✍️ लेखक ➩ अरुण कुमार आर्यवीर
बाइबल में विज्ञान
- जब नुह की अवस्था के छ: सौवें वर्ष के दूसरे महीने का सत्तरहवां दिन आया; उसी दिन बड़े गहिरे समुद्र के सब सोते फूट निकले और आकाश के झरोखे खुल गए। (उत्पत्ति ७:११)
- इसके बाद मैं ने पृथ्वी के चारों कोनों पर चार स्वर्गदूत खड़े देखे, वे पृथ्वी की चारों हवाओं को थामे हुए थे ताकि पृथ्वी, या समुद्र, या किसी पेड़ पर, हवा न चले। (प्रकाशित वाक्य ७:१)
- और सूर्य उस समय तक थमा रहा; और चन्द्रमा उस समय तक ठहरा रहा, जब तक उस जाति के लोगों ने अपने शत्रुओं से पलटा न लिया॥ (यहोशू १०:१३)
- और पृथ्वी बेडौल और सुनसान पड़ी थी; और गहरे जल के ऊपर अन्धियारा था: तथा परमेश्वर का आत्मा जल के ऊपर मण्डलाता था।
- तब परमेश्वर ने कहा, उजियाला हो: तो उजियाला हो गया।
- और परमेश्वर ने उजियाले को देखा कि अच्छा है; और परमेश्वर ने उजियाले को अन्धियारे से अलग किया।
- और परमेश्वर ने उजियाले को दिन और अन्धियारे को रात कहा। तथा सांझ हुई फिर भोर हुआ। इस प्रकार पहिला दिन हो गया॥ (उत्पत्ति १:२-५)
- तब परमेश्वर ने दो बड़ी ज्योतियां बनाईं; उन में से बड़ी ज्योति को दिन पर प्रभुता करने के लिये, और छोटी ज्योति को रात पर प्रभुता करने के लिये बनाया: और तारागण को भी बनाया। (उत्पत्ति १:१६)
- तथा सांझ हुई फिर भोर हुआ। इस प्रकार चौथा दिन हो गया॥ (उत्पत्ति १:१९)
- और आकाश के तारे पृथ्वी पर ऐसे गिर पड़े जैसे बड़ी आन्धी से हिल कर अंजीर के पेड़ में से कच्चे फल झड़ते हैं। (प्रकाशित वाक्य ६:१३)
वेदों में विज्ञान
भावार्थ➨ परमेश्वर ने इस संसार में तीन प्रकार का जगत रचा है। अर्थात एक पृथ्वीरूप, दूसरा अंतरिक्ष आकाश में रहने वाला त्रसरेणूरूप और तीसरा प्रकाशमय सूर्य आदि लोक तीन आधाररूप है। इनमें से आकाश में वायु के आधार से रहनेवाला जो कारणरूप है वही पृथ्वी और सूर्य आदि लोगों का बढ़ानेवाला है। और इस जगत को ईश्वर के बिना कोई बनाने में समर्थ नहीं हो सकता।
➤ पूर्वे अर्धे रजसो अप्त्यस्य गवां जनित्र्यकृत प्र केतुम् । व्यु प्रथते वितरं वरीय ओभा पृणन्ती पित्रोरुपस्था ॥ (ऋग्वेद १/१२४/५)
भावार्थ➨ सर्वत्र प्राप्त-व्यापक इस अन्तरिक्षलोक के पूर्व के भाग में अपनी रश्मियों को प्रादुर्भूत करनेवाली यह उषा प्रकृष्ट ज्ञान को प्रकट करती है। पहले-पहले पूर्व दिशा में उषा की अरूण रश्मियाँ उदित होती हैं और ये आकाश के उस भाग को प्रकाशमय कर देती हैं। और अब यह उषा खूब ही (उरूतरम्) अनन्तर विस्तार के साथ विशेषरूप से फैलती है। इसका प्रकाश अधिक और अधिक फैलता जाता है और कुछ ही देर बाद यह पिता और माता के रूप में विद्यमान द्यावापृथिवी की दोनों गोदों को सब ओर भर रही होती है। द्युलोक व पृथिवीलोक के मध्य को यह अपने प्रकाश से पूर्ण कर देती है।
वेदों में विज्ञान संबंधित और भी मंत्र है जिसका लिंक दिया गया है➡
वैदिक विज्ञान
🙏🙏🙏 नमस्ते 🙏🙏🙏
धन्यवाद।
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