शुक्रवार, 21 जून 2019

ईश्वरीय ज्ञान – वेद

संकलक 👉 शुभंकर मंडल


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हम सभी जानते हैं वेद ही है ईश्वरीय ज्ञान। कभी कभी हमें इस प्रश्न का सामना करना पड़ता है कि “वेद ही है ईश्वरीय ज्ञान इसका प्रमाण क्या है?” वैदिक धर्म के परम्परागत अनुसार यही विश्वास है कि वेद ही है ईश्वरीय ज्ञान। ईश्वरीय ग्रंथ में जो लक्षण होना चाहिए वह केवल वेदों में ही मिलती है।

ईश्वरीय ज्ञान

📚🕉️📚🕉️📚🕉️📚🕉️📚🕉️📚🕉️📚🕉️📚🕉️📚  ईश्वरीय ग्रंथ में निम्नलिखित लक्षण होनी चाहिए:👉

➧➡१. उस ज्ञान का आविर्भाव मानव सृष्टि के प्रारंभ से होना चाहिए। परमेश्वर सकल मानव जाति के परम पिता हैं और सभी मनुष्यों का कल्याण चाहते हैं। केवल एक वेद ही हैं जो सृष्टी के आरंभ में ईश्वर द्वारा मानव जाति को प्रदान किया गया था।
 ऊपर लिखे तर्क से बाइबल में वर्णित आदम और हव्वा के किस्से की अगर हम परीक्षा करे तो परमेश्वर द्वारा पहले सत्य के फल का वृक्ष लगाना, फिर आदम और हव्वा की उत्पत्ति कर उन्हें वृक्ष के फल खाने से मना करना, फिर हव्वा द्वारा साँप की बातों में आकर वृक्ष के फल खाना जिससे उसे ज्ञान होना की वे वस्त्र रहित हैं। इससे परमेश्वर का नाराज होकर हव्वा को पापी कहना, उसे प्रसव पीड़ा का शाप देना और साँप को जीवन भर रेंगने का शाप देना अविश्वसनीय प्रतीत होते हैं, क्यूंकि ईश्वर का कार्य ही मनुष्य को ज्ञान देना हैं और अगर मनुष्य की उत्पत्ति होने के बाद उसे ज्ञान न देकर उसके स्थान पर शाप देना बाइबल के ईश्वरीय पुस्तक होने में संदेह उत्पन्न करता हैं। वेद के अतिरिक्त अन्य कोई भी धर्म पुस्तक सृष्टी के आरंभ में नहीं हुई थी. अत: वेद को ही इस कसौटी के अनुसार ईश्वरीय ज्ञान माना जा सकता हैं अन्य को नहीं।

➧➡२. उस ज्ञान में मानव मात्र के क्रिया कलापों का इतिहास नहीं होना चाहिए जैसा कि हम रामायण, महाभारत, बाइबल, कुरान और अन्य इतिहास की पुस्तकों में देखते हैं क्योंकि ऐसी स्थिति में उस पुस्तक से पहले के लोग ईश्वरीय ज्ञान से वंचित हो जाएंगे।

➧➡३. वह ज्ञान सृष्टि विज्ञान के सत्य शाश्वत नियमों के अनुकूल एवं प्रकृति के रहस्यों को स्पष्ट करने वाला होना चाहिए।

➧➡४. वह ज्ञान तर्कसंगत, विवेकपूर्ण एवं विरोधाभास से मुक्त होना चाहिए। ऐसा ज्ञान संपूर्ण, मानवीय एवं प्राकृतिक — सभी प्रकार के ज्ञान-विज्ञान का मूल आधार होना चाहिए। जो भी धर्म ग्रन्थ विज्ञान विरुद्ध बाते करते हैं वे ईश्वरीय ज्ञान कहलाने के लायक नहीं हैं।
 बाइबल को धर्म ग्रन्थ मानने वाले पादरियों ने इसलिए Galileo को जेल में डाल दिया था क्यूंकि बाइबल के अनुसार सूर्य पृथ्वी के चारों ओर घूमता हैं ऐसा मानती हैं। कुरान में इसी प्रकार से अनेक विज्ञान विरुद्ध बाते हैं जैसे धरती चपटी हैं और स्थिर हैं जबकि सत्य ये हैं की धरती गोल हैं और हमेशा अपनी कक्षा में घुमती रहती हैं।  वेद में Ayurveda, Anatomy, Political Science, Social Science, Spiritual Science, Origin of life आदि का प्रतिपादन किया गया हैं। अत: केवल वेद ही ईश्वरीय ज्ञान हैं, अन्य ग्रन्थ नहीं।
 
➧➡५. वह ज्ञान ईश्वर के गुण कर्तव्य स्वभाव एवं स्वरूप के अनुरूप हो जैसे ईश्वर सर्वशक्तिमान, सर्वाधार, सृष्टिकर्ता, पक्षपात रहित, न्यायकारी, सर्वज्ञ, सर्वान्तर्यामी, सर्वव्यापक, निराकार, निर्विकार, निर्भय, नित्य, पवित्र आदि गुण संपन्न है उसका वैसा ही वर्णन ग्रंथों में होना चाहिए।
वेदों में ईश्वर का स्वरूप जानने के लिए इसके पहले का पोस्ट पढ़िए।

➧➡६. वह ज्ञान सार्वदेशिक, सार्वभौमिक, सर्वकालिक और विश्व के समस्त मानवमात्र के कल्याण के लिए एक समान और व्यवहार करने योग्य होना चाहिए। वह पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, क्षेत्र, प्रान्त, देश आदि की सीमाओं से मुक्त हो। वह गोरे-काले, जाति-बिरादरी, स्त्री-पुरुष, आकृति, भाषा, बोली, गरीब-अमीर, आदि के भेदभाव से पूर्णतया मुक्त, समतावादी और मानवतावादी होना चाहिए। वह समस्त एक मानव जाति के लिए एक समान आचार संहिता का प्रतिपादक हो। वह ज्ञान मत, संप्रदाय एवं सामाजिक, आर्थिक राजनैतिक वादों की संकीर्णताओं एवं पक्षपात, घृणा-द्वेष, ऊंच-नीच का भेदभावों से मुक्त होना चाहिए। उसमें कर्तव्य- अकर्तव्य के स्पष्ट आदेश हों।

➧➡७. वह ज्ञान समस्त मानवमात्र का कल्याणकारी, पारस्परिक प्रेम एवं विश्व-बधुत्व का प्रेरणादायक हो। वह सर्वांगीण विकास का स्त्रोत एवं सभी प्रकार के क्लेशों एवं दुखों से मुक्ति दिलाने वाला हो।

।। सं गच्छध्वम् सं वदध्वम्।। (ऋग्वेद 10.181.2)
मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे [यजु ३६|१८]

सब को मित्र की स्नेहशील आँख से हम देखे। यहाँ वेद मनुष्य सीमा से भी आगे निकल गया प्यार का अधिकारी केवल मनुष्य ही न रहा वरन सब भुत प्राणी हो गए

➧➡८. ईश्वरीय ज्ञान की पुस्तक में किसी देश का भूगोल और इतिहास नहीं होना चाहिए।
ईश्वरीय ज्ञान की धर्म पुस्तक संपूर्ण मानव जाति के लिए होनी चाहिए नाकि किसी एक विशेष देश के भूगोल या इतिहास से सम्बंधित होनी चाहिए। अगर कुरान का अवलोकन करे तो हम पाते हैं की विशेष रूप से अरब देश के भूगोल और मुहम्मद साहिब के जीवन चरित्र पर केन्द्रित हैं, जबकि अगर हम बाइबल का अवलोकन करे तो विशेष रूप से फिलिस्तीन (Palestine) देश के भूगोल और यहुदिओं (Jews) के जीवन पर केन्द्रित हैं, जिससे यह निष्कर्ष निकलता हैं की ईश्वर ने कुरान की रचना अरब देश के लिए और बाइबल की रचना फिलिस्तीन देश के लिए की हैं। वेद में किसी भी देश विशेष या जाति विशेष के अथवा व्यक्ति विशेष के लाभ के लिए नहीं लिखा गया हैं अपितु उनका प्रकाश तो सकल मानव जाति के लिए हुआ हैं। अत: केवल वेद को ही ईश्वरीय ज्ञान माना जा सकता हैं।
और जानकारी पाने के लिए यह पोस्ट पढ़िए👉👉👉👉 https://hinduismforall9011.wordpress.com/2019/03/20/%E0%A4%88%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%AF-%E0%A4%97%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A5-%E0%A4%95%E0%A5%80-%E0%A4%95%E0%A4%B8%E0%A5%8C%E0%A4%9F%E0%A5%80/ >




📚 वेद परमात्मा का दिया गया ज्ञान हैं यह वेदों के मन्त्र से ही प्रमाण दे रहा हूं➙

ईश्वरीय ज्ञान

✍️१. “ऋतस्य हि शुरुधः सन्ति पूर्वीॠतस्य धीतिर्वृजिनानि हन्ति। 
ऋतस्य श्लोको बधिरा ततर्द कर्णा बुधानः शुचमान आयोः॥”(ऋग्वेद ४/२३/८)
भावार्थ➨ सत्य वेदज्ञान की पालन व पूरण करने वाली सनातन वाणियाँ निश्चय से (शुग् रूधः) हमारे सब शोकों को दूर करने वाली हैं । हमारे जीवनों को उत्तम बनाकर ये हमारे शोकों को दूर करती हैं । सत्य वेदज्ञान का धारण हमारे सब पापों को नष्ट करता है । यह ज्ञान हमें पवित्र बनाता है । इस सत्य वेदज्ञान की स्तुति रूप वाणी बहिरे कानों को भी छेद डालती है - यह सब पर उत्तम प्रभाव पैदा करती है । यह मनुष्य का ज्ञान बढ़ाने वाली व उसे शुचि जीवन वाला बनाने वाली है ।
✍️२. “यो अदधाज्ज्योतिषि ज्योतिरन्तर्यो असृजन्मधुना सं मधूनि। 
अध प्रियं शूषमिन्द्राय मन्म ब्रह्मकृतो बृहदुक्थादवाचि॥”(ऋग्वेद १०/५४/६)
शव्दार्थ➠ (यः) जो (इन्द्र) परमैश्वर्यशाली प्रभु हैं वे (ज्योतिषि अन्तः) ज्योतिर्मय आदित्य आदि देवों में (ज्योतिः) प्रकाश को (अदधात्) स्थापित करते हैं। (यः) जो (मधुनि) जलों को (मधुना) मधुर रस से (समसृजत्) संसृष्ट करते हैं। (अध) अब इसी उद्देश्य से (ब्रह्मकृतः) ज्ञान का सम्पादन करनेवाले (बृहदुक्थान्) वृद्धि के कारणभूत स्तोत्रोंवाले व खुब स्तवन करनेवाले व्यक्ति से (इन्द्राय) उस परमैश्वर्यशाली प्रभु के लिए (प्रियम्) प्रीति को देनेवाला (शूषम्) बल वृद्धि का कारणभूत (मन्म) स्तोत्र (अवाचि) उच्चारित होता हैं।
भावार्थ➨ जो परमैश्वर्यशाली् प्रभु हैं वे ज्योतिर्मय आदित्य आदि देवों में प्रकाश को स्थापित करते हैं। प्रभु से दीप्ति को पाकर ही ये देव देवत्व को प्राप्त होते हैं। बुद्धिमानो को बुद्धि रूप ज्योति भी प्रभु ही प्राप्त कराते हैं प्रभु वे हैं जो जलों में मधूर रस से संसृष्ट करते हैं। जलो में रस प्रभु ही हैं। मानव स्वभाव को भी प्रभु-कृपा से ही माधुर्य प्राप्त होता हैं। वे प्रभु ही हमारे ज्ञान को दीप्त करते हैं। और हमारी वाणी को स्वादवाला, रसीला करते हैं। अब इसी उद्धेश्य से ज्ञान का सम्पादन करनेवाले बुद्धि के कारणभूत स्तोत्रांवाले व खूब स्तवन करनेवाले व्यक्ति से उस परमैश्वर्यशाली प्रभु के लिये प्रीति को देनेवाला बल बद्वि का कारणभूत स्तोत्र उच्चारित होता है। ज्ञानी स्त्रोता (ब्रहा्रकृत् बृहदुक्थ) खूब ही प्रभु का स्तवन करता है इस स्वतन में वह प्रीति का अनुभव करता हैं और अपने में शक्ति के संचार को होता हुआ पाता है। प्रभु भक्त का जीवन अन्दर ज्योतिर्मय होता है ओर बाहिर शान्त जल के प्रवाह की तरह रसीली वाणीवाला होता है।मस्तिष्क में ज्ञान की ज्योति तथा वाणी में रसमय जल की तरह शान्त शब्द प्रभु-भक्त मे जीवन को आर्दश बना देते हैं।
✍️३. “बृहस्पते प्रथमं वाचो अग्रं यत्प्रैरत नामधेयं दधानाः। 
यदेषां श्रेष्ठं यदरिप्रमासीत्प्रेणा तदेषां निहितं गुहाविः॥” (ऋग्वेद १०/७१/१)
शव्दार्थ➠ (बृहस्पतेः) उस ज्ञान के स्वामी प्रभु का (प्रथमम्) अत्यन्त विस्तारवाला (वाचः अग्रम्) वाणी के अग्र स्थान में होनेवाला यह वेदज्ञान हैं। (नामधेयं दधानाः) प्रभु के नाम हृदयों में धारण करते हुए अन्य ऋषियों व विचारशील व्यक्तियों ने भी (यत्) यह जो वेदज्ञान था उसे (प्रैरत) अपने में प्रेरित किया। (एषाम्) सृष्टि के प्रारंभ में उत्पन्न हुए इन व्याक्तियों में (यत्) जो (श्रेष्ठम्) सर्वोत्तम थे (यत्) जो (अरिशम्) बिलकुल निर्दोष थे, जिनकी बुद्धि व मन सर्वाधिक पवित्र (आसीत्) थे (तत्) सो (एषाम्) इनके श्रेष्ठ व अरिप्र लोगों के (गुहा) हृदय रूप गुहा में (प्रेणा) प्रभु के कारण (निहितम्) यह वेदज्ञान स्थापित हुआ और (आविः) प्रकट हुआ।
भावार्थ➨ प्रभु से दी गई वेदवाणी ही इस सृष्टि के प्रारंभिक शब्द थे। सर्वश्रेष्ठ हृदयों में इसका प्रकाश हुआ और उनके द्वारा इसका विस्तार हुआ।
✍️४. “तस्माद्यज्ञात्सर्वहुत ऋचः सामानि जज्ञिरे। 
छन्दांसि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्माजायत॥”(ऋग्वेद १०/९०/९)
शव्दार्थ➠ (तस्माद्) उस (यज्ञात्) पूज्य (सर्वहुतः) सबकुछ देनेवाला ईश्वर से (ऋचः) ऋचाएं (सामानि) साम मन्त्र (जज्ञिरे) प्रादुर्भूत हुई। (तस्मात्) उस ईश्वर से (छन्दांसि) छन्द, अथर्ववेद के मंत्र प्रादुर्भूत हुए। (तस्मात्) उस प्रभु से (यजुः) यज्ञों के प्रतिपादक यजुर्वेद के मंत्र प्रादुर्भूत हुए।
भावार्थ➨ प्रभु ने सृष्टि के प्रारंभ में ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद का प्रकाश किया। इनके द्वारा क्रमशः प्रकृतिविद्या, कर्मविज्ञान, उपासना और रोगचिकित्सा, युद्ध विद्या का उपदेश दिया।
✍️५. “अयं ते स्तोमो अग्रियो हृदिस्पृगस्तु शंतमः ।
अथा सोमं सुतं पिब॥”(ऋग्वेद १/१६/७)
भावार्थ➨ सोमपान से शक्ति व सहस् की उत्पत्ति होती है। इस सोमपान का महत्तवपूर्ण साधन यह है कि हम सदा प्रभु का स्तवन करनेवाले बनें ताकि हमारे हृदय वासनाशून्य हों। वासनाशून्य हृदय में ही सोम का निवास है, अतः प्रभु कहते हैं कि यह तुझसे किया जानेवाला स्तुतिसमूह तेरे आगे होनेवाला हो, अर्थात् यह सदा तेरे सामने आदर्शवाक्य के रूप में हो, तुझे यह ध्यान हो कि मुझे ऐसा ही बनना है। यह स्तोम तेरे लिए हृदय को स्पर्श करनेवाला हो, तेरे हृदय में यह समा जाए। तेरी यह प्रबल कामना हो कि तुझे ऐसा ही बनना है। यह स्तोम तूझे अधिक-से-अधिक शान्ति देनेवाला हो। इस लक्ष्य का ध्यान आने पर तुझे हृदय में अच्छा प्रतीत हो। अब ऐसा हो सकने के लिए तू आहार से उत्पन्न हुए इस सोम का पान कर। इस सोम के पान से ही उस महान् लक्ष्य की-प्रभु जैसा ही बन जाने की सिद्धि सम्भव होगी। यह महान् लक्ष्य स्वयं सोम के रक्षण में सहायक होता है, और रक्षित हुआ-हुआ सोम हमें महान् लक्ष्य को प्राप्त करानेवाला बनता है । लक्ष्य सोमरक्षण के लिए होता है, सोमरक्षण लक्ष्यप्राप्ति के लिए होता है। इस सोम (वीर्य) ने ही हमें उस सोम (प्रभु) -जैसा बनाना है।
✍️६. “इयं वेदि: परोऽअन्त: पृथिव्याऽअयं यज्ञो भुवनस्य नाभि:।
अयं सोमो वृष्णोऽअश्वस्य रेतो ब्रह्मायं वाच: परमं व्योम॥”(यजुर्वेद २३/६२)
भावार्थ➨ हे मनुष्यो! जो इस भूगोल की मध्यस्थ रेखा की जावे तो वह ऊपर से भूमि के अन्त को प्राप्त होती हुई व्याससंज्ञक होती है। यही भूमि की सीमा है। सब लोकों के मध्य आकर्षणकर्त्ता जगदीश्वर है। सब प्राणियों को पराक्रमकर्त्ता ओषधियों में उत्तम अंशुमान् आदि सोम है और वेदपारग पुरुष वाणी का पारगन्ता है, यह तुम जानो
✍️७. “तस्माद्यज्ञात् सर्वहुतऽऋच: सामानि जज्ञिरे। 
छन्दा:सि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत॥”(यजुर्वेद ३१/७)
भावार्थ➨ हे मनुष्यो! आप लोग जिससे सब वेद उत्पन्न हुए हैं, उस परमात्मा की उपासना करो।
✍️८. “अहं विवेच पृथिवीमुत द्यामहमृतूंरजनयं सप्त साकम् ।
अहं सत्यमनृतं यद्वदा॑म्यहं दैवीं परि वाचम्विशश्च॥”(अथर्ववेद ६/६१/२)
भावार्थ➨ द्युलोक व पृथिवीलोक का धारण करने वाले वे प्रभु ही हैं । प्रभु ही हमें मुखादि सात प्राणों को - इन्द्रियों को प्राप्त कराते हैं । प्रभु ही हमारे लिए सत्य व असत्य का विविक्तरूप से उपदेश करते हैं । प्रभु ही सृष्टि के आरम्भ में वेदवाणी का प्रकाश करते हैं ।
✍️९. “यस्मादृचो अपातक्षन्यजुर्यस्मादपाकषन्।
सामानि यस्य लोमान्यथर्वाङ्गिरसो मुखं स्कम्भं तं ब्रूहि कतमः स्विदेव सः॥”(अथर्ववेद १०/७/२०)
शव्दार्थ➠ (यस्मात्) जिससे (ऋचः) ऋचाएं-विज्ञान प्रतिपादक मंत्र (अपातक्षन्) बनाये गये, (यस्मात्) जिससे (यजुः) यजुर्मन्त्र-कर्मप्रतिपादक मंत्र (अपातक्षन्) निर्मित हुए। (सामानि) साममंत्र-उपासनाप्रतिपादक मंत्र (यस्य) जिसके (लोमानि) लोम तुल्य है, तथा (अथर्व-अङ्गिरसः) अङ्गिरा ऋषि के हृदय में प्रेरित किये ग्रे अथर्ववेद के मंत्र (मुखम्) जिसका मुख है। (तम्) उस (स्कम्भम्) सर्वाधार प्रभु को (ब्रूहि) कह, उसी का स्तवन कर। (सः एव) वही (स्वित्) निश्चय से (कतमः) अतिशयेन आनन्दमय है।
भावार्थ➨ जो सर्वशक्तिमान परमेश्वर है उसी से ही ऋग्वेद यजुर्वेद सामवेद अथर्ववेद के चारों वेद उत्पन्न हुआ है। चारों वेद जिस से उत्पन्न हुआ है वही सारा विश्व ब्रह्मांड का धारण कर्ता परमेश्वर उसके नाम स्कम्भ है, उसी को तुम वेद के कर्ता मानों।
✍️१०. “अपूर्वेणेषितावाचस्ता वदन्ति यथायथम्।
 वदन्तीर्यत्र गछन्ति तदाहुर्ब्राह्मणं महत्॥”(अथर्ववेद १०/८/३३)
शव्दार्थ➠ (अपूर्वेण) उस अपूर्व-कारणरहित प्रभु से (वाचः इषिताः) ये वेदवाणियां प्रेरित की गई हैं। प्रभु ने इन्हें 'अग्नि, वायु, आदित्य व अङ्गिराः' नामक ऋषियों के हृदय में स्थापित किया है। (ताः) वे वेदवाणियां (यथायथं वदन्ति) सब पदार्थों का यथार्थ ज्ञान देता है—सब पदार्थों का ठीक से प्रतिपादन करती हैं। (वदन्तिः) सब पदार्थों का ज्ञान देती हुई ये वेदवाणियां (यत्र गच्छन्ति) अनन्तः जहां यह पहुंचती है (तत्) उसी को (महत् ब्राक्ष्मणं आहुः) महान ब्राम्हण–महान ज्ञानी– ज्ञानस्वरूप प्रभु कहते हैं, अर्थात इन वाणियों का अंतिम प्रतिपाद्य विषय वे प्रभु ही हैं।
भावार्थ➨ अपूर्व प्रभु से प्रेरित ये वेदवाणियाँ सत्यज्ञान देती हुई अन्ततः प्रभु में विश्रान्त होती हैं ।


see also: वेदों के विषय में भ्रांति निवारण

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