गुरुवार, 3 दिसंबर 2020

अथर्ववेद प्रथम काण्ड-विश्वनाथ विद्यालंकार | आर्य समाज

Atharvaveda


  1.  (ये) जो (त्रिषप्ताः) तीन या सात (विश्वा रूपाणि) सब रूपों को (बिभ्रतः) धारण करते हुए (परियन्ति) सब ओर गति कर रहे हैं, (वाचस्पतिः) वाग्मी आचार्य (तेषाम् बला ) उन त्रिषप्तों के बल ( मे ) मेरी (तन्वः) तनू अर्थात् शरीर के मध्य (अद्य१) आज से (दधातु) स्थापित करे। "[विश्वा=विश्वानि । बला=बलानि । तन्वः= तनू के मध्य अर्थात् शरीर में । त्रिषप्ताः= तीन या सात । तीन हैं मूल प्रकृति के तीन अवयव, सत्त्व, रजस् और तमस् । सप्त हैं प्रकृति-विकृति उभय रूप, महत्तत्त्व, अहंकार तथा पञ्चतन्मात्राएँ। त्रिषप्ताः= अन्यपदार्थे बहुव्रीहौ डच् समासान्तः (सायण)। अन्य पदार्थ है विकल्प ""त्रयो वा सप्त वा"" इत्येवं रूपः।] [१. अयप्रभृति, आज से, जबकि मैं युवावस्था का हो गया हूँ और त्रिषप्त तत्त्वों के ज्ञान ग्रहण के योग्य हो गया हूँ।]"
  2. (वाचस्पते) हे वेदवाणी के वाग्मी आचार्य ! (पुनः एहि ) बार-बार तू आया कर, (देवेन मनसा सह) दिव्य मन के साथ अर्थात् अनुग्रह बुद्धि के साथ । (वसोष्पते) हे वसुओं के स्वामिन् आचार्य ! (नि रमय) मेरे चित्त में तू नितरां रमण कर, (श्रुतम्) आप द्वारा श्रुत किया वेद ( मयि) मुझमें (अस्तु) विद्यमान रहे, ( मयि अस्तु एव ) मुझमें विद्यमान ही रहे, मैं उसे भूल न जाऊँ, विस्मृत न करू । [मन्त्र १ में वाचस्पति पद द्वारा वाग्मी आचार्य से अभ्यर्थना की है। मन्त्र २ आदि से भी वाचस्पति पद द्वारा वाणी के विद्वान् मनुष्य, आचार्य का वर्णन हुआ है । वह जब आश्रम में निरोक्षणार्थ ब्रह्मचारियों के पास जाय तो उससे कहा है कि तू दिव्य बुद्धि अर्थात् अनुग्रह बुद्धि के साथ आया कर, हम पर अनुग्रह करने के लिये आया कर-यह आश्रमवासी प्रत्येक ब्रह्म चारी कहता है या आचार्य से प्रार्थना करता है । आचार्य वसोष्पति है । राज्य द्वारा या दान द्वारा जो वसु प्राप्त हुआ है, उसका स्वामी आचार्य ही है, उसकी इच्छानुसार ही आश्रम में न्याय होता है।]
  3. "(इह एव) इस आश्रम में ही (अभि वितनु) मेरे सम्मुख विस्तार पूर्वक [हे आचार्य !] तू (उभे) दोनों अर्थात् अभ्युदय तथा निश्रेयस कह दे, (इव) जैसेकि (ज्यया) धनुष् की डोरी द्वारा ( उभे ) दोनों ( आली) धनुष्-कोटियों अर्थात् प्रान्तों को परस्पर के अभिमुख किया जाता है। (वाचस्पति: ) वेदवाणी का रक्षक आचार्य (नियच्छतु) नियमपूर्वक मुझे प्रदान करे ( श्रुतम्) वेदविद्या । (मयि श्रुतम्) मुझमें प्राप्त ""श्रुत"" ( मयि) मुझमें (अस्तु एव ) विद्यमान ही हो, अर्थात् मैं उसे विस्मृत न करूं, न भूलूं ।" "[यच्छतु= ""दा"" को यच्छ आदेश।]"
  4. (वाचस्पतिः) वेदवाणी का विद्वान् आचार्य (उपहूतः) श्रद्धापूर्वक आहूत हुआ है, (वाचस्पतिः) वेदवाणी का विद्वान् आचार्य (अस्मान्) हम ब्रह्मचारियों को (उपह्वयताम् ) प्रेमपूर्वक अपने पास आहूत करे [ वेद के पठन पाठन के लिये], ताकि (श्रुतेन) वेद के (संगमेमहि) साथ हमारा संगम रहे, (श्रुतेन) वेद के श्रवण से (मा वि राधिषि) हम वियुक्त न हों । [अस्मान् द्वारा ब्रह्मचारियों का अनेकत्व सूचित हुआ है । मा वि राधिषि = वि+राध संसिद्धौ, माङि लुङ् (सायण), (स्वादिः)। यह प्रत्येक ब्रह्मचारी कहता है।]
  5. (विद्म) हम जानते हैं, (शरस्य) शर के (पितरम्) पिता को (पर्जन्यम्) अर्थात् पर्जन्य को, (भूरिधायसम्) जोकि बहुतों का धारण-पोषण करता है। (विध उ) और हम (सु) अच्छे प्रकार जानते हैं (अस्य) इस शर की (मातरम् ) माता ( पृथिवीम् ) पृथिवी को ( भूरिवर्पसम्) जोकि बहुत रूपोंवाली है । "[पर्जन्यम् =पालयिता चासौ जन्यः, जनहितकारी च मेघः । भूरिधायसम् = भूरि+धा (धारण-पोषण-कर्ता)+युक् (आतो युक् चिकृतोः)+ कर्तरि असुन् । भूरिवर्पसम्=भूरि+ वर्पस् है रूपनाम (निधं० ३।७ ) । अथवा शर=आत्मा, ""प्रणवो धनुः शरो ह्यात्मा"" (मुण्डक० २।२।४)। सूक्त आध्यात्मिकार्थक भी है । मन्त्र में पर्जन्य, शर तथा भूरिधायसम्, परमेश्वरार्थक भी हैं। इस प्रकार सूक्त १ और २ में विषय-साम्य हो जाता है। पर्जन्यम्=पृ पालने +जन्यम् ।]"
  6. (ज्याके) हे ह्रस्व ज्या ! (नः) हमारी ओर (परि) सर्वथा (नम) तू प्रह्वीभूत हो जा, (तन्वम्) निज तनू को ( अश्मानम् ) पत्थर सदृश दृढ़ (आकृधि) कर ले। (बीडुः) दृढ़ हुआ तू हे शर ! [जीवात्मन् !] (अराती:) मेरी अदान-भावनाओं को (द्वेषांसि) तथा द्वेषभावनाओं को (वरीयः) दूरतर प्रदेश में (अप आकृधि) अपगत कर दे । जबकि इन्द्रियाँ विषयों की ओर न जाकर, जीवात्मा की ओर हो जाती हैं, तब। "[ज्या= जिह्वा ज्या भवति (अथर्व० ५।१८।८)। जिह्वा काय में ह्रस्वा है, छोटी-सी है (ह्रस्वे, कः)। जिह्वा को कहा है कि तू सुदृढ़ होकर हमारे प्रति प्रह्वीभूत हो जा, झुक जा, ताकि हमारा उद्देश्य पूरा हो सके, मन्त्र के भावों के कथन में । यह कथन मन्त्र के उत्तरार्ध में हुआ है। यद्यपि अथर्व० ५।१८।८ में ब्राह्मण की जिह्वा को ज्या कहा है । परन्तु सूक्त में भी यतः ""शर"" द्वारा आत्मा का वर्णन है, जोकि ब्राह्मण की आत्मा का सूचक है। निघण्टु में भी जिह्वा को वाक् कहा है (१।११)।]"
  7. (गावः) इन्द्रियाँ (यत्) जो (वृक्षम्) छेदनीय शरीर को (परिषस्वजानाः) सब ओर आलिङ्गन करती हुई, (अनु स्फुरम्) निज स्फूर्ति के अनुसार (ऋभुम्) उरु भासमान१ (शरम् ) शर अर्थात् जीवात्मा की (अर्चन्ति) अर्चना करती हैं, (इन्द्र) हे परमेश्वर ! (शरुम् दिद्युम्) हिंस्र पापरूपी वज्र को (अस्मत्) हम से (यावय) पृथक् कर दे । "[दिद्युद् वज्रनाम (निघं० २।२०)। अभिप्राय यह कि इन्द्रियाँ जब निज स्फूर्तियां अर्थात् संचरण करती हुई जीवात्मा की अर्चना करती हैं, उसे निज पूज्य करती हैं, तब परमेश्वर पापरूपी हिंस्र वज्र को हमसे पृथक् कर देता है, हटा देता है। गावः= गौः इन्द्रियम् (उणा० २।६८; दयानन्द) । वृक्षम्= वृश्च्यते इति, ओव्रश्चू छेदने (तुदादिः), छेदनीय शरीर है, विनाशी शरीर। वृक्ष पद के नानार्थ हैं-(१) प्रकृति, यथा ""किं स्विद् वनं क उ स वृक्ष आसीद् यतो द्यावापृथिवी निस्ततक्षुः"" (यजु० १७।२०) । (२) ""वृक्षेवृक्षे नियता मीमयद् गौः।"" (ऋ० १०।२७।२२)= वृक्षेवृक्षे=धनुषि धनुषि (निरुक्त २।१।६)। (३) वृक्षम्= वृक्षविकारं धनुर्दण्डम् (सायण)।] [१. जीवात्मा भासमान है, प्रकाशस्वरूप है, तभी वह इन्द्रियों और बुद्धि को प्रकाशित करता है। जो स्वयं प्रकाशमान नहीं वह अन्यों को प्रकाशित नहीं कर सकता।]"
  8. (यथा) जैसे (द्याम् च पृथिवीम् च) द्यौः और पृथिवी के (अन्तः) अन्तराल में (तेजनम्) तेजस्वी सूर्य (तिष्ठति) स्थित होता है, (एव) इसी प्रकार (रोगम् च आस्रावम् च) रोग और आस्राव के (अन्तः) अन्तराल में (मुञ्जः इत्) मूञ्ज ही ( तिष्ठतु) स्थित हो। "[अभिप्राय यह कि जैसे द्योः और पृथिवी के मध्य में सूर्य स्थित है, वैसे रोग अर्थात् मूत्रकृच्छ में, और आस्राव अर्थात् मूत्र के स्रवण में, मुञ्ज ही स्थित है, अर्थात् रोग और आस्राव का परस्पर सम्बन्ध मुञ्ज के साथ है, मुञ्ज ही रोग का नाश कर, आस्राव उत्पन्न कर देता है। मुञ्ज का काढ़ा या इसका अन्य आयुर्वेदिक योग अच्छा मूत्रस्रावी है, तभी ""इत्"" अर्थात् 'ही' का प्रयोग हुआ है।]"
  9. (शरस्य पितरम्) शर के पिता अर्थात् उत्पादक (शतवृष्ण्यम्) सैकड़ों शक्तियों की वर्षा करने की शक्तिवाले (पर्जन्यम्) पालक और जनहित कारी मेघ को (विद्म) हम सब जानते हैं, (तेन) उस द्वारा (ते तन्वे ) तेरी तनू के लिये (शम्) सुख (करम् ) मैं करता हूँ, (ते) तेरा ( निषेचनम् ) मूत्रसेचन (पृथिव्याम्) पृथिवी पर हो (ते) तेरा मूत्र (बहिः) बाहर (अस्तु) हो, (बालिति) अर्थात् वारिरूप, जल अर्थात् मूत्र जल । "[वाल्=वार, वा: अर्थात् जल । रलयोरभेदः । वाः= वारि, जल (अथर्व० ३।१३।३)। प्रकरणानुसार मूत्ररूप जल। पर्जन्य= पालक तथा जनहितकारी मेघ, पृ पालने। यह ""मुत्रकृच्छ” रोग है, मूत्र निरुद्ध हुआ-हुआ है, जिसे कि निषेचनम् और बहिः द्वारा निर्दिष्ट किया है। अन्तरिक्ष में पर्जन्य की स्थिति होने पर वायुनिष्ठ जल नासिका द्वारा फेफड़ों में संचरित होकर रक्त में मिल जाता है। इससे मूत्र अधिक होकर मूत्रकृच्छ्र रोग का निवारण करता है। वाल् इति, वाल् शब्द करता हुआ। यह अर्थ सायणाचार्य के अनुसार है। परन्तु यह अर्थ अनुभव-गम्य नहीं, इसलिये सायणाचार्य ने लिखा है कि ""मन्त्रसामर्थ्यादि विविधं शब्दं कुर्वत्"", अर्थात् मन्त्र के सामर्थ्य से विविध शब्द करता हुआ हुआ, ""त्वरया शरीरात् निर्गच्छतु"", अर्थात् ""शीघ्रता से शरीर से निकले""। इस अर्थ से सन्तुष्ट न होकर सायणाचार्य ने ""बल प्राणने"" द्वारा ""अस्य रोगार्तस्य जीवहेतो: मूत्रं बहिरस्तु"" भी कहा है। यह विवरण मैंने इसलिये लिखा है कि मन्त्र ६ तक में इसकी पुनरुक्ति हुई है, इन सब मन्त्रों में बार-बार इस विषय का कथन न करना पड़े। वस्तुतः ""बालिति"" पद का अभिप्राय है ""वारितिः वाः (वारि+ इति ) यथा ""तस्माद् वार्नाम वो हितम्"" (अथर्व० ३।१३।३), अर्थात् इसलिये तुम्हारा नाम ""वा"" अर्थात् ""वारि"" हुआ है। ""वाल' इति में वर्ण विकार हुए हैं, “बाल्=वार्=वाः"" अर्थात् तेरा मूत्र-जल बाहर हो। सायणाचार्य ने ""शर"" का अर्थ किया है ""हिंसक-वाण""। जोकि समग्र सूक्त में अनुपपन्न है । जीवात्मरहित शरीर मृत है, और शरीर-रहित जीवात्मा को रोग और मूत्रस्राव नहीं हो सकते । अतः ""शरो ह्यात्मा"" के अनुसार शरीर-विशिष्ट-जीवात्मा अर्थ ही समग्र सूक्त में उपपन्न हो सकता है। वालिति = वार् इति (रलयोरभेदः)।]"
  10. "(शतवृष्ण्यम्) सैकड़ों प्रकार से सुखों की वर्षा करनेवाले, (शरस्य पितरम्) शरीर विशिष्ट जीवात्मा के (मित्रम्) मित्रवत् हितकारी ""दिन"" को (विद्म) हम जानते हैं। (तेन) उस दिन द्वारा (ते तन्वे) तेरी तनू के लिये (शम्) सुख (करम् ) मैं करता हूँ, (ते) तेरा ( निषेचनम् ) मूत्रसेचन (पृथिव्याम्) पृथिवी पर हो (ते) तेरा मूत्र (बहिः) बाहर (अस्तु) हो, (बालिति) अर्थात् वारिरूप, जल अर्थात् मूत्र जल।" "[""मैत्रं वा अहः, बारुणी१ रात्रि:२"" (तै० ब्रा० १।७।२०,१-२)। दिन का प्रकाश वस्तुतः विविध सुखों की वर्षा करता है।] [१. मन्त्र २-४ में दिन-काल तथा रात्र काल का और उनके देवताओं वरुण और चन्द्र का भी वर्णन हुआ है। २. रात्री दीर्घशयन प्रदान द्वारा तनू पर सुखवर्षां करती है। ]"
  11. [वरुणम्= वृणोति तमसा (सायण) शेष पूर्ववत् । सूर्यास्त, तमस् द्वारा, आवरण करता है, और रात्री के सुखों की वर्षा करता है, प्रदान करता है।]
  12. [चन्द्रम् = चदि आह्लादने दीप्तौ च (भ्वादिः)। चन्द्र का प्रकाश आह्लादकारी तथा शीतल होने के कारण सुखों की वर्षा करता है, प्रदान करता है। शेष पूर्ववत्।]
  13. सूर्यम् = सूर्य तो सौर-जगत् का राजा है । इसके नियन्त्रण में सब ग्रह, उपग्रह हैं। इन पर सूर्य निज ताप और प्रकाश की वर्षा द्वारा सुखों की वर्षा कर रहा है, प्रदान कर रहा है। सूर्य तो इतना प्रतापी है कि उसके प्रकाश में, असंख्य तारागणों वाले द्युलोक का प्रकाश भी विलुप्त हो जाता है। शेषार्थ पूर्ववत् ।
  14. (यत्) जो मूत्र (आन्त्रेषु) आन्तों में, और (गवीन्योः) दो मूत्र नाड़ियों में, (यत्) जो (वस्ती अधि) मूत्र के आवास स्थान में (संश्रितम्) एकत्रित हुआ, आश्रय पाया हुआ है, (एव=एवम्) इस प्रकार ( ते) तेरा (सर्वकम् मूत्रम्) सब मूत्रयुक्त हो जाय (बहिः) आन्त्र आदि से बाहर हो जाय, (बालिति) अथ पूर्ववत्। "[""आन्त्रेषु= उदरान्तर्गतेषु पुरीतत्मु (उदर के अन्दर फैली आन्तों में)। गवीन्योः= आन्तों से निकले मूत्र को मूत्राशय में प्राप्ति के साधन, दो पार्श्वों में स्थित नाड़ियाँ। वस्ति=धनुराकारमूत्राशय"" (सायणाचार्य के अनुसार)। एव=एवम्= इसी प्रकार; अर्थात् जैसेकि पूर्वोक्त ""मुच्यताम्"" कहा है तद्वत् मुक्त हो जाय, मूत्र बाहर निकल जाय।]"
  15. (ते) तेरे (मेहनम्) मूत्रसेचक-मूत्रनाल का (भिनद्मि१) मैं [शल्य-चिकित्सक] भेदन करता हूँ, (इव) जैसेकि (वेशन्त्याः) तलाब के जलों का (वर्त्रम्) मार्ग भिन्न किया जाता है, विदारित किया जाता है। "[""वत्रम्= वर्तते प्रवहति जलम् अत्रेति वर्त्रो मार्गः। वेशन्त्याः= शिन्ति तिष्ठन्ति अस्मिन् आप: इति वेशन्तः पल्वम्, तत्र भवा: आपः वेशन्त्याः"" (सायण)। शेष पूर्ववत् ] [१. ""लोहशलाकया"" (सायण)। इसे Catheter कहते हैं।]"
  16. (उदधेः समुद्रस्य इव) उदक की निधिरूप समुद्र के सदृश (ते ) तेरा (वस्तिबिलम्) मूत्राशय मार्ग (विषितम्) खुल गया है। (एव=एवम्) इस प्रकार (ते) तेरा (मूत्रम्) मूत्र (मुच्यताम्) विमुक्त अर्थात् प्रस्रवित हो जाय, (बहिः) मूत्राशय से बाहर हो जाय, (वालिति सर्वकम् ), अर्थ पूर्ववत्। "[जैसे कि समुद्र का उदक, खाड़ी रूप में, समुद्र से पृथक् हो जाता है, वैसे तेरा मूत्र वस्ति के मार्ग, अर्थात् द्वार से बाहर हो जाय। समुद्रस्य= समुद्र दो प्रकार के हैं, पार्थिव समुद्र और अन्तरिक्षस्थ समुद्र। अन्तरिक्ष में जल वाष्परूप में रहता है, और वर्षाकाल में मेघरूप में। ""स उत्तरस्मादधरं१ समुद्रम्"" (ऋ० १०।९८।५) में उत्तर-समुद्र का वर्णन हुआ है। उत्तर समुद्र = ऊर्ध्वा दिक का समुद्र। विषितम् = वि + षिञ् बन्धने (स्वादिः)+ क्तः।] [१. तथा निरुक्त (२।३।११)।]"
  17. (यथा) जैसे (धन्वन: अधि) धनुर्धारी से (अवसृष्टा) छोड़ी गई (इषुका) इषु (परापतत्) परे जा गिरती है, (एवा एवम्) इस प्रकार ( ते मूत्रम्) तेरा मूत्र (मुच्यताम्) विमुक्त हो जाय, प्रस्रवित हो जाय, (बहिः) मूत्राशय से बाहर हो जाय, (बालिति सर्वकम्), अर्थ पूर्ववत्।
  18. (अध्वरीयताम्१) अहिंसा की कामना करनेवालों की (अम्बयः) माताओं के सदृश, (जामयः) तथा बहिनों के सदृश, आपः [जल] (अध्वभिः) नाना मार्गों द्वारा (यन्ति) गति करती हैं, (मधुना) मधु के साथ (पयः) जल को (पृञ्चन्तीः) सम्पृक्त करती हुई। "[मन्त्र का देवता है आपः, स्त्रीलिङ्गी। अतः आपः को अम्बयः तथा जामयः कहा है। अम्बि शब्द भी वेद में माता के लिये प्रयुक्त होता है, यथा ""अम्बितमे नदीतमे"" (ऋ० २।४१।१६)। मात्राएँ निज पयः अर्थात् दुग्ध को माधुर्य से सम्पृक्त कर शिशुओं को पिलाती हैं । इसी प्रकार व्यापी आपः, सामुद्रिक-पयः अर्थात् जल को भी मधुर बनाकर हमें पिलाती हैं। सामुद्रिक जल नमकीन होता है। वाष्पीभवन द्वारा वह जल नमकरहित होकर, उड़कर अन्तरिक्ष में पहुंचता है, और वहाँ से मधुर जल वर्षा रूप में लौटकर आता है, जोकि हमारे लिये पेय होता है। जामयः अर्थात् बहिनें भी भाइयों के लिये हितकारिणी होती हैं, इसी प्रकार मधुर हुए आपः भी अहिंसा चाहनेवालों के लिये हितकारी हो जाते हैं। मन्त्र में इन मधुर आपः द्वारा जलचिकित्सा का विधान हुआ है। अध्वभिः= समुद्र की स्थिति भृमण्डल के नाना स्थानों में है। इन नाना स्थानों से नाना मार्गों द्वारा आपः अन्तरिक्ष में वाष्पीभूत होकर जाते हैं, ""ऊर्ध्वाभ: यन्ति""।] [१. ""ध्वरतिः हिंसाकर्मा तत् प्रतिषेधः""। निरुक्त (१।३।८)।]"
  19. (अमू:) वे (याः) जो आपः (उप सूर्ये) सूर्य में उपस्थित हैं, (वा) अथवा (याभिः) जिन भूमिष्ठ आपः के (सह) साथ (सूर्यः) सूर्य [रश्मियों द्वारा] उपस्थित है (ताः) वे द्विविध आपः (नः) हमारे (अध्वरम्) अहिंसा कर्म की (हिन्वन्तु) वृद्धि करें। अहिंसाकर्म=जलचिकित्सा द्वारा शरीर को हिंसारहित करना। हिन्वन्तु= हि वृद्धौ (स्वादिः)।
  20. (देवीः अपः) द्योतमान अर्थात् शुद्ध जल का (उपह्वये) उस स्थान के समीप मैं आह्वान करता हूँ, (यत्र) जिस स्थान में (न: गावः पिबन्ति) हमारी गौएँ जल पीती हैं, अर्थात् (सिन्धुभ्यः) स्यन्दनशील नदियों से (कर्त्वम्) काटा गया (हविः) उदक। [कर्त्वम् = कृती छेदने (तुदादिः) + व: ( उणा० १।१५५)। हवि: उदकनाम (निघं० १।१२)। मन्त्रोक्ति नहरों के एञ्जीनियर की है, जोकि प्रवाहित नदियों से जल काटकर गोशाला तक पहुँचाता है]
  21. (अप्सु अन्तः) जलों के अन्दर (अमृतम्) न मरने अर्थात् दीर्घायुष्यकारी गुण है। (अप्सु भेषजम्) जलों में रोगनिवारक शक्ति है। (उत) तथा (अपाम्) जलों की (प्रशस्तिभिः) प्रशस्त शक्तियों के द्वारा (अश्वाः) अश्वों के सदृश (वाजिनः) बलवाले हे पुरुषो! (भवथ) तुम होओ, (गावः) गौओं के सदृश हे महिलाओ ! तुम (वाजिनी:) दुग्धान्नवाली (भवथ) होओ। [(वाजिनः) बलवाले, वाज: बलनाम ( निघं० २।९)। वाज + इनिः। (वाजिनीः) वाजः अन्ननाम (निघं० २।७), अर्थात् दुग्धान्नवाली। जलों की प्रशस्त शक्तियों द्वारा जलचिकित्सा निर्दिष्ट हुई है।]
  22. (आपः) हे व्याप्त अर्थात् विस्तृत जलो ! (मयोभुवः) सुखोत्पादक (हि) निश्चय से (ष्ठाः) तुम हो, (ताः) वे तुम (नः) हमें (ऊर्जे) बल के लिए (दधातन) परिपुष्ट करो। (महे रणाय चक्षसे) तथा महारमणीय दृष्टि के लिये परिपुष्ट करो, या होओ। [आपः=आप्लृ व्याप्तौ (स्वादिः) अर्थात् विस्तृत [शुद्ध] जल। विस्तृत जल= (अथर्व० १।६।४)। ऊर्जे= ऊर्ज बलप्राणनयोः (चुरादिः)। मयः सुखनाम (निघं० ३।६) दधातन= डुधाञ् धारणपोषणयोः (जुहोत्यादिः)। जलचिकित्सा द्वारा दृष्टि रमणीय होती है।]
  23. [हे आपः !] (वः) तुम्हारा (यः) जो (शिवतमः रसः ) अतिकल्याणकारी रस है, (तस्य भाजयत) उसका भागी बनाओ, (इह) इस जीवन में (नः) हमें। (इव) जैसेकि (उशती:) कामनावाली ( मातरः) माताएं [पुत्रों को निज दुग्धरस का भागी करती हैं, दूध पिलाती हैं]।
  24. (तस्मै) उस रस के लिये [ हे आप: ] ( व: ) तुम्हें (अरम् ) पर्याप्त रूप में (गमाम) हम प्राप्त होते हैं, ( यस्य ) जिस रस की ( क्षयाय ) स्थिति के लिये (जिन्वथ) तुम जीवित हो । (आप:) हे जलो ! ( न:) हमें (जनयथ च) जननशक्ति भी प्रदान करो। [जनयथ= जिवि धातु जीवनार्थक भी प्रतीत होती है। क्षयाय= क्षि निवासे (तुदादिः)।]
  25. (वार्याणाम् ) निवारणीय रोगों की (ईशानाः) अधीश्वरी, अर्थात् नियन्त्रित करनेवाली तथा (चर्षणीनाम्) मनुष्यों के ( क्षयन्ती:) रोगों का क्षय करनेवाली (अपः ) जलों को ( भेषजम् ) औषधरूप में (याचामि ) मैं याचित करता हूँ चाहता हूँ [या अपों से१ भेषज की मैं याचना करता हूँ]। [चर्षणयः मनुष्यनाम (निघं० २।३)।] [१. यथा गां दोग्धि पयः।]
  26. (देवी=देव्यः) दिव्य गुणों वाले (आप:) जल (नः शम्) हमारे लिये शान्तिदायक, (अभिष्टये) अभीष्ट सुख के लिये (पीतये) तथा पीने के लिये (भवन्तु) हों । (शम् ) प्राप्त रोगों के शमन के लिये (योः) तथा भविष्य में आनेवाले रोगों के भय को पृथक करने के लिये (न:) हमारी ओर (अभिस्रवन्तु) प्रवाहित हों। "[योः=यु अमिश्रणे (अदादिः), अमिश्रणम्=पृथक्करणम्। यो:= यु+ डोस् (औणादिक प्रत्यय) शं योः = ""शमनं च रोगाणां यावनं च भयानाम्"" निरुक्त (४।३।२१)।]"
  27. (सोमः) जगदुत्पादक या चन्द्रवत् या जलवत् शान्तिदायक परमेश्वर ने (मे) मुझे (अब्रवीत्) कहा है कि (अप्सु अन्तः) जलों के भीतर (विश्वानि भेषजा= भेषजानि) सब औषधे हैं, (च) तथा (अग्निम्) उनमें अग्नि है, (विश्वशंभुवम् ) जो कि सब रोगों का शमन करती है। [जलों में सब रोगों को शान्त करने की शक्ति है, और इनमें वैद्युताग्नि१ भी है, जोकि सब रोगों को शान्त कर देती है। सोमः=षु प्रसवे (भ्वादिः)।] [१. विद्युदग्नि द्वारा रोगों को शान्त करने का निर्देश हुआ है। जलों से विद्युत् पैदा होती है ।]
  28. (आपः) हे जलो! (मम तन्वे) मेरी तनू के लिये (वरूथम्) रोग-निवारक (भेषजम्) औषध (पृणीत) पूरित करो, (च) और औषध प्रदान करो (ज्योक्) चिरकाल तक (सूर्य दृशे) सूर्य को देखने के लिये। दीर्घकाल तक जीवित रहने के लिए। [दो प्रकार के औषध का कथन हुआ है, शारीरिक रोगनिवारक तथा दृष्टिशक्ति-प्रदायक। पृणीत=पृ पालनपूरणयोः (जुहोत्यादिः), पूरित और पालित करना अर्थात् स्थिर बनाए रखना। दृशे = द्रष्टुम्।]
  29. (नः) हमें (धन्वन्याः) मरुभूमि के (आपः) जल (शम्) शान्तिदायक तथा सुखदायक हों; (सन्तु) हों (अनूप्याः) जलप्राय प्रदेश के जल ( शम् उ ) शान्तिदायक तथा सुखदायक। (नः) हमें (खनित्रिमा:) खनन द्वारा उद्भूत कूपजल (शम्) शान्तिदायक तथा सुखकारक हों। (शम् उ ) शान्तिदायक तथा सुखदायक हों, (याः) जोकि (कुम्भे आभृताः) कुम्भ में धारित हैं। (नः) हमें (शिवाः) कल्याणकारी (सन्तु) हों, (वार्षिकी:) वर्षा के आप: अर्थात् जल।
  30. (अग्ने) हे अग्रणी प्रधानमन्त्रिन् ! (स्तुवानम्) यातना के प्रशंसक, (किमीदिनम्) किम्-इदानीम् इस प्रकार प्रश्नपूर्वक भेद लेनेवाले, (यातुधानम्) यातना के निधि रूप को (आवह) बाँध कर [मन्त्र ७] यहाँ ला।१ (देव) हे दिव्यगुणी अग्रणी ! (त्वम्, हि) तू निश्चय से (वन्दितः) हम प्रजाओं द्वारा अभिवादित है, (दस्योः) उपक्षयकारी यातुधान का (हन्ता बभूविथ) हननकर्ता हुआ है । "[समग्र सूक्त के अनुसार अग्नि यज्ञियाग्नि नहीं, अपितु अग्रणी है। अग्रणी-प्रधानमन्त्री, यह अगले मन्त्रों द्वारा स्पष्ट हो जायगा।] [१. राष्ट्रिय न्यायालय में अपराध पर निर्णय करने के लिये राष्ट्रिय सभा का वर्णन हुआ है। यथा ""धर्माय सभाचरम् (३०।६)। राष्ट्रिय न्यायालय की भावना नई नहीं। यजुर्वेद ३०।१० में ""मर्यादायै प्रश्नविवाकम्"" द्वारा राष्ट्रिय मर्यादा के लिये प्राङ्विवाक का वर्णन हुआ है और ३०।१८ में ""सभास्थानुम्"" द्वारा सभा अर्थात् न्यायाधीशों की सभा में स्थिर रहनेवाले ""मुख्य सभाधीश"" का वर्णन हुआ है। महीधर ने ""प्रश्नविवाकम्"" का अर्थ किया है ""कृतान् प्रश्नान् यो विविनक्ति"", ३०।१८ में ""सभास्थानुम्"" का अर्थ किया है स्थिरता सभायां स्थिरम्। धर्माय सभाचरम् का अभिप्राय है राष्ट्रधर्म की स्थिति के लिये सभाचर अर्थात् न्यायसभा में विचरण करनेवाला मुख्य न्यायाधीश।]"
  31. (परमेष्ठिन्) परम अर्थात् श्रेष्ठ स्थान अर्थात् पद पर स्थित, (जातवेदः) राष्ट्र में उत्पन्न तत्त्वों के जाननेवाले, या जातप्रज्ञ, (तनूवशिन्) निजतनू को वश में रखनेवाले (अग्ने) हे अग्रणी ! (तौलस्य आज्यस्य) मापे-तौले घृत का (प्राशान) प्राशन किया कर (यातुधानान्) यातनाओं के निधिभूतों को (विलापय) विलापयुक्त कर या रुला। [मापे-तौले आज्य का प्रतिदिन सेवन करने से शरीर स्वस्थ तथा सशक्त रहता है, शक्ति प्रदान भी करता है।]
  32. (यातुधानाः) यातनाओं के निधिभूत, (अत्त्रिणः) मांसभक्षी, तथा (ये) जो (किमीदिनः) किम् इदानीम् इस प्रकार प्रश्नपूर्वक भेद लेनेवाले हैं, वे (विलपन्तु) विलाप करें, रोएँ । (अथ) तदनन्तर (अग्ने) हे अग्रणी ! तू (इन्द्रः च) और इन्द्र अर्थात् सम्राट् तुम दोनों, (न.) हम द्वारा प्रस्तुत (हविः) हवि के रूप में पवित्र अन्न को (प्रति हर्यतम्) चाहो, उसकी कामना करो। [मन्त्र में हविः द्वारा राष्ट्रशासन को यज्ञ कहा है, इसलिए अग्नि अर्थात् राष्ट्राग्रणी और इन्द्र अर्थात् सम्राट् को दिये जानेवाले भोजन को हविः कहा है। यातुधान पर-राष्ट्रियगुप्तचर हैं, भेद लेनेवाले। इन्द्रः= इन्द्रश्च सम्राट् (यजुः० ८।३७)।]
  33. (अग्निः) अग्रणी प्रधानमन्त्री (पूर्वः) प्रथम (आरभताम् ) [यातुधानों का पकड़ना] आरम्भ करे, (बाहुमान् इन्द्रः) सशक्त बाहुओंवाला सम्राट (प्रनुदतु) उन्हें प्रेरित करे [न्यायालय में जाने के लिये] (सर्वः यातुमान्) सब यातुधानों में से प्रत्येक (एत्य) [न्यायालय] पहुँच कर (ब्रवीतु) कहे (अयमस्मि इति) कि यह मैं हूँ। [नुदतु=णुद प्रेरणे (तुदादिः)। बाहुमान् द्वारा प्रतीत होता है कि इन्द्र मनुष्य है, जिसकी कि बाहुएँ हैं। अतः अग्नि भी मनुष्य है, जोकि इन्द्र का सहचारी है।]
  34. (जातवेदः) हे जातप्रज्ञ [अग्रणी] (ते) तेरी (वीर्यम्) बीरता या शक्ति को (पश्याम) हम [प्रजाजन] देखें (नृचक्षः) हे मनुष्यों के निरीक्षक ! (नः) हमें (यातुधानान्) यातनाओं की निधियों को (ब्रूहि) कहिये, उनके सम्बन्ध में परिचय दीजिये। (स्वया) तूने (पुरस्तात्) पहले से ही (सर्वे) सब यातुधान (परितप्ताः ) पूर्णरूप से संतप्त कर दिये हैं, (ते ) वे (इदम् ) इस न्यायालय में (उप आयन्तु) उपस्थित हों (प्रब्रुवाणाः) अपनी-अपनी उपस्थिति को कहते हुए। [यातनाओं की निधियाँ हैं, यातुधान।]
  35. (जातवेदः) हे जातप्रज्ञ अग्रणी ! (आरभस्व) तु निज कार्य प्रारम्भ कर, (अस्माकार्थाय) हमारे प्रयोजन के लिए (जज्ञिषे) प्रजा से तू उत्पन्न हुआ है [अग्रणीरूप में प्रकट हुआ है] (नः अग्ने) हे हमारे अग्रणी ! (दूतः भूत्वा) यातुधानों का उपतापी होकर (यातुधानान् ) यातुधानों को (विलापय) नष्ट कर या विलापवाले कर, शोकित कर। [दूतः= टुदु उपतापे (स्वादिः)।]
  36. (अग्ने) हे अग्रणी प्रधानमन्त्रिन् ! (त्वम्) तू (यातुधानान्) यातना के निधिभूत मनुष्यों को (उपबद्धान्) लगभग बाँधे हुओं को ( इह) यहां अर्थात् न्यायालय में (आ वह) प्राप्त कर, (अथ) तदनन्तर ( इन्द्रः ) सम्राट् (वज्रेण) वज्रसदृश दृढ़ तलवार द्वारा (शीर्षाणि) इनके सिरों को (अपि) भी (वृश्चतु) काट दे। "[प्रथम, अग्रणी यातुधानों को, न्यायालय में, वाँधे हुओं को पहुँचाए। ये लगभग बंधे हुए होने चाहिएँ, हाथ-पैर आदि बँधे हुए। न्यायालय में, अपराधानुसार दण्डविधान हो जाने पर सम्राट के निर्देशानुसार इनके सिरों को काट देना चाहिए। ""अपि"" का अभिप्राय यह है कि निर्णयानुसार यदि कोई अन्य दण्ड दिया गया है तो उसके होते हुए भी सिर काटने का दण्ड स्थिर है। न्यायालय वेदानुकूल है यथा ""धर्माय सभाचरम्"" (यजु:० ३०।६)। अर्थात् राज्य में धर्मव्यवस्था के लिए सभा अर्थात् न्यायाधीशों को, तथा समाचरम् अर्थात् न्यायाधीशों के मुखिया को ""अलभते"" [प्राप्त करता है] (यजु० ३०।२२) धर्माय सभाचरम्= धर्म की रक्षा के लिए सभा में विचरनेवाले सभापति को (यजु० ३०।६; ऋषि दयानन्द)। सभा के होते ही सभाचर सम्भव है। अतः सभा द्वारा न्यायालय के न्यायाधीश तथा सभाचर द्वारा न्यायाधीशों का मुखिया ही अभिप्रेत है। धर्म है वर्णाश्रमधर्म या प्रजा का धारण-पोषण।"
  37. (इदम् हविः) यह हविः (यातुधानान्) यातना के निधियों, यातना के पोषकों को (इह) यहाँ, अर्थात् हमारे पास (आ वहत्) लाई है, ( इव ) जैसे (नदी फेनम्) नदी फेन अर्थात् झाग को लाती है। (यः) जिस (स्त्री पुमान् अक:) स्त्री या पुरुष ने (इदम्) यह अभिचार कर्म किया है, (सः) वह (जनः) जन (इह) यहाँ (स्तुवताम्) कह दे। [शत्रुजन ने यज्ञ द्वारा यातुधानों को हमारे पास भेजा है, उसको निजस्वरूप के कथन करने के लिए कहा है। यातुधान भी यज्ञ विधि का अवलम्बन कर अभिचारकर्म करते हैं। यातुधानान् = यातु+धान (धा धारणपोषणयोः जुहोत्यादिः), पोषण अर्थ अभिप्रेत है। यातु=यातना।]
  38. (अयम्) यह जन (स्तुवानः) निजस्वरूप का कथन करता हुआ (आगमत्) आया है, (इमम् ) इसको ( प्रति हर्यत) तुम चाहो। (बृहस्पते) हे बृहती सेना के पति ! (वशे लब्ध्वा) इसे निज वश में लेकर, (अग्नीषोमौ) अग्नि अर्थात् अग्रणी प्रधानमन्त्री और सेनानायक तुम [दोनों परस्पर परामर्श करके] (विविध्यतम्) इसे वेधो, ताड़ित करो। सोमः = सेनानायक (यजु० १७।४०)।
  39. (सोमप) हे सोमनामक१ अर्थात् सेनानायक के रक्षक ! (यातुधानस्य) यातुधान की (प्रजाम् ) प्रजा का (जहि) हनन कर, (नयस्य च), और निज प्रजा का उन्नति के मार्ग में नयन कर । (निस्तुवानस्य) जो अपना परिचय न दे उसके (परम् अक्षि) श्रेष्ठ अर्थात् दक्षिण आँख को, (उत) तथा (अवरम्) श्रेष्ठ, वाम अक्षि को (पातय) अधःपतित कर दे, निकाल दे। (नि२= निग्रह; रोकना, यथा इन्द्रिय-निग्रह। "[(१) में यातुधान, आततायी कहे हैं। मनु ने कहा है कि ""आततायिनमायन्तं हन्यादेवाविचारयन्"", अर्थात् आते हुए आततायी का हनन ही कर दे, बिना विचारे।] [१. सोम=सेनानायक (यजुर्वेद १७।४०)। २. नि=विनिग्रहार्थीयः (निरुक्त १।१।३)। विनिग्रहः = विशेषेण निग्रहः, रोकना । यथा इन्द्रियनिग्रहः, मनोनिग्रहः।]"
  40. (जातवेदः) हे जातप्रज्ञ (अग्ने) अग्रणी प्रधानमन्त्रिन् ! (गुहासताम्) गुफा में वर्तमान, (अत्रिणाम्) मांसभक्षक, (एषाम् ) इन यातुधानों के (यत्र) जिन स्थानविशेषों में (जनिमानि) जनों अर्थात् उत्पत्तियों को (वेत्थ) तू जानता है (तान् ) उन्हें (ब्रह्मणा) वेदमन्त्रों द्वारा (वावृधानः) ज्ञान में बढ़ा हुआ, तु (एषाम्) इन यातुधानों का (शततर्हम्) हिंसा के बहुविध प्रकार से (जहि) हनन कर। [वैदिक मन्त्रों में यातुधानों के हनन के बहुविध उपाय दर्शाए हैं। शततर्हम् विशेषण है जहि क्रिया का।]
  41. (वसवः) ८ वसु, (अस्मिन्) इसमें (वसु) धन-सम्पत्ति (धारयन्तु) धारित करें अर्थात् प्रदान करें, (इन्द्रः) मेघीय विद्युत्, (पूषा) रश्मियों द्वारा परिपुष्ट सूर्य, (वरुणः) अन्तरिक्ष को आवृत करनेवाला मेघ, (मित्रः) वर्षा द्वारा स्निग्ध करनेवाला वर्षतु का सूर्य, (अग्निः) तथा पार्थिव अग्नि। (इमम्) इसे (आदित्याः) १२ मासों के १२ आदित्य, (उत) तथा (विश्वे च देवाः) और सब देव अर्थात् द्योतमान पदार्थ (उत्तरस्मिन् ज्योतिषि) उत्कृष्ट ज्योति में (धारयन्तु) स्थापित करें, ज्योति: प्रदान करें। [वसवः= अग्निश्च पृथिवी च, वायुश्चान्तरिक्षं च, आदित्यश्च द्यौश्च, चन्द्रमाश्च नक्षत्राणि च एते वसवः एतेषु हीदं वसु सर्वं हितम् (बृहदा० उपनिषद् अध्याय ४, ब्राह्मण ९, खण्ड ३)। पूषा = यद्रश्मिपोषं पुष्यति= सूर्यः (निरुक्त १२।२।१६) । वसु आदि द्वारा धन-सम्पत्ति प्राप्त होती ही है। यथा पृथिवी से अन्नादि तथा धातवीय पदार्थ प्राप्त होते हैं। आप: से जल-सम्पत्ति, तेजः से प्रकाश-ताप सम्पत्ति, वायु द्वारा जल- चक्कियाँ, आकाश से शब्दवहन आदि सम्पत्तियाँ प्राप्त हो रही हैं-इत्यादि।]
  42. (देवाः) हे द्युतिविद्याविज्ञ वैज्ञानिको ! (अस्य प्रदिशि ) इसके निर्देश में (ज्योतिः अस्तु) राष्ट्र की ज्योति रहे, अर्थात् सूर्य, अग्नि, (उत वा) तथा राष्ट्र का (हिरण्यम्)१ सुवर्ण चाँदी आदि का प्रयोग। (सपत्ना:) शत्रु (अस्मत् अधरे भवन्तु) ताकि हमसे निकृष्ट रहें। हे परमेश्वर ! (इमम् ) इस हमारे शासक-राजा को तू (उत्तमम्) सर्वश्रेष्ठ (नाकम् ) मोक्ष पर ( अधि- रोहय) आरूढ़ कर । "[राष्ट्र की ज्योतिर्मयी शक्तियाँ राष्ट्र के राजा के निर्देश में रहनी चाहिए, ताकि राजा की आज्ञा के अनुसार वैज्ञानिक इनका प्रयोग करें। इससे राष्ट्र की शक्ति बढ़ती और तद्-द्वारा शत्रु को अधर किया जा सकता है। राजा भी निःस्वार्थ भावना से राष्ट्र-सेवा करता हुआ ""नाक"" शे प्राप्त हो जाता है । नाकम्; क=सांसारिक सुख; अक=सांसारिक सुखा-भाव; न+अक है सुख-असुख दोनों का न होना, अपितु दोनों के अभाव से विलक्षण, आनन्दरूप परमेश्वर में लीन रहते स्वेच्छापूर्वक विचरना।] [१. ज्योतिः रूप में हिरण्य दृष्टान्त भी है। यथा ""हिरण्यरूपः स हिरण्यसदृक्"" (ऋ० २।३५।१०); निरुक्त ३।३।१५।]"
  43. (जातवेदः) उत्पन्न पदार्थों के जाननेवाले हे परमेश्वर ! (येन उत्तमेन ब्रह्मणा) जिस उत्तम वेद द्वारा (इन्द्राय) सम्राट् के लिये ( पयांसि) विविध ज्ञानदुग्ध (समभर:=सम् अहरः) तूने सम्यक्तया प्राप्त कराए हैं, [उसे प्रदत्त किये हैं] (तेन) उस उत्तम वेद द्वारा (अग्ने) ज्ञानाग्निसम्पन्न हे परमेश्वर ! (त्वम्) तू, (इह) इस लोक में (इमम्) इस सम्राट् को (वर्धय) बढ़ा, (एनम्) और इस सम्राट् को (सजातानाम्) समान जातिवाले [राजाओं] में (श्रेष्ठ्ये) सर्वश्रेष्ठ रूप में (आ धेहि) स्थापित कर। "[इन्द्र=इन्द्रश्च सम्राट् वरुणश्च राजा (यजु० ८।३७)। वरुण१ हैं प्रत्येक राष्ट्र के राजा और सम्राट है इन संयुक्त राजाओं द्वारा निर्वाचित श्रेष्ठ राजा। पयांसि द्वारा परमेश्वर का मातृरूप सूचित किया है जोकि इन्द्र को ज्ञानदुग्ध पिलाता है, वेदरूपी स्तनों द्वारा। सजातानाम् = यथा ""सजातानां मध्यमेष्ठा एधि राज्ञाम्"" (अथर्व० २।६।४)।] [१. प्रत्येक राष्ट्र के राजा को वरुण इसलिये कहा है कि यह भी प्रजा द्वारा निर्वाचित होता है। ""ब्रियते वाऽसौ वरुणः"" (उणा० ३।५३ दयानन्द)।]"
  44. "(एषाम्) इन वरुण राजाओं की (यज्ञम् ) यज्ञपद्धति को, (उत) तथा (वर्चः) तेज को, (रायस्पोषम् ) ""कर"" रूप में प्रदत्त परिपुष्ट-धन को, (उत) तथा (चित्तानि) परामर्श में दिये सम्यक-ज्ञानों को (अग्ने) हे ज्ञानाग्नि सम्पन्न परमेश्वर ! (अहम्) मैं सम्राट् ( आददे) ग्रहण करता हूँ। ताकि (सपत्ना:) शत्रु (अस्मत् अधरे) हम से निकृष्ट (भवन्तु) हो जायें और (इमम्) इस सम्राट को (नाकम् अधिरोहय ) तू हे ब्रह्म अर्थात् हे परमेश्वर! नाक पर अधिरूढ़ कर।" "[""अग्ने"" यथा ""तदेवाग्निस्तदादित्यस्तद्वायुस्तदु चन्द्रमाः। तदेव शुक्रं तद् ब्रह्म ता ऽ आपः स प्रजापतिः"" (यजु० ३२।१) में अग्नि आदि नाम ब्रह्म के कहे हैं। ब्रह्म=परमेश्वर।]"
  45. (अयम्) यह (देवानाम् ) देवों के मध्य में (असुरः) प्राणप्रदाता (वि राजति) विराजता है। (उग्रस्य वरुणस्य राज्ञः) उग्र वरुण -राजा की (वशा) इच्छा (सत्या) सत्य है। तो भी (ब्रह्मणा शाशदाना) वेदविद्या द्वारा अतितीक्षण हुआ मैं (इमम्) इसको, (वरुणस्य राज्ञः) वरुण-राजा के (ततः मन्योः) उस क्रोध से (परि) परिवर्जित१ करके, (उन्नयामि) उन्नति के मार्ग में मैं ले चलता हूँ। "[वरुण=""वृणोति व्रियते वाऽसौ वरुणः"" (उणा० ३।५३) जो वरुण– परमेश्वर उपासकों की वरण करता है तथा उपासकों द्वारा जिसका वरण किया जाता है । ततः=पञ्चम्यर्थे सार्वविभक्तिक: तसिल्। वशा= इच्छा, वश कान्तौ (अदादिः), कान्तिः= कामना, इच्छा। परि= अपपरी वर्जने (अष्टा० १।४।८८) वरुण:= वरुण-सूक्त (अथर्व० १६।१।२, ३, ४, ५, ७)। मन्यु होता है अवबोध तथा ज्ञानपूर्वक। परन्तु वह जब उग्ररूप हो जाता है तब वह क्रोधरूप हो जाता है। मन्यु की प्राप्ति की प्रार्थना हुई है ""मन्युरसि मन्युं मयि धेहि"" (अथर्व० २०।१५।५)। वरुण का उग्रमन्यु भूचाल, बाढ़ और महायुद्धों में प्रकट होता है। असुरः= असुः प्राणं (निरुक्त ११।१८) 'अनवत्त्वम्' [अन प्राणने], (१०।३।३४)+रा (दाने अदादिः)।] [१. परि=परित्रिगर्तेभ्यो वृष्टो देवः (विष्णुपुराण)। त्रिगर्त= जलन्धर (आप्टे)। (१) ""कि"" ज्ञाने (जुहोत्यादिः)। (२) णम प्रह्वत्वे शब्दे च (भ्वादिः)।]"
  46. (वरुण राजन्) हे वरुण राजन् ! (ते) तेरे (मन्यवे ) मन्यु के प्रति (नमः अस्तु) प्रह्वीभाव हो, (हि) यत: (उग्र) हे उग्र ! (विश्वं द्रुग्धम्) सब प्रकार के द्रोह भाव को (निचिकेषि) तू जानता है, (सहस्रम् अन्यान् साकम् ) अन्य हजार नमस्कारों को एक साथ (प्र सुवामि) मैं तेरे प्रति प्रेरित करता हूँ, ताकि (तव) तेरा (अयम्) यह उपासक (शतम् जीवाति) सौ वर्षों तक जीवित हो। [नमः=णम प्रह्वत्वे शब्दे च (भ्वादिः)। प्रह्वीभाव तथा नमस्कार शब्द। अन्यान्= प्रह्वीभाव से भिन्न नमस्कार। निचिकेषि= कि ज्ञाने (जुहोत्यादिः)। ते =तेरा यह उपासक।]
  47. (जिह्वया) जिह्वा द्वारा (यद्) जो (बहु) बहुत (वृजिनम्) पापरूप (अनृतम् उवक्थ) अनृत भाषण तूने किया है, (ततः) उस असत्य भाषण से (त्वा) तुझे (अहम्) मैं (सत्यधर्मणः) सत्यधर्मवाले अर्थात् सत्यस्वरूप (राज्ञः) संसार के राजा (वरुणात्) वरुण से ( मुञ्चामि ) मुक्त करता हूँ। "[वरुणसूक्त (अथर्व० ४।१६।७ ) में ""अनृतवादी"" (मन्त्र ६) का, तथा (मन्त्र ७) में “अनृत वाक्"" का, तथा उसे ""दण्डविधान"" का कथन हुआ है। तथा (मन्त्र ८) में वरुण द्वारा प्रदत्त नाना रोगों का कथन हुआ है, जोकि अनृत वाक् तथा ""अनृत"" कर्मों के कारण फलरूप में प्राप्त होते हैं। सद्गुरु पापी को पापकर्मों से छुड़ाकर सन्मार्ग पर लाने का विश्वास दिलाता है, ताकि भविष्य में वह वारुण्य कोप से उन्मुक्त रहे।]"
  48. (वैश्वानरात्) सब नरों के हितकारी, (अर्णवात्) जलवाले उदधि के सदृश गम्भीर, (महतः परि) तथा सर्वतो महान् वरुण-परमेश्वर के दण्ड से (त्वा) तुझे (मुञ्चामि) मैं उन्मुक्त करता हूँ [उसके दुण्ड से छुड़ाता हूँ]। (उग्र) हे कष्टों द्वारा उद्विग्न हुए! (सजातान् ) स्वसमान कष्टोत्पन्नों को (इह) इस जीवन में (आवद) कह, और (अप) अपने कष्ट के अपाकृत करने के पश्चात् (न:) हमारे (ब्रह्म) परमेश्वर को (चिकीहि) तू जान। (जो हमारा उपास्य ब्रह्म है उसके स्वरूप को जानने में यत्न कर)। [कष्टोत्पन्नों के कष्टों का अपाकरण करना पुण्यकर्म है। पुण्यकर्मों के करने से ब्रह्मज्ञान होता है, पापियों को नहीं।]
  49. (पूषन्) हे पुष्टि करनेवाले ! (अस्मिन्: सूतौ) इस प्रसूति-यज्ञ में (अर्यमा) आर्यों का मान करनेवाला, (वेधाः) और यज्ञविधि का विधान करनेवाला, (होता) आहुति देनेवाला ऋत्विक् (ते ) तेरे लिये ( वषट्) वषट् शब्द का उच्चारण करके (कृणोतु) आहुति प्रदान करे। (ऋतप्रजाता१) सत्यनियमानुसार प्रजन करनेवाली गर्भवती हुई (नारी) नारी (सिस्रताम्) अङ्गों में ढीली हो जाय, (पर्वाणि) जोड़ (विजिहताम्) खुल जाये, [वि+ हाङ् गतौ], (सूत उ) प्रसूति के लिये। "[वषट्, वौषट् तथा बह समानार्थक हैं। तीनों पद ""वह"" धातु के रूप हैं। ""वह प्रापणे"" (भ्वादिः)। वषट्=वह +सत् (अस्+शतृ) + हकार का लोप। वौषट् = वह के हकार को ""ऊठ्"" करके ""वृद्धि"" + सत् (अस् + शतृ) अथवा वकार के उत्तरवर्ती अकार को प्लुत औकार। वह प्रापणे (भ्वादिः) पूषन्=पुष्टि करनेवाला परमेश्वर। प्रसव क्रिया से पूर्व परमेश्वर के नाम पर यज्ञ किया है। उसका निर्देश अस्मिन् द्वारा हुआ है। प्रसूतियज्ञ है जातकर्म संस्कार।] [१. ऋतम् सत्यनाम (निघं० ३।७)। प्रजाता=कर्तरि क्तः ।]"
  50. (चतस्रः दिवः प्रदिशः) चार द्युलोक की विस्तृत दिशाएँ हैं। ( उत ) तथा (चतस्रः भूम्याः ) चार भूमि की हैं । (देवा:) देवों ने (गर्भम् ) को (समैरयन्) मिलकर प्रेरित किया है। (सूतवे) प्रसव के लिये (सम् व्यूर्णुवन्तु) वे गर्भ को विगताच्छादन करें, आच्छादन से रहित करें। "[देवाः= सम्भवतः १० मास । यथा ""दशमे मासि सूतवे"" (अथर्व० ५।२५।१०)। चतस्रः= जैसे द्युलोक की तथा भूमि की चार-चार विस्तृत दिशाएँ हैं, वैसे प्रसूतिगृह की चारों दिशाएँ भी विस्तृत होनी चाहिए, जिसमें खुली वायु तथा खुले प्रकाश का प्रवेश होता रहे।]"
  51. (सूषा) प्राणिगर्भ विमोचन करके शिशु देनेवाली सेविका (व्यूर्णोतु) आसन्न प्रसवा के वस्त्राच्छादन को विगत करे, पृथक् करे, और (योनिम्) योनिमार्ग को (विहापयामसि) हम [शल्यकर्म में दक्षों द्वारा ] विवृत कराते हैं [ये दूसरी सेविकाएँ हैं]। (सूषणे) हे सुखपूर्वक जन्म देनेवाली माता ! (त्वम्) तू (श्रथय) अपने शरीर को शिथिल कर। (विष्कले) हे चान्द्रकला के सदृश सूक्ष्म नाभिनाल को विगत करनेवाली सेविका ! तू (विसृज) नाभिनाल को काट दे । [सूषा=षूङ् प्राणिगर्भविमोचने (सायण तथा अदादिः) + षणु दाने; जनसनखनक्रमगमो विट् (अष्टा० ३।१।६७) इति विट् । विड्वनोरनुनासिकस्यात् (अष्टा० ६।४।४१) इति आत्त्वम् (सायण)। व्यूर्णोतु=वि+ ऊर्णुञ् आच्छादने (अदादिः) वस्त्राच्छादन को विगत करनेवाली। विसृज= सर्जन=पैदा करना; विसर्जन= काटना। ये सेविकाएँ बच्चा पैदा करने के हस्पताल की हैं। विष्कला अथवा विष्क हिंसायाम् (चुरादिः)+ ला आदाने (अदादिः)। धात्रीक्रिया में हिंसा है, नाभिनाल छेदन। धात्री=दाई।]
  52. (न इव) न मानो (मांसे) मांस में, ( न पीवसि ) न स्थूलावयव में, (न इव) न मानो (मज्जसु) नलिकास्थियों के अस्थिसार में (आहतम्) संलग्न है, (पृश्नि) शुभ्रवर्ण१ [सायण ], (शेवलम्) काई के सदृश वर्तमान (जरायु) जीर्ण हुआ गर्भावरण (शुने अत्तवे) कुत्ते के खाने के लिये (अव एतु) नीचे भूमि पर गिर जाय, (जरायु) जीर्ण हुआ गर्भावरण (अब पद्यताम् ) नीचे गिर जाय [गर्भ में ही न रह जाय]। [पीवसि=पीव स्थौल्ये (भ्वादिः ) । आहतम्= संलग्नम्, संसक्तम्, आबद्धम् ।] [१. शुभ्र का अर्थ यदि श्वेत है तो यह ठीक नहीं, क्योंकि शुभ्र पद शेवल का विशेषण है, शेवल हरी होती है । शेवल है जल की काई। यदि शुभ्र का अर्थ है चमकीला तो यह विशेषण ठीक है, शेवल हरेपन में चमकीला तो होता ही है।]
  53. (ते) तेरे (मेहनम्) मुत्रद्वार का (वि भिनद्मि) मैं भेदन करता हूँ , (योनिम् नि) योनि का भेदन करता हूँ, (वि गवीनिके) पार्श्ववर्ति दो नाड़ियों का भेदन करता हूँ। (पुत्रम् च) नरक से त्राण करनेवाले पुत्र को (मातरम् च) और माता को (वि) पृथक करता हूँ, तथा (कुमारम् ) कुमार को (वि) पृथक् करता हूँ (जरायुणा) जरायु से अर्थात् जीर्ण हुए गर्भावरण से। (जरायु अव पद्यताम्) जरायु नीचे पतित हो जाय। [गवीनिके= योनेः पार्श्ववर्तिन्यौ निर्गमनप्रतिबन्धिके नाड्यौ (सायण)। कुमारम् पद द्वारा उत्पन्न शिशु की पुंल्लिङ्गता प्रकट की है। यह कुमार है, न कि कुमारी।]
  54. (यथा वातः) जैसे वायु [शीघ्र प्रवाहित होती है ] (यथा मनः जैसे मन [शीघ विषयों की ओर जाता है], (यथा पक्षिणः पतन्ति) जैसे पक्षी बिना रुकावट [अन्तरिक्ष में] (पतन्ति) उड़ते हैं; (एव = एवम्) इस प्रकार (दशमास्य) १० मासों का हे शिशु! तूँ ( जरायुणा साकम् ) जीर्ण हुए गर्भावरण अर्थात् जेर के साथ (पत) गर्भाशय से शीघ्र निर्गत हो, (अव जरायु पद्यताम्) और जरायु भी नीचे गिरे ।
  55. (प्रथमः) प्रथमकाल से विद्यमान अर्थात् अनादि, (जरायुजः) जीर्ण होनेवाली प्रकृति से प्रकट हुआ, (उस्रिया) किरणोंवाले सूर्यादि का स्वामी, (वृषा) सुखवर्षी, (वातभ्रजाः) वायु और मेघों का उत्पादक, (वृष्ट्या, स्तनयन् एति) वृष्टि के साथ, मेघों को गर्जाता हुआ परमेश्वर आता है, प्रकट होता है [जगत् में ] (ऋजुगः) ऋजु अर्थात् सत्यमार्गगामी (सः) वह (नः तन्वः) हमारी तनुओं को (मृडाति) सुखी करे। (रुजन्) प्रलयकाल में जगत् को भंग करता हुआ (यः) जो परमेश्वर (एकम् ओज:) निज एक ओज को (त्रेधा) तीन प्रकार से (विचक्रमे) विक्षिप्त करता है । "[जरायुजः = तीन अनादि हैं-परमेश्वर, जीवात्मा, प्रकृति। प्रकृति भी अनादि है जोकि त्रिरूपा है, सत्त्व, रजस् और तमोरूपा । यह ओज: रूप है, शक्तिरूप है । परमेश्वर इस द्वारा निज ओज को प्रकट करता है । इसे परमेश्वर ने तीन स्थानों में विभक्त किया है– पृथिवी में, अन्तरिक्ष में तथा द्युलोक में। विचक्रमे= वि + क्रमु पादविक्षेपे (भ्वादिः)। ऋजुगः = ऋजुमार्ग है सत्यमार्ग। यथा ""तयोर्यत् सत्यं यतरदृजीयः"" (अथर्व० ८।४।१२)। उस्रिया=उस + इयाट्। मन्त्र में परमेश्वर का वर्णन हुआ है, उसे ही नमस्यन्तः द्वारा नमस्कार किया है (अथर्व० १।१२।१), तथा बार-बार नमस्कार किया है (अथर्व० १।१३। १-४ ) । रुजन् =रुजो भंगे (तुदादिः) । सूक्त १२, १३ में परमेश्वर का ही वर्णन है । नमस्कार चेतन को ही किया जाता है । ]"
  56. (अङ्ग अङ्गे) प्राणियों तथा जगत् के अङ्ग अङ्ग में (शोचिषा) दीप्ति के सहित (शिश्रियाणाम्), आश्रित हुए ( त्वा) हे परमेश्वर ! तुझे (नमस्यन्तः) नमस्कार करते हुए (हविषा) हवि: द्वारा (विधेम ) हम पूजित करें । (अङ्कान्) अञ्चनशील अर्थात् गमनशील, (समङ्कान् ) तथा समूह में गमनशील घटकों को (हविषा) हविः द्वारा (विधेम ) विशेषतया हम परिपोषित करें, (यः) जिस (ग्रभीता) ग्रहण अर्थात् धारण करनेवाले ने (अस्याः) इस सृष्टि के (पर्व) परु-परु को (अग्रभीत् ) ग्रहण अर्थात् धारण किया हुआ है। [मन्त्र में ग्रहीता द्वारा परमेश्वर अभिप्रेत है। वह प्राणियों के अङ्ग-अङ्ग में, मस्तिष्क, हृदय आदि में व्याप्त है और जगत् के अङ्ग-अङ्ग में, चान्द, सूर्य, नक्षत्रों और ताराओं में भी व्याप्त है। उसे ही नमस्कार किया गया है और यज्ञिय हवियाँ समर्पित की हैं। गतिशील जगत् घटक हैं पृथिवी आदि, और समूहरूप में जगत् घटक हैं तारागुच्छक राशियाँ; मेष, वृष आदि। इन्हें constellation कहते हैं। ग्रभीता= अपाणिपादो जवनो ग्रभीता पश्यत्यचक्षुः स शृणोत्यकर्णः। ग्रभीता= ग्रह उपादाने (क्र्यादिः)। शिश्रियाणम्=श्रि+ कानच्।]
  57. (शीर्षक्त्याः) सिर को प्राप्त रोग से, (उत) तथा (कासः) खांसी से (एनम्) इसे (मुञ्च) हे परमेश्वर ! तू मुक्त कर, (य: ) जोकि ( अस्य ) इस मेरे (परु: परुः) सन्धिवन्धों में (आ विवेश) प्रविष्ट हुआ है। (य:) जो रोग (अभ्रजाः) वर्षाकाल में पैदा होता है, अर्थात् श्लेष रोग, (वातजाः) वात-विकार से उत्पन्न होता है, (यः च) और जो (शुष्म: ) पित्त विकार का है। वह त्रिविध रोग (वनस्पतीन्) वनस्पतियों के साथ (सचताम्) सम्बद्ध हो, (पर्वतान् च) और पर्वतों के साथ सम्बन्ध हो, अर्थात् इन रोगों की निवृत्ति के लिए वनस्पतियों का सेवन करना चाहिए और पर्वतों में निवास करना चाहिए। पर्वत शीत होते हैं अतः पित्तजनित रोग के लिए हितकर हैं। "[(शीर्षकन्याः) शिरः अञ्चति प्राप्नोति इति शीर्षक्तिः। परमेश्वर भेषज रूप है, (यजु:० ३।५९) अस्य= अस्य मे। ""अस्य"" के साथ ""मे"" का सम्बन्ध जानना चाहिये। मन्त्र ४ के अनुसार कासः= कास् शब्द कुत्सायाम् (भ्वादिः), क्विप्, पञ्चम्येकवचन ।]"
  58. (मे) मेरे (परस्मै) ऊपर के (गात्राय) शिरोभूत अङ्ग के लिये (शम्) सुख हो, (मे) मेरे (अवराय) नीचे के गात्र के लिये ( शम् अस्तु) सुख हो। (मे) मेरे (चतुर्भ्यः अङ्गेभ्यः) चारों अङ्गों दो टाँगों, दो वाहुओं के लिये, (मम) तथा मेरी (तन्वे) तनू के लिये (शम् अस्तु) सुख हो । [अवर गात्र है ग्रीवा से नीचे कटि तक। शम् सुखनाम (निघं० ३।६)।]
  59. हे परमेश्वर ! (विद्युते) विद्योतमान अर्थात् ज्योतिःस्वरूप (ते) तेरे लिये (नमः अस्तु) नमस्कार हो, (स्तनयित्नवे) मेघवत् गर्जन करनेवाले (ते) तेरे लिये (नमः) नमस्कार हो। (अश्मने) अश्मा अर्थात् मेघवत् वर्षा करनेवाले के सदृश सुखवर्षा करनेवाले (ते) तेरे लिये ( नम: ) नमस्कार हो, (येना=येन) जिस कारण (दूदाशे) दुःखपूर्वक दान देनेवाले पर (अस्यसि) तू दुःख बम फेंकता है । अश्मा मेघनाम (निघं० १।१०)। "[दूदाशे=दुर् +दार्श (दास दाने भ्वादिः)। सामाजिक कर्म तथा राष्ट्रोन्नति के लिये दान देना। बाढ़, भूचाल, अग्निकाण्ड तथा रोग रूप में परमेश्वर का गर्जन। दूदाशे =दुर् + दाशे (दासृ दाने, भ्वादिः), सकारस्य शकारः छान्दसः ""दू"" दाशे=दुःखेन दाश्यते दाप्यते इति दूदाशो लुब्धः (सायण:)।]"
  60. (प्रवतः) प्रकृष्ट मनुष्य का (नपात्) पात न होने देनेवाले हे परमेश्वर ! (ते नमः ) तेरे लिये नमस्कार हो । (यतः) चूंकि (तपः) तपोमय जीवन को (समूहसि) तू संघीकृत करता है, बढ़ाता१ है। (नः) हमारे (तनूभ्यः) देहों के लिये (मृष्य) सुख पैदा कर, ( तोकेश्य: ) पुत्र-पौत्र आदि के लिये (मयः) सुख (कृधि) कर । "[परमेश्वर हमारे तपोमय जीवन के बढ़ाने में सहायता देता है। मृडय=मृड सुखने (तुदादिः, तथा क्र्यादिः)। मयः सुखनाम (निघं० ३। ६ )। परमेश्वर निज उपासक को प्रकृष्ट मार्ग से गिरने नहीं देता, उसके तपोमय जीवन को प्रगति देता और उसे सुख प्रदान करता है। नपात् = न पातयति, पतन नहीं करता।] [१. परमेश्वर जैसे हमारे तपः को बढ़ाता है वैसे बह श्रद्धापूर्वक उपासित हुआ हमें नानाविध सहायता प्रदान करता है। यथा ""प्राणिधानाद् भक्तिविशेषाद् आवर्जित ईश्वरस्तमनुगह्णाति अभिध्यानमात्रेण, तदभिध्यानादपि योगिन आसन्नतमः समाधिलाभः फलं च भवति"" (योग, पाद १, सूत्र २३)।]"
  61. (प्रवतः) प्रकृष्ट मनुष्य का (नपात्) पतन न होने देनेवाले परमेश्वर! (तुभ्यम् ) तेरे लिये (नम एव अस्तु) नमस्कार ही हो, (हेतये) प्रगति और वृद्धि प्राप्त करने के लिये, (तपुषे च) और तपोमय जीवन के लिये, (ते) तेरे लिये (नमः कृण्मः) हम नमस्कार करते हैं। (ते) तेरा ( धाम ) स्थान ( विद्म) हम जानते हैं (परमम् ) जो कि परम श्रेष्ठ है, (यत् गुहा ) जो कि हृदय-गुहा है, (समुद्रे अन्तः) हृदय समुद्र में (नाभिः) वन्धनरूप में (निहिता असि ) तू निहित है। "[नम एव-श्रेष्ठ व्यक्ति के लिये तदुचित भेंट दी जाती है। परमेश्वर इतना श्रेष्ठ है कि उसे भेट करने के लिये तदुचित कोई सांसारिक वस्तु नहीं, इसलिये नमस्कार ही भेंट किया है। समुद्रे– हृदय समुद्ररूप है यथा ""हृद्यः समुद्रः""। हेतये=हि गतौ वृद्धौ च (स्वादिः) । नाभि की अपेक्षा से ""निहिता"" स्त्रीलिङ्ग में हैं।]"
  62. हे पारमेश्वरी माता (याम् त्वा) जिस तुझको (विश्वे) सब उपासक योगीजन (असृजन्त) प्रकट करते हैं, (असनाय) आसुर भावों और कर्मों पर फेंकने के लिये, (धृष्णुम्) धर्षक (इषु कृण्वानाः) अपना वाण करते हुए, बनाते हुए। (सा) वह तू (न:) हमें (मृड) सुखी कर (विदथे ) ज्ञान के निमित्त (गृणाना) वेदोपदेश करती हुई; (देवि ) हे दिव्य माता ! (तस्यै ते) उस तेरे लिये (नमः अस्तु) नमस्कार हो। यह पारमेश्वरी माता है। [धृष्णुम्= धर्षक, आक्रमणकारी।]
  63. (अस्याः) इस कन्या के (भगम्) सौभाग्य को, (वर्चः) दीप्ति अर्थात् कान्ति को (आदिषि) मैं [वर ] ने प्राप्त किया है, ( इव ) जैसे (वृक्षात्) [पुष्प वाले ] वृक्ष से (स्रजम् ) पुष्पमाला प्राप्त की जाती है । (महाबुध्न:१) महामूल अर्थात् दीर्घविस्तारी मूल वाले (पर्वतः इव ) पर्वत के सदृश (ज्योक्) चिरकाल तक (पितृषु) हे वर ! तेरे माता-पिता आदि बन्धु में (आस्ताम्) यह रहे। [१. जैसे महाबुध्न पर्वत पृथिवी में अविचल रूप में रहता है, वैसे वधू पतिगृह में अविचलरूप में रहे।]
  64. (राजन्) हे राजमान अर्थात् शोभायमान१ [वर ] (एषा) यह कन्या (ते वधूः) तेरी वधू अर्थात् विवाहयोग्या पत्नी है, ( यम ) हे संयमी वर ! (निधूयताम्) इसे नितरां कम्पित कर, इसके पितृगृह से संचालित कर। (सा) वह (मातुः) तेरी माता के, (अथो) तथा (भ्रातुः) भाई के, (अथो) तथा (पितुः) पिता के (गृहे) घर में (बध्यताम्) दृढ़तया संबद्ध रहे । [अभिप्राय; यह तेरी वधू हुई है। इसके साथ ऐसा सद्व्यवहार करना कि यह तेरी माता, भाई तथा पिता के घर दृढ़तापूर्वक सम्बद्ध रहे। विवाह के पश्चात् वर-वधू अपने नये घर में स्वेच्छापूर्वक रहते हैं। वधू, वर के माता आदि के घर जाती रहे, इसके लिये माता, पिता भाई द्वारा वधू के साथ सद्व्यवहार रहना चाहिए। वरः= वरणीयः, वधू=प्रापणीया, वह प्रापणे, (भ्वादिः)।] [१. वर विवाहार्थ माला, मुकुट आदि द्वारा शोभायमान होता है।]
  65. "(राजन्) राजमान अर्थात् शोभायमान हे वर ! (एषा ) यह कन्या (ते) तेरे (कुलपा) कुल की रक्षिका है, (ताम् उ) उसे ( ते ) तुझे ( परिदद्मसि) हम कन्या के सम्बन्धी समर्पित करते हैं । ( ज्योक्) चिरकाल तक (पितृषु) तेरे पिता आदि में (आसातै) निवास करे और (शीर्ष्ण:) सिर अर्थात् विचार से (शम्) सुख का (ओप्यात्) बीज बोए, उसका विस्तार१ करे डुवप बीजसन्ताने छेदने च (भ्वादि ) चिरकाल तक अर्थात् जब तक वह चाहे, अर्थात् वैराग्य हो जाने से पूर्वकाल तक । वैराग्य हो जाने पर विवाहिता स्त्री भी गृह परित्याग का अधिकार रखती है। यथा ""यदहरेव विरजेत् तदहरेव प्रव्रजेद् गृहाद्वा वनाद्वा ब्रह्मचर्यादेव वा व्रजेत्"" (जाबालोपनिषद् खण्ड ४)। स्त्रियों को भी प्रव्रज्या अर्थात् संन्यास का अधिकार है। यथा ""अथ जिर्विः२ विदथमा वदासि"" (अथर्व० १४।१।२१) गृहाद्वा द्वारा स्त्रियों के लिये श्वशुरगृह भी समझना चाहिये। विदथम्= ज्ञानम्" "[ओप्यात् =आवपनात्, वपनं छेदनम्, डुवप् बीजसन्ताने छेदने च (भ्वादिः)। कुलपाः= सन्तानोत्पादन द्वारा कुल परम्परा की रक्षिका। सिर के न वपन का अवधिकाल है जब तक कि पत्नी संन्यास ग्रहण न करे संन्यासकाल में सिर के केशों का वपन होता है-यह प्रथा है । उस संन्यास काल में वृद्धा स्त्री भी संन्यास ग्रहण कर ज्ञानोपदेश करती है यथा ""अथ-जिर्विर्विदथमावदासि"" (अथर्व० १४।१।२१)। यह प्रथा पुरुष के लिये भी है (अथर्व० ८।१।६)।] [१. बीज बोने के लिये खेत में उसका विस्तार करना होता है। है। २. प्रव्रज्या तो जब भी वैराग्य हो जाय तब हो सकती है, परन्तु ज्ञानोपदेश का अधिकार जरावस्था में ही है, जबकि वह अनुभवी हो जाय। इससे पूर्व वैरागी विरक्ता भ्रम में निवास करे, चाहे वह स्त्री हो चाहे पुरुष (अथर्व० ८।१।६)।]"
  66. (असितस्य) बन्धन रहित अर्थात् सर्वव्यापक के, (कश्यपस्य ) सर्वद्रष्टा के, (गयस्य च) और प्राणरूप परमेश्वर के (ब्रह्मणा) वेद द्वारा, अर्थात् वेदोपदेश द्वारा (ते) तेरे लिये [हे वर !] ( भगम् ) कन्या के सौभाग्य को (अपि ) भी ( नह्यामि ) मैं वांधता हूँ, दृढ़वद्ध करता हूँ। (जामयः) स्त्रियाँ (अन्तः कोशम् इव) छिपे खजाने के सदृश हैं। [नह्यामि द्वारा कन्याप्रदाता कन्या का दृढ़ बन्धन वर के साथ करता है। वह प्रदाता कन्या का पिता है। स्त्रियाँ सद्गुणों में, छिपे-कोश के सदृश हैं । अतः उनकी रक्षा यत्नपूर्वक होनी चाहिये।
  67. (सिन्धवः) स्यन्दनशील नदियाँ (सम् सम् ) परस्पर संगत हुए, परस्पर मिले जलों समेत (स्रवन्तु) स्त्रवित हों, प्रवाहित हों, ( वाता: ) गमनशील बागु (सम्) परस्पर मिलकर स्रवित हों, ( पतत्रिणः सम् ) पक्षियों के सदृश परस्पर मिलकर उड़नेवाले व्यावहारिक वायुयान उड़ें। (प्रदिवः) प्रज्ञानी व्यवहारी (मे इमम् यज्ञम्) मेरे इस व्यावहारिक-यज्ञ को (जुषन्ताम्) प्रीति पूर्वक सेवित करें। (संस्राव्येण हविषा) परस्पर मिलकर एकत्रित हुई हविः द्वारा (जुहोमि) मैं राष्ट्रपति यज्ञ करता हूँ । "[यह यज्ञ है व्यापारिक-यज्ञ। राष्ट्रपति इस यज्ञ को करता है। वह परस्पर सहयोगियों द्वारा धनसंग्रह करता है, यह संस्राव्य-हविः है, पारस्परिक दान रूपी हवि है। व्यापारिक१-वायुयानों द्वारा यह यज्ञ सम्पन्न किया जाता है। ये यान पक्षियों की आकृतिवाले, अर्थात् पंखोंवाले होते हैं। प्रदिवः= प्रज्ञानी व्यवहारी ""प्र+ दिव:"" दिवु क्रीडाविजिगीषा ""व्यवहार"" आदि (दिवादिः)। संखाव्य-हवि का स्वरूप मन्त्र (३ और ४) में स्पष्ट है।] [१. व्यापारिक वायुयानों के स्वरूपज्ञानार्थ, देखो (अथर्व० ३।१५।१-६)।]"
  68. हे व्यापारियो ! (इह एव) इस व्यापारिक स्थान में ही (मे हवम् ) मेरे आह्वान को उद्दिष्ट करके (आ यात) आओ। (इह) इस व्यापारिक स्थान में (संस्रावणाः) संस्राव्य-हवियां हैं, एकत्रित की गई हैं। (उत) तथा (गिरः) अपनी-अपनी वाणियाँ अर्थात् विचार ( इमम् ) इस व्यापारी का (वर्धयत) संवर्धन करें । (इह एतु) यहाँ आएँ (यः) जोकि सब पशु१ हैं [व्यापार कर्म में सहायक] (अस्मिन्) इस व्यापाराध्यक्ष में (तिष्ठतु) स्थित रहे (या) जोकि (रयिः) व्यापारिक सम्पत्ति है। "[१. पशुसमूहः। वैदिक दृष्टि में सर्वपशु पञ्चविध है, जो कि धनार्जन में उत्स रूप हैं । यथा ""तवेमे पञ्च पावो विभक्ता गावः अभ्वा: पुरुषा अजावयः"" (अथर्व० ११।२।९) । पुरुषों को भी पशु कहा है। ये श्रमिक रूप हैं जोकि मित्रादि से प्रेरित न होकर परबुद्धि से प्रेरित होकर धनार्जन में सहायक होते है, (मन्त्र ४)।]"
  69. (नदीनाम्) नदियों के (ये ) जो (उत्सास:) उत्स (संस्रवन्ति) प्रवाहित होते हैं (सदम) सदा (अक्षिता:) न क्षीण हुए, (तेभि:) उन सब (संस्रावैः) प्रवाहो द्वारा (मे) मुझ व्यापाराध्यक्ष के (धनम् ) सम्पत्ति को (संस्रावयामसि) हम मिलकर प्रवाहित करते हैं। उत्सास:=नदियों के उद्गम स्थान अर्थात् स्रोत जहाँ से नदियों का उद्गम होता है।
  70. (ये) जो उत्सा: (सर्पिषः) आज्य के, ( च क्षीरस्य) और दूध के, (उदकस्य च) और उदक के (संस्रवन्ति) सम्यक् प्रवाहित होते हैं, (तेभि: मे सर्वे: संस्रावैः) उन मेरे सब संस्रावों अर्थात् प्रवाहों द्वारा, (धनम्) धन को (संस्रावयामसि) हम परस्पर मिलकर प्रवाहित करते हैं, प्रभूत रूप में पैदा करते हैं । [सर्पिः, दूध द्वारा तथा पशुओं की सहायता द्वारा कूपों से उद्धृत उदक के सेचन से प्राप्त, कृष्यन्न तो, स्वयं धन रूप है तथा इनके विक्रय से भी धनप्राप्ति होती है।]
  71. (ये) जो (अत्रिणः) भक्षक चोर-डाकू या शत्रु सैनिकों का ( व्राजम् ) समूह, (अमावास्यां रात्रिम्) अमावास्या की रात्रि को निमित्त करके (उदस्थु:) उत्थान करते हैं [ आक्रमण करने के लिये ] (सः ) वह ( यातुहा) यातनाकारियों का हनन करनेवाला, (तुरीयः) तुरीयावस्था का परमेश्वर, (अग्निः) जो कि अग्निवत् प्रकाशस्वरूप है, (अस्मभ्यम् ) हमें (अधिब्रवत्) स्वाधिकारपूर्वक इसका उपदेश करे। "[ तुरीयः= माण्डू उप० (पाद १२ )। जो कि तुरीयावस्था का होता है न कि जो ""ब्रवत्"" रूप में तुर्यावस्था का है। ""ब्रवत्"" रूप में वह तुरीयावस्था का नहीं । अग्नि को ""तुरीय:"" कहा है यह दर्शाने के लिये कि यह अग्नि और कोई नहीं विना तुरीय ब्रह्म के। ""ब्रवत्"" अर्थात् बोलना या उपदेश देना चेतन अग्नि द्वारा ही सम्भव है, जड़-अग्नि द्वारा नहीं। ब्रवत्=परमेश्वर ने मन्त्रों द्वारा सीसे के प्रयोग का कथन किया ही है। ]"
  72. (सीसाय) सीसे के प्रयोग के लिये (वरुणः१) राष्ट्र के पति ने ( अध्याह) अधिकारपूर्वक कहा है, (सीसाय) सीसे के प्रयोग के लिये (अग्निः) अग्रणी अर्थात् प्रधानमन्त्री (उपावति) स्वयं उपस्थित होकर हमारी रक्षा करता है। (इन्द्रः१) सम्राट् ने (मे) मुझ प्रजाजन को (सीसम्, प्रायच्छत्) सीसा प्रदान किया है, (अङ्ग) हे प्रिय ! (तत्) वह सीसा (यातुचातनम्) यातनाकारियों का नाशक है। (चातयतिर्नाशने), (यास्क ६। ३०) सीस= Lead धातु। [१. इन्द्रश्च सम्राट् वरुणश्च राजा (यजु० ८।३७) । सम्राट् है संयुक्त राष्ट्रों का अधिपति और वरुण है एक राष्ट्र का अधिपति और अग्नि है अग्रणी प्रधानमन्त्री ।]
  73. (इदम्) यह सीस (विष्कन्धम्) गति के प्रतिवन्धक अर्थात् विघ्न करनेवाले का (सहते) पराभव करता है, (इदम् ) यह सीस (अत्त्रिणः) परभक्षिकों का (बांधते) बद्ध करता है, हनन करता है । अनेन) इस सीस द्वारा (विश्वा=विश्वानि ) सबको (ससहे) मैं पराभूत करता हूँ (या = यानि) जितनी कि (पिशाच्चा:) पिशाचों की (जातानि) जातियां हैं, उत्पत्तियां हैं।
  74. (यदि) यदि (न:) हमारी (गाम् ) गौ की (हंसि) तू हिंसा करता है, (यदि अश्वम्) यदि अश्व की, (यदि पूरुषम् ) और यदि पुरुष [ की हिंसा करता है] तो (तम् त्वा) उस तुझको (विध्याम: ) हम वींधते हैं, (यथा) जिस प्रकार से (नो असः) न तू हो (अवीरहा) अवीरजन का हनन करनेवाला।१ [विध्यामः पद द्वारा वींधने का कथन हुआ है, जिससे यह सीस है, सीसे की गोली ।] [१. वीर हैं सैनिक; अवीर हैं गौ, अश्व तथा प्रजा के पुरुष आदि ।]
  75. (योषितः) स्त्री की (लोहितवाससः) रक्त की निवासभूत (अमूः याः) वे जो (हिरा:) सिराएँ (यन्ति) गति करती हैं, वे ( तिष्ठन्तु) ठहर जाएँ, गतिरहित हो जाएँ, (हतवर्चसः) निज तेज से विहीन हुईं। (इव ) जैसे कि (अभ्रातरः जामयः) भाई बिना बहिनें (तिष्ठन्तु) निज गृह में ही स्थित रहती हैं। [हिरा:=सिराएँ, जो कि अशुद्ध रक्त को बहाती हैं, इन्हें ( Vains ) कहते हैं। इनमें अशद्ध रक्त सरण करता है, शनैः-शनैः गति करता है । सिराः= हिराः, यथा सिन्धु=हिन्दु । भाईरहित बहिनें पितृकुल में ही रहकर स्वपति के साथ निवास कर पितृकुल का संवर्धन करती हैं। ऐसे पति को गृहजामाता कहते हैं।]
  76. (अवरे) शरीर के अधोभाग में वर्तमान हे धमनि! (तिष्ठ) तु यथा स्थान स्थित रह, ( परे) ऊर्ध्वाङ्ग में वर्तमान हे धमनि ! (उत) तथा (मध्यमे) मध्यमाङ्ग में वर्तमान हे धमनि ! (त्वम्) तु (तिष्ठ) यथास्थान में स्थित रह। (कनिष्ठिका च) और सबसे छोटी अर्थात् सूक्ष्मतरा धमनि (तिष्ठति) तो स्वस्थान में स्थित रहती ही है, (मही धमनिः) सबसे बड़ी धमनि (तिष्ठात् इत्) भी स्वस्थान में स्थित रहे। [मन्त्र (१) में तो सिराओं का वर्णन हुआ है। मन्त्र (२) में धमनियों का। ये धम-धम में हिलती हुई गति करती हैं, ये हाथ की कलाई में हैं अंगुठे के नीचे, जिन द्वारा स्वास्थ्य और शरीर के तापमान की पर्ख की जाती है। हृदय की गति के कारण धमनियों में धम-धम की गति होती है।]
  77. (शतस्य धमनीनाम) सौ धमनियों की नाड़ियां और हजार हिराओं अर्थात् सिराओं की (अस्थुः इत्) स्व-स्व स्थान में स्थित ही हैं । (इमाः मध्यमाः) इन दो प्रकार की नाड़ियों के मध्यगत नाड़ियां भी स्व-स्व स्थान में स्थित ही हैं। (साकम् ) साथ ही, (अन्ताः) अवशिष्ट नाड़ियाँ भी (अंरसत) यथापूर्व रमण कर रही हैं। अर्थात् ये सब प्रकार की नाड़ियां स्व-स्व स्थान में रमण कर रही हैं, स्व-स्व स्थान से प्रच्युत नहीं हुई । "[शतस्य= ""शतं चैका हृदयस्य नाड्यास्तासां मूर्धानं अभि-निःसृतैका"" (कठ उप० ६।१६)। सहस्रम्=""अत्रैतद् एकशतं नाडीनां तासां द्वासप्तति द्वासप्तति प्रतिशाखा सहस्राणि आसु व्यानश्चरति"" (प्रश्नोपनिषद् ३।६)। धमनियों की नाड़ियां नडवत् खोखली होती है, जिनमें रक्त गति करता है और सहस्रम् द्वारा सुषुम्णा से निर्गत हजारों ज्ञान-वाहिनी तथा क्रियावाहिनी सूक्ष्म तन्तुओं का वर्णन अभिप्रेत है, इन्हें NERVES कहते हैं, ये तन्तु की तरह कठोर होती हैं, नाड़ियों की तरह खोखली नहीं। इस सम्बन्ध में निम्न श्लोक सायण ने उद्धृत किया है— मध्यस्थायाः सुषुम्नायाः पर्वपञ्चकसंभवाः। शाखोपशाखतां प्राप्ताः सिरा लक्षत्रयात् परम्। अर्धलक्षम् इति प्राहु: शरीरार्थविचारका:॥ सुषुम्ना२ लगभग एक फुट लम्बी होती है और स्थूलकाय होती है और पांच पर्वों अर्थात केन्द्रों में विभक्त होती है। कुण्डलिनी सर्पिणी प्रथम पर्व या केन्द्र है।] [१. व्यानः सर्वशरीरगः। २. सुषुम्ना=सु + सुम्नं सुखनाम (निघं० ३।६)। मध्यस्था= यह सुषुम्ना पीठ के मध्यमाग में स्थित है। पञ्चपर्वा= सुषुम्ना के ५ पर्व, अर्थात् केन्द्र होते हैं । एक केन्द्र पेट को नर्व अर्थात् ""ज्ञान और-क्रिया तन्तु"" प्रदान करता है। दूसरा केन्द्र हृदय को, तीसरा फेफड़ों को, चौथा कण्ठ को, पांचवां मस्तिष्क को ज्ञान और क्रिया तन्तु प्रदान करता है।]"
  78. (वः) तुम्हारे (परि) सब ओर (सिकतावती) सिकतावाली (बृहती) बड़ी (धनू:) धनुष की आकृतिवालो अर्थात् वक्रा नाड़ी ने (अक्रमीत्) पादविक्षेप किया है । (तिष्ठत) तुम स्व-स्थानों में स्थित रहो, और (सु) अच्छे प्रकार से (कम्) सुखदायी होकर (इलयत) गति करती रहो और कम्पित होती रहो। [सिकतावती= सिकता रजांसि, रजस्वला स्त्री के रजोधर्म की आधारभूता नाड़ी, यद्वा अश्मरी नामक व्याधि विशेषवाली नाड़ी (सायण)। मन्त्र का अभिप्राय अस्पष्ट है। इलयत=ईर गतौ कम्पने च ( अदादि:) । अथवा इल प्रेरणे (चुरादि:)। अश्मरी व्याधि= वस्ति अर्थात् मूत्राशय [Bladder ] में की पथरी: धनू:= मूत्राशयो धनुर्वक्रो वस्तिरित्यभिधीयते (सायण)।
  79. (ललाम्यम् ) ललाट अर्थात् मस्तक में हुए (लक्ष्म्यम् ) दृष्ट दुर्लक्षण को (निः) निकाल देते हैं, और (अरातिम्) शत्रुरूप अन्य दुर्लक्ष्ण को भी (निः सुवामसि) हम निकाल देते हैं। (अथ ) तदनन्तर (या भद्रा= यानि भद्राणि) जो कल्याणकारी तथा सुखप्रद लक्षण हैं (तानि) उन्हें ( न: प्रजायै ) अपनी प्रजा [सन्तान] के लिये (नयामसि) हम प्राप्त कराते हैं, और (अरातिम्) शत्रुरूप दुर्लक्षण को ( नयामसि) हम शत्रु को प्राप्त कराते हैं । लक्ष्म्यम् = लक्ष दर्शनाङ्कनयोः (चुरादिः)। [मस्तक स्थान विचार का है, अतः दुर्लक्षण का अभिप्राय है दुर्विचार। नयामसि णीञ् प्रापणे (भ्वादिः)।]
  80. "(सविता) वधू का प्रसवकर्ता पिता (पदोः) तेरे पैरों से (अरणिम्) अरमणीया चेष्टा को (निः साविषक= निःसाविषत्) निकल जाने को प्रेरित करे, (हस्तयोः) हाथों से (निः) निकल जाने को प्रेरित करे ( वरुण: )१ वरण करनेवाला (मित्रः) स्नेही ( अर्यमा) न्यायी [तेरा पति]। (अनुमतिः) आचार्यदेव के अनुकूल मतिवाली पत्नी (निः) अरमणीया चेष्टा को निकाल कर (अस्मभ्यम्) हमारे लिये (रराणा) तुझे प्रदान करनेवाली हो। (देवाः) दिव्यगुणी अन्य सम्बन्धियों ने (इमाम् ) इस वधू को (सौभगाय) हमारे सौभाग्य के लिये (प्र असाविषुः) प्रेरित किया है। हमारे=""वर के सम्बन्धियों के सौभाग्य के लिये""।" "[मन्त्र में विवाहित वधू का वर्णन प्रतीत होता है। अनुमति है देवपत्नी। यथा ""अनुमतिः राकेति देवपत्न्यौ इति नैरुक्ताः"" (निरुक्त ११।३।३०)। वधू जब तक अल्पावस्था की है तब तक उसका पिता उसकी चेष्टाओं को नियन्त्रित करे। पढ़ने अर्थात विद्याध्ययन के लिये जब वह गुरुकुल में प्रविष्ट हुई है तब उसकी आचार्या उसकी चेष्टाओं का नियन्त्रण करे। विवाह हो जाने पर उसका वरण करनेवाला पति नियन्त्रण करे। निः साविषत्=षू प्रेरणे अस्मात् पञ्चमलकारे ""लेटोऽडाटौ"" (अष्टा० ३।४।९४) इति अडागमः। ""सिब्बहुलम्"" (अष्टा० ३।१।३४) इति सिप्। स च णिद् वक्तव्यः (अष्टा० ३।१।३४) इति वचनाद् अचो ञ्णिति (अष्टा० ७।२।११५) इति वृद्धिः । आर्धधातुकस्येड् वलादेः (अष्टा० ७।२।३५) इति सिपः इडागमः (सायण)।] [१. वृणोति वियते वाऽसौ वरुणः (उणा० ३।५३, दयानन्द)। वर-कन्या का वरण करता है, और कन्या द्वारा वर का वरण किया जाता है [यह अर्थ है अधिभौतिक दृष्टि में, न कि आध्यात्मिक दृष्टि में]"
  81. [हे वधू !] (ते आत्मनि तन्वाम्) तेरी आत्मा में तथा तनू में या तेरी अपनी तनू में (यत्) जो (घोरम् अस्ति) जो घोर कर्म है, (यद् वा) या जो (केशेषु) केशोपलक्षित सिर में, (वा प्रतिचक्षणे) या प्रत्येक चक्षु में है, (तत् सर्वम्) उस सबको (वयम्) हम [अध्यात्मशक्तिसम्पन्न योगी] (वाचा अपहन्मः) मिलकर वाणी द्वारा नष्ट करते हैं, (सविता देवः) सर्वोत्पादक परमेश्वर देव (त्वा) तुझे (सूदयतु) घोर कर्मों से रहित करे। [सूदयतु= षूद क्षरणे (भ्वादिः), जैसे जल द्वारा मल क्षरित किया जाता है वैसे परमेश्वर, निजकृपा द्वारा तेरे घोरकर्मों को क्षरित कर दे।]
  82. (रिश्यपदीम्) हिरण के पैरोंबाली को, (वृषदतीम्) बैल के सदृश लम्बे दान्तोंवाली को, (गोषेधाम् ) गौ के सदृश शनैः-शनैः चलनेवाली को, (उत विधमाम्) तथा कल्कारादि विविध शब्द करनेवाली को (सायण)(विलीढ्यम्१-बिलीढीम्) विकृत१ स्वादोंवाली को, (ललाम्यम् =ललामीम् ) सौन्दर्यं प्रिया को, (ताः) उन सबको (अस्मत् ) हम अपने से (नाशयामसि) अदृष्ट करते हैं, इनसे विवाह नहीं करते। [रिश्यपदीम् = हिरण के सदृश छोटे पैरोंबाली को। गोषेधाम्= गौ + षिधु गत्याम् (भ्वादिः)। ललामीम्= जो अपने सौन्दर्य के लिए लगी रहे, अपने को सदा संवारणे में दत्तचित्ता रहे। नाशयामसि = णश अदर्शने (दिवादिः)।] [१. अथवा विविध प्रकार के आस्वाद चाहने वाली चटोरी को। वि+ लिह ( आस्वादने) (अदादिः)।]
  83. (विव्याधिनः) विविध प्रकार से वेंधनेवाले [शत्रु] (नः) हमें (मा)१ न (विदन्) जाने तक नहीं, (मो) न (विदन) जानें (अभिव्याधिन:) सम्मुख हुए वेंधनेवाले । (इन्द्र) हे इन्द्र ( अस्मत् ) हमसे (आरात्) दूर (विषूची:) नानाविध अञ्चन अर्थात् गमन करनेवाली ( शरव्या) शरसंहतीः अर्थात् शरसमूह को (पातय) प्रक्षिप्त कर, फेंक। "[समग्र सूक्त आध्यात्मिक भावनावाला है। तभी इसका ऋषि ब्रह्मा कहा है। ब्रह्मा है चतुर्वेदविज्ञ२ व्यक्ति । सांसारिक विषय ""विव्य धिनः"" हैं। हमारे आन्तरिक विषय, अर्थात् मनोगत विषय ""अभिव्याधिन"" हैं। दोनों प्रकार के विषय हमें वेधते हैं। इन्द्र द्वारा परमेश्वर अभिप्रेत है, जो कि पापियों के लिये रौद्ररूपवाला है।] [१. माङर्थकः ""मा"" शब्दः माङ्प्रतिरूपकः। २. ब्रह्मा परिवृढः श्रुतेन सर्वविद्यः सर्व वेदितुमर्हति (निरुक्त १।३।८)।]"
  84. (अस्मत्) हमसे (विष्वञ्चः) सर्वत्रगामी, (शरवः) हिंसक इषु (ये) जोकि (अस्ताः) फेंके जा चुके हैं, (ये च) और जो (आस्याः) भविष्य में फेंके जानेवाले हैं, (दैवी:) वे दिव्य भावनाएँ रूप इषु (मनुष्येषवः) तथा मननशील मनुष्य के मननरूप मानसिक विचाररूप इषु, (मम अमित्रान् ) मेरे साथ स्नेह न करनेवालों को (विविध्यत) विशेषतया वींधो। [इषु दो प्रकार के हैं– दैवी तथा मननशील मनुष्य के मानसिक मनन रूप। ये दोनों अमित्ररूप-काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि को वींधते हैं।]
  85. (यः) जो (न:) हमारा (स्वः) अपना अर्थात् मानसिक [शत्रु] है (य:) जो (अरण:) पर प्राप्त [शत्रु] है, ( सजात: ) जो समानकुलोत्पन्न है, (उत) तथा (निष्ट्यः) विजातीय कुल से प्राप्त हुआ है, (यः) इनमें से जो भी (अस्मान्) हमें (अभिदासति) उपक्षीण करता है, (रुद्रः) कर्मानुसार रुलानेवाला परमेश्वर (शरव्यया) निज शरसंहति द्वारा ( मम ) मेरे (अमित्रान्) अस्नेही काम, क्रोध आदि को (वि विध्यतु ) विविध प्रकार से वींधे। "[अरणः-अ+रण (शब्दे, भ्वादिः) अर्थात् जिनके साथ हमारा बोलना नहीं है, जिनकी बोली को हम समझते नहीं, अर्थात् परदेशी व्यक्ति । रुद्ररूप परमेश्वर की शरसंहति नानाविध है, नाना रोगरूप तथा नाना कष्टरूप। निष्ट्य:=निस्+त्यप् ""अव्ययात् त्यप्"" (अष्टा० ४।२।१०४)। अभिदासति= दसु उपक्षये (दिवादिः)।]"
  86. (यः) जो शत्रु (सपत्नः) सपत्नीवत् दुःखदायक है, (यः) जो (असपत्नः) सपत्नी से भिन्न साधन से प्राप्त हुआ है, (यः च) और जो शत्रु (द्विषन्) हमारे साथ अप्रीति करता हुआ, (नः) हमारे लिये (शपाति) शाप रूप है, (तम्) उस प्रत्येक शत्रु को (सर्वे देवा: ) सब दिव्य विचार (धूर्वन्तु) नष्ट करें, (ब्रह्म) परमेश्वर (मे) मेरा ( अन्तरम् ) आभ्यन्तरिक (वर्म) कवच है। कवचवत् रक्षक है परमेश्वर= उसकी उपासना तथा सदा ध्यान। अतः सूक्त आध्यात्मिक है।१ [१. राष्ट्रिय दृष्टि में सपत्नः है निजराष्ट्रोत्पन्न शत्रु, असपत्न है परराष्ट्रोत्पन्न शत्रु। ब्रह्म है ब्रह्मास्त्र अर्थात् महास्त्र। अन्तरम्= अन्तर ङीप् गुप्त, अभी तक अप्रकाशित।]
  87. (देव सोम) हे विजिगीषु सेनानायक! (अस्मिन् यज्ञे) इस युद्धयज्ञ में (अदारसृत् ) न विदारण कर सकनेवाले के सदृश हमारी ओर सरण करनेवाला (भवतु) शत्रु१ हो, (मरुतः) हे मारने में कुशल सैनिको ! (न:) हमें (मृडत) सुखी करो। (नः) हमें (अभिभा:) पराभव (मा विदत्) न प्राप्त हो, (मो अशस्ति) न अप्रशंसा अर्थात् पराभव से प्राप्त निन्दा प्राप्त हो। (मा नो विदत्) न हमें प्राप्त हों (वृजिना=वृजिनानि) पाप२ (द्वेष्या या = द्वेष्याणि यानि) जो कि हमें अप्रिय हैं । "[सोम= सेना का प्रेरक अर्थात् नायक सेनापति (यजु० १७।४९)। सोमः=षू प्रेरणे (तुदादिः)। देव= देवु क्रीड़ा ""विजिगीषा"" (दिवादिः) । मरुतः= मारने में कुशल सैनिक (यजु० १७।४७ ) । ये हैं तामसास्त्र फेंकने वाले सैनिक । तामसास्त्र शत्रु सैनिकों पर फेंका जाता है, जिससे वहाँ अन्धकार फैल जाता है और वे एक-दूसरे को न पहिचानते हुए, परस्पर का हनन करते हुए, मृत्यु को प्राप्त करते हैं (यजु० १७।४७)। तथा (यजु० १७।४०, ४४, ४५, ४७)। तथा (अथर्व० ६।३२।३)।] [१. जो हो तो निर्बल परन्तु अपने को प्रबल जानकर हम पर आक्रमण करता है। २. शत्रु द्वारा किये जानेवाले हम पर पापकर्म, हत्यारूप कर्म]"
  88. (अद्य) इस दिन [युद्ध में] (अघायूनाम् ) पापकर्म, अर्थात् परहत्यारूपी कर्म चाहनेवालों का (यः) जो (सेन्यः वधः) सेनासम्बन्धी वध कर्म (उदीरते) हमारे प्रति उद्गत होता है, उठता है, ( तम् ) उसे, (मित्रावरुणौ) हे मित्र और वरुण ! (युवम्) तुम दोनों ( अस्मत् परि) हमसे (यावयतम् ) पृथक् कर दो। "[मित्रावरुणौ=मित्र है हमारे साथ सन्धिप्राप्त परराष्ट्र का राजा, और वरुण है हमारे साथ सहानुभूति रखनेवाला परराष्ट्र का राजा। यथा ""इन्द्रश्च सम्राट वरुणश्च राजा"" (यजु० ८।३७)। यावयतम्=यु मिश्रणे अमिश्रणे च (अदादिः)। अमिश्रण अभिप्रेत है, अमिश्रण अर्थात् हमारे साथ मिश्रित न होना, हमसे पृथक् रहना।]"
  89. (वरुण) हे हमारे साथ सहानुभूति रखनेवाले परराष्ट्र के राजन् ! (यत् इतः च) जो इधर से (अमुतः च) ओर उधर से ( वधम्) प्राप्त होने वाले वधकर्म को (यावय) हमसे पृथक् कर। (महत् शर्म ) महासुख (वि यच्छ) विशेषरूप में हमें प्रदान कर। (वरीयः वधम् ) शत्रु द्वारा प्राप्य उरुतर वध कर्म को (यावय) हमसे पृथक् कर। [सन्धिप्राप्त मित्र राजा तो सन्धि के कारण महावध कर्म को पृथक् करने में तत्पर रहेगा ही, परन्तु वरुण के सम्बन्ध में निश्चित नहीं कि समय पर वह सहयोग देता है या नहीं, इसलिये उससे विशेष याचना की गई है। इतश्च अमुतश्च द्वारा सन्देह प्रकट किया गया है कि न जाने शत्रु हमारे राष्ट्र के किस ओर से आक्रमण करे, समीप की सीमा हो या दूर की सीमा हो।]
  90. (इत्था) सत्य है (महान् शासः) तू महाशासक (असि) है, (अमित्रसाहः) अस्नेहियों का अर्थात् शत्रुओं का पराभव करनेवाला है, (अस्तृतः) और उन द्वारा तु हिसित नहीं होता। (यस्य सखा) जिसका सखा (न हन्यते) नहीं होता, (न) और न (जीयते) वयोहानि को ( कदाचन ) कभी भी प्राप्त होता है। "[इत्था सत्यनाम (निघं० ३।१०)। साहः=षह१ मर्षणे (चुरादिः) । अस्तृतः२ = अ + स्तृञ् आच्छादने (क्र्यादिः)। आच्छादित होना, पराभूत होना। जीयते= ज्या वयोहानौ (क्र्यादिः)। वैदिक राजनीति इन्द्र अर्थात् सम्राट् और वरुण अर्थात् एक-एक राष्ट्र के पति का परस्पर सम्बन्ध है। अतः मन्त्र (३) में वर्णित बरुण द्वारा मन्त्र (४) में इन्द्र अर्थात् सम्राट् आक्षिप्त हुआ है, अतः मन्त्र ( ४) में सम्राट् को ही ""सत्य"" अर्थात् वास्तविक शासक कहा है।] [१. षह अभिभवे (सायण)। २. अस्तृतः में ह्रस्व ऋकारान्त के प्रयोग से ""स्तु"" धातु भी वेदानुमोदित है। सायण में ""स्तृ"" ह्रस्व ऋकारान्त ही पाठ है ""स्तृञ् हिंसायाम्""।]"
  91. (स्वस्तिदाः) कल्याणदाता, (विशांपतिः) प्रजाओं का पति ( वृत्रहा ) घेरा डालनेवाले शत्रु का हनन करनेवाला (विमृधः) शत्रुओं की विविध प्रकार से हिंसा करनेवाला, (वशी) शत्रुओं को निजवश में करनेवाला, (वृषा) सुखों की वर्षा करनेवाला, (सोमपाः) सेनाप्रेरक सेनानायक का रक्षक, (अभयंकरः) निर्भय करनेवाला, (इन्द्रः) सम्राट् ( न: पुरः एतु ) हमारा अगुआ हो। [विमृधः= मृध हिंसायाम् (भ्वादिः)। सोम= सेनानायक (यजुः० १७।४०)। वृत्रहा=वृञ् आवरणे (चुरादिः)। इन्द्रः= इन्द्रश्च सम्राट् (यजुः० ८।३७)।]
  92. (इन्द्र) हे सम्राट् ! (न: मृधः) हमारे [साथ ] संग्राम करनेवालों का (विजहि) विनाश कर, (पृतन्यतः) निज पृतना अर्थात् निज सेनाएँ चाहने-वालों को (नीचा यच्छ) हमारे नीचे नियन्त्रित कर ( य: अस्मान् अभिदासति) जो हमें नष्ट करता है उसे (अधमम्) निकृष्ट (तमः) अन्धकार (गमय) प्राप्त करा। [अधमम् तमः= भूमि के नीचे अन्धकारमयी जेलों में प्राप्त करा]
  93. (रक्षः) राक्षस स्वभाववाले शत्रु राजा का (विजहि) हनन कर, (मृधः) उसके संग्राम करनेवाले सैनिकों का (वि जहि ) हनन कर, ( वृत्रस्य) हमें घेरनेवाले सेनापति की (हनु) दोनों हुनुओं का (रुज) भंग कर। (वृत्रहन्) हम पर घेरा डालनेवाले का हनन करनेवाले, (अभिदासतः) हमारा उपक्षय करनेवाले (अमित्रस्य) शत्रु के (मन्युम्) क्रोध को ( इन्द्र) हे सम्राट्! (वि) विगत कर। अथवा विरुजः; रुजो भंगे (तुदादि:)।
  94. (इन्द्र) हे सम्राट् ! (द्विषतः) द्वेष करनेवाले के (मनः) मन अर्थात विचार को (अप) अपगत कर, (जिज्यासतः) हमारी वयोहानि चाहनेवाले के (वधम्) वधकारी आयुध को या मन के विचार का (अप ) अपगत कर दे। (महत् शर्म वि यच्छ) और महासुख विशेषरूप में हमें प्रदान कर। (वरीयः) उरुत्तर (वधम्) वघ को (यावय) हमसे पृथक् कर। [मन्त्र में वधम् के दो अर्थ प्रतीत होते हैं, वध अर्थात् हनन तथा बध का साधन आयुध। शर्म सुखनाम (निघं० ३।६ ) तथा गृहनाम (निघ० ३।४), गृह का अभिप्राय है आश्रय।]
  95. (अनु सूर्यम् ) सूर्य के उदय तथा अस्त होने के अनुसार (ते) तेरा (हृद्-द्योतः)हृदय का सन्ताप, (च) और (हरिमा) पीलापन अर्थात् कामला रोग [ये दोनों] (उदयताम् ) उड़ जाएँ । (तेन) उस ( रोहितस्य गोः वर्णेन) लाल सूर्य के वर्ण द्वारा (त्वा) तुझे ( परिदध्मसि) हम ढॉपते हैं। "[गो:=आदित्योऽपि गौरुच्यते ""उतादः परुषे गवि"" (ऋ० ६।५६।३); तथा (निरुक्त २ २।६)। प्रातः तथा सायम् सूर्य की रश्मियाँ लाल होती हैं, यथा (अथर्ववेदभाष्य २।३२।१)। हृद्-्द्योतः, हरिमा =ये दोनों रोग हृदय के खून की विकृति के कारण होते हैं।"
  96. (त्वा) तुझे (दीर्घायु१त्वाय) दीर्घ आयु के लिये, (रोहितै:) लाल रश्मियों के (वर्णेः) वर्णों द्वारा ( परिदध्मसि) हम ढाँपते हैं। (यथा) जिस प्रकार कि (अयम् ) यह ( अरपाः) पापजन्य रोग से रहित (असत्) हो, (अथो) तथा (अहरितः) पीलेपन२ से रहित (भुवत्) हो। "[असत्, भुवत् = दोनों पद लेट् लकार के हैं, अतः दोनों में अडागम हुआ है।] [१. आयु पद ""उकारान्त"" तथा आयूस ""सकाराग्त"" दोनों ठीक हैं। २. इस पीलेपन को jaundica कहते हैं। इस रोग में आँखों तथा त्वचा पर पीलापन हो जाता है। पीलापन पित्त की विकृति के कारण होता है। आयुर्वेद में इसे कामला कहते हैं।]"
  97. (याः) जो (देवत्याः रोहिणीः) दैवी लाल रश्मियाँ हैं, (उत) तथा (याः) जो (रोहिणी:) मानुषी लाल रश्मियाँ हैं, (रूपम्, रूपम् ) तेरे प्रत्येक रूप को, (वयः वयः) तथा प्रत्येक वयस् अथात् वाल, युवा, तथा वृद्धावस्था को, (ताभिः) उन रश्मियों द्वारा ( परि दध्मसि ) हम ढॉँपते हैं। इन अवस्थाओं में प्रकट विकृतियों के निराकरण के लिये। [देवत्याः= सूर्यसम्बन्धी लाल रश्मियां, तथा रोहिणी: अर्थात् मनुष्योत्पादित कृत्रिम लाल रश्मियाँ। रूपम् रूपम्= प्रत्येक वयः अर्थात् शरीरावस्था में प्रकट नया-नया रूप, अर्थात् बाल, युवा, तथा वृद्धावस्था के वयस् में प्रकट विकृत नया-नया रूप रोग। ताभिः यद्यपि स्त्रीलिंगी प्रयोग है, यह गो पद की दृष्टि से है। गो पद गोओं और बेलों इन दोनों में प्रयुक्त होता है। गो पद प्रायः स्त्रीलिङ्ग में प्रयुक्त होता है (आप्टेकोष)।]
  98. (ते) तेरे (हरिमाणम्) हरेपन को (शुकेषु) सिरीष वृक्षों में, (रोपणाकासु) तथा रोपण करनेवाली लताओं में (दध्मसि) हम स्थापित करते हैं। (अथो) तथा (हारिद्रवेषु) हरिद्रु अर्थात् हरिद्रा अर्थात् हरड़ के आयुर्वेदिक योगों में (ते हरिमाणम्) तेरे हरेपन को (नि दध्मसि) हम निहित करते हैं । [हरित् पद पीतवर्ण के लिए भी प्रयुक्त होता है (आप्टे कोष)। अतः हरिमा पद सम्भवत: पीतार्थक हो। तथा पीत ही कालान्तर में हरे वर्ण में परिणत हो जाता है। गाढ़ा पीतवर्ण ही सूर्यरश्मियों के सन्निधान में हरा हो जाता है। रोपणाकासु= रोपणं कुर्वन्तीति रोपणाकाः लताः, तामु। रोपण= चिकित्सा करना। सिरीषवृक्ष सम्भवतः हरेपन की औषध हो। सिरीष का अभिप्राय है इसकी जड़, फूल, पत्ते तथा स्वरस आदि।]
  99. (ओषधे) हे ओषधि ! (नक्तम् जाता असि) रात्री में पैदा तूं हुई है, (रामे, कृष्णे, असिक्नि च) हे कुछ काली, काली तथा असिता। (रजनि) हे रञ्जन करनेवाली ! (इदम्) इसे (यत् ) जोकि (किलासम् ) श्वेतकुष्ठ है (च पलितम्) और केशों का श्वेतपन है, उसे (रजय) रञ्जित कर। "[कौशिक सूत्रों में केवल असिक्नी का वर्णन हुआ है। सायण के अनुसार ""ओषधि"" हरिद्रा अर्थात् हरड़ है; रामा है भृंगराज ओषधि; कृष्णा है इन्द्रवारुणी; असिक्नी है नील। रजनि और रजय= रञ्ज रागे (भ्वादिः), तथा (दिवादिः)।]"
  100. (पृषत् ) सिंचित हुए (किलासम् च) श्वेत कुष्ठ रोग को, (पलितम् च) और सुफैद केशों को, (इतः) इस रुग्ण से (निर् नाशय) निरवणेष नष्ट कर (त्वा स्वः वर्णः) हे रुग्ण ! तुझे अपना स्वाभाविक वर्ण (आ विशताम्) प्रविष्ट हो, (शुक्लानि परापातय) हे ओषधि तूं शुक्लवर्णों को पराङ्मुख करके उनका पतन कर। [पृषत्१= पृषु सेचने (स्वादिः)। श्वेत कुष्ठ पककर जब उससे पीप का स्राव होता हो।] [१. पृषत्-बिन्दु या विन्दुसमूह प्रकरणानुसार श्वेतकुष्ठ के। पृषत् (उणादि २।८५; ३।१११)। पृषु सेचने (भ्वादिः), पर्षति सिंचति तत् पृषत् (२।२५, उणादिः दयानन्द)।]
  101. (ते) तेरी [जड़] के (प्रलयनम् ) लीन होने अर्थात् छिपने का स्थान (असितम् ) सित नहीं है, (तव) तेरा (आस्थानम् ) स्थित होने का स्थान (असितम्) सित नहीं है। (ओषध) हे ओषधि ! (असिक्नी असि) तूं भी असिक्नी है, सिता नहीं है। (इतः) इस रुग्ण से ( पृषत् ) सिंचित हुए श्वेत कुष्ठ को (निर् नाशय) निरवशेष रूप में तूं विनष्ट कर। [ओषधि की जड़ काले स्थान पृथिवी के स्तर से नीचे है, वह सित नहीं है। तथा ओषधि की शाखाप्रशाखा के फैलने का स्थान भी पृथिवी का उपरिस्थल है, जोकि सित नहीं है। तथा ओषधि स्वयम् भी सिता नहीं है। असिक्नी= अशुक्ला (निरुक्त ६।८।२)। अशुक्ला= असिता, सितमिति वर्णनाम तत्प्रतिषेधोऽसितम् (निरुक्त ६।८।२)। निरुक्त में असिक्नी पद यद्यपि नदीवाचक है, और अथर्ववेद में रोगवाचक है, तथापि दोनों स्थानों में यौगिकार्थ समान ही है।
  102. (अस्थिजस्य) अस्थि में उत्पन्न हुए, (तनूजस्य) तनू में उत्पन्न हुए, (च) और (त्वचि) त्वचा में हुए, ( दुष्या) दूषित कृति द्वारा ( कृतस्य) किये गये, (श्वेतम् ) श्वेत-कुष्ठ रूपी (लक्ष्म) चिह्न को, (ब्रह्मणा ) वेदोक्त विधि द्वारा (अनीनशम् ) मैंने नष्ट कर दिया है। "[दूषित कृति= दूषित अर्थात् बुरा कर्म। अनीनशम्= नश अदर्शने, लुङ् लकार, च्लि को चङ्।] [विशेष वक्तव्य-- कौशिक सूत्रानुसार सूक्त का देवता असिक्नी है। अतः सूक्त का देवता एक ही है। अतः मन्त्र (१) में राम और कृष्णे पद असिक्नी के ही विशेषण हैं । सायण ने इन्हें पृथक्-पृथक् औषधियाँ माना है। ""रजनी"" पृथक ओषधि प्रतीत होती है, जिसे कि कौशिक-विनियोग में वनस्पति पद द्वारा दर्शाया है। मन्त्र (३) में भी असिक्नी को ही ओषधि कहा है, रामे कृष्णे को स्वतन्त्र रूप में पृथक्-पृथक् वर्णित नहीं किया।]"
  103. (सुपर्णः) उत्तम पणों अर्थात् पंखोंवाला [गरुड़] (प्रथमः) आदिभूत हुआ, अथवा (प्रथमः प्रतमः) प्रकृष्टतम अति प्रकृष्ट, (जातः) उत्पन्न हुआ, (तस्य) उसकी (त्वम्) तू [हे ओषधि !] (पित्तम् ) पित्तरूप (आसिथ) हुई थी। (तत् ) वह पित्त ( आसुरी) प्राणवान् मनुष्य की शक्तिरूपा हुआ, (युधा) उसने युद्ध द्वारा (जिता)१ किलास रोग पर विजय पाई और (वनस्पतीन्) वनस्पतियों को (रूपम्)२ निज पित्त रूप (चक्रे) कर लिया। [अभिप्राय यह कि गरुड़ पक्षी के शरीर से प्रथम या प्रकृष्टतम पित्त पैदा हुआ था। वह पित्त आसुरी शक्तिरूप हुआ। आसुरी =असुरत्वम् प्राणवत्त्वम् (अनत्रत्वम्), अन प्राणने (अदादिः)। (निरुक्त १०३।३४)। वह आसुरी शक्ति है वनस्पतियाँ, रोगनिवारक ओषधियां।] [१. जितवती, जि जये अस्मात् कर्तरि क्तः (सायण)। २. अर्थात् वनस्पतियाँ भी पित्त का काम करती है। पित्त द्वारा भुक्तान्न का परिपाक होता है। पित्त के क्षीण हो जाने पर वनस्पतियाँ भी पित्त की क्षीणता को निवारित कर देती हैं। मन्त्र में युधा द्वारा पित्त की प्रबल शक्ति दर्शाई है। जैसे कोई प्रवल व्यक्ति युद्ध द्वारा निर्बल पर विजय पा लेता है वैसे पित्त ने, वनस्पतियों की अपेक्षा क्लास पर विजय पाई, उसे निराकृत किया।]
  104. (आसुरी) मन्त्र (१) में कथित प्राणवान् मनुष्य का शक्तिरूप पित्त (प्रथमा) मुख्य शक्तिरूप हुआ, इसने (इदम्) इस (किलासभेषजम्) किलासौषध को (चक्रे) उत्पन्न किया [अर्थात् वह किलास का मुख्य भेषज हुआ], (इदम्) यह पित्त (किलासनाशनम्) किलास का नाशक हुआ (अनीनशत् किलासम्) इसने किलास को नष्ट किया और ( त्वचम्) त्वचा को ( सरूपाम् ) समानरूपवाली (अकरत्) कर दिया। अर्थात् किलास१ को नष्ट कर समग्र त्वचा को समानरूपवाली कर दिया। एकरूपवाली कर दिया [अर्थात् किलास के चिह्नों को भी मिटा दिया।] [मन्त्र में आसुरी और पित्तम् को पर्यायवाची रूप में वर्णित किया है। अतः दोनों में लिङ्गभेद की उपेक्षा हुई है।] [१. किलास है श्वित्र अर्थात् श्वेत कुष्ठ (सायण)।]
  105. (ते माता) तेरी माता (सरूपा) समान अर्थात् एकरूपवाली (नाम) प्रसिद्ध है, (ते पिता) तेरा पिता (सरूपः) समान अर्थात् एकरूपवाला (नाम) प्रसिद्ध है। (ओषधे) हे ओषधि! (त्वम्) तु (सरूपकृत्) समान अर्थात् एकरूपवाला कर देती है। (सा) वह तु ( इदम् ) इस शरीर को ( सरूपम् ) समान अर्थात् एकरूपवाला (कृधि) कर। [ओषधि है असिक्नी (अथर्व १।२३।१)। इसकी माता है पृथिवी। वह सरूपा है, एकरूपवाली है। इसका पिता है द्यौ: । वह भी एकरूपवाला है, शुक्लरूपवाला।]
  106. (श्यामा) श्यामवर्णवाली, (सरूपंकरणी) समान अर्थात् एकरूप कर देनेवाली [ओषधि], (पृथिव्या अधि) पृथिवी से (उद्भृता) उद्धृत हुई है। (इदम्) इस शरीर को (सु) उत्तम प्रकार से ( प्र साधय ) तू ठीक कर दे, (पुनः) अर्थात् फिर से (रूपाणि) इसके भिन्न-भिन्न रूपों को (कल्पय) एक- रूप कर दे। [श्यामा ओषधि है असिक्नी (अथर्व० १।२३।१)।]
  107. (अग्निः) ज्वराग्नि (यत्) जो (आपः= अपः) शारीरिक रक्त तथा रसों में (प्रविश्य) प्रविष्ट होकर (अदहत्) शारीरिक रक्त तथा रसों को दग्ध कर देती है, उन्हें सुखा देती है। (यत्र) तथा जिस जठराग्नि में (धर्मधृतः) धारण-पोषण करनेवाले अन्न का, धारण-पोषण करनेवाले अन्नभक्षक, (नमांसि) अन्नों को (अकृण्वन्) धारित करते हैं, ( तत्र) उस जठराग्नि१ में [हे ज्वराग्नि !] (ते) तेरा ( परमं जनित्रम् ) परम जन्म होता है, (आहु:) यह चिकित्सक कहते हैं, (संविद्वान्) सम्यक् अर्थात् उग्ररूप में वहाँ तू विद्यमान रहती है, [हे ज्वराग्नि ] (सः) वह तु (नः) हमें, (तक्मन् ) हे जीवन को कृच्छ करनेवाली ज्वराग्नि ! (परि वृङ्ग्धि) पूर्णतया परित्यक्त कर दे। वृजी वर्जने (रुधादिः)। [आपः= शारीरिक रक्त-रस (अथर्व० १०।२।११)। यह ज्वराग्नि मलेरिया ज्वररूपी अग्नि है। यह उग्ररूप होकर शारीरिक रक्त-रसों को सुखा कर रोगी को निर्बल कर देती है। नमांसि=नम अन्ननाम (निघं० २।७), तथा नमांसि अन्ननामैतत् ( सायण)।] [१. जठरं व्याधि मन्दिश्य।]
  108. "[हे ज्वराग्नि !] (यदि अर्चि:) यदि तू ज्वालारूप है, (यदि वा असि) अथवा यदि तु (शोचिः) शोकजनिका अथवा शरीरसम्बन्धी सन्तापरूप है। (शकल्येषि)१ यदि शकलों अर्थात् काष्ठसमूह को चाहनेवाली अग्नि के सदृश तु है, (यदि वा) अथवा (ते जनित्रम्) इनमें से कोई तेरा जन्मदाता है, (ह्रूडु: नाम असि) तू ह्रू डु नामवाली है। (देव) हे दीप्यमान ज्वराग्नि ! तू (हरितस्य) पीतवर्ण का (ह्रू डु:) ""ह"" अर्थात् निश्चय से ""रूडु"" रोहण२ करनेवाली है (संविद्वान् ) सम्यक अर्थात् उग्ररूप में विद्यमान तु है । (तक्मन्) हे जीवन को कृच्छ्र अर्थात् कष्टमय करनेवाली ज्वराग्नि ! (नः परिवृङ्ग्धि) हमें तू परित्याग दे। तक्मन् =तकि कृच्छ्र जीवने (भ्वादिः)।" [१. शकलानां समूहः शकल्यः, शकल्य दाह्यं काष्ठसमूहम् इन्दतीति शकल्येद् अग्निः; इषु इच्छायाम् (सायण)। २. रोहण =प्रादुर्भाव, प्रकट होना; रुह बीजजन्मनि प्रादुर्भावे च (भ्वादिः)।]
  109. [हे शीत ज्वर !] (यदि शोकः) यदि तू शरीरान्तर्वर्ती सन्ताप है, (यदि वा अभिशोक:) अथवा शरीरान्तर्वर्ती समग्र अङ्गों का सन्ताप है, (यदि वा) अथवा यदि तु (वरुणस्य राज्ञ:) जलाधिपति वरुण राजा का (पुत्रः असि) पुत्र है शेष पूर्ववत् (मन्त्र २)। "[शीत ज्वर में त्वचा तो शीत होती है, परन्तु शरीर के अभ्यन्तर भाग सन्तप्त होते हैं। वरुण है ""अपामधिपति:"" (अथर्व० ५।२४।४)। आपः शीत होते हैं, इसलिये शीत ज्वर को वरुण-राजा का पुत्र कहा है। तथा आपः में मच्छर पैदा होते हैं, जोकि मलेरिया ज्वर के उत्पादक हैं। शरीर में भी जब जल का अनुपात बढ़ जाता है तो मलेरिया का आक्रमण होता है। शरीर में जल को साम्यावस्था में लाने के लिये होम्योपेथी में Natrum mur तथा Natrum sulpha दो दवाइयाँ प्रायः दी जाती हैं। ये दो दवाइयां बायोकेमिक हैं।]"
  110. (शीताय तक्मने) शीत ज्वर के लिये (नमः) वज्रपात हो, अथवा अन्नाहुतियाँ हों [उसके अपाकरण के लिये]। (रूराय) रेषक अर्थात् हिंसक (शोचिषे) सन्तापक तक्मा के लिये (नमः) वज्रपात या अन्नाहुतियाँ (कृणोमि) मैं करता हूँ। (यः ) जो शीत ज्वर (अन्येद्युः) एक दिन (उभयद्यु:) दो दिन (अभ्येति) आता है, (तृतीयकाय) तथा तीसरे दिन आता है, उस (तक्मने) ज्वर के लिये (नमः अस्तु) वज्रपात या अन्नाहुतियाँ हों। [नमः वज्रनाम; अन्ननाम (निघं० २।२०,२।७)। वज्रपात का अभिप्राय है नाश करना; तथा अन्नाहुतियों का अभिप्राय है यज्ञियाग्नि में ज्वर के अपाकरण के लिये यथोचित हविष्यान्न की आहुतियाँ देना। रूराय=रुङ् गतिरेषणयोः (भ्वादिः) रेषण= हिंसन, विनाश।]
  111. (देवासः) हे देवो! (असौ हेतिः) वह प्रेरित आयुध (अस्मत्) हमसे (आरे) दूर रहे। (आरे) दूर (असत्) हो ( अश्मा ) पत्थर अर्थात् वज्र (यम्) जिसको (अस्यथ) तुम फेंकते हो। "[देवासः= विजिगीषु हमारे सेनापति आदि; ""दिवु क्रीड़ा विजिगीषा"" आदि (दिवादिः)। निज सेनापति आदि से कहा है कि तुम हेति अर्थात् आयुध को इस प्रकार शत्रु पर फेंको कि उसका दुष्परिणाम हम पर न हो। अश्मा ही हेति है, अश्मा अशूङ् व्याप्तौ (स्वादिः)। यह ऐसा अस्त्र है जिसका कि दुष्परिणाम शत्रु पर और हम पर भी हो सकता है। अत: निजसेनापतियों को सावधान किया गया है। तामसास्त्र का दुष्परिणाम हम पर और शत्रु पर, दोनों पर हो सकता है। तामसास्त्र है अन्धकार फैला देनेवाला अस्त्र (अथर्व० ३।२।५, ६)।]"
  112. (असौ) वह (रातिः) दाता परमेश्वर (अस्मभ्यम्) हमारे लिये (सखा) मित्र (अस्तु) हो (इन्द्रः) परमेश्वर्यवान् परमेश्वर (भगः) भजनीय परमेश्वर, (सविता) सर्वोत्पादक परमेश्वर तथा (चित्रराधा:) चित्र-विचित्र धनवाला परमेश्वर (सखा अस्तु ) हमारे लिये सखा हो। "[रातिः आदि परमेश्वर के नाम हैं। परमेश्वर और जीवात्मा परस्पर सखा हैं, ""द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते"" (९।१४।२०)। समानवृक्ष है संसार। ये दोनों परस्पर सखा हैं- इस सत्य का ही कथन मन्त्र में हुआ है। चित्रराधाः= राधः धननाम (निघं० २।१०)। परमेश्वर के धन चित्र-विचित्र हैं, नानाविध हैं। यह समग्र संसार उसका धन है, जोकि नानाविध वस्तुओं से भरपूर है।]"
  113. (प्रवतः) प्रकृष्ट गुणोंवाले व्यक्ति का ( नपात् ) न पात करनेवाले हे परमेश्वर! (सूर्यंत्वचसः) तथा सूर्य की त्वचा के सदृश त्वचावाले (मरुतः) शत्रु को मारनेवाले हे सैनिको! (यूयम्) तुम (न:) हम प्रजाजनों को (सप्रथाः) विस्तृत (शर्म) सुख या गृह (यच्छाथ) प्रदान करो। [परमेश्वर प्रकृष्ट गुणोंवाले मनुष्य का पात नहीं करता, अपितु उसका उद्धार करता है, उसे समुन्नत करता है, सुखी करता है। नपात्= न पातयिता (सायण) । मरुतः= म्रियते मारयति वा स मरुत्, मनुष्यजाति: (उणादिः १।९४ दयानन्द)। ये सैनिक हैं जोकि युद्ध में मरते भी हैं और शत्रु को मारते भी हैं। ये सूर्यत्वचसः हैं, सूर्य की पृष्ठ के समान तेजस्वी, चमकीले। युद्ध के शस्त्रास्त्रों को धारण करने से उनकी चमक द्वारा चमकने वाले। ये प्रजाजनों की रक्षा कर उन्हें विस्तृत अर्थात् महासुख प्रदान करते तथा उनके राष्ट्रगह का विस्तार करते हैं, राष्ट्रगह की सीमाओं को बढ़ाते हैं। शर्म=सुखनाम तथा गृहनाम (निघं० ३।६ तथा ३।६)।
  114. [हे मरुतः, सैनिको! मन्त्र (३)] तुम (सुषूदत) शत्रुओं पर वाणों को क्षरित करो, फेंको (मुडय) तथा हे परमेश्वर, मन्त्र (३) तू सुख प्रदान कर (न:) हमारे (तनूभ्यः) शरीरों के लिये तथा हमारे (तोकेभ्यः) सन्तानों के लिये (मयः) सुख (कृधि) कर। [सुषूदत=षूद क्षरणे (भ्वादिः)। मयः सुखनाम (निघं० ३।६) । तोकम् अपत्यनाम (निघं० २।२) । मृड सुखने (तुदादिः)।]
  115. (अमू:) वे जो (पारे) हमारी दैशिक सीमा से पार (निर्जरायवः) जरावस्था से रहित, (त्रिषप्ताः) त्रिविध या सप्तविध (पृदाक्वः) सर्पणियों के सदृश [शत्रुसेनाएँ] हैं। (तासाम् ) उन सेनाओं की (जरायुभिः) वस्तुतः जीर्णतावस्थाओं के कारण, (वयम्) हम (अक्ष्यौ अपि ) दोनों आंखों को भी (व्ययामसि) संवृत कर देते हैं, ढाँप देते हैं, सेनाएँ जोकि (अघायो:) अप अर्थात् पाप के परिणामरूपी हननकर्म को चाहनेवाले, (परिपन्थिनः) परिवर्जित पथवाले [शत्रुराजा] की हैं। [मन्त्रस्थ जरायु पद गर्भस्थ शिशु का आवरण करनेवाली झिल्ली का वाचक नहीं। प्रकरणानुसार जरायु पद भिन्नार्थक है। शत्रुसेनाएँ त्रिविध हैं, [पदाति, अश्वारोही तथा रथाश्वारोही] । तथा सप्तविध हैं सप्ताङ्ग प्रकृति, यथा स्वाम्यामात्यसुहृत्कोशराष्ट्रदुर्गवलानि (आप्टे)। ये सप्त भी शत्रु राजा की सेनाओं के उपकारी होने से सेनारूप कहे हैं। परि= अपपरी वर्जने (अष्टा० १।४।२८) युद्ध का पथ अर्थात् मार्ग वैदिक राजनीति में परिवर्जित है, यह केवल आपद्धर्म१ है। आँखों को संवृत करना अर्थात् ढाँपना वैदिक तामसास्त्रों द्वारा होता है (अथर्व० ३।२।५,६)।] [१. शत्रु द्वारा आक्रमण होने पर तत्प्रतीकाररूप है। आत्मरक्षार्थ है।]
  116. (पिनाकम् इव बिभ्रती) नाकस्थ धनुष के सदृश धनुष को धारण करती हुई, (कृन्तती) काटती हुई [शत्रुसेना] (विषूची) नाना दिशाओं में गमन करती हुई (एतु) चली जाय, नानामुखी हो जाय, विप्रकीर्ण हो जाय। (पुनर्भुवा) यदि शत्रुसेना पुनः एकत्रित हो जाय तो (मनः) उनका एकीभूत मन अर्थात् संकल्प (विष्वक्) भिन्न-भिन्न हो जाय, अर्थात् परस्पर विरुद्ध हो जाय, (अघायवः) अघ अर्थात् पापरूपी युद्ध-कर्म चाहते हुए शत्रु (असमृद्धाः) समृद्धिरहित हो जायें। [पिनाकम्= नाकस्थ इन्द्रधनुष के समान बड़ा धनुष, समृद्ध धनुष्१।] [१. पिनाकम् =पि गतौ (तुदादिः)+नाकम् दुःखरहित लोक (निरुक्त २।४।१४)। गतिः= प्रगत अर्थात् व्याप्त। पिनाकामव ऐश्वर्य धनुरिव (सायण)। ऐश्वर्यधनुः, सम्भवतः वर्षा ऋतु में आकाश में दृश्यमान इन्द्रधनुष के समान। यह इन्द्रधनुष् परमेश्वरकृत है, अतः परमेश्वरीय है।]
  117. (बहवः) बहुसंख्यक शत्रु (न समशकन्) हमें पराजित करने में, परस्पर संघीभूत हुए, समर्थ नहीं हुए। (अर्भका:) अल्पसंख्यक शत्रुओं ने तो (अभि) अभिमुख हमारे होकर (न दाधृषुः) यह धृष्टता ही नहीं की। (अघायवः) अघ अर्थात् पापरूपी युद्धकर्म चाहते हुए शत्रु, (वेणोः) बाँस से (अभितः, इव उद्गाः) शाखा-प्रशाखारूप में सब ओर उठी हुई, फैली हुई (इव) के सदृश (असमृद्धाः) समृद्धिरहित हुए हैं, तितर-बितर हुए हैं।
  118. (पादौ) हे दो पैरो ! (प्रेतम्) आगे बढ़ो, (प्रस्फुरतम् ) स्फूर्ति करो, (पृणतः) सेना के पालक शत्रु के ( गृहान् ) घरों की ओर ( वहतम्) हमें ले चलो, या पहुँचाओ। (प्रथमा ) मुखिया, (अजीता) वयोहानि को अप्राप्त, (अमुषिता) अपराजिता (इन्द्राणी) सम्राट् की पत्नी (पुरः ) आगे (एतु) चले। [इन्द्र =सम्राट, इन्द्रश्च सम्राट् (यजु:० ८।३७) । इन्द्राणी = सम्राट् की पत्नी । साम्राज्य में यह महिलाओं में मुखिया है, सम्राट् की पत्नी होने से। सम्राट् शक्तिशाली है, उसकी पत्नी होने से इन्द्राणी भी शक्तिसम्पन्ना है, साम्राज्य की सब शक्तियाँ इसकी सहायिका हैं। यह सेना के आगे-आगे चलती है। इससे सैनिकों को स्फूर्ति मिलती है, उनका उत्साह बढ़ता है। अजीता=अ+ज्या वयोहानी (क्र्यादिः)। अमुषिता= अ + मुष स्तेये (क्र्यादिः)। शत्रु द्वारा छल-कपट से जिसकी शक्ति अपहृत नहीं हुई।]
  119. "(रक्षोहा) राक्षसी कर्म करनेवाले शत्रु सैनिकों का विनाश करनेवाला (अग्निः देवः) अग्रणी देव (उप प्रागात्) हमारे समीप आ गया है, (अमीवचातनः) जोकि शत्रु द्वारा उत्पादित रोगों का शान्त करनेवाला है। वह (द्वयाविनः) वाणी में अन्यत् और कर्म में अन्यत् इस प्रकार द्विविध चालों वालों को तथा (यातुधानान्) यातनाओं के निधिभूत या यातनाओं के परिपोषकों (किमीदिनः ) ""किम् इदानीम्"" इस प्रकार के प्रश्नों द्वारा भेद लेनेवाले शत्रु सैनिकों को (अपदहन्, अपदहत्) दग्ध करे अथवा ""दहन् उप प्रागात् ।""" "[मन्त्रवर्णन से अग्निदेव चेतन प्रतीत होता है। वह प्रधानमन्त्री है, जोकि देव है, दिव्यगुणी है। वह राक्षसी स्वभाववाले शत्रुसैनिकों का हनन करता तथा राष्ट्र के रोगों का शमन करता है। मन्त्र में चातनः पद देख कर सूक्त का ऋषि ""चातन''१ कह दिया है, वास्तविक ऋषि अज्ञात प्रतीत होता है।] [१. ""चातनः"" यह नाम सूक्तद्रष्टा ऋषि ने स्वयं अपना औपाधिक नाम चुन लिया है, या उसके माता-पिता ने नामकरण संस्कार के समय रखा है। तदनुसार विनियोगकार ने सूक्त का ऋषि ""चातन"" मान लिया है। इसी प्रकार की भावना उन सूक्तों में भी समझनी चाहिए जिनमें कि मन्त्रगत ऋषिनाम को सूक्त का द्रष्टा ऋषि विनियोगकार ने कहा है।]"
  120. "हे प्रधानमन्त्रिन् ! (यातुधानान्) यातनाओं के निधिभूत या यातनाओं के परिपोषक सैनिकों को (प्रतिदह) प्रत्येक को दग्ध कर, (किमीदिनः ) ""किम् इदानीम्"" इस प्रकार प्रश्नपूर्वक भेद लेनेवालों में से (प्रतिदह) प्रत्येक सैनिक को दग्ध कर। (कृषणवर्तने) कृष्णवर्ताव करनेवाले सेनाधिपति के प्रति कृष्णवर्ताव करनेवाले हे प्रधानमन्त्रिन् ! (प्रतीची:) प्रतिकूल चालों वाली (यातुधान्यः) यातनाओं के निधिभूत सेनाओं को (सं दह) सम्यक् दग्ध कर।"
  121. (या) जो [शत्रु की सम्राज्ञी] (शपनेन) शाप द्वारा (शशाप) शाप देती है, (या) जो ( मूरम् ) मूलभूत ( अघम् ) हत्यारे कर्म को ( आदधे) निज जीवन में आधान करती है, (या) जो (रसस्य ) विषयों की प्यास बुझाने के लिए (जातम् ) बच्चों को (आरेभे) मार डालती है और (सा) वह (तोकम्) अपनी सन्तान को (अत्तु) खा जाती है।
  122. (यातुधानीः) यातुधानी स्त्री (पुत्रमत्तु) पुत्र को खाए१ (स्वसारम्) निज बहिन को (उत) तथा (नप्त्यम्) नातिन को खाए। (अध) तथा (विकेश्यः) बिखरे केशोंवाली हुई, (मिथः) परस्पर (विघ्नताम्) विशेष रूप में हनन करें, (यातुधान्यः) यातुधानी स्त्रियाँ ( अराय्यः ) एक-दूसरे को कुछ न देती हुई परस्पर शत्रुरूप हो जाएँ। विघ्नताम् = अथवा परस्पर के कार्यों में विघ्न पैदा करें। "[विकेश्यः द्वारा यातुधानियों की उन्मत्तता को सूचित किया है। देखो मन्त्र (३) में ""मूरम्"" पद। इन यातुधानियों के तोक, नाती तथा स्वसाएँ भी हैं। अतः ये मानुषी हैं। मनुष्यजाति के ही भिन्न-भिन्न वर्ग की हैं। अराय्यः अ+रा [दाने]+ युक् (अष्टा० ७।३।३३ )] [१. सूक्त का अर्थ सायणकृत अर्थ के आधार पर किया है। ब्रह्मा है चतुर्वेदविद् विद्वान्। यथा ""ब्रह्मा त्वो वदति जातविद्याम्"" (ऋ० १०।७१।११) तथा ""ब्रह्मैको जाते जाते विद्यां वदति। ब्रह्मा सर्वविद्यः सर्वं वेदितुमर्हति। ब्रह्मा परिवृढः श्रृततः"" (निरुक्त १।३।८)।]"
  123. (येन) जिस (अभीवर्तेन) परराष्ट्र की ओर या सम्मुख प्रवृत्त होनेवाले सेनाधिपति रूप (मणिना) पुरुष-रत्न द्वारा (इन्द्रः) सम्राट् (अभिवावृधे) सब ओर बढ़ा, वृद्धि को प्राप्त हुआ है, (तेन) उस पुरुष-रत्न के सहयोग द्वारा (ब्रह्मणस्पते) हे वेदपति, वैदिक विद्वान् ! (अस्मान्) हम राष्ट्रपतियों को, (राष्ट्राय) राष्ट्रोन्नति के लिये, (अभिवर्धय) अभिवृद्ध कर । "[इन्द्रः = सम्राट (यजु:० ८।३७ ) यथा -""इन्द्रश्च सम्राट्, वरुणश्च राजा।"" वरुण है प्रत्येक राष्ट्र का निर्वाचित राष्ट्रपति, और इन्द्र है राष्ट्र समूहों का निर्वाचित साम्राज्य या अधिपति। ब्रह्मणस्पति है वैदिक विद्वान्, ब्रह्मा। प्रत्येक राष्ट्र में नियत ब्रह्मा तत्-तत् राष्ट्र के धर्मकार्यों का निर्वारण करता है। प्रत्येक राष्ट्र की धार्मिक उन्नति द्वारा मानो वह साम्राज्य की सामूहिक उन्नति में सहायक होता है। अभिवर्तते अनेन इति अभीवर्तः सेनाधिपतिः। यह साम्राज्योन्नति के लिये मणिरूप है, रत्नरूप है। ""जातौ जातौ यदुत्कृष्टं तद् रत्नमभिधीयते"" (आप्टे)।]"
  124. [हे अभीवर्त सेनाधिपति !] (सपत्नान्) मुझ राजा की, सपत्नी के समान वर्तमान परस्पर विद्रोही प्रजाजनों को ( अभिवृत्य) घेरकर, ( या: नो अरातयः) जो राज्य-कर नहीं देते अतः हमारे शत्रु हैं उन्हें (अभि, वृत्य) घेरकर, (यः नो दुरस्यति) जो हमारे साथ दुष्टकर्म [ युद्ध ] करना चाहता है (अभि, वृत्य) उसे भी घेरकर, तथा (पृतन्यन्तम्) सेना का संग्रह करना चाहते हुए को (अभि, वृत्य) घेरकर (तिष्ठ) उस-उसका तू अधिष्ठाता हो जा। उन्हें निजपादाधीन कर। [अभिवृत्य= अभि + वृञ् आवरणे। पृतन्यन्तम् = पृतनां सेनाम् आत्मनः इच्छन्तम्, पृतना+ क्यच्। कव्यध्वरपृतनस्यर्चि लोपः (अष्टा० ७।४।३९) इत्याकारलोपः। दुरस्यति= दुष्टं कर्म कर्तुमिच्छति, दुष्टशब्दस्य दुरस् भावः (अष्टा० ७।४।३६) । सपत्नान् = एक ही राजा के राज्य में वर्तमान परस्पर विद्रोही प्रजाजन।]
  125. [हे सेनाधिपति !] (देवः) धन देनेवाले (सविता) ऐश्वर्य के अधिष्ठाता कोषाध्यक्ष ने (त्वा) तुझे (अभि, अवीवृधत्) बढ़ाया है, (सोमः) सेनाध्यक्ष ने (अभि, अवीवृधत्) तुझे बढ़ाया है। (विश्वा भूतानि ) राष्ट्र की सब भौतिक शक्तियों ने (त्वा अभि अवीवृधन्) तुझे बढ़ाया है। जिस प्रकार कि तू (अभीवर्तः) शत्रु की ओर प्रवृत्त होने वाला (अससि) हो सके। [देव:=दानाद् वा (निरुक्त ७।४।१४)। सविता= षु प्रसवैश्वर्ययोः (भ्वादिः), ऐश्वर्य अर्थ अभिप्रेत है। ऐश्वर्य का अधिष्ठाता है राज्य का कोषाध्यक्ष। सोमः= सेना का प्रेरक, सेना के आगे-आगे चलनेवाला सेना नायक (यजु:० १७।४९)। विश्वा भूतानि = राष्ट्र की सब शक्तियां अर्थात् खनिज पदार्थ, वन्य पदार्थ तथा कृषिजन्य पदार्थ आदि।]
  126. (अभीवर्तः) शत्रु की ओर प्रवृत्त हुआ, (सपत्नक्षयण:) शत्रु का क्षय करनेवाला, (मणिः) सेनाधिपति रूप पुरुष रत्न ( अभिभवः) शत्रु का पराभव करता है । (राष्ट्राय) राष्ट्रोन्नति करने के लिये, (सपत्नेभ्यः पराभूवे) तथा शत्रुओं के पराभव के लिये, ( मह्यम् ) मेरे साथ (बध्यताम् ) दृढ़ बन्धन में वह बद्ध हो जाय। [मन्त्र में राष्ट्रपति अपने साथ सेनाधिपति के दृढ़ बन्धन की अभिलाषा करता है।]
  127. "(असौ सूर्यः उद् अगात्) वह सूर्य उदित हुआ है, (मामकम् ) मेरा (इदम् वचः) यह वचन भी (उद् अगात्) उदित हुआ है, (यथा) ""जिस प्रकार कि (अहम्) मैं (शत्रुहः) शत्रु का हनन करनेवाला (असानि) हो जाऊँ, (असपत्नः) शत्रुरहित हुआ (सपत्नहा) शत्रु का हनन करनेवाला हो जाऊँ।"""
  128. (सपत्नक्षयणः) सपत्न-शत्रु का क्षय करनेवाला, (वृषा) तथा सुखवर्षा करनेवाला (अभिराष्ट्र:) शत्रुराजा के राष्ट्र को अभिगत अर्थात् प्राप्त हुआ, (विषासहिः) अवशिष्ट शत्रुओं का भी पराभव करनेवाला [मैं हो जाऊँ]। (यथा) जिस प्रकार कि (अहम् ) मैं (एषाम् वीराणाम् ) इन सैनिक वीरों का ( च ) और ( जनस्य) जनता का ( विराजानि) मैं विशेष प्रकार से राजा बन जाऊँ, या इनका नियन्ता हो जाऊं। [मन्त्र में राष्ट्रपति, जिसने कि शत्रु के राष्ट्र पर विजय पाई है वह सेनाधिपति से कहता है कि तू मुझे सहायता प्रदान कर जिस प्रकार कि मैं शत्रु के वीरों अर्थात् सैनिकों, तथा प्रजाजनों पर राज्य कर सकूं।]
  129. (विश्वे देवाः) हे सब देवो! (वसवः) तथा वसुओ ! (इमम् ) इसकी (रक्षत) रक्षा करो, (उत) तथा (आदित्याः) हे आदित्यो! (यूयम्) तुम (अस्मिन्) इस आयुष्काम पुरुष के सम्बन्ध में (जागृत) जागरूक अर्थात् सावधान रहो। (इमम्) इसे (सनाभिः ) सम्बन्धी (उत वा) अथवा (अन्यनाभिः) असम्बन्धी, (य:) जोकि (पौरुषेयः) पुरुष द्वारा प्राप्त (वधः) वध है उसे (मा प्रापत् ) न गिराए, प्राप्त कराए। "[उपनयन कर्म में सूक्त का विनियोग हुआ है ( सायण )। वसु और आदित्य कोटि में गुरु विवक्षित है। रुद्रकोटि के गुरु भी अभिप्रेत हैं। इन सबको सम्बोधित कर ब्रह्मचारी का पिता ब्रह्मचर्याश्रम के निवासियों के प्रति ब्रह्मचारी को सुपुर्द कर इसकी रक्षा के लिये प्रार्थना करता है। सनाभि: =समानो नाभिः गर्भाशयो यस्यासौ सनाभि: (सायण), एक परिवार या कुल का सम्बन्धी। नाभिः= णह बन्धने (दिवादिः)। ""पौरुषेयः वधः"" द्वारा यह भी ब्रह्मचारी का पिता प्रार्थना करता है कि इस पर किसी भी पुरुष द्वारा की गई चोट न पहुंचे। ओषधीषु पशुषु अप्सु अन्तः देवाः= ओषधियों, पशुओं, जलों के मध्य में काम करनेवाले व्यवहारी अर्थात् व्यापारी लोग ""दिवु क्रीडा विजिगीषा व्यवहार"" आदि (दिवादिः)। ओषधियों के व्यवहारी हैं वन्य तथा कृषिजन्य पदार्थों के व्यापारी; पशुओं के व्यवहारी हैं पशुपालक तथा इनके क्रयविक्रय करनेवाले; अप्सु के व्यापारी हैं नौकाओं द्वारा व्यापार करनेवाले, व्यवहारी।]"
  130. (देवाः) हे गुरुदेवो! (ये) जो (वः) तुम्हारे (पितरः ) पिता-माता हैं, (ये च पुत्राः) और जो पुत्र हैं, (सचेतसः) वे एकचित्त होकर (मे) मेरे ( इदम् उक्तम्) इस कथन को (श्रृणुत) सुनो कि (वः सर्वेभ्यः) तुम सबके प्रति (एतम्) इस ब्रह्मचारी को (परिददामि) मैं सौंपता हूँ, (एनम् ) इसे (स्वस्ति) कल्याणपूर्वक (जरसे) जरावस्था के लिये (वहाथ) तुम प्राप्त कराओ। [ब्रह्मचर्याश्रम में गुरुओं के पितर अर्थात् माता-पिता आदि बुजुर्ग भी रहते हैं, और गुरुओं के पुत्र भी। ब्रह्मचारी का पिता, ब्रह्मचारी की रक्षा के लिये उन सबके प्रति कहता है कि मैं तुम सबके प्रति इसे सौंपता हूँ, तुम सब एकचित्त होकर इसकी रक्षा करो, और इस प्रकार इसे सुरक्षित करो कि यह जरावस्था तक पहुँच सके, उससे पूर्व इसकी मृत्यु न हो। वहाथ= वह प्रापणे (भ्वादिः)।
  131. (देवाः) हे देवो ! (ये) जो (दिवि) द्युलोक में (स्थ ) तुम हो, (ये) जो (पृथिव्याम्) पृथिवी में, ( ये ) जो (अन्तरिक्षे) अन्तरिक्ष में, ( ओषधीषु) ओषधियों में, ( पशुषु ) पशुओं में, (अप्सु ) जलों में (अन्तः) इनके मध्य में हो। (ते) वे (अस्मै) इस ब्रह्मचारी के लिये (जरसम् आयुः) जरावस्था तक की आयु (कृणुत) तुम करो, (शतम् अन्यान्) शतविध अन्य (मुत्यून्) मृत्युओं को (परिवृणक्तु) परिवर्जित करे [परमेश्वर।] "[ऋषि दयानन्द द्युलोक, अन्तरिक्ष में भी देवों की सत्ता मानते हैं । सत्यार्थप्रकाश समुल्लास आठ के अनुसार यथा “जब पृथिवी के समान सूर्य, चन्द्र और नक्षत्र वसु हैं, पश्चात् उनमें उसी प्रकार प्रजा के होने में क्या सन्देह? और जैसे परमेश्वर का यह छोटा-सा लोक मनुष्यादि सृष्टि से भरा हुआ है तो क्या ये सब लोक शून्य होंगे ? परमेश्वर का कोई काम निष्प्रयोजन नहीं होता। तो क्या इन असंख्य लोकों में मनुष्यादि सृष्टि न हो तो सफल कभी हो सकता है, इसलिये सर्वत्र मनुष्यादि सृष्टि है। कुछ कुछ आकृति में भेद होने का सम्भव है।"" यजुर्वेद के अनुसार भी नाकलोक में मुक्त आत्माओं की विद्यमानता है (३१।१६) । यजुर्वेद के इस मन्त्र में ""साध्याः"" हैं वे जिन्होंने योग के अष्टाङ्गों को सिद्ध कर लिया है। तथा पूर्व के दो अभिप्राय है- ( १ ) पूर्वसष्टिकाल के अथवा (२) वर्तमान सृष्टि में भी जो अष्टाङ्ग योग में पूर्ण हुए हैं, पुर्व पूरणे (भ्वादिः)। या पूरी आप्यायने, आप्यायनम्, ओप्यायी वृद्धौ (भ्वादिः)]"
  132. (येषाम् ) जिन [सद्गृहस्थियों ] के (प्रयाजाः) प्रकृष्ट पञ्चमहायज्ञ हैं, (उत वा) या (अनुयाजाः) आनुषङ्गिक याग हैं, (हुतभागाः) अग्निहोत्र तथा बलिवैश्वयज्ञ में आहुतियाँ देकर जो अन्नभागी हैं, अन्न ग्रहण करते हैं, (च) और (अहुतादः) बिना आहुतियाँ दिये अन्नादन करते है, वे संन्यासी या विरक्त (देवा:) दिव्य मनुष्य हैं; (येषाम् ) तथा जिन (वः) तुम्हारे लिये (पञ्च) विस्तृत (प्रदिशः) दिशाएँ (विभक्ताः) विभक्त हैं [जोकि पृथिवी, वायु आदि हैं ] (तान् व:) उन तुमको, (अस्मै) इस ब्रह्मचारी के लिये (सत्रसदः) त्राण करने में स्थित (कृणोमि ) मैं परमेश्वर नियत करता हूँ। पञ्च =पचि विस्तारे (चुरादिः)। [मन्त्र में याज्ञिक-प्रसिद्ध प्रयाजों और अनुयाजों का वर्णन नहीं है। ये हैं इध्म से लेकर वनस्पति पर्यन्त ११ (निरुक्त ८।२।४ से ८।३।२२)।]
  133. (आशानाम्) दिशाओं के (आशापालेभ्यः) दिक्-पालक, (चतुर्भ्य) चार (अमृतेभ्यः) अमृत (भूतस्याध्यक्षेभ्यः) भूत-भौतिक जगत् के अध्यक्षों के लिये (वयम्) हम (इदम्)१ अब (हविषा) हवि द्वारा (विधेम) परिचर्या करते हैं। "[इदम्= इदानीम् (सायण) । परिचर्या =सेवा। चार दिशाएं= पूर्व, दक्षिण, पश्चिम, उत्तर । इन चार दिशाओं के अध्यक्ष है चार अमृत अध्यक्ष; पूर्वदिक का अध्यक्ष है अग्नि, ""प्राची दिगग्निरधिपति:"", दक्षिणा दिक का अध्यक्ष है इन्द्र, ""दक्षिणा दिगिन्द्रो अधिपतिः"" पश्चिम दिक का अध्यक्ष है वरुण, ""वरुणो अधिपतिः"", उत्तर दिक का अध्यक्ष है सोम, ""सोमो अधिपतिः"" (अथर्व० २७।१-४) विधेम= परिचरणकर्मा (निघं० ३।५)।] [१. अथवा ""इदम्"" है परिचर्या-कर्म, जोकि विधेमद्योतित क्रिया का कम-विशेषण है।]"
  134. (देवाः) हे देवो! (ये) जो (आशानाम् आशपाला:) दिशाओं के दिक्पाल (चत्वारः) चार (स्थन) तुम हो, (ते) वे तुम (निर्ऋत्याः) कृच्छ्रापत्ति अर्थात् कष्टों के (पाशेभ्यः) फंदों से (न:) हमें (मुञ्चत) छुड़ाओ (अंहसः अंहसः) तथा निर्ऋति के हेतुभूत प्रत्येक पाप से छुड़ाओ। [चार देव हैं मन्त्र (१) में कथित अर्थात् अग्नि, इन्द्र, वरुण तथा सोम। ये चार नाम परमेश्वर के भिन्न-भिन्न गुणों के प्रतिपादक हैं। अग्नि ज्ञानाग्नि देकर, इन्द्र शक्ति देकर, वरुण दण्ड देकर पापकर्मों से, पाप से निवारित करता, अथर्व० (४।१६।१-९), और सोम अर्थात् चन्द्रमा के सदृश शान्ति प्रदान करता है।]
  135. (अस्रामः) स्राम रोग से रहित हुआ, (त्वा) तुझे ( हविषा) हवि द्वारा (यजामि ) मैं पूजता हूँ, या तुझे यज्ञाग्नि द्वारा आहुतियाँ देता हूँ, (अश्लोणः) लंगड़ा न होता हुआ (त्वा) तुझे (घृतेन) घृत द्वारा ( जूहोमि ) आहुतियाँ देता हूँ। (यः) जो (आशानाम्) सब दिशाओं का (आशापालः) दिक्पाल (तुरीयः देवः) चतुर्थ देव है (सः) वह ( न:) हमारे लिए (इह) इस जीवन में (सुभूतम्) उत्तम स्थिति (आवक्षत्) प्राप्त कराए। वह प्रापणे (भ्वादिः)। "[स्राम-रोग प्रवाही रोग है, सम्भवतः अतिसार। सामाः स्रु (स्रवित होना, स्रुत होना)। यज्ञ करने के लिये शरीर स्वस्थ तथा अविकृताङ्ग होना चाहिए । घृतरूपी हवि:१ श्रेष्ठ हविः है। सब दिशाओं का दिक्पाल एक है, जिसे कि ""तुरीय"" कहा है। इसे ""चतुर्थ: पाद:"" भी कहा है। जोकि ओङ्कार है (माण्डूक्योपनिषद्, सन्दर्भ १२)। चार दिशाओं के दिक्पालों का पृथक्-पृथक् कथन मन्त्र (२) में हुआ है। मन्त्र (३) में चार दिशाओं, अवान्तर दिशाओं, ध्रुवा, ऊर्ध्वा दिशाओं के एकपति का कथन ""तुरीय"" पद द्वारा हुआ है। सुभूतम्= सु + भू, सत्तायाम् (भ्वादिः), सत्ता है स्थिति। सृभूतम् को मन्त्र (४) में स्वस्ति कहा है। स्वस्ति=सु+अस्+ ति। तुरीय-परमेश्वर है ब्रह्म। देखो सूक्त ३२, मन्त्र ( १ ) में ""महद् -ब्रह्म""।] [१ घृतरूपी हविः अथवा घृत और हविः।]"
  136. (नः) हमारी (मात्रे) माता के लिये, (उत) तथा (पित्रे) पिता के लिये (स्वस्ति) उत्तम स्थिति (अस्तु) हो, (गोभ्यः) गौओं के लिये, (जगते) जगत् के लिये या जङ्गम प्राणिसमूह के लिए, (पुरुषेभ्यः) पुरुषों के लिये (स्वस्ति) उत्तमस्थिति हो। (विश्वम्) समग्र संसार ( सुभूतम् ) उत्तम स्थितिवाला, (सुविदत्रम् ) उत्तम धन को प्राप्त तथा सबका त्राण करनेवाला (नः) हमारे लिये हो, ताकि (ज्योग् एव) चिरकाल तक ही (सूर्यम् ) सूर्य का (दृशेम) दर्शन करें। अथवा स्वस्ति= कल्याण या कुशलता । "[सुविदत्रम् =सुविद्, इगुपधत्त्वात् ""क:"" प्रत्ययः+ त्रम्, त्रैङ् पालने या त्राण (औणादिक) ""ड:"" प्रत्ययः।]"
  137. (जनासः) हे उत्पन्न मनुष्यो ! (इदम् विदथ) यह जानो ( महद् ब्रह्म ) महद्-बह्म का (वदिष्यति ) यह कथन करेगा कि (न तत् ) न वह (पृथिव्याम् ) केवल पृथिवी में है, (नो दिवि ) न केवल द्युलोक में है, (येन ) जिस द्वारा कि (वीरुधः) विरोहण करनेवाली ओषधियाँ (प्राणन्ति) प्राण धारण करती हैं, जीवित हैं। "[न पृथिव्याम् नो दिवि= अपितु वह सर्वत्र विद्यमान है। वह है महद्-ब्रह्म। सायण ने ""महद्-ब्रह्म"" का अर्थ किया है। ""ब्रह्मण: प्रथमकार्यम् आप:""। सम्भवतः इसलिये कि वीरुधें आपः द्वारा ही "" प्राणन्ति"" हैं। परन्तु मन्त्र में महद्-ब्रह्म द्वारा समग्र जगत् को, चाहे वह जड़ हो या चेतन, अध्यात्म दृष्टि से देखा है। समग्र जगत् उसी द्वारा प्राणधारण कर रहा है, केवल ""आप:"" ही नहीं।]"
  138. (आसाम्) इन ओषधियों का (स्थाम) स्थान (अन्तरिक्षे१) ब्रह्माण्ड में निवास करनेवाले में है (इव) जैसेकि (श्रान्तसदाम् ) जगत् के धन्धों से थके हुए विरक्त व्यक्तियों का वह विश्रामस्थान है। (अस्य भूतस्य) इस भूत-भौतिक के (तत् ) उस ( आ स्थानम् ) व्यापी-स्थान को ( वेधसः ) मेधावी भी (विदुः) जानते हैं (न वा) अथवा नहीं जानते। "[यह सन्देहास्पद है] । वेधसः = वेधा मेधाविनाम (निघं० ३।१५) विदुः नवा=यथा– यस्यामतं तस्य मतं मतं यस्य न वेद सः। अविज्ञातं विजानतां विज्ञातमविजानताम्।। जिसे ब्रह्मा अज्ञेय है, उसे तो वह ज्ञेय है, और जिसे ब्रह्म ज्ञेय है उसे वह नहीं जानता। (अविज्ञातम्, विजानताम् )ज्ञेयवादियों को ब्रह्म अविज्ञात है, और अज्ञेयवादियों को ब्रह्म विज्ञात है [जाननेवाला जीवात्मा अल्पज्ञ और सीमित है, और ब्रह्म सर्वज्ञ और सर्वव्यापक है। अल्पज्ञ और सीमित, सर्वज्ञ और निःसीम को जानने की शक्ति नहीं रखता। इस औषनिषद वचन द्वारा ज्ञेयवाद और अज्ञेयवाद का अन्तिम निर्णय हो गया। इस वचन में ""वि"" का विशेष महत्त्व है। ""वि"" का अभिप्राय है विशेषतया जानना। ब्रह्म का विशेष ज्ञान नहीं हो सकता, सामान्य ज्ञान ही हो सकता है। मतम्=मन ज्ञाने (दिवादिः), मनु अवबोधने (तनादिः)।] [१. ""अन्तरिक्ष"" को आकाश भी कहा है, यथा ""आकाशस्तल्लिंगात्"" (ब्रह्मसूत्र वेदान्त)। ब्रह्मसूत्र में ""आकाश"" का प्रयोग ""ब्रह्म"" के लिए हुआ है जोकि सर्वाधार है। तथा अन्तरिक्षम् = अन्तराक्षान्तं भवति (निरुक्त २।३।१०), क्षि निवासे (तुदादिः)।]"
  139. (रोदसी) हे द्यौः-तथा-पृथिवी ! (रेजमाने) कम्पन करते हुए तुम (भूमिः च) अर्थात् भूमि और पृथिवी तुम दो ने, (यद्) जिस ब्रह्म को (निरतक्षतम्) घड़ा, प्रकट किया, (तत्) वह ब्रह्मा ( अद्य सर्वदा) आज तक और सदा से (आर्द्रम्) दयार्द्रहृदय रहा है, (समुद्रस्य स्रोत्याः इव) जैसेकि समुद्रगामिनी नदियाँ सदा आई रहती हैं, (प्रभूत जल होने से)। [समग्र द्यौः और पृथिवी सदा गतिवाले हैं, इसे कम्पन से सूचित किया है। कम्पन करनेवाला है, ब्रह्म। ब्रह्म द्वारा ही इन सबमें गतियां हो रही हैं। ब्रह्माण्ड की गतियों का करनेवाला कोई चेतन तत्त्व होना चाहिए, यह इन गतियों द्वारा सूचित होता है। यह ही ब्रह्म को घड़ना है, ज्ञापित करना है। मन्त्र में निरतक्षतम् की भावना निम्न मन्त्र द्वारा सूचित भी होती है। यथा- किम् स्विद् वनं क उ स वृक्ष आस यतो द्यावापृथिवी निष्टतक्षुः। मनीषिणो मनसा पृच्छतेदु तद्यवध्यतिष्ठद् भुवनामि धारयन् ॥ (--यजु:० १७।२०)। मन्त्र में निष्टतक्षु: और भुवनानि धारयन् यदध्यतिष्ठत् तथा वनम् द्वारा ब्रह्म का सम्बन्ध घड़ने के साथ सूचित होता है। निस्ततक्षु:= निस्ततक्ष [परमेश्वरः] महीधर; बहुवचन पूजार्थम्, उव्वट:। अथवा निस्ततक्षुः प्राकृतिक-शक्तयः। परमेश्वर तो तक्षा है, वह प्राकृतिक-शक्तियों की सहायता से तक्षण करता है। अतः सहायक शक्तियों में भी तक्षण क्रिया का सम्बन्ध दर्शाया है।]
  140. (विश्वम्) समस्त ब्रह्माण्ड ने (अन्याम् ) इस प्रकृति को (अभीवार) सब ओर से घेरा हुआ है। (तद्) वह ब्रह्माण्ड (अन्यस्याम) तद्भिन्न प्रकृति में (अधि श्रितम्) आश्रित है। (विश्ववेदसे) विश्व के वेत्ता (दिवे च) और द्योतमान, (पृथिव्यै च) और पृथिवी के सदृश प्रथित और आधारभूत ब्रह्म के लिए (नमः) नमस्कार (अकरम् ) मैंने किया है, या मैं करता हूँ। "[सूक्त में महद्-ब्रह्म का वर्णन प्रतिज्ञात हुआ है ( मन्त्र १ ) । अतः उसकी विभूति का वर्णन मन्त्र में हुआ है, उस महद्-ब्रह्म को नमस्कार किया है। ""विश्ववेदसे"" द्वारा महद्-ब्रह्म को विश्ववेत्ता कहा है। अतः मन्त्र के प्रथमपाद में पठित ""विश्वम्"" पद ब्रह्माण्डवाची प्रतीत होता है। मन्त्र से यह अतिस्पष्ट है कि सूक्त में उदक का वर्णन नहीं, अपितु आधारभूत ब्रह्म का ही वर्णन है। अधिक स्पष्टता के लिए मन्त्र में ब्रह्माण्ड, प्रकृति और महद्-ब्रह्म का परस्पर सम्बन्ध दर्शाया है। महद्-ब्रह्म ब्रह्माण्ड का रचयिता और प्रकृति का अधिष्ठाता है, नियन्ता है। ]"
  141. (हिरण्यवर्णाः) सुवर्ण के सदृश वर्णवाले, (शुचयः) शुद्ध (पावका:) पवित्र करनेवाले, (यासु) जिनमें (सविता) सूर्य, (यासु) और जिनमें (अग्निः) अग्नि (जातः) प्रादुर्भूत हुई। (या:) जिन (सुवर्णाः) उत्तम वर्णवाले (आप:) आप ने (अग्निम् ) अग्नि को (गर्भम्) गर्भरूप में ( दधिरे) धारण किया, (ताः) वे [आपः] (नः) हमें (स्योनाः) सुखकारी (भवन्तु) हों । [समग्र सूक्त में आप:पद भिन्न-भिन्न प्रकार के आप: के सम्बन्ध में प्रयुक्त हुआ है। हिरण्यवर्णाः आप हैं विराट् रूपी आप: (यजु:० ३१।५)। ये आप: हैं द्रवावस्था में, अतः इनका अतिरेचन अर्थात् विरेचन हुआ (अति अरिच्यत) (यजुः० ३१।५)। ये आप्तः दधकती अवस्था में थे (विराट् = वि + राजृ दीप्तौ) अतः चमकीले थे। अतिविरेचन से छींटे रूप में द्युलोक के दधकते नक्षत्र-तारागण पैदा हुए। ये भी हिरण्यवर्णाः हैं। ये शुचि हैं अतः पावक हैं। ये द्रवावस्था में थे। कालान्तर में ये घनीभूत हुए और इनसे सविता अर्थात् सूर्य पैदा हुआ, और अग्नि पैदा हुई। यह अग्नि है अन्तरिक्षस्थ मेघों में स्थित मेघीय विद्युत् । स्योना= स्योमिति सुखनाम (निघं० ३।६)। मनु ने विराडवस्था को आप: कहा है। प्रारम्भ में विराट् द्रवरूप था। उसमें प्रजापति ने काम अर्थात् कामनारूपी बीज का स्थापन किया, आधान किया।]
  142. (यासाम् मध्ये) जिन आप: के मध्य में, (जनानाम् ) जनों के (सत्यानृते अव पश्यन्) सत्य तथा अन्त व्यवहारों को देखता हुआ (राजा वरुणः) जगत् का राजा वरुण अर्थात् पापनिवारक परमेश्वर (याति) विचरता है। (याः) जिन (सुवर्णाः) उत्तम वर्णवाले आप: में (अग्निम्) अग्नि को (गर्भम् दधिरे) गर्भ रूप में धारण किया है (ता:) वे आप: ( नः) हमें (शम्) शान्तिप्रद तथा (स्योनाः) सुखदायक (भवन्तु) हों। [आपः हैं हृदयस्थ आपः (अथर्व० १०।२।११ )।' परमेश्वर-वरुण इन आपः में विचर रहा है। ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति (गीता)। इन आप: ने अग्निः नाम के परमेश्वर को गर्भरूप में धारण किया हुआ है। अग्नि दाहक है, परमेश्वर वरुण भी पापदाहक है। इसे दर्शाने के लिए वरुण को अग्निरूप कहा है। परमेश्वर का नाम अग्नि भी है (यजु:० ३२।१)।]
  143. यासाम) जिन आपः का (देवाः) दिव्य-तत्त्व (दिवि ) द्युलोक में (भक्षम्) भक्षण (कृण्वन्ति) करते हैं, (या:) जो (अन्तरिक्षे) अन्तरिक्ष में (बहुधा:) बहुत प्रकार के (भवन्ति) होते हैं। (या: अग्निम्) जो अग्नि को [शेष पूर्ववत्।] [भक्षम् =वायु, सूर्य, चन्द्र आदि देव आपः का भक्षण करते हैं, वायु में आप: का निवास है, समुद्र में ज्वार-भाटा होते रहते हैं सूर्य और चन्द्र द्वारा आकर्षण से, यह देवों द्वारा आप: का भक्षण है अन्तरिक्ष में आपः वर्षाऋतु में नानाकृतियों में होते रहते हैं, यह बहुधा द्वारा सूचित किया है।]
  144. (आपः) हे आपः ! (मा) मुझे (शिवेन चक्षुषा) शिवकारी चक्षु द्वारा (पश्यत) देखो, (शिवया तन्वा) शिवकारी तनू द्वारा (मे) मेरी (त्वचम्) त्वचा का (उपस्पृशत) स्पर्श करो। (घृतश्चुतः) घृतस्रावी (शुचयः) और शुचि, (याः) जो तुम (पावकाः) पवित्र करनेवाले हो, (ताः) वे तुम (आप: ) आप (नः) हमें (शम्) शान्तिप्रद, (स्योना:) सुखप्रद (भवन्तु) होओ। "[मन्त्र में चक्षु आदि पदों द्वारा आपः को चेतनरूप में वर्णित किया है । यह शैली भी वैदिक वर्णनों में अपनाई गयी है, यथा ""अचेतनान्यपि एवं स्तूयन्ते यथा अक्षप्रभृतीनि ओषधिपर्यन्तानि ।"" (निरुक्त ७।२।२७) । अथवा [आपः पद, व्यापी परमेश्वर का व्यापक है, आप्लृ व्याप्तौ स्वादिः] तथा ""ता आप:, स: प्रजापति:"" (यजु:० ३२।१)। परमेश्वर चेतन है। अतः उसके साथ ""शिवेन चक्षुषा"" का सम्बन्ध सार्थक हो सकता है। यथा ""चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्य अग्नेः"" (यजु:० ७।४२)। मित्र है सूर्य (मिदि स्नेहने चरादिः), सूर्य वर्षा द्वारा स्निग्ध करता है, वरुण है आवरण करनेवाला वायु मण्डल, अग्नि है पार्थिव अग्नि । ये सब जड़ हैं। इन्हें परमेश्वर की शिवचक्षु मार्ग प्रदर्शन करा रही है। वस्तुतः परमेश्वर ही सुर्य आदि का मार्ग प्रदर्शन करा रहा है, जिससे ये नियम से निज पथों पर गतियाँ कर रहे हैं। तन्वा व्याप्त्या (तनु विस्तारे, तनादिः)। परमेश्वररूपी आप: ""घृतश्चुतः"" हैं। प्रदीप्त सूर्य आदि को भी क्षरित कर देते हैं । च्युतिर् क्षरणे, (भ्वादिः)। क्षरण=विनाश । प्रलयकाल में परमेश्वर ही इन सबको विनष्ट करता है, प्रकृति में विलीन करता है। चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्याग्नेः ""एवमपररूपेण स्तुत्वा पररूपेण स्तौति जगतः तस्थुषश्च आत्मा जङ्गमस्य स्थावरस्य च आत्मा अन्तर्यामी"" (महीधर )। सूर्य अर्थात् आदित्य में भी स्थित हुआ परमेश्वर समग्र जगत् का नियन्त्रण कर रहा है। योसावादित्ये पुरुषः सोऽसावहम्। ओ३म् खं ब्रह्म (यजु:० ४०।१७)।]"
  145. (इयम्) यह (वीरुत्) विरोहणशीला लता ( मधुजाता) मधुवत् पैदा हुई है, (मधुना) मधुर विधि द्वारा (त्वा) तुझे (खनामसि) हम खोदते हैं। (मधोरधि) मधुर खण्ड से (प्रजाता असि) तू पैदा हुई है, (सा) वह तू (नः) हमें (मधुमतः) मधुर (कृधि) कर। [यह लता है गन्ना१। गन्ना जैसे सर्वतोभावेन मधुर होता है वैसे व्यक्ति सर्वतोभावेन मधुर होने की अभिलाषा प्रकट करता है, मनसा, वाचा, कर्मणा वह मधुर होना चाहता है। गन्ना गन्ने के मधुर खण्ड अर्थात टुकड़े से पैदा होता है। गन्ने को वीरुध् अर्थात् लता कहा है, जैसे लता लम्बी होती है वैसे गन्ना भी लम्बा होता है।] [१. इक्षुणा (मन्त्र ५)।]
  146. (में) मेरी (जिह्वायाः) जिह्वा के (अग्रे) अग्रभाग में ( मधु ) मधु हो, (जिह्वामूले) जिह्वा के मूल अर्थात् जड़ में (मधूलकम्) मधु को आदान करनेवाला मन हो। (मम) मेरे (क्रतौ) कर्म में (इत् ) अवश्य (अस:) हे मधु ! तु हो, (मम) और मेरे (चित्तम् ) चित्त में ( उपायसि ) तू प्राप्त हो। [मधूलकम्= मधु + ला (आदाने, अदाादिः ) + क: (कृञ् डः औणादिकः)। क्रतु कर्मनाम (निघं० २।१)। मन में तो मधु का विचार सदा रहे, और चित्त में उसका सम्यक ज्ञान (चिती संज्ञाने, भ्वादिः)।]
  147. (में) मेरा (निक्रमणम्) घर से निकलना ( मधुमत् ) मधुररूप हो, (मे) मेरा (परायणम्) दूरगमन या अन्यों को मिलना (मधुमत्) मधुररूप हो। (वाचा) वाणी द्वारा ( मधुमत्) मधुर (वदामि) मैं बोलता हूँ । (मधुसंदृशः) मधु के सदृश सर्वतोभावेन मैं मधुर (भूयासम् ) हो जाऊँ।
  148. (मधोः) मधु की अपेक्षा से (मधुतरः) अधिक मधुवाला, (मदुधात् ) मधु के दोहन करनेवाले मधुछत्ते से भी ( मधुमत्तरः) अधिक मधुर ( अस्मि ) मैं हो गया हूं। (माम् इत्) मुझे अवश्य ( त्वम् ) तू हे मधु मधुररस ! (वना:) प्राप्त हो (इव) जैसे कि तु ( मधुमतीम् शास्खाम् ) मधुरशाखारूप इक्षु को प्राप्त हुआ है । [किल प्रसिद्धौ। मधुमती शाखा है इक्षु अर्थात् गन्ना ( मन्त्र ५ ) मदुघात्=मधुदुघात्, धुलोपः छान्दसः, मधुस्राविणः पदार्थविशेषात् मधुमत्तरः अतिशयेन मधुमानस्मि (सायण) । मदुघात्=मधुदुहात्।]
  149. [हे जाया !] (परितत्नुना) परितत अर्थात् सब ओर फैले हुए (इक्षुणा) गन्ने के साथ (त्वा) तेरी मैंने (परि अगाम्) परिक्रमा की है (अविद्विषे) पारस्परिक विद्वेष मिटाने के लिये, तथा (यथा) जिस प्रकार कि (माम्) मेरी (कामिनी) कामनावाली (असः) तू हो जा, (यथा) जिस प्रकार कि (मत् ) मुझसे (अपगाः) अपगत हो जानेवाली, मुझे त्यागकर चले जानेवाली (न असः) तू न हो। "[सूक्त भावना का उपसंहार– सूक्त के अध्ययन से प्रतीत होता है कि पति-पत्नी में परस्पर कलह है। जिसमें पति कारण बना है, अतः पत्नी पति से रूठी हुई है। पति उसे स्वानुकल करना चाहता है । इसलिये वह अपने-आपको मधुर-व्यवहारवाला बनाता है, और पत्नी को निश्चय कराता है कि मैं तेरे प्रति मधुर व्यवहारवाला हो गया हूँ। एतदर्थ वह मधुररसवाले गन्ने के साथ, पत्नी की परिक्रमा करता है। परिक्रमा पूज्य व्यक्ति की की जाती है। इस द्वारा वह पत्नी को अपनी पूज्या मानता है। ""यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः"" (मनु), और दोनों में अनुकूलता पुनः हो जाती है।]"
  150. (दाक्षायणाः) वृद्धि के निवासभूत आचार्यों ने, ( सुमनस्यमानाः) सुप्रसन्न हुए, (शतानीकाय) सौ वर्षों तक के जीवन के लिये, (यद् हिरण्यम्) जो हिरण्यसदृश बहुमूल्य वीर्य को (आबध्नन्) वांधा था [निज शरीरों में, उसे च्युत न होने दिया था] (तत्) उस वीर्य को (ते) तेरे शरीर में (बध्नामि) मैं बाँधता हूँ, स्थिर करता हूँ, (आयुषे) सुखी जीवन के लिए, (वर्चसे) तेज के लिये, (बलाय) शारीरिक बल के लिये, (दीर्घायुत्वाय) दीर्घ जीवनकाल के लिये, (शतशारदाय) सौ वर्षों तक जीवन के लिए। "[ब्रह्मचारी का आचार्य ब्रह्मचारी को वीर्य स्थिर रखने की विधि सिखाता है। दाक्षायणा:= दक्ष वृद्धौ (भ्वादि:)+ अयनाः। अनीकाय =अन प्राणने (अदादिः)। तथा ""दक्षः बलनाम"" (निघं० २।९) दाक्षायणा:= दक्षिणायण+ अण् (स्वार्थे)। आबध्नन् = इस द्वारा नित्य वैदिक प्रथा का कथन किया है, ब्रह्मचारी को इस प्रथा के सम्बन्ध में विश्वास दिलाने के लिए। मन्त्र (२) में इसका विशेष कथन हुआ है।]"
  151. (न एनम्) न इसे (रक्षांसि) राक्षसी कर्म, (न पिशाचा:) न पैशाची कर्म (सहन्ते) पराभूत करते हैं, (हि) निश्चय से (एतत् ओज:) यह ओज (प्रथमजम्) प्रथम आश्रम में पैदा होता है, (देवानाम्) और इन्द्रिय देवों का है। (यः) जो (दाक्षायणम् ) दक्ष अर्थात् वृद्धि और बल के अयन अर्थात् निवासभूत, (हिरण्यम्) हिरण्यसदृश बहुमूल्य वीर्य का (बिभर्त्ति) धारण-पोषण करता है (सः) वह ( जीवेषु ) जीवितों में ( आयुः) निज आयु को (दीर्घम्) दीर्घ (कृणुते) करता है । "[देवानाम् = नैनद् देवा आप्नुवन् पूर्वमर्षत् (यजु:० ४०।४)। देवा द्योतनात्मकाः चक्षुरादीनीन्द्रियाणि (महीधर)। राक्षसी कर्म है तामसिक, तमोगुण प्रधान और पैशाचीकर्म हैं राजसिक, रजोगुणप्रधान। ""ओजः = शरीरधारको बलहेतुः अष्टमो धातुविशेषः। हिरण्यं रेतोरूपं तेजः"" (सायण)। यतः हिरण्य है ""रेतो-रूप ओज""। अतः इसका ""अबध्नन्” (मन्त्र १) रस्सी द्वारा सम्भव नहीं हो सकता, अपितु शरीर में ही बन्धन सम्भव है, अर्थात् च्युत न होने देना है, ऊर्ध्वरेताः होना रूपी बन्धन है।]"
  152. "[""यह रेतोरूप ओज""] (अपां तेजः) रक्तरूपी आप: का तेज, ज्योति, ओज, और बल है, (उत) तथा (वनस्पतीनाम्) वनस्पतियों के, (वीर्याणि) वीर्यों रूप है। (इव) जैसेकि (इन्द्रे अधि) जीवात्मा (इन्द्रियाणि) इन्द्रशक्तियाँ धारित हैं वैसे (अस्मिन् ) इस ब्रह्मचारी में, हम आचार्य ऐन्द्रियिक बल या वीर्य (धारयामः) स्थापित करते हैं, (तत्) उस (हिरण्यम्) हिरण्यसदृश बहुमूल्य वीर्य को, (दक्षिण:) वृद्धि और बल प्राप्त होता हुआ ब्रह्मचारी (बिभरत्) परिपुष्ट करे।" "[शरीरस्थ वीर्य वनस्पतियों के खाने से पैदा होता है, अतः वानस्पत्य है, वनस्पतियों का परिणामरूप है। हिरण्य अर्थात् वीर्य ""अपाम्"" तेजः, ज्योतिः आदि रूप है। यह ""आप"" शरीरस्थ रक्तरूप हैं, जोकि विधिपूर्वक शरीर में स्थापित किये गये हैं। यथा, ""को अस्मिन्नापो व्यदधाद् विषूवृतः पुरुवृतः सिन्धुसूत्याय जाताः। तीव्रा अरुणा लौहिनीस्ताम्रधूम्रा ऊर्ध्वा अपाचीः पुरुषे तिरश्चीः ।"" (अथर्व० १०।२।११)। मन्त्र में सिन्धु है हृदय। व्याख्या यथा स्थान में देखो। सामान्य आपः में मन्त्रोक्त गुण नहीं होते।]"
  153. (समानाम्) चान्द्रवर्षों के (मासाम्) मासों सम्बन्धी (ऋतुभिः) ऋतुओं के [ज्ञान१] द्वारा (संवत्सरस्य) तथा सौरवर्ष के [मासों सम्बन्धी ऋतुओं के [ज्ञान१] द्वारा (वयम् ) हम गुरुजन (त्वा) हे ब्रह्मचारिन् ! तुझे पूरित करते हैं, ( पृ पूरणे ) तथा (पयसा) दुग्ध आदि सात्त्विक अन्न द्वारा (पिपर्मि) मैं आचार्य तुझे परिपालित करता हूँ। (इन्द्राग्नी ) साम्राज्य का इन्द्र अर्थात् सम्राट्, तथा अग्नि अर्थात अग्रणी प्रधानमन्त्री तथा (विश्वेदेवाः) सब दिव्य अधिकारी (अहृणीयमानाः) रोष के बिना (ते) तेरे लिये [हे ब्रह्मवारिन् ! ] (अनु मन्यन्ताम् ) अनुमोदित करें, स्वीकृत करें। "[मन्त्र में वयम् द्वारा बहुवचन तथा पिपर्मि द्वारा एकवचन के कथन से पदान्वय क्लिष्ट हुआ है। अहृणीयमानाः= हृणीङ् रोषणे (कण्ड्वादिः)। गुरुकुलों की पाठविधि तथा भोजन की व्यवस्था केवल गुरुजनों तथा आचार्य के अधीन हो जाने से साम्राज्य के अधिकारियों में दोष होना सम्भावित है। इन्द्रः= सम्राट् (यजु:० ८।३७)। पिपर्मि=पॄ पालनपूरणयोः (जुहोत्यादिः)। ह्रस्वान्तोऽयमित्येके (जुहोत्यादिः)।] [१. ज्ञान यथा ""चान्द्र वर्ष=३५४ दिन का। चान्द्र मास है दर्श से दर्श तक २९ १/२ दिन का। संवत्सर है पृथिवी का सूर्य-की-परिक्रमा का काल ३६५ दिनों का, और प्रति चतुर्थ वर्ष ३६६ दिनों का। ऋतुएं हैं ६। इत्यादि ज्ञान ब्रह्मचारी को गुरुजन देते हैं।] [सूक्त ३५ का सार-- कौशिक सूत्रानुसार (५७।३१) उपनयनकर्मण्यपि आयुष्कामस्य ब्रह्मचारिणः आज्यहोमे विनियुक्तम् कहा है। उपनयन है समीप प्राप्त करना, उप (समीप) + नयन (णीञ् प्रापणे)। आचार्य ब्रह्मचारी का उपनयन कर उसे अपने समीप प्राप्त कर लेता है, ब्रह्मचर्याश्रम में प्रविष्ट कर लेता है। एतदनुसार ही सूक्तार्थ किया गया है। अतः सूक्त में ""हिरण्य"" का अर्थ है रेत: अर्थात् वीर्य, और ""प्रथमजम् ओज:"" का अर्थ है प्रथमाश्रम में पैदा हुआ ओज (मन्त्र २)। उपनयन और इसके उद्देश्य की व्याख्या (अथर्व० ११।७।३) में देखो।]"

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