शनिवार, 14 दिसंबर 2019

क्या गीता धर्म निरपेक्षता सिखाती है❓

© सनातन धर्म & दीपांकर आर्यवंशी अंकित

क्या गीता धर्म निरपेक्षता सिखाती है❓

मित्रों २८ सेप्टम्बर २०१२ को हमारे देश में एक फ़िल्म को रिलीज़ की गई नाम थी OMG अर्थात् ओ माई गॉड जिसके मुख्य पात्र परेश रावल जी एवम् सहायक पात्र राजीव हरिओम भाटिया जी थे जिन्हें अक्षय कुमार जी के नाम से जाना जाता है। फ़िल्म का विषय था सनातन धर्म के नाम पर चल रहे पाखण्डों पर कुठाराघात करना साथ ही ईसाइयत और इस्लाम के सम्प्रदायाधिकारी जनों के साथ साथ तथाकथित सनातन धर्माधिकारी जन जो पाखण्डी हो उनके गलत मन्तव्यों पर प्रहार करना जिसका हम हृदय से स्वागत करते हैं पर फ़िल्म में कुछ ऐसी बातों को दिखाया गया जिसने मुझे लेखनी उठाने हेतु विवश कर ही दिया। मैंने यह फ़िल्म एक बार नहीं अपितु कई बार देखा है और मैंने फ़िल्म में दिखाए गए प्रसंगों पर यदि कोई ध्यान दे तो वह अवश्य व निःसंदेह नास्तिक बनेगा। फ़िल्म में धर्म और मज़हब अर्थात् मतपन्थ सम्प्रदाय को एक ही दर्शाया गया है जो कि पूर्णरूपेण मिथ्या वा गलत है। फ़िल्म के अनुसार धर्म केवल लोगों को बाँटती है और यही संदेश बॉलीवुड वर्षों से देता आया है जबकि बॉलीवुड के विद्वानों ने कभी धर्म को जानने की चेष्टा नहीं कि “धर्म” एक संस्कृत शब्द है। धर्म का अर्थ बहुत अत्यधिक व्यापक है  “ध + र् + म” = धर्म। ध देवनागरी वर्णमाला १९वां अक्षर और तवर्ग का चौथा व्यंजन है। भाषाविज्ञान की दृष्टि से यह दन्त्य, स्पर्श, घोष तथा महाप्राण ध्वनि है। संस्कृत धातु  धा + ड विशेषण- धारण करने वाला, पकड़ने वाला होता है। जो धारण करने योग्य है, वही धर्म है। पृथ्वी समस्त प्राणियों को धारण किए हुए है। जैसे हम किसी नियम को, व्यवहार को धारण करते हैं इत्यादि। इसका मतलब धर्म का अर्थ है कि जो सबको धारण किए हुए है अर्थात “धारयति- इति धर्म:”अर्थात् जो सबको सम्भाले हुए है पर वह क्या है जो धारण करने योग्य है?
धृति क्षमा दमोऽस्तेयम् शौचमिन्द्रिय निग्रहः।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकम् धर्म लक्षणम्।। (मनुस्मृति ६/९२)
१ - धृति (धैर्य रखना, संतोष रत्न को प्राप्त करना) २ - क्षमा (दया,उदारता) ३ - दम (अपनी इच्छाओं को काबू करना, निग्रह) ४ - अस्तेय (चोरी न करना, छल से किसी चीज को प्राप्त न करना एवम् ऐसा विचार भी ना करना) ५ - शौच (सफाई रखना , पवित्रता रखना) ६ - इन्द्रिय निग्रह (इन्द्रियों पर नियंत्रण रखना) ७ - धी (बुद्धि) ८ - विद्या (ज्ञान) ९ - सत्य (सत्य का पालन करना , सत्य बोलना) १० - अक्रोध (क्रोध न करना) ये दस धर्म के गुण हैं जिसका बखान मनु महर्षिदेव जी ने मनुस्मृति में किया है अर्थात् ऐसी अवस्था को प्राप्त करना जिसमें किसी भी प्रकार की बुराई न रहे वही धर्म है यदि साधारण शब्दों में कहा जाय कि धर्म क्या है? तो हम यह कह सकते हैं कि वेद को आत्मसात कर वेद मार्ग पर चलना ही धर्म है क्योंकि वेदोऽखिलो धर्ममूलम् अर्थात् वेद ही समग्र धर्म का मूल है। और धर्म को पालन करना मनुष्य मात्र का परमकर्त्तव्य है तभी हम मनुष्य कहला सकते हैं अन्यथा नहीं क्योंकि जब मनुष्य ही मनुष्य धर्म का त्याग करता है तो वह जन्तु अर्थात् जानवर बन जाता है सनातन धर्म ही मनुष्य धर्म है “मनुष्य” शब्द की अर्थ ही है मनु के वंशज और वेद स्वयम् कहती है  “मनुर्भवः” - ऋग्वेद १०/५३/६ अर्थात् मनुष्य बनो वेद, उपनिषदादि ग्रन्थों में कहीं नहीं लिखा कि हिन्दू बनो, मुस्लिम बनो, ईसाई बनो अथवा यहूदी बनो क्योंकि इस्लाम, ईसाइयत अथवा यहूदियत आदि मतपन्थ सम्प्रदाय है जिसे Religion अथवा मज़हब कहते हैं और Religion ( मज़हब/सम्प्रदाय ) होने की एक विशिष्ट मापदंड है जिसमें एक साम्प्रदायिक पुस्तक एक सम्प्रदाय संस्थापक जिसे पैगम्बर अथवा Prophet कहते हैं और एक साम्प्रदायिक देवता जिसे God अथवा खुदा कहते हैं पर सनातन धर्म में तो ४ वेद, ६ वेदांग, ६ उपांग, ११ आर्ष उपनिषद, ४ मुख्य ब्राह्मण ग्रंथ आदि अनेकों ग्रन्थ हैं और सनातन धर्म का कोई संस्थापक भी नहीं और सनातन धर्म में देवता ३३ कोटि हैं और उन देवताओं के देवता महादेव हैं जो परमपिता परमेश्वर हैं तो आप ही सोचिए क्या धर्म और मतपंथ सम्प्रदाय अर्थात् Religion एक कैसे हो सकता है? आज के लोग Secularism का अर्थ धर्मनिरपेक्षता से लेते हैं जो कि गलत है क्योंकि “Secularism” शब्द लैटिन भाषा के “Seculo” शब्द से निकला है।जिसका अंग्रेजी में अर्थ है “इन द वर्ल्ड (in the world)”। इसके पीछे की कथा यह है कि ‘कैथोलिक ईसाइयों’ में Monkship लेने की परम्परा प्रचलित है। इसके अनुसार Monk पुरुषों को और महिलाओं को नन Nun कहा जाता है। परन्तु जो व्यक्ति Monkship लिए बिना समाज में रहते हुए Monk लोगों के साम्प्रदायिक कामों में मदद करते थे, उन्हें “Secular” कहा जाता था पर अब लोग Secularism का अर्थ धर्मनिरपेक्षता से लेते हैं जो कि बिल्कुल अप्रासंगिक है क्योंकि जिस प्रसंग में इसका अर्थ लिया जाता है उसके अनुसार इसका अर्थ मतनिरपेक्षता या पन्थनिरपेक्षता होनी चाहिए जैसे भारतीय संविधान में भी लिखा है कि भारत एक पन्थनिरपेक्ष राष्ट्र है अर्थात् समग्र मतपन्थों से मुक्त और देखा जाए तो एक धार्मिक व्यक्ति अर्थात् धर्म का पालन करने वाला व्यक्ति पन्थनिरपेक्ष ही होता है अर्थात् वह मतपन्थ सम्प्रदाय के जाल में नहीं फँसता है। अब यदि योगिराज योगेश्वर श्री कृष्ण जो कि समग्र वेद, उपनिषदादि ग्रन्थ समेत समस्त आर्ष शास्त्रों के विद्वान हैं वो यदि धर्म त्याग धर्मनिरपेक्ष होने को कहें तो यह कथन ही अटपटा सा लगता है जैसा कि फ़िल्म में बतलाया गया है पर मित्रों यह फ़िल्म की प्रसङ्ग ही धर्म और भगवान् श्री कृष्ण के मन्तव्यों के विरुद्ध है महाभारतम् के भीष्मपर्व में तो स्वयम् पितामह भीष्म कहते हैं -
राजन्सत्त्वमयो ह्येष तमोरागविवर्जितः।
यतः कृष्णस्ततो धर्मो यतो धर्मस्ततो जयः।।
अर्थात् रजगुण व तमगुण से रहित सतगुण से युक्त धर्म जहाँ स्थित है वहीं श्री कृष्ण भगवान् जी है और जहाँ भगवान् जी हैं वहीं विजय है। आइये बन्धुओं अब जानते हैं की श्री कृष्ण और उनकी श्रीमद्भगवद्गीता धर्म के बारे में क्या बताते हैं?
सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्।
सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः।। (गीता १८/४८)
अतएव दोष युक्त होने पर भी स्वधर्म कर्म को नहीं त्यागना चाहिए ,क्यों कि धुएं से अग्नि की भांति सभी धर्म कर्म किसी न किसी दोष से युक्त हैं।
अथ चेत्त्वमिमं धर्म्यं सङ्ग्रामं न करिष्यसि।
ततः स्वधर्मं कीर्तिम् च हित्वा पापमवाप्स्यसि।। (गीता २/३३)
हे अर्जुन ❗ यदि आप इस धर्मयुक्त युद्ध को नहीं करेंगे तो स्वधर्म और कीर्ति का नाश कर पाप को प्राप्त कर जाएंगे।
दोषैरेतैः कुलघ्नानानंवर्णसंकर कारकैः।
उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः।। (गीता १/४३)
उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणाम् जनार्दन।
नरकेऽनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम।। (गीता १/४४)
हे जनार्दन ❗ वर्णसंकरता के करने वाले इन कुलघातकों के कुलों में उत्पन्न हुये व्यभिचारादि दोषों से आर्य लोगों के सामुदायिक धर्म और ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवम् शुद्र के कुल के धर्म का नाश होता है। और जब गर्भाधानादि संस्कार कुल के धर्म और वेद का पढ़ाना, प्रजा रक्षण, दानादि, ब्राह्मण क्षत्रियों के सामुदायिक धर्म नष्ट हो जाते हैं तो निश्चय करके सब मनुष्य जाति का नर्क में वास हो जाता है यह हमनें विद्वतजनों से जाना।
और अन्त में
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकम् शरणम् व्रज।
अहम् त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।। (गीता १८/६६)
भगवान् श्री कृष्ण जी ने स्पष्ट कहा कि सम्पूर्ण धर्मों को ईश्वर पर त्यागकर केवल एकमात्र सच्चिदानन्द सर्वशक्तिमान ,सर्वाधार परमेश्वर की ही शरण मैं आ जाओ। ईश्वर ही आपको सम्पूर्ण दोष से मुक्त कर देंगे अतएव आप दुःख को त्याग दें।
अब ध्यान देने वाली बात यह है कि श्री कृष्ण भगवान् जी ने अठारहवें अध्याय के छियासठवें श्लोक में अपने सभी धर्मों को त्याग परमात्मा में ध्यान लगाने को कहा है यह इस परियोजन से की व्यक्ति सन्यासी बने और वैराग्य को प्राप्त हो जाए।
अतएव गीता के इन श्लोकसूत्रों से यह सिद्ध होता है कि योगेश्वर कृष्ण भगवान् जी धर्मनिरपेक्ष अर्थात् धर्म विहीन होने को नहीं अपितु धर्मयुक्त धर्मवान धर्मात्मा होने को उपदेश कर रहे हैं और हम सभी मनुष्यों का कर्तव्य भी यही होता है कि हम वेदमार्गी धार्मिक मनुष्य बने।
अतः गीता धर्मनिरपेक्षता नहीं सिखाती है।
🙏।। इतिसिद्धम् ।।🙏


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