सोमवार, 6 जनवरी 2020

ब्रह्म विज्ञान (भाग ३)

✍️ रणसिंह आर्य


ईश्वरीय ज्ञान-वेद


ईश्वरीय ज्ञान-वेद

वैदिक धर्म के समान विश्व के सभी आस्तिक मत जैसे इस्लाम, पारसी, ईसाई आदि ईश्वरीय ज्ञान की आवश्यकता को मानते हैं; और साथ-साथ सभी अपने-अपने धर्म ग्रन्थों के ईश्वरीय ग्रन्थ होने का दावा भी करते हैं; परन्तु आज के वैज्ञानिक युग में इन पुस्तकों को तर्क और प्रमाण की कसौटी पर परखा जाना चाहिये, जिससे सच्चाई का पता लग सके।

ईश्वरीय ग्रंथ की कसौटी


यदि निष्पक्ष दृष्टि से विचार करें तो किसी भी ईश्वरीय ग्रंथ में निम्न गुण व लक्षण होने चाहिये
  • १. ग्रंथ का आविर्भाव मानव सृष्टि के आरम्भ में होना चाहिये।
  • २. ऐसी पुस्तक में मानवीय इतिहास नहीं होना चाहिये।
  • ३. उसका ज्ञान सृष्टि विज्ञान के सत्य सनातन नियमों के अनुकूल व प्रकृति के गुणों तथा रहस्यों को खोलने वाला होना चाहिये।
  • ४. उसका ज्ञान तर्क संगत, विवेक पूर्ण, वैज्ञानिक एवं विरोधाभास से मुक्त हो।
  • ५. उसका ज्ञान आस्तिकों की दृष्टि से ईश्वर-जीव- प्रकृति के मूल गुणों एवं उनके पारस्परिक सम्बन्धों की स्पष्ट व्याख्या करने वाला हो।
  • ६. वह पुस्तक समस्त भौतिक व मानवीय ज्ञान विज्ञान की आदि स्रोत हो।
  • ७. उसका ज्ञान सार्वदेशिक, सार्वभौमिक, समतावादी, निष्पक्ष एवं प्राणी मात्र के लिये समान हितकारी हो।
  • ८. वह विश्वभर के मानवों के लिये समान हो। उसमें जाति, नस्ल, रंग, देश, भाषा और लिंग के आधार पर भेद न हो।
  • ९. वह पूर्व-पश्चिम, उत्तर-दक्षिण, गरीब-अमीर, गोरा-काला सभी प्रकार के भेद-भावों से मुक्त हो।
  • १०. उसमें वर्ग द्वेष, जाति द्वेष, संकीर्णता एवं पाखण्ड नहीं होना चाहिये।
see also: सनातन धर्म के शास्त्रों में वेदों का महत्व

धर्म ग्रंथों की परीक्षा


विचारणीय यह है कि वेद, कुरान, बाईबल, जिन्दावस्ता में से कौन सा ग्रन्थ उपरोक्त ग्रन्थ उपरोक्त कसौटियों पर खरा उतरता है। यह सब जानते हैं कि
पारसियों का जिन्दवस्ताँ लगभग साढ़े तीन हजार (३५००) वर्ष, ईसाईयों की बाईबल लगभग दो हजार वर्ष और मुसलमानों की कुरान लगभग पन्द्रह सौ (१५००) वर्ष पुरानी है। जब कि वैज्ञानिकों के परीक्षणों के अनुसार मानव सृष्टि लाखों वर्ष पुरानी है। फिर यह भी प्रश्न उठता है कि मनुष्य साढ़े तीन हजार वर्ष पहले किन आचार संहिताओं का पालन करता होगा।
इन तीनों में उनके रचने के समय का मानव इतिहास है। मोहम्मद साहब व जीसस क्राईस्ट ने तो स्पष्ट रूप से अपने चमत्कारों एवं अपने मत के विरोधियों के प्रति कटु व्यवहार का वर्णन किया है। अत: ये पुस्तकें सृष्टि के आदि समय की नहीं हैं।
(३) से (६) इन में प्राकृतिक नियमों के विरुद्ध अनेक वर्णन हैं। ये पुस्तकें वैज्ञानिक तर्क व प्रमाण की कसौटी पर खरी नहीं उतरती।
(७) से (१०) इनमें वर्ग द्वेष की प्रेरणा कूट-कूट कर भरी है। भला ईश्वर अपने पुत्रों में द्वेष फैलाने की आज्ञा कैसे देगा ?
तदप्रामाण्यमनृत-व्याघात--पुनरुक्तदोषेभ्यः ॥ (न्याय दर्शन २/१/५८) अर्थात् जिस पुस्तक में ये तीन दोष हों वह प्रमाण करने योग्य नहीं हो सकती। जिसमें
१. मिथ्या बातों का उल्लेख हो ।
२. परस्पर विरोधी बातें लिखी हों ।
३. पुनरुक्त असंबद्ध बातों का समावेश हो। वह पुस्तक प्रामाणिक नहीं हो सकती।

वेद ही ईश्वरीय ज्ञान क्यों ?


क्योंकि उपरोक्त सभी कसौटियाँ वेद के विषय में सही उतरती हैं।
"बुद्धिपूर्वा वाक्यकृतिर्वेदे" (वै.६/१/१) वेद में वाक्य रचना बुद्धि पूर्वक है।
                            सभी निष्पक्ष विद्वान् मानते हैं कि वेद विश्व की प्राचीनतम पुस्तक है। सभी धर्मों ने मानवतावादी नैतिक मूल्य इन्हीं वेदों से लिये हैं।
                            इनमें मानव इतिहास नहीं जैसे रामायण, महाभारत, कुरान, बाईबल आदि में है। वेद में वर्तमान विज्ञान के मूल स्रोत हैं। गणित का स्रोत वेद है यह विदेशी भी मानते हैं।
                           वेदों की शिक्षा सार्वदेशिक, सार्वकालिक, मानवतावादी, प्रेरणादायक, तथा वर्ग-जाति भेद, राग-द्वेष अन्यायादि से मुक्त मानव मात्र के लिये एक समान कल्याणकारी है।
                          वेद विश्वबन्धुत्व व एक विश्वराज्य व्यवस्था का हामी है। सब प्राचीन भारतीय ग्रन्थों में इसे ईश्वरीय ज्ञान माना है। और अनेक विदेशी विद्वान् जैसे रेव. मोरिश, फिलिप, मोक्समूलर, जेकोब मेट्रो, मदाम ब्लाव-स्टिकी आदि भी इसे ईश्वरीय ज्ञान मानते हैं।
 

वैदिक दर्शन और आधुनिक विज्ञान


आज का विज्ञान स्वीकार करता है कि ➤
(१) इस संसार का मूल तत्त्व ऊर्जा है जो कि जड़ है।
(२) मूल्य त्वों की विशेषताओं में परिवर्तन नहीं किया जा सकता यदि परिवर्तन हो जाये तो उन्हे मूल तत्त्व नहीं माना जा सकेगा ।
(३) भौतिक विज्ञान केवल उन्हीं तत्त्वों की सत्ता को स्वीकार करता है जिन्हें आंखों से या यन्त्रों से देखा जा सके अथवा बुद्धि से स्वीकार किया जा सके।
(४) अभाव से भाव नहीं हो सकता इत्यादि ।
                        अब सत्य की खोज के उद्देश्य से भौतिक वैज्ञानिकों के समक्ष कुछ प्रश्न उपस्थित किये जाते हैं।
प्रश्न- (१) भौतिक विज्ञान उन तत्त्वों को भी स्वीकार करता है जो बुद्धि से जाने जाते हैं, भले ही आँखों या यन्त्रों से नहीं देखे जा सकते हों जैसे कि ऊर्जा, पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति आदि। 'क्वाक्क्स' ' नामक सूक्ष्म द्रव्य भी अभी तक किन्हीं भी यन्त्रों के (माध्यम) से देखे नहीं जा सके। फिर भी विज्ञान इनकी सत्ता को स्वीकार करता है। इसी प्रकार पत्थर आदि भारी पदार्थ पृथ्वी की ओर आकर्षित होते हैं। इस आकर्षण रूपी कार्य के आधार पर पृथ्वी में
'गुरुत्वाकर्षण' के नाम से एक शक्ति की 'सत्ता' स्वीकार की गई।
                            ठीक इसी प्रकार के हम आप सब सोचते विचारते हैं। अनेक प्रकार की विद्याओं को सीखकर विद्वान् हो जाते हैं। तो यहाँ प्रश्न होता है कि इन विद्याओं को सीखने वाला द्रव्य कौन सा है ? भौतिक विज्ञान के अनुसार तो मूल तत्त्व ज्ञान से रहित हैं। और मूल तत्त्वों की विशेषताओं में परिवर्तन भी नहीं हो सकता जिसके आधार पर यह कहा जा सके कि जड़ (ज्ञान रहित) मूल तत्त्व से विद्याओं को सीखने वाले चेतन(ज्ञान सहित) द्रव्य की उत्पत्ति हो गई। जब हमें विद्याओं को सीखने वाला, सोचने-समझने वाला तत्त्व व्यवहार में मनुष्य आदि के रूप में उपलब्ध है, तो एक चेतन (ज्ञानवाला) तत्त्व भी हमें मूल तत्त्व के रूप में अवश्य ही स्वीकार करना होगा जो कि विचार पूर्वक कार्य करता है; मोटर, रेल, घर आदि बनाता है और अपने अनेक प्रयोजन सिद्ध करता है। ऊर्जा नामक मूल तत्त्व में ऐसी क्षमता सिद्ध नहीं होती और न ही वैज्ञानिक ऊर्जा में ऐसी क्षमता मानने को तैयार हैं। हम इस ऊर्जा से भिन्न चेतन मूल तत्त्व को 'आत्मा' कहते हैं ।
(२) इसी प्रकार से ब्रह्माण्ड में हम देखते हैं तो सभी जगह (परमाणु सौरमंडल आदि में) हमें व्यवस्था दिखाई देती है। ब्रह्माण्ड का मूल तत्त्व ऊर्जा तो जड़ (ज्ञान से रहित) है। वह तो ऐसी व्यवस्था और नियम बना नहीं सकता। इन नियमों और व्यवस्थाओं (व्यवस्थित रचनाओं) के लिये किसी बुद्धिमान् (ज्ञानवान् ) तत्त्व को स्वीकार करना ही होगा , जो ऊर्जा, क्वाक्स और इलेक्ट्रोन आदि द्रव्यों को परमाणुओं तथा रासायनिक द्रव्यों (= हीलियम, आक्सीजन, हाइड्रोजन आदि) के रूप में व्यवस्थित कर सके। यदि इस कार्य के लिये हम यह सोचे कि मनुष्य के रूप में उपलब्ध ज्ञानवान् पदार्थ 'आत्मा' ने यह व्यवस्था बनाई होगी, तो यह भी ठीक नहीं है। क्योंकि किसी भी मनुष्य का ऐसा सामर्थ्य नहीं दीखता, जो अरबों आकाश गंगाओं तक फैले विशाल ब्रह्माण्ड की व्यवस्था कर सके। परिणाम स्वरूप हमें एक ऐसे अन्य चेतन (ज्ञानवान्) मूल तत्त्व की सत्ता माननी होगी जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की रचना और व्यवस्था कर सके। ऐसे शक्तिशाली मूल तत्व को हम 'ईश्वर' कहते हैं। इसकी सत्ता को स्वीकार किये बिना सृष्टि की रचना का प्रश्न सुलझ नहीं पायेगा।
                              कोई भी जड़ वस्तु ज्ञानपूर्वक स्वयं गतिशील होकर किसी कार्य पदार्थ के रूप में उपस्थित नहीं हो जाती। जैसे कि वृक्ष से लकड़ी के टुकड़े स्वयं कटकर और बुद्धि पूर्वक जुड़कर मेज कुर्सी के रूप में नहीं आ जाते उन्हें मेज कुर्सी के रूप में लाने के लिये चेतन कत्त्ता (बढ़ई) की आवश्यकता होती है। ठीक इसी प्रकार से इस ब्रह्माण्ड के मूल तत्त्व ऊर्जा और क्वाक्क्स आदि ज्ञान शून्य होने से स्वयं बुद्धि पूर्वक मिलकर इलेक्ट्रोन, प्रोटोन आदि के रूप में उपस्थित नहीं हो सकते। उनको इस स्थिति में लाने के लिये भी बढ़ई के समान एक ज्ञानवान् तत्त्व की आवश्यकता होगी। और वह भी एक मूल तत्त्व होगा। क्योंकि उसकी विशेषतायें ऊर्जा और आत्मा से भिन्न हैं।
                              उसी मूल तत्त्व को हम ईश्वर कहते हैं। यदि ईश्वर की सत्ता को न माना जाये तो हमारा प्रश्न है कि- ऊर्जा से क्वाक्क्स तथा इलेक्ट्रोन, प्रोटोन आदि पदार्थ किसने बनाये? जब कि सभी वैज्ञानिक मानते हैं कि सृष्टि की रचना बुद्धिपूर्वक है और ऊर्जा आदि मूल तत्त्व बुद्धि से शून्य (ज्ञान रहित) हैं
 

विश्व की समस्याओं का समाधान


समस्याओं का समाधान

विश्व की समस्याओं को सुलझाने के लिये हमें विश्व के सम्पूर्ण तत्त्वों का अध्ययन करना ही होगा। विश्व के सम्पूर्ण तत्त्व उपर्युक्त विवेचन के अनुसार 'तीन' ही सिद्ध होते हैं। इन तीनों का विस्तृत विवरण वेद और वैदिक साहित्य (भारतीय वैदिक दर्शन एवं उपनिषदादि) में उपलब्ध होता है। इन सभी में इन तीन त्त्वों के नाम हैं - ईश्वर, जीव और प्रकृति।
                                वैज्ञानिक लोग भौतिक - विज्ञान में केवल 'प्रकृति' नामक एक ही मूल तत्त्व का अध्ययन करते हैं परन्तु शेष दो तत्त्वों की उपेक्षा कर देते हैं । ऐसी स्थिति में हम यह समझते हैं कि जीवन की सभी समस्याओं का समाधान नहीं हो पायेगा।                              मनुष्यों की स्वाभाविक इच्छा है कि हम दुःखों से पूर्णतया छूटकर स्थायी और पूर्ण सुख की प्राप्ति कर सकें। इसकी पूर्ति के लिये हमें "ईश्वर और आत्मा" के बारे में भी अवश्य ही जानना होगा क्या भौतिक वैज्ञानिक इन दो तत्त्वों के सम्बन्ध में जानने के लिये भारतीय वैदिक साहित्य का अध्ययन करेंगे? और क्या संसार के अन्य लोगों को भी वैदिक साहित्य अध्ययन करने का परामर्श देंगे ? ऐसा करने से मानवता का बहुत बड़ा उपकार होगा।

ब्रह्म विद्या तथा भौतिक विज्ञान


अनादि प्रश्न तीन हैं - (१) में क्या हूँ? (२) यह संसार क्या है? (३) इसका कर्ता संचालक ईश्वर क्या है?
                             ध्यान देकर विचारिये कि हम कौन हैं? क्या हैं? हमारा प्रयोजन - उद्देश्य क्या है? उस उद्देश्य को पूरा करने का साधन क्या है? हमें मनुष्य शरीर देने वाला इस समस्त विश्व का बनाने वाला, संचालक, व्यवस्थापक कौन है, कैसा है, व क्या चाहता है ?
                           भौतिक विज्ञान से जीवन की सुविधायें तो मिली पर विशुद्ध सुख नहीं मिला। इस क्षेत्र में लाखों लोग पूरा जोर लगा रहे हैं, परन्तु यह ब्रह्मविद्या, समाधि का विज्ञान उनके पास नहीं होने से वे असफल हो रहे हैं। ब्रह्मविद्या काल्पनिक नहीं। दर्शनों में यों ही मान नहीं रखी है। यह असाधारण विद्या है। ऋषियों की अनुभव की हुई है। पुत्रैषणा, लोकैषणा, वित्तैषणा से ग्रस्त सामान्य मनुष्य और वैज्ञानिकों को यह अप्राप्य है।
                         वैज्ञानिक कहते हैं कि हम सत्य की खोज करते हैं। व्यक्ति या तो लौकिक सुख या आध्यात्मिक सुख दो में से किसी एक को चाहता है। वैज्ञानिक आध्यात्मिक सुख को जानते नहीं हैं । तब अर्थापत्ति से सिद्ध हुआ कि वे तीन एषणाओं को चाहते हुए-लौकिक सुख को चाहने के लिए ही सत्य की खोज को अपना लक्ष्य बनाते हैं। इन एषणाओं की तृप्ति ही उनका लक्ष्य है। आज भौतिक विज्ञान उग्र रूप में उभर आया है। योग विज्ञान लुप्त-प्राय: है। अत: परमात्मा का साक्षात्कार करने वाले भूगोल में दो चार ही मिलें ऐसा संभव है। यदि बहुत बड़ा समुदाय कुछ गलत करने लग जाये तो लोग उसे ही ठीक मानने लग जाते हैं। आजकल नाड़ी बन्द करना, आठ दिन भूमि में दबना, मूरछित होना (कुछ भी पता न लगना), आँख दबाने से प्रकाश दीखना, कान दबाने से शब्द ब्रह्म सुनना आदि को ही योग व योग की सिद्धि मान रहे हैं, पर यह सब योग नहीं है। इस ' गलत योग ' को देख -सुन कर आधुनिक वैज्ञानिक 'योग' को सत्य विज्ञान स्वीकार नहीं कर रहे हैं।
 

योगवाद व भोगवाद


इस आर्यावर्त्त देश में लाखों ऋषि हुए और वे सब वेद को ही प्रमुख ग्रन्थ मानते रहे। वेद के अन्दर ऐसे उपदेश (ज्ञान-विज्ञान) की बातें हैं। जिनके माध्यम से मानव जीवन सफल हो जाता है।
                             भौतिक विज्ञान का भी अपना महत्त्व है, परन्तु केवल भौतिक विज्ञान को लेकर चलने से और वैदिक विज्ञान को छोड़ देने से मानव जीवन सफल नहीं हो सकता। वेद ऐसा ग्रन्थ है जिससे व्यक्ति अपने चरम लक्ष्य (मुक्ति सुख) को प्राप्त कर लेता है। आज मानव ने भौतिक उन्नति खूब की पर परिणाम सामने है। जैसे-जैसे जरूरतें, धन - साधन बढ़ते गये, दु:ख भी बढ़ते गये। इसके अन्दर जो दोष हैं उनको मानव ने नहीं जाना।
                            केवल भौतिक उन्नति मानव जाति को आक्रान्त कर चुकी है, दबा चुकी है। हम समाधि से जान सकते हैं कि जो यह भौतिक विद्या से सुख है उससे अनेक गुणा अधिक सुख ईश्वर प्राप्ति में है ।
                           संप्रदायों के पास ईश्वर का सच्चा रूप नहीं होने से उन्होंने लोगों को ईश्वर अविश्वासी और योगवाद से विमुख कर दिया। कहते हैं कि इच्छानुसार भिन्न-भिन्न प्रकार से पूजा करने से भी सफलता मिलती है। यह गलत मान्यता है कि कोई व्यक्ति सीधा और घूमकर ईश्वर के पास पहुँच जाता है। क्या आर्यवन रोजड़ में पहुँचने के लिये कोई उसे दिल्ली के पास , कोई बम्बई या चण्ड़ीगढ़ के पास मान कर चले तो पहुँच सकता है ? ईश्वर को मानते हुए भी उसके रहने का ठिकाना अलग-अलग स्थानों पर कोई सातवें आसमान, कोई चौथे आसमान, कोई क्षीरसागर, कोई वैकुण्ठ कोई परमधाम आदि में मानते हैं । इस प्रकार ढूँढ़ने से क्या ईश्वर प्राप्त कर सकेंगे? यदि ईश्वर का सही ठिकाना (सर्वव्यापकता का स्वरूप) नहीं जाना तो फिर सीधे चले या घूमकर, सभी उसे किस प्रकार पा सकेंगे ?
                             "ईशा वास्यमिदं सर्वम्" ईश्वर सब जगह विद्यमान है, यह जानकर चलने से मन को सैकड़ों जगह भेजते हैं तब भी वह ईश्वर सब जगह है यह जानकर मन ईश्वर में स्थिर हो जायेगा। यह है व्याप्य-व्यापक सम्बन्ध का योगाभ्यास में उपयोग।
                            आज नित्य आनन्द से दूर और क्षणिक सुख के लिये बेचारे सब जुटे हुए हैं। केवल लौकिक भोगों को भोगना ही चरम लक्ष्य बन गया है। सृष्टि के आदि से किसी भी वैदिक ऋषि ने इस लौकिक सुख को चरम लक्ष्य नहीं माना परन्तु ईश्वरीय आनन्द को प्राप्त करना ही मुख्य लक्ष्य बताया है।
                             केवल भोगवाद अथवा भौतिकवाद आज अध्यात्मवाद पर हावी हो गया है। इससे टकराना इसको हटाना अत्यन्त कठिन हो गया है। उनकी मान्यता है कि न कोई आत्मा नाम की न कोई परमात्मा नाम की चीज है। केवल यह पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि आदि विकास को प्राप्त कर (होकर) प्राणी आदि चेतन बन गये, क्या लाखों-करोड़ों जड़ वस्तु मिलकर भी चेतन वस्तु बन सकती हैं? और क्या जो आत्माएँ हैं वे मिलकर भी प्रकृति का एक अणु बन सकती हैं ?
                            विशुद्ध मानव जीवन, सफल मानव जीवन, योग से निर्मित होता है। यह मानव शरीर जिसमें हम रहते हैं, योग के माध्यम से ऋषियों ने इसे समझा और अपने ग्रन्थों में लेखबद्ध कर दिया। आज मानव जाति अत्यन्त निम्न अवस्था में पहुँच गई है मनुष्य की परिभाषा इतनी अशुद्ध हो गई है कि बिगड़े हुए को अच्छा माना जाता है।
                          योगवाद से भोगवाद की टक्कर है। एक उभर कर आयेगा तो दूसरा धाराशायी हो जाएगा। योगवादी मानता है कि भोग तो पाँच इन्द्रियों के विषय हैं। इन दुःखदायी विषयों से मुक्ति के लिये ईश्वर-जीव-प्रकृति का सम्बन्ध जानकर योग द्वारा मुक्ति प्राप्त करनी चाहिए। भोगवादी का सिद्धान्त है कि आत्मा-परमात्मा, पाप-पुण्य, धर्मादि सब कल्पना मात्र हैं। जो ठीक लगे वह करें, न लगे वह न करें। जिन्हें बोलने का भान नहीं, बिना सिर पैर की बात बोलते हैं उन भोगवादियों का प्रभाव ईश्वरवादियों पर भी पड़ा है कि धन को ही सब से बड़ी चीज मानने लगे हैं।
                           जो लोग अज्ञान से और स्वार्थ से ओत-प्रोत हैं, अपने आत्मा के विरुद्ध कर्म करने वाले हैं, उनकी अवस्था इस जन्म में भी और अगले जन्मों में भी दु:खमय होती है। "असुर्या नाम ते लोका अन्धेन" वे लोग इस जन्म में और अगले जन्मों में भी असुर-पिशाच-पापी कहाते हैं जो अपने प्राणों के पोषण में लगे हुए हैं। जीवात्मा मनुष्य शरीर पाकर सोचता है कि मैं अपना ही भला करूँ परन्तु इसका उलटा होता है। जितना-जितना अपना भला व जितनी-जितनी दूसरे की उपेक्षा करता है उतना-उतना अधिक दुःखी होता है। यह दूसरों को हानि पहुँचा कर भी अपना भला चाहता है। आज प्रधानमंत्री स्तर का व्यक्ति भी रिश्वत लेता हैं। इसका कारण यह स्वार्थी भोगवादी प्रवृत्ति-संस्कृति है। यह ईश्वर आज्ञा का अनुकरण न कर धर्म विरुद्ध चलना है। ईश्वर के आदेश का पालन न करने वाला कभी सुखी नहीं हो सकता। आज बहुसंख्यक या तो झूठे भोगवाद के सिद्धान्त को मानने लगे हैं या संशय में पड़े हैं। नीचे से ऊपर तक न्याय नाम की चीज नहीं मिलती।
                        यह विचार ठीक नहीं कि ये कार, विमान, नौकर-चाकर वाले सुखी हैं, और जिनके पास ये साधन नहीं है वे महादु:ख घोर नरक भोग रहे हैं। सुख कपड़े-मकान-जूतों में नहीं है। सुख को मन से देखें। जो लोग आत्मा  के ज्ञान से विरुद्ध आचरण करते हैं वे आत्मा का हनन करने वाले महादुःख घोर नरक भोगते हैं। ये दुरात्मा भोगवादी-मनस्यन्यत्, वचस्यन्यत्, कर्मण्यन्यत् हैं। अध्यात्मवादी-मनस्येकं, वचस्येकं कर्मण्येकं होते हैं।
हम स्वार्थों को ठोकर मारकर प्राणीमात्र का कल्याण करें।
 

ईश्वरवादियों पर भोगवाद का प्रभाव


आज तो ईश्वरवादी भी भोगवाद से बुरी तरह प्रभावित हैं। दुनियाँ रोचकता चाहती है, सत्याचरण नहीं, अतः आडम्बर-अंधकार में फँसती है। आज के अधिकांश ईश्वरवादी पूजा-स्थलों में भौतिक साधनों की चकाचौन्ध द्वारा लखलुट धन लगा भौतिक भव्यता का प्रदर्शन कर जन-मानस को आकर्षित व प्रभावित करने की तीव्र स्पर्धा में लगे हुए हैं। उन्होंने अपना सारा क्रिया-कलाप, वत्त्ताव लगभग भोगवादियों की तरह स्वीकार कर लिया है। ईंट पर ईंट, पत्थर पर पत्थर लगा-सजाकर प्रभु के गृह निर्माण की प्रतिस्पर्धा में जुटे हुए हैं। इन्होंने "ईशा वास्यमिदं सर्वम्" को भुला, मानव निर्माण के कार्य से बिलकुल विमुख होकर, मानव समाज को सर्वनाश की ज्वाला में झोंक दिया है। माता-पिता भौतिक विद्या पढ़ाने लिखाने के लिये एड़ी से चोटी तक जोर लगाते हैं पर बालकों को आत्मा- परमात्मा-प्रकृति के बारे में, धर्म, परोपकार, सत्यभाषण आदि के बारे में कुछ भी नहीं बताते। सभी बच्चे डाक्टर, इन्जीनियर बनना चाहते हैं क्योंकि धन प्राप्त होगा। यह सब भी करें, पर साथ-साथ मानव निर्माण को भी अपनायें तो क्या हानि ? पैदा होना, भोग भोगना व रोगी होकर मरना ही लक्ष्य है ?
                                भोगवाद योगवाद को सूक्ष्मरूप से कैसे प्रभावित करता है इस बात को विशेष पढ़ा-लिखा भौतिकवादी भी नहीं पकड़ सकता। भौतिकवादी सोचता है कि इस संसार की सब वस्तुओं के स्वामी हम हैं । इसका प्रभाव आध्यात्मिकों पर सूक्ष्मरूप से रहता है। भोगवादी ने नियम बनाये-गाय, घोड़े, पशु-पक्षी सब को खायें। यह मूल दोष कहाँ से आया? ईश्वर को स्वामी न मानने से। मनुष्य सारे संसार का मालिक स्वयं बनना चाहता है। ये लड़ाई-झगड़े सब इसी से होते हैं। जो मालिक स्वयं बनता है क्या वह एक बाजरे के दाने या एक बाल को भी बना सकता है? यह शरीर इन्द्रियाँ आदि उपकरण हटा दीजिये तो यह जीवात्मा, यह भी नहीं जान सकता कि मैं कहाँ पड़ा हूँ। धरती पर पड़ा जीवात्मा स्वयं की शक्ति से एक अंगुल भी नहीं सरक सकता। यदि अकेले जीवात्मा की शक्ति कुछ भी नहीं तो वह कहाँ इस संसार का मालिक बना बैठा है? आस्तिक कहने को कहते हैं कि सब भगवान् का है। गलत रूप में ईश्वर को मानने वाले भी नास्तिक से कम नहीं। धन सब अपना मानते हैं और कहते हैं 'तेरा तुझ को अर्पण', धन चढ़वा कर सब को लूट रहे हैं। जीवात्मा इस शरीर इन इन्द्रियों आदि को ईश्वर प्रदत्त नहीं मानता यह 'भोगवाद' है। हम धनवान्, विद्वान्, बलवान्, चक्रवर्ती राजा भी बनें पर सब ईश्वर का, ईश्वर प्रदत्त मानकर भौतिकवादी न बनें तो क्या हानि है?
                                 व्यक्ति सदा अपने जीवन में ईश्वर की महत्ता अनुभव करता रहे, ताकि ईश्वर की सहायता सदा मिलती रहे। इस भोगवाद-केवल भौतिकवाद ने ईश्वरवाद को दबाकर रख दिया। भोगवादी ऐसा स्वार्थी कंजूस हो जाता है कि सारा खुद खाना भोगना चाहता है। उसकी मान्यता है कि भोग से उसकी सन्तुष्टि हो जायेगी । इनकी मान्यता है कि खाने-पीने से, विषयों के भोग से तृप्त हो जायेंगे। ये मायावादी घाटा न सह सकने पर बम्बई जैसे नगरों में कोई फाँसी लगाकर, कोई मकान से गिरकर आत्महत्या कर लेते हैं। ऋषियों की मान्यता से विरुद्ध रजनीश का जो कुछ सिद्धान्त था वह सब केवल भोग भोगने का था। भोगवादी के सामने कोई धर्म-कर्म आदि नहीं होता।
                              सारे विश्व की वस्तुएँ एक व्यक्ति को मिल जायें फिर भी तृप्ति नहीं होगी, फिर शेष पाँच अरब व्यक्तियों के भोग की सामग्री कैसे पूरी होगी?
                             भोगवादी की बुद्धि पक्षपात की होगी। अध्यात्मवादी न्यायप्रिय होगा। भोगवादी कितना ही न्यायप्रिय हो पक्षपातरहित और परोपकारी न होकर स्वार्थी होगा। ईश्वर के सानिध्य से योगवादी व्यक्ति अपना सर्वस्व देकर भी अन्य की भलाई चाहेगा।
 

मानव जीवन दो धाराओं में


मानव जीवन दो धाराओं में बहता चलता है या तो भोगवाद या योगवाद। मानव जाति भोगवाद में आकण्ठ डूब चुकी है। हजारों पतंगों की भाँति विषयाग्नि में जल रहे हैं ।
                               योगवाद की परिभाषा वेद के अनुसार यह नहीं कि धनादि न कमाएँ, सुख समृद्धि न बढ़ायें, परन्तु यह है कि त्याग भाव से सब भूतात्माओं के कल्याणार्थ भी उपयोग में लायें। प्रकृति की उपासना में वैज्ञानिक आकण्ठ डूबे हैं और सामान्य संसारी जन नाच-गान, खान-पान, तमाशे में डूब रहे हैं। जीवात्मा या तो ईश्वर की या विकृति की उपासना सतत करता ही रहता है। वेद कहता है सम्भूति का प्रयोग करता हुआ अमृत को प्राप्त कर। धन कमाओ तो धर्म से कमाओ। येन केन प्रकारेण धन मिल जाये यह भोगवाद है।
                             "रोटी-कपड़ा और मकान, मांग रहा है हिन्दुस्थान" क्या मानव केवल पशु ही होकर रह गया है ? "पहले पेट पूजा फिर काम दूजा" ही नारा बनकर रह गया। कभी इस देश में महाराजा अश्वपति गौरव से उद्घोष करते थे कि मेरे राज्य में कोई कंजूस नहीं, अग्निहोत्र न करने वाला कोई नहीं, कोई पुरुष व्यभिचारी नहीं तो स्त्री की तो बात ही क्या ? यह था योगवाद का जमाना। आज सर्वथा इससे उलटा हो गया। यह भौतिकवादियों ने सब अव्यवस्था बना डाली । कार्ल मार्क्स का रूस धराशायी हुआ, अमेरीका भी जो केवल भौतिकवाद पर डटा हुआ चलेगा तो अध्यात्मवाद के बिना मानव जाति के सर्वनाश का कारण सिद्ध होगा। योगवाद धर्म-अर्थ-काम से लेकर मोक्ष तक की प्राप्ति का मार्ग है। पर भौतिकवाद में भोग ही सब कुछ है। धन कमाने में कोई नियम नहीं।
                             सम्प्रदायवादी, ईश्वर को गलत मानने वाले परस्पर रोज झगड़ते हैं। केवल चेतनावाद या केवल जड़वाद दोनों निष्फल हैं। जड़ चेतन दोनों के बिना व्यवहार नहीं चलेगा।
                            ईश्वर को न मानना हानिकारक है तो गलत मानना भी हानिकारक है। कुछ ने जड़ प्रकृति व चेतन आत्मा को तो माना, पर ईश्वर को बाहर निकाल दिया जैसे जैन मतावलम्बी। कोई भी व्यक्ति सत्य वैदिक त्रैतवाद को माने बिना सफल नहीं होगा।
                          वर्तमान के दो विश्व युद्ध और प्राचीन महाभारत युद्ध भी भौतिकवाद का ही परिणाम था। मतभेद और स्वार्थ के रहते हम एक नहीं हो सकते। आज नीचे से ऊपर तक इक्का-दुक्का भी मुश्किल से मिलेगा जो देश को न चूस रहा हो, देश-भाषा-जाति भले नाश को प्राप्त हो जाये। ईश्वर की आज्ञा, नियम न मानने वाले भौतिकवादियों को चैन नहीं, वे महादुःखी हैं।
मानव निर्माण - योगविद्या से ही वास्तविक रूप में मानव निर्माण होता है। इसके बिना कोई भी व्यक्ति शुद्ध- पवित्र-न्यायकारी-पक्षपात रहित नहीं हो पाता। जितना भी भौतिक ज्ञान-विज्ञान व उपभोग साधन-सामग्री बढ़ी हो, फिर भी समाज में सुख शांति नहीं आई है। इसका कारण शिक्षा प्रणाली में दोष है। ज्ञान-कर्म-उपासना का शुद्ध
और अशुद्ध होना क्रमशः मानव निर्माण और विनाश का कारण होता है। आज के पढ़े-लिखे शिक्षित अपने को महान् समझते हैं और विद्वान् ऋषियों को कुछ नहीं जानते-मानते। विदेशियों के लिखे इतिहास-चरित्र पढ़ाये सिखाये जाते हैं, जो ऋषियों के आचरण को धराशायी कर रहे हैं। भौतिकवादी सब भेड़चाल से नष्ट-भ्रष्ट हो रहे हैं। यद्यपि विनाश आत्मा का नहीं हो रहा है किन्तु विनाश नाम है महाक्लेश का जिसमें मानव समाज डूबता जा रहा है। जहाँ धार्मिक विद्वान् चिकित्सक प्राणों का दाता होता है वहीं अधार्मिक चिकित्सक धन-प्राणों का हरने वाला बन जाता है। शरीर के साथ जिसकी आत्मा-मन व इन्द्रियाँ भी प्रसन्न हो वह स्वस्थ और जिसका मिथ्या आचरण हो, आत्मा व मन अशुद्ध हों वह अस्वस्थ है। आधुनिक विद्या के साथ-साथ आत्मा-ईश्वर- धर्म को जोड़ो तो सफलता मिलेगी अन्यथा नहीं ।
                             मानव जीवन के मुख्य प्रयोजन की सिद्धि योगवाद से है न कि भोगवाद से। वेदानुसार मानव जीवन का मुख्य प्रयोजन है दुःख व दुःख के कारण से छूटना और सुख व सुख के कारण (उपाय) उपलब्ध करना। इन चारों का नाम प्रयोजन है। जिस कार्य को सामने रख के उसमें प्रवृत्त होता है वह मानव जीवन का लक्ष्य-प्रयोजन होता है।
                           दु:ख व दु:ख के कारण और सुख व सुख के कारण लाखों वैज्ञानिक गवेषणा कर रहे हैं उससे लगता है कि विश्व की बहुत बडी उन्नति हो रही है, परन्तु वास्तविक रूप में विश्व का भयंकर पतन हो रहा है । आज मानव अत्यन्त भयभीत है, अशान्त है। निदर्दोष व्यक्तियों को लोग राख बना कर रख देते हैं। कोई पूछने वाला नहीं। जिस काम के करने से सुख नहीं मिल रहा और दु:ख नहीं हट रहा तो यह उन्नति नहीं पतन है। यह भोगवाद का परिणाम है।
                          भोगवादी सोचते हैं जितनी धन सम्पत्ति अधिक होगी उतना अधिक सुख होगा, परन्तु भोग मानव जीवन का लक्ष्य नहीं है, क्योंकि भोग भोगने से सम्पूर्ण दुःखों की निवृत्ति नहीं होती। योग द्वारा ईश्वर प्राप्ति को जाने माने बिना व्यक्ति के दु:ख और दु:ख के कारणों की निवृत्ति नहीं हो सकती।
                          सुख गुण दो द्रव्यों का है। सुख गुण ईश्वर का है। प्रकृति का भी गुण सुख है पर दोनों सुखों में अन्तर है। प्रकृति का 'सुख-दुःख मिश्रित' है और क्षणिक होता है। प्रकृति के सुख में चार प्रकार का दुःख है - परिणाम, ताप, संस्कार और गुण-वृत्ति-विरोध दुःख। जबकि ईश्वर के आनन्द में ये चार दु:ख, उत्पत्ति-विनाश, हरास-वृद्धि कभी नहीं होते।
 

ऋषियों का संदेश

  • (१) विषयों को भोगकर, इन्द्रियों की तृष्णा को समाप्त करने वाला तुम्हारा विचार ऐसा ही है, जैसा कि आग को बुझाने के लिये उसमें घी डालना।
  • (२) यह मानना तुम्हारा सबसे बड़ा अज्ञान है कि "मैं कभी मरूँगा नहीं", "यह शरीर बहुत पवित्र है"। "विषय भोगों में पूर्ण और स्थायी सुख है"। तथा "यह देह ही आत्मा है"।
  • (३) तुम्हारे मन में अच्छे या बुरे विचार अपने आप नहीं आते। इन विचारों को तुम अपनी इच्छा से ही उत्पन्न करते हो, क्योंकि मन तो यन्त्र के समान जड़ वस्तु है, उसका चालक आत्मा है।
  • (४) किसी के अच्छे वा बुरे कर्म का फल त्काल प्राप्त होता न देखकर तुम यह मत विचारो कि इन कर्मों का फल आगे नहीं मिलेगा। कर्म-फल से कोई भी बच नहीं सकता, क्योंकि ईश्वर सर्वव्यापक, सर्वज्ञ तथा न्यायकारी है।
  • (५) संसार (= प्रकृति), संसार को भोगने वाला (=जीव) तथा संसार को बनाने वाले (= ईश्वर) के वास्तविक स्वरूप को जानकर ही तुम्हारे समस्त दु:ख, भय, चिन्तायें समाप्त हो सकती हैं और कोई उपाय नहीं है ।
  • (६) 'मनुष्य जीवन ईश्वर प्राप्ति के लिये मिला है'। इस मुख्य लक्ष्य को छोड़कर अन्य किसी भी कार्य को प्राथमिकता मत दो, नहीं तो तुम्हारा जीवन चन्दन के वन को कोयला बनाकर नष्ट करने के समान ही है।
  • (७) तुम्हारे जीवन की सफलता तो काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकारादि अविद्या के कुसंस्कारों को नष्ट करने में ही है। यही समस्त दुःखों से छूटने का श्रेष्ठ उपाय है ।
  • (८) जब तक तुम संसार के सुखों के पीछे छिपे हुए दुःखों को समझ नहीं लोगे, तब तक वैराग्य उत्पन्न नहीं होगा। बिना वैराग्य के चञ्चल मन एकाग्र नहीं होगा, एकाग्रता के बिना समाधि नहीं लगेगी, समाधि के बिना ईश्वर का दर्शन नहीं होगा, बिना ईश्वर-दर्शन के अज्ञान का नाश नहीं होगा और अज्ञान का नाश हुए बिना दु:खों की समाप्ति और पूर्ण तथा स्थायी सुख (=मुक्ति) की प्राप्ति नहीं होगी।
  • (९) तुम इस सत्य को समझ लो कि 'अज्ञानी मनुष्य ही जड़ वस्तुओं (=भूमि, सोना, चाँदी आदि) तथा चेतन वस्तुओं (= पति, पत्नी, पुत्र, मित्र आदि) को अपनी आत्मा का एक भाग मानकर, इनकी वृद्धि होने पर प्रसन्न तथा हानि होने पर दुःखी होता है'।
  • (१०) तुम्हारे लोहे रूपी मन को, विषय भोगरूपी चुम्बक सदा अपनी ओर खींचते रहते हैं। ज्ञानी मनुष्य विषय भोगों से होने वाली हानियों का अनुमान लगाकर इनमें आसक्त नहीं होते, किन्तु अज्ञानी मनुष्य इनमें फॅस कर नष्ट हो जाते हैं।
  • (११) महान् ज्ञान, बल, आनन्द आदि गुणों का भण्डार, ईश्वर एक चेतन वस्तु है, जो अनादि काल से तुम्हारे साथ है, न कभी वह अलग हुआ , न कभी अलग होगा। उसी संसार के बनाने वाले, पालन करने वाले, सबके रक्षक, निराकार की स्तुति, प्रार्थना तथा उपासना तुम सब मनुष्यों को सदा करनी चाहिए ।

प्रमाण से परीक्षण


योग का सम्बन्ध प्रमाणों के परीक्षण द्वारा स्थापित होता है। जो प्रमाण की कसौटी पर कसकर सत्य को नहीं जानते वे योग विद्या नहीं सीख सकते। अंध परम्परा में ध्यान-योग के नाम से, बिना सोचे समझे, बिना प्रमाणों के कुछ बातों का चलन हो गया। उसमें वेद, दर्शन, संवाद आदि द्वारा सत्यासत्य निर्णय किये बिना ही बातों को मान लेते हैं। पर वह सत्य परंपरा नहीं, बल्कि प्रमाणों से जो सत्य ठहरे उसे मानना चाहिए।
                                   प्रमाण से ईश्वर-आत्मा की सिद्धि होती है, इसलिये वे हैं; न कि मैं मानता हूँ इसलिये हैं ? सामान्य व्यक्तित अपनी बुद्धि की प्रधानता मानकर चलते हैं। कई अड़ जाते हैं कि मेरा तो ऐसा प्रत्यक्ष है। मेरा अनुभव है ! मेरा अनुभव है ! कह-कह कर बात को टालते रहते हैं। अनुभव गलत भी हो सकता है। भ्रम हो सकता है। अत: जो प्रमाणों से सिद्ध हो वह सत्य, न कि मैं मानता हूँ इसलिये सत्य। वह बात सीधी या उलटी, गलत या ठीक भी हो सकती है। हाँ, कसौटी पर कसने पर यदि ठीक होगी तो वह ठीक मानी जायेगी।
प्रत्यक्ष प्रमाण ➤
"इन्द्रियार्थसन्निकर्ष.."। (न्याय दर्शन।) इन्द्रियों का विषयों के साथ मेल होने से उत्पन्न ज्ञान। (जो पाँच प्रकार का होता है) एक तो अव्यपदेश्यम्=वाणी से कहा गया न हो, अर्थात् जो ज्ञान दूसरे के द्वारा शब्द के माध्यम से होता है वह प्रत्यक्ष की कोटि में नहीं आता। दूसरा अव्यभिचारी=सत्यज्ञान अर्थात् तीन काल में भी परीक्षा से झूठ न हो।
                               तीसरा व्यवसायात्मक=निश्चयात्मक हो, संशय रहित हो, तभी प्रत्यक्ष प्रमाण कहलाता है।
प्रत्यक्ष तो केवल वर्तमान काल को ही बताता है। अनुमान प्रमाण-तीनों काल की वस्तु को बताता है। केवल प्रत्यक्ष मानने से कुछ भी नहीं बनता-बनाता ।
 

अनुमान प्रमाण का प्रयोग पञ्चावयव से


(१) प्रतिज्ञा - शरीर अनित्य है।
(२) हेतु - क्योंकि उत्पन्न होता है।
(३) उदाहरण - जो उत्पन्न होता है वह नाशवान् देखा जाता है, जैसे घड़ा व कपड़ा।
(४) उपनय - जैसे घड़ा और कपड़ा वैसे शरीर ज्यों का त्यों।
(५) निगमन - उत्पन्न होने के कारण शरीर अनित्य है।
                              नास्तिक गलत हेतु देकर ईश्वर को नहीं मानते। कहते हैं - मिलावट करने वाले, झूठ बोलने वाले मौज करते हैं, यदि ईश्वर है तो क्यों नहीं रोकता ? अत: है ही नहीं। इसका समाधान यह है कि जीव कर्म करने में स्वतन्त्र है। उसे ईश्वर की ओर से चेतावनी मिलती है पर ईश्वर साक्षात् कर्म करने से रोकता नहीं, उसे कमर्मों का फल देता है।

शब्द प्रमाण


वेद जो ईश्वरकृत् माने जाते हैं और ऋषि ब्रह्मा, गौतम, कणाद, कपिल से लेकर दयानन्द तक आप्त पुरुषों के जो वचन हुए वे शब्द प्रमाण की कोटि में आते हैं। कोई भी विद्वान् कोई बात कहे तो उसे शब्द प्रमाण से मिलाकर निर्णय करें। जैसे ब्रह्माकुमारी का ईश्वर को परमधाम में मानना शब्द प्रमाण के विरुद्ध जाता है तो नहीं मानना चाहिए। ईश्वर है या नहीं जब सन्देह होता हो तो शब्द प्रमाण लाकर निर्णय करें। यदि शंका हो कि अपने मन की बात मानें या शब्द प्रमाण की ? सो अपनी बात को ठुकरा दें और शब्द प्रमाण को अपना लें। अपनी बात का स्वयं विरोध करना पड़ता है।
                                एक व्यक्ति चार आने की चोरी करता है, जब सात्त्विक ज्ञान उभरता है। वही लाख रुपये पाने पर जमा करा देता है। ज्ञान का स्तर उतरता चढ़ता रहता है। अत: अपने अनुभव-प्रमाण का आग्रह छोड़ शब्द (वेद) प्रमाण को ही स्वीकार करें। अज्ञानी व्यक्ति भयभीत, कट्टर, हठी, दुराग्रही आक्रामक होता है। ज्ञानी व्यक्ति निर्भय, विवेकी, सहनशील सब को सुखकारक होता है।
 

ईश्वर की सर्वत्र विद्यमानता


ईश्वर की सर्वत्र विद्यमानता

ईश्वर के स्वरूप को बताने के लिये वेद में आता है।
तदेजति तन्नैजति तह्बूरे तद्वन्तिके ।
तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बाह्यत:॥ 
(यजु. ४०/५)
परमात्मा सब जगत् को यथायोग्य अपनी-अपनी चाल पर चला रहा है। सो अविद्वान् समझते हैं कि वह भी चलता होगा, परन्तु वह सब जगहों में भरा है, अत: कभी चलायमान नहीं होता। 'तन्नैजति' वह परमात्मा कभी नहीं चलता, सर्वत्र एक रस निश्चल होके भरा है। 'तद्बूरे' दोषयुक्त मनुष्यों से वह ईश्वर बहुत दूर है। 'तद्वन्तिके' सत्यवादी, सत्यकारी, सत्यमानी विद्वान् विचारशील पुरुषों के अत्यन्त निकट है। वह आत्मा का भी आत्मा है क्योंकि वह सब जगत् के भीतर और बाहर तथा मध्य अखण्ड एकरस सब में व्यापक हो रहा है।
                              ईश्वर के स्वरूप को जताने का बार-बार वेद में वर्णन आता है, क्योंकि ईश्वर में इतना सामर्थ्य, शक्ति, ज्ञान है कि समस्त विश्व ईश्वर के सहारे से ही चलता है। बिना ईश्वर की शक्ति, सामर्थ्य, ज्ञान विज्ञान के कोई
भी जड़-चेतन पदार्थ व्यवहार में अपने आपको स्वयं उपस्थित नहीं कर सकता। जीव कर्म करने में स्वतन्त्र है, अच्छे-बुरे-कर्म करने के लिये। पर करने का सामर्थ्य जो कुछ बल-ज्ञान-साधन-सम्पत्ति आदि है वह सब ईश्वर का दिया हुआ है। जीवात्मा ईश्वर के दिये हुए सामर्थ्य के बिना कुछ भी नहीं कर सकता। जो ईश्वर के विषय में यथायोग्य नहीं जानता-मानता-करता वह कृतघ्न है। यदि जानता-मानता-करता है तो उसका आकर्षण, प्रीति,
झुकाव ईश्वर की ओर होता है। उसका ईश्वर से सम्बन्ध जुड़ता है।
                          एजति = चलता है, नैजति = नहीं चलता है। गुणों सहित ईश्वर को बताना 'सगुण वर्णन', जो गुण ईश्वर में नहीं उन्हें बताना 'निर्गुणवर्णन' है। ईश्वर नहीं चलता-सब जगह भरा है, एक जगह से दूसरी जगह जा ही नहीं सकता। आना-जाना एक देशीय का होता है। ईश्वर खड़ा भी है और सब जगह है। जो व्यक्ति ऐसा समझ लेता है उसका मन कहाँ दौड़ेगा, कहाँ भागेगा? पर व्यक्ति ईश्वर से सम्बन्ध जोड़ने से भागता है, डरता है; क्योंकि
ऐसा करने पर उसकी आज्ञानुसार वैसा ही बनना पड़ेगा।
                            ईश्वर को योगाभ्यासी ज्ञान से बुद्धि के माध्यम से देखते हैं। जो अधर्म से अपने को नहीं हटाते उनसे ईश्वर दूर है, पास में रहते हुए भी नहीं दीखता। ईश्वर से सम्बन्ध नहीं टूट सकता, चाहे कहीं भी दौड़ लगाओ वह सर्वत्र पहले ही खड़ा मिलेगा।

ईश्वर से उत्पन्न जगत्


"ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्"। ईश्वर से पूर्व कोई पदार्थ नहीं था। इस वाक्य से भ्रान्ति हो सकती है। यह संसार ईश्वर के स्वरूप से उत्पन्न हुआ है, ऐसे स्थल पर भ्रान्ति हुआ करती है कि ईश्वर के सिवाय कुछ नहीं था तो जीव और प्रकृति भी उससे उत्पन्न हुए। परन्तु यहाँ वक्ता का अभिप्राय व प्रकरण भी ध्यान में रखना पड़ता है। इसका एक अर्थ है जो ये पदार्थ प्रकृति से बने हैं, वे ईश्वर से पहले नहीं थे। इसका दूसरा अर्थ-जीव व प्रकृति के होते हुए भी ईश्वर से पहले इनका कुछ भी व्यापार (व्यवहार में) न था।
                              ईश्वर से जगद् उत्पन्न हुआ अर्थात् ईश्वर ने बनाया तो बना, जैसे पाचक से रोटी बनी। इसका मतलब पाचक ने रोटी आटे में से बनाई, न कि अपने शरीर में से ही रोटी बनाई। सो ईश्वर ने प्रकृति से जगत् बनाया न कि अपने में से (= अपने स्वरूप से) जैसे मकड़ी अपने शरीर में से जाला बनाती है, न कि स्वयं अपनी आत्मा में से। 'समुद्र नदी का दृष्टान्त ' इसमें दो बातें हैं। क्या समुद्र में नदी जैसे योग-संयोग वाले परमाणु हैं। दूसरा नदियाँ समुद्र में मिलती हैं तो नदी के जल कण अपना अस्तित्व नहीं खोते। समुद्र के परमाणु भी रहते हैं और नदी के अपने परमाणु भी रहते हैं।
                            सर्वत्र बुद्धि पूर्वक क्रियायें होती हैं। क्योंकि ईश्वर सर्वव्यापक है। ईश्वर सर्वज्ञ है। करोड़ों लोगों द्वारा ईश्वर को ठीक न मानने-जानने से चरित्र, विद्या, परोपकार आदि का नाश हो गया।
                         'न तस्य प्रतिमा अस्ति' ईश्वर को तोलने-मापने का साधन नहीं है। उस ईश्वर के सदृश भी अन्य पदार्थ नहीं है। जनता ईश्वर को वेद के अनुरूप न समझने से, ईश्वर को सही मानने वालों को पक्के नास्तिक और अशुद्ध मानने-जानने वालों को आस्तिक मान रही है। इस से गलत रूप में पूजा पाठ बढ़ रहे हैं। गलत रूप में माना जायेगा तो उसकी आज्ञा, उपदेश की अवज्ञा होगी। पूरा जीवन पूजा-पाठ में बीत गया पर ईश्वर से सम्बन्ध नहीं जुड़ा।
 

ईश्वर मित्र


यदङ्ग दाशुषे त्वमग्ने भद्रं करिष्यसि। तवेतत्सत्यमङ्गिरः॥
(ऋ. १/१/६)
हे (अङ्ग) मित्र ! जो आपको आत्मा आदि दान करता है, उसको (भद्रम्) व्यावहारिक और पारमार्थिक सुख अवश्य देते हो, (अङ्गिरः) हे प्राणप्रिय ! यह आपका सत्यव्रत है कि स्वभक्तों को परमानन्द देना, यही आपका स्वभाव हमको अत्यन्त सुखकारक है, आप मुझको ऐहिक और पारमार्थिक इन दोनों सुखों का दान शीघ्र दीजिये, जिससे सब दुःख दूर हों, हम को सदा सुख ही रहे।
                           जो हमारा कल्याण हित चाहता है वह ईश्वर हमारा मित्र है। लोक में भी कुछ मित्र होते हैं पर दोनों में अंतर है। संसार में कोई एक काल में मित्र तो अन्य काल में अमित्र हो जाता है; परन्तु ईश्वर किसी भी काल में कभी भी मित्रता नहीं छोड़ता। ईश्वर की मित्रता अनादि काल से है, अनन्त काल तक रहेगी। मनुष्य की मित्रता बदलती रहती है।
                          हमें बिच्छु, सर्प आदि से अपनी रक्षा तो करनी है, परन्तु उन्हें भी आत्मवत् देखना है। डरना व रक्षा करना अलग-अलग है। इनसे बचना भी पड़ेगा व मित्र भी समझना पड़ेगा। जैसे बच्चा माँ के माथे पर लोटा मारे तो माँ उससे बचती है पर प्यार तो फिर भी करती है। जो गुरु हित के लिये दण्ड देवे वह ठीक है। परन्तु आज उलटा-कि जो दोष करने पर दण्ड देवे वह बुरा और न देवे वह अच्छा।
                         दाशुषे-जो-दान-सेवा करता है उसको निश्चय से लौकिक सुख व मुक्ति सुख ईश्वर देता है।

ईश्वर होता


अग्निह्होता कविक्रतुः सत्यश्चित्रश्रवस्तमः। देवो देवेभिरागमत्।
(ऋ. १/१/५)
हे सर्वदृक् ! सब को देखने वाले (क्रतुः) सब जगत् के जनक (सत्यः) अविनाशी (चित्रश्रवस्तमः) आश्चर्य श्रवणादि, आश्चर्यगुण, आश्चर्य शक्ति, आश्चर्य रूपवान् और अत्यन्त उत्तम आप हो, आपके तुल्य वा आप से बड़ा कोई नहीं है, हे जगदीश ! (देवेभिः) दिव्य गुणों के सह वरत्तमान हमारे हृदय में आप प्रकट होवो सब जगत् में भी प्रकाशित हों, जिससे हम और हमारा राज्य दिव्यगुण युक्त हो, वह आपका ही है। हम तो आपके पुत्र तथा भृत्यवत् हैं।
                         अग्निहर्होता। उसका नाम 'होता' है जो हमको अच्छी-अच्छी चीजें देता है। ईश्वर हमको समस्त विश्व के पदार्थं को बना कर देता है। दूसरे हमें ज्ञान-विज्ञान देता है, आनन्द-बल देता है सो वह होता है। दूसरा अर्थ है लेने वाला। मुक्ति में जब अवधि पूरी होती है लौटा देता है। आज धनपति है कालान्तर में नहीं रहता। यह समझे कि ईश्वर ने लौटा लिया सो दुःखी नहीं होता। मौत का पता लग जाये तो करोड़पति दानी बन जाता है।
                         कवि = ईश्वर सर्वज्ञ कहा गया, अरबों लोग जो कुछ भी क्षण-क्षण में सोचते-करते हैं उसे ईश्वर प्रतिक्षण जानता है। ईश्वर की जानकारी के बाहर कुछ नहीं होता। जब ईश्वर सब कुछ जान रहा है तो मनुष्य के जानने न जानने से क्या डरना। तो अपने आप जानबूझ कर ईश्वर को अर्पण हो जाओ, वरना वह सब कुछ जान तो रहा ही है।
                          जो मैं सोचूँगा, बोलूँगा, करूँगा उसके अच्छे-बुरे फल से मैं बच नहीं सकता। यह अनुभव करना अत्यन्त कठिन है। यदि शत-प्रतिशत सोचता है। कि बुरे का फल अवश्य मिलेगा, तो बुराई करने का विचार तक भी नहीं कर सकता ।
 

ईश्वर सर्वरक्षक


ईश्वर आह्ववान और रक्षा :- वेद मन्त्रों में बातें संकेत रूप में कही गई हैं। जो संकेत की विद्या को जानता है वह उसे बढ़ाते-बढ़ाते उसके तल तक पहुँच जाता है। वाक्य का सीधा अर्थ लगाने से अनर्थ हो जाये । जो भाषा विज्ञान (शैली) को नहीं जानते वे 'ईश्वर-आह्वान' का अर्थ ऐसा करते हैं जैसे लोक में दूर के व्यक्ति को बुलाते हैं। यहाँ आह्वान का अर्थ है जो ईश्वर हमारे निकट पहले से उपस्थित है उसके गुण (आनन्द, ज्ञान आदि) की प्राप्ति के लिये उससे आबद्ध हो जाना।
ईश्वर कैसे रक्षा करता है ? :- लोक समझते हैं जैसे एक यात्री जाता है, चोर उसे लूटता है। पर एक सांप निकल कर चोर को डसता है, वह यात्री बच गया। कुएँ में तीन पड़े, दो मरे एक बच गया। दुर्घटना में कुछ मर गये, कुछ बच गये। यह ईश्वर के रक्षा का परिणाम नहीं। ये दृष्टान्त गलत हैं। यह सब क्रिया-भेद से परिणाम-भेद है। एक बच्चा कुएँ में दीवार से टकराया वह मर गया, दूसरा सीधा पानी में पड़ा वह बच गया। किसी को दुर्घटना में मर्म स्थान पर चोट लगने पर वह मर गया, अन्य को कठोर स्थान पर लगने से वह नहीं मरा, बच गया। ईश्वर की रक्षा का क्षेत्र वहाँ तक रहता है जहाँ तक, जब तक जीवात्मा की स्वतन्त्रता का अवरोध नहीं होता, हनन नहीं होता।
यदि जीवात्मा अल्पज्ञता से, भूल से, स्वभाव से द्वेष कारण दूसरे को कष्ट देता है, तो ईश्वर हाथ पकड़ कर उसकी स्वतन्त्रता का हनन नहीं करेगा तथा पीड़ित होने वाले की उस समय रक्षा भी नहीं करेगा। हाँ, इसका दण्ड एवं क्षतिपूर्ति बाद में न्याय के रूप में अवश्य करता है।
                            नास्तिक जो ईश्वर को नहीं मानते वे कहते हैं कि संसार के बनने में ईश्वर का सहयोग नहीं। यह सब रचना अपने आप ही हो जाती है; परन्तु व्यक्ति अपने शरीर की रचना को गौर से देखने पर आश्चर्यचकित हो
जायेगा। क्या मनुष्य यूँ ही पैदा हो गये ? और हो रहे हैं ? रचना विशेष को देखकर अन्त में यह मानना पड़ता है कि दृश्यमान पदार्थ व प्राणियों के शरीर ईश रचना से उत्पन्न होते हैं, उसके सहारे से जीते हैं तथा उस द्वारा प्रलय को प्राप्त होते हैं।
ईश्वर हमारी रक्षा अनेक प्रकार से करता है।
  • (१) भगवान् की रक्षा का एक भाग यह है कि उसकी रक्षा के बिना शरीरधारी जीवन धारण नहीं कर सकता। रक्षित अर्थात् जीवित नहीं रह सकता। मां के पेट में बच्चा किस प्रकार जीवित रहता है। ईश्वर ने मां की नाड़ी से बच्चे की नाड़ी का सम्बन्ध कर पोषण देकर रक्षा की है। हम श्वास लेते, खाते, पचाते हैं। शरीर में सात धातु- रस-रक्त मांस आदि बनते हैं, यह व्यवस्था ईश्वर ने की है।
  • (२) बुरे काम करने में भय, शंका, लज्जा, संकोच उत्पन्न करता है तथा अच्छा काम करने की योजना में निर्भीकता, आनन्द और उत्साह पैदा करके, पितृवत्-मातृवत् हमारी रक्षा करता है।
  • (३) ईश्वर के माध्यम से सब क्रियायें हो रही हैं । वह जीवन देता है, सब व्यवस्था करता है। ईश्वर प्रदत्त साधनों के बिना व्यक्ति क्षण भर भी नहीं जी सकता।
  • (४) आप्त (विद्वान्) लोक ईश्वर का सामर्थ्य प्राप्त करके हमारी रक्षा करते हैं। भिन्न-भिन्न विद्या क्षेत्र में अच्छे धार्मिक विद्वान् जैसे आयुर्वेद के क्षेत्र में धार्मिक वैद्य प्राणों का देने वाला होता है। मूर्ख अधार्मिक वैद्य प्राण हरता है। विज्ञान के क्षेत्र में भी धार्मिक वैज्ञानिक खोज करके अनेकों का भला करता है। अधामिक वैज्ञानिक विनाश के साधन जुटा कर हानि भी करते हैं। धन उपार्जन के क्षेत्र में भी धार्मिक विद्वान् कृषि अनुसंधान करके अधिक उपज का मार्ग खोजकर भलाई करता है। इसी प्रकार आध्यात्मिक क्षेत्र में काम, क्रोध, लोभ, मोह मनुष्यों को पीसते हैं, धार्मिक विद्वान् अपने उपदेश से उनका निवारण करता है। जो व्यक्ति विद्वान् व धार्मिक बन जाता है तो उस विद्या से
  • जो सुख मिलता है उसके आगे सांसारिक सुख हजारवाँ अंश भी नहीं होता। जब धार्मिकता नहीं जुड़ती तो धन-बल-विद्या अभिमान को पैदा करते हैं। जो शास्त्र पढ़ा हो पर यम-नियम का पालन नहीं करता, तो वह घमण्डी हो अपना व समाज का अनिष्ट करता है।
  • (५) मानव ही क्या, हर प्राणी को सुरक्षित व सुखी रखने के लिये सर्जनहार ने अनुपम भेंट प्रदान की है। ईश्वर प्रदत्त हवा, पानी, प्रकाश खुराक (वृक्ष-वनस्पति, फल-फूल) आदि जीवन में आनन्द, उमंग, उत्साह हर्ष आदि प्रदान करते हैं।
  • (६) अच्छे-बुरे-कर्म -फल रूप अच्छी-बुरी योनि द्वारा सुधार के लिये, कल्याण की भावना से दु:ख-सुख देकर रक्षा करता है। राजा न्यायकारी हो तो पाप अत्याचार बन्द हो जाते हैं। सुख-शान्ति की स्थापना में राजा रक्षक है। इसी प्रकार ईश्वर बुरे कर्मों का फल गधे- घोड़े बनाकर, सजा देकर हमारी रक्षा करता है।
  • (७) सूर्य-पृथ्वी की उचित दूरी रख बुद्धिमत्ता से हमारे प्राणों की रक्षा करता है। वर्षा, अग्नि, जल, वायु आदि से शरीर और जगत् की रक्षा करता है। सब प्राणियों को अपने प्राणों की रक्षा के लिये सतर्कता का स्वाभाविक ज्ञान व मनुष्य को विविध कार्य क्षेत्र में संलग्न रखते हुए स्वरक्षण हेतु बुद्धि आदि साधन दिये हैं।
  • (८) वेद ज्ञान देकर रक्षा-ईश्वर ने सब पदार्थ बनाकर दिये हैं। इनका उपयोग कैसे करें इसके लिये वेद -ज्ञान भी दिया है। आज भी यदि हम ईश्वराज्ञा का पालन व उपासना करते हैं तो ईश्वर ज्ञान देता है, रक्षा करता है। 'स एष पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात्'। ईश्वर पूर्व हुए गुरुओं का भी गुरु है, आगे भी रहेगा। जैसे गुरु विद्या देकर
  • रक्षा करता है इसी प्रकार ईश्वर भी विद्या द्वारा रक्षा करता है।
                              इस प्रकार ईश्वर की विविध रक्षाओं को जानें व समझें। जब व्यक्ति धनवान्, बलवान्, रूपवान्, विद्वान्, बुद्धिमान् होकर यह समझे कि वह सब ईश्वर प्रदत्त है मेरा नहीं, तो वह निष्काम भाव से तन, मन, धन से सेवा व रक्षा करता है, बदले की भावना से नहीं करता। ईश्वर जिस प्रकार की रक्षा करता है उसको वैसा जानता है, तो ईश्वर से सम्बन्ध जुड़ता है, उलटा जानने से नहीं। ईश्वर को गलत मानने, गलत ढंग से पूजा करने से ईश्वर से सम्बन्ध नहीं जुड़ता। शुद्ध उपासना द्वारा ईश्वर से सम्बन्ध जुड़ने पर बुराई से हटकर दुःख से छूट जाता है।
 
see also: ईश्वर की उपासना

ईश्वर से धन विद्या की प्राप्ति


अग्निना रयिमश्नवत्पोषमेव दिवे दिवे। यशसं वीरवत्तमम् ॥
(ऋ. १/१/३)
व्यक्ति प्रार्थना करता है - हे ईश्वर! मैं आपके द्वारा रयि (धन-सम्पत्ति-विद्या) को प्राप्त करूँ। इसकी संगति ठीक लगाते हैं तो ईश्वर हमें रयि से परिपूर्ण करता है।                          क्या ईश्वर किसी को सोना-चाँदी सीधा देता है ? उसने तो ये धातुएँ धरती में दे दी। व्यक्ति उसे निकाल कर शुद्ध करे। इंजन बनाने वाले ने लोहे से इंजन बनाया, पर लोहा ईश्वर ने निर्माण किया। इसी प्रकार धन-धान्य को भी ईश्वर ने उत्पन्न किया ईश्वर की सहायता से सूर्य, बीज, भूमि, खाद मिले। एक दाने से ईश्वर हजार दाने बनाता है। क्या कोई वैज्ञानिक एक दाना भी बना सकेगा।
                        अंगूर, मिर्च, नीबू, खजूर सब पास पास खड़े हुए हैं। कैसे पास पास होते हुए भी अलग-अलग रस वाले हुए ? बीज पहले ईश्वर ने बनाये। सत्त्व-रज-तम से अलग-अलग खट्टे-मीठे बनाये। ईश्वर से धन प्राप्त करने
का अभिप्राय है व्यक्ति परिश्रम करके ईश्वर प्रदत्त पदार्थ हासिल करे। इसी प्रकार विद्या देता है। ऋषियों को सृष्टि के आदि में परिश्रम-पुरुषार्थ के आधार पर विद्या दी, इसी प्रकार अब भी जो कोई समाधि लगाये तो विद्या देता है।
                         आज विद्या की कीमत धन के सामने कुछ नहीं समझी जाती, परन्तु ऋषियों की मान्यता है जो सुख धन-धान्य व लौकिक वस्तु से मिलता है वह विद्या से मिले सुख का हजारवाँ भाग भी नहीं। विद्या माता-पिता, आचार्य और ईश्वर सभी से मिलती है।
                        आज का धन चोर और डाकुओं को पैदा करता है। विद्या यश और वीरों को पैदा करती है।

न्यायकारी वज्ररूप ईश्वर


स वज्रभृद्दस्युहा भीम उग्रः सहस्त्रचेता: शतनीथ ऋभ्वा ।
चम्रीषो न शवसा पाञ्चजन्यो मरुत्वान्नो भवत्विन्द्र ऊती ॥
(ऋ. १/१०/१२)
हे दुष्ट नाशक परमात्मन् ! आप (वज्रभृत्) दुष्टों के छेदक सामर्थ्य से सर्वशिष्टहितकारक दुष्टविनाशक, जो न्याय उसको धारण कर रहे हो, 'प्राणो वा वज्र:' अत एव (दस्युहा) दुष्ट पापी लोगों का हनन करने वाले हो, (भीमः) आपकी न्याय आज्ञा को छोडने वालों पर भयकंर भय देने वाले हो, (सहस्त्रचेता:) सहस्त्रों विज्ञान आदि गुण वाले आप ही हो। (शतनीथ) सैकड़ों असंख्यात् पदार्थों की प्राप्ति कराने वाले हो, (ऋभ्वा) अत्यन्त विज्ञानादि प्रकाश वाले तथा महाबलवाले हो (न, चम्रीषः) किसी की चमू (=सेना) के वश को प्राप्त नहीं होते हो। (शवसा पाञ्चजन्यः) स्वबल से आप पाञ्चजन्य (= पाँच प्राणों के) जनक हो (मरुत्वान्) सब प्रकार से वायुओं के आधार तथा चालक हो, सो आप (इन्द्रः) हमारी रक्षा के लिये प्रवृत्त हों, जिससे हमारा कोई काम न बिगड़े।
                          वेद मंत्र में ईश्वर को वज्र-भयंकर-कठोर-बलशाली कहा है। जैसे बिजली पहाड़ पर गिरती है तो उसे भी तोड़ देती है। जो व्यक्ति ईश्वर को भयंकर वज्ररूप जानता है, दण्डदाता व न्यायकारी जानता है वह पाप कर्मों से बचकर ईश्वर को प्राप्त कर लेता है। जो ईश्वर को वज्र सहित जानता है वह कुछ भी उलटा कर्म नहीं करेगा। जैसा मेरा कर्म, उपासना व ज्ञान रहेगा वैसा मुझे ईश्वर से फल प्राप्त होगा। पहले ज्ञान में गड़बड़ होती है फिर कर्म में आती है। ईश्वर को छोड़ के अन्य की उपासना करेगा तो उसको दण्ड जरूर मिलेगा। यदि सही उपासना करेगा तो इसी प्रकार ज्ञान-कर्म भी ठीक करेगा।
                            ईश्वर दुष्टों का नाश करने वाला है, इसका लोगों ने गलत अर्थ माना कि ईश्वर अवतार लेकर नाश करेगा, यदि ऐसा मान लिया जाये तो विनाश के लिये अनेक शरीर धारण करने पड़ेंगे। वस्तुत: ईश्वर को शरीर धारण करने की जरूरत नहीं। ईश्वर दुष्ट कर्म करने वालों को सीधे का सीधा नष्ट नहीं करता, परन्तु मृत्यु के बाद उनको गधे-घोड़े आदि की योनि देकर सजा भुगवाता है। पाप करने वाले अधिक इसीलिये तो मनुष्येतर प्राणी अधिक हैं।
                           कोई कहे गधे, सूअर, अपनी मस्ती में मस्त व महान् विद्वान् अपनी मस्ती में मस्त इस प्रकार दोनों समान हुए। ऐसा मानने वाले विचार नहीं करते कि जो सुख का विकास मनुष्य में है उसका हजारवाँ अंश भी सुअर, गधे, कबूतर आदि में नहीं। क्या वे कभी समाधि लगा सकते हैं ?
                           अच्छा कर्म करने वाले को सतत ईश्वर से ज्ञान, बल, आनन्द, निर्भयता, उत्साह प्राप्त होता है। दुष्ट को सजा इस रूप में कि वह भयभीत क्रोधित, दु:खी रहकर दण्ड भोगता रहता है।
 
see also: वैदिक विज्ञान

ईश्वर की सर्वप्रियता


पुरूतमं पुरूणामीशानं वाय्य्याणाम् । इन्द्रं सोमे सचा सुते ॥
(ऋ-१/५/२)
अर्थ -  (पुरूतमम्) अत्यन्त उत्तम और शत्रु विनाशक ईश्वर (पुरूणाम्) बहुविध जगत् के पदार्थों के (ईशानम्) स्वामी और उत्पादक को (वार्याणाम्) वरणीय, परमानन्द मोक्षादि पदार्थों के (इन्द्रम्) परम ऐश्वर्यवान् आप को (सोमे) उत्पत्ति स्थान संसार (सचा) अत्यन्त प्रेम से (सुते) आप से उत्पन्न होने से हृदय में गावें।
                          मंत्र में एक बात कही कि हे ईश्वर ! आप सब से श्रेष्ठ- उत्तम हो। ईश्वर की श्रेष्ठता को प्राय: न समझने के कारण व्यक्ति लौकिक वस्तुओं में फॅसा रहता है। शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध के विषयों में व्यक्ति लगा रहता है। कोई न कोई लौकिक विषय उसके व्यवहार में सेवनीय बना रहता है। ये पदार्थ उत्तम हैं या ईश्वर उत्तम है, इसका परीक्षण नहीं करता। इसलिये जो विषय इन्द्रियों के सामने आते हैं उन्हीं का सेवन उन्हीं की उपासना में लगा रहता है।
                         ईश्वर के बारे में व्यक्ति को अपने आप से पूछना चाहिये जो शरीर व इसका सौन्दर्य है क्या इसे उसने स्वयं बनाया? जिन आँखो से देखता है क्या वह व्यक्ति ने स्वयं बनाई? उँगली क्या स्वयं बनाई? फिर उँगलियों पर रंग लगा लगा कर इतरा रहा है कि मेरी उँगली-मेरी उँगली। हमने क्या बनाया? लौकिक व्यक्तियों को अपने बाल-बच्चों की बहुत चिन्ता है परन्तु जो भी सुन्दरता दीखती है वह सब ईश्वर प्रदत्त है।
                         जो कुछ ईश्वर ने हमारे लिये बनाया उसका उचित प्रयोग करें और प्रयोग करते समय ईश्वर को न भूलें। ब्रह्मचारी भी गृहस्थाश्रम में जाकर सन्ध्या, हवन, पञ्चमहायज्ञ छोड़कर एडी से चोटी तक धन कमाने में ही लग जाता है। गृहस्थ के धर्म का पालन नहीं करता । क्या वह मानव जीवन जी
रहा है ?
                         मैं आत्मा, ईश्वर की दी हुई चीजों व ज्ञान के बिना कुछ भी नहीं कर सकता। यह उलटा ज्ञान है कि- पति ही भगवान्, केवल बच्चों का पालन पोषण ही भक्ति, माता-पिता की सेवा ही ईश्वर पूजा है आदि। यह सब हमारा कर्त्तव्य (धर्म) है इसे करना चाहिए परन्तु यह सब सामर्थ्य कहाँ से आया ? यह सब ईश्वर प्रदत है।
                       माँ ने दूध, केले, हलवा सब पेट रूपी हँडिया में डाल लिये, उससे दूध बना तो बच्चे को पिला दिया। उसने तो केवल भोजन को पेट में डाल दिया-दूध किसने बनाया? ईश्वर ने। फिर कहती है मेरा बच्चा ! मेराबच्चा ! मेंने पाला।
                       में नाक, कान, आँख आदि का प्रयोक्ता हूँ। ये मैंने स्वयं नहीं बनाये। इसको जैसे का तैसा मानने से क्यों हटते हो ? जिस प्रकृति का उपयोग करते हैं इस प्रकृति को इस रूप में किस ने लाकर खड़ा किया ? क्या किसी जीव में सामर्थ्य है ? वैज्ञानिक जिन धातुओं से शोध-आविष्कार करते हैं वह भी ईश्वर प्रदत्त और जिन नेत्र-हस्त आदि साधनों से करते हैं वे भी ईश्वर प्रदत्त। यह भौतिक विज्ञान भी ईश्वर ने अपने साधनों द्वारा दिया।
                      हम में जो विद्या है, बल है, धन है उसका स्वामी ईश्वर है। मनुष्य इसे अपना मानता है यह रोड़ा है। इसे हटायें । बन्दरिया की तरह मरे बच्चे को छाती से चिपका कर न रखें । में-मेरे का सम्बन्ध हटायें ।
 
see also: वैदिक साधना पद्धति

वायो अनन्त बल परेश


वायवायाहि दर्शतेमे सोमा अरङ्कृताः। तेषां पाहि श्रुधी हवम्॥
(ऋ. १/२/१)
(वायो) हे अनन्त बल परेश ! (आयाहि) अपनी कृपा से हमें प्राप्त हो। (दर्शत) हे दर्शनीय ! (इमे) वे (सोमाः) सोमवल्ली आदि औषधियों का उत्तम रस-श्रेष्ठ पदार्थ (अरड्कृता:) उत्तम रीति से बनाये गये (तेषाम्) उनको
(पाहि) स्वीकार करो (श्रुधी) सुनकर प्रसन्न होवें (हवम्) पुकार को।
                         उपासक ईश्वर को अपना माता-पिता मानकर प्रार्थना करता है। 'वायु' शब्द से ईश्वर का ग्रहण किया गया है। जो लोग ऋषियों की परम्परा को नहीं जानते वे वेद का सही अर्थ नहीं जान पाते। वायु में एक ऐसा गुण है जो उथल-पुथल मचा देता है। चक्रवात आता है, तो कितना वेगवान् होता है, वृक्ष उखाड़ देता है। समुद्र में सात मञ्जिले जहाजों का कुछ पता नहीं चलता। इस वायु की भाँति ईश्वर भी वेगवाला है कि सारे संसार को धक्का देकर चला रहा है और सारी हलचल मचाता है। जैसे इच्छामात्र से, बिना दूसरे हाथ से थामे अपने एक हाथ को जीवात्मा उठाता है इसी प्रकार ईश्वर स्वयं बिना हिले-डुले क्रिया करता है। ईश्वर में क्रिया के बिना सृष्टि कैसे बनी? जैसे चुम्बक स्वयं बिना हिले-डुले सुई को चारों ओर से खींच लेता है, क्रियाशील कर देता है।
                          दौड़-धूप स्थानान्तर करके क्रिया करना तो एक-देशीय में होता है। दौड़धूप की क्रिया सर्वव्यापक को नहीं करनी पड़ती। भौतिकवादी रूपवाली वस्तु को तो वस्तु मानते हैं, रूप रहित को पदार्थ ही नहीं मानते। जब ईश्वर में रूप है ही नहीं तो उसे आँख से कैसे देख सकते हैं। भौतिक वस्तुओं का ही रूप होता है। ईश्वर तो रूप रहित ज्ञान-गुण-बल-क्रिया वाला द्रव्य-चीज-वस्तु पदार्थ है।
 
see also: दुःख का कारण और निवारण
 

स्तुति से गुणों की प्राप्ति


अग्निः पूर्वेभित्ऋषिभिरीड्यो नूतनैरुत। स देवाँ एह वक्षति ॥
(ऋ. १/१/२ )
हे सब मनुष्यों के स्तुति करने योग्य ईश्वर अग्ने ! (पूर्वेभि:) विद्या पढ़े हुए प्राचीन (ऋषिभिः) मन्त्रार्थ देखने वाले विद्वानों और (नूतनैः) वेदार्थ पढ़ने वाले नवीन ब्रह्मचारियों से (ईड्यः) स्तुति के योग्य (उत) और जो हम लोग मनुष्य, विद्वान् वा मूर्ख हैं, उनसे भी अवश्य आप ही स्तुति के योग्य हो, सो आप हमारे और सब संसार के सुख के लिये दिव्य गुण अर्थात् विद्या को कृपा से प्राप्त कराओ। आप ही सब के इष्टदेव हो।
                        ईश्वर स्तुति से हमें क्या उपलब्ध होता है ? ईश्वर के गुणों का वर्णन, ईश्वर के विषय में जानना भी स्तुति है। जो गाते-कीर्तन करते हैं वह भी स्तुति है। किसी के अच्छे गुण को सुनने पर उस पदार्थ को प्राप्त
करने की रुचि हो जाती है। ठीक रूप में सुनना 'स्तुति' गलत रूप में सुनना 'निन्दा' है।
ईश्वर को उलटा मानना- गाना कि हे ईश्वर ! आप चौथे या सातवें आसमान में अथवा वैकुण्ठ, परमधाम में रहते हैं। यह निन्दा हुई। और गाते क्या कि :-
भोले बाबा से चाहे जो करा लो जी,
चाहे दुकान चलवा लो खेती करवा लो जी ।
और ये अवसरवादी लोग जिस मञ्च पर जायेंगे उसी मञ्च पर ऐसी ही बात करेंगे-कहेंगे भाइयों सभी धर्म मार्ग ठीक हैं। यह निन्दा है।
                       क्योंकि जो पदार्थ जैसा है उसे वैसा जानना, मानना, कहना, करना है वह स्तुति, उलटा जानना निन्दा है।
श्रवण-मनन-ज्ञान द्वारा स्तुति की जाती है। इससे ईश्वर के दिव्य गुण हमें प्राप्त होंगे। जो ईश्वर को ठीक नहीं जानता-मानता वह कैसे जानेगा कि अच्छे-बुरे काम क्या हैं ? अच्छे-बुरे काम की अन्तिम कसौटी ईश्वर ही है।क्योंकि वह अच्छे को बुरा और बुरे को अच्छा नहीं बताता। किये हुए उपकार को नहीं मानना कृतघ्नता है। जब व्यक्ति गुणों को जानता है तो उनको प्राप्त करने की प्रार्थना (याचना) भी करता है।

त्याग पूर्वक भोग


जितना भी जड़-चेतन जगत् दिखाई देता है और जो नहीं दिखाई देता है वह सारा का सारा ईश्वर से आच्छादित है।
"तेन त्यक्तेन भुंजीथाः" संसार में बनी हुई चीजों को हम खाते-पीते प्रयोग में लाते हैं। भोजन खाते हैं, बड़़ा स्वादिष्ट है। बिना राग के केवल शरीर पोषण के लिये आवश्यकतानुसार खाते हैं तो ठीक, परन्तु जब अधिक राग और स्वाद से खाते हैं तो अनर्थ करते हैं। त्याग पूर्वक खानेवाला अनुचित मात्रा में नहीं खाता। राग वाला मात्रा से अधिक खाता है। अधिक लेकर जूठा छोड़ता है, इससे अन्य के भाग की हानि भी करता है। और राग
के कारण वह ईश्वर से प्यार भी नहीं कर पायेगा। जो कपड़े भी राग से पहनता है उससे भगवान् छूट जायेगा। बाहर की चीजों को इतना सुसज्जित किया जाता है कि ईश्वर उपासना कि लिये आधा घण्टा भी नहीं बचता;
परन्तु त्याग पूर्वक प्रयोग (भोग) करता हुआ ईश्वर तक पहुँच जायेगा। व्यक्ति उठते ही एड़ी-चोटी का जोर लगाता है - संसार की चीजों को प्राप्त करने के लिये और दिनभर यही करता रहता है। भोग मनोरथों में उलझा
व्यक्ति कभी मुक्ति सुख को नहीं पा सकेगा।
 
see also: रामायण भ्रांतियां का समाधान
 

तमोगुण का प्रभाव अकर्मण्यता


तमोगुण का प्रभाव अकर्मण्यता
तमोगुणी पड़ा रहना चाहता है। आलस्य में, सोने में, काम नहीं करना चाहता परन्तु फल को चाहता है। पड़े रहने में ही आनन्द-सुख मानना। बिना कर्म किये फल चाहना। विद्यार्थी न पढ़ता न लिखता। परन्तु परीक्षा में प्रथम
आना चाहता है। यह मानसिकता क्यों बनी कि काम नहीं करना लाभदायक है। नींद को बढ़ाते-बढ़ाते बीसों घण्टे कर लेता है। और रोटी खाते-खाते भूख बढाता है। पण्डे पांच छः किलो बर्फी खा लेते हैं। यह मानव का स्वाभाविक गुण नहीं। परन्तु प्रकृति के संसर्ग से तमोगुण के प्रभाव से हम स्वयं आलस्य, प्रमाद, अकर्मण्यता को बढ़ाते जाते हैं। जीवात्मा का स्वाभाविक गुण तो 'प्रयत्न' (कर्म करना) है। कर्म तो करने लग गये परन्तु निष्काम भावना नहीं आयेगी तो बुरे काम से नहीं बचेंगे । अत: निष्काम कर्म ही उत्तम शुभ कर्म हो सकते हैं । लौकिक कामना कर्मानुसार एक सीमा तक तो ठीक, परन्तु अपने दान आदि कर्म की मात्रा से अधिक मान की इच्छा रखना या काम कोई करे नाम अपना हो यह चाहना अन्याय है।

जीवन की सार्थकता


जीवन की सार्थकता
व्यक्ति के जीवन में एक ऐसा भी क्षण आता है। जब वह वस्तुत: कुछ करना चाहता है, तो उसे जीवन में आने वाले सुख और दुःख, आनन्द और पीड़ा, सफलता और विफलता के विचारों से ऊपर उठ जाना पड़ता है।
                              दुनियाँ को जीतना हो तो व्यक्ति को प्रथम अपने आपको जीतना पड़ता है। व्यक्ति को यह समझ लेना चाहिए कि उसके जीवन का कार्य एक यज्ञ है। उसका उद्देश्य धर्म, विज्ञान, साहित्य लेखन, मानव - सेवा, तत्त्वज्ञान व योगाभ्यास से ईश्वर का सान्निध्य प्राप्त करना हो और इसका फल अन्तिम कुछ भी रहे उसे इस कार्य रूपी यज्ञ में स्वयं को सर्वस्व आहुति के रूप में स्वाहा करना है। इसे समझे बिना व्यक्ति कार्य कर ही नहीं सकता। प्रयोजन लक्ष्य लेकर चलना ही पड़ेगा।
                                 स्वयं की शक्ति और बुद्धि अनुसार अपनी प्रवृत्तियों का कुछ केन्द्रबिन्दु तो निश्चित करना ही पड़ेगा। सुख-दुःख, आनन्द-पीड़ा, सफलता-विफलता से किसी भी व्यक्ति का जीवन सर्वथा मुक्त नहीं होता। चाहे मन पसन्द भोजन मिला हो या निराहार रहना पड़ा हो परन्तु सोने से पूर्व व्यक्ति यह कहने में समर्थ हो जाये कि आज का अपना कार्य मैनें कर लिया है। तो यह आत्म संतोष ही उसके जीवन साफल्य का माप- दण्ड है।
                                मन को वश में करना, अपने अधिकार से बाहर कुछ नहीं सोचना, न करना। यह असम्भव सा दीखता है। यह अयोग्यता व अनभ्यास के कारण असम्भव लगता है। अभ्यास और वैराग्य से मन वश में होता है।
                               अपने दोषों से जो व्यक्ति प्यार करता है वह कभी उन्नति नहीं कर सकता। एक बात ठीक कर लेने से अनेक बातें ठीक होती चली जाती हैं।
                               एक-एक विचार व्यक्ति को बिगाड़ने व सुधारने में सक्षम होता है। जो विद्या जिस नियम से आती है उसी नियम से प्राप्त करनी चाहिये। उस विद्या के अनुसार सब बातें करनी पड़ेंगी। उठना-बैठना, खाना-पीना, विचारना-करना आदि आवश्यक निर्देश को सामने रखकर सुधार करेंगे तो सफलता मिलेगी, इससे विपरीत ध्यान न दिया तो सफलता नहीं मिलेगी।
                              "मनुष्य का आत्मा सत्यासत्य को जानने वाला है"। यह ऋषि की भाषा दिखावे के लिये नहीं है, जीवन की सार्थकता के लिये है। अपने प्रयत्न और ईश्वर प्रदत्त सामर्थ्य दोनों से मनुष्य सत्यासत्य को जान सकता है किन्तु हठ, दुराग्रह, मिथ्या-अभिमान और अविद्यादि दोषों के कारण झूठ में झुक जाता है। जान गया फिर भी नहीं मानता, यह हठ है। दुराग्रह उलटा आग्रह अड़ जाता है।
                              व्यक्ति जन्म से मरण पर्यन्त सुख और सुख के साधनों की प्राप्ति में प्रयत्नशील रहता है और जहाँ-जहाँ से उसे सुख मिलता है उसे प्राप्त करने में दूसरों के साथ अनुचित व्यवहार करता है । इस प्रकार का व्यक्ति सत्यासत्य को नहीं जान सकता ।

see also: संकलित पोस्ट (भाग १)
 

विचार ही से बन्ध-मुक्ति


विशेष विद्या की प्राप्ति विशेष परिश्रम से होती है। दुःखी हुए बिना दु:ख सहना और दु:ख को दु:खी होकर सहना इन में बड़ा अन्तर है। घर पर सम्बन्धी आने पर उसे सुख पूर्वक सह लेते हैं; परन्तु कोई अपरिचित आ जाये तो खिन्न भाव से रहते हैं। व्यक्ति द्वेष-क्लेश में पिसता रहता है। एक बार खट-पट होने से हमेशा उससे दु:खी होता रहता है। पूर्वकृत बुरे विचार, बुरे व्यवहार जब उपासना-साधना में आते हैं तो रोता है।
                                मान-अपमान सहन करना सीखना चाहिए। जहाँ तक सम्भव हो कष्ट सर्दी-गर्मी आदि तप समझ कर सहन करने चाहिए, इससे अभ्यास हो जाता है। सुविचार उत्पन्न करके, कुविचारों से युद्ध करके उन्हें नष्ट कर देता है। यह एक विज्ञान है सोचने का ढंग है। कुविचार ही मनुष्य के दुःख (बन्ध) और सुविचार ही मुक्ति का कारण हें।
                                सारा संसार इसलिये दु:खी है कि उसे ठीक ढंग से सोचना नहीं आता। ज्वर ग्रस्त व्यक्ति अधिक चिल्लाने से अधिक दु:खी हो जाता है। जीवन में सुविचार-कुविचार का बड़ा भारी प्रभाव पड़ता है।
                                व्यक्ति योगाभ्यास से विचारना-सोचना जानता है कि यह धन-सम्पत्ति मेरी नहीं, ईश्वर की है। और तो और मेरा शरीर, मन, बुद्धि इन्द्रियाँ जिससे मैंने यह सब प्राप्त किया वे भी ईश्वर प्रदत्त हैं। मैं इनका रक्षण व उपयोग करूँगा। जब मेरा जन्म नहीं हुआ था तब या जब मर जाऊँगा तब इसमें से मेरा कुछ न था- न रहेगा। अरबपति मर जाये तो कौड़ी भी साथ नहीं जाती है। जो चीज आती है वह आती है। संयोग है तो वियोग होगा। इस निश्चित तथ्य को जो पहले ही से जान लेता है वह आने-जाने पर शोक नहीं करता।

मृत्यु दुःख से छूटने का उपाय


अकामो धीरो अमृतः स्वयम्भूः रसेन तृप्तो न कुतश्चनोनः ।
तमेव विद्वान् न बिभाय मृत्योरात्मानं धीरमजरं युवानम् ॥
(अ. १०/८/४४)
शब्दार्थ ➨ (अकाम:) कामना रहित (धीरः) धीर धृतिमान्, सर्वज्ञ (अमृतः) अविनाशी, सदा मुक्त (स्वयम्भूः) स्वसत्ता में परनिरपेक्ष (रसेन तृप्तः) आनन्द से तृप्त=परिपूर्ण (कुतः+चन) कहीं से भी (न ऊन:) न्यून नहीं। (तम्+एव) उस ही (धीरम्+अजरम्) धीर, अजर (युवानम्) सदा नूतन-जवान (आत्मानम्) सर्वव्यापक भगवान् को (विद्वान्) जाननेवाला (मृत्योः न) मौत से नहीं (बिभाय) डरता है।
                             वह सर्वथा कामना रहित (स्वयं की कोई इच्छा नहीं, पर जीवों की भलाई की इच्छा रहती है), धीर, अमर, स्वयं अपनी सत्ता से विद्यमान, आनन्द से आप्लावित और हर तरह से पूर्ण है। उसी धीर, अजर, सदा एक रस रहने वाले आत्मस्वरूप को जानने वाला मृत्यु से नहीं डरता।
                            कोई वैज्ञानिक इस मृत्यु भय से छुटकारा नहीं दे सकता-नहीं पा सकता। पञ्च क्लेशों से छुटकारा नहीं दे सकता। 'वेदाहमेतं पुरुषं महान्तम्' । हे जिज्ञासु पुरुष ! मैं जिस-इस पूर्वोक्त बड़े-बड़े गुणों के
युक्त सूर्य के तुल्य प्रकाशस्वरूप, अन्धकार वा अज्ञान से पृथक् वर्तमान, स्वरूप से सर्वत्र पूर्ण परमात्मा को जानता हूँ। उसी को जान के आप भी दु:खदायी मरण को उल्लंघन कर सकते हो, इससे भिन्न मार्ग अभीष्ट स्थान मोक्ष के लिये विद्यमान नहीं है ।

see also: आर्य संस्कृति का संक्षेप में संपूर्ण वैदिक ज्ञान
 

योग साधक के लिये व्रत


योग साधक के लिये व्रत
ओ३म् अग्ने व्रतपते व्रतं चरिष्यामि तच्छकेयं तन्मे राध्यताम् ।
इदमहमनृतात् सत्यमुपैमि । 
(यजु. १/५)
अर्थ : अग्ने = हे सत्य धर्म के उपदेशक ईश्वर | व्रतपते = सत्य भाषणादि व्रतों के पालक, अहम् = मैं, व्रतम् = सत्य आदि आदर्श व्रतों का चरिष्यामि = पालन करूँगा। अहम् अनृतात् = में असत्य आचरण से, इदं सत्यं= इस सत्य आचरण को, उपैमि = प्राप्त करूँ, मुझे शक्ति दो कि मैं तच्छकेयम् = इस कार्य में समर्थ होऊँ, तन्मे राध्यताम् = वह मेरा व्रत सफल होवे।
                                 व्रत लेने का बड़ा महत्त्व है। उत्तम कार्यों में सब से अधिक सहयोग ईश्वर का ही होता है। आपने व्रत - संकल्प लिये, इनसे जीवन महान् बनेगा। जो व्यक्ति संकल्प लेकर चलता है वह विकास को प्राप्त होता है । जो व्रत लेकर नहीं चलता उसका जीवन निम्न स्तर को चला जाता है। व्रत का पांच क्षेत्रों मे विस्तार किया जा सकता है।
                                स्वयं में क्या त्रुटियाँ हैं। परिवार में और समाज की क्या कमियाँ हैं उन्हें दूर करें। फिर देश को देखें, शत्रुओं व दोषों को दूर करें। विशेषताओं की पूर्ति करें। इसी प्रकार विश्व और इतर प्राणियों के क्षेत्र में सोचना पड़ता है। जो व्यक्ति इन पांच क्षेत्रों में कार्य नहीं करता उसका जीवन अधूरा माना जायेगा।
                                आज का व्यक्ति झूठ बोलता, झगड़ा करता, चाय-अण्डा-मांस खाता है। सब देशवासी केवल अपने परिवार, व्यापार-धन्धे को देखने में पड़ गये। विद्यार्थी जगत् सिनेमा, टी. वी., निरुद्देश्य भटकना वा नशा करने में व्यस्त है।
                               सम्प्रदायी अधिक से अधिक चेला चेली मूंडने में वा भव्य मन्दिर, महालय, देवस्थान बनाने में लग गये। देश की तरफ किसी का ध्यान नहीं। इसी देश में पैदा हुए, इसी का अन्न-जल खाते-पीते व इसी की जड़ काटते, इसे विस्फोट से उड़ाना चाहते हैं।
                              व्यक्तिगत खाना-पीना तो पशु पक्षियों का भी होता ही है। ईश्वर को अपना माता-पिता नहीं स्वीकारते। सब के हित की बात नहीं सोचते। गद्दी पर बैठे। प्राणियों को खाने वाले लोग सर्वहित की बात कैसे सोच सकते हैं ?
                            आज देशवासी (हिन्दु) अपने शत्रुओं का तो साथ देता है; और अपनों को छोड़ देता है। जो रोग, शत्रु और दोष को छोटा मानता है उसे ये तीनों खत्म कर देते हैं। या तो इनको खत्म करो या स्वयं नष्ट हो जाओ। आन्तरिक शत्रु राग, द्वेष आदि और बाह्य शत्रु देशद्रोही राजा, मंत्री, सत्ताधीश आदि। जो अपने हितैषी की बात नहीं मानता वह विनाश को प्राप्त होता है। देश की यह दुर्दशा व्रतहीन-संकल्पहीन सत्ताधीशों ने ही की है।
                             अव्रती-दस्यु पिशाच हैं। व्रत व्यक्ति को मनुष्य बनाता है, ईश्वर से मिलाने का कार्य करता है। जो अपने व्रत-प्रतिज्ञा को नहीं पालता उसका विश्वास कोई नहीं करता। संगठन के बिना अकेला व्रती मारा जाता है। अत: व्रती को संगठन के लिए भी प्रयत्न करना चाहिए।
व्रत का महत्त्व - योग विद्या से अपना और दूसरों का कल्याण होता है। जो कुछ यहाँ सीखा व किया - इस विषय में अब कुछ संकल्प-व्रत लेकर चलो, वरना आप अपना व दूसरों का कल्याण नहीं कर सकते। व्यक्ति सोचता है कि पहले जो व्रत लिये थे वे भंग हो गये, टूट गये अत: अब व्रत नहीं लूँगा। आप उन व्रतों को फिर से दोहरायें कि मैं उन्ही व्रतों का फिर से दृढ़ता पूर्वक पालन करूँगा। न चलने वाले से सहस्त्र वार गिरकर चलने वाला ठीक है। चलने वाला न कभी कभी मञ्जिल पर अवश्य पहुँचेगा, यह निश्चित बात है।
                                गुरु के पास रहते हुए भी यम-नियम का पालन नहीं करेंगे तो सफल नहीं होंगे। वेदादि शास्त्रों को पढ़ते हुए भी सत्य को आचरण-व्यवहार में नहीं लायेंगे तो सफल नहीं होंगे। जो अपने दोषों को न देख अन्य के दोषों को प्रधानता देता है, देखता है वह निष्फल होता है। सब अपने-अपने स्तर पर नियम बनायें और व्रत लें।
                                व्यक्ति, परिवार, समाज, देश और विश्व के क्षेत्र में क्या करूँ, क्या न करूँ, यह विभाजन करना पड़ेगा। उन व्रतों पर दृढ़ रहकर वेद और राष्ट्र के रक्षण हेतु संकल्प लेना है। कई सोचते हैं अब नहीं, वृद्ध होकर जीवन लगा देंगे। पर अतिवृद्ध होकर जीवन में कुछ शेष होगा तो देगा ना ? जब जीवन में कुछ रहा ही नहीं तो क्या जीवन लगायेगा।
अनुव्रतः पितुः पुत्रः - जो सत्य न्याय मार्ग पर चलता है वह हमारा पुत्र व जो ईश्वर आज्ञा से विरुद्ध चले तो वह अपने घर में जन्म लेने मात्र से हमारा पुत्र नहीं।
एक प्रचार का काम, एक धन का सहाय, एक सेवा का कार्य, एक पुत्र वा पुत्री को देश, वेद, धर्म के लिये अर्पण करना। व्रत लो और उठते जाओ। बुद्धि पूर्वक न गिरें-शेष करते जायें। गिरने पर उठते चलो, बढ़ते चलो, मार्ग
लम्बा है पर सफल अवश्य होंगे। ऋषि की बात माने, दुनियाँ की बात से न डरें।
                          जो पुरुष वा स्री वेद-राष्ट्र की सेवा को ही अपना उद्देश्य बनाना चाहे वे अविवाहित रह सकते हैं। आगे चलने वाले, मर मिटने वाले थोड़े भी होंगे तो पीछे चलने वाले बहुत हो जायेंगे। जैसे सुभाषचन्द्र बोस, चन्द्रशेखर, भगतसिंह आदि हुए। गलत बात को मूल से ही रोक दो, वह खत्म हो जायेगी। कोई झगड़ा नहीं, लड़ाई नहीं। आक्रमण करने वालों से बुद्धिपूर्वक (जानकर) रक्षा करना। झूठ बोलने वाले की झूठ पकड़ी जाने पर वह विरोध करेगा, उससे टक्कर लेनी पड़ेगी।
                                  जिसके जीवन में व्रत, नियम, उद्देश्य, आदर्श नहीं वह मनुष्य नहीं। 'अव्रतो अमानुषः'। जो अपना आदर्श व्यक्तित्व बनाना चाहता है वह सब नियम पालन करे। व्रती के लिये कुछ भी कठिन नहीं। अव्रती के लिये सब कुछ कठिन है। एक साधक का यम-नियम का पालन तो भली प्रकार अच्छी भावना के साथ होना ही चाहिये।
                               संकल्पों के आधार पर व्यक्ति महान् बनता है। बिना व्रत पालन के व्यक्ति अच्छा नहीं बन सकता। अन्तिम निर्णय यह निकलता है कि जो अच्छे काम का व्रत लिया है उसके लिये यदि मरना भी पड़े तो भी चिन्ता नहीं। सत्य का व्रत लिया और सत्य के कारण मृत्यु आ रही है तो झूठ बोलकर जीवन बचा लिया, तब सोचे कि क्या झूठ बोलने से मैं अमर हो जाऊँगा? क्या कभी मरूँगा नहीं ? जब अपनी बुद्धि से उभरा हुआ प्रश्न आता है तो दो विचारधाराओं की टक्कर होती है। अवसरवाद की और आदर्शवाद की। अवसरवादी जहाँ-जहाँ लाभ होता है झूठ बोलता है। आदर्शवादी इतने कम रह गये कि कोई लाखों में एकाध मिलिगा, शेष सब अवसरवादी। लाभ हो रहा हो तब तो सत्य बोलते रहना, पर हानि होती देखे तो असत्य बोल देना यह अवसरवाद है। यदि पति-पत्नी भी परस्पर झूठ बोलें तो उनका सदा के लिये एक दूसरे से विश्वास उठ जाता है। परन्तु सत्य
बोलने वाले का विश्वास उसके शत्रु-विरोधी भी करते हैं। इस झूठ ने मनुष्य को मनुष्यपन से गिरा दिया-समाप्त कर दिया। लौकिक सुख और मोक्ष सुख दोनों सत्य से मिलते हैं झूठ पर चलने वाला कभी भी सुखी नहीं होता।
महात्मा सदा-मनस्येकं वचस्येकं कर्मण्येकं और दुरात्मा-मनस्यन्यद्व चस्यन्यद् कर्मण्यन्यद् होता है ।
 

नित्यानित्य-विचार व प्रलयावस्था-सम्पादन

आत्मा और शरीर के नित्य-अनित्य स्वरूप को जानने के लिए विवेक-विचार की प्रक्रिया अपनावें। बुद्धि में बैठाएँ कि यह शरीर नाशवान्है। व्यक्ति इसे नाशवान् मानता है या सदा रहनेवाला ? इसका निर्णय करके देखो, विचार करो और नित्य को नित्य तथा अनित्य को अनित्य निश्चयात्मक जानो। केवल शाब्दिक रूप से नहीं जानना है। दो और दो चार ही होते हैं इस के तुल्य दृढ निश्चयात्मक जानो कि यह शरीर अवश्य नष्ट होगा। कब होगा? चाहे कभी भी किसी भी घटना से होगा, अवश्य ही। १०१ प्रकार से मृत्यु हो सकती है। हमने एक भवन बनाया, दो बनाये, ये सारे के सारे यहीं पड़े रहेंगे। हमें जला दिया जायेगा। कुछ नहीं रहेगा। इस वास्तविक चिन्तन से व्यक्ति घबराया हुआ मिलेगा। न 'में' न ' मेरा' फिर भी नहीं मिलेगा। यह मेरा पुत्र विनय है। यह फिर कभी नहीं मिलेगा। लाखों करोड़ों वर्षों में भी नहीं। जो गया सो गया।
                                   तुम्हारी इच्छा बनी है कि इस संसार के साथ खाते-पीते सदा जुड़े रहें। पर क्या यह सम्भव है ? कैसे सदा जीयेगा ? कोई है जो सदा जीयेगा ? यदि नहीं तो फिर व्यक्ति क्यों नहीं मानता कि मैं मरूँगा ? इसी का नाम तो है अनित्य को अनित्य और नित्य को नित्य समझना। शरीर को मार दिया गया, तो फिर क्या शरीर के परमाणु, आत्मा व ईश्वर भी नाशवान् पदार्थ हैं? नहीं, ये तो सदा रहते हैं।
एक साधक - "स्वामीजी ! यह तो हम भी जानते हैं ।" स्वामीजी "यह शरीर नाशवान् है" ऐसा आप लोगों का मानना अभी केवल शाब्दिक ज्ञान है। जब व्यक्ति इसे वास्तविक जानने लगता है तो उसका जीवन बदल
जाता है, वह धर्म का पालन करने में पूरा पुरुषार्थ करता है, उसे सदा मुक्ति-प्राप्ति की लगन रहती है, उसकी संसार व संसार के भोगों से अरुचि हो जाती है। क्या आप अपने को इस स्तर पर पाते हैं ? जब साधक अनित्य को अनित्य जान लेता है तो फिर नित्य को नित्य भी जान लेता है। सत्य ज्ञान की विद्यमानता से असत्य ज्ञान का विनाश होता है।
                                  जो वस्तु तोड़ने से टूट जाती है वह नाशवान् होती है। जो वस्तु उत्पन्न होती है वह नाशवान् होती है। शंका उभर सकती है कि शरीर की उत्पति तो देखी जाती है पर पृथ्वी की उत्पति नहीं देखी जाती है। इसका समाधान सुनें। यह प्रत्यक्ष देखा जाता है कि पृथ्वी का कोई भी भाग हीरा, पत्थर, मिट्टी आदि तोड़ने से टूट जाता है, जिस वस्तु का एक अंश टूट सकता है नष्ट हो सकता है वह वस्तु पूरी भी टूट सकती है नष्ट हो सकती है अतः पृथ्वी नाशवान् है। पृथ्वी नाशवान् है क्योंकि यह अनेक खण्डों से बनी हुई है।
जो-जो वस्तु अनेक खण्डों से बनी हुई होती है वह-वह नाशवान् होती है, जैसे यह घड़ा। अत: अनेक खण्डों से बनी होने के कारण पृथ्वी भी नाशवान् है।
                                 यदि किसी वस्तु को देखकर व्यक्ति जानना चाहता है कि यह नाशवान्है  या नहीं ? तो उस वस्तु को अनन्त काल के सामने रखकर देखे। यह भूमि जिसकी सीमा नहीं दीखती वह अनन्त काल में कभी न कभी तो विनाश को प्राप्त होगी ही। फिर कभी न कभी यह बनी भी है। अनादि काल को सामने रखकर देखें कि कभी न कभी यह पृथ्वी उत्पन्न हुई। जब साधक इस परिणाम पर पहुँचता है कि यह पृथ्वी उत्पन्न हुई और विनाश को प्राप्त होगी तो इसके परिज्ञान से उसने अनित्य पृथ्वी को अनित्य जाना। पर क्या यह पृथ्वी नष्ट होने पर नितान्त अभाव रूप में बदल जाती है या खण्डों में बदल जाने से परिवर्तित हो जाती है ? जो भावरूप है उसका अभाव कभी नहीं होता। छोटे-छोटे सूक्ष्म खण्डों में परिवर्तित हो जाना पृथ्वी का नाश है।
                                प्रत्येक शरीर उत्पन्न होता है और नष्ट होता है। इसी प्रकार पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, आकाश को नाशवान् सिद्ध करें। यह शरीर नाश को प्राप्त होकर पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश इन पांच स्थूल भूतों में लीन हो जाता है। ये स्थूल भूत तन्मात्राओं (सूक्ष्म भूतों में), तन्मात्राएँ अहंकार में और अहंकार महत्तत्त्व में लीन हो जाता है। फिर महत्तत्त्व विनाश को प्राप्त होकर सत्त्व-रज-तम (प्रकृति की साम्यावस्था) को प्राप्त हो जाता है। ये सत्त्व-रज-तम आगे विनाश को प्राप्त नहीं होते। जो सूक्ष्मतम कण कभी भी, किसी भी अवस्था में न टूटें उन्हें परमाणु भी कहा जाता है।
                                 अहंकार अवयवी है, तन्मात्रा भी अवयवी है। जो-जो टूटते चले जाते हैं वे सब अवयवी कहलाते हैं। सत्त्व-रज- तम अवयव हैं, अवयवी नहीं। यह विवेक तत्त्वज्ञान कहलाता है। जो यह उत्पन्न संसार समझ में आया तो अनुत्पन्न प्रकृति (सत्त्व-रज-तम), जीव और ईश्वर भी समझ में आ सकते हैं।
                                 जब व्यक्ति बौद्धिक स्तर पर संसार को प्रलयवत् बना देता है तो समाधि (योग) प्रारम्भ हो जाता है। नित्य को नित्य और अनित्य को अनित्य समझने पर प्रलयवत् अवस्था को बुद्धि में लाकर खड़ी कर लेता है तो चितवृत्ति-निरोध हो जाता है। चितवृत्ति-निरोध का होना समाधि (योग) कहलाता है।
                                आकृति, रूप, शब्द आदि को देख-सुनकर व्यक्ति की प्रवृत्ति फैलती है और जब इन सब को अपनी बुद्धि से प्रलय अवस्था में देखता है तो प्रवृत्ति समाप्त होती है। "सत्त्व-रज-तम पड़े हुए हैं, जीवात्मा सुषुप्ति जैसी अवस्था में पड़े हुए हैं, ईश्वर नित्य-शुद्ध -बुद्ध अवस्था में रहता हुआ इन्हें ज्यों का त्यों देख रहा है"। तब साधक सारे संसार का परित्याग करता है व तब ईंश्वर की उपासना करता है। व्याप्य संसार की प्रलयवत् अवस्था में व्यापक प्रभु को देखता है। युक्तिपूर्वक जैसे कुछ धागे जोड़ने से रुमाल बनता है ऐसे ही ईश्वर द्वारा बुद्धिपूर्वक परमाणु जोड़ने से संसार बनता है।
                                प्रकृति-आत्मा-परमात्मा का विवेक प्राप्त करके देखें। क्या में जीवन में खाता-पीता, चलता-फिरता ईश्वर को स्मरण रख पा रहा हूँ? क्या मैं ईश्वर को सम्बोधित कर पा रहा हूँ ? "हे ईश्वर ये हाथ-उँगलियाँ आपने बनाई।" विचारते समय पक्षपात रहित हो अपने जीवन व्यवहार में देखें कि ये हैं या नहीं ? आप अपने को नारद मुनि की तरह मन्त्रवित् ही पायेंगे। आत्मवित् तो शोक को प्राप्त नहीं होता।
                               समाधि प्राप्त नहीं हो रही, ईश्वर प्रत्यक्ष नहीं हो रहा तो यह निश्चय जानें कि ज्ञान (विवेक) व वैराग्य आपके ठीक नहीं हैं। व्यक्ति जब इस प्रकार चिन्तन करके देखता है तो अपने को मौत के मुंह में पाता है। तब डरने लगता है और सोचता है कि अभी से ये क्यों विचारें? इस डर-भय के कारण विचारना बन्द कर देता है। परन्तु विवेकी संसार को छान मारता है और उसका निष्कर्ष आता है कि मौत से बचने का कोई मार्ग नहीं है। मरना ही पड़ेगा। क्या करूँ? प्रारम्भ में स्थिति को भुलाने के लिए अपने मित्रों-साथियों में जायेगा। खेलने, बैठने, बातचीत करने में लगेगा। यह सच्चाई से मुंह मोड़ना है। परन्तु सच्चाई-वास्तविकता से कहाँ तक मुंह मोड़ेगा ? अत: पुन: सोचने लगता है। धीरे-धीरे मौत की स्थिति में अपना दाह- संस्कार देखता है। जिनको अपना कहता था वे मेरे नहीं रहे, में उनका नहीं रहा। नाम और नामी का अभाव प्रतीत होने लगता है। फिर मृत्यु तक का डर जीत सकता है। बौद्धिक स्तर पर जब कोठी, धनादि सर्वस्व की आहुति देकर अकेला खड़ा रह पाता है तो मृत्यु तक को जीत लेता है।
                                 आगे व्यक्ति सोचने लगा, मेरी हालत तो हो गई सो हो गई परन्तु क्या इन सब मनुष्यादि शरीरधारियों की स्थिति भी यही होगी ? अपने परिवार, पड़ोस, समाज, जगत्, पशु-पक्षियों आदि सब का विनाश अवश्यम्भावी है ? वर्तमान में विद्यमान शरीरधारियों को तो समाप्त कर दिया पर क्या ये संततियाँ यूं ही चलती रहेंगी या अनन्त काल में कभी न कभी, कभी न कभी समाप्त होंगी? ऋषियों की यह बात "एक के पीछे एक सब समाप्त होंगे" अनुमान-प्रमाण से भी सिद्ध होगी।
                                 आगे विचारता है कि जब यह बनना-बिगड़ना-बनना-बिगड़ना होता रहता है तो यह स्वत: बनता रहता है या किसी बनाने वाले से बनता है ? हम बना नहीं सकते और स्वत: कुछ बन नहीं सकता, अत: ईश्वर बनाता है यह सिद्ध हुआ। इस प्रकार अरबों वर्षों के बाद होनेवाली प्रलय का क्षण वर्तमान में दिखाई देने लगता है। संसार प्रलयवत् दिखाई देता है तो शीघ्र समाधि प्राप्त होगी।

see also: ब्रह्म विज्ञान (भाग १)
 

इच्छा-विघात से पीड़ित मानव


प्रश्न- इच्छाओं का विघात होने पर व्यक्ति दुःखी क्यों होता है ? तथा उस दु:ख से कैसे बचा जाये ?
उत्तर- व्यक्ति मिथ्या अभिमान के कारण यह धारणा बना लेता है कि जो मैं चाहूँगा वह मेरी इच्छा पूर्ण हो जायेगी। किन्तु जब ऐसा नहीं होता तो व्यक्ति दुःखी होता है। हम मन में इच्छा करते हैं कि मेरा काम इस इस तरह हो जाये। जितना चाहता हूँ उतनी मात्रा में व इस ढंग (विधि) से हो जाये। किन्तु ऐसे शत-प्रतिशत कभी किसी की इच्छा पूर्ण नहीं होती। भौतिक स्तर पर सब कामनाओं की पूर्ति नहीं हो सकती। पर हाँ कामनाओं के संस्कार दग्धबीज किये जा सकते हैं।
दुःख से कैसे बचा जाये- व्यक्ति मनन व निदिध्यासन से इस निर्णय पर पहुँचे कि कोई किसी के पूरा अनुकूल नहीं रह सकता। हम भी किसी व्यक्ति के पूर्ण अनुकूल नहीं रहते हैं। पूर्ण अनुकूलता न होने में कारण हैं -
(१) प्रत्येक व्यक्ति कर्म करने में स्वतन्त्र है।
(२) व्यक्तियों के अपने विभिन्न संस्कार और योग्यताएँ होती हैं।
(३) व्यक्ति स्वार्थी, प्रमादी, आलसी आदि होता है।
(४) व्यक्ति के बौद्धिक स्तर गिरता और चढ़ता रहता है।
उपाय - हर समय यह मन में रखें कि घनिष्ट से घनिष्ट और निकट से निकट व्यक्ति वह चाहे मेरा पुत्र पत्नी आदि भी क्यों न हो जैसा मैं चाहता हूँ वैसा ही बोले, विचारे और वर्ताव करे यह सम्भव नहीं है । क्योंकि कत्त्ता तो कहते ही उसे हैं जो कर्तुम, अकर्तुम, अन्यथाकर्तुम्में स्वतन्त्र हो अर्थात् चाहे तो करे, न चाहे तो न करे या उल्टा करे। करने में स्वतन्त्र होने से कोई व्यक्ति हमारा विरोध भी कर सकता है। प्रत्येक व्यक्ति विचारने, बोलने, करने में स्वतन्त्र है। उस पर नियन्त्रण नहीं किया जा सकता। ईश्वर की धर्माचरण की आज्ञा को नहीं चाहे तो नहीं माने, ऐसा स्वतन्त्र है।
                             व्यक्ति वर्षों अपना तन, मन, धन लगाकर खून-पसीना बहाकर सन्तान को योग्य बनाता है; परन्तु वही बड़ा होकर स्वेच्छा से रहे और अपना सहयोग न दे ऐसा हो सकता है। यदि व्यक्ति पहले से अपना मन बना ले कि हो सकता है मेरा पुत्र मेरी इच्छानुसार नहीं रहेगा, कुछ देने पर वापिस नहीं लौटायेगा। तो इस इच्छा के विघातरूपी दु:ख से बच सकता है। भिन्न-भिन्न संस्कार और योग्यताओं के कारण व्यक्ति अपने पर किये गये उपकारों को भूल जाता है। मुझे ठीक समय पर सहयोग मिला था यह कृतज्ञता की भावना धार्मिक संस्कार न होने के कारण भूल जाता है या भुला देता है। कोई व्यक्ति याद होते हुए भी आलस्य, प्रमाद व स्वार्थवश सहयोग नहीं देता ।
                             इच्छाओं का विघात हो तो विचारें कि मैं भी तो अपने माता-पिता, पत्नी-बच्चों के अनुकूल पूरा-पूरा नहीं चलता हूँ। अत: अन्य भी मेरे अनुकूल न चलें तो दुःखी क्यों बनूँ। इन तीन बातों पर विशेष ध्यान दें -

  • (१) इस मिथ्या मान्यता को अपने मन से दूर करें कि जैसा मैं हूँ वैसा ही लोग मुझे मानें, समझे और जानें। यह आवश्यक नहीं कि परोपकारी-दानी को कोई मान, यश, कीर्ति प्रदान ही करे। यदि अन्य की बुद्धि खराब है तो वह धार्मिक को अधार्मिक, परोपकारी को स्वार्थी भी कह सकता है। ऐसी धारणा बना ले कि मेरी निन्दा भी हो सकती है। ऐसा विचारने से दु:ख नहीं होगा।
  • (२) यह आशा रखना भी गलत है कि दूसरे व्यक्ति मेरे गुणों की प्रशंसा भले ही न करें किन्तु कम से कम झूठे आरोप तो न लगायें। यह धारणा रख कर चलें कि अच्छे का भी विरोध होता है।
  • (३) सहनशीलता रखना किसी दूसरे व्यक्ति से भूल होती है तो व्यक्ति उत्तेजित हो जाता है, सहन नहीं कर सकता। प्रत्येक में जन्म-जन्मान्तर के संस्कार अलग-अलग हैं। अत: जिनसे विचार सिद्धान्त कुछ नहीं मिलते उनसे सावधानीपूर्वक व्यवहार करें या उपेक्षावृत्ति से काम लें या सहन कर लें।
                                समस्याओं का मूल कारण हम स्वयं हैं। समस्त मानसिक विपदाओं का समाधान हो सकता है, परन्तु आधि भौतिक, आधिदैविक विपदाओं का समाधान पूर्ण नहीं हो सकता।

see also: स्वाध्याय का महत्व
 

अद्वैतवाद - एक विवेचन


अद्वैतवाद
देश और विदेश में एक बहुत बड़े मत का प्रचलन है, जिसके अनुयायी लाखों की संख्या में हैं। उनकी मान्यता यह है कि केवल एक ब्रह्म की ही सत्ता है, वही सत्य है और यह संसार मिथ्या है, इसकी सत्ता नहीं है। इसी प्रकार वे जीवात्मा की भी पृथक् नित्य सत्ता नहीं मानते। अपने पक्ष की पुष्टि में अनेक हेत्वाभास (खण्डित हो जाने वाला प्रमाण) प्रस्तुत करते हैं। इसी मान्यता पर हम कुछ विवेचन प्रस्तुत कर रहे हैं।

  • १. यदि ब्रह्म ही जीव बना है तो बताया जाये वह कब बना, क्यों बना और इसको सर्वप्रथम किसने जाना ? इसका कोई उत्तर नहीं। अत: जीव ब्रह्म के अद्वैत का विचार भ्रान्त है।
  • २. यदि मान लें कि ब्रह्म ही जीव बना है तो सारे प्राणियों के जीव ब्रह्म के टुकड़े मानने होंगे, इससे ब्रह्म अखंड व अटूट नहीं रहेगा।
  • ३. इस प्रश्न का उत्तर भी नवीन वेदान्तियों को देना होगा कि ब्रह्म का कितना भाग अभी जीव नहीं बना और वह भाग कहाँ-कहाँ है ?
  • ४. ब्रह्म का जो भाग अभी तक जीव नहीं बना, वह किसी कारण से नहीं बना और जो जीव बना है वह क्यों बना? क्या जीव बना हुआ भाग दूसरे भाग से कमजोर है या दोषयुक्त है? यदि है तो ब्रह्म को एक रस नहीं कह सकते। जिसकी अवस्था बदलती है अर्थात् जो कभी जीव बनता है कभी ब्रह्म वह भी एक रस नहीं हो सकता।
  • ५. यह भी बताना होगा कि जीव के अन्दर ब्रह्म है या नहीं ? यदि कहें ब्रह्म सर्वव्यापक है अत: जीव के अन्दर भी है, तो प्रश्न उठेगा कि जब जीव स्वयं ब्रह्म ही है तो जीव के अन्दर व्यापक ब्रह्म कैसे माना जा सकता है? यदी कहें कि जीव में ब्रह्म नहीं रहता, तो ईश्वर सर्वव्यापक नहीं रहा।
  • ६. जिस वस्तु के अवयव (टुकड़े/अंश) हो सकते हैं वह उनके अवयवों से मिलकर बनी होती है। जिस ब्रह्म में से असंख्य जीव बन चुके व बन रहे हैं, तथा पुन: (ब्रह्म में ही) विलीन भी हो रहे हैं वह स्वयं भी केवल जीवों का संग्रह ही मानना होगा, ब्रह्म के रूप में उसका पृथक् अस्तित्व नहीं हो सकता। सावयव होने से ब्रह्म के अनित्य होने का दोष भी आयेगा।
  • ७. ब्रह्म का स्वाभाविक गुण ज्ञान है और स्वाभाविक गुण का कभी नाश नहीं होता। तब कैसे सम्भव है कि ज्ञान स्वरूप ब्रह्म कभी अज्ञानी हो जावे ?
  • ८. अविद्या वा माया क्या वस्तु है ? वह कहाँ रहती थी ? और कब उसने ब्रह्म को पकड़ कर पहले ईश्वर और फिर जीव को बनाया ?
  • ९. ब्रह्म और अविद्या के (माया के) मेल से जीव बनता है तो क्या वह अविद्या या माया से दुर्बल है ? क्या सर्वशक्तिमान को कोई अन्य शक्ति दबा सकती है ? क्या सर्वज्ञ में अविद्या रह सकती है ?
  • १०. जिस अविद्या वा माया क्या वह ब्रह्म को रोक नहीं सकती कि जीवों को कर्मफल के रूप में ब्रह्म को जीव बनाकर अपने अधीन किया, दुःख न देवे ?
  • ११. ब्रह्म या ईश्वर जो जीवों को कर्म फल दे रहा है, वह किसी अधिकार से देता है ? क्या कोई राजा या न्यायाधीश स्वयं ही दोषी या चोर बनकर अपने विरुद्ध साक्षियाँ लाता व अपने आपको दण्ड देता देखा जाता है ?
  • १२. क्या सम्भव है कि मनुष्य अपने आपको काटकर वा किसी अन्य से काटा जाकर जीवित रहे और कटे हुए भाग से काम ले वा उस पर शासन करे ? कदापि नहीं। तब परमेश्वर किस प्रकार खंड-खंड रहकर जीवित रह सकता वा जीवों पर अधिकार पा सकता है ?
  • १३. जब सब ब्रह्म ही ब्रह्म है तो प्रकृति या जड़ पदार्थ कहाँ से आ गये ? ब्रह्मा या ईश्वर को अविद्या ने जीव बनाया है तो जड़ पदार्थ भी ब्रह्म से ही बने हैं या और किसी के मेल से ? यदि कहो कि प्रकृति ब्रह्म से नहीं बनी तो मानना होगा कि ब्रह्म से अतिरिक्ति अन्य कोई वस्तु भी अनादि है और जब प्रकृति को भी अनादि माना तो जीव को अनादि मानने में क्या रुकावट है ?
  • १४. यह कहना भी निरर्थक है कि - "चूंकि जगत् स्वप्न की तरह मिथ्या है। अत: जीव भी मिथ्या है।" कारण कि यह विचार केवल कल्पनाओं पर लागू हो सकता है। कहने को यह भी कल्पना हो सकती है कि जैसे स्वप्न की बात व जगत् मिथ्या है वैसे ही ब्रह्म को मानना भी असत्य हो, ऐसे ही नवीन वेदान्ती जो अपने आपको ब्रह्म मानते हैं यह भी अज्ञान हो। तब मात्र अज्ञान ही रहेगा अन्य कुछ नहीं, ब्रह्म भी नहीं।
  • १५. यदि सर्प वास्तव में न हो तो रज्जु में सर्प की कल्पना (भ्रम) भी नही हो सकती। रज्जु में सर्प नहीं, पर सर्प में सर्प अवश्य होता है। इसी प्रकार जगत् व जीव भी भ्रान्ति मात्र नहीं। प्रत्येक वस्तु जिसके संबन्ध में कुछ भी कल्पना की जा रही हैं वह अपने यथार्थ स्थान पर सत्य अवश्य है। अत: जीव तथा जगत् किसी प्रकार भी मिथ्या नहीं है।
  • १६. जन्म से अन्धे को कभी रूप का स्वप्न नहीं आता और जो वस्तु कभी देखी या सुनी न हो वह भी कभी स्वप्न में नहीं आती। इससे सिद्ध है कि यदि जीव न होता तो ब्रह्म को जीव होने का ख्याल भी कदापि न आता। जीव की स्वतन्त्र सत्ता माने बिना ब्रह्म को जीव मान लेना भी नहीं हो सकता।
  • १७. ब्रह्म जिस अज्ञान से जीव बना है, वह अज्ञान सारे ब्रह्म को अज्ञानी क्यों नहीं करता ? क्यों ब्रह्म के कुछ (किन्हीं) अंशो को ही ग्रसित करता है ?
  • १८. घटाकाश, मठाकाश का उदाहरण देकर बताया जाता है कि घट और मठ की उपाधि से आकाश पृथक्-पृथक् दिखाई देता है अन्यथा सब आकाश एक ही है। ऐसे ही सब कुछ ब्रह्म है, जीव अविद्या से प्रतीत हो रहा है। ऐसी युक्तियाँ निरर्थक हैं। कारण कि आकाश वास्तव में विभक्त नहीं होता और न घट और मठ का आकाश पृथक्- पृथक् है, पर जीव तथा ब्रह्म तो स्पष्टतया पृथक् माने जा रहे हैं। ब्रह्म व्यापक है, जीव एकदेशी, ब्रह्म कर्मफलदाता है ,जीव कर्मकर्ता व कर्म फल भोक्ता इत्यादि। अत: इस दृष्टान्त की जीव-ब्रह्म के साथ समानता नहीं है।
  • १९. घटाकाश और मठाकाश की उपाधि वाला दृष्टान्त तो स्वयं नवीन वेदान्तियों के विरुद्ध जाता है क्योंकि घट और मठ आकाश से पृथक्  हैं। जैसे आकाश से भिन्न घट-मठ को स्वीकार करने पर ही घटाकाश-मठाकाश बनते हैं वैसे ही ब्रह्म से भिन्न अन्य किसी (अविद्या) की सत्ता मानने पर ही जीव माना जा सकेगा ऐसे में केवल ब्रह्म ही है यह सिद्धान्त खंडित हो जाता है।
  • २०. यह कहना कि "ब्रह्म ही उपाधि से ईश्वर व जीव बनता है," असत्य है। जब ब्रह्म के बिना कुछ है ही नहीं तो उपाधि कहाँ से आ गई ? जब साधारण सा ज्ञानी मनुष्य उपाधि, व्याधि से बचकर सुखपूर्वक रह सकता है, तो ज्ञान स्वरूप, सर्वशक्तिमान् ब्रह्म उपाधि का शिकार हो जावे, यह कभी स्वीकार नहीं किया जा सकता।
  • २१. यह कहना कि "उपाधि-अविद्या-माया का सम्बन्ध टूटने पर अपने स्वरूप का ज्ञान होता है और जीव फिर ब्रह्म हो जाता है," सत्य नहीं है। इससे तो जीव, ब्रह्म से अधिक ज्ञानी और शक्तिशाली सिद्ध होता है। ब्रह्म को तो उपाधि ने नीचा दिखाया, पर जीव ने उस उपाधि को बन्धन को तोड़ दिखाया।
  • २२. जीव को ब्रह्म मानें तो चोरी, व्यभिचार आदि सब पापों को करने वाला ब्रह्म ठहरता है।
  • २३. उपाधि के विषय में यह कहा जाता है कि "यह अनिर्वचनीय है" अर्थात् यह ज्ञान वाली है या अज्ञानी वाली कुछ कहा नहीं जा सकता। परन्तु ज्ञान स्वरूप ब्रह्म को अज्ञानी बनाने वाली उपाधि के अज्ञानयुक्त होने में क्या संदेह हो सकता है। उपाधि को अनिर्वचनीय बताना ही इस बात का प्रमाण है कि नवीन वेदान्तियों को अपने मन्तव्यों की सत्यता पर स्वयं विश्वास नहीं।
  • २४. यह कहना कि "ब्रह्म का प्रतिबिम्ब अन्तःकरण पर पड़ता है, जिसे चिदाभास कहते हैं, यही जीव है" सर्वथा असत्य है। प्रतिबिम्ब पड़ता है दूसरी वस्तु पर और नवीन वेदान्तियों के मत में ब्रह्म के बिना दूसरी वस्तु है ही नहीं, तो प्रतिबिम्ब पड़ा किस पर ? प्रतिबिम्ब जहाँ पड़ता है वहाँ वह वस्तु नहीं होती, इससे ब्रह्म के सर्वव्यापक न होने का दोष भी आयेगा।
  • २५. प्रतिबिम्ब पड़ता है साकार वस्तु का। पर ब्रह्म तो निराकार है उसका कोई रूप या आकार नहीं है, तो उसका प्रतिबिम्ब कैसा ?
  • २६. प्रतिबिम्ब पड़ता है फासले वाली चीज पर, परन्तु ब्रह्म सब में व्यापक है, कोई भी वस्तु उससे दूर नहीं, तब उसका प्रतिबिम्ब कैसा ?
  • २७. अन्त:करण के मेल से ब्रह्म का जीव बनता है ऐसी स्थिति में तो जहाँ-जहाँ अन्त:करण जायेगा वहाँ-वहाँ का ब्रह्म जीव बनता जायेगा तथा पूर्व स्थान पर जहाँ जीव था वह ब्रह्म होता जायेगा। कभी जीव ब्रह्म बन जायेगा तो कभी ब्रह्म जीव बन जायेगा इस प्रकार सब क्षण-क्षण में परिवर्तन होता रहेगा। कर्म को करने वाला ब्रह्म/जीव भिन्न होगा व फल को भोगने वाला ब्रह्म/जीव भिन्न होगा। ऐसे में कर्मफल व्यवस्था व्यर्थ हो जायेगी, अन्याय का दोष भी आयेगा। करे कोई अन्य व भोगे कोई अन्य।
  • २८. यह कैसे हो जाता है कि जड़ अन्त:करण ब्रह्म को जीव बना ले तथा वह स्वयं अविद्या से ग्रसित हो जावे ?
  • २९. अद्वैतवाद में किसी जीव पर विश्वास नहीं हो सकता कि वह कब तक जीव है। सम्भव है उसे अभी अन्त:करण छोड़ दे और वह ब्रह्म बन जाये। ऐसी अवस्था में तो किसी राजा किसी भी नीच से नीच अपराधी को दण्ड भी नहीं देना चाहिए क्योंकि यदि अन्तःकरण ने उसे छोड़ दिया तो वही विशुद्ध ब्रह्म बन जायेगा।
  • ३०. अन्त:करण के संयोग तथा वियोग से प्रत्येक क्षण ब्रह्म ज्ञानी तथा अज्ञानी बनता रहेगा। ऐसी स्थिति में तो ब्रह्म अखण्ड, एकरस, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान् नहीं रहेगा।
  • ३१. एक स्थान पर अन्त:करण के मेल से ब्रह्म 'जीव' बनता है और उसी अन्त:करण के दूसरे स्थान पर चले जाने से पूर्व जीव 'ब्रह्म' बन जायेगा तो ऐसी अवस्था में पूर्व स्थान में की गई बातों का स्मरण नहीं रहना चाहिए, किन्तु ऐसा तो देखने में नहीं आता। प्रत्येक मनुष्य को अपने बाल्यावस्था तक की अनेक बातें स्मरण रहती हैं। अन्त:करण तो जड़ है, जड़ कभी स्मरण नहीं रखता, स्मरण तो चेतन ही रखेगा। और चेतन बार-बार बदल रहा है तो एक के अनुभव का दूसरे को स्मरण कैसे होगा ?
  • ३२. यदि ब्रह्म ही जीव बना है तो जीव को भी सर्वत्र सर्वशक्तिमान होना चाहिए, क्योंकि स्वाभाविक गुणों का कभी नाश नहीं होता।
  • ३३. कहा जाता है कि चेतन होने से जीव तथा ब्रह्म एक हैं, दो पृथक्-पृथक्न हीं हैं। परन्तु केवल एक गुण समान होने से दो पदार्थ एक नहीं माने जा सकते। जैसे भार वाला होने से अमरूद व सेब एक नहीं हो जाते। जीव तथा ब्रह्म के अनेक गुण परस्पर भिन्न भी हैं जैसे जीव एकदेशी, अल्पज्ञ, अल्पशक्तिमान् है किन्तु ब्रह्म सर्वव्यापक, सर्वज्ञ तथा सर्वशक्तिमान् है। मात्र एक या कुछ गुणों की समानता से दोनों को एक मान लेना अविद्या (अज्ञान) है।
  • ३४. यह अविद्या ऐसी बात लगती है कि स्त्री भी ब्रह्म और पुरुष भी ब्रह्म, रोटी भी ब्रह्म और मल भी ब्रह्म, चोर भी ब्रह्म और पुलिस भी ब्रह्म। ऐसी अवस्था में तो धर्माधर्म, सुख-दुःख आदि की विवेचना भी नहीं हो सकती। पेड़ा भी ब्रह्म गोबर भी ब्रह्म, तो फिर पेड़ा मुख में पड़ें तो निगलते क्यों और गोबर पड़े तो थूकते क्यों हैं?
                           उपरोक्त विवेचना पर गम्भीरतापूर्वक विचार करने पर यह सहज ही सिद्ध हो जाता है कि ब्रह्म तथा जीव को और तीसरी प्रकृति को एक मानना सर्वथा मिथ्या है, मिथ्या बातों को मानना श्रेयस्कर नहीं होता। अतः इस मान्यता को नितान्त त्याग देना चाहिए।

🕉️🚩🇮🇳🙏 नमस्ते 🕉️🚩🇮🇳🙏

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