सम्=सम्भूय) मिलकर (दधाति)
पुष्ट करता है, और (चन्द्रः) चन्द्र (प्राणेन) प्राण के साथ
(संहित) सन्धिवाला है। (अहम्) मैं (सर्वेण पाप्मना) सब पाप कर्म से... [म० १] ॥६॥
भावार्थः सूर्य का ताप श्वास-प्रश्वास
द्वारा शरीर में प्रविष्ट होकर नेत्र आदि इन्द्रियों को अन्न रस पहुँचाता है, और चन्द्रमा की शीतलता प्राण द्वारा रुधिर आदि में परिणत रस से इन्द्रियों को पुष्ट
करती है। ऐसे ही मनुष्य अपने दोष मिटाकर शुभ गुणों से युक्त होवें ॥६॥ मन्त्र १-५ में
दोषों से (वि) वियोग के और मन्त्र ६-१० में पुरुषार्थ से (सम्) संयोग के वर्णन से आयु
बढ़ाने का उपदेश है ॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (अग्निः) जाठराग्नि
(प्राणान्) प्राणों को (सं दधाति) शरीर के साथ सम्बद्ध करती है, (चन्द्रः) चन्द्रमा (प्राणेन) प्राण के साथ (संहित:) सम्बद्ध है। (अहम्) मैं (सर्वेण
पाप्मना) सब पापों से (वि) वियुक्त हो जाऊँ,
(यक्ष्मेण) यक्ष्मा
रोग से (वि) वियुक्त हो जाऊँ और (आयुषा) स्वस्थ आयु से (सम्) सम्बद्ध हो जाऊँ।
टिप्पणी: [चन्द्र औषधियों में रसाधान करता है,
औषधियों के सेवन
से हमें प्राणशक्ति प्राप्त होती है। इस प्रकार चन्द्र का प्राणों के साथ सम्बन्ध है।
मन्त्र के पूर्वार्ध में "वि"
द्वारा "वियोग" न कहकर, "सम्" द्वारा सम्बन्ध अर्थात् संयोग कहा है। इससे "समायुषा" के भाव को परिपुष्ट
किया है।]
०३।०३१।०७
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (देवाः) विजय चाहनेवाले
महात्माओं ने (विश्वतोवीर्यम्) सब ओर से वीर्यवान् (सूर्यम्) सर्वप्रेरक वा सर्वत्रगति
परमेश्वर वा सूर्य को (प्राणेन) प्राण से (सम्) मिलकर (ऐरयन्) पाया है। (अहम्) मैं
(सर्वेण पाप्मना) सब पाप कर्म से... [म० १] ॥७॥
भावार्थः जितेन्द्रिय वीरों
ने आत्मा के सहारे, अर्थात् आत्मज्ञान और आत्मबल से, परमात्मा को पाकर और सूर्य आदि लोकों तक गति करके परम पद पाया है। मनुष्य आत्मिक
और शारीरिक दोष मिटाकर जीवन सफल करें ॥७॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (देवाः) परमेश्वर
की दिव्य शक्तियों ने (विश्वतोवीर्यम्) समग्रवीर्यों वाले (सूर्यम्) सूर्य को (प्राणेन)
प्राण द्वारा (समैरयन्) सम्यक्-प्रेरित किया है। (अहम्) मैं (सर्वेण पाप्मना) सब पापों
से (वि) वियुक्त होऊँ, (यक्ष्मेण) यक्ष्मरोग से (वि) वियुक्त होऊँ, (आयुषा) और स्वस्थ आयु से (सम्) संयुक्त होऊँ।
टिप्पणी: [देवा:=दिव्य शक्तियाँ हैं, कामना अर्थात् इच्छा; सर्वज्ञता, तथा कृति शक्ति। परमेश्वर ने सूर्य में प्राण
प्रदान किया है, जिस द्वारा वह उत्पत्तिकाल से चमकता और चमका
रहा है। सौर परिवार में सूर्य सर्वाधिक वीर्यवान् है, शक्तिसम्पन्न है।]
०३।०३१।०८
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (आयुष्मताम्) बड़ी
आयुवाले, और [दूसरों की] (आयुष्कृताम्) बड़ी आयु करनेवाले
[देवताओं] के (प्राणेन) प्राण के साथ (जीव) जीता रह,
(मा मृथाः) मरा मत
जा। (अहम्) मैं (सर्वेण पाप्मना) सब पाप कर्म से... [म० १] ॥८॥
भावार्थः मनुष्य अपने और
दूसरों के सुधारनेवाले वीर योगियों [देवताओं-म०] के अनुकरणी होकर पुरुषार्थ करें और
आलस्य आदि में व्यर्थ जन्म न खोवें ॥८॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (आयुष्मताम्) दीर्घ
आयुवालों तथा (आयुष्कृताम्) दीर्घ और स्वस्थ आयु करनेवालों के (प्राणेन) प्राण द्वारा
(जीव) तू जीवित रह, (मा मृथाः) और न मृत्यु को प्राप्त हो। (अहम्)
मैं (सर्वेण पाप्मना) सब पापों से (वि) वियुक्त होऊं, (यक्ष्मेण) यक्ष्मा रोग से (वि) वियुक्त होऊं,
(आयुषा) स्वस्थ आयु
से (सम्) सम्पन्न होऊं।
टिप्पणी: [प्रापेण= प्राणवायु (सायण)। पृथिवी,
चन्द्रमा, आदित्य, स्वयम् दीर्घ आयुवाले, और प्राणियों को आयु प्रदान करते हैं। पृथिवी जीवन के लिए अन्न रूपी प्राण प्रदान
करती, चन्द्रमा ओषधियों में रस प्रदान कर जीवन के
लिए रसरूपी प्राण प्रदान करता है, और आदित्य ताप-प्रकाशरूपी
प्राण प्रदान करता है। पृथिवी "अन्नं वै प्राणिनां
प्राणः"]
०३।०३१।०९
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (प्राणताम्) जीते
हुओं के (प्राणेन) श्वास से (प्राण) श्वास ले,
(इह) यहाँ पर (एव)
ही (भव) रह, (मा मृथाः) मरा मत जा। (अहम्) मैं (सर्वेण
पाप्मना) सब पाप कर्म से... [म० १] ॥९॥
भावार्थः मनुष्य पुरुषार्थियों
के समान अपने श्वास-श्वास पर कर्तव्य करे और संसार में रहकर भूल, आलस्य आदि दोष छोड़कर कीर्ति पावे ॥९॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: [हे जीव!] (प्राणताम्)
प्राण लेनेवाले प्राणियों के (प्राणेन) प्राण धारण करने के सामर्थ्य से ही तू भी (प्राण)
यहाँ प्राण ले और (इह एव भव) यहाँ ही विद्यमान रह और (मा मृथाः) मृत्यु का ग्रास मत
बन। (अहम्) मैं (सर्वेण पाप्मना) सब पापों से (वि) वियुक्त होऊँ (यक्ष्मेण) यक्ष्मरोग
से (वि) वियुक्त होऊँ, (आयुषा) स्वस्थ्य तथा दीर्घ आयु से (सम्) सम्बद्ध
होऊँ।
०३।०३१।१०
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (आयुषः) जीवन [उत्साह]
के साथ (उत्=उद्भव) खड़ा हो (आयुषा) जीवन के साथ (सम्=सम् भव) पराक्रमी हो। (ओषधीनाम्)
औषधियों अन्न आदि के (रसेन) रस [भोग] से (उत्=उद्भव) ऊँचा हो। (अहम्) मैं (सर्वेण पाप्मना)
सब कर्म से... [म० १] ॥१०॥
भावार्थः मनुष्य जीवन भर
उद्योगी तथा पराक्रमी रहे, और अन्न आदि पदार्थों के भोगों के अनुसार
उपकार का प्रतिफल देकर जीवन सुफल करे ॥१०॥ इस मन्त्र में ‘भव’ पद की अनुवृत्ति मन्त्र ९ से आती है ॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (आयुषा) आयु द्वारा
(उत्) उत्थान करूँ, (आयुषा) आयु द्वारा (सम्) समुन्नत होऊँ, (औषधीनाम् रसेन) ओषधियों के रस द्वारा (उत्) उत्थान करूँ। (अहम्) मैं (सर्वेण पाप्मना)
सब पापों से (वि) वियुक्त होऊँ, (यक्ष्मेण) यक्ष्मा
रोग से (वि) वियुक्त होऊँ, (आयुषा) स्वस्थ तथा दीर्घ आयु से (सम्) सम्बद्ध
होऊँ।
टिप्पणी: [ओषधियों के रसों के सेवन द्वारा आयु स्वस्थ होती और समुन्नत होती है। इससे पापों
के करने से सेवक बचा रहता, तथा यक्ष्म आदि रोगों से छुटकारा पा लेता
है।]
०३।०३१।११
✍क्षेमकरण दास त्रिवेदी 👉
भाषार्थ: (वयम्) हम (अमृताः)
अमर होकर (पर्जन्यस्य) सींचनेवाले मेघ की (वृष्ट्या) बरसा से [जैसे] (आ) सब ओर से
(उत् अस्थाम) उठ खड़े हुए हैं, (अहम्) मैं (सर्वेण
पाप्मना) सब पाप कर्म से (वि) अलग,
और (यक्ष्मेण) राजरोग, क्षयी आदि से (वि=विवर्त्तै) अलग रहूँ,
और (आयुषा) जीवन
[उत्साह] से (सम्=सम् वर्तै) मिला रहूँ ॥११॥
भावार्थः मनुष्य इस सूक्त
में वर्णित उपदेश के अनुसार ब्रह्मज्ञान के श्रवण मनन और निदिध्यासन [विचार] से ऐसे
हर्ष में बढ़े हैं जैसे अन्न आदि औषधें जल की बरसा से नवीन जीवन पाकर उगती हैं, इसलिए प्रत्येक मनुष्य आत्मिक और शारीरिक दोष छोड़कर अपना जीवन का लाभ उठावें ॥११॥
✍विश्वनाथ विद्यालंकार👉
भाषार्थ: (आ) सब ओर अर्थात्
सर्वत्र (पजन्यस्य वृष्ट्या) मेघ की वर्षा के कारण,
(वयम्) हम (उदस्थाम)
स्वास्थ्य में उन्नत तथा खड़े हो गये हैं,
(अमृताः) और मृत्यु
से रहित हो गये हैं। (अहम्) मैं (सर्वेण पाप्मना) सब पापों से (वि) वियुक्त हो गया
हूँ, (यक्ष्मेण) यक्ष्मरोग से (वि) वियुक्त हो गया
हूँ, और (समायुषा) स्वस्थ तथा दीर्घायु से (सम्)
सम्पन्न हो गया हूँ।
टिप्पणी: [मेघ की सर्वत्र वर्षा से वायु का सूखापन तथा गर्मी शान्त हो जाती है, और रोगी अपने को सुखी अनुभव करने लगते हैं। यह अनुभूति शीघ्र मृत्यु से बचाती है।
इसे अमृत कहा है।]
इति षष्ठोऽनुवाकः
॥ इति षष्ठः प्रपाठकः ॥ इति तृतीयं काण्डम् ॥
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