रविवार, 16 अप्रैल 2023

গুরুকূল শোধ ভারতী-বিথি রানী

 গ্রন্থঃ গুরুকুল-শৌধ-ভারতী


गृहस्थाश्रम में नारी का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है । वह पुरुष की सहयोगी , सहायक एवं सहधर्मिणी है । जिस प्रकार रथ की गति में दोनों चक्र समान रूप से अपना महत्त्व एवं उपयोगिता रखते हैं उसी प्रकार स्त्री और पुरुष गृहस्थाश्रम रूपी रथ के दो चक्र माने गये हैं ।


গৃহস্থাশ্রমে নারীর অত্যন্ত মহত্ত্বপূর্ণ স্থান রয়েছে।  তিনি পুরুষের সহযোগী, সহায়ক এবং সহধর্মিণী। 

যেমন ভাবে রথের উভয় চাকা সমান গতিতে নিজের মহত্ত্ব এবং উপযোগিতা রাখে সেভাবেই স্ত্রী এবং পুরুষকে গৃহস্থাশ্রম রূপী রথের দুই চাকা হিসেবে বিবেচনা করা হয়।


 जिस प्रकार किसी एक चक्र के बिना रथ की गति असम्भव है उसी प्रकार गृहस्थ जीवन में स्त्री और पुरुष दोनों का समानरूप से महत्त्व है । नर - नारी का सम्बन्ध शाश्वत है । किसी एक के बिना सृष्टि का विकास असम्भव है । मनुस्मृति में यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता कह कर नारी को पूजनीय एवं सम्मानीय माना है । 


যেভাবে একটি চাকা ছাড়া রথের গতি অসম্ভব, তেমনি গৃহস্থ জীবনে স্ত্রী-পুরুষ উভয়েরই সমানরূপ মহত্ত্ব রয়েছে। নর-নারীর সম্পর্ক শাস্ত্রত। কোনো একজনকে ছাড়া সৃষ্টির বিকাশ অসম্ভব। মনুস্মৃতিতে নারীকে পূজনীয় ও সম্মানিত মনে করা হয়েছে। বলা হয়েছে যেখানে নারীদের পূজা বা সম্মানীয় করা হয়, সেখানে দেবতাও রয়েছেন।


दुहिता , पत्नी , बहन , माता इत्यादि रूपों में वह सर्वथा सम्मानीय रही है । याज्ञवल्क्य और मनु ने स्त्रियों को अत्यधिक सम्मान प्रदान किया है । उनके अनुसार गुरु , आचार्य , उपाध्याय और ऋत्विज् क्रमानुसार पूजनीय होते हैं , किन्तु माता इन सबसे अधिक पूजनीय होती है । 


কন্যা, স্ত্রী, বোন, মা ইত্যাদি রূপে তারা সর্বদা  সম্মানিত হন। যাজ্ঞবল্ক্য ও মনু নারীদের অধিক সম্মান প্রদান করেছেন। তাঁদের মতে গুরু, আচার্য, উপাধ্যায় ও ঋত্বিজ্ ক্রমানুসারে পূজনীয় হয়, কিন্তু মাতা তাদের চেয়েও অধিক পূজনীয়।


तैत्तिरीय ब्राह्मण में नारी की महत्ता को उद्घाटित करते हुए कहा गया है कि अपत्नीक व्यक्ति यज्ञादि धार्मिक अनुष्ठानों का अधिकारी नहीं है । यज्ञादि धार्मिक कृत्य सहधर्मिणी के सानिध्य में सम्पन्न एवं सफल होते हैं । " ऋग्वेद तथा यजुर्वेद में स्त्री के लिये जिन विशेषणों का प्रयोग किया गया है , उनसे नारी के गुणों का बोध होता है । 


তৈত্তিরীয় ব্রাহ্মণে, নারীর গুরুত্ব প্রকাশ করতে  বলা হয়েছে যে, একজন অপত্নী ব্যক্তি অর্থাৎ স্ত্রীহীন ব্যক্তি যজ্ঞাদি ধর্মীয় আচার পালনের অধিকারী নয়। যজ্ঞাদি অন্যান্য ধর্মীয় কর্তব্যগুলো সহধর্মিণীর উপস্থিতিতে সম্পন্ন এবং সফল হয়। "ঋগ্বেদ এবং যজুর্বেদে নারীর জন্য যে  বিশেষণগুলোর প্রয়োগ হয়েছে, সেগুলো একজন নারীর গুণাবলী নির্দেশ করে।


इसमें स्त्री को अषाढा ( अज्ञेय ) , सहमाना ( जीतनेवाली ) , सहस्रवीर्या ( असंख्य पराक्रम वाली ) , असपत्ना ( शत्रुरहित ) , सपत्नघ्नी ( शत्रुओं को नष्ट करने वाली ) , जयन्ती ( विजेता ) , अभिभूवरी ( सबको तिरस्कृत करने वाली ) आदि कहा गया है । 


এখানে নারীকে অষাঢ়া (অজেয়), সহমানা (বিজেতা), সহস্রবীর্যা (অসংখ্য শক্তিসম্পন্ন), অসপত্না (শত্রুবিহীন), সপত্নঘ্নী (শত্রুদের বিনাশকারী), জয়ন্তী (বিজেতা), অভিভুবরী (সকলকে তিরস্কৃত কারী) ইত্যাদি বলা হয়েছে।


" अथर्ववेद में इन्द्राणी का अज्ञेय सेनानी के रूप में वर्णन प्राप्य है । अथर्ववेद के विवाह प्रकरण के एक मन्त्र में नारी के महत्त्व को प्रतिपादित कहा है कि वह सास , श्वसुर , ननद तथा देवरों की सम्राज्ञी अर्थात् स्वामिनी है । 


অথর্ববেদে ইন্দ্রাণীকে একজন অজেয় যোদ্ধা রূপে বর্ণনা করা হয়েছে। অথর্ববেদের বিবাহ প্রকরণে এক মন্ত্রে নারীর মহত্ত্বকে প্রতিপাদিত করে বলা যে,তারা (নারীরা) শাশুড়ি, শ্বশুর, ননদ এবং দেবরদেরও সম্রাজ্ঞী অর্থাৎ প্রধান। যেমন-


यथा - स॒म्राज्ये॑धि॒ श्वशुरेषु स॒म्राज्ञ्युत दे॒वृषु॑ । नना॑न्दुः स॒म्राज्ञ्ये॑धि स॒म्राज्ञ्यु॒त श्व॒श्र्वा ॥ अथर्ववेद में नारी के लिए कहा गया है कि वह स्वयं को अबला न समझकर सबला समझे । इन्द्राणी के प्रसङ्ग में 


 সম্রাজ্ঞ্যেধি শ্বশুরেষু সম্রাজ্ঞ্যুত দেবৃষু। 

ননান্দুঃ সম্রাজ্ঞ্যেধি সম্রাজ্ঞ্যুত শ্বশ্রবা।।


অথর্ববেদে নারীর জন্য বলা হয়েছে যে, সে নিজে যেন নিজেকে অবলা (দুর্বল) না ভেবে সবলা  (শক্তিশালী) মনে করে। ইন্দ্রানীর ক্ষেত্রে



स्त्री के गुण बताते हुए कहा गया है कि वह सौभाग्यवती , सुख देने वाली , सरस , सुन्दर और कठिन परिश्रमी हो । ' वह स्वयं संयमी होते हुए विविध शास्त्रार्थों में भाग ले । " 


"একজন নারীর গুণাবলীকে বলা হয় সৌভাগ্যবতী, মনোরমা, করুণাময়, সুন্দর এবং কঠিন পরিশ্রমী। তিনি নিজে সংযমী হয়ে বিভিন্ন শাস্ত্রীয় বিতর্কে অংশগ্রহণ করবেন। "

 

अथर्ववेद का चौदहवाँ काण्ड गृहस्थ जीवन के सम्बन्ध में पर्याप्त प्रकाश डालता है । वहाँ नारी को पतिगृह की सम्राज्ञी बनने का उसी प्रकार उल्लेख मिलता है जैसे बलवान् समुद्र नदियों पर साम्राज्य करता है । " 


" অথর্ববেদের চতুর্দশ কাণ্ড গৃহস্থজীবন সমন্ধে  যথেষ্ট আলোকপাত করে। সেখানে নারীকে তার স্বামীর ঘরের সম্রাজ্ঞী (রানী) হওয়ার কথা উল্লেখ করা হয়েছে যেভাবে পরাক্রমশালী সমুদ্র নদীর উপর রাজত্ব করে। "


अथर्ववेद के अनुसार नारियाँ बाह्याभ्यन्तर से शुद्ध तथा यज्ञिय है । " ये शुभ गुणों की खान " तथा सब पुरुषों , पशुओं एवं समस्त क्षेत्र के लिये कल्याणकारिणी हैं । " अग्निस्वरूप परमात्मा ने आयु तथा तेज के साथ पत्नी ( नारी ) उत्पन्न किया है । 


অথর্ববেদ অনুসারে নারীরা বাইরে ও ভিতর থেকে শুদ্ধ ও যজ্ঞপ্রিয়। "তারা শুভ গুণের খনি" তথা সব পুরুষদের, পশুদের এবং সমস্ত ক্ষেত্রের জন্য কল্যাণকারিণী। " অগ্নিস্বরূপ পরমাত্মা আয়ু ও তেজসহিত পত্নী (নারী) উৎপন্ন করেছেন।


श्वसुर , पति , गृह तथा सम्पूर्ण प्रजा के लिए सुखकर होने के कारण ही उसे इन सबके पोषक होने का आशीर्वाद भी दिया गया है । " अथर्ववेदीय नारी को सम्मानजनक स्थान प्राप्त था । अथर्ववेद में नारी के विभिन्न रूपों का वर्णन प्राप्त होता है । 


শ্বশুর, স্বামী, গৃহ এবং সমস্ত প্রজাদের জন্য সুখকর হওয়ার কারণে তাকে সকলের পোষক হওয়ার আশীর্বাদ করা হয়েছে। "অথর্ববেদীয় নারীর একটি সম্মানজনক স্থান রয়েছে। অথর্ব বেদে নারীর বিভিন্ন রূপের বর্ণনা করা হয়েছে।


.१ प्रोजेक्ट फैलो , वेद विभाग , गुरुकुल काङ्गड़ी विश्वविद्यालय , हरिद्वार उत्तराखण्ड । 


२ मनु ० - ३.५६ 

১.প্রোজেক্ট ফৈলো, বেদ বিভাগ, গুরুকুল কাঙ্গড়ী বিশ্ববিদ্যালয়,হরিদ্বার উত্তরাখণ্ড।

২.মনু০-৩.৫৬

৩.য়াজ্ঞ ০ স্মৃ ০১.৩৪,৩৫

३ याज्ञ ० स्मृ ०१.३४ , ३५ 


उपाध्यायान्दशाचार्य आचार्याणां शतं पिता । सहसं तु पितृन माता गौरवेणातिरिच्य ॥ मनु०-२.१४५ 


४ अयज्ञो वा होप योऽपत्नीक : तै ० ब्रा ०२.२.२.६ 


উপাধ্যায়ান্দশাচার্য আচার্য়াণাং পিতা।

সহসং তু পিতৃন মাতা গৌরবেণাতিরিচ্য।।

                  মনু০-২.১৪৫

৪.অযজ্ঞো বা হোপয়োঽপত্নীকঃ তে ০ ব্রা ০২.২.২.৬


५ अषा॑ढास सह॑माना॒ सह॒स्वारा॑ति सह॑स्व पृतनाय॒तः । स॒हस्र॑वीर्य्यासि॒ सा मा॑ जिन्व ॥ यजु ०१३.२६ अ॒स॒प॒त्वा स॑पत॒घ्नी जय॑न्त्यभि॒भूव॑री । आवृ॑क्षम॒न्यासां॒ वचॊ राधा॒ अस्थैयसामि ॥ ऋग् ० १०.१५ ९ .५ 


৫.আষাঢ়াস সহমানা সহস্বারাতি সহস্ব পৃতনায়তঃ।

সহস্রবীর্য়্যাসি সা মা জিন্ব।।          -যজু ০ ১৩.২৬

অসপত্বা সপতঘ্নী জয়ন্ত্যভিভূবরী।

আবৃক্ষমন্যাসাং বচো রাধা অস্থৈয়সামি।।

                                   -ঋগ্ ০ ১০.১৫৯.৫


६ प्रेति॑ पायै॒ प्र स्फुरतं॒ वह॑तं पृण॒तो गृ॒हान् । इ॒न्द्रा॒ण्ये॑ तु प्रथ॒माजी॒जो॒तामु॑षिता पु ] अथर्व ०१.२७.४ 

७ अथर्व ०१४.१.४४ 


৬.প্রেতি পায়ৈ প্রে স্ফুরতং বহতং পৃণতো গৃহান্।

ইন্দ্রাণ্যে তু প্রথমাজীজোতামুষিতা পু।।

                                      -অথর্ব ০১.২৭.৪

৭.অথর্ব০ ১৪.১.৪৪


८ अ॒वीरा॑मिव॒ माम॒यं॑ श॒रारु॑र॒भि म॑न्यते । उ॒ताहम॑स्मि वी॒रिणीन्द्र॑पत्नी म॒रुत्स॑खा॒ विश्व॑स्मा॒दिन्दू उत्त॑रः ॥ अथर्व०-२०.१२६.९ 


৮.অবীরামিব মাময় শরারুরভি মন্যতে।

উতাহমস্মি বীরিণীন্দ্রপত্নী মরুত্সখা বিশ্বস্মাদিন্দূ  উত্তরঃ।।                       অথর্ব০-২০.১২৬.৯


१. कन्या के रूप में नारी का वर्णन 


১.কন্যা রূপে নারীর বর্ণন


अथर्ववेदवर्णित कन्या को असाधारण एवं अद्भुत शक्तिसम्पन्न माना गया है । उसे यश ' " तथा वर्चस् " युक्त होने के साथ - साथ कुल की रक्षिका बतलाया गया है । " वधु के रूप में कन्या का स्वागत करते हुए कहा गया है ए॒षा तै राजन् क॒न्या॑ व॒धूर्न धूंयतां यम सा मा॒तुर्बध्यताम॑ गृ॒हेऽथो॒ भ्रातु॒रथो॑ पि॒तुः ॥ 


অথর্ববেদে বর্ণিত কন্যাকে অসাধারণ এবং বিস্ময়কর শক্তিসম্পন্ন মনে করা হয়। তাকে যশ

 " তথা খ্যাতি " এবং সেইসাথে বংশের রক্ষীকা হিসাবে বর্ণনা করা হয়েছে। "বধূ রূপে কন্যাকে স্বাগত জানিয়ে বলা হয়েছে, 


হে এষা তৈ রাজন্ কন্যা বধূর্ন ধূংয়তা য়শ সা মাতুর্বধ্যতাম গৃহেঽথো ভ্রাতুরথো পিতুঃ।।


मुख्य अवसरों पर जिस प्रकार कन्याभोज का प्रचलन है , वह कन्याओं के प्रति परम्परा से चले आ रहे सत्कार का प्रतीक है । वर्तमानकालिक पुरुष प्रधान समाज की तरह अथर्ववेद में भी पुत्री की अपेक्षा पुत्र को श्रेष्ठ माना गया है , क्योंकि उससे सम्बन्धित जिस संस्कार का शुभारम्भ हुआ ; पुंसवन संस्कार के नाम से अभिहित किया गया है । 


প্রধান অনুষ্ঠানগুলোতে যেমন কন্যাভোজের প্রচলন আছে, ওইগুলো কন্যাদের প্রতি পরম্পরা থেকে এটি চলে আসা শ্রদ্ধার প্রতীক। বর্তমান পুরুষ প্রধান সমাজের মতো অথর্ববেদেও পুত্রী অপেক্ষা পুত্রকে শ্রেষ্ঠ বলে মনে করা হয়েছে, কারণ তাদের (কন্যা) সমন্ধিত যে সংস্কারের শুভারম্ভ হয়, সে  সংস্কারের নাম পুংসবন।যথাঃ


यथा 


९ न मत्स्त्री सु॑भि॒सत्त॑रा॒ न सुयायु॑तरा भुवत् । न मत् प्रति॑च्यवीयसी॒ न सक्थ्युच॑मीय विश्व॑स्मा॒दिन्द्र उत्त॑रः । अथर्व ० २०.१२६.६ 

৯. ন মত্সত্রী সুভিসত্তরা ন সুয়ায়ুতরা ভুবত্।

ন মত্ প্রতিচ্যবীয়সী ন সক্থ্যুচমীয় বিশ্বস্মাদিন্দ্র উত্তরঃ।                  অথর্ব ০ ২০.১২৬.৬



१० भग॑स्त्वे॒तो न॑यतु हस्त॒गृह्य॒श्विना॑ त्वा॒ प्र व॑हतो॒ रथे॑न । गृ॒हान् ग॑च्छ गृ॒हप॑ यथासो॑ व॒शिनो॒ त्वा॑ वि॒दध॒मा व॑दास ॥ अथर्व ० - १४.१.२० 

১০. ভগস্ত্বেতো নয়তু হস্তগৃহ্যশ্বিনা ত্বা প্র বহতো রথেন। গৃহান্ গচ্ছ গৃহপ য়থাসো বশিনো ত্বা বিদধমা বদাস।।           অর্থব ০ - ১৪.১.২০


११ यथा॒ सिन्धु॑न॒दीनां॒ साम्रज्यं सुषुवे वृषा॑ ए॒वा त्वं स॒म्राज्ये॑धि॒ पत्यु॒रस्ता॑ प॒रेत्य॑ ॥ अथर्व०-१४.१.४३ 


১১.যথা সিন্ধুনদীনাং সাম্রজ্যং সুষুবে বৃষা এবা ত্বং সম্রাজ্যেধি পত্যুরস্তা পরেত্য।। অথর্ব ০ -১৪.১.৪৩


१२ शु॒द्धाः पू॒ता यो॒षितो॑ य॒ज्ञिया॑ इ॒मा आपश्च॒रुमव॑ सप॑न्तु॒ शु॒भ्राः । अदु॑ः प्र॒जां ब॑हु॒लान् प॒शून न॑ प॒क्तौद॒नस्य॑ सु॒कृता॑मतु लोकम् ॥ अथर्व ० ११.१.१७ 

१३ एमा अ॑गुर्योषितः शु॒म्भ॑माना॒ उत्ति॑ष्ठ नारि त॒वसै रभस्व । सु॒पत्नी॒ पत्या॑ प्र॒जया॑ प्र॒जाव॒त्या त्वा॑गन् य॒ज्ञः प्रति॑ि कुम्भं गृ॑भाय ॥    अथर्व ० - ११.१.१४


 ১২.শুদ্ধাঃ পুতা য়োষিতো য়জ্ঞিয়া ইমা আপশ্চরুমব সপন্তু শুভ্রাঃ। অদুঃপ্রজাং বহুলান পশুন ন পক্তৌদনস্য সুকৃতামতু লোকম্।। 

 অথর্ব ০- ১১.১.১৭

১৩.এমা অগুর্য়োষিতঃ শুম্ভমানা উত্তিষ্ঠ নারি তবসৈ রভস্ব। সুপত্নী পত্যা প্রজয়া প্রজাবত্যা ত্বাগন্ যজ্ঞঃ প্রতিকুম্ভং গৃভায়।।    অথর্ব ০ - ১১.১.১৪


१४ शि॒वा भ॑व॒ पुरु॑षेभ्यो॒ गोभ्यो॒ अग्ने॑भ्यः शिवा । शि॒वास्मै सर्वस्मै॒ क्षेत्रा॑य शि॒वा न॑ इ॒हैधिं ॥ अथव॑०-३.२८.३ 


১৪.শিবা ভব পুরুষেভ্যো গোভ্যো অগ্নৈভ্যঃ শিবা।

শিবাস্মৈ সর্বস্মৈ ক্ষেত্রায় শিবা ন ইহৈধিং।।

 অথর্ব ০-৩.২৮.৩


१५ पुनः पत्नी॑म॒ग्निर॑दा॒दायु॑षा स॒ह वर्च॑सा । दी॒र्घायु॑रस्या॒ यः पति॒र्जीवा॑ति श॒रद॑ः श॒तम् ॥ अथर्व ० - १४.२.२ 

१६ स्यो॒ना भ॑व॒ श्वशु॑रेभ्यः स्यो॒ना पत्ये॑ गृ॒हेभ्य॑ः । स्यो॒नास्यै सर्व॑स्यै वि॒शे स्यो॒ना पु॒ष्टायैषां भव ॥ अथ०-१४.२.२७ 


১৫.পুনঃ পত্নীমগ্নিরদাদায়ুষা সহ বর্চসা। 

দীর্ঘায়ুরস্যা য়ঃ পতির্জীবাতি শরদঃ শতম্।৷   

অথর্ব ০-১৪.২.২


১৬.স্যোনা ভব শ্বশুরেভ্যঃ স্যোনা পত্যে গৃহেভ্যঃ।স্যোনাস্য়ৈ সর্বস্যৈ বিশো স্যোনা পুষ্টায়ৈষাং ভব।।

অথর্ব ০-১৪.২.২৭


१७ यथा॒ यश॑ क॒न्या॑यो॒ यथा॒स्मिन्त्स॑भृ॑ते॒ रथे॑ । ए॒वा मे॑ व॒र॒णो म॒णिः का॒र्त भूति॒ निय॑च्छतु॒ तेज॑सा मा॒ सम॑क्षतु यश॑सा॒ सम॑नक्तु मा ॥ अथर्व ० - १०.३.२० 


১৭.যথা যশ কন্যায়ো যথাস্মিন্ত্সভৃতে রথে। এবা মে বরণো মণিঃ কার্ত ভুতি নিয়চ্ছতু তেজসা মা সমক্ষতু য়শসা সমনক্তু মা।।     অথর্ব ০-১০.৩.২০


१८ क॒न्या॑यो॒ वच॒ यद् भ॑मे॒ तेनास्मा॒ अधि॒ सं सृ॑ज॒ मा नौ द्विक्षत॒ कचन ।। अथर्व ० - १२.१.२५ 


१ ९ ए॒षा ते॑ राजन् क॒न्या॑ व॒धूरि॑ धृ॑यतां यम । सा मा॒तुर्बाध्यताम॑ गृ॒हेऽथो॒ दद्मसि । ज्योक् पि॒तृष्वा॑साता॒ आशी॒र्ष्णः स॒मोप्या॑त् ॥ अथव॑०-१.१४.२-३ 


১৮.কন্যায়ো বচ য়দ্ ভমে তেনাস্মা অধি সং সৃজ মা নৌ দ্বিক্ষত কচন।।    অথর্ব ০-১২.১.২৫


১৯.এষা তে রাজন্ কন্যা বধুরি ধৃয়তাং য়ম।সা মাতুর্বাধ্যতাম গৃহঽথো দদ্মসি।জ্যোক্ পিতৃষ্বাসাতা আশীর্ষ্ণঃ সমোপ্যাত্।।ভ্রাতুরথো পিতুঃ।।এষা তে কুলপা রাজন্ তাম তে পরি।    

অথর্ব ০-১.১৪.২-৩.

২০   অথর্ব ০-১.১৪.২


अथर्ववेदीय नारी का स्वरूप  


प्र॒जाप॑ति॒रनु॑मति : सिनीवा॒ल्य॑चीक्लृपत् । स्त्रैष॑यम॒न्यत्र॒ दध॒त् पुमसमु दयदि॒ह।।` 


 প্রজাপতিরনুমতিঃ সিনীবাল্যচীক্লৃপত্। স্ত্রৈষয়মন্যত্র দধত্ পুমসমু দয়দিহ।।


भाषार्थ : - ( अनुमतिः ) अनुकूल बुद्धिवाली , ( सिनीवाली ) अन्नवाली ( प्रजापतिः ) प्रजापालक शक्ति परमेश्वर ने ( अचीक्लृपत् ) यह शक्ति दी है । ( अन्यत्र ) दूसरे प्रकार में ( स्त्री का रज अधिक होने में ) ( स्त्रैसूयम् ) स्त्री जन्म सम्बन्धी क्रिया ( दघत् ) वह ( ईश्वर ) धारण करता है और ( इह ) इसमें ( पुरुष का वीर्य अधिक होने पर ) ( उ ) निश्चय करके ( पुंमासम् ) बलवान् सन्तान को ( दघत् ) वह स्थापित करता है । 

ভাবার্থ- (অনুমতিঃ) অনুকূল বৃদ্ধিকারী,(সিনীবালী) অন্নদানকারী (প্রজাপতি) প্রজাপালক শক্তি পরমেশ্বর (অচীক্লৃপত্) এই শক্তি দিয়েছেন। (অন্যত্র) অন্য ভাবে তিঁনি (স্ত্রীর রজ অধিক হলে) (স্ত্রৈসূয়ম্) স্ত্রী জন্ম সমন্ধী ক্রিয়া (দঘত্) তিঁনি (ঈশ্বর) ধারণ করেন এবং (ইহ) এতে (পুরুষের বীর্য অধিক হলে) নিশ্চিত করে (পুংমাসম্) বলবান সন্তানকে (দঘত্) তিনি স্থাপিত করেন।


भावार्थ- मनुष्य उत्तम बुद्धिवाला , अन्नवान् और प्रजापालक होकर ईश्वर नियम से गृहस्थाश्रम के योग्य होता है और स्त्री का रज अधिक होने पर कन्या तथा पुरुष का वीर्य अधिक होने पर पुरुष सन्तान उत्पन्न होती है । 


ভাবার্থ- মনুষ্য উত্তম বৃদ্ধিকারী,অন্নবান এবং প্রজাপালক হয়ে ঈশ্বরের নিয়মের মাধ্যমে গৃহস্থাশ্রমের যোগ্য হয়ে উঠে এবং স্ত্রীর রজ অধিক হলে কন্যা তথা পুরুষের বীর্য অধিক হলে পুরুষ সন্তান উৎপাদিত হয়।


२. कुमारी के रूप में नारी की महत्ता 


কুমারী রুপে নারীর মহত্তা


अथर्ववेद में विवाह के योग्य स्त्री को कुमारी नाम से अभिहित किया गया है । यथा -

 आ नो॑ अग्ने सुम॒तिं सं॑भ॒लो ग॑मेदिमां कु॑मा॒रो॑ स॒ह नो॒ भग॑न । जुष्टा व॒रेषु सम॑नेषु व॒ल्गुरो॒षं पत्या॒ सौभ॑गमस्त्व॒स्यै ॥ ” 

इसी अर्थ में कन्या या कन्यला शब्द भी प्रयोग किया गया है । ये कन्याएँ विवाह की इच्छा से युक्त होकर पिता के घर से पति के घर जाने की इच्छा करतीं हैं । ऐसा सङ्केत अथर्ववेद के अधोलिखित मन्त्रांश में द्रष्टव्य है 


অথর্ববেদে বিবাহের যোগ্য স্ত্রীকে কুমারী নামে অভিহিত করা হয়। যথা- 

“আ নো অগ্নে সুমতিং সভলো গমেদিমাং কুমারো সহ নো ভগন। জুষ্টা বরেষু সমসেষু বল্গুরোষং পত্যা সৌভগমস্ত্বস্যৈ।।”

এর অর্থে কন্যা বা কন্যালা শব্দও প্রয়োগ করা হয়েছে। এই কন্যা বিবাহের ইচ্ছায় যুক্ত হয়ে পিতার ঘর থেকে পতির ঘরে যাবার ইচ্ছা পোষণ করে। এই সংকেত অথর্ববেদের অধোলিখিত মন্ত্রাংশতে দ্রষ্টব্য হিসেবে রয়েছে।



उ॒श॒तीः क॒न्यवा॑ इ॒माः पि॑तृलो॒कात्पति॑ य॒ती । अव॑ दी॒क्षाम॑सृक्षत॒ स्वाहा॑ ॥ अथर्व ० - १४.२.५२ 


উশতীঃ কন্যবা ইমাঃ পিতৃলোকাত্পতি য়তী।

অব দীক্ষামসৃক্ষত স্বাহা।।   অথর্ব ০-১৪.২.৫২


भाषार्थ- ( इमा :) यह ( उशती :) कामना करती हुई ( कन्यला :) शोभावती कन्यायें ( पितृलोकात् ) पितृलोक ( पितृकुल ) से ( पतिम् ) अपने अपने पतिकुल को ( यती :) जाती हुई ( स्वाहा ) सुन्दर वाणी के साथ ( दीक्षाम् ) दीक्षा ( नियम व्रत की शिक्षा ) को ( अवसृक्षत ) दान करें ।


ভাষার্থ-(ইমাঃ) এই (উশতীঃ) কামনা করে (কন্যালাঃ) শোভাবতী কন্যা (পিতৃলোকাত্) পিতৃলোক (পিতৃলোক) থেকে (পতিম্) নিজে নিজে পতিকুলকে (যতীঃ) অতিক্রম করে (স্বাহা) সুন্দর বাণীর সাথে (দীক্ষাম্) দীক্ষা (নিয়ম ব্রত কী শিক্ষা) কে (অবসৃক্ষত) দান করে।


३. पत्नी के रूप में नारी की महत्ता 


पत्नी गृहस्थ जीवन का एक अभिन्न अङ्ग है । जिसके बिना गृहस्थ जीवन के समस्त रस , सुख एवं सौन्दर्य विनष्ट हो जाते हैं । अधोलिखित मन्त्र में पत्नी के गुणों का वर्णन किया गया है 


৩.পত্নী রূপে নারীর মহত্ত্ব 


পত্নী হলো গৃহস্থ জীবনের এক অভিন্ন অঙ্গ। যাকে ছাড়া গৃহস্থ জীবনের সমস্ত রস,সুখ এবং সৌন্দর্য  বিনষ্ট হয়ে যায়। অধোলিখিত মন্ত্রে পত্নীকে গুণের বর্ণন বলা হয়েছে। 


अघो॒र॑चक्षुरप॑तिघ्नी स्यो॒ना श॒ग्मा सु॒शेवा॑ सु॒यमा॑ गृ॒हेभ्य॑ः । वी॒र॒सूर्दे॒वृका॑मा॒ सं त्वयै॑धिषीमह सुमन॒स्यमा॑ना।।` 


অঘোরচক্ষুরপতিঘ্নী স্যোনা শগ্মা সুশেবা সুয়মা গৃহেভ্যঃ। বীরসূর্দেবৃকামা সং ত্বয়ৈধিষীমহ সুমনস্যমানা।।


इस मन्त्र में कहा गया है कि वह अद्योरचक्षु हो अर्थात् किसी को कुदृष्टि से न देखे । अपतिघ्नी हो अर्थात् पति का किसी भी प्रकार से अहित न करे । स्योना और सुयमा शब्दों से अभिप्राय है कि वह परिवार के लिए सुखद हो तथा संयमी जीवन बिताने वाली हो ।


এই মন্ত্রে বলা হয়েছে যে,অদ্দ্যোরচক্ষু আছে অর্থাৎ কাউকে কুদৃষ্টিতে দেখো না। কৃপন হও অর্থাৎ পতিকে কোনোভাবে কষ্ট দিও না এবং ক্ষতি করো না।


 सुशेवा से अभिप्राय है कि वह परिवार के लोगों की सेवा करने वाली हो । उसके अन्य गुण हैं - वह वीर सन्तानों को जन्म देने वाली हो , देवभक्त तथा आस्तिक हो , सौमनस्य वाली हो तथा देवरों आदि को हानि पहुँचाने वाली न हो । पद्मपुराण में कहा गया है कि पतिव्रता स्त्री वह हो जो कार्यों में दासी की भान्ति , सहवास में अप्सरा जैसी , भोजन के समय माँ जैसी तथा विपत्ति में मन्त्री के समान मार्ग सुझाने वाली तथा गोपथ ब्राह्मण में पत्नी को घाटय अर्थात् गृहस्थधारिका हो । ” तैत्तिरीयारण्यक में पत्नी को साक्षात् श्रद्धा , 


সুশেবা অর্থ হলো, পরিবারের লোকের সেবা করা। তার অন্যান্য গুণও রয়েছে - সে বীর সন্তান জন্মদানকারী,দেবভক্ত তথা ধার্মিক, দেবর ও অন্যান্যদের হানিকারী নয়। পদ্মপুরাণে বলা হয়েছে যে, পতিব্রতা স্ত্রী সেই যে কোনো কার্যে পারদর্শী,সহবাসে অপ্সরা, ভোজনের সময় মাতার মতো যত্নকারী তথা বিপত্তিতে মন্ত্রীর মতো সহায়তা কারীই গৃহস্থধারিকা অর্থাৎ পতিব্রতা স্ত্রী বলা হয়েছে।


कहा गया है । " अथर्ववेद में इन्द्रादि के तुल्य उनकी पत्नियों को भी देवतुल्य आदर प्राप्त था । उन्हें भी यज्ञ में आमन्त्रित किया जाता था । अथर्ववेद में पत्नी का स्थान बहुत उत्कृष्ट बताया गया है । उसे गृहस्वामिनी , गृहलक्ष्मी , सम्राज्ञी , कल्याणी आदि कहा गया है । वह घर की सारी व्यवस्था देखती है अतः उसे सम्राज्ञी कहा गया है । यथा 


অথর্ববেদানুসারে ইন্দ্রাদির সমতুল্য তাদের পত্নীকেও দেবতুল্য সম্মান প্রদর্শন করতে হবে।তাদেরও যজ্ঞে আমন্ত্রণ করতে হবে। অথর্ববেদ পত্নীর স্থান অনেক উৎকৃষ্ট করেছে। তাকে গৃহকর্তী,গৃহলক্ষ্মী, সম্রাজ্ঞী,কল্যাণী ইত্যাদি বলা হয়েছে। সে ঘরের সকল ব্যবস্থা দেখাশুনা করে অতঃপর তাকে সম্রাজ্ঞীও বলা হয়েছে। যথা-


भग॑स्त्वे॒तो न॑यतु हस्त॒गृह्य॒श्विना॑ त्वा॒ प्र व॑हता॒ रथे॑न । 

गृ॒हान् ग॑च्छ गृ॒हप॑नो॒ यथा॒ासो॑ व॒शिनो॒ त्वं वि॒दथ॒मा व॑दासि ॥ यथा॒ सियु॑र्य॒दीनां॒ साम्रा॑ज्य॑ सु॒षु॒वे वृषा॑ ए॒वा त्वं स॒म्राज्ञ्ये॑धि॒ पत्यु॒रस्ता॑ प॒रेत्या॑य॑ ॥ २८ 

“ ভগস্ত্বেতো নয়তু হস্তগৃহ্যশ্বিনা ত্বা প্র বহতাং রথেন। গৃহান্ গচ্ছ গৃহপনো যথাসৌ বশিনো ত্বং বিদথমা বদাসি।।যথা সিয়ুর্যদীনাং সাম্রাজ্য সুষুবে বৃষা এবা ত্বং সম্রাজ্যেধি পত্যরস্তা পরেত্যায”।। ২৮


इस प्रकार स्पष्ट है कि पत्नी गृहस्थाश्रम का आधार है । उसके बिना गृहस्थाश्रम दुःखमय एवं कष्टमय हो जाता है । गृहस्थ जीवन की सफलता पत्नी के विशिष्ट गुणों तथा व्यवहार पर निर्भर करती है । 


এখানে স্পষ্ট যে,পত্নীই গৃহস্থাশ্রমের মূল। তাকে ব্যাতিত গৃহস্থাশ্রম দুঃখময় এবং কষ্টময় হয়।গৃহস্থ জীবনের সফলতা পত্নীর বিশিষ্ট গুণ তথা ব্যবহারের উপর নির্ভর করে।


২১.অথর্ব ০ ৬.১১.৩

২২.অথর্ব ০.২.৩৬.১

২৩.অথর্ব ০ ১৪.২.১৭

২৪.ধর্মশাস্ত্রের ইতিহাস ২৯

২৫.শ্রদ্ধা পত্নী -তৈ ০ আ ০-১০.৬৪.১


৪.মাতা রূপে নারী


४. माता के रूप में नारी 

सामाजिक दृष्टि से माता का स्थान सर्वोच्च माना गया है । अथर्ववेद के अनुसार पुत्र को जन्म देने के कारण ही ऋषियों ने माता को जनित्री कहा है । पुत्र के लिए कहा गया है कि सर्वथा माता के अनुकूल रहे । यथा

 अनु॑व्रतः पि॒तुः पु॒त्रो पा॒त्रा भ॑वतु संम॑नाः । २ ९

जा॒या पत्ये॒ मधु॑मती॒ वाच॑ वदतु शन्ति॒वाम् ॥ 


সামাজিক দৃষ্টিকোণ থেকে মাতাকে সর্বোচ্চ স্থান দেয়া হয়। অথর্ববেদ অনুসারে, ঋষিরা মাতাকে পুত্রের জন্ম দেয়ার জন্য জনিত্রী বলেছেন। পুত্রের জন্য অর্থব বেদে বলা হয়েছে সর্বক্ষেত্রে মাতার অনুকূলে থাকতে । যথা-

অনুব্রতঃ পিতুঃ পুত্রো পাত্রা ভবতু সংমনাঃ।

জায়া পত্যে মধুমতী বাচ বদতু শান্তিবাম।। ২৯


" कुछ इसी तरह का उल्लेख आपस्तम्ब धर्मसूत्र में भी मिलता है , वहाँ पर कथन है कि पुत्र का यह सर्वप्रथम कर्त्तव्य बनता है कि वह अपनी माता की सदैव सेवा करे , भले ही वह जातिच्युत हो चुकी हो , क्योंकि माता अपनी सन्तान के लिए महान् कष्टों को सहन करती है । 


অাপস্তম্ব ধর্মসূত্রে অনুরূপভাবে উল্লেখ রয়েছে, সেখানে বলা হয়েছে পুত্র সর্বদা তার মাতার সেবা করবে এবং সেটিই পুত্রের প্রথম কর্তব্য, এমনকি যদি মাতা বর্ণহীনও হয়, কারণ মাতা তার সন্তানের জন্য মহান কষ্টকেও সহ্য করেন।


" अथर्ववेद के मन्त्र में स्पष्ट उल्लेख मिलता है कि पुत्र को जन्म देने वाली माताएँ ही समाज में सम्मानीय एवं आदरणीय हैं । यथा - 

पुमा॑सं पुत्रं ज॑नय॒ तं पुमा॒ननु॑ जायताम् । भवा॑सि पु॒त्राणा॑ मा॒ता जा॒तानां॑ ज॒नया॑श्च॒ यान ।। अथर्व ० - ३.२३.३ । 


অথর্ববেদের মন্ত্রে স্পষ্টভাবে উল্লেখ রয়েছে যে, সন্তান জন্মদানকারী মাতারা সমাজে সম্মানিত ও আদরণীয় হন। যথা-

পুমাসং পুত্র জনয় তং পমনননু জায়তাম্।

ভবাসি পুত্রাণা মাতা জাতানা জনয়াশ্চ য়ান।।                   ।                                                অথর্ব ০-৩.২৩.৩


महाभारत के आदि पर्व में कहा गया है कि सर्वेषामेव शापानां प्रतिघातो हि विद्यते । न तु मात्राभिशप्तानां मोक्षः कश्चन विद्यते ॥ 


মহাভারতের আদি পর্বে বলা হয়েছে যে,

সর্বেষামেব শাপানাং প্রতিঘাতো হি বিদ্যতে।

ন তু মাত্রাভিশপ্তানাং মৌক্ষঃ কশ্চন বিদ্যতে।।


अर्थात् सभी प्रकार के शापों से मुक्ति पायी जा सकती है , किन्तु माता के द्वारा प्रदत्त शाप से मुक्ति पाने का कोई भी उपाय नहीं है । अतः मनुष्य को हमेशा अपनी माता की सेवा करनी चाहिए । अथर्ववेद में वर्णित मातारूप में नारी की महत्ता को व्याख्यापित करने के बाद नारी के अधिकारों एवं कर्त्तव्यों की चर्चा करना नितान्त आवश्यक है । 


অর্থাৎ সকল প্রকার অভিশাপ থেকে মুক্তি পাওয়া যায়, কিন্তু মাতার দেওয়া অভিশাপ থেকে মুক্তির উপায় নেই। তাই মানুষের উচিত সর্বদা মাতার সেবা করা। অথর্ববেদে বর্ণিত মাতা রূপে নারীর মহত্ত্বকে  ব্যাখ্যা করার পর নারীর অধিকার ও কর্তব্যের চর্চা করা অত্যন্ত আবশ্যক।


५. अथर्ववेद में वर्णित स्त्री के अधिकार 

৫.অথর্ববেদে বণির্ত স্ত্রীর অধিকার


नारी के अधिकारों के अन्तर्गत यह विचारणीय विषय है कि घर एवं परिवार में नारी को कितना अधिकार प्राप्त है । उसकी स्थिति परिवार में गृहस्वामिनी के तुल्य है अथवा दासी के समान है ? वह परिवार में कैसा जीवन व्यतीत करती है ? अथर्ववेद स्त्री को पति के घर में रानी के समान स्थान प्राप्त करने तथा चमकने का आशीर्वाद देता है । यथा - सुवाना पुत्रान् महिषी भवातिगत्वा पति सुभगा विराजतुम् ।" अथर्ववेदीय मन्त्र १४.१.२० 


নারীর অধিকারের অন্তর্গত, বিচারণীয় বিষয় রয়েছে যে, ঘর এবং পরিবারে নারীদের কতটুকু অধিকার আছে। পরিবারে তার অবস্থান কি একজন গৃহকর্তীর সমান নাকি একজন দাসীর সমান? সে পরিবারে কীভাবে জীবন ব্যতীত করে? অথর্ববেদ একজন নারীকে তার পতির ঘরে রাণীর মতো স্থান ও উজ্জ্বল হওয়ার আশীর্বাদ করে।যথা-


“সুবানা পুত্রান্ মহিষী ভবাতিগত্বা পতি সুভগা বিরাজতুম্।”          অথর্ববেদীয় মন্ত্র ১৪.১.২০


में उसे वशिनी कह कर उसका अधिकार स्वीकार किया है । " वह पति के घर में जाकर वैसे ही सम्राज्ञी बनती है जैसे नदियों का वृषा समुद्र । इस उपमा से स्पष्ट है कि नदियाँ जैसे अपना समस्त जल समुदाय समुद्र को अर्पण कर देती है , ऐसे ही घर के समस्त धन पर उसी का अधिकार है । अथर्ववेद का एक अन्य मन्त्र पत्नी के अधिकारों की ओर सङ्केत करते हुए कहता है। 



আমি তাকে বশিনী বলে তার অধিকার মেনে নিয়েছি। " নারী তার স্বামীর বাড়িতে গিয়ে সম্রাজ্ঞী হয়ে ওঠেন যেভাবে নদীগুলোর মধ্যে সম্রাজ্ঞী সমুদ্র। এই উপমা থেকে স্পষ্ট হয় যে, নদী যেমন নিজের সমস্ত জল সমুদ্রের কাছে অর্পন করে, তেমনি ঘরের সমস্ত সম্পদে তার (পত্নী) অধিকার রয়েছে। অথর্ববেদের এক অন্য মন্ত্রে পত্নীর অধিকারকে নির্দেশ করে বলা হয়েছে,

 

अ॒हं व॑दामि॒ नेत् त्वं स॒भाया॒मह॒ त्वं वद॑ । 

ममेदस॒स्त्वं केव॑लो॒ नान्यासः॑ का॒र्तया॑श्च॒न ॥ अथर्व ० - ७.३८.४ 

অহং বদামি নেত্ ত্বং সভায়ামহ ত্বং বদ।

মমেদসস্ত্বং কেবলো নান্যাসঃ কার্তয়াশ্চন।।

                                                    অথর্ব ০-৭.৩৮.৪


अर्थात् घर के कार्यों में पत्नी बोले और बाहर के कार्यों तथा सभा आदि में पति बोले । उत्ता॑नपण॒ सुभ॑रो॒ देव॑ज॒ते॒ सह॑स्वति । स॒पत्नी॑ मे॒ परा णुद॒ पति॑ मे॒ केव॑लं कृषि- इस मन्त्र में पति पर पत्नी के एकाधिकार होने सङ्केत प्राप्त होता है । यहाँ पत्नी को धर्मपत्नी तथा पति को गृहपति माना गया है । जैसा कि इस मन्त्रांश में स्पष्ट कथन मिलता है 


 অর্থাৎ ঘরের কাজে পত্নী কথা বলে আর বাইরের কাজে তথা আলোচনায় পতি কথা বলে। 

“উত্তানপণ সুভরো দেবজতে সহস্বতি।

সপত্নী মে পরা ণুদ পতি মে কেবলং কৃষি”

এই মন্ত্র পতির উপর পত্নীর অধিকারের সংকেত রয়েছে। এখানে পত্নীকে ধর্মপত্নী এবং পতিকে গৃহকর্তা বলা হয়েছে। এই মন্ত্রে যেমন স্পষ্টভাবে বলা আছে


पत्नी॑ती॒ त्वम॑सि॒ धर्म॑णा॒हं गृ॒हप॑ति॒स्तव॑ । अथर्व ० १४.१.५१ 


পত্নীতী ত্বমসি ধর্মণাহং গৃহপতিস্তব।

                                         অথর্ব ০ ১৪.১.৫১


अथर्ववेद नारी को यज्ञाधिकारिणी मानता है तथा स्त्री के यज्ञ भाग लेने का उल्लेख प्राप्त होता है । " कुछ स्थलों पर स्त्रियों के सभा तथा समिति में जाकर भाग लेने तथा अपने मत प्रस्तुत करने का भी उल्लेख मिलता है । इस प्रकार स्पष्ट हो जाता है कि अथर्ववेदवर्णित नारी को घर में सभी प्रकार के अधिकार प्राप्त थे । उसे यज्ञ में भाग लेने का अधिकार प्राप्त होने के साथ - साथ सभा में अपने मत प्रस्तुत करने का भी अधिकार था ।

 

অথর্ববেদ নারীকে  কর্তা হিসেবে বিবেচনা করে এবং সেখানে নারীদের যজ্ঞে অংশগ্রহণের কথা উল্লেখ আছে। "কিছু কিছু জায়গায় নারীদের সভা তথা সমিতিতে গিয়ে নিজের মতামত দেওয়ার কথাও উল্লেখ আছে। এভাবে স্পষ্ট হয় যে অথর্ববেদে বর্ণিত নারীদের ঘরে সকল প্রকার অধিকার রয়েছে। তাদের যজ্ঞে অংশগ্রহণ করার অধিকার প্রাপ্তির পাশাপাশি, কোন সভা বা সমাবেশে নিজেদের মতামত উপস্থাপনেরও অধিকার রয়েছে।


२६ पत्नी धाटया । गो ० उ ० ३.२१.२२ 


२७ उ॒तग्ना व्य॑न्तु दे॒वप॑त्नीरन्द्रा॒ण्य॑ग्नाप्य॒श्विनो॒ राट् । आ रोद॑सी वरुणा॒नी शृ॒णोतु॒ दे॒वीर्य ऋ॒तुर्जनी॑नाम् ॥ अथर्व०-७.४९ .२ 

২৬.পত্নী ধাটয়া।গো ০ উ ০ ৩.২১.২২

২৭. উতগ্না ব্যন্তু দেবপত্নীরন্দ্রাণ্যগ্নাব্যশ্বিনো রাট্।

আরোদসী বরুণানী শৃণোতু দেবীর্য ঋতুর্জনীনাম্।।

                                      অথর্ব ০ -৭.৪৯.২


২৮.অথর্ব ০-১৪.১.২০, ১৪.১.৪৩

২৯.অথর্ব ০ ৩.৩০.২

৩০.মাতা পুত্রত্বস্য ভূযাংসি কর্মাব্যারমতে তস্যাং শুশ্রূষা নিত্যং পতিতায়ামপি। আপ ০ ধর্ম ০- ১.১০.১৮.৯

৩১.অথর্ব ০ ২.৬৩.৩


२८ अथर्व ० - १४.१.२० , १४.१.४३ 

२ ९ अथर्व ० ३.३०.२ 

३० माता पुत्रत्वस्य भूयांसि कर्माव्यारमते तस्यां शुश्रूषा नित्यं पतितायामपि । आप ० धर्म०-१.१०.१८.९ 


३१ अथर्व ० २.६३.३



গ্রন্থঃ গুরুকুল-শৌধ-ভারতী-৪

অথর্বেদীয় নারীর স্বরূপ 

ডঃ নরেশ কুমার


६. अथर्ववेद में वर्णित नारी के कर्त्तव्य 


अथर्ववेद में स्त्री के अधिकारों के साथ - साथ उसके कर्त्तव्यों का भी वर्णन प्राप्त होता है । अथर्ववेद कहता है कि प्रत्येक नारी का कर्त्तव्य है कि वह पति के आदेशानुसार चले तथा पति की इच्छानुसार कार्य करे 


৬.অথর্ববেদে বর্ণিত নারীর কর্তব্য


অথর্ববেদ নারীর অধিকারের পাশাপাশি তাদের কর্তব্যেরও বর্ণনা রয়েছে। অথর্ববেদে বলা হয়েছে  যে, প্রত্যেক নারীর কর্তব্য তার পতির আদেশ পালন করা এবং তার ইচ্ছানুসারে কাজ করা।



आजा॑मि॒ त्वाज॑न्या॒ परि॑ मा॒तुरथो॑ पि॒तुः । य॒था 

मम॒ क्रता॒वसो॒ मम॑ चित्तमु॒पाय॑सि ॥


 আজামি ত্বাজন্যা পরি মাতুরথো পিতুঃ।

য়থা মম ক্রতাবসো মম চিত্তমুপায়সি।।


" वह सदा पति के अनुकूल रहे , पति का कभी विरोध न करे । " पति से मधुर और शान्तिपूर्ण वचन कहे तथा पति के सङ्ग होकर जीवन को अमृतमय बनावे । जैसा कि अधोलिखित मन्त्रों में सङ्केत दिया गया है 


"সে সর্বদা তার পতির অনুকূলে থাকবে, পতির সাথে কখনো বিরোধ করবে না।” পতির সাথে মধুর এবং শান্তিপূর্ণ কথা বলবে তথা পতির সঙ্গ হয়ে জীবনকে অমৃতময় করবে। যা  নিম্নলিখিত মন্ত্রগুলোতে সংকেত দিয়েছেনঃ



जा॒या पत्ये॒ मधु॑मती॒ वाच॑ वदतु शन्ति॒वाम् ॥ पत्यु॒रनु॑व्रता भू॒त्वा स॑ नह्यस्वा॒मृता॑य॒ कम् ॥ 


अथर्व ० - ३.३०.२ अथर्व ० - १४.१.४२ 


জায়া পত্যে মধুমতী  বাচ বদতু শান্তবাম্।।

পত্যুরনুব্রতা ভূত্বা স নহ্যস্বামৃতায় কম্।।

                  অথর্ব ০- ৩.৩০.২ অথর্ব ০-১৫.১.৫২


अथर्ववेद में एक अन्य स्थल पर स्त्री के कर्त्तव्यों का उल्लेख करते हुए कहा गया है - सुम॒ङ्गुली प्र॒तर॑णी गृ॒हाणा॑ सु॒शेवा॒ पत्ये॒ श्वशु॑राय शं॒ भूः । स्यो॒ना श्व॒श्र्वै प्र गृहान् वि॑िशि॒मान् ॥ " अर्थात् वह परिवार का कल्याण करन वाली , पति , सास - ससुर आदि के लिए सुखद हो । वह सूर्योदय से पूर्व उठकर यज्ञ करे । 


অথর্ববেদের অন্য এক স্থানে নারীর কর্তব্যের কথা উল্লেখ করে বলা হয়েছে: 

“সুমঙ্গুলী প্রতরণী ​​গৃহাণা সুশেবা পত্যে শ্বশুরায় শং ভূঃ। স্যোনা শ্বশ্ব্রৈ প্র গৃহান্ বিশিমান্।।”


 "অর্থাৎ, সে পরিবারের কল্যাণকারীনি, পতি, শ্বশুর+ শাশুড়ি ইত্যাদির আরও অনেকের জন্য  জন্য সুখকর। সে সূর্যোদয়ের পূর্বে উঠে যজ্ঞ করে। 


" वह ससुर आदि के सामने जाने पर लज्जा करे , जैसे सूर्य की किरणों के सम्मुख कृमि आदि । यथा -

 ये सूर्यात् परि॒सप॑न्ति स्नु॒षेव॒ श्वशु॑रा॒दधि॑ ब॒जश्च॒ तेषा॑ पिङ्गश्च॒ इ॒दयेऽधि॒ नि वि॑िध्यताम् । ”


 स्त्री के कर्त्तव्यों में सूत कातना और वस्त्र बुनना भी सम्मिलित हैं । अधोलिखित मन्त्र इस तथ्य की ओर सङ्केत करता है I 


সে শ্বশুরবাড়ির সামনে যেতে লজ্জিত হয়, যেমন সূর্যের রশ্মির সামনে কীট ইত্যাদি। যেমন, 


“য়ে সূর্যাত্ পরীসপন্তি স্নুষেব শ্বশুরাদধি বজশ্চ তেষা পিঙ্গশ্চ ইদয়েঽধি নি বিধ্যিতাম্।"


 স্ত্রীর কর্তব্যের মধ্যে সুতা কাটা এবং কাপড় বোনাও সম্মিলিত। নিম্নলিখিত মন্ত্রটি এই তথ্যের সংকেত নির্দেশ করেঃ


या अकृ॑न्त॒न्नव॑य॒न् या॒श्च॑ तनि॒रे या दे॒वीरन्ता॑ अ॒भितोऽद॑दन्त । तास्त्वा॑ ज॒रसे॒ सं व्य॑य॒न्त्वायु॑ष्मती॒दं परि॑ धत्स्व॒ वासः । अथर्व ० - १४.१.४५ 


য়া অকৃন্তন্নবয়ন্ য়াশ্চ তনিরে য়া দেবীরন্তা অভিতোঽদদন্ত।

তাস্ত্বা জরসে সং ব্যয়ন্ত্বায়ুষ্মতীদং পরি ধত্স্ব বাসঃ।                         অথর্ব ০- ১৪.১.৪৫


अथर्ववेद में नारी ( स्त्री ) के कुछ दैनिक कर्त्तव्यों का भी उल्लेख प्राप्त होता है यथा- घर में जल भर कर रखना , स्वच्छ जल भर कर लाना , पानी भरने जाना , यज्ञ करना , सुन्दर वस्त्र और आभूषण पहनना , अनुकूल भोजन करना , अतिथि सत्कार करना , घर की व्यवस्था करना आदि । 


অথর্ববেদে নারীদের (নারীদের)  কিছু দৈনিক

কর্তব্যের কথাও বলা হয়েছে যেমন- ঘর ভর্তি করে রাখা, পরিষ্কার জল আনা, জল ভরতে যাওয়া, যজ্ঞ করা, সুন্দর পোশাক ও অলঙ্কার পরিধান করা, অনুকূল খাবার খাওয়া, আতিথেয়তা করা, ঘর সাজানো ইত্যাদি।


इ॒ह प्रि॒यं प्र॒जाये॑ते॒ समृ॑ध्यताम॒स्मिन् गृहे गार्हप॑त्याय जागृहि । ए॒ना पत्या॑ त॒न्व॑ 3 सं स्पृश॒स्वाथ॒ जिर्व॒र्विदध॒मा व॑दासि अथर्ववेदीय मन्त्र स्त्री को गृहस्थ - कार्यों के प्रति सदा जागरूक रहने की ओर सङ्केत करता है । 


“ইহ প্রিয়ং প্রজায়েতে সমৃদ্ধতামস্মিন্ গৃহে গার্হপত্যায় জাগৃহি। এনা পত্যা তন্ব সং স্পৃশস্বাথ জির্ববির্দধমা বদাসি।।”

অথর্ববেদীয় মন্ত্র স্ত্রীদের সবসময় গৃহস্থালীর কর্তব্য সম্পর্কে সচেতন হতে নির্দেশ করে।


धा॒ता रा॒तिः स॑वि॒तेद॑ जु॑षन्ता॒मिन्द्र॒स्त्वष्टा॒ प्रति॑ हर्यन्तु मे॒ वच॑ हुवे दे॒वीमदि॑ति॒ शूर॑पुत्र सजा॒तावा॑ मध्यमेष्ठ॒ यथासा॑नि मन्त्र में कहा गया है कि दिव्य , अद्वितीय एवं अखण्ड व्रतवाली गुणसम्पन्ना स्त्री वीरपुत्रों को जन्म देने वाली हो । 


“ধাতা রতিঃ সবিতেদ জুষন্তামিন্দ্রস্ত্বষ্টা প্রতি হর্য়ন্তু মে বচ হুবে দেবীমাদিতি শূরপুত্র সাজাতাবা মধ্যমেষ্ট যথাসানি। ”

মন্ত্রে বলা হয়েছে যে, দিব্য,অদ্বিতীয় এবং অখণ্ড ব্রতকারী গুণসম্পন্না স্ত্রী বীরপুত্র জন্মদানকারীনি।


 

अथर्ववेदीय मन्त्र प्रा॒ष्ठेश॒यास्त॑ल्पेश॒या नारी॒र्या॑ व॑ह्य॒शीव॑रीः स्त्रियो॒ याः पुण्य॑गन्धयुक्ता सर्वाः स्वापयामसि ( अथर्व ०४.५.३ )

অথর্ববেদীয় মন্ত্রে বলা হয়েছে, 

প্রাষ্টেশয়াস্তল্পেশয়া নারীয়া বহ্যশীবরীঃ স্ত্রীয়ো য়াঃ পুণ্যগন্ধযুক্তাসর্বাঃ স্বাপয়ামসি 

                                    অথর্ব ০- ৪.৫.৩


 में स्त्रियों के शयन स्थान में तख्त , पलङ्ग , मञ्च एवं हिण्डोला आदि का उल्लेख प्राप्त होता है । उनके सुगन्धित द्रव्य लगाने का भी वर्णन है । स्त्री का कर्त्तव्य है कि वह पतिव्रता हो , सद्भावयुक्ता हो , मधुरभाषिणी एवं सरल स्वभाव वाली हो । जैसाकि अधोलिखित मन्त्रों में निर्दिष्ट है 


স্ত্রীদের শয়ন স্থানে তক্তা(বসার স্থান),বিছানা,মঞ্চ এবং হিণ্ডোলা ইত্যাদির উল্লেখ পাওয়া যায়। তাদের সুগন্ধিত দ্রব্য ব্যবহারের বর্ণনাও রয়েছে।   একজন নারীর কর্তব্য হচ্ছে সে পতিব্রতা, সদালাপী, মধুরভাষিণী এবং সরল স্বভাবের হবে। নিম্নলিখিত মন্ত্রগুলিতে উল্লেখ করা হয়েছে। যেগুলো নিম্নোক্ত মন্ত্রে নির্দিষ্ট করে বলা হয়েছে,

 


शु॒चा वि॒िद्धा व्यो॑षया॒ शुष्का॒स्या॒भि स॑र्प मा । मृ॒दुर्निम॑न्युः केव॑ली प्रिय॒वादिन्यनु॑व्रता । अथर्व०-३.२५.४ 


শুচা বিদ্ধা ব্যোষয়া শুষ্কাস্য়াভি সর্প মা।

মৃদুনির্মন্যুঃ কেবলী প্রিয়বাদিন্যনুব্রতা।।

                            অথর্ব ০-৩.২৫.৪  


इस प्रकार हम कह सकते हैं कि नारी सृष्टि का आधार है । वैदिक वाङ्मय विशेषत : अथर्ववेद में नारी शक्ति गृहरक्षिका , सन्तानवर्धिका , पति की सहयोगिनी एवं पिता की कृतज्ञा के रूप में दृष्टिगत होती है । नारी के बिना संसार के सञ्चालन एवं प्रगति की कल्पना करना दुर्लभ है । 


এভাবে আমরা বলতে পারি নারীই সৃষ্টির ভিত্তি। বৈদিক বাঙ্ময়ে বিশেষত অথর্ববেদে নারী শক্তি গৃহরক্ষিকা, সন্তানবর্ধিকা, পতির সাহায্যকারী এবং পিতার প্রতি কৃতজ্ঞ হিসেবে দেখা যায়। নারী ছাড়া সংসারের সঞ্চালন এবং প্রগতি কল্পনা করা অসম্ভব।


वह माता , पत्नी , बहन तथा कन्या के रूप में घर की शोभा है । अथर्ववेदीय नारी को समाज में पुरुष के समान वेदाध्ययन अधिकार , धार्मिक अधिकार , सामाजिक अधिकार , तथा राजनीतिक अधिकार प्राप्त हैं । 


তারা মাতা, স্ত্রী, বোন ও কন্যা হিসেবে ঘরের সৌন্দর্য্য। অথর্ববেদীয় হিসেবে নারীদের সমাজে পুরুষের মতো বেদ অধ্যয়নের অধিকার, ধর্মীয় অধিকার, সামাজিক অধিকার এবং সমাজে পুরুষদের মতো রাজনৈতিক অধিকার রয়েছে।


कुछ संदिग्ध स्थलों को छोड़कर उसके उदात्त रूप को प्रस्तुत किया गया है , उसे केतु , मूर्धा तथा तेजस्विनी कहने के साथ - साथ पति द्वारा अनुकरणीय माना है । यदि मानव जीवन में उन्नति चाहता है तो उसे नारी की महत्ता को स्वीकार करने के साथ - साथ उसे सम्मान प्रदान करना होगा । 


কিছু সন্দেহজনক স্থান ব্যতীত, তার মহৎ রূপ উপস্থাপন করা হয়, তাকে কেতু, মুর্ধা এবং তেজস্বিনী বলার পাশাপাশি পতি দ্বারা অনুকরণীয় বলে বিবেচিত করা হয়। যদি মানব জীবনে উন্নতি করতে চাই তবে তাকে অবশ্যই নারীর মহত্ত্ব কে স্বীকার করার পাশাপাশি তাদের সম্মান করতে হবে।


४० आ रो॑ह॒ तल्प॑ सु॒मन॒स्यमा॑नेह॒ प्र॒जां ज॑नय॒ पत्ये॑ अ॒स्मै । इ॒न्द्रा॒णीव॑ सु॒बुध बुध्य॑माना॒॒ ज्योति॑रग्रा उ॒षस॒ः प्रति॑ जागरासि ॥     अथर्व ० - १४.२.३२ 


৪০.“আ রোহ তল্প সুমনস্যমানেহ প্রজাং জনয় পত্যে অস্মৈ।

ইন্দ্রাণীব সুবুধ বুধ্যমানা জ্যোতিরগ্রা উষসঃ প্রতি জাগরাসি।।”      অথর্ব ০-১৪.২.৩২


৪১.অথর্ব ০-৮.৬.২৪

৪২.অথর্ব ০-১১.১.১৩-১৭

৪৩.অথর্ব ০-১৪.১.২১

৪৪.অথর্ব ০.৩.৮.২


४१ अथर्व ० - ८.६.२४ 

४२ अथर्व ० - ११.१.१३-१७ 

४३ अथर्व ० - १४.१.२१ 

४४ अथर्व ० - ३.८.२


গ্রন্থঃ গুরুকুল-শৌধ-ভারতী-৫

অথর্বেদীয় নারীর স্বরূপ 

ডঃ নরেশ কুমার


বিশ্বকল্যাণে বৈদিক অভয়ভাবনা

ডঃ বিজয়লক্ষ্মী 


विश्वहिताय वैदिकी अभयभावना 

डॉ ० विजयलक्ष्मी : ' 


भीस्तु सर्वासामेव आपदां निधानम् । सभयो हि समर्थो न भवति आत्मत्राणे , अन्येषां तु का कथा । भीतिः " मानवं तथा पीडयति यथा न अरातयोऽपि । अभयचेतसा तु जनः सहजभावेन प्रवर्त्तते कार्यक्षेत्रे । विगतभया एव भवन्ति भाजनानि समस्तसुखानाम् । अद्यतनीये परिवेशे विरला एव जना सत्यं वक्तुं पारयन्ति परं निर्भयो जनः प्रभवति तथ्यं प्रस्तोतुम् । 


ভয় হচ্ছে সব বিপদের ভান্ডার। সবাই নিজেকে বাঁচাতে সক্ষম নয়, কিন্তু অন্যের কী হবে? ভয় "মানুষকে এমনভাবে পীড়িত করে যা ভয়ানক। নির্ভীক হয়ে মানুষ সহজেই কর্মক্ষেত্রে নিয়োজিত হয়। নির্ভীকতাই সমস্ত সুখ। আজকের পরিবেশে খুব কম মানুষই সত্য বলতে পারে কিন্তু একজন নির্ভীক মানুষই তথ্য উপস্থাপন করতে পারে।


अभयप्रधानेन मनसा जीवने जनः साधयति असाध्यमपि , अवाप्नुते च अमन्दमानन्दम् । भिया क्रियमाणेषु कार्येषु मानवानां न तथा प्रीतिर्जायते यथा भयरहितेन चेतसा विधीयमानेषु कृत्येषु । यदा जनः जगति सर्वत्र अभयत्वम् अनुभवति तदा स्नेह-


নির্ভীক মন প্রধানত অসাধ্যকেও সাধন করে এবং ধীরে ধীরে সুখ লাভ করে। মানুষ ভয় থেকে সম্পাদিত কর্মের প্রতি অনুরূপ ভালবাসা দিতে পারে না যেমন তারা নির্ভীক মন নিয়ে কর্মের জন্য করতে পারে। পৃথিবীর সর্বত্র মানুষ যখন স্নেহ-


 उदारता स्थिरता - अहिंसा- मैत्री - करुणा- मुदिता - सहिष्णुता आत्मविश्वासादयो गुणा : सामाजिकानां स्वान्तेषु समुद्भूता भवन्ति । चेतसि जायमानास्ते गुणा जनानां वाचि आचारे व्यवहारे च मूर्तरूपामाकृतिं लभन्ते । वेदा हि सन्ति समस्तानां ज्ञानानां विज्ञानानां व्यवहाराणामाधारभूताः । विद्यन्ते च वेदेषु विविधा अभयप्रार्थनापरा मन्त्राः । न केवलमात्महिताय अपितु समस्तचराचराय अभयकामना अवलोक्यन्ते वेदभगवति 


উদারতা, স্থিতিশীলতা, অহিংসা, বন্ধুত্ব, সহানুভূতি, প্রফুল্লতা, সহনশীলতা, আত্মবিশ্বাস নিরাপদ বোধ করে এবং অন্যান্য গুণাবলী সমাজের জন্য ও নিজের জন্য তৈরি করে। বেদ হচ্ছে সমস্ত জ্ঞান, বিজ্ঞান এবং অনুশীলনের ভিত্তি। এছাড়াও বেদে বিভিন্ন মন্ত্র রয়েছে যা মানুষের নিরাপত্তার জন্য প্রার্থনা করে। শুধুমাত্র নিজের কল্যাণের জন্য নয় বরং সমস্ত চলমান ও অচল প্রাণীর নিরাপত্তাও বেদেভগবতীতে পরিলক্ষিত হয়।


यतो यतः समीहसे ततो नो ऽ अभयं कुरु । शं नः कुरु प्रजाभ्योऽभयं नः पशुभ्यः ॥ 


য়তো য়তঃ সমীহসে ততো নো ঽ অভয়ং কুরু। শং নঃ কুরু প্রজাভ্যোঽভয়ং নঃ পশুভ্যঃ।।


मन्त्रेऽस्मिन् समेषां स्थावरजङ्गमानां कृते अभयप्रार्थना विहिता वर्त्तते अर्थात् समस्ताः सत्त्वाः अस्मान् प्रति कल्याणकारिणः स्युः , वयमपि तेषां हितरक्षणे च प्रयत्नशीलाः भवेम । 


এই মন্ত্রটি সমস্ত স্থাবর এবং অস্থাবর প্রাণীর নিরাপত্তা নির্দেশ করে, অর্থাৎ সমস্ত প্রাণী ঈশ্বরের প্রতি কল্যাণকারিণী। 


भयदृष्ट्या मानवाः निम्नतराः पशूनामपेक्षया , पशवस्तु समुपस्थिते हि भीतिकारणे भीताः भवन्ति , पशूनां प्रकृतिरियं यदि तेषां जीवनाय भयं नास्ति तदा ते अन्यान् न भाययन्ति , अभिज्ञानशाकुन्तल - उत्तरामचरितादिग्रन्थेषु आगताः प्रसङ्गाः विदुषां कृते विदिता एव स्युः ।तथा च रामायणे 


ভীত  মানুষ নিম্নতর ।প্রতিটি প্রাণীদের স্বভাবানুসারে যদি তাদের জীবনের জন্য ভয় না থাকে তবে তারা অন্যকে ভয় দেখায় না।


इममाश्रममागम्य मृगसंघा महीयसः । अहत्वा प्रतिगच्छन्ति लोभयित्वाकुतोभयाः ॥ वनगमनकाले कौशल्यापि रामाय अभयत्वमुपदिशति । " 


“ইমমাশ্রমমাগম্য মৃগসংঘা মহীয়সঃ।

অহত্বা প্রতিগচ্ছন্তি লোভয়িত্বাকুতোভয়াঃ।। 

বনগমনকালে কৌশল্যাপি রামায় অভয়ত্বমুপদিশতি।”


परं वयं बुद्धियुक्ताः मनीषिणो मानवा अन्योन्यं भीतिमुत्पादयन्तः स्वयमपि भीताः जीवनं यापयामः । जनास्तु अतीतं भयं संस्मृत्य अनागतभयञ्च मनसैवोत्पाद्य विचार्य च भीता भवन्ति । वेद्रे ज्ञातभयादज्ञातभयाद् वयं दूरीभवेम इति रुचिरतया प्रतिपादितम् ' हितोपदेशेऽपि बहुशोभनमुदीरितम् 


কিন্তু বুদ্ধিমান মানুষরা অনেকসময় অন্যোন্য ভয়ে বাস করে, একে অপরকে ভয় পাই। অন্যদিকে মানুষ অতীতের ভয়কে স্মরণ করে এবং ভবিষ্যতের ভয়ের কথা চিন্তা করে ভীত হয়ে পড়ে। বেদে সুন্দরভাবে বলা হয়েছে, আমাদের উচিত জানার ভয় এবং অজানার ভয়কে পরিহার করা।


তাবত্ ভয়ান্ন ভেতব্যং য়াবদ্ ভয়মনাগতম্।

আগতং তু ভয়ং বীক্ষ্য প্রহর্ত্তব্যমভীতবত্।


तावत् भयान्न भेतव्यं यावद् भयमनागतम् । आगतं तु भयं वीक्ष्य प्रहर्त्तव्यमभीतवत् । ' 


১.সংস্কৃত-প্রবক্ত্রী,সনাতনধর্মহাবিদ্যালয়ঃ,মজপ্ফরনগরম্ উ.প্র.

২.যজু ০- ৩৬.২২

৩.বাল্মিকীরামায়ণম্ ৩.৭.১৮


१ संस्कृत - प्रवक्त्री , सनातनधर्ममहाविद्यालयः , मुजफ्फरनगरम् उ.प्र . 

२. यजु ० ३६.२२ 

३. वाल्मीकिरामायणम् ३.७.१८ 


४. वाल्मीकिरामायणम् २.२५.१७ , राक्षसानां पिशाचानां रौद्राणां क्रूरकर्मणाम् । क्रव्यादानां च सर्वेषां मा भूत् पुत्रक ते भयम् ॥ 

५. अथर्व ० १ ९ .१६.६ , अभयं मित्रादभयममित्रादभयं ज्ञातादभयं पुरो यः । अभयं नक्तमभयं दिवा नः सर्वा आशा मम मित्रं भवन्तु । 

६. हितोपदेशः १.५७.११,


৪.বাল্মিকীরামায়ণম্ ২.২৫.১৭,রাক্ষসানাং পিশাচানাং রৌদ্রাণাং ক্রূরকর্মণাম্। ক্রব্যাদানাং চ সর্বেষাং মা ভূত্ পুত্রক তে ভয়ম্।।

৫.অথর্ব ০ ১৯.১৬.৬,অভয়ং মিত্রাদভয়মমিত্রাদভয়ং জ্ঞাতাদভয়ং পুরো য়ঃ।অভয়ং নক্তমভয়ং দিবা নঃ সর্বা আশা মম মিত্রং ভবন্তু।

৬.হিতোপদেশঃ ১.৫৭.১১


বিশ্বকল্যাণে বৈদিক অভয়ভাবনা

ডঃ বিজয়লক্ষ্মী 



देशकालपरिस्थित्यनुसारं बहूनि खलु भीतिकारणानि परं शैशवे प्राप्ताः संस्काराः , परिवेशः , अनर्थभयम् , दृष्टा श्रुता घटनादुर्घटना वा सामान्यरूपेण भीतिकारणानि लोके । 


প্রকৃতপক্ষে দেশকালপরিস্থিতি অনুসারে ভয়ের অনেক কারণ রয়েছে তবে শৈশবে প্রাপ্ত আচার-অনুষ্ঠান, পরিবেশ, দুর্ভাগ্যের ভয়, দেখা শোনা ঘটনা দুর্ঘটনা বা সামান্যরূপ ভয়ের কারণ।


शैशवे काले प्रायशः मात्रा पारिवारिकजनै बालमनसि अनेका भयोत्पादकाः भावाः समारोप्यन्ते यथा- आगमिष्यति मूषकः विडालः वानरो वा आभि : बिभीषाभिः भीताः बाला : पर्यावरणेन सह आत्मीयं सम्बन्धं स्थापने सहजभावं नानुभवन्ति , तत्पश्चाद्य विद्यालये पठनस्य भयम् , शिक्षकस्य भयम् अंकानां भयम् , पित्रोरग्रजानां वा भयम् , एवं भयमेव भयम् , जीवनं कुत्र ? परं वेदभगवता मानवाः निर्दिष्टाः सर्वथा अभयजीवनाय 


শৈশবকালে প্রায়শই পরিবারের সদস্যরা শিশুদের মধ্যে অনেক ভীতিকর আবেগ জাগিয়ে তোলে যেমন: ইঁদুর, বিড়াল বা বানর আসবে। শিশুরা পরিবেশের সাথে ঘনিষ্ঠ সম্পর্ক স্থাপন করতে স্বাচ্ছন্দ্যবোধ করে না? কিন্তু বেদ মানুষকে পরম অভয় প্রদান করেছেন। 


अभयं न करत्यन्तरिक्षमभयं द्यावापृथिवी उभे इमे 

अभयं पश्चादभयं पुरस्तादुत्तरादधरादभयं नो अस्तु ॥ 


অভয়ং ন করত্যন্তরিক্ষমভয়ং দ্যবা পৃথিবী উভে ইমে।

অভয়ং পশ্চাদভয়ং পুরস্তাদুত্তরাদধরাদভয়ং নো অস্তু।।


अद्यत्वे C.D. इति यन्त्रे आविष्कृताः । क्रीडा अपि मारणं हननं विनाशमेव शिक्षयन्ति बालान् तथाविधा : क्रीडा : नोपकाराय बालानामपितु अपकाराय एव । 


 C.D  যন্ত্র আবিষ্কৃত হয়। এমনকি খেলাগুলি শিশুদেরকে হত্যা এবং ধ্বংস করতে শেখায়। এই ধরনের ক্রীড়া শিশুদের উপকারের জন্য নয় বরং তাদের ক্ষতির জন্য।


अनेन बालमनसि स्थिताः कोमला : भावाः विनष्टप्राया भवन्ति , परिणतिरूपेण बालकेषु अनेका दुष्प्रवृत्तयो विशेषतस्तु क्रूरतादुष्टतादय बालमनसि प्रविष्टा वर्धमानाश्च द्रष्टुं शक्यते , इमे भयसंस्कारा भाविनि जीवने जनयन्ति नैकान् क्लेशान् । 


এটি শিশু মনের কোমল আবেগকে প্রায় নষ্ট করে  এবং ফলস্বরূপ অনেক খারাপ প্রবণতা, বিশেষ করে নিষ্ঠুরতা এবং খারাপ বিষয়বস্তু শিশুর মনে প্রবেশ করে ও বৃদ্ধি পায় এবং এই ভয়ের আচার ভবিষ্যত জীবনে অনেক সমস্যার সৃষ্টি করে।


परिवेशजभयम् 


यत्र वसति मानवः तत्स्थानम् राष्ट्रं तत्रत्यं पर्यावरणं सामाजिकं वातावरणं च परिवेशनाम्ना ज्ञायते । सन्दर्भेऽस्मिन् बहुशोभनमुक्तं रामायणकारेण यदयोध्यायां जनाः दुर्भिक्ष - वातजाग्निजतस्करभयैः रहिता आसन् । इमा सन्ति समाजिकानां जीवने जायमानाः भीतयः । 


পরিবেশজভয়


 মানুষের বসবাসের স্থান, রাষ্ট্র এবং সমাজ সেখানকার সামাজিক পরিবেশ নামে পরিচিত। এগুলো রামায়ণ রচয়িতা খুব সুন্দরভাবে বলেছেন যে অযোধ্যার মানুষ দুর্ভিক্ষে বাতাসের আগুন এবং চোরের ভয় থেকে মুক্ত ছিল। এগুলিই সমাজতন্ত্রীদের জীবনে উদ্ভূত ভয়।


तस्करभयेन भीता लोकाः रात्रौ तु विश्रामं लभन्ते एव न , प्रत्युत दिवसेऽपि ते न सन्ति विगतभयाः । जयपुरनगरे नवम्बरमासे २०० ९ वर्षे अग्निना धनस्य , जनजीवनस्य महती हानिस्तु जाता एव , इतोऽपि अधिकतरं वातावरणे प्रवृद्धं प्रदूषणं जीवानां तेषां जीवातुभूतानाञ्च विनाशाय एव जातम् , प्रदूषणस्यास्य दुष्प्रभावः जनजीवनं बहुकालं यावत् दंक्ष्यति । 


চোরকে ভয় পাওয়া লোকেরা রাতে বিশ্রাম নিতো  না কিন্তু দিনেও তারা ভয় থেকে মুক্ত না। জয়পুরে ২০০৯ সালের নভেম্বর মাসে অগ্নিকাণ্ডের ফলে মানুষের সম্পদ ও জীবনের ব্যাপক ক্ষতি হয়।এছাড়াও বায়ুমণ্ডলে দূষণ বৃদ্ধির ফলে প্রাণী ও জীবজন্তু ধ্বংস হয়ে যায়।


वातजभयम् 


मुम्बईनगरे २०० ९ वर्षान्ते आगत : Cyclone Phyan नामकः वातोत्पात : विनाशकारक आसीत् । विगतवर्षेषु Katrina इति वातेनापि बहु अपकारः जातः लोकस्य । 


বাতজভয়


ঘূর্ণিঝড় ফায়ান ২০০৯ সালেশেষের দিকে মুম্বাইতে আঘাত হানে এবং সেটি অত্যন্ত বিধ্বংসী ছিল। বিগতবছর গুলোত ক্যাটরিনাও বিশ্বের অনেক ক্ষতি করেছে।


एतादृशानां भयानां निराकरणाय सर्वकारैः जनैश्च सम्मेल्य प्रकृतिसंरक्षणाय , लोकेषु नैतिकगुणसंवर्धनाय च प्रयत्नो विधेयः । वेदेऽपि कथितम् इन्द्रस्य ( राज्ञः ) सख्ये वयं अभयाः स्याम - 


এই ধরনের ভয় দূর করার জন্য, সরকার এবং জনগণকে একসাথে কাজ করতে হবে প্রকৃতিকে রক্ষা করতে এবং মানুষের মধ্যে নৈতিক গুণাবলী প্রচার করতে। বেদেও বলা হয়েছে,

“ইন্দ্রস্য (রাজ্যঃ) সখ্যে বয়ং অভয়া স্যাম”"

সখ্যে ত ইন্দ্র বাজিনো মা ভেম শবসস্পতে।

ত্বামভি প্রণোনুমো জেতারমপরাজিতম্।।


सख्ये त इन्द्र वाजिनो मा भेम शवसस्पते । त्वामभि प्र णोनुमो जेतारमपराजितम् ॥ 


अर्थात् वयं अनन्तबलस्य स्वाम - इन्द्रस्य ( नृपतेः ) सख्यं विन्देम येन वयं कदापि कुत्रापि भीताः न भवेम । तमसातटे समागतान् पुरवासिजनान् प्रति रामस्योक्तिः सन्दर्भेऽस्मिन् अवधेया खलु- " कथयति राम भरतः भवतां समेषां भयानामपहारको भविष्यति यतो हि भरतो वर्तते ज्ञानवृद्धो गुणान्वितश्च । अनेन रामवचसा 


অর্থাৎ, আমাদের অত্যন্তবলবান ইন্দ্র (রাজা) কখনো সকলকে ভয় না পাওয়ার প্রয়াস করেছেন। 

“তমসাতটে সমকগতান্ পুরবাসিজনান্ প্রতি রামস্যোক্তিঃ সন্দর্ভেঽস্মিন্ অবধেয়া খলু”

কথয়তি রাম ভরতঃ ভবতাং সমেষাং ভয়ানামপহারকো ভবিষ্যতি য়তো হি ভরতো বঅততে জ্ঞানবৃদ্ধো গুণান্বিতশ্চ।।


७. अथर्व ० १ ९ .१६.५ . 


८. वाल्मीकिरामायणम् १.१.९ ० , ९ २ , ९ ३ , प्रह्मष्टः मुदितो लोकस्तुष्टः पुष्टः सुधार्मिकः । निरामयो हारोगश्च दुर्भिक्षभयवर्जितः । न चाग्निजं भयं किञ्चिन्नाप्सु मञ्छन्ति जन्तवः । न वातजं भयं किञ्चिन्नापि ज्वरकृतं तथा ॥ न चापि क्षुत् भयं तत्र न तस्करभयं तथा नगराणि च राष्ट्राणि धनधान्ययुतानि च ॥ 


৭. অথর্ব০ ১৯.১৬.৫


৮. বাল্মীকি রামায়ণ ১.১.৯০ , ৯২ , ৯৩ , প্রহ্মষ্টঃ সুখী, জগৎ সন্তুষ্ট, পুষ্ট এবং ধার্মিক। তিনি রোগ-ব্যাধি থেকে মুক্ত এবং দুর্ভিক্ষের ভয় থেকে মুক্ত ছিলেন আগুনের ভয় নেই, এবং প্রাণীরা জলে সাঁতার কাটত না। বাতাস বা জ্বরের ভয় ছিল না ক্ষুধা বা চোরের ভয় ছিল না, এবং শহর ও রাজ্যগুলি সম্পদ ও শস্যে পরিপূর্ণ ছিল।

৯.১.১১.২

১০.বাল্মিকীরামায়ণম্ ১.১.৯০.৪৬০৮


१०. वाल्मीकिरामायणम् १ ९ ४६०८ , ज्ञानवृद्धी " चयो चाला मृदुर्वीर्यगुणान्वितः । अनुरूपः स वो भर्ता भविष्यति भयापहः ।। 


বিশ্বকল্যাণে বৈদিক অভয়ভাবনা

ডঃ বিজয়লক্ষ্মী 


स्फुटीभवति यत् राजानः स्युः ज्ञानशालिनः , पराक्रमशीलाः उदारप्रकृतयश्च , तदैव ते प्रजानां भीतिनिवारणे क्षमाः भवेयुरिति । कोसलजनपदं वर्णयता राममुखेन जगाद वाल्मीकिः " -परित्यक्तो भयैः सर्वैः । 


এটা স্পষ্ট যে রাজাদের অবশ্যই জ্ঞানী, পরাক্রমশালী এবং উদার প্রকৃতির হতে হবে তবেই তারা প্রজাগণের ভয় দূর করতে সক্ষম হবে। কোসল জনপদের বর্ণনা দিতে গিয়ে বাল্মীকি রামের মুখে বলেছেন, "-পরিত্যক্তো ভয়ৈঃ সর্বৈঃ।

অর্থাৎ সকল ভয় বর্জন কর।


साम्प्रतं विश्वस्मिन् विश्वे व्याप्तो वर्त्तते विविधानामातंकिसङ्गठनानां भयम् , एभिः संत्रस्तो लोको न कुत्रापि निर्भरमाबध्नाति पदम् । राजनीतिकदृशा तु वशमापन्नो शत्रुः न मोक्तव्यः यतो हि तथाविध : दुरात्मा अधिगते हि बले अवकाशे अवसरे वा अवश्यं प्रहरति । 


বর্তমানে সারা বিশ্বে ব্যাপ্তো বিভিন্ন সন্ত্রাসী সংগঠনের আতঙ্ক ছড়িয়ে পড়ায় মানুষ আতঙ্কিত  তবে কোথাও মানুষদের পা বেঁধে রাখে না। রাজনৈতিক দৃষ্টিকোণ থেকে, যে শত্রুকে পরাজিত করা হয়েছে তাকে ছেড়ে দেওয়া উচিত নয়, কারণ এই ধরনের অশুভ আত্মাকে অবশ্যই অর্জিত শক্তির মাধ্যমে অবসর বা সুযোগে আঘাত করতে হবে।


भीषयते च जनान् । वर्त्तमाने राजनीतिक परिवेशे राजनीतिकजनैः विचारणीय : मननीयः महाराजविदुरस्य विधिरयम् " । येन प्राणिनः सर्वत्र प्राप्नुयुः अभयत्वम् । इमे आतंककारिणः साहसहीना भीरव एव । 


এটাও মানুষকে ভয় দেখায়। বর্তমান রাজনৈতিক পরিবেশে বিচারীয় মাননীয় মহারাজবিদুরের এই পদ্ধতিই রাজনীতিবিদদের বিবেচনা করা উচিত।


वीरताविषये कथितञ्चैकेनचिद् विदुषा- The idea of a warrior is based on a sense of fundamental fearlessness ... Warriorship is a basic sense of unshakeability . It * s a sense of immovability and self - existing dignity rather than you trying to fight with something else . Chogyam Trungpa ( Times of India Nov 9 , 2009 ) 


বীরত্বের কথাও কিছু পণ্ডিত দ্বারা উল্লেখ করা হয়েছে- একজন যোদ্ধার ধারণা মৌলিক নির্ভীকতার অনুভূতির উপর ভিত্তি করে... যোদ্ধা হচ্ছে অস্থিরতার একটি মৌলিক অনুভূতি। এটি অস্থাবরতা এবং স্ব-বিদ্যমান মর্যাদার অনুভূতি-

তুমি বিদ্যমান মর্যাদার সাথে লড়াই করার পরিবর্তে অন্য কিছুর সাথে লড়াই করার চেষ্টা করছো। চোগ্যাম ট্রুংপা (টাইমস অফ ইন্ডিয়া ৯ নভেম্বর, ২০০৯)


अथर्ववेदे कथितं इन्द्रविषये यदसौ वृत्रहा वर्तते स अस्मान् सर्वासु दिक्षु रक्षेत् स रक्षिता चरमतः स मध्यतः स पश्चात्स पुरस्तान्नो अस्तु । इन्द्रस्त्रातोत वृत्रहा परस्फानो वरेण्यः ॥ 


অথর্ববেদে ইন্দ্র সম্পর্কে বলা হয়েছে যে তিনি বৃত্রের হত্যাকারী। তিনি আমাদের সর্বদিকে রক্ষা করুন। বৃত্রাসুরের হত্যাকারী ইন্দ্র ছিলেন অন্যদের মধ্যে শ্রেষ্ঠ।


अत्र चाग्रिमेऽपि सूक्ते अतिरुचिरतयाभिहितम् 

असपत्नं पुरस्तात्पश्चान्नो अभयं कृतम् । सविता मा दक्षिणत उत्तरान्मा शचीपतिः ॥ ' अभिप्रायोऽयं यद् हे ईश्वर ( सविता ) संसृतौ सर्वत्राकुतोभयाः वयं वसेम । 


এবং এখানেও পূর্বের সূক্তে স্পষ্ট বলা হয়েছে,


“অসপত্নং পুরস্তাত্পশ্চান্নো অভয়ং কৃতম্।

সবিতা মা দক্ষিণত উত্তরান্মা শচীপতিঃ।।

অভিপ্রায়োঽয়ং য়দ্ হে ঈশ্বর (সবিতা) সংসৃতৌ সর্বত্রাকুতোভয়াঃ বয়ং বসেম।”


अनर्थभयम् 


अनर्थभयमपि संसारे भयस्य अन्यतमं कारणम् अनेन भीताः देहधारिणः कानिचन लोकोपकारकार्याणि कुर्वन्ति इति तु सम्यक् परं यदि भयं विहाय पावनचेतसा इदं सर्वं कृतम्भवेत् तर्हि तु श्रेयस्करम् , परं सभयाः जना यदा पशूनां बालानां वा बलिं यच्छन्ति स्वकीयपापनिवृतये तत्तु भयावहः । 

 

অনর্থভয়


দুর্ভাগ্য সংসারে ভয়ের অন্যতম কারণ। এটা সত্য যে, যারা ভয় পায় তারা সংসারের ভলোর জন্য ভয় থেকেও ভালো কিছু করে। কিন্তু নির্ভয়ে শুদ্ধ বিবেক নিয়ে এসব করাই ভালো।


अस्मिन्नेव नवम्बरमासे पंचविंशतिशतकोटिरुप्यकाणामनियमिततासु ( २५०० करोड़ ) संलिप्त : झारखण्डराजस्य श्रीमधुकोड़ा इत्याख्यस्य पूर्वमुख्यमन्त्रिणः पत्न्या एकादशाजानां बलिः दत्तः । " मूकानां विपन्नानां शरणागतानां तेषां वराकाणां जीवानां घातने कथं स्यादनर्थस्य निवारणम् । 


 নভেম্বর মাসে, ঝাড়খণ্ডের প্রাক্তন মুখ্যমন্ত্রী শ্রী মধুকোড়ার স্ত্রী, ২৫০০ কোটি টাকায় এগারো সন্তানকে বলি দেন। “যারা বোবা ও দুর্দশাগ্রস্ত এবং যারা তাদের আশ্রয় গ্রহণ করেছে, তাদের হত্যার মধ্যে অশুভ কিভাবে নিবারণ হবে?


इतोऽपि आश्चर्यकरं यदिदमखिलं कृत्यजातं धर्मनाम्ना कृतम् । यदि तासामजानां पालनं तया स्वीकृतम्भवेत् तर्हि तु कार्यमिदं कल्याणाय कल्पेत , भवेच्च श्रेयस्यकरमुभयोः कृते ।


এর চেয়েও আশ্চর্যের বিষয় হলো এগুলো অধর্ম। যদি তারা তাদের সন্তানদের যত্ন গ্রহণ করতেন তাহলে এই কাজটিতে তাদের উভয়ের কল্যাণ হতো।


 सन्दर्भेऽस्मिन् आचार्यचाणक्यस्य मतमवधेयं खलु , आचार्यचाणक्यस्तु भयहेतुना कृतमादानम्प्रदानञ्च स्तेयरूपेणाङ्गीकरोति तथा च तस्य कृते कठोरदण्डव्यवस्थामादिशति । तद्यथा 

दण्डभयादाक्रोशभयादनर्थभयाद् वा भयदानं प्रतिगृह्णतः स्तेयदण्डप्रयच्छतश्च । ' 

এই প্রসঙ্গে, আচার্য চাণক্য বলেছেন, যিনি ভয়ে দান ও গ্রহণকে চুরি হিসাবে গ্রহণ করেন তার কঠিন শাস্তি হয়। যেমন;

“দণ্ডভয়াদাক্রোশভয়াদনর্থভয়াদ্ বা ভয়দানং প্রতিগৃহ্ণতঃ স্তেয়দণ্ডপ্রয়চ্ছতশ্চ”।


११. वाल्मीकिरामायणम् २.१००.४५ . 


१२. विदुरनीति : ६.२८ , 


१३. अथर्व ० १ ९ .१५.३ . 


१४. अथर्व ० १ ९ .१६.१ . 


१५. द्रष्टव्य : ९ नवम्बर , २०० ९ ऊग्से र्द हीं , ड्ड हद ४ 


१६. अर्थशास्त्रम् षोडशः अध्याय :, प्रकरणम् ७० 


১১. বাল্মীকি রামায়ণ ২.১০০.৪৫


১২. বিদুরনীতিঃ ৬.২৮,


১৩. অথর্ব ০ ১৯.১৫.৩

১৪. অথর্ব ০ ১৯.১৬.১


১৫.দ্রষ্টব্য:৯ নভেম্বর, ২০০৯  উগ্সে দে হীং,ড্ড হদ ৪


১৬. অর্থনীতিশাস্ত্রঃ অধ্যায়,প্রকরণ ৭০


বিশ্বকল্যাণে বৈদিক অভয়ভাবনা

ডঃ বিজয়লক্ষ্মী 


दृष्टा श्रुता घटना दुर्घटना वा 


कदाचित् लघीयसी एव घटनापि भयहेतुतामावहति । यस्मिन् स्थले गृहे देशे वा आत्मीयबन्धुभिराघातं कष्टं वानुभूतम्भवेत् , तत्र व्यवहरणे आचरणे च मानवानां मानसेषु स्वाभाविकी आशंका भवत्येव इति संसृतौ प्रत्यहं प्रत्यक्षीक्रियते जनैः , परं ऋग्वेदस्यैका ऋक् मनोहररीत्या निराकरोति तादृशमपि साध्वसम् । 



इन्द्र आशाभ्यस्परि सर्वाभ्यो अभयं करत् । जेता 


१७ 


' शत्रून् विचर्षणिः ॥ ' 


अर्थात् जयशीलः इन्द्रः प्राणभृतां कृते समस्ताभ्यः दिग्भ्यः अभयं प्रयच्छति । तथा च अन्यस्मिन्नेकस्मिन् मन्त्रे प्रतिपादितम्- " हे आदित्य ! यदा भयमागच्छेत् तदा तव सान्निध्यमहमाप्नुयाम् , अर्यमन् त्वया निर्दिष्टे पथा गच्छन्नहं सर्वाणि दुरितानि दूरीकुर्याम् । 


वेदे प्रतिपदं प्रेरिता प्राणिनः निर्भयजीवनाय , अनेनैव सह निर्दिष्टाश्च पापापाकरणाय । अशुभकर्मभिः विरहितस्य जनस्य जीवनं जायते जनकल्याणाय , आत्महिताय च , एवंविधे जीवने नास्ति किञ्चिदपि भयकारणम् । 


प्रमाद : 


वेदे प्रार्थितम्- असन्नप्रायुवो रक्षितारो दिवे - दिवे " -देवाः प्रतिदिनं निष्प्रमादिनः सन्तोऽस्मद् रक्षका : भवन्तु । प्रमादिनः खलु जनाः कालेन कार्यमकुर्वाणाः भयमवनतिञ्चोभयं लभन्ते । 


अथर्ववेदस्यैकस्मिन् सूक्ते निर्भयजीवनाय महत्त्वपूर्णानि सूत्राणि दत्तानि , तत्र ज्ञापितम् " यथा सूर्यचन्द्रमसौ निर्भयरूपेण पक्षपातमपहाय स्व कीयानि विहितकर्माणि नियमानुसारं सम्पादयतः , यथा नियतकर्मसु व्यापता इमे देवाः तिष्ठन्ति गतभयाः , वेदस्य सन्देश : मनुष्या अपि तथैव व्यवहरन्तु दैनन्दिने जीवने । 



तैरपि पक्षपातं परित्यज्य कालेन कार्यं कुर्वद्भिः भाव्यम् । दयादाक्षिण्यदानादयः दीपयन्तु तेषां जीवनानि । अन्यत्रापि कथितम् " 


स्वस्ति पन्थामनुचरेम सूर्यचन्द्रमसाविव । पुनर्ददताघ्नता जानता सङ्गमेमहि ॥ 


अथ च अहोरात्रं साधु विभज्य , समस्तकार्यकलापार्थं समयनिर्धारणं कृत्वा जीवने आचरेद्येत् तत्र न स्यात् प्रमादावसरः । कालेन विधीयमानेषु कृत्येषु भयावसरोऽपि नैवोपपद्यते । एवं सुविचार्य अवहितेन चेतसा कृतानि कार्याणि परिणामे रमणीयानि भवन्ति , नास्त्यत्र सन्देहावसरः । 


साध्वसे जने हिंसाया भावाः प्रादुर्भवन्ति , तेन हिंसा द्वेषादयः दुर्गुणाः मानवानां चेतांसि दूषयन्ति । प्रकरणेऽस्मिन् रामायणं कथयति- भयं भीतात् हि जायते , पशवः पक्षिणः मानवा वा स्युः संसारे प्रत्यहं प्रत्यक्षीभवति यत् भीता अन्यान् भाययन्ति । 




मनीषिणा महर्षिपतञ्जलिना अंहिसाप्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्यागः ” इति सूत्रस्यास्य भोजवृत्तौ कथितम् - तस्याहिंसा भावयतः सन्निधौ सहजविरोधिनामप्र्प्यहिनकुलादीनां वैरत्यागो निर्मत्सरतयाऽवस्थानं भवति । हिंस्रा अपि हिंस्रत्वं परित्यजन्तीत्यर्थः । 



मनसा वचसा कर्मणा हिंसात्याग एवास्ति सामाजिकेषु सख्यभावस्य कारणम् । परस्परं मैत्रीमापन्नाः सत्त्वाः निर्भया प्रतिपादितम् योगदर्शने । 


१७. ऋक् २.४१.१२ . 


१८. ऋक् २.२७.५ , विद्यामादित्या अवसो वो अस्य यदर्यमन् भय आ चिन्मयोभु । युष्माकं मित्रावरुणा प्रणीतौ परि श्वभ्रेव दुरितानि वृज्याम् ॥


১৭.ঋক্ ২.৪১.১২

১৮.ঋক্ ২.২৭.৫, বিদ্যামাদিত্যা অবসো বো অস্য য়দর্যমন্ ভয় আ চিন্ময়োভু। য়ুষ্মাকং মিত্রাবরুণা প্রণীতৌ পরি শ্বভ্রেব দুরিতানি বৃজ্যাম্।।



१ ९ . यजु ० २५.१४ 

२०. अथर्ववेदः २.१५.७-६ । 


১৯.যজু ০ ২৫.১৪

২০. অথর্ববেদ ২.১৫.৭-৬

২১.ঋগ্বেদ ৫.৫১.১৫

২২.যোগদর্শন ১.৩

 


२१. ऋग्वेद : ५.५१.१५ 

२२. योगदर्शनम् १.३



গ্রন্থঃ গুরুকুল-শৌধ-ভারতী-৯

বৈদিক সাহিত্যে স্বয়ং

ডাঃ তুলসী দেবী'


वैदिक वाङ्मय में आत्म 


डॉ ० तुलसी देवी ' 


३ 


जीवन भौतिक और आध्यात्मिक तत्त्वों का मिश्रित रूप है । भौतिक सृष्टि का मूल ' प्रकृति ' और ' प्रकृति ' निर्मित शरीर को जीवन्त बनाने वाला आत्मतत्त्व है । ' सांख्य ' ने सृष्टि के मूल प्रकृति और पुरुष ( आत्मा ) के संयोग को पनु - अन्धवत् संयोग माना है । 


জীবন হলো ভৌতিক ও আধ্যাত্মিক উপাদানের মিশ্রিত রূপ। ভৌতিক সৃষ্টির মূল হলো 'প্রকৃতি' এবং 'প্রকৃতি' দ্বারা তৈরি শরীরকে জীবন্ত করার  অাত্মতত্ত্ব রয়েছে। 'সাংখ্য' সৃষ্টির মূল প্রকৃতি এবং পুরুষের (আত্মা) সংযোগকে পঙ্গু-অন্ধবৎ সংযোগ বলা হয়েছে। 


' तात्पर्य यह है , कि जिन दो मूल तत्त्वों से सृजन की प्रक्रिया पूर्ण होती है , उनमें से एक ( भौतिक तत्त्व ) जड़ है और दूसरा चेतन । जड़ में दर्शन की सामर्थ्य नहीं है । देखने वाला आत्मा है ; क्योंकि वह चेतन है ।


তাৎপর্য হলো যে দুটি মৌলিক তত্ত্বের মাধ্যমে সৃষ্টির প্রক্রিয়া পূর্ণ হয়,তার মধ্যে একটি হল (ভৌতিক তত্ত্ব) জড় এবং অন্যটি হল চেতন। জড়ের দর্শন সামর্থ্য নেই। চেতন এ দেখার মতো আত্মা রয়েছে,কারণ তিনি চেতন।


 शरीर में अवतरित होने के बाद आत्मा की यात्रा भौतिक जगत् से प्रारम्भ होती है ; क्योंकि भौतिक पदार्थों के बिना शारीरिक धर्म का निर्वाह सम्भव नहीं है । अत एव , आत्मा प्रथमत ; पदार्थ दर्शन की ओर अग्रसर होती है । 


শরীরে অবতরণের পর আত্মার যাত্রা ভৌতিক জগত্ থেকে শুরু হয়; কারণ ভৌতিক পদার্থ ছাড়া শারীরিক ধর্ম পালন করা সম্ভব নয়। অতএব, আত্মা প্রথমত; পদার্থ দর্শনের জন্য অগ্রসর হয়।


परन्तु जब तक आत्मा का दर्शन नहीं होता , तब तक जीवन का उद्देश्य पूर्ण नहीं हो पाता । परम । भौतिक सुख आते शान्ति और आनन्द की प्राप्ति नहीं हो पाती , जिसे पाने के लिए मनुष्य जीवन भर छटपटाता है । ओर चले जाते हैं , अट्टहास करते हुए । 


কিন্তু যতক্ষণ আত্মার দশর্ন না হয়, ততক্ষণ  জীবনের উদ্দেশ্য পূর্ণ হতে পারে না। পরম। ভৌতিক সুখ (বস্তুগত) শান্তি ও আনন্দের প্রাপ্তি আনদে পারে না, যা পাওয়ার জন্য মানুষ সারাজীবন চেষ্টা করে।


भौतिक जीवन के इस कटु यथार्थ से परे अध्यात्म जगत् है , जहाँ शान्ति और आनन्द के साथ - साथ ऊर्जा का अजस्र और अक्षय भण्डार है । वह ऊर्जा जिससे लोक - जीवन की यात्रा भी सुगम हो जाती है । " वैदिक ऋषि उद्घोष करते हैं कि मधु का , आनन्द का स्रोत है वहाँ । " 


ভৌতিক জীবনের এই তিক্ততার পরে আধ্যাত্মিক জগৎ রয়েছে, যেখানে শান্তি ও আনন্দের পাশাপাশি শক্তির এক অজস্র ও অক্ষয় ভান্ডার  রয়েছে। যে শক্তি পার্থিব জীবনের যাত্রাকে সুগম ও সহজ করে তোলে। "বৈদিক ঋষিরা মনে করেন, সেখানে মধুর উৎস এবং আনন্দের স্রোত রয়েছে।


उसको पाने का मार्ग है आत्मदर्शन अर्थात् आत्मा का दर्शन । इसके अतिरिक्त मुक्ति का दूसरा कोई मार्ग नहीं है । विचारणीय प्रश्न है कि आत्मा का दर्शन कौन करेगा ? देखने वाला तत्त्व तो केवल एक है और वह आत्मा है । तो क्या आत्मा ही आत्मा का द्रष्टा है ? निःसन्देह शास्त्र कहते हैं कि आत्मा से आत्मा का दर्शन करे , ' स्व ' का दर्शन करे , द्रष्टा ' स्व ' में उतर जाए , अपने स्वरूप में स्थित हो जाए । 


তা অর্জনের পথ হল আত্মোপলব্ধি, অর্থাৎ আত্মার দর্শন। এ ছাড়া মুক্তির আর কোনো পথ নেই। বিচারণীয় প্রশ্ন হল আত্মার দর্শন কে করবে? 

দর্শনকারী তত্ত্বতো কেবল একটিই সেটি হল আত্মা। তাহলে আত্মা কি আত্মার দ্রষ্টা কে? নিঃসন্দেহে, শাস্ত্র বলে যে আত্মা আত্মাকে দর্শন করে, “স্ব” দর্শন করে, দ্রষ্টা 'স্ব' তে নিজের স্বরূপে স্থিত হয়ে যায়। 


७ 


११ 


आत्मा के दर्शन का आत्मा से पृथक् कोई साधन नहीं है । उपनिषद् के ऋषि कहते हैं - ‘ जिससे यह सब जाना जाता है , उसको किससे जानें ' ? ' अपने शुद्ध स्वरूप का जानना नहीं होता , उसमें तो स्वरूप - स्थित होती है । 


আত্মদর্শন আত্মার পৃথক কোন সাধন নয়।  উপনিষদে ঋষিরা বলেছেন, 'যিনি এই সব জানেন, তাঁকে আমরা কীভাবে জানতে পারি? নিজের শুদ্ধ স্বরূপকে জানা হয়নি, কিন্তু সেখানেই তো  স্বরূপ স্থিত হয়।


अत एव आत्मदर्शन का अर्थ आत्मा के द्वारा आत्मा की अनुभूति है , ' स्व ' की , अनुभूति । " आत्मा वै यज्ञः ' इत्यादि वैदिक वाक्यों से यह पूर्णतः स्पष्ट होता है कि वैदिक ऋषियों की दृष्टि में उपास्य तत्त्व ' आत्मा ' है ।  


তাই আত্মদর্শনের অর্থ আত্মা দ্বারা আত্মার অনুভূতি, 'স্ব'-এর অনুভূতি। "আত্মা বৈ যজ্ঞঃ' ইত্যাদি বৈদিক বাক্য থেকে এটি পূর্ণ স্পষ্ট যে বৈদিক ঋষিদের দৃষ্টিতে উপাস্য তত্ত্ব হল 'আত্মা’।


अपने भीतर स्थित यही तत्त्व जानने योग्य है । " जो साधक अपने हृदय में स्थित आत्मा को निर्मल मन के द्वारा चिन्तन करके जान लेते हैं , वे अमृत हो जाते हैं । " सदा के लिए जन्म - मरण के दुःखों से छूट जाते हैं । " इसके विपरीत जो केवल भौतिक सुखों में लीन रहते हैं ; और आत्म - स्वरूप को पहचानने का प्रयास नहीं करते , वे वस्तुतः अपनी आत्मा का हनन करते हैं । " 


 নিজের ভেতর স্থিত এই তত্ত্ব যা জানার যোগ্য। "যে সাধক নিজের হৃদয়ে অবস্থিত আত্মাকে নির্মল মন দ্বারা চিন্তন করে বুঝতে পারে,সে অমৃত হয়। জন্ম-মৃত্যুর যন্ত্রণা থেকে সে চিরকাল মুক্তি পায়। "বিপরীতভাবে, যারা কেবল ভৌতিক আনন্দে লীন থাকে; এবং আত্ম-স্বরূপ প্রাপ্তির  প্রয়াস করে না, তারা আসলে তাদের আত্মাকে হনন করে।"



१ रीडर - संस्कृत - विभाग , म ० गाँ ० बा ० पी ० जी ० कॉलेज , फिरोजाबाद उ ० प्र ० 


२ सांख्यकारिका - २१ 


১.রীডর-সংস্কৃত-বিভাগ,ম০ গাঁ ০,বা ০,পী০,জী ০

২.সাংখ্যকারিকা-২১

৩.তৈত্তিরীয় ০-২.৭ ক রসো বৈ সঃরসং হয়েবাঁয় লব্ধ্বাঽঽনন্দী ভবতি।খ কঠো ০ ২.২.১২,

১৩-তমাত্মসংস্থং য়েঽনূপশয়ন্তি ধীরাস্তেষাং সুখং শাশ্বতং নেতরেষাম্। তেষাং শান্তিঃ শাশ্বতী নেতরেষাম্।

৪.ক-তৈত্তরীয়-২.৮.খ- মুণ্ডকো০-৩.১.৯ যস্মিন্ বিশুদ্ধে বিভবত্যেষ আত্মা।


३ तैत्तिरीयो०- २.७ क रसो वै सः , रसं हयेवायँ लब्ध्वाऽऽनन्दी भवति । ख कठो ० २.२.१२,१३ - तमात्मसंस्थं येऽनुपश्यन्ति धीरास्तेषां सुखं शाश्वतं नेतरेषाम् । तेषां शान्तिः शाश्वती नेतरेषाम् 

४ क- तैत्तरीयो -२.८ . ख- मुण्डको०-३.१.९ यस्मिन् विशुद्वे विभवत्येष आत्मा । 


৫.ঋগ্বেদ -১.১৫৪.৫ বিষ্ণোঃ পদে পরমে মধ্ব উত্সঃ।

৬.যজুর্বেদ -৩১.১৮ তমেব বিদিত্বাতি মৃত্যুমেতি নান্যঃ পন্থা বিদ্দতেঽয়নায়।

৭.কঠো০- ১.২.২২ মহান্তং বিভুমাত্মানং মত্বা ধীরো ন শোচতি।

৮.যোগসূত্র -১.৩ তদা দ্রষ্টূঃ স্বরূপেঽবস্থানম্।

৯.যোগসূত্র -১.৩ তদা দ্রষ্টূঃ স্বরূপেঽবস্থানম্।

১০. বৃহদা০-২.৫ য়েনেদং সর্ব বিজানাতি তং কেন বিজানীয়াত্।

১১.কঠো-১.২.২৩ আত্মা বিবৃণূতে তনূং স্বাম্।



५ ऋग्वेद - १.१५४.५ विष्णोः पदे परमे मध्व उत्सः । 

६ यजुर्वेद –३१.१८ तमेव विदित्वाति मृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय । 

७ कठो ० - १.२.२२ महान्तं विभुमात्मानं मत्वा धीरो न शोचति । 

८ योगसूत्र - १.३ तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम् । 

९ योगसूत्र - १.३ तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम् । 

१० बृहदा ० - २.४ येनेदं सर्वं विजानाति तं केन विजानीयात् । 

११ कठो - १.२.२३ आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम् । 



বৈদিক সাহিত্যে স্বয়ং

ডাঃ তুলসী দেবী'


गुरुकुल- शोध - भारती 



शृण्वन्तो पि बहवो यं न विद्युः , " नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यः इत्यादि मन्त्रों के द्वारा वैदिक ऋषियों की यह अवधारणा मुखर होती है कि आध्यात्मिक जीवन की पूर्णता के लिए मात्र शास्त्र ज्ञान का श्रवण , मनन आदि पर्याप्त नहीं है , इसके लिए अध्यात्म योग की आवश्यकता है । 


শ্রীনবন্তো পী বাহো যম ন বিদ্যূঃ, "নায়মাত্মা প্রবচনেন লভ্যঃ ইত্যাদি মন্ত্রগুলো বৈদিক ঋষিদের ধারণা মুখর হয়। তারা মনে করেন, যে  আধ্যাত্মিক জীবনের পূর্ণতার জন্য শাস্ত্রীয় জ্ঞানের শ্রবণ, মনন প্রভৃতি পর্যাপ্ত নয়, এর জন্য আধ্যাত্মিক যোগের প্রয়োজন।


ध्यान के द्वारा आत्मा में प्रवेश करके ही सत्य का सम्यक् दर्शन किया जा सकता है ; क्योंकि वह अत्यन्त गूढ़ ( दुर्दर्श ) , जीवात्मा में व्याप्त हृदयाकाश में स्थित और सूक्ष्मातिसूक्ष्म है । " प्रकारन्तर से ' केनोपनिषद् ' में इसी आशय को व्यक्त किया गया है । 


ধ্যানের মাধ্যমে আত্মার মধ্যে প্রবেশ করে সত্যকে সরাসরি দর্শন করা যায়; কারণ এটি অত্যন্ত গুঢ়  (দুর্দর্শ), জীবাত্মাতে ব্যাপ্ত হৃদয়াকাশে স্থিত এবং সূক্ষ্মাতিসূক্ষ্ম। কেনোপনিষদেও একই অর্থ প্রকাশিত হয়েছে।


" ' शतपथ ब्राह्मण ' में उल्लेख मिलता है कि शरीर में तो तेजोमय , अमृतमय पुरुष है , वही अध्यात्म है , जो आत्मा है , वह अमृत है तथा यह सब कुछ ब्रह्म है । " वैदिक वर्णन - शैली में ' आत्मा पद जीवत्मा और परमात्मा " दोनों अर्थों में प्रयुक्त हुआ है । ' 


শতপথ ব্রাহ্মণে উল্লেখ রয়েছে যে শরীরে তেজোময়, অমৃতময় পুরুষ রয়েছে , সেই আধ্যাত্ম  যে আত্মা, সেই অমৃত এবং এই সব কিছুই ব্রহ্ম। 

বৈদিক বর্ণন- শৈলিতে আত্মা বা জীবাত্মা এবং পরমাত্মা দুই ই ইন্দ্রিয়ের মধ্যেই প্রযুক্ত।


ईशावास्योपनिषद् के उपदेष्टा ऋषि कहते हैं कि हिरण्मयपात्र से सत्य का मुख ढका हुआ है । सत्यान्वेषण की जिज्ञासा को धारण करने वाला सत्यधर्मा साधक प्रार्थना करता है कि हे प्रभु ! आप इस आवरण को दूर कर दो , जिससें कि मैं सत्य - स्वरूप का साक्षात्कार कर सकूँ । २२ 


 ইশাবাস্যোপনিষদের উপদেষ্টা ঋষি বলেছেন সত্যের মুখ একটি সোনার পাত্রে আবৃত। যে সত্যানেষণের ধারক, সত্যধর্ম সাধক সত্য প্রার্থনা করেন, হে প্রভু! তুমি এই আবরণ দূর করে দাও, যাতে আমি সত্য-স্বরূপ দেখতে পারি।


साक्षात्कार की दृष्टि प्राप्त करने के लिए वैदिक वाङ्मय में विविध रूपकों के माध्यम से विवेचन प्राप्त होता है । यथा प्रणव धनुष है , आत्मा बाण और ब्रह्म लक्ष्य । " इस उद्धरण में ईश्वर नाम ( प्रणव ) रूपी साहचर्य से आत्मा रूपी बाण को परमात्मा में संलग्न करने का निर्देश दिया गया है । 

উপলব্ধির দৃষ্টি অর্জনের জন্য, বৈদিক সাহিত্যে   বিভিন্ন রূপকের মাধ্যমে বর্ণন করা হয়। প্রণব যেমন ধনুক, আত্মা বাণ এবং ব্রহ্ম লক্ষ্য। " এই উদ্ধৃতিতে, আত্মা রূপী বাণকে পরমাত্মার সাথে সংযুক্ত হতে নির্দেশ করা হয়েছে।


' श्वेताश्वतरोपनिषद् ' में ध्यान धनुष के रूप मन्थन के अभ्यास से काष्ठ में व्याप्त अग्नि के समान आत्मदर्शन की प्रक्रिया वर्णित है । " वैदिक ऋषियों का अभिप्राय यह है कि आत्मदर्शन के लिए जिस आभ्यन्तर दृष्टि को विकसित करने की आवश्यकता है , जिसके द्वारा आन्तर चेतना अर्थात् आत्मा का दर्शन होता है , उसके लिए ध्यानात्मक अभ्यास अपरिहार्य है । 


'শ্বেতাশ্বতরোপনিষদ' ধ্যান ধনুকের মতো মন্থনের অভ্যাসের মাধ্যমে কাঠে অগ্নি প্রজ্জ্বলনের মতো আত্ম-উপলব্ধির প্রক্রিয়া বর্ণিত রয়েছে। "বৈদিক ঋষিদের অভিপ্রায় হল আত্ম-দর্শনের জন্য  অন্তর্দৃষ্টি বিকশিত করা আবশ্যক, যার দ্বারা অন্তর্নিহিত চেতনা, আত্মাকে দেখা যায়।


 


१२ शतपथ ब्रा ० ६.२.१.७

१३ श्वेता ० १.१२ एतज्ज्ञेयं नित्यमेवात्मसंस्थम् । 

१४ वही - ४ .. २० हृदा हृदिस्थं मनसा य एनमेवं विदुरमृतास्ते भवन्ति । 

१५ यजु ० - ४१३३ तांस्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये के चात्महनो जनाः । 


१६ कठो०- १.२.७ 

१७ वही १.२.२३ 

१८ वही १.२.१२ 

१ ९ केनो ० - १.३.८ न तत्र चक्षुर्गच्छति । 


२० शतपथ ब्रा ० ४.५.५.१ 

२१ वही - ४.२.२.१ सर्व ह्ययमात्मा । 

२२ ईशावास्यो ० - १५ हिरण्यमयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम् । तत्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये ।

 २३ मुण्डको ० - २.२.४ प्रणवो धनुः शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते । 

२४ श्वेता ० - १.१४ स्वदेहमरणिं कृत्वा . 

२५ यजु ० - ११.२ युक्तेन मनसा वयं देवस्य सवितुः सवे ।


১২.শতপথ ব্রাহ্মণ  ০ ৬.২.১.৭

১৩.শ্বেতা ০ ১.১২ এতজ্জ্ঞেয়ঃ নিত্যমেবাত্মসঃস্থম্।

১৪.বহী ৫...২০ হৃদা হৃদিস্থঃ মনসা য় এনমেবঃ বিদুরমৃতাস্তে ভবন্তি। 


১৫.যজুর্বেদ ০ - ৪১৩৩ তাঃস্তে প্রেত্যাভিগচ্ছন্তি য়ে কে চাত্মহনো জনাঃ।


১৬ কাঠো০-১.২.৭

১৭.বহী ১.২.২৩

১৮.বহী ১.২.১২

১৯.কেনো ০-১.৩.৮ ন তত্র চক্ষূর্গচ্ছতি।


২০. শতপথ ব্রা ০.৪.৫.৫.১

২১.বহী-৪.২.২.১ সর্ব হৃ্য়মাত্মা

২২.ঈশাবাস্যো ০ - ১৫ সত্যের মুখ সোনার পাত্রে ঢাকা। হে ধর্মার্থ রক্ষক, দয়া করে সত্য ও ন্যায়ের জন্য সত্যের উন্মোচন করো। 


২৩.মুন্ডক ০.২.২.৪ ওঙ্কার হল ধনুক এবং তীর, এবং আত্মা হল ব্রহ্ম এবং এটিকে লক্ষ্যবস্তু করো।


২৪.শ্বেতা ০-১.১৪  স্বদেহমরণিঃ কৃত্বা

২৫. যজুর্বেদ ০-১১.২ য়ুক্তেন মনসা বয়ং দেবস্য সবিতুং সবে।


इस अणु आत्मा को चित्त से जानना चाहिए " इत्यादि वर्णन परोक्ष को प्रत्यक्ष अर्थात् अनुभूतिगम्य बनाने का निर्देश देते हैं । कहने का आशय यह है कि परोक्ष अर्थात् अन्तरात्मन् पुरुष के साक्षात्कार के लिए बाह्य जगत् में अनुरक्त चित्त को अन्तर्मुखी बनाकर आत्मा में स्थिर करना चाहिए । 


এই অণু আত্মাকে মন থেকে জানা উচিত "ইত্যাদি বর্ণনা পরোক্ষকে  প্রতোক্ষ অর্থাৎ অনুভূতিময় করার নির্দেশ রয়েছে। এটা করার আশা হলো যে পরোক্ষ অর্থাৎ অন্তরাত্মা পুরুষের সাক্ষাতকারের জন্য  বাহ্য জগতে অনুরক্ত চিত্ত কে অন্তর্মুখী করে আত্মাতে স্থির করা উচিত। 


अन्तर्निमग्नता ही आत्मदर्शन की योग्यता का २७ का रहस्योद्घाटन करते हुए ' अथर्ववेद ' के ऋषि ने आधार है । मनुष्य - शरीर में विराजमान गूढ़ देवात्म तत्त्व " देवपुरी ( शरीर ) को अष्टचक्रा कहकर यही संकेत दिया है कि क्रमशः ऊर्ध्वगामी अष्टचक्रों में ध्यान केन्द्रित करने से ऊर्ध्वोन्मुख होती हुई चेतना द्वारा शुद्धात्मा का दर्शन होता है ।


'অথর্ববেদ'-এর ঋষি “অন্তনির্মগ্নতাই হলো আত্মদর্শনের যোগ্যতা এই রহস্যদ্ধাটন করেছেন”।মানব শরীরে  বিরাজমান গুঢ় দেবাত্ম তত্ত্ব  হচ্ছে"দেবপুরী (দেহ) কে অষ্টচক্রা বলে এই সংকেত দেয়া হয়েছে যে, ক্রমশ উর্ধ্বগামী অষ্টচক্রে ধ্যান কেন্দ্রিত করে উর্ধ্বোন্মুখ হয়ে চেতনা দ্বারা শুদ্ধাত্মার দর্শন হয়। 


 " द्रष्टा , जो देखने की शक्तिमात्र है , स्वरूपतः शुद्ध और निर्विकार होता हुआ भी विषयासक्त चित्त के सानिध्य से चित्त की वृत्तियों के अनुसार देखता हुआ सुख दुःखादि का अनुभव करता है ।


“দ্রষ্টা, যে কেবল দেখার শক্তিমাত্র, সহজাত শুদ্ধ এবং নির্বিকার হয়েও বিষয়াসক্ত মনের প্রবৃত্তি অনুসারে দেখে সুখ-দুঃখের অনুভব করেন।



 " ऐसे पुरुष को तत्त्ववेत्ता मनीषियों ने भोक्ता , ३ " कर्ता " आदि नामें से अभिहित किया है । इसके विपरीत चित्त से किसी प्रकार का सम्बन्ध न रहने पर जीवात्मा का सुख - दुःखादि से मुक्त होकर अपने शुद्ध - स्वरूप में पुनः प्रतिष्ठित हो जाने का नाम आत्मदर्शन है । इसी को कैवल्य की संज्ञा दी गई है । 


"এমন  ব্যক্তিকে তত্ত্ববেত্তা মনীষিরা “ভোক্তা কর্তা” ইত্যাদি নামে অভিহিত করেছেন। এর বিপরীতে চিত্তে কোন কিছুর সমন্ধ না রেখে জীবাত্মার সুখ-দুঃখ থেকে মুক্ত হয়ে নিজের শুদ্ধ স্বরূপ পুণরায় প্রতিষ্ঠিত করার নামই মূলত আত্মদর্শন। এটিকে কৈবল্যর সংজ্ঞা বলা হয়। 


शरीर में रहने वाला अशरीरी आत्मा सूक्ष्म एवं गुह्यतम है । " अत एव , इसकी प्राप्ति के साधन भी सूक्ष्म एवं आन्तरिक हैं । दार्शनिक भाषा में इन्हें अन्तःकरण " कहा गया है , जिसका अर्थ है भीतरी साधन । इनमें से प्रमुख मन है ।


শরীরে থাকা অশরীরী আত্মা সবচেয়ে সূক্ষ্ম এবং গুহ্যতম। "অতএব, এটি পাওয়ার সাধনাও সূক্ষ্ম এবং আন্তরিক। দার্শনিক ভাষায় এটিকে অন্তকরণ বলা হয়েছে যার অর্থ ভেতরের অর্থাৎ মনের সাধন।


 मन जीवात्मा को बाह्य जगत् से जोड़ने वाला प्रमुख उपकरण है । सभी ज्ञान मन के होने पर होते हैं । इसलिए बन्ध का कारण होने के साथ - साथ ' मोक्ष ' का कारण भी मन को ही कहा गया है । " मूल बात यह है कि मन को नकार नहीं सकते हैं । मन को विषयों के चिन्तन से पृथक् कर आत्मानुरागी बनाने का अभ्यास करने पर निर्मल हुए मन से आत्मा का दर्शन किया जा सकता मन सतत प्रवाहमान विचारों का एक पुंज है । 


মন জীবাত্মাকে বাহ্য  জগৎ থেকে সংযুক্ত কারি উপকরণ। সমস্ত জ্ঞান মন থেকে হয়। তাই, অসংগত হওয়ার কারণের সাথে সাথে মোক্ষের কারণও মনকে বলা হয়। "মূল বিষয় হল মন নেতিবাচক হতে পারে না। মনের কথার চিন্তন  থেকে পৃথক হয়ে আত্মানুরাগী হওয়ার অভ্যাস করার পর নির্মল হয়ে মন থেকে আত্মার দর্শন করে মন সতত প্রবাহমান বিচরণের এক পুঞ্জ।  


शान्त एकान्त भाव से ध्यान में बैठकर निरन्तर आते - जाते विचारों को तटस्थ भाव से देखने का अभ्यास करने पर विचारों का क्रम शनैः शनैः रुकने लगता है और एक स्थिति में आकर विचार शान्त हो जाते हैं , तब केवल आत्मतत्त्व की अनुभूति होती है । 

উউ

শান্ত একান্ত ভাবে ধ্যানে বসে নিরন্তর আসতে-যেতে বিচরণের তটস্থ ভাবে দেখার অভ্যাস /অনুশীলন করে,তখন চিন্তার ক্রম ধীরে ধীরে থেমে যায় এবং যখন চিন্তাগুলি শান্ত হয়, তখন কেবল আত্মতত্ত্বের অনুভূতি হয়। .


यही आत्मा का दर्शन है , आत्मा से जुड़ना है , आत्मा से योग है । शरीर और मन से परे अनुभव में आने वाला यही आत्मा चाहने वाला कोई धीर ( संयमी ) और विवेकीपुरुष , ज्ञान की निर्मलता से जिसका अन्तःकरण शुद्ध हो चुका है वह वह आवृतचक्षु होकर इस आत्मा को देख पाता है । ७ तत्त्वदर्शी ऋषियों ने निगूढ़ देवात्मशक्ति को ध्यानयोग है  देखा । । अमृत को 


এটি আত্মার দর্শন, আত্মার সংযোগ, আত্মায় যোগ রয়েছে । শরীর এবং মনের বাইরে অনুভবে এই আত্মা একজন ধীর(সংযমী) এবং বিবেকী পুরুষ, জ্ঞানের নির্মলতা থেকে যার অন্তঃকরণ শুদ্ধ  হয় সে আবৃতচক্ষু হয়ে এই আত্মা কে দেখতে পাই। তত্ত্বদর্শী ঋষিগণ নিগূঢ় দেবাত্বশক্তি কে ধ্যানযোগে দেখেছেন।


२६ मुण्डको ० - ३.१.९ एषोऽणुरात्मा चेतसा वेदितव्यः । २७ अथर्व ० - १०.२.३२.३३ 

२८ वही - १०.२.३१ अष्टचक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या । तस्यां हिरण्ययः कोशः स्वर्गो ज्योतिषावृतः ।। २ ९ योगसूत्र - २.२० द्रष्टा दृशिमात्रः ' शुद्धोऽपि प्रत्ययानुपश्यः । 


২৬.মুণ্ডকো ০-৩.১.৯ এষোঽণুরাত্মা চেতসাবেদিতব্যঃ

২৭.অথর্ব ০-১০.২.৩২.৩৩

২৮.বহী-১০.২.৩১ অষ্টচক্রা নবদ্বারা দেবানাং পুরয়োধ্যা। তস্যাং হিরণ্যয়ঃ কোশঃ স্বর্গো জ্যোতিষাবৃতঃ।।

২৯.যোগসূত্র -২.২০ দ্রষ্টা দৃশিমাত্রঃ শুদ্ধোঽপি প্রত্যয়ানুপশ্যঃ।

৩০.কঠো ০-১.৩.৪ আত্মেন্দ্রিয়মনোযুক্তং ভোক্তেত্যাহুর্মনীষিণঃ।

৩১.ভগবদ্গীতা ১৩.২.৯ য়ঃ পশয়তি তথাত্মানমকর্ত্তারং স পশয়তি।

৩২.যোগসূত্র - ৪.৩৪

৩৩.ক-কঠো ০-১.২.২২ অশরীরং শরীরেষু।খ-প্রশ্নো ০-৩.৬ হৃদি হ্যোষ আত্মা।

৩৪.সাংখ্যকারিকা ৩৩

৩৫.ব্রহ্মবিন্দু উপ ০- ১.২ न देहो न जीवात्मा नेन्द्रियाणि परन्तप । मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः ।। मनसैवेदमाप्तव्यम् ....। 


ন দেহো ন জীবাত্মা নেন্দ্রিয়াণি পরন্তুপ। মন এবং মনুষ্যাণাং কারণং বন্ধমোক্ষয়োঃ।।

৩৬ কঠো ০-২.১.১১ মনসৈবেদমাপ্তব্যম্।


३० कठो ० - १.३.४ आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः । ३१ भगवद्गीता १३.२ ९ यः पश्यति तथात्मानमकर्त्तारं स पश्यति । ३२ योगसूत्र - ४.३४ 

३३ क- कठो ० - १.२.२२ अशरीरं शरीरेषु । ख- प्रश्नो ० - ३.६ हृदि ह्येष आत्मा । 

३४ सांख्यकारिका ३३ 

३५ ब्रह्मबिन्दु उप ० ३६ कठो ० - २.१.११ 

१.२ 


३७ कठो ० 


৩৭.কঠো ০-২.১.১ ক কাশ্চিদ্ধীরঃ প্রত্যগাত্মানমৈক্ষদাবৃত্তচক্ষুরমৃততত্বমিচ্ছন্। খ মুণ্ডোকো ০ বিশুদ্ধসত্বস্ততস্তু তং পশয়তং নিষ্কেল ধ্যায়মস্ব ৩.১.৮ জ্ঞানপ্রসাদেন


२.१.१ . क काश्चिद्धीरः प्रत्यगात्मानमैक्षदावृत्तचक्षुरमृततत्वमिच्छन् । ख मुण्डको ० विशुद्धसत्वस्ततस्तु तं पश्यतं निष्केल ' ध्यायमस्व hy , Jammmu . Digitized by S3 Foundation USA 



३.१.८ ज्ञानप्रसादेन



देखा । ” इत्यादि श्रुति - वाक्यों से आत्मदर्शन के अधिकारी का ज्ञान होने के साथ - साथ यह भी विदित होता है कि प्रत्यक् आत्मा ध्यानगम्य है । ध्यान में मन को साधने की प्रक्रिया प्रमुख रूप से विद्यमान है । मन उस अन्तरिन्द्रिय का नाम है , जो हमें बाह्य जगत् से जोड़ने के साथ ही अध्यात्म से सम्बद्ध करने में भी पूर्ण समर्थ है । 




” ইত্যাদি শাস্ত্রের শ্রুতি- বাক্যাংশ থেকে আত্মদর্শনের অধিকারীর জ্ঞান হওয়ার সাথে সাথে এটিও বলা হয়েছে যে প্রত্যেক আত্মা ধ্যানগম্য। ধ্যানে মনকে গড়ে তোলার প্রক্রিয়াটি বিভিন্ন রূপে বিদ্যমান। মন সেই অন্তরিন্দ্রিয় গুলোর নাম, যা আমাদেরকে বাহ্যিক জগতের সাথে সংযুক্ত করার পাশাপাশি আধ্যাত্মিকতার সাথে আমাদের সংযোগ করতে সম্পূর্ণরূপে সক্ষম।


मन का स्वरूप संकल्प अर्थात् चिन्तन करना है । " चिन्तन की दृष्टि जब बहिर्मुख से अन्तर्मुख होती है , तब वह ' ध्यान ' में परिणत होती है । " वैदिक काल से मानस संयम को परमशान्ति का स्रोत माना जाता रहा है । 


মনের স্বরূপ হল সংকল্প, অর্থাৎ চিন্তন করা। চিন্তনেরদৃষ্টি যখন বহির্মুখী থেকে অন্তর্মুখীতে পরিণত হয়, তখন এটি 'ধ্যানে'  পরিণত হয়।বৈদিক কাল থেকে মানুষ সংযমকে পরম শান্তির উৎস হিসাবে মেনে থাকেন।


वैदिक ऋषि मन के नियन्त्रण द्वारा ही अनन्त शक्तियों के स्वामी बन सके थे । ' यजुर्वेद ' के ऋषि कहते हैं- हे अमृतपुत्रो ! सुनो ! जिस उपासना के द्वारा हमारे पूर्वज मोक्ष - सुख को प्राप्त हुए , उसी उपासना से लोग भी उन सुखों को प्राप्त करो ।


বৈদিক ঋষিরা মনকে নিয়ন্ত্রণ করেই অনন্ত শক্তির অধিকারী হয়েছেন। 'যজুর্বেদের' ঋষি বলেছেন: হে অমৃত পুত্রোগণ! শোন! যে উপাসনার দ্বারা আমাদের পূর্বপুরুষরা মোক্ষের সুখ লাভ করেছিলেন, সেই উপাসনার দ্বারা মানুষও সেই সুখ প্রাপ্ত করে।



 " वह उपासना कैसे की जाए , इस पर प्रकाश डालते हुये साक्षात्कृतधर्मा ऋषि कहते हैं जब पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ मन के साथ स्थिर हो जाती हैं और बुद्धि भी चेष्टारहित हो जाती है , उसको परमगति कहते हैं । " इसी का नाम योग है । ४३ 


"সেই উপাসনা কিভাবে করতে হয়, ঋষি সাক্ষতকৃতধর্মকে তুলে ধরে বলেছেন যখন পঞ্চ জ্ঞানেন্দ্রিয় মনের সাথে স্থির হয়ে যায়  এবং বুদ্ধিও অনায়াসে হয়ে যায় তখন তাকে পরমগতি

 বলা হয় ।" এটা যোগ নামে পরিচিত । 


उपनिषदों का यह वर्णन आत्मसाक्षात्कार की चरम स्थिति का परिचायक है । मन का इतना संयम कि बुद्धि निश्चेष्ट हो जाए । दृष्टा भाव भी जहाँ समाप्त हो जाए । ' आत्मदर्शन स्वरूप स्थिति ' में परिणत हो जाए , क्योंकि उस समय साधक प्रमाद से सर्वथा रहित हो जाता है । 


উপনিষদের এই বর্ণনা আত্মোপলব্ধির চরম স্থিতির পরিচায়ক। মনের এমন সংযমের বুদ্ধি নিশ্চেষ্ট। যেখানে দৃষ্টিশক্তিও শেষ হয়ে যায়। 'আত্মদর্শন স্বরূপ স্থিতিতে' পরিণত হয়,কারণ সেই সময় সাধক প্রমাদ সর্বদা উপস্থিত। 


अपने स्वरूप को भूला हुआ जो वृत्ति सारूप्य प्रतीत हो रहा था , उससे पूर्णतः रहित शुद्धात्म रूप में स्थित हो जाता है । पातंजल योगदर्शन में इसे ' निर्बीज समाधि'४५ और असम्प्रज्ञात समाधि कहा गया है । महर्षि पतंजलि ने मन को एकाग्र करने की प्रक्रिया दो रूपों में वर्णन की है । सर्वप्रथम , मन को किसी एक विषय में निरन्तर इस प्रकार लगाए रखना कि दूसरा विचार न आने पाए । 


নিজের স্বরূপকে ভুলে গিয়ে, যে শুদ্ধ আত্মার রূপে অবস্থান করেন, যে প্রবৃত্তিটি অনুরূপ বলে মনে হয় তা সম্পূর্ণরূপে বর্জিত এটি ‘নিবীর্জ সমাধি’ এবং ‘অসম্প্রজ্ঞাত সমাধি’। মহর্ষি পতঞ্জলি  মনকে একাগ্র করার প্রক্রিয়া দুইভাবে বর্ণনা করেছেন। প্রথমত, মনকে ক্রমাগত যেকোন একটি বিষয়ে এমনভাবে স্থির রাখুন যাতে অন্য কোনো চিন্তা না আসে।


इस अभ्यास से ' सम्प्रज्ञात - समाधि की सर्वोच्च अवस्था प्राप्त होने पर सत्वगुण की प्रधानता से योगी का चित्त इतना निर्मल हो जाता है कि उसे प्रकृति पर्यन्त समस्त पदार्थों का यथार्थ ज्ञान हो जाता है । इसे ज्ञानप्रसाद अध्यात्मप्रसाद " , ऋतम्भराप्रज्ञा " , " विवेकख्याति " इत्यादि नामों से अभिहित किया गया है । यही वह ' दिव्य चक्षु ' है , जिसे प्राप्तकर सारा मोह नष्ट हो जाता है । " साक्षात् अनुभूत सत्य को धारण करने वाली इस प्रज्ञा से चित्त का ' विवेकख्याति ' चित्त की ही एक वृत्ति है ।


এটি অনুশীলনের দ্বারা, যখন সম্প্রজ্ঞাত-সমাধির সর্বোচ্চ অবস্থা প্রাপ্ত হয়, তখন যোগীর মন সত্ত্বগুণের প্রাধান্য দ্বারা এতটাই শুদ্ধ হয় যে, সে প্রকৃতি পর্যন্ত সমস্ত কিছুর প্রকৃত জ্ঞান লাভ করে। এটিকে “জ্ঞানপ্রসাদ অধ্যাত্মপ্রসাদ”, “ঋতম্ভরপ্রজ্ঞা”, "বিবেকাখ্যাতি" ইত্যাদি নামে অভিহিত করা হয়েছে। এটিই 'দিব্য চক্ষু', যা প্রাপ্ত হয় এবং সমস্ত ভ্রম বিনষ্ট হয়। "মনের এই প্রজ্ঞা দ্বারা যা সরাসরি অনুভূত সত্যকে ধারণ করে



आत्माध्यास छूट जाता है और योगी को चित्त से पृथक् आत्मा का साक्षात्कार होता है । " उसकी आत्मभाव भावना कि मैं कौन हूँ ? क्या हूँ ? इत्यादि निवृत हो जाता है । ४ 


আত্মাধ্যাস মুক্তি পায় এবং যোগী আত্মাকে মন থেকে পৃথক করে উপলব্ধি করতে পারে। তার আত্মভাব ভাবনা হলো "আমি কে? আমি কী? ইত্যাদি নিবৃত হয়ে যায়। 


' विवेकख्याति ' चित्त की ही एक वृत्ति है । अत एव ' महर्षि पतंजलि ' कहते हैं , कि यह ' स्वरूप स्थिति ' नहीं है , इत्यादि के रूप में ' परवैराग्य ' द्वारा चित्त की इस ज्ञानत्मिका वृत्ति का भी निरोध हो जाने पर सभी वृत्तियों का निरोध होने से ' आत्मस्वरूप में अवस्थिति ' घटित होती है । ' आत्मदर्शन ' और ' स्वरूप स्थिति ' के इसी सूक्ष्म अन्तर को श्रुतियों में ' बुद्धिश्च न विचेष्टते ' कहकर प्रतिपादित किया गया है । 


বিবেকখ্যাতি' মনেরই একটি প্রবৃত্তি। এই কারণেই 'মহর্ষি পতঞ্জলি' বলেছেন, এটি 'স্বরূপ স্থিতী' নয়। মনের এই আলোকিত প্রবৃত্তিকে বিভিন্ন রূপে 'পরবৈরাগ্য' দ্বারা চিত্তের এই জ্ঞানত্মিকা বৃত্তিও নিরোধ হলে সকল বৃত্তির নিরোধ হয়ে 'আত্মস্বরূপে অবস্থিতি' ঘটিত হয়। 'আত্মদর্শন' এবং 'স্বরূপ স্থিতির' মধ্যে এই সূক্ষ্ম পার্থক্যটি শ্রুতিতে 'বুদ্ধিশ্চ ন বিচেষ্টতে' হিসেবে প্রতিপাদিত করা হয়েছে।


३८ श्वेता ० १.३ ते ध्यानयोगानुगता अपश्यन् देवात्मशक्तिं स्वगुणैर्निगूढाम् । 


३ ९ सांख्यकारिका २७ 


४० योगसूत्र - ३.१२ तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम् । 


४१ यजुर्वेद - ११.५ शृण्वन्तु विश्वेऽमृतस्य पुत्रा आ ये धामानि दिव्यानि तस्थुः । 


৩৮.শ্বেতা ০ ১.৩ নে ধ্যানযোগানুগতা অপশ্যন্ দেবাত্মশক্তিং স্বগুণৈনির্গূটাম্।

৩৯.সাংখ্যকারিকা ২৭

৪০.যোগসূত্র - ৩.১২ তত্র প্রত্যয়ৈকতানতা ধ্যানম্।

৪১.যজুর্বেদ -১১.৫ শৃণ্বন্তু বিশ্বেঽমৃতস্য পুত্রা আ য়ে ধামানি দিব্যানি তস্থুঃ।



४२ कठो ० - २.३.१० ' यदा पंचावतिष्ठन्ते ज्ञानानि मनसा सह । बुद्धिश्च न विचेष्टति तामाहुः परमां गतिम् । 


४३ वही २.३.११ 


४४ वही २.३.११ अप्रमत्तस्तदा भवति . 


४५ योगसूत्र - १.५१ 


४६ व्यासभाष्य - योगसूत्र - १.५ । 


৪২ কঠো০-২.৩.১০ যদা পংচাবতিষ্টন্তে জ্ঞানানি মনসা সহ। বুদ্ধিশ্চ ন বিচেষ্টতি তামাহুঃ পরমাং গতিম্।

৪৩.বহী২.৩.১১

৪৪.বহী ২.৩.১১ অপ্রমত্তস্তদা ভবতি।

৪৫.যোগসূত্র ১.৫১

৪৬.ব্যাসভাষ্য-যোগসূত্র-১.৫


४७ योगसूत्र - ३.२ तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम् । ४८ मुण्डको - ३.१.८ । ज्ञानप्रसादेनं .. 


৪৭.যোগসূত্র -৩.২ তত্র প্রত্যয়ৈকতানতা ধ্যানম্

৪৮.মুণ্ডকো-৩.১.৮।জ্ঞানপ্রসাদেনং

৪৯.যোগসূত্র -১.৪৭ নিবির্চারবৈশারদ্দ্যেঽধ্যাত্মপ্রসাদঃ।


४ ९ योगसूत्र - १.४७ निर्विचारवैशारद्येऽध्यात्मप्रसादः । 


५० वही - १.४८ 


५१ वही २.२६ 


५२ भगवद्गीता - ५.१ . - १२ दिव्यं ददामि ते चक्षुः ...... 


- ५३ मुण्डको०- ३.१.८ ततस्तु तं पश्यते निष्कलं ध्यायमानः ।

 ५४ योगसूत्र ४.२५ विशेषदर्शिनः आत्मभावभावना विनिवृत्तिः । 


৫০.বহী - ১.৪৮

৫১.বহী২.২৬

৫২.ভগবদ্গীতা-৫.১-১২ দিব্যং দদামি তে চক্ষুঃ

৫৩.মুণ্ডকো ০-৩.১.৮ ততস্তু তং পশয়তে নিষ্কলং ধ্যায়মানঃ।

৫৪.যোগসূত্র ৪.২৫ বিশেষদর্শিনঃ আত্মভাবভাবনা বিনিবৃত্তিঃ।




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